मुख्य परीक्षा
भाषाई विविधता और शिक्षा
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की 25वीं वर्षगांठ पर संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) द्वारा जारी “लैंग्वेजेज़ मैटर: ग्लोबल गाइडेंस ऑन मल्टीलिंगुअल एजुकेशन” विषयक रिपोर्ट में वैश्विक शिक्षा परिणामों पर भाषा अवरोधों के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है।
भाषा पर UNESCO की रिपोर्ट से संबंधित मुख्य तथ्य क्या हैं?
- शिक्षा में भाषा संबंधी बाधा: वैश्विक जनसंख्या के 40% व्यक्तियों को उस भाषा में शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं है जिसे वे बोलते या समझते हैं। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में यह प्रतिशत बढ़कर 90% हो जाता है, जिससे लगभग 250 मिलियन से अधिक शिक्षार्थी प्रभावित होते हैं।
- प्रवासन के कारण भाषाई विविधता बढ़ रही है, तथा 31 मिलियन से अधिक विस्थापित युवाओं को शिक्षा में भाषा संबंधी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
- उपनिवेशवाद की विरासत: अनेक उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्रों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में गैर-देशी भाषाओं का उपयोग करना जारी रखा है। औपचारिक शिक्षा में स्थानीय भाषाओं को कम महत्त्व दिया जाता है, जिससे देशीय भाषा भाषी व्यक्तियों को नुकसान होता है।
- आप्रवासन और शिक्षा: आप्रवासन के कारण, विशेष रूप से उच्च आय वाले देशों में भाषाई रूप से विविधतापूर्ण कक्षाएँ विकसित हुई हैं। ये देश भाषा अर्जन सहायता, समावेशी पाठ्यक्रम और निष्पक्ष मूल्यांकन के मामले में संघर्ष करते हैं।
- नीतिगत प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हैं जिसमें कुछ देश द्विभाषी शिक्षा को बढ़ावा देते हैं, जबकि अन्य प्रमुख भाषा में त्वरित संलयन को प्राथमिकता देते हैं।
- कार्यान्वयन में चुनौतियाँ: बढ़ती जागरूकता के बावजूद, सीमित शिक्षक क्षमता, सामग्री के अभाव और सामुदायिक विरोध जैसी चुनौतियों से बहुभाषी शिक्षा के अंगीकरण में बाधा उत्पन्न होती है।
- नीतिगत अनुशंसाएँ: रिपोर्ट में संदर्भ-विशिष्ट भाषा नीतियों और पाठ्यक्रम समायोजन का सुझाव दिया गया है।
- शिक्षक प्रशिक्षण, बहुभाषी सामग्री और समावेशी शिक्षण परिवेश के लिये समर्थन।
- स्कूल नेतृत्व और सामुदायिक सहयोग के माध्यम से समावेशन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना।
नोट: अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस बांग्लादेश द्वारा प्रस्तावित किया गया था, जिसे वर्ष 1999 में आयोजित UNESCO महासम्मेलन के दौरान अनुमोदित किया गया था, और वर्ष 2000 से 21 फरवरी को विश्व स्तर पर मनाया जाता है।
- यह दिन बांग्लादेश द्वारा अपनी मातृभाषा बांग्ला की रक्षा के लिये किये गए संघर्ष का भी प्रतीक है।
- UNESCO संधारणीयता, सहिष्णुता, सम्मान और शांति को बढ़ावा देने के लिये सांस्कृतिक और भाषाई विविधता पर बल देता है।
भारत के भाषाई परिदृश्य का विकासक्रम किस प्रकार रहा है?
- प्रागैतिहासिक काल: यद्यपि भारत में मानव वास संस्कृत से पहले का है, परंतु प्रागैतिहासिक काल के कोई लिखित अभिलेख मौजूद नहीं है, जिससे प्रारंभिक भाषाओं का पुनर्निर्माण किया जाना कठिन हो गया है।
- सिंधु घाटी सभ्यता: सिंधु लिपि (2600-1900 ईसा पूर्व) अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह द्रविड़, इंडो-आर्यन या किसी अन्य भाषा परिवार के प्रारंभिक रूप का प्रतिनिधित्व करती है।
- संस्कृत, प्राकृत और तमिल का उदय: भारत में लेखन 24 शताब्दी पूर्व मुख्यतः शिलालेखों और पांडुलिपियों के माध्यम से प्रचलित हुआ था।
- संस्कृत और प्राकृत: संस्कृत एक प्रमुख साहित्यिक और विद्वत्तापूर्ण भाषा के रूप में उभरी, जबकि प्राकृत (स्थानीय शास्त्रीय मध्य भारतीय-आर्य भाषाओं का एक समूह) इसके साथ सह-अस्तित्व में रही।
- तमिल: तमिल एक स्वतंत्र शास्त्रीय भाषा के रूप में विकसित हुई, तथा संगम साहित्य (तीसरी शताब्दी ई.पू. - तीसरी शताब्दी ई.) इसकी समृद्ध साहित्यिक परंपरा का प्रतीक है।
- विदेशी और क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव:
- विदेशी भाषाएँ: इस्लामी शासन के प्रसार के साथ, फारसी और अरबी ने भारतीय भाषाओं को प्रभावित किया, जिससे उर्दू जैसे भाषाई मिश्रण का जन्म हुआ।
- पिछले 5,000 वर्षों में भारत ने अवेस्तान, ऑस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बती-बर्मी और इंडो-आर्यन जैसी भाषाओं को आत्मसात किया, जिससे एक समृद्ध भाषाई विरासत का निर्माण हुआ।
- द्रविड़ियन और तिब्बती-बर्मन विकास: पूर्वोत्तर की द्रविड़ भाषाएँ ( तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम) और तिब्बती-बर्मी भाषाएँ क्षेत्रीय साहित्य और प्रशासनिक उपयोग के साथ समृद्ध हुईं।
- विदेशी भाषाएँ: इस्लामी शासन के प्रसार के साथ, फारसी और अरबी ने भारतीय भाषाओं को प्रभावित किया, जिससे उर्दू जैसे भाषाई मिश्रण का जन्म हुआ।
- मुद्रण क्रांति: कागज़ के उपयोग और बाद में मुद्रण ने साक्षरता में परिवर्तन किया, जिससे क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों का बड़े पैमाने पर उत्पादन हुआ।
- औपनिवेशिक काल के बाद भाषा परिवर्तन:
- औपनिवेशिक प्रभाव: ब्रिटिश शासन के तहत अंग्रेज़ी प्रशासन, शिक्षा और आर्थिक अवसर की भाषा बन गई।
- फारसी और संस्कृत का ह्रास: जैसे-जैसे अंग्रेज़ी को प्रमुखता मिली, प्रशासन में फारसी का ह्रास हुआ और संस्कृत केवल धार्मिक और विद्वानों के प्रयोग तक ही सीमित रह गयी।
- आधुनिक भारतीय भाषाओं का उद्भव: हिंदी, तमिल, बंगाली, कन्नड़, मराठी और तेलुगु जैसी क्षेत्रीय भाषाओं को साहित्यिक और राजनीतिक मान्यता प्राप्त हुई।
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं के बोलने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है, जबकि इसमें शामिल न की गई भाषाओं की संख्या में गिरावट आई है।
- आदिवासी समुदायों, विशेषकर ऑस्ट्रो-एशियाई और तिब्बती-बर्मन परिवारों द्वारा बोली जाने वाली कई भाषाएँ, जनसांख्यिकीय बदलाव के कारण विलुप्तता का सामना कर रही हैं।
- प्रिंट पूंजीवाद और डिजिटल प्रौद्योगिकी के उदय के बावजूद, अंग्रेज़ी का विकास भारतीय भाषाओं, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, के लिये एक चुनौती है।
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं के बोलने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है, जबकि इसमें शामिल न की गई भाषाओं की संख्या में गिरावट आई है।
नोट: शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 दोनों शिक्षा में मातृभाषा के महत्त्व पर ज़ोर देते हैं।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने और बहुभाषी शिक्षा के माध्यम से प्रभावी, समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिये ग्रेड 5 तक, बेहतर होगा कि ग्रेड 8 तक, शिक्षण के माध्यम के रूप में घरेलू भाषा/मातृभाषा का उपयोग करने की सिफारिश की गई है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत के भाषाई परिदृश्य को आकार देने में प्रवासन तथा विस्थापित लोगों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। शिक्षा प्रणालियों का इस बढ़ती विविधता के साथ किस प्रकार समन्वय हो सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) व्याख्या:
अतः विकल्प (B) सही उत्तर है। प्रश्न: भारत के संदर्भ में 'हाइबी, हो और कुई' शब्द निम्नलिखित से संबंधित हैं: (2021) (a) उत्तर-पश्चिम भारत के नृत्य रूप उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। |


भारतीय विरासत और संस्कृति
अमीर खुसरो और सूफीवाद
प्रिलिम्स के लिये:अमीर खुसरो, सूफीवाद, ख्याल, हिंदुस्तानी संगीत, भक्ति आंदोलन, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती मेन्स के लिये:अमीर खुसरो का योगदान, भारत में सूफीवाद का प्रसार और उसका प्रभाव |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री ने अमीर खुसरो और सूफीवाद की प्रशंसा करते हुए इसे भारत की बहुलवादी विरासत के रूप में रेखांकित किया।
अमीर खुसरो कौन है?
- वह 13 वीं शताब्दी के सूफी कवि और संगीतकार थे, जिन्हें तूती-ए-हिंद, यानी 'भारत का तोता' की उपाधि दी गई थी।
- खुसरो का वास्तविक नाम अबुल हसन यामीनुद्दीन खुसरो था और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली में हुआ था।
- योगदान: उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत, सूफी कव्वाली और फारसी साहित्य में चिरस्थायी योगदान दिया।
- भाषा: उन्हें हिंदवी भाषा के विकास का श्रेय दिया जाता है , जो आधुनिक हिंदी और उर्दू की पूर्ववर्ती थी।
- उनकी साहित्यिक कृतियों में फारसी, अरबी और भारतीय परंपराओं का सम्मिश्रण था, जिससे भारतीय भाषाई विरासत समृद्ध हुई।
- उनकी साहित्यिक कृतियों में दीवान (कविता संग्रह), मसनबी (कथात्मक कविता) और ग्रंथ शामिल हैं।
- संगीत: उन्हें नए रागों की रचना करने और ख्याल (शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीत का एक रूप ) और तराना (एक लयबद्ध, तेज़गति वाली सांगीतिक रचना) जैसे संगीत रूपों को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है।
- ऐसा कहा जाता है कि अमीर खुसरो गज़ल और कव्वाली (भक्तिपूर्ण सूफी संगीत परंपरा) बनाने की कला के पहले प्रवर्तकों में से एक थे।
- मान्यताओं के अनुसार उन्होंने सितार और तबला जैसे संगीत वाद्ययंत्रों का आविष्कार किया था।
- भाषा: उन्हें हिंदवी भाषा के विकास का श्रेय दिया जाता है , जो आधुनिक हिंदी और उर्दू की पूर्ववर्ती थी।
- दिल्ली सल्तनत में भूमिका: उन्होंने लगभग पाँच सुल्तानों, मुइज़ उद दीन कैकबाद, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी, कुतुबुद्दीन मुबारक शाह और गयासुद्दीन तुगलक, और कई अन्य शक्तिशाली संरक्षकों के अधीन पाँच दशकों तक कार्य किया।
- सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता को मान्यता देते हुए उन्हें अमीर की उपाधि से सम्मानित किया।
- सूफी प्रभाव: अमीर खुसरो निजामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य थे और उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त की, जिसका प्रभाव कविताओं और संगीत में स्पष्ट है।
सूफीवाद क्या है?
- सूफीवाद इस्लाम का रहस्यवादी और आध्यात्मिक आयाम है, जो अंतःशुद्धि, प्रेम और ईश्वर ( अल्लाह) के साथ प्रत्यक्ष संबंध पर केंद्रित है।
- इसका उत्थान 7वीं से 10वीं शताब्दी ई. में संस्थागत धर्म की जड़ता के विरुद्ध हुआ और इसमें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये भक्ति, आत्म-अनुशासन और भौतिकवाद के त्याग पर बल दिया जाता है।
- यह हिंदू परंपरा में आध्यात्मिक भक्ति आंदोलन के समानांतर जारी रहा, जिसमें अनुष्ठानिक प्रथाओं की तुलना में भक्ति, प्रेम और आंतरिक बोध पर बल दिया गया।
- मुख्य प्रथाएँ: सूफियों ने स्वयं को खानकाहों (धर्मशालाओं) के समीप केंद्रित समुदायों में संगठित किया, जिसका नेतृत्व एक गुरु (शेख या पीर ) करता था।
- सूफियों ने शिष्यों को ईश्वर से जोड़ने के लिये सिलसिले (सूफी आदेश) स्थापित किये और सूफी कब्रें (दरगाह) आध्यात्मिक आशीष के लिये तीर्थ स्थल बन गईं।
- सूफी लोग परमानंद की रहस्यमयी अवस्था को प्राप्त करने के लिये आत्म-दंड, ज़िक्र (ईश्वर का स्मरण), समा (संगीतमय गायन) और फना-ओ-बका (ईश्वर से मिलन के लिये स्वयं का विलय) का अभ्यास करते हैं।
- भारत में सूफीवाद: अल-हुजविरी भारत के सबसे पहले प्रमुख सूफी थे, जो लाहौर में बस गए थे, और उन्होंने कश्फ-उल महजूब की रचना की थी।
- 13वीं और 14 वीं शताब्दी में सूफीवाद का विकास हुआ, जिसने सभी के लिये करुणा और प्रेम का संदेश प्रसारित किया, जिसे सुलह-ए-कुल के नाम से जाना जाता है।
- भारत में सूफी संप्रदाय: 12वीं शताब्दी तक सूफी 12 संप्रदायों या सिलसिले में संगठित हो गए थे। प्रमुख सूफी संप्रदाय हैं:
- चिश्ती सिलसिला: यह भारत का सबसे प्रभावशाली सूफी संप्रदाय है और इसकी स्थापना अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी।
- इससे जुड़े प्रमुख व्यक्ति थे अकबर (सलीम चिश्ती के अनुयायी), कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फरीद, निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो।
- सुहरावर्दी सिलसिला: इसकी स्थापना बहाउद्दीन ज़कारिया ने मुल्तान में की थी और इसमें विलासिता और राज्य का समर्थन शामिल था।
- इसमें धार्मिक ज्ञान को रहस्यवाद के साथ जोड़ा गया तथा दिव्य ज्ञान के लिये व्यक्तिगत अनुभव और आंतरिक शुद्धि पर बल दिया गया।
- नक्शबंदी सिलसिला: इसने शरीयत की प्रधानता पर ज़ोर दिया और नवाचारों (बिद्दत ) का विरोध किया तथा संगीत सभाओं (समा) और संतों की कब्रों की तीर्थयात्रा जैसी सूफी परंपराओं को अस्वीकार कर दिया।
- मुगल सम्राट औरंगजेब ने नक्शबंदी आदेश का पालन किया।
- ऋषि सिलसिला (कश्मीर): इसकी स्थापना शेख नूरुद्दीन वली ने की थी और यह 15 वीं और 16 वीं शताब्दी के दौरान कश्मीर में फला-फूला।
- यह लोकप्रिय शैव भक्ति परंपरा से प्रेरणा लेता है और इस क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में निहित है।
- चिश्ती सिलसिला: यह भारत का सबसे प्रभावशाली सूफी संप्रदाय है और इसकी स्थापना अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी।
- प्रभाव:
- धार्मिक: व्यक्तिगत भक्ति, तौहीद (ईश्वर की एकता) और समानता पर ज़ोर दिया तथा हिंदू-मुस्लिम सह-अस्तित्व को बढ़ावा दिया।
- चिश्ती संप्रदाय ने सभी धर्मों का स्वागत किया।
- सामाजिक: हाशिये पर पड़े समूहों को आकर्षित किया, जातिगत पदानुक्रम को कमज़ोर किया, तथा शिक्षण केंद्र के रूप में खानकाहों और मदरसों की स्थापना की।
- सांस्कृतिक: भारतीय संगीत, विशेष रूप से कव्वाली को प्रभावित किया तथा बुल्ले शाह और सुल्तान बाहू जैसे कवियों के माध्यम से स्थानीय भाषा साहित्य को समृद्ध किया।
- राजनीतिक: सुलह-ए-कुल को प्रेरित किया, जिसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीतियों को आकार दिया। शासकों ने अधिकार को मज़बूत करने और धार्मिक विविधता को प्रबंधित करने के लिये सूफियों को संरक्षण दिया।
- धार्मिक: व्यक्तिगत भक्ति, तौहीद (ईश्वर की एकता) और समानता पर ज़ोर दिया तथा हिंदू-मुस्लिम सह-अस्तित्व को बढ़ावा दिया।
भक्ति और सूफी आंदोलनों के बीच समानताएँ
पहलू |
भक्ति आंदोलन |
सूफी आंदोलन |
अडिग विश्वास |
व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति भक्ति (सगुण/निर्गुण भक्ति) |
ईश्वर के प्रति प्रेम (इश्क-ए-हकीकी) और आंतरिक शुचिता |
अनुष्ठानों की अस्वीकृति |
उन्होंने ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का विरोध किया और अनुष्ठानों को विस्तार दिया। |
रूढ़िवादी इस्लामी विधिवाद का विकल्प प्रदान किया। |
प्रेम और भक्ति पर बल |
भक्ति मुक्ति (मोक्ष) का मार्ग है। |
ईश्वर से एक होने का मार्ग है प्रेम (फना - ईश्वर से मिल जाना)। |
जनसाधारण के लिये सरल भाषा |
प्रयुक्त स्थानीय भाषाएँ (हिंदी, मराठी, तमिल, आदि)। |
हिंदवी, फारसी और उर्दू में कविताएँ लिखीं। |
संगीत और कविता |
भजन और कीर्तन (मीराबाई, तुलसीदास)। |
कव्वालियाँ और सूफी कविता (अमीर खुसरो, रूमी)। |
निष्कर्ष
साहित्य, संगीत और सूफीवाद में अमीर खुसरो का योगदान भारत की बहुलवादी और समन्वयकारी परंपराओं को दर्शाता है। उनके कार्यों ने फारसी और भारतीय संस्कृतियों को जोड़ा, जबकि सूफीवाद ने भक्ति आंदोलन के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा दिया। इन परंपराओं ने भारत के समग्र सांस्कृतिक और धार्मिक लोकाचार को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को आकार देने में सूफीवाद के योगदान पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) प्रश्न. मध्यकालीन भारत के धार्मिक इतिहास के संदर्भ में, सूफी संत किस तरह के आचरण का निर्वाह करते थे? (2012)
निम्नलिखित कूट के आधार पर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (2021) प्रश्न. सूफी और मध्यकालीन रहस्यवादी संत हिंदू/मुस्लिम समाजों के धार्मिक विचारों एवं प्रथाओं या बाहरी ढाँचे को किसी भी सराहनीय सीमा तक संशोधित करने में विफल रहे। टिप्पणी कीजिये। (2014) |


सामाजिक न्याय
भारत में मोटापे का बढ़ता बोझ
प्रिलिम्स के लिये:विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), बॉडी मास इंडेक्स (BMI), राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-5, गैर-संचारी रोग (NCD), अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड्स (UPF), फिट इंडिया मूवमेंट, CSR मुख्य परीक्षा के लिये:मोटापे के बढ़ते मामले, कारण, संबंधित चिंताएँ और आगे की राह |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री ने, विशेष रूप से बच्चों में मोटापे की बढ़ती समस्या पर चिंता व्यक्त की तथा लोगों से स्वस्थ जीवनशैली अपनाने का आग्रह किया।
क्लिक टू रीड: मोटापे के मापदंडों का पुनर्मूल्यांकन
मोटापा क्या है?
- परिचय: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) मोटापे अथवा स्थूलता को वसा के असामान्य या अत्यधिक संचय के रूप में परिभाषित करता है जिससे स्वास्थ्य को खतरा होता है। 25 या उससे अधिक बॉडी मास इंडेक्स (BMI), को अधिक वज़न और 30 अथवा उससे अधिक को मोटापे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- BMI किसी वयस्क के वज़न का स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होने का आकलन करने की मूल विधि है, जिसकी गणना किलोग्राम में वज़न को मीटर वर्ग (किलोग्राम/मी²) में व्यक्ति की लंबाई से विभाजित करके की जाती है।
- मोटापे के आँकड़े:
- भारत:
- NFHS-5: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-5 (2019-21) के अनुसार, 24% भारतीय महिलाएँ और 22.9% भारतीय पुरुष अधिक वज़न अथवा मोटापे से ग्रस्त हैं।
- NFHS-5 (2019-21) के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर पाँच वर्ष से कम आयु के अधिक वज़न वाले बच्चों का प्रतिशत NFHS-4 (2015-16) के 2.1% से बढ़कर 3.4% हो गया।
- अधिक वज़न और मोटापे की दर विभिन्न राज्यों, जेंडरों और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में 8% से 50% तक भिन्न-भिन्न है।
- द लैंसेट: भारत में उदरीय मोटापे (कमर की परिधि के आधार पर) की व्यापकता महिलाओं में 40% और पुरुषों में 12% है।
- 20 वर्ष से अधिक आयु के वयस्कों में, 3 में से 1 (35 करोड़) को उदरीय मोटापा है, 4 में से 1 (25 करोड़) को सामान्य मोटापा है, तथा 5 में से 1 (21 करोड़) को उच्च कोलेस्ट्रॉल है।
- NFHS-5: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-5 (2019-21) के अनुसार, 24% भारतीय महिलाएँ और 22.9% भारतीय पुरुष अधिक वज़न अथवा मोटापे से ग्रस्त हैं।
- वैश्विक: वर्ष 1990 से वर्ष 2022 की अवधि में, बच्चों और किशोरों (5 से 19 वर्षीय) में मोटापा 2% से बढ़कर 8% हो गया, जो चार गुना वृद्धि है।
- वयस्कों (18+ वर्ष) में यह दर 7% से बढ़कर 16% हो गई।
- भारत:
- संबद्ध स्वास्थ्य जोखिम: मोटापा सभी रोगों का कारण है जिससे विभिन्न गैर-संचारी रोगों (NCD) का जोखिम अत्यधिक हो जाता है।
- हृदय संबंधी रोग (C.V.D): भारतीयों को हृदयाघात और उच्च रक्तचाप जैसी सी.वी.डी. का अनुभव अन्य देशों के लोगों की तुलना में कम-से-कम 10 वर्ष पहले होता है।
- मधुमेह: भारत में मधुमेह के सबसे अधिक मामले (101 मिलियन) हैं, और मोटापा इंसुलिन का प्रतिरोध उत्पन्न करके टाइप 2 मधुमेह के जोखिम को बढ़ाता है।
- कैंसर: भारत में मोटापा से संबंधित कैंसर के मामले वर्ष 2022 में 14.6 लाख से बढ़कर 2025 तक 15.7 लाख होने की उम्मीद है।
- जोड़ों के विकार: अधिक वजन के कारण जोड़ों पर दबाव पड़ता है, जिससे घुटने के पुराने ऑस्टियोआर्थराइटिस और पीठ दर्द जैसे अपक्षयी रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
- मनोसामाजिक प्रभाव: रोग के भय के कारण बच्चों के आत्म-सम्मान में कमी, अवसाद, चिंता उत्पन्न होती है, तथा स्कूल में उनके प्रदर्शन एवं जीवन की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है।
- आर्थिक निहितार्थ: वर्ष 2019 में, स्वास्थ्य देखभाल व्यय और उत्पादकता की हानि के कारण मोटापे के कारण भारत को 28.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर (प्रति व्यक्ति 1,800 रुपए) या सकल घरेलू उत्पाद का 1.02% का नुकसान हुआ।
- वर्ष 2030 तक भारत का मोटापे से संबंधित आर्थिक बोझ प्रति व्यक्ति 4,700 रुपए या सकल घरेलू उत्पाद का 1.57% हो सकता है।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 मोटापे को एक स्वास्थ्य संबंधी चुनौती के रूप में देखता है तथा अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों (UPF) पर अधिक कर लगाने का सुझाव देता है।
और पढ़ें..: भारत में बढ़ते मोटापे की समस्या
मोटापे के कारण क्या हैं?
- अस्वास्थ्यकर आहार: उच्च वसा, नमक और चीनी (HFSS) वाले खाद्य पदार्थों का बढ़ता उपभोग, तथा अस्वास्थ्यकर वसा से भरपूर UPF।
- कम शारीरिक गतिविधियाँ: द लैंसेट के अनुसार, ऑफिस की नौकरी और स्क्रीन पर अधिक समय बिताने जैसी जीवनशैली के कारण लगभग आधे भारतीय अपर्याप्त रूप से सक्रिय रहते हैं।
- खराब शहरी बुनियादी ढाँचा: ट्रैफिक जाम, हरे भरे स्थान में कमी और यातायात की भीड़ सक्रिय आवागमन को हतोत्साहित करते हैं।
- वायु प्रदूषण: यह सूजन का कारण बनता है, हृदय-चयापचय संबंधी जोखिम, वसा संचय को बढ़ावा देता है, तथा बाहरी गतिविधियों को हतोत्साहित करता है।
- सामाजिक-आर्थिक बाधाएँ: सार्वजनिक वितरण प्रणाली मुख्य रूप से मुख्य अनाज (चावल और गेंहूँ) प्रदान करती है, जिससे असंतुलित आहार होता है, जबकि उच्च लागत निम्न आय वर्ग के लिये पौष्टिक भोजन (फल, सब्जियाँ और दालें) को सीमित करती है।
- चूँकि 40% भारतीयों में पर्याप्त पोषक तत्त्वों की कमी है तथा 55% (78 करोड़) लोग स्वस्थ आहार का खर्च नहीं उठा सकते, इसलिये देश "भोजन या कैलोरी की कमी" से "भोजन या कैलोरी किन पर्याप्तता (असमान वितरण के साथ)" की स्थिति में पहुँच गया है।
मोटापे की रोकथाम के लिये सरकार की क्या पहल हैं?
- NCD की रोकथाम और नियंत्रण हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम
- आयुष होलिस्टिक वेलनेस सेंटर (विशेष आयुर्वेदिक देखभाल, आयुर्वेद स्वास्थ्य योजना,)
- मिशन पोषण 2.0
- ईट राइट मेला
- फिट इंडिया मूवमेंट
आगे की राह
- पोषण हस्तक्षेप: भारत के पोषण प्रयासों को 'सुपोषण अभियान' के रूप में पुनः परिकल्पित करना चाहिये, जिसमें अल्पपोषण (अस्वास्थ्यकर भोजन के अत्यधिक उपभोग को कम करना) एवं उचित सूक्ष्मपोषक तत्त्वों पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
- जापान के लोग 80% नियम (हरा हची बू ) का पालन करते हैं, अर्थात वे तब खाना बंद कर देते हैं जब उनका पेट भरने के करीब होता है। भारत में मोटापे की समस्या से निपटने के लिये ऐसी प्रथाओं को अपनाया जा सकता है।
- जन जागरूकता: मोटापे को केवल एक व्यक्तिगत मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि एक लोक स्वास्थ्य चुनौती के रूप में पहचाना जाना चाहिये।
- लोक अभियानों में इसके स्वास्थ्य जोखिमों को उजागर करने के साथ अन्य दीर्घकालिक बीमारियों की तरह इसकी रोकथाम, देखभाल एवं प्रबंधन पर बल देना चाहिये।
- आहार को विनियमित करना: HFSS और UPF पर उच्च कर लगाया जाना चाहिये, जबकि दूध एवं अंडे जैसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों पर सब्सिडी देकर उनकी लोकप्रियता बढ़ाई जानी चाहिये।
- CSR निधि को स्वस्थ खान-पान की आदतों एवं सक्रिय जीवनशैली को बढ़ावा देने हेतु आवंटित किया जाना चाहिये।
- मोटापे की जाँच: स्वास्थ्य जाँच में ऊँचाई, वज़न तथा कमर की माप अनिवार्य है, विशेष रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) पर, जहाँ डॉक्टर हर परामर्श में मोटापे के जोखिम पर ध्यान देते हैं।
- स्कूल-आधारित पहल: स्वस्थ भोजन एवं संतुलित आहार के साथ प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के जोखिमों को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
- स्कूल कैंटीनों में स्वस्थ भोजन उपलब्ध कराया जाना चाहिये तथा HFSS खाद्य पदार्थों से परहेज करना चाहिये।
- जापान के स्कूलों में प्रचलित आहार विशेषज्ञ कार्यक्रमों जैसे वैश्विक मॉडलों को अपनाने के साथ हेल्थ-प्रोमोटिंग स्कूल' पहल को लागू करना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में मोटापे की बढ़ती चुनौती एवं इसके कारणों के साथ इसे हल करने के लिये बहु-क्षेत्रीय रणनीति पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रश्न. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत किये गए प्रावधानों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युत्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न: "एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता होने के अलावा, सतत् विकास के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" विश्लेषण कीजिये। (2021) |


सामाजिक न्याय
ग्रामीण भारत में प्रोटीन का अभाव
प्रिलिम्स के लिये:कुपोषण, गरीबी, कैलोरी की कमी, हिडन हंगर, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी मेन्स के लिये:भारत में कुपोषण से संबंधित मुद्दे, कुपोषण से निपटने के लिये वर्तमान सरकारी पहल। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (ICRISAT) द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और सामर्थ्य के बावजूद ग्रामीण भारतीय लोग 'हिडन हंगर' से पीड़ित हैं।
नोट:
- हिडन हंगर: यह कुपोषण के एक ऐसे रूप को संदर्भित करता है जहाँ लोग पर्याप्त कैलोरी का उपभोग करते हैं लेकिन उनमें आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों तथा मैक्रोन्यूट्रिएंट्स (विशेष रूप से प्रोटीन) की कमी होती है।
- अंतर्राष्ट्रीय अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (ICRISAT):
- स्थापना: वर्ष 1972
- स्थिति: इसे संयुक्त राष्ट्र (विशेषाधिकार और उन्मुक्ति) अधिनियम, 1947 की धारा 3 के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा निर्दिष्ट “अंतर्राष्ट्रीय संगठन” के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- विज़न: शुष्क भूमि वाले उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में समृद्धि, खाद्य सुरक्षा एवं अनुकूलन प्राप्त करना।
- मिशन: शुष्क भूमि क्षेत्रों में गरीबी, भुखमरी एवं कुपोषण के साथ पर्यावरण क्षरण को कम करना।
हिडन हंगर पर ICRISATअध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- अनाज आधारित आहार का प्रभुत्व: ग्रामीण आहार चावल और गेहूँ पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जो दैनिक प्रोटीन सेवन का 60-75% योगदान देते हैं।
- हालाँकि, इन अनाजों में आवश्यक अमीनो एसिड की कमी होती है, जिससे आहार असंतुलित हो जाता है।
- प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों का कम उपयोग: दालें, डेयरी और पशुधन उत्पादों जैसे प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों की उपलब्धता के बावजूद, सांस्कृतिक प्राथमिकताओं, सीमित पोषण संबंधी जागरूकता और वित्तीय बाधाओं के कारण उनकी खपत कम रहती है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की सीमाएँ: हालाँकि PDS प्रभावी रूप से कैलोरी सेवन सुनिश्चित करता है, लेकिन यह पर्याप्त प्रोटीन युक्त विकल्पों को शामिल किये बिना अनाज-भारी आहार को बढ़ावा देता है, जिससे प्रोटीन की कमी बढ़ जाती है।
- शिक्षा और पोषण संबंध: महिलाओं की शिक्षा का स्तर घरेलू आहार प्रारूप को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है। बेहतर शिक्षित महिलाएँ अपने परिवार के लिये अधिक संतुलित और विविध आहार सुनिश्चित करती हैं।
- प्रोटीन उपभोग में क्षेत्रीय भिन्नताएँ: प्रोटीन सेवन को प्रभावित करने वाले कारक राज्यों और ज़िलों में भिन्न-भिन्न होते हैं, जिससे क्षेत्र-विशिष्ट पोषण हस्तक्षेप की आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है।
- कई अमीर परिवार, आर्थिक क्षमता के बावजूद, पर्याप्त प्रोटीन का उपभोग करने में असफल रहते हैं।
और पढ़ें..: भारत में बढ़ते मोटापे की समस्या
मानव में प्रोटीन की कमी के परिणाम क्या हैं?
- मांसपेशी अपक्षय और कमज़ोरी: दीर्घकालिक प्रोटीन की कमी से मांसपेशी अपक्षय होता है, जिससे कमज़ोरी, थकान और गतिशीलता में कमी आती है।
- गंभीर मामलों में कमज़ोरी से दैनिक गतिविधियों में प्रभावित होती।
- कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली: प्रोटीन एंटीबॉडी और प्रतिरक्षा कोशिका उत्पादन के लिये आवश्यक है, तथा इसकी कमी से प्रतिरक्षा कमज़ोर हो जाती है, संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है तथा रिकवरी धीमी हो जाती है।
- विकासात्मक बाधाएँ और अवरुद्ध विकास: जिन बच्चों में प्रोटीन की कमी होती है, उनमें यौवन में देरी, संज्ञानात्मक हानि और अवरुद्ध विकास होता है।
- यदि इसका उपचार न किया जाए तो इससे बच्चों में विकास संबंधी स्थायी समस्याएँ हो सकती हैं, जिसका दीर्घकालिक स्वास्थ्य और उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है।
- अंग क्षति: प्रोटीन की कमी से यकृत और गुर्दे पर दबाव पड़ता है, जिससे समय के साथ चयापचय असंतुलन, फैटी लीवर और गुर्दे की शिथिलता जैसी समस्याएँ होती हैं।
ICRISAT रिपोर्ट में कौन-सी प्रमुख अनुशंसाएँ की गई हैं?
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विविधीकरण: सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कर इसमें दलहन, कदन्न और प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थ शामिल किये जाने तथा सुभेद्य वर्गों में प्रोटीन का सेवन बढ़ाने के लिये फोर्टिफाइड खाद्य वितरण कार्यक्रमों का विस्तार किये जाने की अवश्यकता है।
- पोषण शिक्षा: संतुलित आहार और प्रोटीन उपभोग पर समुदाय-आधारित जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हुए पोषण शिक्षा को स्कूल पाठ्यक्रम और सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में एकीकृत करने की आवश्यकता है।
- महिलाओं का सशक्तीकरण: आहार विकल्पों में सुधार हेतु महिलाओं की अधिक शिक्षित करना तथा प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों तक बेहतर पहुँच की सुविधा के लिये स्वयं सहायता समूहों का सुदृढ़ीकरण किया जाना चाहिये।
- विविध कृषि पद्धतियाँ: खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये संधारणीय कृषि मॉडल को बढ़ावा देते हुए दलहन और बाजरा जैसी प्रोटीन युक्त फसलों की खेती किये जाने के हेतु प्रोत्साहन प्रदान करने की आवश्यकता है।
- लक्षित क्षेत्रीय रणनीतियाँ: यह ध्यान में रखते हुए कि प्रोटीन की खपत को प्रभावित करने वाले कारक क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होते हैं, राज्य-विशिष्ट पोषण संबंधी अभाव का निवारण करने हेतु अनुकूलित नीतियाँ विकसित की जानी चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों और बुभुक्षा पर उनके प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। भारत बुभुक्षा का निवारण करने के लिये दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चित कर सकता है? |


जैव विविधता और पर्यावरण
NBWL और वन्यजीव संरक्षण
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL), गिर राष्ट्रीय उद्यान, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, घड़ियाल, भू-स्थानिक प्रतिचित्रण, प्रोजेक्ट चीता, गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य, बन्नी घास स्थल, प्रोजेक्ट लायन, मालधारी समुदाय, वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) मेन्स के लिये:वन्यजीव संरक्षण में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) की हालिया पहलें और भूमिका |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री ने विश्व वन्यजीव दिवस (3 मार्च) के अवसर पर गिर राष्ट्रीय उद्यान (जूनागढ़, गुजरात) में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) की 7वीं बैठक की अध्यक्षता की और वन्यजीव संरक्षण के लिये कई पहलों की घोषणा की।
विश्व वन्यजीव दिवस क्या है?
- परिचय: यह दिवस प्रतिवर्ष 3 मार्च को मनाया जाता है (CITES द्वारा वर्ष 1973 में अंगीकृत) जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता ह्रास और प्रदूषण जैसे तीन ग्रहीय संकट के दौरान जैवविविधता की रक्षा की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालना है।
- उद्गम: इसकी स्थापना संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) द्वारा दिसंबर वर्ष 2013 में की गई थी।
- वर्ष 2025 थीम: वाइल्डलाइफ कंज़रवेशन फाइनेंस: इन्वेस्टिंग इन पीपल एंड प्लेनेट।
- यह संधारणीय भविष्य सुनिश्चित करने के लिये वन्यजीव संरक्षण में वित्तीय निवेश के महत्त्व पर बल देता है।
NBWL की 7वीं बैठक की प्रमुख घोषणाएँ कौन सी हैं?
- नई पहल:
- ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का संरक्षण: गंभीर रूप से संकटग्रस्त इस प्रजाति की घटती जनसंख्या के समाधान हेतु राष्ट्रीय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड संरक्षण योजना की घोषणा की गई।
- घड़ियाल संरक्षण: घड़ियालों की घटती जनसंख्या के समाधान हेतु एक नवीन घड़ियाल संरक्षण पहल शुरू की गई।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष केंद्र: मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रबंधन हेतु उत्कृष्टता केंद्र की घोषणा की गई और यह भारतीय वन्यजीव संस्थान के कोयंबटूर परिसर में स्थित होगा।
- यह त्वरित प्रतिक्रिया टीमों को उन्नत ट्रैकिंग एवं निगरानी से लैस करने के साथ संघर्ष क्षेत्रों में पहचान प्रणालियाँ तैनात करने तथा क्षेत्रीय कर्मचारियों और समुदायों को न्यूनीकरण के संबंध में प्रशिक्षित करने पर केंद्रित है।
- प्रधानमंत्री ने वनाग्नि और मानव-पशु संघर्ष के समाधान हेतु AI, ML, रिमोट सेंसिंग तथा भू-स्थानिक मानचित्रण के उपयोग पर बल दिया है।
- WII और भास्कराचार्य राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुप्रयोग एवं भू-सूचना विज्ञान संस्थान (BISAG-N) द्वारा मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने में सहयोग किया जाएगा।
- राष्ट्रीय वन्यजीव रेफरल केंद्र: प्रधानमंत्री ने जूनागढ़ में राष्ट्रीय वन्यजीव रेफरल केंद्र की आधारशिला रखी , जो वन्यजीव स्वास्थ्य एवं रोग प्रबंधन का केंद्र होगा।
- नवीन कार्यबल: भारतीय भालू , घड़ियाल और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण हेतु नवीन कार्य बलों का गठन किया गया।
- प्रोजेक्ट चीता का विस्तार: सरकार ने प्रोजेक्ट चीता को गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य (मध्य प्रदेश) और बन्नी घास के मैदानों (गुजरात) तक विस्तारित करने की घोषणा की है।
- प्रोजेक्ट लायन को मज़बूत करना: सरकार ने गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में एशियाई शेरों के क्षेत्र का विस्तार करने के क्रम में प्रोजेक्ट लायन को 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया है।
- 16वाँ एशियाई शेर संख्या आकलन, मई 2025 में होगा। यह प्रत्येक पाँच वर्ष में आयोजित किया जाता है (आखिरी बार वर्ष 2020 में किया गया था)।
- नदी डॉल्फिन आकलन: भारत की पहली नदी डॉल्फिन आकलन रिपोर्ट में गंगा, ब्रह्मपुत्र तथा सिंधु नदी घाटियों में 6,327 डॉल्फिन की पुष्टि की गई।
- वन्यजीव संरक्षण में पारंपरिक ज्ञान: प्रधानमंत्री ने NBWL और पर्यावरण मंत्रालय से अनुसंधान और विकास के लिये वनों और वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबंधन के संबंध में भारत के विभिन्न क्षेत्रों के पारंपरिक ज्ञान और पांडुलिपियों को एकत्र करने का आग्रह किया।
- सामुदायिक भागीदारी: उन्होंने वन्यजीव संरक्षण, वन अग्नि प्रबंधन और सतत् सह-अस्तित्व में सामुदायिक भागीदारी पर ज़ोर दिया।
- उदाहरणार्थ, लायन कंज़र्वेशन में मालधारी समुदाय की भूमिका।
और पढ़ें: मालधारी कौन हैं?
NBWL क्या है?
- NBWL: NBWL वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (WPA, 1972) के तहत गठित वन्यजीव संरक्षण और विकास पर एक सर्वोच्च वैधानिक निकाय है।
- संरचना: NBWL एक 47 सदस्यीय समिति है, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं, जो इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं, जबकि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री इसके उपाध्यक्ष हैं।
- इसके सदस्यों में शामिल हैं:
- वन्यजीव संरक्षण में शामिल अधिकारी
- थल सेनाध्यक्ष, रक्षा सचिव और व्यय सचिव।
- केंद्र सरकार द्वारा नामित दस प्रख्यात संरक्षणवादी, पारिस्थितिकीविद् और पर्यावरणविद्।
- कार्य: इसका उद्देश्य वन्यजीव और वन के संरक्षण और विकास को बढ़ावा देना है।
- बाघ अभयारण्यों में कार्य: राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के मार्गदर्शन से किसी भी बाघ अभयारण्य को बिना अनुमति के असंवहनीय उपयोग के लिये हस्तांतरित नहीं किया जाएगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न.भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित संरक्षित क्षेत्रों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त में से किसे टाइगर रिज़र्व घोषित किया गया है? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. भारत में जैवविविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणीजात के संरक्षण में जैवविविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018) |


शासन व्यवस्था
भारत में अधिकरणों को सशक्त बनाना
प्रिलिम्स के लिये:अधिकरण, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, सशस्त्र बल अधिकरण (AFT), न्यायाधीश एडवोकेट जनरल। मेन्स के लिये:अधिकरणों के बारे में, अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021, अधिकरणों से संबंधित चुनौतियाँ। |
स्रोत: एचटी
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय (SC) अधिकरणों को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दों की जाँच तथा अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर रहा है ।
- इसके द्वारा कुशल न्यायनिर्णयन सुनिश्चित करने और जनता का विश्वास बनाए रखने के लिये अधिकरणों को मज़बूत बनाने के महत्त्व को रेखांकित किया है।
अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 क्या है?
- परिचय:
- यह अधिनियम कुछ अपीलीय अधिकरणों को समाप्त करके तथा उनके कार्यों को उच्च न्यायालयों जैसे विद्यमान न्यायिक निकायों को हस्तांतरित करके अधिकरणों के कामकाज को सुव्यवस्थित करने के लिये बनाया गया था।
- इसे मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के तहत पेश किया गया था, जिसने अधिकरण (ट्रिब्यूनल) संबंधी सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा की शर्तें) अध्यादेश, 2021 के कुछ प्रावधानों को रद्द कर दिया था।
- प्रमुख प्रावधान:
- न्यायाधिकरण उन्मूलन: यह अधिनियम कई अपीलीय न्यायाधिकरणों को भंग करके उनके कर्तव्यों को उच्च न्यायालयों और अन्य न्यायिक निकायों को हस्तांतरित करता है।
- जाँच एवं चयन समिति: इसकी स्थापना अधिकरण के अध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्ति की सिफारिश करने के लिये की गई है।
- केंद्रीय अधिकरणों के लिये:
- अध्यक्ष: भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या CJI द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (निर्णायक मत)।
- केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सचिव।
- अधिकरण का वर्तमान/निवर्तमान अध्यक्ष, अथवा उच्चतम न्यायालय का सेवानिवृत्त न्यायाधीश, अथवा उच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश।
- गैर-मतदान सदस्य: संबंधित केंद्रीय मंत्रालय का सचिव।
- राज्य प्रशासनिक अधिकरणों के लिये:
- अध्यक्ष: संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (निर्वाचन मत)।
- राज्य सरकार के मुख्य सचिव।
- राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष।
- अधिकरण का वर्तमान/निवर्तमान अध्यक्ष अथवा उच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त न्यायाधीश।
- पदावधि और आयु सीमा: न्यूनतम आयु 50 वर्ष के साथ अध्यक्ष और सदस्यों की पदावधि 4 वर्ष होगी।
- अधिकरण के सदस्यों के लिये अधिकतम आयु सीमा 67 वर्ष और अध्यक्ष के लिये 70 वर्ष अथवा 4 वर्ष का कार्यकाल पूरा होने तक, जो भी पहले हो, है।
- अधिकरण के अध्यक्ष और सदस्य पुनर्नियुक्ति के पात्र हैं, तथा उनकी पिछली सेवा को वरीयता दी जाएगी।
- अधिकरण के सदस्यों का हटाया जाना: केंद्र सरकार खोज-सह-चयन समिति की सिफारिश पर अध्यक्ष या सदस्य को हटा सकती है।
- न्यायाधिकरण उन्मूलन: यह अधिनियम कई अपीलीय न्यायाधिकरणों को भंग करके उनके कर्तव्यों को उच्च न्यायालयों और अन्य न्यायिक निकायों को हस्तांतरित करता है।
अधिकरण क्या हैं?
- परिचय: अधिकरण अर्द्ध-न्यायिक निकाय हैं जो प्रशासन, कराधान, पर्यावरण, प्रतिभूतियों आदि से संबंधित विवादों के समाधान से संबंधित है।
- कार्य: यह विभिन्न कार्य करता है, जिसमें विवादों का समाधान करना, पक्षकारों के बीच अधिकारों का निर्धारण करना, प्रशासनिक निर्णय लेना और मौजूदा प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा करना शामिल है।
- संवैधानिक प्रावधान: अधिकरणों को भारतीय संविधान में 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से शामिल किया गया था, क्योंकि वे मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे।
- अनुच्छेद 323-A: यह लोक सेवा मामलों के लिये प्रशासनिक अधिकरणों से संबंधित है।
- अनुच्छेद 323-B: इसमें विभिन्न मामलों पर अधिकरणों से संबंधित प्रावधान किये गए हैं, जिनमें कराधान, विदेशी मुद्रा, आयात और निर्यात, औद्योगिक और श्रमिक विवाद, संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव, खाद्य सुरक्षा शामिल हैं।
अधिक जानकारी हेतु यहाँ क्लिक कीजिये: अधिकरण और न्यायालय में क्या अंतर है?
अधिकरणों से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- स्टाफ की कमी: पीठासीन अधिकारियों, न्यायिक और तकनीकी सदस्यों की कमी के कारण लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है और अधिकरण की प्रभावशीलता कम हुई है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (IBC) के मामलों से स्पष्ट होता है।
- बुनियादी ढाँचे का अभाव: NGT समेत कई अधिकरणों को अपर्याप्त न्यायालय कक्ष, डिजिटल केस प्रबंधन और तकनीकी सहायता का सामना करना पड़ता है, जिससे केस की दक्षता प्रभावित होती है। शहरी क्षेत्रों में NGT की सीमित पहुँच से भी पर्यावरण विवादों में हाशिए पर स्थित समुदायों का न्याय तक पहुँच सीमित होता है।
- प्रक्रियागत अकुशलताएँ: बार-बार स्थगन, समय-सीमा में चूक, तथा कमज़ोर प्रवर्तन से अधिकरणों की कार्यकुशलता में बाधा उत्पन्न होती है, जिसके कारण मुवक्किल उच्चतर न्यायालयों का रुख करते हैं।
- उदाहरण के लिये, NCLT और NCLAT को अत्यधिक विलंब का सामना करना पड़ता है, जहाँ IBC के तहत 67% दिवालियापन मामले 330 दिन की समय-सीमा से अधिक समय तक लंबित रहते हैं।
- राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता: राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी, बजट की कमी और वित्त मंत्रालय द्वारा लागत में कटौती से अधिकरण की दक्षता में बाधा आती है।
आगे की राह
- त्वरित नियुक्तियाँ: अधिकरणों के कुशलतापूर्वक कार्य हेतु न्यायिक एवं तकनीकी सदस्यों की समय पर नियुक्ति आवश्यक है।
- इसके अतिरिक्त इनकी विशेषज्ञता एवं निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाने के क्रम में इन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये।
- प्रौद्योगिकी में निवेश: डिजिटलीकरण, ई-कोर्ट एकीकरण एवं क्षेत्रीय पीठों के माध्यम से अधिकरण की दक्षता को बढ़ाने से केस ट्रैकिंग को सुव्यवस्थित किया जा सकता है, देरी को कम किया जा सकता है तथा न्याय तक पहुँच में सुधार किया जा सकता है।
- प्रक्रियात्मक और प्रशासनिक सुधार: अधिकरणों को प्रक्रियात्मक एवं प्रशासनिक सुधार के माध्यम से देरी के लिये दंड लगाना चाहिये तथा लंबित मामलों को कम करने के क्रम में मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।
- रजिस्ट्री एवं प्रशासनिक स्टाफ को मज़बूत करने से कुशल केस शेड्यूलिंग एवं प्रबंधन सुनिश्चित होगा।
- स्वायत्तता और जवाबदेहिता: अधिकरणों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने हेतु अधिक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये तथा पारदर्शिता बढ़ाने, सरकारी हस्तक्षेप को न्यूनतम करने एवं कुशल संचालन के लिये पर्याप्त संसाधन आवंटन सुनिश्चित करने के क्रम में मज़बूत निरीक्षण तंत्र पर भी बल देना चाहिए।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारतीय न्यायिक प्रणाली में अधिकरणों के महत्त्व पर प्रकाश डालिये। साथ ही, पारंपरिक न्यायिक प्रणाली में न्याय के अधिकरणीकरण के प्रभाव की चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 भारत के संविधान के निम्नलिखित में से किस प्रावधान के अनुरूप बनाया गया था? (2012)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (a) |

