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डेली न्यूज़

  • 21 Oct, 2023
  • 71 min read
कृषि

सतत् कृषि के लिये सस्य आवर्तन

प्रिलिम्स के लिये:

सस्य आवर्तन, टपक/ड्रिप सिंचाई प्रणाली, सिंधु-गंगा क्षेत्र, कदन्न

मेन्स के लिये:

खेती के प्रकार, फसल पैटर्न का अर्थव्यवस्था में योगदान, रोज़गार और उत्पादन, खाद्य सुरक्षा

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे, डेलावेयर विश्वविद्यालय, कोलंबिया विश्वविद्यालय और येल स्कूल ऑफ द एन्वायरनमेंट के शोधकर्त्ताओं की एक टीम द्वारा कृषि क्षेत्र के संबंध में एक शोध किया गया, जिसे नेचर वॉटर जर्नल में प्रकाशित किया गया है।

  • यह अध्ययन भारत के उत्तरी मैदानी इलाकों, विशेष रूप से इंडो-गंगेटिक क्षेत्र में जल की खपत तथा सतत् कृषि पर केंद्रित है।
  • यह अध्ययन भारत में ऊपरी, मध्य और निचली गंगा बेसिन/क्षेत्र को कवर करते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल के 124 ज़िलों पर केंद्रित था।

अध्ययन के प्रमुख बिंदु:

  • सस्य आवर्तन के माध्यम से जल संरक्षण:
    • खरीफ सीज़न के दौरान चावल के स्थान पर कदन्न और ज्वार की खेती तथा रबी सीज़न में गेहूँ के बजाय ज्वार की खेती करने से गंगा के मैदानी क्षेत्रों में जल की खपत को 32% तक कम किया जा सकता है। साथ ही किसानों के मुनाफे को 140% तक बढ़ाया जा सकता है
  • जल संरक्षण के अतिरिक्त लाभ:
    • सस्य आवर्तन (Crop Switching) से खरीफ सीज़न में 55% और रबी सीज़न में 9% तक जल की बचत की जा सकती है।
    • किसानों के मुनाफे में खरीफ सीज़न के दौरान 139% और रबी सीज़न के दौरान 152% तक की वृद्धि की जा सकती है।
    • कैलोरी उत्पादन 39% तक बढ़ सकता है।
  • सस्य आवर्तन बनाम टपक/ड्रिप सिंचाई प्रणाली:
    • शोधकर्त्ताओं ने सिंचाई दक्षता में सुधार के साथ सस्य आवर्तन के लाभों की तुलना की और पाया कि भूजल की कमी की समस्या के निराकरण और ऊर्जा बचत में वृद्धि करने के संदर्भ में सस्य आवर्तन का प्रदर्शन टपक/ड्रिप सिंचाई प्रणाली से बेहतर है।
    • ड्रिप सिंचाई से शुद्ध भूजल पुनर्भरण में 34% सुधार होता है, जबकि सस्य आवर्तन से 41%
      • अकेले ड्रिप सिंचाई प्रणाली के उपयोग से किसान के मुनाफे में काफी वृद्धि नहीं होती।
    • सस्य आवर्तन और ड्रिप सिंचाई प्रणाली के संयुक्त प्रयोग से ज़िला स्तर पर शुद्ध पुनर्भरण दर में सबसे अधिक सुधार किया जा सकता है और यह भूजल की कमी की समस्या को 78% तक कम कर सकता है।
  • बहुउद्देश्यीय दृष्टिकोण:
    • जल संरक्षण, गुणवत्तापूर्ण फसल उत्पादन और किसानों की आय में वृद्धि के बीच संतुलन स्थापित करने के लिये एक बहुउद्देश्यीय दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
    • एकल-केंद्रित दृष्टिकोण की कुछ सीमाएँ व शर्तें होती हैं। उदाहरण के लिये अकेले जल संरक्षण को प्राथमिकता देने से बचत में 4% की वृद्धि की जा सकती है, किंतु इससे अन्य कई चीज़ों में कमी आती है; सुझाए गए विकल्पों की तुलना में कैलोरी उत्पादन में 23% और लाभ में 126% की गिरावट आती है।
    • इसी प्रकार सर्वाधिक लाभ प्राप्त करने का दृष्टिकोण जल की बचत में थोड़ी वृद्धि तो कर सकता है किंतु कैलोरी उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित भी कर सकता है।
      • उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य और खेती में कम लागत के कारण सर्वाधिक लाभ प्रदान करने वाले फसल- ज्वार की खेती करके लाभ में 58% तक की वृद्धि की जा सकती है। इस लाभ के साथ कुछ सीमाएँ भी हैं: जैसे कैलोरी उत्पादन में उल्लेखनीय 18.5% की कमी, जल की बचत में मामूली 2% की वृद्धि।
  • बेहतर पोषण के लिये पोषक अनाज:
    • ज्वार और बाजरा जैसे पोषक अनाजों की खेती से बेहतर पोषण प्राप्त होता है।
    • पोषक अनाजों की खेती से प्रोटीन उत्पादन में 46% की वृद्धि, लौह उत्पादन में 353% की वृद्धि और जस्ता उत्पादन में 82% की वृद्धि हो सकती है, जिससे उपभोक्ताओं को पोषण लाभ होगा।

उत्तर भारतीय मैदान:

  • परिचय:
    • वे हिमालय के दक्षिण में और प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर में स्थित बड़े समतल भूभाग हैं।
    • इनका निर्माण तीन प्रमुख नदी प्रणालियों- सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के जलोढ़ निक्षेपों तथा उनकी सहायक नदियों की सहायता से हुआ है।
      • ये विश्व के सबसे बड़े जलोढ़ क्षेत्र हैं।
  • भौगोलिक विवरण:
    • इंडो-गंगेटिक क्षेत्र (गंगा मैदानी क्षेत्र) में ग्रीष्मकाल और शीतऋतु के साथ उपोष्णकटिबंधीय जलवायु पाई जाती है।
    • उत्तरी मैदानों को जलोढ़ की प्रकृति और भौगोलिक आकृतियों की विविधता (उच्चावच) के आधार पर चार भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।
      • भाबर:
        • यह हिमालय की तलहटी में बजरी और कंकड़ों का एक संकीर्ण मेखला है। इसकी चौड़ाई लगभग 8 से 16 किमी. है तथा इसके छिद्रपूर्ण सतह से जल रिसता रहता है।
      • तराई:
        • यह भाबर के दक्षिण में स्थित एक दलदली क्षेत्र है। यह लगभग 20 से 30 किमी. चौड़ा है और यहाँ की मृदा समृद्ध तथा वनस्पति घनी है। यहाँ कई वन्यजीव अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान भी हैं।
      • बांगर:
        • इस क्षेत्र की मृदा में काफी मात्रा में चूना पाया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में कंकर कहा जाता है।
        • यह पुराना और ऊँचा जलोढ़ मैदान है जो नदियों के बाढ़ स्तर से ऊपर स्थित है। यह मृदा, गाद और रेत से बना है।
      • खादर: 
        • यह नदी के किनारे स्थित नवीन और निचला जलोढ़ मैदान है। यह महीन गाद और मृदा से बना है। इसका रंग हल्का होता है तथा यह बहुत उपजाऊ होता है। प्रत्येक वर्ष बाढ़ द्वारा लाई गए मृदा और जल से इसका नवीकरण होता रहता है।
  • कृषीय महत्त्व:
    • गंगा का मैदानी क्षेत्र भारतीय कृषि में एक प्रमुख भूमिका निभाता है, यह देश के कुल खाद्य उत्पादन में 30% का योगदान देता है।
      • यह भोजन के प्राथमिक स्रोत के रूप में कार्य करता है, जिसमें चावल और गेहूँ जैसे मुख्य अनाज शामिल हैं।
  • जनसांख्यिकीय महत्त्व:
    • अनुमानित 400 मिलियन निवासियों के साथ यह क्षेत्र विश्व स्तर पर सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। गंगा के मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्त्व असाधारण रूप से अधिक है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. गहन बाजरा संवर्द्धन के माध्यम से पोषण सुरक्षा हेतु पहल' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2016)

  1. इस पहल का उद्देश्य उचित उत्पादन और कटाई के बाद की तकनीकों का प्रदर्शन करना तथा मूल्यवर्द्धन तकनीकों को समेकित तरीके से क्लस्टर दृष्टिकोण के साथ प्रदर्शित करना है। 
  2. इस योजना में गरीब, छोटे, सीमांत और आदिवासी किसानों की बड़ी हिस्सेदारी है। 
  3. इस योजना का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य वाणिज्यिक फसलों के किसानों को पोषक तत्त्वों और सूक्ष्म सिंचाई उपकरणों के आवश्यक आदानों की निशुल्क किट देकर बाजरा की खेती में स्थानांतरित करने के लिये प्रोत्साहित करना है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: c


भारतीय अर्थव्यवस्था

न्यूनतम समर्थन मूल्य

प्रिलिम्स के लिये:

न्यूनतम समर्थन मूल्य, रबी और खरीफ फसलें, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP), उचित तथा लाभकारी मूल्य, फसल विविधीकरण

मेन्स के लिये:

न्यूनतम समर्थन मूल्य, देश के विभिन्न हिस्सों में प्रमुख फसलों के फसल पैटर्न, भारतीय अर्थव्यवस्था और योजना, संसाधनों को जुटाने, विकास, वृद्धि एवं रोज़गार से संबंधित मुद्दे

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र ने 2024-25 विपणन सत्र के लिये गेहूँ और पाँच अन्य रबी फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में बढ़ोतरी की घोषणा की है।

  • वर्ष 2007-2008 के बाद से गेहूँ की कीमतों में 150 रुपए प्रति क्विंटल की सबसे अधिक वृद्धि हुई है, जो कि उच्चतम स्तर है।
  • गेहूँ एक महत्त्वपूर्ण रबी फसल है और भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से दूसरी सबसे बड़ी फसल है तथा अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य:

  • परिचय:
    • MSP वह गारंटीकृत राशि है जो किसानों को तब दी जाती है जब सरकार उनकी फसल खरीदती है।
    • MSP कृषि लागत और मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs and Prices- CACP) की सिफारिशों पर आधारित है, जो उत्पादन लागत, मांग तथा आपूर्ति, बाज़ार मूल्य रुझान, अंतर-फसल मूल्य समानता आदि जैसे विभिन्न कारकों पर विचार करता है।
      • CACP कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का एक संलग्न कार्यालय है। यह जनवरी 1965 में अस्तित्व में आया।
    • भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (CCEA) MSP के स्तर पर अंतिम निर्णय (अनुमोदन) लेती है।
    • MSP का उद्देश्य उत्पादकों को उनकी फसल के लिये लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना और फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना है।
  • MSP के तहत फसलें:
  • उत्पादन लागत के तीन प्रकार:
    • CACP प्रत्येक फसल के लिये राज्य और अखिल भारतीय औसत स्तर पर तीन प्रकार की उत्पादन लागत का अनुमान लगाता है।
      • ‘A2’: इसके तहत किसान द्वारा बीज, उर्वरकों, कीटनाशकों, श्रम, पट्टे पर ली गई भूमि, ईंधन, सिंचाई आदि पर किये गए प्रत्यक्ष व्यय को शामिल किया जाता है। 
      • A2+FL': इसके तहत ‘A2’ के साथ-साथ अवैतनिक पारिवारिक श्रम का एक अधिरोपित मूल्य शामिल किया जाता है।
      • ‘C2’: यह एक अधिक व्यापक लागत है, क्योंकि इसके अंतर्गत ‘A2+FL’ में किसान की स्वामित्त्व वाली भूमि और स्थिर संपत्ति के किराए तथा ब्याज को भी शामिल किया जाता है। 
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की सिफारिश करते समय CACP द्वारा ‘A2+FL’ और ‘C2’ दोनों लागतों पर विचार किया जाता है। 
      • CACP द्वारा ‘A2+FL’ लागत की ही गणना प्रतिफल के लिये की जाती है। 
      • जबकि ‘C2’ लागत का उपयोग CACP द्वारा मुख्य रूप से बेंचमार्क लागत के रूप में किया जाता है, यह देखने के लिये कि क्या उनके द्वारा अनुशंसित MSP कम-से-कम कुछ प्रमुख उत्पादक राज्यों में इन लागतों को कवर करते हैं।
  • MSP की आवश्यकता: 
    • वर्ष 2014 और वर्ष 2015 में लगातार दो सूखे (Droughts) कि घटनाओं के कारण किसानों को वर्ष 2014 के बाद से वस्तु की कीमतों में लगातार गिरावट का सामना करना पड़ा। 
    • विमुद्रीकरण (Demonetisation) एवं  ‘वस्तु एवं सेवा कर’ ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था, मुख्य रूप से गैर-कृषि क्षेत्र के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। 
    • वर्ष 2016-17 के बाद अर्थव्यवस्था में जारी मंदी और उसके बाद कोविड महामारी के कारण अधिकांश किसानों के लिये परिदृश्य विकट बना हुआ है। 
    • डीज़ल, बिजली एवं उर्वरकों के लिये उच्च इनपुट कीमतों ने उनके संकट को और बढ़ाया है। 
    • यह सुनिश्चित करता है कि किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य मिले, जिससे कृषि संकट एवं निर्धनता को कम करने में मदद मिलती है। यह उन राज्यों में विशेष रूप से प्रमुख है जहाँ कृषि आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है

भारत में MSP व्यवस्था से संबद्ध समस्याएँ:

  • सीमितता:
    • 23 फसलों के लिये MSP की आधिकारिक घोषणा के विपरीत केवल दो- चावल और गेहूँ की खरीद की जाती है क्योंकि इन्हीं दोनों खाद्यान्नों का वितरण राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत किया जाता है। शेष अन्य फसलों के लिये यह अधिकांशतः तदर्थ व महत्त्वहीन ही है। 
    • शेष अन्य फसलों के लिये यह अधिकांशतः तदर्थ व महत्त्वहीन है। इसका अर्थ यह है कि गैर-लक्षित फसलें उगाने वाले अधिकांश किसानों को MSP से लाभ नहीं मिलता है।
  • अप्रभावी कार्यान्वयन:
    • शांता कुमार समिति ने वर्ष 2015 में अपनी रिपोर्ट में बताया था कि किसानों को MSP का मात्र 6% ही प्राप्त हो सका।
    • जिसका अर्थ यह है कि देश के 94% किसान MSP के लाभ से वंचित रहे हैं। इसका मुख्य कारण किसानों के लिये अपर्याप्त खरीद तंत्र और बाज़ार पहुँच है।
  • प्रवण फसल का प्रभुत्व:  
    • चावल और गेहूँ के लिये MSP पर ध्यान केंद्रित करने से इन दो प्रमुख खाद्य पदार्थों के पक्ष में फसल पैटर्न में बदलाव आया है। इन फसलों पर अत्यधिक बल देने से पारिस्थितिक, आर्थिक और पोषण संबंधी प्रभाव पड़ सकते हैं।
    • यह बाज़ार की मांगों के अनुरूप नहीं हो सकता है, जिससे किसानों के लिये आय की संभावना सीमित हो जाएगी।
  • बिचौलियों पर निर्भरता:
    • MSP-आधारित खरीद प्रणाली में प्रायः बिचौलिये, कमीशन एजेंट और कृषि उपज बाज़ार समितियों (APMC) के अधिकारी जैसे बिचौलिये शामिल होते हैं।
    • विशेष रूप से छोटे किसानों के लिये इन चैनलों तक पहुँच चुनौतीपूर्ण हो सकती है, जिससे अक्षमताएँ उत्पन्न होंगी और उनके लिये लाभ कम हो जाएगा।
  • सरकार पर बोझ:
    • सरकार MSP समर्थित फसलों के बफर स्टॉक की खरीद और रखरखाव में एक वृहत वित्तीय बोझ उठाती है। इससे उन संसाधनों का विचलन हो जाता है जिन्हें अन्य कृषि या ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के लिये आवंटित किया जा सकता है।

आगे की राह

  • फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करने और चावल व गेहूँ के प्रभुत्व को कम करने के लिये सरकार धीरे-धीरे MSP समर्थन हेतु पात्र फसलों की सूची का विस्तार कर सकती है। इससे किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे और बाज़ार की मांग के अनुरूप फसलों की खेती को बढ़ावा मिलेगा।
  • सभी क्षेत्रों में सभी फसलों के लिये MSP प्रदान करने के बदले सरकार उन फसलों के लिए MSP निर्धारित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है जो खाद्य सुरक्षा के लिये आवश्यक हैं और जिनका किसानों की आजीविका पर प्रभाव पड़ता है। यह लक्षित दृष्टिकोण संसाधन आवंटन को अनुकूलित करने में मदद कर सकता है।
  • यह सुनिश्चित करने के लिये खरीद तंत्र में सुधार और आधुनिकीकरण किया जाना आवश्यक है ताकि किसानों की MSP तक पहुँच प्राप्त हो। इसमें अधिक कुशल खरीद प्रणाली, बिचौलियों को कम करना और खरीद एजेंसियों की पहुँच का विस्तार करना शामिल हो सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. सभी अनाजों, दालों एवं तिलहनों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर प्रापण भारत के किसी भी राज्य/केंद्रशासित प्रदेश (यू.टी.) में असीमित होता है।
  2. अनाजों एवं दालों का MSP किसी भी राज्य/केंद्रशासित प्रदेश में उस स्तर पर निर्धारित किया जाता है, जिस स्तर पर बाज़ार मूल्य कभी नहीं पहुँच पाते।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2023)

  1. भारत सरकार काले तिल नाइजर (गुइज़ोटिया एबिसिनिका) के बीजों के लिये न्यूनतम समर्थन कीमत उपलब्ध कराती है।
  2.  काले तिल की खेती खरीफ की फसल के रूप में की जाती है।
  3. भारत के कुछ जनजातीय लोग काले तिल के बीजों का तेल भोजन पकाने के लिये प्रयोग में लाते हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल एक
(b) केवल दो
(c) सभी तीन
(d) कोई भी नहीं

उत्तर: (c)


भारतीय राजनीति

दल-बदल विरोधी कानून

प्रिलिम्स के लिये:

दल-बदल विरोधी कानून, सर्वोच्च न्यायालय (SC), संविधान की दसवीं अनुसूची, संसद सदस्य, 52वाँ संशोधन अधिनियम, 1985, 91वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003

मेन्स के लिये:

दल-बदल विरोधी कानून, वैधानिक, नियामक और विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकाय, विभिन्न अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण, संशोधन

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्री और अन्य विधायकों के विरुद्ध दल-बदल विरोधी प्रक्रिया को लंबा खींचने के लिये महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष को फटकार लगाई।

  • न्यायालय ने अयोग्यता की कार्यवाही की प्रगति में कमी पर असंतोष व्यक्त किया और अध्यक्ष से दो महीने के अंदर निर्णय लेने का आग्रह किया।
  • इससे पहले न्यायालय ने स्पीकर को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता की कार्यवाही को पूरा करने के लिये एक समय-सीमा तय करने का निर्देश दिया था।

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2022 में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को गिरा दिया गया और उसकी जगह दूसरी सरकार का गठन हुआ, जिसमें शिवसेना का एक गुट शामिल था। शिवसेना से अलग हुए गुट के नेता एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बने।
  • इसके बाद ठाकरे समूह द्वारा महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल के इस्तीफे से पूर्व विश्वास प्रस्ताव के निर्णय को चुनौती देते हुए याचिकाएँ दायर की गईं।
  • अयोग्यता की स्थिति में न केवल शिवसेना विधायकों पर बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में शिंदे के पद पर भी इसका असर पड़ेगा।

दल-बदल विरोधी कानून:

  • परिचय:
    • दल-बदल विरोधी कानून एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने पर संसद सदस्यों (सांसदों)/विधानसभा सदस्यों (विधायकों) को दंडित करता है।
    • विधायकों को दल बदलने से हतोत्साहित करके सरकारों में स्थिरता लाने के लिये संसद ने वर्ष 1985 में इसे संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में जोड़ा।
      • दसवीं अनुसूची - जिसे दल-बदल विरोधी अधिनियम के नाम से जाना जाता है, को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था।
    • यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के प्रावधान निर्धारित करता है।
      • यह वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद पार्टी छोड़ने वाले विधायकों द्वारा कई राज्य सरकारों को गिराने की प्रतिक्रिया थी।
  • इसके तहत सांसद/विधायकों को दंडित नहीं किया जाता:
    • हालाँकि, यह सांसदों/विधायकों को दल-बदल के लिये दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (विलय) की अनुमति देता है। साथ ही दल-बदल करने वाले सांसदों का समर्थन या उन्हें स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं किया जाता है।
      • वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, किसी राजनीतिक दल के एक-तिहाई निर्वाचित सदस्यों द्वारा 'दल-बदल' को 'विलय' माना जाता था।
      • लेकिन 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा इसमें बदलाव कर दिया गया और अब कानून की नज़र में वैधता के लिये किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों को "विलय" के पक्ष में होना अनिवार्य है।
    • कानून के तहत अयोग्य घोषित सदस्य किसी भी राजनीतिक दल से उसी सदन की एक सीट के लिये चुनाव लड़ सकता है
    • दल-बदल के आधार पर अयोग्यता से संबंधित मामलों पर निर्णय ऐसे सदन के सभापति अथवा अध्यक्ष को प्रेषित किया जाता है, यह प्रक्रिया 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन है।
      • हालाँकि कानून ऐसी कोई समय-सीमा नहीं निर्धारित करता है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दल-बदल मामले का फैसला करना अनिवार्य होता है।
  • दल-बदल का आधार:
    • स्वैच्छिक त्याग: यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ना चाहता है।
    • निर्देशों का उल्लंघन: यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपने राजनीतिक दल अथवा ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी भी व्यक्ति द्वारा पूर्व अनुमोदन के बिना जारी किये गए किसी आदेश के विपरीत ऐसे सदन में मतदान करता है अथवा मतदान से अनुपस्थित रहता है।
    • निर्वाचित सदस्य: यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
    • मनोनीत सदस्य: यदि कोई नामांकित सदस्य छह महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।

दलबदल का राजनीतिक व्यवस्था पर प्रभाव:

  • चुनावी जनादेश का उल्लंघन:
    • जो विधायक एक पार्टी के लिये चुने जाते हैं और फिर मंत्री पद या वित्तीय लाभ के प्रलोभन के कारण दूसरी पार्टी में जाना अधिक सुविधाजनक समझते हैं तथा पार्टी बदल लेते हैं, इसे दल-बदल के रूप में जाना जाता है, यह चुनावी जनादेश का उल्लंघन माना जाता है।
  • सरकार के सामान्य कामकाज़ पर प्रभाव:
    • कुख्यात "आया राम, गया राम" नारा 1960 के दशक में विधायकों द्वारा लगातार दल-बदल की पृष्ठभूमि में गढ़ा गया था।
    • दल-बदल के कारण सरकार में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती है और प्रशासन प्रभावित होता है।
  • हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा:
    • दल-बदल विधायकों की खरीद-फरोख्त/हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ है।

दल-बदल विरोधी कानून की चुनौतियाँ:

  • कानून का पैराग्राफ 4:
    • दल-बदल विरोधी कानून के पैराग्राफ 4 में कहा गया है कि यदि कोई राजनीतिक दल किसी अन्य दल में विलय करता है, तो उसके सदस्य अपनी सीटें नहीं खोएंगे।
      • लेकिन इस विलय के लिये सदन में उस पार्टी के पास कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन होना ज़रूरी है। कानून यह नहीं बताता कि विलय करने वाली पार्टी का राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर आधार है या नहीं।
  • प्रतिनिधि एवं संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना:
    • कानून बनने के बाद सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का आँख मूंदकर पालन करना पड़ता है और उन्हें अपने निर्णय से वोट देने की आज़ादी नहीं होती है।
    • दल-बदल विरोधी कानून ने विधायकों को मुख्य रूप से उनके राजनीतिक दल के प्रति ज़िम्मेदार ठहराकर जवाबदेही की शृंखला को बाधित कर दिया है।
  • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका:
    • दल-बदल विरोधी मामलों में सदन के सभापति या अध्यक्ष के निर्णय की समय-सीमा से संबंधित कानून में कोई स्पष्टता नहीं है।
    • कुछ मामलों में छह महीने और कुछ में तीन वर्ष भी लग जाते हैं। कुछ ऐसे मामले भी हैं जो अवधि समाप्त होने के बाद निपटाए जाते हैं।
  • विभाजन की कोई मान्यता नहीं:
    • 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2004 के कारण दल-बदल विरोधी कानून ने दल-बदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया।
      • हालाँकि यह संशोधन किसी पार्टी में 'विभाजन' को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाय 'विलय' को मान्यता देता है।
  • केवल सामूहिक दल-बदल की अनुमति:
    • यह सामूहिक दल-बदल (एक साथ कई सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति देता है लेकिन व्यक्तिगत दल-बदल (बारी-बारी से या एक-एक करके सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति नहीं देता। अतः इसमें निहित खामियों को दूर करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है।
    • उन्होंने चिंता जताई कि यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है, लेकिन उस अवधि के दौरान उसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिये।
  • बहस एवं चर्चा पर प्रभाव: 
    • बहस और चर्चा को बढ़ावा देने के बजाय भारत के दल-बदल विरोधी कानून ने पार्टियों और आँकड़ों पर आधारित लोकतंत्र का निर्माण किया है।
    • इससे संसद में किसी भी कानून पर होने वाली बहस कमज़ोर हो जाती है तथा असहमति (Dissent) एवं दलबदल (Defection) के बीच अंतर नहीं रह जाता।

आगे की राह:

  • कई विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि कानून केवल उन वोटों के लिये मान्य होना चाहिये जो सरकार की स्थिरता का निर्धारण करते हैं। उदाहरणतः वार्षिक बजट का अनुमोदन अथवा अविश्वास प्रस्ताव पारित होना।
  • राष्ट्रीय संविधान प्रकार्य समीक्षा आयोग (NCRWC) सहित विभिन्न आयोगों ने सिफारिश की है कि किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का निर्णय पीठासीन अधिकारी के बजाय राष्ट्रपति (सांसदों के मामले में) अथवा राज्यपाल (विधायकों के मामले में) द्वारा चुनाव आयोग की सलाह पर किया जाना चाहिये।
  • होलोहन के फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अध्यक्ष का कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है और इसलिये वह ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है।
  • होलोहन के फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अध्यक्ष ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं क्योंकि उनका कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संविधान की निम्नलिखित अनुसूचियों में से किसमें दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014)

(a) दूसरी अनुसूची
(b) पाँचवीं अनुसूची
(c) आठवीं अनुसूची
(d) दसवीं अनुसूची

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. कुछ वर्षों से सांसदों की व्यक्तिगत भूमिका में कमी आई है जिसके फलस्वरूप नीतिगत मामलों में स्वस्थ रचनात्मक बहस प्रायः देखने को नहीं मिलती। दल परिवर्तन विरोधी कानून, जो भिन्न उद्देश्य से बनाया गया था, को कहाँ तक इसके लिये उत्तरदायी माना जा सकता है? (2013)

प्रश्न. ‘एकदा स्पीकर, सर्वदा स्पीकर’! क्या आपके विचार में लोकसभा अध्यक्ष पद की निष्पक्षता के लिये इस कार्यप्रणाली को स्वीकारना चाहिये? भारत में संसदीय प्रयोजन की सुदृढ़ कार्यशैली के लिये इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? (2020)


जैव विविधता और पर्यावरण

अमेज़न वर्षावनों में सूखा

प्रिलिम्स के लिये:

अमेज़न वर्षावन, अल नीनो, ग्रीनहाउस गैसें, अमेज़न नदी डॉल्फिन

मेन्स के लिये:

पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, संरक्षण

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

अमेज़न वर्षावन, जिसे प्रायः "पृथ्वी के फेफड़े" कहा जाता है, वर्तमान में एक अप्रत्याशित और गंभीर सूखे का सामना कर रहा है।

  • यह पर्यावरणीय संकट स्थानीय निवासियों के जीवन में अत्यधिक व्यवधान उत्पन्न कर रहा है, जिससे संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहा है।

अमेज़न वर्षावन में सूखे के कारक:

  • अल नीनो घटना: 
    • अल नीनो घटना को अमेज़न में सूखे के प्रमुख कारकों में से एक के रूप में पहचा की गई है।
      • इसके परिणामस्वरूप प्रशांत महासागर के सतह का जल असामान्य रूप से गर्म हो जाता है, जो बाद में वर्षा के पैटर्न को प्रभावित करता है।
    • अमेज़न क्षेत्र में, अल नीनो के कारण आर्द्रता और वर्षा में कमी आती है, जिससे सूखे की स्थिति बढ़ जाती है।
  • उत्तरी उष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर में उच्च जल तापमान:
    • एक अन्य मौसमी घटना उत्तरी उष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागरीय जल का असामान्य रूप से उच्च तापमान है। समुद्र के गर्म पानी के कारण, गर्म हवा वायुमंडल में ऊपर उठती है, जो फिर अमेज़न वर्षावन तक पहुँचती है। गर्म हवा बादलों के निर्माण को रोकती है, जिससे वर्षा तेज़ी से न्यून हो जाती है।
  • मानवजनित जलवायु परिवर्तन:
    • मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन स्थिति को बदतर बना रहा है।
    • वनस्पति की इस कमी से वाष्पीकरण-उत्सर्जन कम हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप सूखे की संभावना बढ़ जाती है।
    • निर्वनीकरण, जो मुख्य रूप से कृषि और वनों की कटाई जैसी गतिविधियों के कारण होती है, अमेज़न की जलवायु को विनियमित करने एवं नमी बनाए रखने की क्षमता को बाधित करती है।
      • वनस्पति के विशाल क्षेत्रों का विनाश भी तापमान की वृद्धि में योगदान करता है, जिससे तेज़ी से गंभीर सूखे का चक्र निर्मित होता है।
  • खनन गतिविधि: 
    • क्षेत्र में अनियंत्रित खनन गतिविधियों के कारण यह समस्या और भी गंभीर हो गई है, जिससे भूमि तट निर्मित होते हैं जो नदी के मार्ग को भी बाधित करते हैं।
    • खनन के कारण जलीय तथा स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में परिवर्तन से पर्यावरण में प्रदूषक एवं ग्रीनहाउस गैसें भी निर्मुक्त हैं, जो जलवायु को अत्यधिक प्रभावित करती हैं।
  • जलविद्युत बाँध: 
    • अमेज़न में जलविद्युत बाँधों के निर्माण एवं रखरखाव से सूखे की स्थिति अधिक गंभीर हो गई है, विशेष रूप से मदीरा नदी पर जो कि अमेज़न नदी की प्रमुख सहायक नदियों में से एक है।
      • बिजली उत्पादन के लिये जलाशयों का निर्माण प्राकृतिक नदी प्रवाह को बदल देता है साथ ही जलीय और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करता है। 
      • इन जलाशयों में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से वातावरण में मीथेन (एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस) निर्मुक्त होती है।
  • परिवहन अवसंरचना: 
    • राजमार्गों जैसे बुनियादी ढाँचे का निर्माण, संरक्षित क्षेत्रों को काटकर, वनों की कटाई , वर्षावन पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।
    • साथ ही बायोम में जलवायु संबंधी विसंगतियाँ तीव्र हो रही हैं।
  • जलचक्र पर प्रभाव: 
    • ये सभी कारक मिलकर अमेज़न क्षेत्र में प्राकृतिक जल चक्र को बाधित करते हैं। 
      • इससे नदियों में जल की मात्रा में कमी, लंबे समय तक सूखा, तथा जलीय जीवों, तटवर्ती आवासों एवं इन जल संसाधनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों पर नकारात्मक प्रभाव देखे जाते हैं।

अमेज़न वर्षावन पर सूखे के प्रभाव:

  • सूखे के कारण कई नदियों में जल स्तर में भारी गिरावट आई है, जिसमें अमेज़न की सहायक नदी रियो नीग्रो भी शामिल है, जो निर्वहन स्तर के अनुसार से विश्व की सबसे बड़ी नदियों में से एक है, जिसमें रिकॉर्ड स्तर तक गिरावट आई है।

इससे हज़ारों लोग दूरदराज़ के जंगल क्षेत्रों के गाँवों में फँसे हुए हैं, जिनके पास भोजन, पीने का जल, दवा और अन्य वस्तुओं की सीमित आपूर्ति है।

कुछ समुदायों ने दूषित जल के कारण अतिसार और त्वचा संक्रमण जैसी बीमारियों के फैलने की सूचना दी है।

सूखे ने वर्षावन की जैवविविधता और वन्य जीवन को भी प्रभावित किया है। सैकड़ों मछलियाँ और अमेज़न रिवर डॉल्फिन जिन्हें बोटो या पिंक डॉल्फिन भी कहा जाता है, मृत पाए गए हैं, उनके सड़े-गले शव जल को प्रदूषित करते हैं। कई जानवर भी भूख और प्यास से पीड़ित हैं, क्योंकि उनके आवास तथा भोजन स्रोत में कमी देखी जा रही है। 

कुछ स्थानों पर सूखे के कारण जंगल की आग का खतरा रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया है।

आग के कारण बड़े पैमाने पर वनस्पति जलकर नष्ट हो गई है, वायुमंडल में भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होनेके साथ धुएँ की वजह से घनी धुंध देखी जाती है जिससे कई शहरों में हवा की गुणवत्ता तथा दृश्यता खराब स्थिति उत्पन्न हो गई है।

अमेज़न वर्षावन:

  • ये विशाल उष्णकटिबंधीय वर्षावन हैं, जो उत्तरी दक्षिण अमेरिका में अमेज़न नदी और इसकी सहायक नदियों के जल निकासी बेसिन में मौजूद हैं तथा कुल 6,000,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करते हैं।
    • विश्व के आधे से अधिक वर्षावन, जो विश्व के सबसे बड़े वर्षावन हैं, अमेज़न बेसिन में पाए जाते हैं।
  • ब्राज़ील के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40 प्रतिशत, पेरू और गुयाना, कोलंबिया, इक्वाडोर, बोलीविया, सूरीनाम, फ्रेंच गुयाना तथा वेनेज़ुएला के कुछ हिस्सों को मिलाकर, अमेज़न नदी बेसिन विश्व का सबसे बड़ी जल निकासी प्रणाली है।
  • यह उत्तर में गुयाना हाइलैंड्स, पश्चिम में एंडीज़ पर्वत, दक्षिण में ब्राज़ीलियाई सेंट्रल पठार और पूर्व में अटलांटिक महासागर से घिरा है।
    • उष्णकटिबंधीय वन भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में 28 डिग्री के अंदर  पाए जाने वाले बंद छत्र वाले वन (closed-canopy forests) हैं।
    • वे बेहद आर्द्र क्षेत्र हैं,जहाँ हर वर्ष मौसम में या पूरे साल 200 सेमी. से अधिक वर्षा होती है।
    • तापमान समान रूप से उच्च होता है, 20°C से 35°C के बीच।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रीलिम्स: 

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा युग्म सही सुमेलित है? (2013)

भौगोलिक विशेषताएँ

क्षेत्र

(a)

एबिसिनियन पठार

अरब

(b)

एटलस पर्वत

उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका

(c)

गुयाना हाइलैंड्स

दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका

(d)

ओकावांगो बेसिन

पेटागोनिया

उत्तर: (b)

व्याख्या:

  • एबिसिनियन पठार इथियोपिया (अफ्रीका) में एक पठार है जो समुद्र तल से 1388 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।
  • एटलस पर्वत उत्तर-पश्चिमी अफ़्रीका में पर्वतों की एक शृंखला है, जो आमतौर पर दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व तक फैली हुई है। यह माघरेब (Maghreb-अरब दुनिया का पश्चिमी क्षेत्र) - मोरक्को, अल्जीरिया और ट्यूनीशिया के देशों का भूगर्भिक आधार बनाता है।
  • गुयाना हाइलैंड्स उत्तरी दक्षिण अमेरिका का वह क्षेत्र है जहाँ ब्राज़ील, गुयाना और वेनेज़ुएला माउंट रोराइमा(Mount Roraima) पर मिलते हैं। यह ओरिनोको तथा अमेज़न नदी घाटियों एवं गुयाना के तटीय तराई क्षेत्रों से घिरा हुआ है।
  • ओकावांगो नदी बेसिन दक्षिणी अफ्रीका की चौथी सबसे लंबी नदी प्रणाली है। यह दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका में पाया जाने वाला एक एंडोरहिक बेसिन (Endorheic Basin- जलक्षेत्र जो समुद्र में नहीं बहता है) है।
  • अत: युग्म  (b) सही सुमेलित है।

भारतीय अर्थव्यवस्था

नीली अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का प्रारूप

प्रिलिम्स के लिये:

नीली अर्थव्यवस्था, इंटरनेशनल कंटेनर ट्रांस-शिपमेंट पोर्ट, भारतीय पत्तन संघ, डीप ओशन मिशन, सागरमाला परियोजना, ओ-स्मार्ट, एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन, नाविक (NavIC), भारतीय बंदरगाह

मेन्स के लिये:

नीली अर्थव्यवस्था का महत्त्व, भारत की नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित चुनौतियाँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों

हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री ने मुंबई में ग्लोबल मैरीटाइम इंडिया समिट 2023 का उद्घाटन करते हुए भारतीय समुद्री नीली अर्थव्यवस्था के लिये दीर्घकालिक प्रारूप 'अमृत काल विज़न 2047' का अनावरण किया।

  • इसमें उन्नत मेगा पोर्ट, एक इंटरनेशनल कंटेनर ट्रांस-शिपमेंट पोर्ट, द्वीप विकास, विस्तारित अंतर्देशीय जलमार्ग एवं कुशल व्यापार के लिये मल्टी-मॉडल हब जैसी पहल शामिल हैं।
  • प्रधानमंत्री ने समुद्री क्षेत्र के लिये सरकार के दृष्टिकोण पर भी प्रकाश डाला, जो ‘समृद्धि के लिये बंदरगाह एवं प्रगति के लिये बंदरगाह' वाक्यांश में समाहित है।

ग्लोबल मैरीटाइम इंडिया समिट 2023

  • परिचय:
    • ग्लोबल मैरीटाइम इंडिया समिट (GMIS) 2023 एक प्रमुख कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य वैश्विक एवं क्षेत्रीय साझेदारी को बढ़ावा देने और निवेश की सुविधा प्रदान करके भारतीय समुद्री अर्थव्यवस्था/मैरीटाइम इकोनॉमी को आगे बढ़ाना है।
      • यह उद्योग से जुड़े प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने और क्षेत्र को आगे लाने के लिये विचारों का आदान-प्रदान करने हेतु भारतीय तथा अंतर्राष्ट्रीय समुद्री समुदाय की एक वार्षिक बैठक है।
  • आयोजनकर्त्ता:

नीली अर्थव्यवस्था:

  • परिचय:
    • " विश्व बैंक के अनुसार, नीली अर्थव्यवस्था "समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हुए आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका और नौकरियों के लिये समुद्री संसाधनों का संधारणीय उपयोग है।"
  • नीली अर्थव्यवस्था का महत्त्व:
    • खाद्य सुरक्षा: मत्स्यपालन और जलीय कृषि नीली अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग हैं, जो विश्व के प्रोटीन स्रोतों का एक बड़ा हिस्सा प्रदान करते हैं। वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिये इन क्षेत्रों में धारणीय प्रथाएँ आवश्यक हैं।
    • पर्यावरण संरक्षण: ज़िम्मेदार संसाधन प्रबंधन को बढ़ावा देकर, नीली अर्थव्यवस्था सागरीय जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण का समर्थन करती है।
      • स्वस्थ महासागर जलवायु विनियमन और कार्बन पृथक्करण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • पर्यटन और मनोरंजन: तटीय और समुद्री पर्यटन का वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
      • नीली अर्थव्यवस्था पर्यटन और मनोरंजन के अवसरों को बढ़ाती है, तटीय क्षेत्रों में पर्यटकों को आकर्षित करती है और संरक्षण के लिये जागरूकता को बढ़ावा देती है।
    • नवीकरणीय ऊर्जा: यह अपतटीय पवन, ज्वारीय और तरंग ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के विकास को प्रोत्साहित करती है, जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करती है और जलवायु परिवर्तन को कम करती है।
    • परिवहन और व्यापार: समुद्री नौवहन वैश्विक व्यापार के लिये एक जीवन रेखा है। कुशल और टिकाऊ समुद्री परिवहन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्वपूर्ण है।

नोट: भारत में 7500 किमी. लंबी तटरेखा है, साथ ही इसके विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) 2.2 मिलियन वर्ग किमी. तक विस्तृत हैं। इसके अतिरिक्त भारत 12 प्रमुख बंदरगाहों तथा 200 से अधिक अन्य बंदरगाहों एवं 30 शिपयार्ड और विविध समुद्री सेवा प्रदाताओं का एक व्यापक केंद्र है। इसका अर्थ है कि भारत में स्वस्थ नीली अर्थव्यवस्था में अग्रणी बनने की अत्यधिक संभावनाएँ हैं।

भारत में नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित चुनौतियाँ:

  • असंबद्ध मत्स्यपालन क्षेत्र: भारतीय मत्स्य उद्योग अत्यधिक विखंडित है, जिसमें मुख्य रूप से छोटे मछुआरे शामिल हैं जिनके पास ऋण तथा आधुनिक तकनीक तक पहुँच नहीं है, जो उनकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता में बाधा उत्पन्न करता है।
    • इसके अतिरिक्त विनियमन की कमी के कारण अत्यधिक मछली पकड़ने से उद्योग की स्थिरता को और अधिक खतरा उत्पन्न होता है।
  • जलवायु परिवर्तन एवं प्राकृतिक आपदाएँ: जलवायु परिवर्तन समुद्र के स्तर में वृद्धि, समुद्र की अम्लता में वृद्धि के साथ ही चरम मौसमी घटनाओं के माध्यम से नीली अर्थव्यवस्था के लिये एक गंभीर खतरा उत्पन्न करता है।
    • दीर्घकालिक स्थिरता के लिये इन प्रभावों के लिये तैयारी करना और इन्हें कम करना आवश्यक है।
  • अपशिष्ट एवं प्रदूषण: समुद्री कचरा, रासायनिक प्रदूषकों तथा अनुपचारित सीवेज सहित प्रदूषण, समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के लिये खतरा है।
    • तेल रिसाव में गैर-देशी, आक्रामक प्रजातियों को शामिल करके समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को असंतुलित करने की क्षमता होती है, साथ ही यह देशी प्रजातियों एवं अर्थव्यवस्थाओं को हानि भी पहुँचता है।
  • बंदरगाहों में भीड़: कई भारतीय बंदरगाह अपर्याप्त रखरखाव बुनियादी ढाँचे, अकुशल संचालन के साथ अधिक कार्गो संख्या के चलते भीड़भाड़ का अनुभव करते हैं, जिससे देरी होती है एवं लागत में वृद्धि होती है।

नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रमुख सरकारी पहलें:

आगे की राह

  • नीति सुधार और विनियमन: नीली अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के लिये एक व्यापक और स्थिर नियामक ढाँचा विकसित करना, विखंडन एवं विसंगतियों को संबोधित करना तथा प्रभावी प्रवर्तन व प्रोत्साहन के माध्यम से ज़िम्मेदार और धारणीय प्रथाओं को प्रोत्साहित करना।
    • बंदरगाहों में कार्गो निकासी में तेज़ी लाने के लिये सीमा शुल्क और दस्तावेज़ीकरण प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना।
  • बुनियादी ढाँचे का विकास: बढ़ती कार्गो मात्रा को कुशलतापूर्वक समायोजित करने के लिये बर्थ, टर्मिनल और उपकरण सहित बंदरगाह बुनियादी ढाँचे के आधुनिकीकरण और विस्तार में निवेश करना।
    • भीतरी इलाकों से माल की निर्बाध आवाजाही के लिये बंदरगाहों तक सड़क और रेल कनेक्टिविटी में सुधार करना।
  • सतत् मत्स्यपालन: अत्यधिक मछली पकड़ने और पर्यावरणीय क्षरण को संबोधित करते हुए शिक्षा, प्रोत्साहन और विनियमन के माध्यम से मत्स्यन तथा जलीय कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देना।
    • समुद्री पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा के लिये सख्त प्रदूषण नियंत्रण उपाय और अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली लागू करना।
  • निवेश और वित्तपोषण: सार्वजनिक-निजी भागीदारी, प्रोत्साहन और वित्तीय सहायता के माध्यम से नीली अर्थव्यवस्था क्षेत्रों में निजी क्षेत्र के निवेश को आकर्षित करना।
    • नीली अर्थव्यवस्था में छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों (SME) के विकास को बढ़ावा देने के लिये उन्हें ऋण और वित्त तक पहुँच की सुविधा प्रदान करना।
  • जहाज़ निर्माण उद्योग को बढ़ाना: जहाज़ निर्माण और मरम्मत में नवाचार को बढ़ावा देने के लिये भारत को उन्नत सामग्रियों एवं हरित प्रौद्योगिकियों पर विशेष ध्यान देने के साथ निजी क्षेत्र के सहयोग से अनुसंधान तथा विकास केंद्र स्थापित करना चाहिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. ब्लू कार्बन क्या है? (2021)

(a) महासागरों और तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों द्वारा प्रगृहीत कार्बन।
(b) वन जैव मात्रा (बायोमास) और कृषि मृदा में प्रच्छादित कार्बन।
(c) पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस में अंतर्विष्ट कार्बन।
(d) वायुमंडल में विद्यमान कार्बन।

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. ‘नीली क्रांति’ को परिभाषित करते हुए भारत में मत्स्यपालन की समस्याओं और रणनीतियों को समझाइये। (2018)


भूगोल

भारतीय हिमालयी क्षेत्र की भंगुरता

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP), तीस्ता नदी, पर्यावरण मंजूरी (EC), EIA 2006 अधिसूचना, ड्राफ्ट EIA 2020 अधिसूचना

मेन्स के लिये:

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) का कुप्रबंधन भारत के पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिये खतरा उत्पन्न करता है  

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सिक्किम में तीस्ता बाँध के टूटने से हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और भूस्खलन की घटना देखी गई।

  • यह इस बात पर स्पष्ट प्रकाश डालता है कि हमारा विकास मॉडल पर्यावरण और पारिस्थितिकी, विशेषकर पर्वतीय भारतीय हिमालयी क्षेत्रों को किस प्रकार नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR)):  

  • यह भारत में उस पर्वतीय क्षेत्र को संदर्भित करता है जो देश के भीतर संपूर्ण हिमालय शृंखला को शामिल करता है। यह भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग जम्मू और कश्मीर से लेकर भूटान, नेपाल तथा तिब्बत (चीन) जैसे देशों की सीमा के साथ पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तृत है।
  • इसमें 11 राज्य (हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, सभी पूर्वोत्तर राज्य और पश्चिम बंगाल) तथा 2 केंद्रशासित प्रदेश (जम्मू-कश्मीर व लद्दाख) शामिल हैं।

 भारतीय हिमालयी क्षेत्र से संबंधित मुद्दे: 

  • श्रेणीबद्ध दृष्टिकोण में खामियाँ:
    • भारतीय नियामक प्रणाली के श्रेणीबद्ध/ग्रेडेड दृष्टिकोण में निर्दिष्ट खामियाँ, जैसे कि मंत्रालय और विभाग इस बात पर ज़ोर देते हैं कि पारिस्थितिक महत्त्व के बावजूद IHR पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है
    • हिमालय मौसम की चरम  स्थिति, भूकंपीय गतिविधि और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से ग्रस्त है, फिर भी इस क्षेत्र में परियोजनाओं के लिये कोई अलग पर्यावरणीय मानक नहीं हैं।
  • विभिन्न EIA चरणों के कार्यान्वयन से संबद्ध मुद्दे:
    • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया के सभी चरणों में स्क्रीनिंग से लेकर मूल्यांकन तक, परियोजना से जुड़ी आवश्यकताओं को क्षेत्र की पारिस्थितिक आवश्यकताओं के साथ संरेखित करके IHR की आवश्यकताओं को संबोधित करने की प्रक्रिया में भारी कमी है।
    • पर्वतीय क्षेत्रों में परियोजनाओं की विशिष्ट विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इनसे संबंधित उत्तरदायित्वों में वृद्धि हेतु EIA अधिसूचना में विशिष्ट खंडों के समावेशन का भी अभाव है।
  • राष्ट्रीय स्तर के नियामक का अभाव:
    • EIA प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा राष्ट्रीय स्तर के नियामक की अनुपस्थिति है, जिसका सुझाव सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2011 में लाफार्ज उमियम माइनिंग (पी) लिमिटेड और टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ, 1995 मामले में दिया था।
    • वर्तमान में, EIA प्रक्रियाएँ परियोजना समर्थकों के पक्ष में हैं जिनमें संचयी प्रभावों पर व्यापक विचार की कमी है, विशेष रूप से IHR जैसे पहाड़ी पर्वतीय क्षेत्रों में।
  • EIA 2006 अधिसूचना में एकरूपता का मुद्दा: 
    • EIA 2006 अधिसूचना खनन, विद्युत उत्पादन और बुनियादी ढाँचे जैसे क्षेत्रों के आधार पर परियोजनाओं को वर्गीकृत करती है, लेकिन EIA प्राप्ति की आवश्यकता संबंधी सीमा पूरे देश में देश के लिये समान है।
    • यह समान दृष्टिकोण अपने पारिस्थितिक महत्त्व और नाजुकता के बावजूद भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) की आद्वितीय आवश्यकताओं एवं सुभेद्यताओं पर विचार करने में विफल रहता है।
  • ड्राफ्ट EIA 2020 अधिसूचना में मुद्दे:
    • EIA प्रक्रिया पिछले कुछ वर्षों में कई संशोधनों के साथ विकसित हुई है, EIA 2020 के मसौदे को  उद्योग समर्थक माना जा रहा है तथा इसमें पारिस्थितिक विचारों की उपेक्षा को लेकर चिंताएँ व्यक्त की गई हैं। EIA का उचित उपयोग पर्यावरण प्रशासन और सतत् विकास के लिये एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है।

IHR की पारिस्थितिक भंगुरता की सुरक्षा हेतु आवश्यक कदम:

  • विभेदित पर्यावरण मानक:
    • क्षेत्र की भंगुरता और असुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विभेदित पर्यावरण मानक स्थापित किये जाने चाहिये।
      • इन मानकों को पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि IHR में परियोजनाएँ अधिक कड़े नियमों और जाँच के अधीन हैं।
  • सामरिक पर्यावरण आकलन (SEA):
    • नीति निर्माताओं को SEA को लागू करने पर विचार करना चाहिये, जो किसी क्षेत्र में विकास के संचयी प्रभाव का आकलन करता है।
    • SEA को निकासी प्रक्रिया में एकीकृत करने से विकास गतिविधियों के संभावित परिणामों का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया जा सकता है।
  • स्थानीय समुदाय की भागीदारी:
    • इन समुदायों को अक्सर क्षेत्र की पारिस्थितिकी की गहरी समझ होती है और वे विकास के संभावित प्रभावों के विषय में बहुमूल्य सूचना प्रदान कर सकते हैं।
    • उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से पारिस्थितिक रूप से अधिक सुदृढ़ और सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार परियोजनाएँ शुरू हो सकती हैं।
  • पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण:
    • विकास के लिये पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण लागू करना। यह पहचान करना कि IHR न केवल संसाधनों का एक स्रोत है बल्कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

नीतियों को वनों, नदियों और जैवविविधता सहित पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा तथा बहाली को प्राथमिकता देनी चाहिये।

  • बुनियादी ढाँचे के विकास पर पुनर्विचार:
    • IHR में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं की योजना सावधानीपूर्वक बनाई जानी चाहिये। बाँधों, सड़कों और जलविद्युत संयंत्रों जैसी परियोजनाओं को पर्यावरण पर उनके प्रभाव को कम करने के लिये कठोर मूल्यांकन से गुज़रना चाहिये।
    • वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों और मार्गों पर विचार करना जो कम विघटनकारी हों।
  • सीमा पार सहयोग:
    • हिमालय क्षेत्र कई देशों तक फैला हुआ है और पारिस्थितिक चुनौतियाँ राजनीतिक सीमाओं तक सीमित नहीं हैं। भारत को साझा पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान के लिये क्षेत्रीय सहयोग में शामिल होना चाहिये।
    • सहयोगात्मक प्रयास वायु और जल प्रदूषण जैसी सीमा पार चुनौतियों को कम करने में सहायता कर सकते हैं।
  • जन जागरूकता एवं शिक्षा:
    • IHR के पारिस्थितिक महत्त्व के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना।
    • शिक्षा और सहयोग लोगों, व्यवसायों तथा नीति निर्माताओं को अधिक ज़िम्मेदार निर्णय व व्यवहार अपनाने के लिये प्रभावित कर सकती है।
  • प्रकृति आधारित पर्यटन: 
    • संधारणीय एवं ज़िम्मेदारीपूर्ण पर्यटन प्रथाओं का समर्थन करना चाहिये जिससे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को कम करते हुए स्थानीय समुदायों के लिये आय उत्पन्न करने में सहायता मिलेगी।
    • इसमें इको-टूरिज़्म को बढ़ावा देना, वहन क्षमता सीमा लागू करना और पर्यटकों के बीच जागरूकता बढ़ाना शामिल हो सकता है।

पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना (EIA), 2020 

  • परिचय: 
  • कार्येत्तर मंज़ूरी:
    • कार्येत्तर मंज़ूरी का विचार मसौदा अधिसूचना में प्रस्तुत किया गया था, जो कुछ परियोजनाओं को मंज़ूरी के बिना परिचालन शुरू करने के बाद भी पर्यावरणीय मंज़ूरी लेने की अनुमति देगी। 
  • सार्वजनिक भागीदारी में कमी:
    • आलोचकों ने तर्क दिया कि मसौदा अधिसूचना ने सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया को कमज़ोर कर दिया है, जिससे संबंधित नागरिकों एवं समुदायों के लिये प्रस्तावित परियोजनाओं के संबंध में अपना मत तथा समस्याएँ व्यक्त करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है।
  • कुछ परियोजनाओं के लिये छूट:
    • मसौदा अधिसूचना में कुछ श्रेणियों की परियोजनाओं के लिये छूट का प्रस्ताव दिया गया है, जिससे उन्हें EIA प्रक्रिया को बायपास करने का विकल्प मिलेगा। 
  • परियोजना की वैधता का विस्तार:
    • इसने विभिन्न परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी की वैधता अवधि बढ़ाने का सुझाव दिया, जिससे पर्यावरणीय प्रभावों के बार-बार पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता कम हो जाएगी।
  • अनुपालन रिपोर्ट का कमज़ोर होना:
    • अनुपालन रिपोर्टों को कमज़ोर करने के बारे में चिंताएं देखी गईं, जो यह सुनिश्चित करती हैं कि परियोजनाओं को पर्यावरणीय स्थितियों और मानकों का पालन करना आवश्यक है।
    • संबंधित लोगों, विशेषज्ञों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं सभी ने मसौदा अधिसूचना पर आपत्ति जताई एवं इसके मानकों पर संदेह जताया।

भारत में EIA:

  • परिचय:
    • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन का उपयोग भारत में 20 साल से भी पहले किया गया था। इसकी शुरुआत 1976-77 में हुई जब योजना आयोग ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से नदी-घाटी परियोजनाओं को पर्यावरणीय दृष्टिकोण से देखने का अनुरोध किया था।
  • EIA 1994 अधिसूचना: 
    • वर्ष 1994 में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत किसी भी गतिविधि के विस्तार या आधुनिकीकरण या अनुसूची 1 में सूचीबद्ध नई परियोजनाओं की स्थापना के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी (EC) को अनिवार्य बनाते हुए एक EIA अधिसूचना जारी की।
  • EIA 2006 अधिसूचना: 
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने सितंबर 2006 में नए EIA कानून को अधिसूचित किया।
    • यह अधिसूचना विभिन्न परियोजनाओं जैसे- खनन, थर्मल पावर प्लांट, नदी घाटी, बुनियादी ढाँचे (सड़क, राजमार्ग, पत्तन, बंदरगाह और हवाई अड्डे) और बहुत छोटी इलेक्ट्रोप्लेटिंग या फाउंड्री इकाइयों सहित उद्योगों के लिये पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त करना अनिवार्य बनाती है।
    • हालाँकि वर्ष 1994 की EIA अधिसूचना के विपरीत नए कानून ने परियोजना के आकार/क्षमता के आधार पर परियोजनाओं को मंज़ूरी देने का दायित्व राज्य सरकार पर डाल दिया है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. जब आप हिमालय में यात्रा करेंगे, तो आप निम्नलिखित को देखेंगे: (2012)

  • गहरे खड्ड
  • U घुमाव वाले नदी मार्ग
  • समानांतर पर्वत श्रेणियाँ
  • भूस्खलन के लिये उत्तरदायी तीव्र ढाल प्रवणता

उपर्युक्त में से किसे हिमालय के युवा वलित पर्वत होने का प्रमाण कहा जा सकता है?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं के प्रायः होते रहने के कारण बताइये।(2013)

प्रश्न. भू-स्खलन के विभिन्न कारणों और प्रभावों का वर्णन कीजिये। राष्ट्रीय भू-स्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति के महत्त्वपूर्ण घटकों का उल्लेख कीजिये। (2021)


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