कृषि
भारतीय कृषि मंडी प्रणाली
- 02 Dec 2020
- 14 min read
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सरकार द्वारा हाल ही लागू किये गए कृषि सुधार से जुड़े कानूनों के कारण देश की कृषि मंडी प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभावों व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में केंद्र द्वारा लागू नए कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्रों में किसानों का भारी विरोध प्रदर्शन देखने को मिला। केंद्र सरकार के अनुसार, इन कृषि कानूनों [विशेषकर ‘कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020’ (FPTC Act)] का उद्देश्य निजी मंडियों की स्थापना के माध्यम से किसानों को लाभ पहुँचाना है, ये मंडियाँ बिचौलियों की भूमिका को समाप्त कर देंगी और किसान किसी भी खरीदार को अपने उत्पाद बेचने के लिये स्वतंत्र होंगे।
हालाँकि प्रदर्शनकारी किसान इन दावों को स्वीकार नहीं करते, उनका मानना है कि अगर मंडियाँ कमज़ोर होती हैं तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के प्रति किसी मज़बूत प्रतिबद्धता के बगैर ही निजी बाज़ारों के विस्तार को प्रोत्साहित किया जाता है तो इससे समय के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली का क्षरण होगा।
ऐसे में किसानों के इस विरोध प्रदर्शन ने देश में कृषि मंडी प्रणाली और इससे जुड़े सुधारों के गहन विश्लेषण की आवश्यकता को रेखांकित किया है ताकि भारत के अन्नदाताओं के लिये कृषि की व्यावहारिकता को सुनिश्चित किया जा सके।
मंडियों के उदारीकरण का लाभ:
- बराबरी: सरकार द्वारा लागू किये गए कानून किसानों को बगैर किसी शोषण के भय के प्रसंस्करणकर्त्ताओं, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम बनाते हैं।
- अनिश्चितता का समाधान: इन सुधारों के माध्यम से किसान निजी कंपनियों के साथ अनुबंध में शामिल हो सकेंगे जो बाज़ार की अनिश्चितता के जोखिम को किसानों से लेकर प्रायोजक को हस्तांतरित कर देगा तथा यह किसानों को आधुनिक तकनीक और बेहतर आदानों की पहुँच के लिये सक्षम बनाएगा।
- निजी क्षेत्र की भागीदारी: ये कानूनी सुधार राष्ट्रीय और वैश्विक बाज़ारों तक कृषि उत्पादों की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये मज़बूत आपूर्ति शृंखला की स्थापना और कृषि अवसंरचना को मज़बूत बनाने के लिये निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने हेतु उत्प्रेरक का काम करेंगे।
- बिचौलियों के हस्तक्षेप की समाप्ति: इन कानूनों के माध्यम से किसान विपणन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो सकेंगे, जिससे बिचौलियों के हस्तक्षेप को समाप्त किया जा सकेगा और किसानों को अपनी उपज का पूरा मूल्य प्राप्त होगा।
मंडी प्रणाली को समाप्त करने की संभावित चुनौतियाँ:
- FTPC अधिनियम के पीछे एक बड़ी अवधारणा यह रही है कि कृषि उपज विपणन समितियों (Agricultural Produce Marketing Committees-APMC) द्वारा नियंत्रित मंडियों का ग्रामीण क्षेत्रों के क्रय बाज़ार पर एकाधिकार रहा है और कृषि बाज़ारों के उदारीकरण से किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त हो सकेगा।
- हालाँकि भारतीय कृषि की संगठनात्मक संरचना किसानों को उनके उत्पादों को कृषि बाज़ारों से बाहर बेचने के लिये विवश करती है।
- मंडियों के बाहर उत्पादों की व्यापक बिक्री: आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, धान और गेहूँ के मामले में क्रमशः मात्र 29% और 44% उपज को ही मंडियों में बेचा जाता है, जबकि 49% धान और 36% गेहूँ की उपज स्थानीय या अन्य निजी व्यापारियों को बेची जाती है।
- मंडियों की अपर्याप्त संख्या: राष्ट्रीय कृषि आयोग (National Commission on Agriculture- NCA) ने अपनी सिफारिश में कहा था कि देश में मंडियों को इस प्रकार मज़बूत किया जाना चाहिये कि कोई भी किसान मात्र एक घंटे में अपनी गाड़ी (Cart) से मंडी तक पहुँचने में सक्षम हो। इस प्रकार एक मंडी के लिये निर्धारित सेवा क्षेत्र को औसतन 80 वर्ग किलोमीटर से कम होना चाहिये।
- हालाँकि वर्ष 2019 तक देश में कुल 6,630 मंडियाँ ही थीं, जिनका औसत सेवा क्षेत्र 463 वर्ग किलोमीटर था।
- ऐसे में वर्तमान में देश में मंडियों की संख्या कम करने के बजाय उनकी संख्या बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।
- सीमांत किसानों की अधिकता: देश में लगभग 86% कृषि योग्य भूमि का स्वामित्व छोटे अथवा सीमांत किसानों के पास है। इन किसानों के लिये विपणन योग्य अधिशेष सीमित होने के कारण मंडियों तक की परिवहन लागत को वहन करना किफायती नहीं होता है।
- परिवहन लागत की चुनौती से बचने के लिये अधिकांश किसानों को अपनी उपज गाँव के व्यापारियों को ही बेचनी पड़ती है, भले ही कम कीमत पर क्यों न बेचना पड़े।
- सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधारों के बाद भले ही निजी बाज़ार पारंपरिक मंडियों का स्थान ले लें, परंतु मंडियों के व्यापक तंत्र के अभाव में छोटे और सीमांत किसानों को अपनी उपज की बिक्री के लिये स्थानीय व्यापारियों पर ही निर्भर रहना होगा।
उदारीकृत कृषि बाज़ारों में निजी निवेश की कमी:
- देश के कई राज्यों में पहले से ही किसानों को सरकारी मंडियों के बाहर अपनी उपज को बेचने की स्वतंत्रता दी गई है।
- देश के 18 राज्यों में APMCs के बाहर निजी मंडियों की स्थापना के साथ इन मंडियों को सीधे किसानों से उनकी उपज खरीदने की अनुमति दी गई है।
- इन विधायी परिवर्तनों के बावजूद इन राज्यों में निजी बाज़ारों की स्थापना के लिये निजी क्षेत्र से कोई महत्त्वपूर्ण निवेश देखने को नहीं मिला है।
- कृषि बाज़ारों में निजी क्षेत्र के निवेश में कमी का सबसे बड़ा कारण उत्पाद संग्रह और एकीकरण में उच्च लागत का होना है। इसके अतिरिक्त छोटे तथा सीमांत किसानों की अधिकता के कारण यह लागत और भी बढ़ जाती है।
- यही कारण है कि अधिकांश खुदरा शृंखलाएँ सीधे किसानों की बजाय मंडियों से ही बड़ी मात्रा में फल और सब्जियाँ खरीदना पसंद करती हैं।
उच्च मूल्य से जुड़े साक्ष्यों का अभाव:
- वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय निजी बाज़ारों से भी इस बात के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं कि इन बाज़ारों में किसानों को APMCs की तुलना में अधिक मूल्य प्राप्त हो रहा है।
- बल्कि यदि लेन-देन की लागत मंडी करों से अधिक होती है, तो इस लागत को किसानों को कम कीमत पर हस्तांतरित किया जाएगा।
- अर्थात् इसके कारण किसानों पर दबाव और अधिक बढ़ जाएगा।
- इसके अलावा यदि APMC प्रणाली कमज़ोर होती है और निजी बाज़ार पर्याप्त रूप से उनका स्थान नहीं लेते तो उस स्थिति में इस क्षेत्र में एक बड़ी रिक्तता की स्थिति बन सकती है और ऐसी आशंका भी बनी हुई है कि इसका स्थान गैर-विनियमित व्यापारियों द्वारा ले लिया जाएगा, जिससे किसानों की चुनौतियाँ और अधिक बढ़ सकती हैं।
आगे की राह:
- मंडी अवसंरचना में मात्रात्मक सुधार: भारत के वर्तमान कृषि विपणन परिदृश्य को देखते हुए देश के सभी हिस्सों में मंडियों के घनत्व में वृद्धि के साथ, मंडी बुनियादी ढाँचे में निवेश बढ़ाने और न्यूनतम समर्थन प्रणाली को ज़्यादा क्षेत्रों और फसलों तक विस्तृत करने पर विशेष ध्यान देना होगा।
- इस दिशा में अपेक्षित सुधार लाने के लिये मंडी कर के रूप में प्राप्त राजस्व का प्रयोग व्यवस्थित रूप से पुनः APMCs में निवेश के लिये किया जाना चाहिये ताकि कृषि बाज़ार अवसंरचना को मज़बूत बनाया जा सके।
- इस संदर्भ में पंजाब मंडी बोर्ड का उदाहरण अनुकरण योग्य है, जहाँ इस राजस्व का उपयोग ग्रामीण सड़कों के निर्माण, चिकित्सा और पशु चिकित्सा औषधालय चलाने, पीने के पानी की आपूर्ति, स्वच्छता में सुधार, ग्रामीण विद्युतीकरण के विस्तार और आपदाओं के दौरान किसानों को राहत प्रदान करने के लिये किया जाता है।
- मंडी अवसंरचना में गुणात्मक सुधार: वर्तमान में न केवल मंडियों की संख्या में वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है बल्कि बेहतर मंडियों की भी आवश्यकता है।
- APMCs में बड़े आंतरिक सुधारों की आवश्यकता है जिससे नए निवेशकों या व्यवसाइयों के प्रवेश को आसान बनाने के साथ व्यापारियों की मिलीभगत को कम किया जा सके और मंडियों को राष्ट्रीय ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म के साथ जोड़ा जा सके।
- व्यापारियों हेतु एकीकृत राष्ट्रीय लाइसेंस की शुरुआत और बाज़ार शुल्क के लिये सिंगल पॉइंट लेवी भी मंडियों के गुणात्मक सुधार की दिशा में सकारात्मक कदम होगा।
- आकारिक मितव्ययिता में सुधार: निगमों के साथ किसानों की मोलभाव करने की शक्ति को तभी बदला जा सकता है जब कृषि क्षेत्र की आकारिक मितव्ययिता में पर्याप्त वृद्धि की जाए, अर्थात् किसी को आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक बनाते हुए कृषि अवसंरचना तंत्र को और अधिक व्यापक किया जाए।
- इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये किसान उत्पादक संगठनों (Farmer Producer Organization-FPO) को मज़बूत किया जाना बहुत ही आवश्यक है।
निष्कर्ष:
भारतीय कृषि विपणन सुधारों के लिये भारत के कृषि बाज़ारों की शोधार्थी ‘बारबरा हैरिस-व्हाइट’ से प्रेरणा ली जानी चाहिये। इनके अनुसार, ‘ विनियमित त्रुटिपूर्ण बाज़ारों की तुलना में गैर-विनियमित त्रुटिपूर्ण बाज़ारों की समस्याओं में वृद्धि की संभावनाएँ अधिक होती हैं।
अभ्यास प्रश्न: हाल ही में सरकार द्वारा लागू किये गए कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों का व्यापक प्रदर्शन भारत में मंडी प्रणाली और इससे जुड़े सुधारों की गहन समीक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करता है। विश्लेषण कीजिये।