शासन व्यवस्था
दल परिवर्तन कानून
- 27 Aug 2022
- 15 min read
प्रिलिम्स के लिये:दल परिवर्तन, 91वाँ संविधान संशोधन, दसवीं अनुसूची मेन्स के लिये:दल परिवर्तन कानून को और अधिक प्रभावी बनाने हेतु सुझाव |
क्या है दल परिवर्तन कानून कानून?
- दल परिवर्तन कानून कानून 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था।
- इसे भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया है और सामान्यतः इस अधिनियम को ‘दल-बदल कानून' कहा जाता है।
- दल-बदल को "निष्ठा या कर्तव्य का सचेत परित्याग" के रूप में परिभाषित किया गया है।
- इसमें दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हता के बारे में प्रावधान किया गया है।
- पीठासीन अधिकारी के पास दल-बदल के सिद्ध आधार पर किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार होता है।
- इसका लक्ष्य विधायकों को उनके कार्यकाल के दौरान राजनीतिक संबद्धता में परिवर्तन करने से रोकना था।
- यह संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है।
उत्पत्ति
- वर्ष 1967 में हरियाणा के विधायक गया लाल ने एक ही दिन में तीन बार अपनी पार्टी बदली।
- इसके बाद "आया राम गया राम" भारतीय राजनीति में एक लोकप्रिय मुहावरा बन गया।
- राज्यों में एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल में परिवर्तन करना एक सामान्य बात हो गई थी, जिसने राज्य सरकारों को उनकी सत्ता से हटाने का कार्य भी किया।
- लोकसभा में इस पर चिंता व्यक्त की गई और समस्या का आकलन करने के लिये गृह मंत्री यशवंतराव बलवंतराव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
- सबसे पहले चव्हाण समिति ने यह सिफारिश की थी कि यदि कोई विधायक धन लाभ के लये दल परिवर्तन करता है, तो उन्हें संसद से बाहर कर दिया जाना चाहिये और कुछ समय के लिये चुनाव लड़ने से भी रोक दिया जाना चाहिये।
- दल-बदल विरोधी कानून इस तरह परिवर्तनों को रोकने के लिये प्रस्तुत किया गया था और इसलिये 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान इसे शुरू किया गया।
- वर्ष 1992 में, दसवीं अनुसूची को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया और किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू और अन्य के एक ऐतिहासिक मामले के तहत इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई।
- वर्ष 2003 में, 91वें संशोधन के माध्यम से, नियमित दल-बदल से निपटने के लिये दल परिवर्तन कानून को और अधिक प्रभावी बनाया गया।
- इसने उन प्रावधानों को हटा दिया जो पार्टी में विभाजन के मामले में विधायकों को संरक्षण प्रदान करते थे।
- इसमें यह भी कहा गया कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए गए किसी भी विधायक को कार्यकारी या मंत्री पद से भी अयोग्य घोषित किया जाएगा।
उद्देश्य
- यह किसी पद या भौतिक लाभ अथवा ऐसे अन्य विचारों के प्रलोभन से प्रेरित दल परिवर्तन को रोकने के उद्देश्य से लाया गया है।
- यह विधायकों को किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत लाभ हासिल करने के लिये एक राजनीतिक संघ से दूसरे राजनीतिक संघ में स्थानांतरित होने से रोकता है।
- यह दलीय प्रणाली में स्थिरता बनाए रखता है और सरकारों को गिराने के खतरे को रोकता है।
- विधायक पार्टी व्हिप के पक्ष में मतदान करें इस बात को सुनिश्चित करते हुए यह पार्टी/दलीय अनुशासन को बढ़ावा देता है।
- यह सदस्यों की निरर्ह/अयोग्य ठहराए बिना राजनीतिक दलों के विलय की अनुमति देता है।
- यह लोकतंत्र की संस्था को मज़बूत करता है और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाता रखता है।
अयोग्यता/निरर्हता के आधार
- सर्वोच्च न्यायालय ने दल परिवर्तन कानून के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या की है।
- निरर्हता के सबसे महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक है "स्वेच्छा से अपनी सदस्यता का त्याग करना"।
- इसका अर्थ त्याग-पत्र की तुलना में अधिक व्यापक है।
- औपचारिक त्याग-पत्र के अभाव में उनकी सदस्यता के त्याग का अनुमान विधि निर्माता के के रूप में उनके आचरण से भी लगाया जा सकता है।
- उदाहरण: जनता दल (यूनाइटेड) के दो सदस्यों को वर्ष 2017 में राज्य सभा के सभापति द्वारा "अपनी सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ने" के आधार पर अयोग्य घोषित कर दिया गया था। उन्होंने कई कार्यक्रमों में सार्वजनिक मंचों पर पार्टी की आलोचना की थी और विपक्षी दलों की रैलियों में भाग लिया था।
- दल-बदल का एक अन्य आधार "निर्देशों का उल्लंघन" (Violation of Instructions) है। इसका अर्थ यह है कि यदि विधायक उस राजनीतिक दल द्वारा जारी किये गए निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है, तो उसे अयोग्य माना जाएगाजाता है।
- राजनीतिक दल द्वारा जारी निर्देश को पार्टी व्हिप के नाम से जाना जाता है।
- एक विधायक को आगे भी अयोग्य ठहराया जा सकता है यदि वह स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य है और एक राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
- एक विधायक को अयोग्य घोषित माना जाएगा यदि वह एक मनोनीत सदस्य है और विधायक बनने की तिथि से छह माह बाद किसी भी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
- पीठासीन अधिकारी, जो दल-बदल की अयोग्यता के आधारों की वैधता का निर्णय करता है, का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- प्रारंभ में, पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं था।
- वर्ष 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में पीठासीन अधिकारी के फैसले के खिलाफ अपील की अनुमति दी थी।
- लेकिन जब तक पीठासीन अधिकारी अपना आदेश नहीं देता तब तक कोई न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हो सकता।
अपवाद
- यदि किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हैं तो इस प्रकार के विलय के मामले में कानून एक पार्टी को किसी अन्य पार्टी में विलय करने में सक्षम बनाता है।
- न तो विलय का फैसला करने वाले सदस्य को निरर्हता का सामना करना पड़ेगा और न ही मूल पार्टी में बने रहने वाले सदस्य को।
- दल-बदल विरोधी कानून के परिच्छेद 5 के अनुसार, विधायिका के स्पीकर, चेयरमैन और डिप्टी चेयरमैन को दल-बदल के आधार पर निरर्हता अयोग्यता से छूट प्रदान की गई है।
दल परिवर्तन कानून पर विविध मत/विचार
- विशेषज्ञ समितियों का सुझाव है कि संसद सदस्य को निरर्ह/अयोग्य घोषित करने का निर्णय राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिये और राज्य विधानसभा के सदस्य को अयोग्य घोषित करने का निर्णय राज्यपाल द्वारा निर्वाचन चुनाव आयोग की सलाह के आधार पर किया जाना चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने सिफारिश की है कि संसद इस संदर्भ में एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण स्थापित करने पर विचार कर सकती है, जिसकी अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की जाएगी। इससे दल-बदल के मामलों का शीघ्र और समय पर निपटान करने में मदद मिलेगी।
- कुछ लोगों का मानना है कि दल परिवर्तन कानून ने काम करना बंद कर दिया है और इसमें कई खामियाँ हैं। भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा है कि यह केवल अविश्वास प्रस्ताव के मामलों में लागू होता है।
- दल परिवर्तन कानून के लागू होने के बाद, सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का आँख मूंदकर पालन करना होता है और उन्हें अपने फैसले के पक्ष में वोट देने की कोई स्वतंत्रता नहीं होती है।
- दल-बदल विरोधी कानून के चलते विधायकों को मुख्य रूप से राजनीतिक दल के प्रति जवाबदेह बनाकर जवाबदेही के बंधन को तोड़ा गया है।
दल परिवर्तन कानून को और प्रभावी बनाने के लिये सुझाव
- दल-बदल विरोधी कानून या दल परिवर्तन कानून का इस्तेमाल तर्कसंगत और निष्पक्ष अर्थों में किया जाना चाहिये। विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि यह कानून उन मामलों में मान्य होना चाहिये जहाँ मतदान सरकार की स्थिरता तय करते हैं।
- उदाहरण: अविश्वास प्रस्ताव या वार्षिक बजट के मामले में, जहाँ मतदान द्वारा सरकार की स्थिरता तय होती है।
- कुछ लोगों का मानना है कि अयोग्यता के प्रश्न से निपटने की शक्ति का निर्णय एक स्वतंत्र प्राधिकारी द्वारा किया जाना चाहिये। चूँकि स्पीकर का कार्यकाल सदन में पार्टी के बहुमत पर निर्भर करता है, होलोहन वाद में न्यायमूर्ति वर्मा द्वारा दिये गए निर्णय के अनुसार, स्पीकर को इस तरह का अधिकार प्राप्त नहीं होना चाहिये।
- 170वें विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, पार्टी के भीतर लोकतंत्र का समर्थन किया जाना चाहिये, जिससे पार्टी के सदस्यों के बीच चर्चा हो सके और पार्टी के भीतर तानाशाही पर अंकुश लगाया जा सके।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दसवीं अनुसूची का परीक्षण किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दल-बदल विरोधी कानून का उपयोग सही तरीके से किया जा रहा है। एक मार्गदर्शक संस्था के रूप में न्यायालय की भूमिका कानून की कमियों का पर्यवेक्षण और सुधार कर सकती है।
दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित हालिया घटनाएँ
- वर्ष 2020 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि स्पीकर को "उचित समय" के भीतर अयोग्यता के सवाल पर फैसला करना चाहिये।
- कीशम मेघचंद्र बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर वाद (2020)
- कीशम मेघचंद्र बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर वाद में, न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन ने दल-बदल के मामलों से निपटने के लिये एक बाहरी साधन स्थापित करने की आवश्यकता की बात की।
- उनके शब्दों में, "दसवीं अनुसूची के तहत उत्पन्न होने वाली अयोग्यता से संबंधित विवादों के मध्यस्थ के रूप में लोकसभा और विधानसभाओं के अध्यक्ष को प्रतिस्थापित करने के लिये संसद संविधान में संशोधन पर गंभीरता से विचार कर सकती है।"
- आगे उन्होंने कहा कि यह "सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, या किसी अन्य बाहरी स्वतंत्र तंत्र की अध्यक्षता में एक स्थायी न्यायाधिकरण के साथ यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि इस तरह के विवादों का निपटान तेज़ी से और निष्पक्ष रूप से हो , इस प्रकार वास्तविक रूप में दसवीं अनुसूची में निहित प्रावधानों को मज़बूती मिलेगी , जो हमारे लोकतंत्र के समुचित कार्य के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं"
- महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट ने भी स्पीकर और राज्यपाल की भूमिकाओं और दल-बदल विरोधी कानून पर फिर से प्रकाश डाला है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्नप्रारंभिक परीक्षा प्र. भारत के संविधान की निम्नलिखित अनुसूचियों में से किसमें दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014) (a) दूसरी अनुसूची उत्तर: (d) मुख्य परीक्षा प्र. कुछ वर्षों से सांसदों की व्यक्तिगत भूमिका में कमी आई है जिसके फलस्वरूप नीतिगत मामलों में स्वस्थ रचनात्मक बहा प्रायः देखने को नहीं मिलती। दल परिवर्तन विरोधी कानून, जो भिन्न उद्देश्य से बनाया गया था, को कहाँ तक इसके लिये उत्तरदायी माना जा सकता है? (2013) |