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भारतीय राजनीति

दसवीं अनुसूची की प्रासंगिकता

  • 01 Jul 2022
  • 16 min read

यह एडिटोरियल 30/06/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The anti-defection law - political facts, legal fiction” लेख पर आधारित है। इसमें दसवीं अनुसूची में मौजूद चुनौतियों और सदन सदस्यों द्वारा दलबदल की सुविधा के लिये उनके इस्तेमाल के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

वर्ष 1985 में संविधान में दसवीं अनुसूची (Tenth Schedule) को शामिल किये जाने के बावजूद विधानमंडल सदस्यों द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान राजनीतिक दल बदले जाने का अभ्यास आज भी बेरोकटोक जारी है।

  • दसवीं अनुसूची को आम तौर पर ‘दलबदल विरोधी कानून’ (Anti-Defection Law) के रूप में जाना जाता है और इसका उद्देश्य कार्यकाल के दौरान विधानमंडल सदस्यों द्वारा राजनीतिक दल बदले जाने के अभ्यास पर रोक लगाना था।
  • महाराष्ट्र में हाल के राजनीतिक संकट और इससे पूर्व के अन्य कई दृष्टांत इस बात की ताकीद करते हैं कि दसवीं अनुसूची क्या कर सकती है और क्या नहीं।

दलबदल विरोधी कानून से हमारा क्या तात्पर्य है?

  • दलबदल विरोधी कानून एक राजनीतिक दल छोड़कर दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होने के लिये संसद या राज्य विधानमंडल सदस्यों को दंडित करता है।
  • संसद ने इसे वर्ष 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में शामिल किया था। इसका उद्देश्य था सदस्यों द्वारा राजनीतिक संबद्धता बदलने की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाना और इस प्रकार सरकारों के लिये स्थिरता लाना।
    • यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दलबदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के प्रावधानों को निर्धारित करता है।
    • वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद निर्वाचित सदस्यों द्वारा दल बदलने से कई राज्य सरकारों के पतन की प्रतिक्रिया में इस अधिनियम को लाया गया।
  • हालाँकि इसमें सांसद/विधायकों के किसी समूह को किसी अन्य दल में शामिल होने (या विलय) को अनुमति प्राप्त है और वे किसी दंड से मुक्त रखे गए हैं। यह दलबदल के लिये प्रोत्साहित करने या ऐसे सदस्यों को शामिल करने वाले राजनीतिक दलों को भी दंडित नहीं करता है।
    • वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक तिहाई सदस्यों द्वारा ‘दलबदल’ को ‘विलय’ माना जाता था।
    • लेकिन 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 ने इस प्रावधान को बदल दिया और अब कानून की नज़र में वैधता के लिये किसी दल के कम से कम दो-तिहाई निर्वाचित सदस्य अन्य किसी दल में विलय के पक्ष में होने चाहिये।
  • कानून के तहत अयोग्य घोषित सदस्य उसी सदन में पुनःनिर्वाचन के लिये किसी भी राजनीतिक दल की ओर से चुनाव में खड़े हो सकते हैं।
  • दलबदल के आधार पर निरर्हता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय ऐसे सदन के सभापति या अध्यक्ष को संदर्भित किया जाता है और यह ‘न्यायिक समीक्षा’ के अधीन होता है।
    • हालाँकि कानून द्वारा कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है जिसके अंदर पीठासीन अधिकारी द्वारा दलबदल मामले पर निर्णय दे दिया जाना चाहिये।

दलबदल के आधार पर निरर्हता

  • स्वैच्छिक त्याग:
    • यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
  • निर्देशों का उल्लंघन:
    • यदि वह ऐसे राजनीतिक दल द्वारा जिसका वह सदस्य है अथवा उसके द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी द्वारा दिये गए किसी निदेश के विरुद्ध ऐसे राजनीतिक दल, व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है।
      • उसकी निरर्हता के लिये एक पूर्व शर्त के रूप में यह उपबंध है कि उसके राजनीतिक दल या अधिकृत व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान से विरत रहने की तिथि से 15 दिनों के भीतर उसे माफ़ नहीं किया है।
  • निर्वाचित सदस्य:
    • यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • मनोनीत सदस्य:
    • यदि कोई मनोनीत सदस्य छह माह की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

दलबदल राजनीतिक व्यवस्था को कैसे प्रभावित करता है?

  • चुनावी जनादेश का अपमान:
    • दलबदल उन निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुनावी जनादेश का अपमान है जो एक दल के टिकट पर चुने जाते हैं, लेकिन फिर मंत्री पद या वित्तीय लाभ के लालच के कारण दूसरे में शामिल हो जाने को सुविधाजनक समझते हैं।
  • सरकार के सामान्य कार्यकलाप पर प्रभाव:
    • 1960 के दशक में सदन सदस्यों द्वारा लगातार दलबदल की प्रवृत्ति पर ‘आया राम, गया राम’ का कुख्यात नारा गढ़ा गया था।
    • दलबदल से सरकार के लिये अस्थिरता उत्पन्न होती है और प्रशासन प्रभावित होता है।
  • ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ को बढ़ावा:
    • दलबदल विधायकों के खरीद-फरोख्त को भी बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ जाता है।

दलबदल विरोधी कानून के साथ संबद्ध चुनौतियाँ

  • कानून का पैरा 4:
    • दलबदल विरोधी कानून का पैराग्राफ 4 तीन महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं को प्रस्तुत कर राजनीतिक दलों के बीच विलय के लिये एक ‘अपवाद’ का निर्माण करता है:
      • मूल राजनीतिक दल:
        • जिस राजनीतिक दल से कोई सदस्य संबंधित है (यह आम तौर पर सदन के बाहर सामान्य रूप से किसी दल को संदर्भित कर सकता है)।
      • विधान दल:
        • एक सदन के सभी निर्वाचित सदस्यों से मिलकर बनता है जो एक राजनीतिक दल से संबंधित होते हैं।
      • ‘डीम्ड मर्जर’
        • पैरा 4 यह स्पष्ट नहीं करता है कि मूल राजनीतिक दल से अभिप्राय राष्ट्रीय स्तर के दल से है या क्षेत्रीय स्तर के दल से, जबकि भारत निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को इसी रूप में मान्यता देता है।
        • पैरा 4 के अनुसार, विलय तभी हो सकता है जब एक मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय हो और विधान दल के कम-से-कम दो तिहाई सदस्य इस विलय के लिये सहमत हों।
        • पैरा 4 एक ‘कानूनी कल्पना’ (Legal Fiction) का निर्माण करता हुआ प्रतीत होता है ताकि यह इंगित किया जा सके कि एक विधान दल के दो तिहाई सदस्यों के विलय को राजनीतिक दलों का विलय माना जा सकता है, भले ही मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य दल में वास्तविक विलय न हुआ हो।
  • प्रतिनिधि और संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना:
    • दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के बाद सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का आँखें बंद कर पालन करना होता है और उन्हें अपने विवेक से मतदान करने की कोई स्वतंत्रता नहीं होती है।
    • दलबदल विरोधी कानून के कारण निर्वाचित सदस्यों को मुख्य रूप से राजनीतिक दल के प्रति जवाबदेह रखकर जवाबदेही की जंजीर को तोड़ा गया है।
  • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका:
    • दलबदल विरोधी मामलों में सदन के सभापति या अध्यक्ष की कार्रवाई की समय-सीमा के बारे में कानून में कोई स्पष्टता नहीं है।
    • कुछ मामलों में छह माह से तीन वर्ष तक का समय लग जाता है। ऐसे दृष्टांत भी मिलते हैं जब कार्यकाल समाप्त होने के बाद मामले का निपटारा हुआ।
  • विभाजन की कोई मान्यता नहीं:
    • 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के कारण दलबदल विरोधी कानून ने दलबदल विरोधी निर्णयों के लिये अपवाद या छूट का निर्माण किया।
    • लेकिन यह संशोधन विधान दल में ‘विभाजन’ को मान्यता नहीं देता है, इसके बजाय ‘विलय’ को मान्यता देता है।
  • केवल एक साथ कई सदस्यों को दलबदल की अनुमति:
    • यह एक साथ कई सदस्यों को दलबदल की अनुमति देता है लेकिन बारी-बारी से या एक-एक करके सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन की अनुमति नहीं देता। अतः इसमें निहित कमियों को दूर करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है।
    • इस संबंध में चिंता जताई गई थी कि यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है, लेकिन उस अवधि के दौरानउसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिये। 
  • सदन में बहस और चर्चा पर प्रभाव:
    • दलबदल विरोधी कानून ने भारत में बहस और चर्चा के लोकतंत्र के बजाय राजनीतिक दलों और संख्याओं के लोकतंत्र का निर्माण किया है।
      • इस तरह यह असहमति और दलबदल के बीच अंतर नहीं करता और किसी भी कानून के संबंध में संसदीय विचार-विमर्श को कमज़ोर करता है।

दलबदल विरोधी कानून से संबंधित विभिन्न सुझाव

  • चुनाव आयोगने सुझाव दिया है कि दलबदल के मामलों में इसके लिये निर्णायक प्राधिकारी होना चाहिये।
  • दूसरों ने तर्क दिया है कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को दलबदल याचिकाओं पर सुनवाई करनी चाहिये।
  • सर्वोच्च न्यायालयने सुझाव दिया है कि संसद को उच्च न्यायपालिका के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में स्वतंत्र न्यायाधिकरण का गठन करना चाहिये ताकि दलबदल के मामलों का तेज़ी और निष्पक्ष रूप से फैसला किया जा सके।
  • कुछ टिप्पणीकारों ने कहा है कि यह कानून विफल हो गया है और इसे हटाने की सिफारिश की है। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सुझाव दिया है कि यह केवलअविश्वास प्रस्ताव के मामले में सरकारों को बचाने के लिये लागू होता है। 

दलबदल विरोधी कानून को और अधिक प्रभावी बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • दलबदल विरोधी कानून का तर्कसंगत उपयोग:
    • कई विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि कानून केवल उन मतों के लिये मान्य होना चाहिये जो सरकार की स्थिरता का निर्धारण करते हैं। उदाहरण: वार्षिक बजट या अविश्वास प्रस्ताव का पारित होना।
  • चुनाव आयोग की सलाह:
    • राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (NCRWC) सहित विभिन्न आयोगों ने अनुशंसा की है कि किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का निर्णय पीठासीन अधिकारी के बजाय राष्ट्रपति (सांसदों के मामले में) या राज्यपाल (विधायकों के मामले में) को सौंपा जाना चाहिये जहाँ वे चुनाव आयोग की सलाह पर निर्णय लें।
  • अयोग्यता से निपटने के लिये स्वतंत्र प्राधिकरण:
    • होलोहान (Hollohan) मामले के निर्णय में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा था कि अध्यक्ष का कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है और इसलिये वह एक ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण की आवश्यकता को पूरा नहीं करते हैं।
    • साथ ही, मामले में एकमात्र मध्यस्थ के रूप में उसकी पसंद मूल संरचना के एक अनिवार्य गुण का उल्लंघन करती है।
    • इस प्रकार, दलबदल के मामलों से निपटने के लिये एक स्वतंत्र प्राधिकरण की आवश्यकता है।
  • अंतरा-दल लोकतंत्र के सिद्धांत को बढ़ावा देना:
    • विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इस तर्क के साथ अंतरा-दल लोकतंत्र के महत्त्व को रेखांकित किया था कि कोई राजनीतिक दल अपने कार्यकरण में आंतरिक रूप से तानाशाह और बाह्य रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो सकता।
    • इसलिये, राजनीतिक दलों को अपने सदस्यों की राय सुननी चाहिये और उस पर चर्चा करनी चाहिये। यह सदस्यों को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करेगा और आंतरिक-दल लोकतंत्र को बढ़ावा देगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विश्लेषण:
    • भविष्य में दलबदल विरोधी कानून के उपयोग का मार्गदर्शन करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दसवीं अनुसूची का एक अकादमिक पुनरीक्षण करने का यह उपयुक्त समय है और इस दिशा में शीघ्र प्रयास किया जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: हमारी संसद और राज्य विधानसभाओं में बहस को दबाने में दलबदल विरोधी कानून उल्लेखनीय रूप से ज़िम्मेदार रहा है। टिप्पणी कीजिये।

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