कृषि
उत्पादकता से परे कृषि का मूल्यांकन
प्रिलिम्स के लिये:उच्च उपज, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-2021, हरित क्रांति, मोनोकल्चर कृषि, इंटरक्रॉपिंग, फसल चक्रण, बाजरा, परिशुद्ध खेती, जैविक कृषि, कृषि वानिकी, संरक्षण जुताई, जलवायु प्रतिरोधी फसल किस्में, मृदा की उर्वरता, सूक्ष्म पोषक तत्त्व। मेन्स के लिये:घटते कृषि उत्पादन और जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर धारणीय कृषि की आवश्यकता। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
कृषि की सफलता के मापन के रूप में केवल उत्पादन के बजाय लोगों को पोषण देने, आजीविका को बनाए रखने तथा भविष्य की पीढ़ियों के लिये ग्रह की रक्षा करने की इसकी क्षमता को महत्त्व दिया जाना आवश्यक है।
कृषि में केवल उपज पर ध्यान केंद्रित करने से संबंधित मुद्दे क्या हैं?
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी: अधिक उपज देने वाली चावल और गेहूँ की किस्मों के विकास के कारण उनके पोषण स्तर में कमी आई है।
- ICAR के एक अध्ययन में पाया गया कि चावल में जिंक का स्तर 33% तथा आयरन का स्तर 27% तक कम हो गया है जिससे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी की स्थिति और भी बदतर हो गई है।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: खाद्यान्नों की पोषण गुणवत्ता में गिरावट, बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं से संबंधित है।
- NFHS-5 (2019-2021) के अनुसार पाँच वर्ष से कम आयु के 35.5% भारतीय बच्चे अविकसित और 19.3% कमजोर हैं तथा 67.1% एनीमिया से पीड़ित हैं।
- उर्वरक पर निर्भरता: 1970 के दशक से उर्वरकों के संबंध में फसल की प्रतिक्रिया में 80% से अधिक की गिरावट आई है।
- किसानों को समान उपज प्राप्त करने के लिये अधिक उर्वरकों का उपयोग करना पड़ता है, जिससे आय में आनुपातिक वृद्धि के बिना इनपुट लागत बढ़ जाती है।
- वर्ष भर की फसल उत्पादकता को अनदेखी करना: केवल उपज को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित करने से मौसमी फसल उत्पादन में मदद मिल सकती है लेकिन पूरे वर्ष उत्पादन को अधिकतम करना संभव नहीं है।
- विभिन्न मौसमों के दौरान और विभिन्न मौसमों में फसलों के बीच होने वाले सहजीवी संबंधों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है जिससे वर्ष भर में समग्र पोषण उत्पादन और लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- जैवविविधता की हानि: केवल उपज पर ध्यान केंद्रित करने से प्रत्येक जगह केवल कुछ ही उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीजों को बढ़ावा मिलता है, जिससे जैवविविधता की हानि होती है।
- इससे कृषि प्रणाली कीटों, बीमारियों और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हो गई है।
- उदाहरण के लिये हरित क्रांति के बाद से भारत में चावल की लगभग 1,04,000 किस्में लुप्त हो चुकी हैं तथा केवल 6,000 पुरानी किस्में ही बची हैं।
- कृषि अनुकूलन में कमी: एकल कृषि पद्धतियाँ बाढ़, सूखे और हीट वेव जैसी घटनाओं के प्रति संवेदनशील होती हैं जिससे कृषि अनुकूलन में कमी आई है।
- फसलों की कई स्थानीय किस्में चरम स्थितियों के प्रति अधिक अनुकूल साबित हुई हैं।
- मोनोकल्चर नामक कृषि पद्धति का आशय एक ही फसल को एक बड़े क्षेत्र में कई फसली मौसमों तक उगाया जाना है।
- पारिस्थितिकी संतुलन में व्यवधान: एकल फसल उत्पादन से अंतरफसल एवं फसल चक्रण के लाभों की अनदेखी होती है, जिससे दीर्घकालिक कृषि उत्पादकता और लाभप्रदता कम हो सकती है।
- आंध्र प्रदेश में सब्जियों के साथ गन्ने की अंतरफसलीय खेती से पूरे वर्ष आय स्थिरता में सुधार हुआ है लेकिन एकल फसली खेती में इसकी अनदेखी होती है।
- अधिक पोषक तत्त्वों वाली फसलों की उपेक्षा: उच्च उपज वाली चावल और गेहूँ की किस्मों को प्राथमिकता देने से अनुकूल एवं अधिक पोषक तत्त्वों वाली फसलों फसलों में गिरावट आई है।
- उदाहरण के लिये, मोटे अनाज जैसे बाजरा के अंतर्गत बोया गया क्षेत्र 1950 के दशक से 10 मिलियन हेक्टेयर कम हो गया है जबकि चावल और गेहूँ का हिस्सा क्रमशः 13 मिलियन हेक्टेयर और 21 मिलियन हेक्टेयर बढ़ गया है।
- आय में अस्थिरता: उच्च पैदावार के लिये एक ही फसल पर निर्भरता के परिणामस्वरूप आर्थिक अस्थिरता हो सकती है, विशेष रूप से तब जब फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव होता है या जलवायु परिस्थितियों के कारण पैदावार कम हो जाती है।
कृषि संकेतक क्या हैं?
- कृषि संकेतकों से कृषि प्रणालियों के स्वास्थ्य, प्रदर्शन और स्थिरता के बारे में जानकारी मिलती है।
- ये उत्पादकता, आर्थिक व्यवहार्यता, पर्यावरणीय प्रभाव और सामाजिक कारकों सहित कृषि के विभिन्न पहलुओं का आकलन करने में मदद करते हैं।
- कुछ प्रमुख कृषि संकेतक:
- फसल उपज: फसल उपज से तात्पर्य फसलों के लिये प्रयुक्त भूमि में प्रति इकाई उपज की मात्रा से है।
- पशुपालन: इसका आशय पशु उत्पादों (जैसे, मांस या अंडे) हेतु पशुओं का पालन करना है।
- इनपुट दक्षता: इसका तात्पर्य सीमित संसाधनों जैसे भूमि, जल, पोषक तत्त्व, ऊर्जा आदि का उपयोग करके उच्च मात्रा एवं गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों का उत्पादन करना है।
- मृदा स्वास्थ्य: इसमें पोषक तत्त्वों की उपलब्धता, जड़ों को ऑक्सीजन की उपलब्धता, पोषक तत्त्व धारण क्षमता आदि शामिल हैं जिससे निर्धारित होता है कि मृदा कितनी अच्छी तरह कार्य कर सकती है।
- जल उपयोग दक्षता: यह जल की प्रत्येक इकाई द्वारा उत्पादित बायोमास या अनाज के रूप में संग्रहीत कार्बन की मात्रा को संदर्भित करता है।
- पोषण: कृषि में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों जैसे लोहा, जस्ता, विटामिन A और फोलेट से समृद्ध खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन: परिशुद्ध कृषि, जैविक कृषि, कृषि वानिकी और संरक्षण जुताई जैसी तकनीकों को अपनाया जाना चाहिये, जिससे उर्वरकों और जीवाश्म ईंधन जैसे इनपुट को कम करने में मदद मिलने के साथ उत्सर्जन में कमी आती है।
- जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन: रोपण की तिथियों को समायोजित करने, जलवायु प्रतिरोधी फसल किस्मों का चयन करने एवं कृषि वानिकी से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति कृषि अनुकूलन को बढ़ाया जा सकता है।
उत्पादकता से परे कृषि का मूल्यांकन करने से कृषि में किस प्रकार सुधार हो सकता है?
- समग्र विकास: कृषि संकेतक केवल कृषि मंत्रालय द्वारा निर्धारित नहीं किये जाने चाहिये बल्कि स्वास्थ्य, कृषि, जल और पर्यावरण मंत्रालयों द्वारा सामूहिक रूप से निर्धारित किये जाने चाहिये।
- इससे यह सुनिश्चित होगा कि कृषि नीतियों में लोक स्वास्थ्य, जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण जैसे विविध पहलुओं को ध्यान में रखा जाए।
- पोषण सुरक्षा: मात्रा (किलोग्राम/हेक्टेयर) के संदर्भ में उत्पादन को मापने की तुलना में प्रति हेक्टेयर पोषण उत्पादन को मापने से यह सुनिश्चित होगा कि खाद्य उत्पादन से प्रत्यक्ष रूप से मानव कल्याण में योगदान मिल रहा है।
- इससे न केवल मात्रा, बल्कि भोजन की गुणवत्ता को प्राथमिकता देकर कुपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी जैसे गंभीर मुद्दों का समाधान हो सकता है।
- मृदा स्वास्थ्य और जैविक गतिविधि: मृदा में जैविक संतुलन और मृदा कार्बन जैसे मापदंड दीर्घकालिक मृदा उर्वरता के महत्त्वपूर्ण संकेतक हैं।
- स्वस्थ मृदा को बनाए रखने से रासायनिक इनपुट पर अत्यधिक निर्भरता के बिना निरंतर उत्पादकता सुनिश्चित होती है। उदाहरण के लिये, मृदा स्वास्थ्य कार्ड।
- जल-उपयोग दक्षता: जल दक्षता में सुधार से इसके संरक्षण में मदद मिलती है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रति कृषि अधिक अनुकूल बनती है।
- तेलंगाना का AI-संचालित 'सागु-बागु' पायलट यह प्रदर्शित करता है कि किस प्रकार प्रौद्योगिकी सिंचाई को अनुकूलित कर सकती है और जल-उपयोग दक्षता में सुधार कर सकती है।
- फसल विविधीकरण: किसी क्षेत्र में एक से अधिक फसलें उगाने से यह सुनिश्चित होता है कि कोई क्षेत्र एक ही फसल पर अत्यधिक निर्भर न हो जाए, जिससे कीटों, बीमारियों और मूल्य में उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशीलता कम हो जाती है।
- फसलों की क्षेत्रीय विविधता का आकलन करने के लिये लैंडस्केप डायवर्सिटी स्कोर विकसित किया जाना चाहिये।
- आय विविधीकरण: फसल विविधीकरण, पशुपालन और अंतरफसल जैसे आय विविधीकरण के माध्यम से आर्थिक रूप से अधिक लचीली कृषि प्रणालियों का निर्माण हो सकता है।
सतत् कृषि के लिये सरकार की पहल क्या हैं?
निष्कर्ष
यील्ड/उपज-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर व्यापक कृषि ढाँचे की ओर जाने से पोषण सुरक्षा को बढ़ावा मिलता है, मिट्टी और जल स्वास्थ्य में सुधार होता है तथा जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है। विविध संकेतकों को एकीकृत करके एवं मंत्रालयों के बीच सहयोग को बढ़ावा देकर, भारत एक अधिक लचीली व सतत् कृषि प्रणाली बना सकता है जो लोगों को पोषण प्रदान करते हुए भावी पीढ़ियों के लिये पर्यावरण की रक्षा करेगी।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारतीय कृषि में पोषण गुणवत्ता की तुलना में यील्ड को प्राथमिकता देने के परिणामों पर चर्चा कीजिये। यील्ड के अलावा कृषि में कैसे सुधार हो सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न: 'गहन कदन्न संवर्द्धन के माध्यम से पोषण सुरक्षा के लिये पहल (Initiative for Nutritional Security through Intensive Millets Promotion)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही है/हैं? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न: एकीकृत कृषि प्रणाली (आई. एफ. एस.) किस सीमा तक कृषि उत्पादन को संधारित करने में सहायक है? (2019) |
कृषि
हैबर-बॉश प्रक्रिया और उर्वरकों का उत्पादन
प्रिलिम्स के लिये:हैबर-बॉश प्रक्रिया, नाइट्रोजन, अमोनिया, लाइटनिंग, एज़ोटोबैक्टर और राइज़ोबिया, ज्वालामुखी विस्फोट, अम्लीय वर्षा, जैविक खेती, जैव उर्वरक। मेन्स के लिये:हैबर-बॉश प्रक्रिया का महत्त्व, उर्वरकों के उपयोग के निहितार्थ, नाइट्रोजन चक्र। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हैबर-बॉश प्रक्रिया के माध्यम से वायुमंडल की सौ मिलियन टन नाइट्रोजन को उर्वरक में परिवर्तित किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप मृदा में 165 मिलियन टन अभिक्रियाशील नाइट्रोजन शामिल होती है।
- इसकी तुलना में प्राकृतिक जैविक प्रक्रियाओं से प्रतिवर्ष अनुमानित 100-140 मिलियन टन अभिक्रियाशील नाइट्रोजन उत्पन्न होता है।
हैबर-बॉश प्रक्रिया क्या है?
- परिचय:
- हैबर-बॉश, वायु से नाइट्रोजन को प्राप्त कर उसे हाइड्रोजन के साथ संयोजित करके अमोनिया के संश्लेषण की एक औद्योगिक विधि है, जिसकी उर्वरक उत्पादन में प्रमुख भूमिका है।
- प्रक्रिया:
- प्रयोगात्मक उपकरण:
- यह अभिक्रिया स्टील चैम्बर में 200 atm के दाब पर होती है, जिससे नाइट्रोजन-हाइड्रोजन मिश्रण प्रभावी रूप से प्रसारित होता है।
- विशेष रूप से डिज़ाइन किया गया वाल्व उच्च दाब में N₂-H₂ मिश्रण को प्रवाहित होने देता है।
- हैबर ने बाहर जाने वाली गर्म गैसों की ऊष्मा को अंदर आने वाली ठंडी गैसों में स्थानांतरित करने के लिये एक प्रणाली लागू की, जिससे ऊर्जा दक्षता को अनुकूलित किया जा सका।
- उत्प्रेरक विकास:
- हैबर ने शुरू में अभिक्रिया को गति देने के लिये उत्प्रेरक के रूप में उपयुक्त फिलामेंट पदार्थों की तलाश में विभिन्न सामग्रियों के साथ प्रयोग किया।
- परीक्षण किये गए पदार्थों में ऑस्मियम भी शामिल था, जिसे जब N₂-H₂ मिश्रण के साथ दाब चैम्बर में रखा गया तो उसके द्वारा नाइट्रोजन त्रिबंध को सफलतापूर्वक तोड़ दिया गया, जिससे अमोनिया का उत्पादन संभव हो पाया।
- यूरेनियम एक अन्य प्रभावी उत्प्रेरक था लेकिन ऑस्मियम और यूरेनियम दोनों ही बड़े पैमाने पर अनुप्रयोगों के लिये बहुत महँगे थे।
- अधिक लागत प्रभावी उत्प्रेरक की खोज के परिणामस्वरूप विशिष्ट लौह ऑक्साइड को व्यवहार्य विकल्प के रूप में पहचाना गया।
- प्रयोगात्मक उपकरण:
- अनुप्रयोग:
- विनिर्माण: औद्योगिक प्रशीतन प्रणालियों और वातानुकूलन में प्रशीतक के रूप में।
- घरेलू: घरेलू सफाई उत्पादों में एक घटक के रूप में, जिसमें काँच और सरफेस क्लीनर शामिल हैं।
- ऑटोमोटिव ईंधन: वैकल्पिक प्रणोदन प्रौद्योगिकी के रूप में अमोनिया द्वारा संचालित आंतरिक दहन इंजन की खोज में।
- रसायन: नाइट्रिक एसिड और विस्फोटकों सहित विभिन्न रसायनों का अग्रणी।
- प्रमुख उपलब्धियाँ:
- वर्ष 1913 में जर्मन रासायनिक कंपनी ने अपना पहला अमोनिया कारखाना खोला, जो उर्वरकों के उत्पादन में एक मील का पत्थर था।
- जर्मन रसायनज्ञ फ्रिट्ज़ हैबर को अमोनिया संश्लेषण पर उनके कार्य के लिये वर्ष 1919 में रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मिला।
नाइट्रोजन चक्र क्या है?
- परिचय:
- पौधे जल में घुलित नाइट्रोजन-आधारित खनिजों जैसे अमोनियम (NH4+) और नाइट्रेट (NO3–) को अवशोषित करके मृदा से अभिक्रियाशील नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं।
- मनुष्य और पशु नौ आवश्यक नाइट्रोजन युक्त अमीनो एसिड के लिये पौधों पर निर्भर रहते हैं, क्योंकि मानव शरीर में नाइट्रोजन लगभग 2.6% होता है।
- अंतर्ग्रहण के बाद नाइट्रोजन मलमूत्र और मृत जीवों के अपघटन के माध्यम से मृदा में वापस चला जाता है लेकिन नाइट्रोजन का कुछ अंश आणविक नाइट्रोजन के रूप में वायुमंडल में वापस चला जाता है, जिससे चक्र अधूरा रह जाता है।
- नाइट्रोजन की प्राकृतिक उपलब्धता:
- लाइटनिंग: लाइटनिंग बोल्ट में N2 बंधन को तोड़ने के लिये पर्याप्त ऊर्जा होती है तथा ये नाइट्रोजन को ऑक्सीजन के साथ संयोजित कर नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO और NO2) बनाने में सक्षम है।
- ये ऑक्साइड जलवाष्प के साथ मिलकर नाइट्रिक और नाइट्रस अम्ल बनाते हैं जो अम्लीय वर्षा के साथ मिलकर मृदा को अभिक्रियाशील नाइट्रोजन प्रदान करते हैं।
- जैविक स्थिरीकरण: कुछ बैक्टीरिया जैसे एज़ोटोबैक्टर और राइज़ोबियम, वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अभिक्रियाशील नाइट्रोजन में परिवर्तित कर सकते हैं।
- इन जीवाणुओं का अक्सर फलियों या एज़ोला जैसे जलीय फर्न जैसे पौधों के साथ सहजीवी संबंध होता है, जिससे मृदा में नाइट्रोजन की उपलब्धता में वृद्धि होती है, जिससे ये कृषि के लिये अधिक मूल्यवान बन जाते हैं।
- लाइटनिंग: लाइटनिंग बोल्ट में N2 बंधन को तोड़ने के लिये पर्याप्त ऊर्जा होती है तथा ये नाइट्रोजन को ऑक्सीजन के साथ संयोजित कर नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO और NO2) बनाने में सक्षम है।
- नाइट्रोजन पुनःपूर्ति की प्रक्रिया:
- फलीदार पौधे प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते हैं लेकिन चावल, गेहूँ, मक्का, आलू, कसावा, केले और अन्य फल तथा सब्जियों जैसी अधिकांश प्रमुख फसलें अपने विकास के लिये मृदा के नाइट्रोजन पर निर्भर हैं।
- जैसे-जैसे मानव आबादी बढ़ती है, कृषि मृदा में नाइट्रोजन की कमी तेजी से होती है, जिससे मृदा की उर्वरता बनाए रखने के लिये उर्वरकों के उपयोग की आवश्यकता होती है।
- नाइट्रोजन पुनःपूर्ति की परंपरागत विधियाँ:
- परंपरागत रूप से किसान मृदा में नाइट्रोजन की प्राकृतिक पूर्ति के लिये फलियों की खेती करते थे या फसल की पैदावार बढ़ाने के लिये अमोनिया आधारित उर्वरकों का प्रयोग करते थे।
- पूर्व में किसानों द्वारा मृदा की उर्वरता बढ़ाने के लिये ज्वालामुखी विस्फोटों से प्राप्त अमोनियम युक्त खनिजों एवं गुफाओं और चट्टानों में पाए जाने वाले प्राकृतिक नाइट्रेट्स का भी उपयोग किया गया।
उर्वरकों के औद्योगिक उत्पादन का क्या प्रभाव है?
- लाभ:
- हैबर-बॉश प्रक्रिया से सिंथेटिक उर्वरकों के बड़े पैमाने पर उत्पादन को संभव बनाया गया, जिससे 20वीं शताब्दी के दौरान वैश्विक खाद्य आपूर्ति तथा जीवन प्रत्याशा में वृद्धि हुई।
- अनुमान है कि विश्व की एक तिहाई जनसंख्या नाइट्रोजन उर्वरकों से उत्पादित खाद्यान्न पर निर्भर है।
- नाइट्रोजन और हाइड्रोजन से अमोनिया के औद्योगिक उत्पादन के बिना, खाद्यान्न की बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करना असंभव होता।
- दोष:
- यद्यपि सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरक खाद्य उत्पादन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन इनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- अत्यधिक नाइट्रोजन के प्रयोग से पौधों के अतिपोषण के साथ जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ती है और वायुमंडल में नाइट्रोजन का उत्सर्जन तीव्र होता है।
- इससे पर्यावरणीय क्षरण को बढ़ावा मिलता है जिसमें अम्लीय वर्षा, भूमि क्षरण तथा अपवाह के माध्यम से सतही जल का ऑक्सीजन रहित होना शामिल है, जिसके कारण जल निकायों में खरपतवार की अत्यधिक वृद्धि होती है।
आगे की राह:
- उर्वरकों के सतत् उपयोग को बढ़ावा देना: नाइट्रोजन की बर्बादी को कम करने, पर्यावरणीय क्षति को न्यूनतम करने एवं खेती में उर्वरक उपयोग की दक्षता बढ़ाने के लिये परिशुद्ध कृषि और नियंत्रित-रिलीज़ उर्वरकों को अपनाने को प्रोत्साहित करना चाहिये।
- वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों में निवेश करना: रासायनिक उर्वरकों के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिये सिंथेटिक उर्वरकों के पर्यावरण अनुकूल विकल्पों (जैसे जैविक कृषि पद्धतियों, नाइट्रोजन-फिक्सिंग फसलों और जैव उर्वरकों) का विकास और प्रचार करना चाहिये।
- नीतिगत ढाँचे को मज़बूत करना: सरकारों को उर्वरक के अत्यधिक उपयोग को नियंत्रित करने तथा सतत् कृषि प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिये नियमों को लागू करना चाहिये ताकि पारिस्थितिकी तंत्र और लोक स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
- वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना: खाद्य वितरण संबंधी असमानताओं को दूर करने, कृषि नवाचारों तक पहुँच में सुधार लाने तथा खाद्य असुरक्षा वाले क्षेत्रों के लिये क्षमता निर्माण पहलों का समर्थन करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना चाहिये ताकि वैश्विक खाद्य चुनौतियों के लिये न्यायसंगत समाधान सुनिश्चित किये जा सकें।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: कृषि और पर्यावरण पर सिंथेटिक उर्वरकों के प्रभाव की आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। इन चुनौतियों को कम करने के लिये टिकाऊ विकल्पों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में रासायनिक उर्वरकों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्स:Q. सिक्किम भारत में प्रथम 'जैविक राज्य' है। जैविक राज्य के पारिस्थितिक एवं आर्थिक लाभ क्या-क्या होते हैं? |


अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत-पाकिस्तान संबंध और SCO
प्रिलिम्स के लिये:शंघाई सहयोग संगठन (SCO), TAPI (तुर्कमेनिस्तान-पाकिस्तान-अफगानिस्तान-भारत), SAARC, क्षेत्रीय आतंकवाद रोधी संरचना (RATS), संयुक्त राष्ट्र महासभा, ईरान-पाकिस्तान-भारत (IPI) पाइपलाइन, शंघाई स्पिरिट, SCO-अफगानिस्तान संपर्क समूह, स्वतंत्र राज्यों का राष्ट्रमंडल (CIS), दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों का संगठन (ASEAN), सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO)। मेन्स के लिये:भारत और पाकिस्तान संबंधों को मज़बूत करने में बहुपक्षीय मंचों की भूमिका तथा इसमें शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का महत्त्व। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान के इस्लामाबाद में SCO परिषद के शासनाध्यक्षों की बैठक के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री के साथ अनौपचारिक बातचीत की।
- इसमें कहा गया है कि यह बातचीत पिछली मुलाकातों की तुलना में अधिक सकारात्मक रही।
- शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के शासनाध्यक्षों की परिषद, SCO के राष्ट्राध्यक्षों की परिषद के बाद दूसरी सबसे बड़ी परिषद है।
SCO शिखर सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान के बीच क्या सकारात्मक घटनाक्रम हुए?
- विवादास्पद भाषणों का परिहार: भारत और पाकिस्तान दोनों ने अपने राष्ट्रीय वक्तव्यों में विवादास्पद भाषणों का प्रयोग करने से परहेज किया।
- पाकिस्तान की ओर से कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों का कोई सीधा उल्लेख नहीं किया गया, जबकि भारत ने सीमा पार आतंकवाद पर चर्चा करते समय पाकिस्तान का विशेष उल्लेख करने से परहेज किया।
- प्रोडक्टिव मीटिंग: भारत ने SCO की प्रोडक्टिव मीटिंग आयोजित करने के लिये पाकिस्तानी नेतृत्व की सराहना की तथा अपने प्रस्थान वक्तव्य में सकारात्मक संकेत दिया।
- क्षेत्रीय मुद्दों पर सहयोग: व्यापार, संपर्क, ऊर्जा प्रवाह तथा आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद के विरुद्ध सहयोग जैसे विषयों पर चर्चा की गई, जिसमें टकराव के बजाय सहयोग पर बल दिया गया।
- कुछ SCO सदस्यों के साथ TAPI (तुर्कमेनिस्तान-पाकिस्तान-अफगानिस्तान-भारत) ऊर्जा पाइपलाइन और अन्य मुद्दों पर चर्चा की गई।
- आर्थिक सहयोग के लिये पहल: इस शिखर सम्मेलन के परिणामस्वरूप आर्थिक वार्ता कार्यक्रम और आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिये रणनीतियों को प्रस्तावित किया गया।
- संयुक्त वक्तव्य में हरित विकास, डिजिटल अर्थव्यवस्था, व्यापार के साथ निर्धनता उन्मूलन एवं नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में सहयोग पर बल दिया गया।
यह सकारात्मक घटनाक्रम महत्त्वपूर्ण क्यों हैं?
- अनुच्छेद 370 का निरसन (2019): अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति (अनुच्छेद 370) को रद्द करने के भारत के फैसले से पहले से ही कमजोर संबंध और अधिक तनावपूर्ण हो गए।
- पाकिस्तान इसे अवैध मानता है जबकि भारत इसे अपना आंतरिक मामला मानता है।
- द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट: 7 अगस्त 2019 को पाकिस्तान ने भारत द्वारा जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के प्रतिक्रिया में भारत के साथ राजनयिक संबंधों को निम्न कर चार्ज डी'एफेयर स्तर तक कर दिया और भारतीय उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया।
- सिंधु जल संधि: विशेष रूप से किशनगंगा और रतले जलविद्युत परियोजनाओं पर विवाद से तनाव में वृद्धि हुई, जिसमें पाकिस्तान का आरोप है कि भारत संधि का उल्लंघन कर रहा है।
- भारत ने औपचारिक रूप से पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि (IWT) की समीक्षा और संशोधन का अनुरोध किया है, जो पाकिस्तान को उचित नहीं लगा।
- सीमित व्यापार: वर्ष 2019 में पुलवामा हमले के बाद, भारत ने पाकिस्तान का सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (MFN) का दर्जा रद्द कर दिया तथा पाकिस्तान ने द्विपक्षीय व्यापार निलंबित कर दिया।
- अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से द्विपक्षीय व्यापार बाधित हुआ। वर्ष 2018-19 में निर्यात के रूप में 2.06 बिलियन अमेरिकी डॉलर और आयात के रूप में 0.495 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ।
- आंतरिक हस्तक्षेप: पाकिस्तान ने भारत पर बलूचिस्तान प्रांत में अशांति फैलाने और वहाँ अलगाववादी आंदोलनों को समर्थन देने का आरोप लगाया है।
- भारत ने पाकिस्तान पर कश्मीरी युवाओं को कट्टरपंथी बनाने तथा कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का आरोप लगाया है।
बहुपक्षीय मंच भारत-पाकिस्तान संबंधों को कैसे सुधार सकते हैं?
- वार्ता के लिये तटस्थ मंच: SCO जैसी बहुपक्षीय संस्थाएँ भारत और पाकिस्तान को द्विपक्षीय तनाव के बिना बातचीत करने के लिये तटस्थ वातावरण प्रदान करती हैं।
- ये मंच अनौपचारिक बातचीत और ट्रैक-टू कूटनीति (अनौपचारिक, गैर-सरकारी चर्चा) की सुविधा देते हैं, जिससे तनाव कम होने के साथ संचार के रास्ते खुल सकते हैं।
- क्षेत्रीय सहयोग: SAARC के माध्यम से दोनों राष्ट्रों ने पहले भी क्षेत्रीय व्यापार समझौतों पर सहयोग किया है।
- जलवायु परिवर्तन, आपदा प्रबंधन और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाएँ अभी भी अधिक हैं।
- सुरक्षा चिंताएँ: भारत और पाकिस्तान दोनों ही SCO के क्षेत्रीय आतंकवाद-रोधी ढाँचे (RATS) का हिस्सा हैं जिसका उद्देश्य आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद से निपटने में सहयोग को बढ़ावा देना है।
- इससे ऐसा ढाँचा मिलता है जिसके तहत दोनों देश साझा सुरक्षा खतरों पर मिलकर कार्य कर सकते हैं, भले ही उनके द्विपक्षीय संबंध तनावपूर्ण हों।
- अविश्वास को कम करना: संयुक्त राष्ट्र महासभा और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों में कई देशों की भागीदारी होती है जो रचनात्मक बातचीत के लिये मध्यस्थ के रूप में कार्य कर सकते हैं।
- बहुपक्षीय कूटनीति से तनाव कम हो सकता है जैसा कि वर्ष 1999 के कारगिल संघर्ष (जिसमें अंतर्राष्ट्रीय दबाव ने स्थिति को सामान्य करने में भूमिका निभाई) में देखा गया था।
- आर्थिक आदान-प्रदान: पारस्परिक लाभ वाली तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (TAPI) पाइपलाइन और ईरान-पाकिस्तान-भारत (IPI) पाइपलाइन जैसी परियोजनाएँ विभिन्न विरोधियों के बीच भी सहयोग को बढ़ावा दे सकती हैं।
SCO के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- परिचय: यह 15 जून 2001 को शंघाई, चीन में स्थापित एक स्थायी अंतर-सरकारी अंतर्राष्ट्रीय संगठन है।
- स्थापना: इसकी स्थापना छह संस्थापक देशों अर्थात् कज़ाखस्तान, चीन, किर्गिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उजबेकिस्तान द्वारा की गई थी।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य सदस्य देशों के बीच आपसी विश्वास को मज़बूत करना, विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना, क्षेत्रीय शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना तथा एक निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को बढ़ावा देना है।
- सिद्धांत: SCO में शंघाई स्पिरिट का पालन होता है जो पारस्परिक विश्वास, पारस्परिक लाभ, समानता, परामर्श, सांस्कृतिक विविधता के प्रति सम्मान और साझा विकास पर आधारित है।
- निर्णय लेने वाली संस्थाएँ: SCO का सर्वोच्च निर्णय लेने वाला निकाय राष्ट्राध्यक्षों की परिषद (CHS) है, जिसकी प्रमुख संगठनात्मक मुद्दों पर विचार करने के लिये प्रतिवर्ष बैठक होती है।
- सहयोग रणनीतियों पर चर्चा करने, क्षेत्रों को प्राथमिकता देने तथा बजट को मंजूरी देने के लिये प्रतिवर्ष शासनाध्यक्षों की परिषद (CHG) की बैठक होती है।
- स्थायी निकाय: SCO के दो स्थायी निकाय हैं।
- इसका सचिवालय बीजिंग में स्थित है, जो संगठन के दैनिक कार्यों के लिये ज़िम्मेदार है।
- ताशकंद की क्षेत्रीय आतंकवाद रोधी संरचना (RATS) की कार्यकारी समिति, क्षेत्रीय सुरक्षा के साथ आतंकवाद विरोधी प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करती है।
- वर्तमान सदस्यता: SCO के 10 पूर्ण सदस्य हैं अर्थात् चीन, रूस, कज़ाखस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, भारत, पाकिस्तान, ईरान (2023) और बेलारूस (2024)।
- SCO-अफगानिस्तान संपर्क समूह: वर्ष 2005 में SCO ने अफगानिस्तान में सुरक्षा और स्थिरता संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिये SCO-अफगानिस्तान संपर्क समूह का गठन किया, जो क्षेत्रीय सुरक्षा मुद्दों के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- आधिकारिक भाषाएँ: SCO की आधिकारिक भाषाएँ रूसी और चीनी हैं जो सदस्य देशों के बीच संचार को सुविधाजनक बनाती हैं।
- साझेदारियाँ और सहयोग: SCO ने विभिन्न संगठनों के साथ साझेदारियाँ विकसित की हैं जिनमें स्वतंत्र राज्यों के राष्ट्रमंडल (CIS), दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (ASEAN), सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) और कई संयुक्त राष्ट्र एजेंसियाँ शामिल हैं।
निष्कर्ष
SCO बैठक में भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में हुई अनौपचारिक बातचीत (जिसमें सकारात्मक विकास और रचनात्मक संवाद देखा गया) सहयोग को बढ़ावा देने के लिये बहुपक्षीय मंचों की भूमिका पर प्रकाश डालती है। क्षेत्रीय सहयोग को प्राथमिकता देकर और आम चुनौतियों का समाधान करके ये मंच बेहतर द्विपक्षीय संबंधों के साथ स्थिरता का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: विश्लेषण कीजिये कि बहुपक्षीय मंच भारत और पाकिस्तान के बीच अविश्वास को कैसे कम कर सकते हैं। शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की प्रकृति इसमें किस प्रकार योगदान दे सकती है? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मेन्सप्रश्न: SCO के उद्देश्यों और लक्ष्यों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। भारत के लिये इसका क्या महत्त्व है? (2021) |


भारतीय अर्थव्यवस्था
विश्व ऊर्जा परिदृश्य 2024
प्रिलिम्स के लिये:विश्व ऊर्जा परिदृश्य 2024, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, नवीकरणीय ऊर्जा, आपूर्ति शृंखला के मुद्दे, जलवायु परिवर्तन, शुद्ध शून्य उत्सर्जन मेन्स:विश्व ऊर्जा परिदृश्य, 2024 में चुनौतियाँ, भारत के ऊर्जा क्षेत्र में चुनौतियाँ |
स्रोत: हिदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) द्वारा जारी विश्व ऊर्जा परिदृश्य (वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक) 2024, वैश्विक ऊर्जा प्रवृत्तियों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन, बढ़ती ऊर्जा मांग और भू-राजनीतिक संघर्षों के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- यह रिपोर्ट भारत की बढ़ती ऊर्जा मांग, कोयले पर निर्भरता और वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा पर केंद्रित है।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) क्या है?
- परिचय:
- IEA की स्थापना वर्ष 1974 में आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) के सदस्य देशों द्वारा वर्ष 1973-1974 के तेल संकट से निपटने में औद्योगिक देशों की सहायता हेतु की गई थी।
- तब से इसका कार्य ऊर्जा सुरक्षा, आर्थिक विकास और स्वच्छ ऊर्जा तक विस्तारित हो गया है।
- IEA एक स्वायत्त मंच है जो देशों को सुरक्षित और सतत् ऊर्जा उपलब्ध कराने में मदद करने के लिये विश्लेषण, डेटा और नीति सिफारिशें प्रदान करता है।
- IEA के चार मुख्य क्षेत्र ऊर्जा सुरक्षा, आर्थिक विकास, पर्यावरण जागरूकता और विश्वव्यापी सहभागिता हैं।
- इसका मुख्यालय पेरिस, फ्राँस में है।
- IEA की स्थापना वर्ष 1974 में आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) के सदस्य देशों द्वारा वर्ष 1973-1974 के तेल संकट से निपटने में औद्योगिक देशों की सहायता हेतु की गई थी।
- सदस्य:
- IEA में 31 सदस्य देश, भारत सहित 13 सहयोगी देश और 4 परिग्रहण देश शामिल हैं।
- IEA हेतु उम्मीदवार देश को OECD का सदस्य देश होना चाहिये।
- प्रमुख रिपोर्ट:
- वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक।
- विश्व ऊर्जा निवेश रिपोर्ट।
- इंडिया एनर्जी आउटलुक रिपोर्ट।
- IEA टेक्नोलॉजी रोडमैप एंड पालिसी पाथवे सीरीज़
- द एनुअल एनर्जी एफिशिएंसी मार्किट रिपोर्ट
- द एनर्जी टेक्नोलॉजी पर्सपेक्टिव्स
विश्व ऊर्जा परिदृश्य 2024 रिपोर्ट की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
- भू-राजनीतिक तनाव और ऊर्जा सुरक्षा: रूस-यूक्रेन युद्ध और मध्य पूर्व में चल रहे संघर्ष वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा के लिये खतरा बने हुए हैं।
- स्वच्छ ऊर्जा में परिवर्तन में तेज़ी: स्वच्छ ऊर्जा में निवेश (विशेष रूप से सौर और पवन ऊर्जा में) रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया है।
- अकेले वर्ष 2023 में वैश्विक स्तर पर 560 गीगावाट (GW) से अधिक नवीकरणीय क्षमता को शामिल किया गया जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- वैश्विक विद्युत मिश्रण परिवर्तन: वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा कोयला, तेल और गैस को पीछे छोड़ते हुए बिजली का प्रमुख स्रोत बन जाने की उम्मीद है।
- सौर फोटोवोल्टिक और पवन ऊर्जा इस बदलाव को आगे बढ़ा रहे हैं तथा अनुमान है कि परमाणु ऊर्जा सहित कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों से इस दशक के अंत तक विश्व की 50% से अधिक बिजली पैदा होगी।
- तेल और गैस बाज़ार अधिशेष की स्थिति में: वर्ष 2020 की दूसरी छमाही में तेल और तरलीकृत प्राकृतिक गैस आपूर्ति में अधिशेष से कीमतों पर दबाव देखने को मिला।
- बढ़ती विद्युत गतिशीलता और तेल मांग में बदलाव: वैश्विक इलेक्ट्रिक वाहन बाज़ार का तेज़ी से विस्तार हो रहा है और अनुमान है कि वर्ष 2030 तक नई कारों की बिक्री में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी 50% होगी।
- स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी प्रतिस्पर्द्धा: रिपोर्ट में सौर पी.वी. और बैटरी भंडारण जैसी स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के आपूर्तिकर्त्ताओं के बीच तीव्र प्रतिस्पर्द्धा पर प्रकाश डाला गया है।
- ऊर्जा प्रणालियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के तेज़ी से बढ़ते प्रभाव (जैसे चरम मौसमी घटनाएँ) वैश्विक ऊर्जा प्रणालियों के लिये नई चुनौतियाँ उत्पन्न कर रहे हैं।
- ऊर्जा दक्षता की भूमिका: उत्सर्जन में कटौती के लिये ऊर्जा दक्षता में सुधार महत्त्वपूर्ण है, लेकिन रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्तमान नीतियों के साथ वर्ष 2030 तक दक्षता को दोगुना करने का वैश्विक लक्ष्य पूरा होना संभव नहीं है।
भारत से संबंधित मुख्य बातें क्या हैं?
- भारत की आर्थिक और जनसंख्या वृद्धि: वर्ष 2023 में भारत 7.8% की वृद्धि दर के साथ सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था थी। वर्ष 2028 तक यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिये तैयार है।
- वर्ष 2023 में भारत प्रतिस्थापन स्तर से नीचे प्रजनन दर होने के बावजूद, सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन से आगे निकल जाएगा।
- बढ़ती ऊर्जा मांग: भारत में अगले दशक में वैश्विक स्तर पर ऊर्जा मांग में सबसे अधिक वृद्धि होने की संभावना है, जो तीव्र आर्थिक विकास और शहरीकरण से प्रेरित है।
- वर्ष 2035 तक कुल ऊर्जा मांग में लगभग 35% की वृद्धि होने की उम्मीद है जिसमें परिवहन, निर्माण और विनिर्माण जैसे क्षेत्र महत्त्वपूर्ण होंगे।
- कोयले पर अधिक निर्भरता: अपने महत्त्वाकांक्षी नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों के बावजूद कोयला, भारत के ऊर्जा मिश्रण का प्रमुख हिस्सा बना हुआ है।
- अनुमान है कि वर्ष 2030 तक देश में कोयला आधारित ऊर्जा क्षमता में लगभग 60 गीगावाट की वृद्धि हो जाएगी तथा कोयले से भारत की 30% से अधिक विद्युत् का उत्पादन जारी रहेगा, जबकि सौर प्रतिष्ठानों का तेज़ी से विस्तार हो रहा है।
- औद्योगिक विस्तार: भारत का औद्योगिक क्षेत्र वर्ष 2035 तक बड़ी वृद्धि के लिये तैयार है।
- लोहा एवं इस्पात उत्पादन में 70% की वृद्धि होने की उम्मीद है जबकि सीमेंट उत्पादन में 55% की वृद्धि का अनुमान है।
- शीतलन के लिये बिजली की मांग: भारत में एयर कंडीशनरों की मांग वर्ष 2035 तक 4.5 गुना से अधिक बढ़ने का अनुमान है, जिससे शीतलन के लिये बिजली की मांग बढ़ जाएगी।
- वर्ष 2035 में अकेले एयर कंडीशनिंग के लिये आवश्यक ऊर्जा, उस वर्ष मेक्सिको की कुल अनुमानित बिजली खपत से अधिक होगी।
- नवीकरणीय ऊर्जा विकास और भंडारण क्षमता: भारत अपने नवीकरणीय ऊर्जा पोर्टफोलियो के विस्तार में काफी प्रगति कर रहा है।
- देश वर्ष 2035 तक अपनी बिजली उत्पादन क्षमता को लगभग तीन गुना बढ़ाकर 1,400 गीगावाट करने की राह पर है।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2030 तक भारत में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी स्थापित बैटरी भंडारण क्षमता होगी, जो सौर और पवन जैसी परिवर्तनीय नवीकरणीय ऊर्जा को एकीकृत करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य: वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने का भारत का लक्ष्य इसकी ऊर्जा रणनीति का एक प्रमुख घटक है।
- इस राह में स्वच्छ विद्युत उत्पादन वर्ष 2035 तक वर्तमान नीतिगत अनुमानों से 20% अधिक होने की उम्मीद है।
- उद्योगों में इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन का उपयोग कोयले और तेल की खपत को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भारत का CO2 उत्सर्जन वर्ष 2035 तक निर्धारित नीतिगत परिदृश्य (STEPS) की तुलना में 25% कम होने का अनुमान है।
- इलेक्ट्रिक मोबिलिटी और तेल की मांग में वृद्धि: भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) को तेज़ी से अपनाए जाने से वर्ष 2030 तक तेल की मांग में वृद्धि होगी।
- जैसे-जैसे अधिक इलेक्ट्रिक वाहन सड़कों पर होंगे, परिवहन के लिये तेल की मांग में कमी आएगी। हालांकि पेट्रोकेमिकल्स जैसे अन्य क्षेत्रों में तेल का उपयोग बढ़ता रहेगा।
- सरकारी नीतिगत समर्थन: भारत की स्वच्छ ऊर्जा महत्त्वाकांक्षाओं को कृषि में सौर ऊर्जा के लिये पीएम-कुसुम योजना, राष्ट्रीय सौर मिशन और सौर पीवी मॉड्यूल के विनिर्माण के लिये उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना जैसी मज़बूत सरकारी पहलों का समर्थन प्राप्त है।
रिपोर्ट में किन चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है?
- भू-राजनीतिक जोखिम: यूक्रेन में युद्ध जैसे संघर्ष ऊर्जा सुरक्षा के लिये खतरा पैदा करते हैं और वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति को बाधित करते हैं।
- आपूर्ति शृंखला के मुद्दे: सौर पैनल और बैटरी जैसी अधिकांश स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियाँ कुछ ही देशों में बनाई जाती हैं। यदि आपूर्ति बाधित होती है तो यह संकेंद्रण जोखिम पैदा करता है।
- उच्च वित्तपोषण लागत: नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को वित्तपोषित करना अधिक महंगा (विशेष रूप से विकासशील देशों में) होता जा रहा है।
- ग्रिड अवसंरचना में देरी: कई देशों में तेज़ी से बढ़ती नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति के लिये ग्रिड क्षमता का अभाव है, जिसके कारण सौर और पवन ऊर्जा का कम उपयोग हो रहा है।
- ऊर्जा दक्षता में धीमी प्रगति: ऊर्जा दक्षता में सुधार के प्रयास वैश्विक लक्ष्यों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
- जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता: नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि के बावजूद कोयला, तेल और गैस अभी भी ऊर्जा उपयोग में प्रमुख हैं, जिससे स्वच्छ ऊर्जा की ओर बदलाव धीमा हो रहा है।
- विकासशील देशों के लिये चुनौतियाँ: कई गरीब देशों को स्वच्छ ऊर्जा के लिये आवश्यक निवेश प्राप्त करने में कठिनाई हो रही है, जिससे ऊर्जा तक पहुँच में अंतराल बढ़ रहा है।
- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: चरम मौसमी घटनाएँ (जैसे हीट वेव और बाढ़ से ऊर्जा प्रणालियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है, जिसके अनुकूलन की आवश्यकता बढ़ रही है।
आगे की राह
- स्वच्छ ऊर्जा निवेश में वृद्धि: सरकारों को भविष्य की ऊर्जा मांगों और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये नवीकरणीय ऊर्जा और ग्रिड बुनियादी ढाँचे के लिये वित्तपोषण देना चाहिये।
- सरकारों द्वारा लालफीताशाही को कम करके और प्रोत्साहन देकर व्यवसायों के लिये स्वच्छ ऊर्जा में निवेश करना आसान बनाना चाहिये।
- आपूर्ति शृंखला में विविधता लाना: देशों को अधिक स्थानीय विनिर्माण क्षमता का निर्माण करके स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिये कुछ देशों पर निर्भरता कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- विकासशील देशों के लिये वित्तपोषण में सुधार: विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये अपने नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्रों को विकसित करने हेतु किफायती वित्तपोषण तक आसान पहुँच आवश्यक है।
- ग्रिड अवसंरचना का विस्तार और आधुनिकीकरण: अधिक स्मार्ट, बड़े ग्रिड और ऊर्जा भंडारण में निवेश से यह सुनिश्चित होगा कि नवीकरणीय ऊर्जा को पूरी तरह से एकीकृत किया जा सके और उसका कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सके।
- ऊर्जा दक्षता प्रयासों में तेज़ी लाना: ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिये मज़बूत नीतियों की आवश्यकता है, जिससे उत्सर्जन और ऊर्जा मांग में काफी कमी आ सकती है।
- जलवायु लचीलापन बढ़ाना: ऊर्जा प्रणालियों के लचीलेपन और अनुकूलनशीलता में सुधार करके जलवायु परिवर्तन के प्रभावों (जैसे चरम मौसमी घटनाओं) से निपटने के लिये तैयार रहना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: वैश्विक ऊर्जा संक्रमण के संबंध में विश्व ऊर्जा परिदृश्य 2024 में बताई गई प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारतीय कोयले का/के अभिलक्षण है/हैं? (2013)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मेन्सQ. “पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के बावजूद, कोयला खनन अभी भी विकास के लिये अपरिहार्य है”। चर्चा कीजिये। (2017) |