इन्फोग्राफिक्स
सामाजिक न्याय
मधुमेह मेलिटस और तपेदिक
प्रिलिम्स के लिये:मधुमेह मेलिटस और तपेदिक, महामारी, टाइप 2 मधुमेह, तपेदिक, श्वसन संबंधी संक्रमण मेन्स के लिये:मधुमेह मेलिटस और तपेदिक |
चर्चा में क्यों?
भारत लंबे समय से दो गंभीर महामारियों- मधुमेह मेलिटस और तपेदिक (Tuberculosis) के कारण उत्पन्न समस्याओं से ग्रस्त है, हालाँकि ये दोनों रोग आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं लेकिन इस बारे में काफी कम लोगों को जानकारी होती है।
- वर्तमान में भारत में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या लगभग 74.2 मिलियन है, जबकि प्रत्येक वर्ष लगभग 2.6 मिलियन भारतीय तपेदिक से पीड़ित होते हैं।
मधुमेह मेलिटस और तपेदिक के बीच अंतर्संबंध:
- श्वसन संबंधी संक्रमण विकसित होने का जोखिम:
- मधुमेह मेलिटस के कारण श्वसन संबंधी संक्रमण विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। यह एक प्रमुख जोखिम कारक है जिस कारण टीबी के मामले और इसकी गंभीरता में वृद्धि होती है।
- वर्ष 2012 में चेन्नई के तपेदिक संस्थानों में किये गए अध्ययन में तपेदिक रोगियों में मधुमेह मेलिटस की व्यापकता 25.3% पाई गई थी, जबकि इनमें से 24.5% पीड़ित प्री-डायबिटिक थे।
- मधुमेह मेलिटस का तपेदिक पर प्रभाव:
- मधुमेह मेलिटस के कारण न केवल तपेदिक होने का खतरा बढ़ जाता है बल्कि यह तपेदिक से पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार की गति को भी बाधित करता है जिसके कारण शरीर से तपेदिक के बैक्टीरिया को खत्म करने काफी अधिक समय लग सकता है।
- मधुमेह मेलिटस में खराब कोशिका-मध्यस्थ प्रतिरक्षा तपेदिक सहित संक्रमणों से लड़ने की शरीर की क्षमता को प्रभावित करती है।
- रक्षा तंत्र पर प्रभाव:
- अनियंत्रित मधुमेह मेलिटस फेफड़ों में रक्षा तंत्र को प्रभावित करता है , जिससे व्यक्ति तपेदिक संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
- इसके अतिरिक्त फेफड़ों में छोटी रक्त वाहिकाओं के परिवर्तित कार्य और खराब पोषण स्थिति, जो मधुमेह मेलिटस में आम है, एक ऐसा वातावरण बनाते हैं जो तपेदिक बैक्टीरिया के आक्रमण को बढ़ावा देते हैं।
- प्रतिकूल तपेदिक उपचार परिणामों की संभावना:
- मधुमेह मेलिटस से प्रतिकूल तपेदिक उपचार परिणामों की संभावना बढ़ जाती है, जैसे कि उपचार विफलता, पुनरावृत्ति/पुन: संक्रमण और यहाँ तक कि मृत्यु भी।
- रोगियों में तपेदिक और मधुमेह मेलिटस का सह-अस्तित्व तपेदिक के लक्षणों, रेडियोलॉजिकल निष्कर्षों, उपचार, अंतिम परिणामों तथा पूर्वानुमान को भी संशोधित कर सकता है।
- मधुमेह मेलिटस और तपेदिक का दोहरा बोझ न केवल व्यक्तियों के स्वास्थ्य और अस्तित्व को प्रभावित करता है, बल्कि स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली, परिवारों एवं समुदायों पर भी अत्यधिक बोझ डालता है।
मधुमेह मेलिटस और तपेदिक से निपटने के उपाय:
- तपेदिक और मधुमेह मेलिटस रोगियों की व्यक्तिगत देखभाल सुनिश्चित करना, उपचारों को एकीकृत करने के साथ ही सहवर्ती बीमारियों का प्रभावी ढंग से समाधान करना।
- तपेदिक के उपचार के परिणामों को बढ़ाने के लिये रोगी की जानकारी, सहायता और पोषण में सुधार करना।
- TB तथा DM के लिये स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों को मज़बूत करने के साथ लचीली और एकीकृत स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण करना। इसमें साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने के लिये अनुसंधान का उपयोग करना भी शामिल है।
मधुमेह मेलिटस (DM):
- परिचय:
- DM एक विकार है जिसमें शरीर पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता है या सामान्य रूप से उत्पादित इंसुलिन का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं करता है, जिससे रक्त शर्करा (ग्लूकोज़) का स्तर असामान्य रूप से बढ़ जाता है।
- इस विकार को मधुमेह इन्सिपिडस से अलग करने के लिये केवल मधुमेह के स्थान पर प्राय: मधुमेह मेलिटस नाम का उपयोग किया जाता है।
- मधुमेह इन्सिपिडस एक अपेक्षाकृत दुर्लभ विकार है जो रक्त शर्करा के स्तर को प्रभावित नहीं करता है, लेकिन मधुमेह मेलिटस की तरह मूत्र त्याग में वृद्धि का कारण बनता है।
- जबकि 70–110 mg/dL उपवास रक्त ग्लूकोज़ को सामान्य माना जाता है, 100 से 125 mg/dL के बीच रक्त ग्लूकोज़ स्तर को प्री-डायबिटीज़ माना जाता है तथा 126 mg/dL या इससे अधिक को मधुमेह के रूप में परिभाषित किया गया है।
- प्रकार:
- टाइप 1 मधुमेह:
- शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली अग्न्याशय की इंसुलिन-उत्पादक कोशिकाओं पर आक्रमण करने के साथ उनमें से 90% से अधिक को स्थायी रूप से नष्ट कर देती है।
- परिणामस्वरूप अग्न्याशय बहुत कम या बिल्कुल भी इंसुलिन उत्पन्न नहीं करता है।
- सभी लोगों में से केवल 5 से 10% ही टाइप 1 मधुमेह से पीड़ित है। जिन लोगों को टाइप 1 मधुमेह है उनमें से अधिकांश लोगों में यह बीमारी 30 वर्ष की आयु से पहले ही विकसित हो जाती है, हालाँकि जीवन में यह बाद के वर्षों में भी विकसित हो सकती है।
- टाइप 2 मधुमेह:
- विशेष रूप से बीमारी की शुरुआत में अग्न्याशय अक्सर इंसुलिन का उत्पादन (कभी-कभी सामान्य से अधिक मात्रा में भी) जारी रखता है।
- हालाँकि शरीर इंसुलिन के प्रभावों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेता है इसलिये शरीर की ज़रूरतों को पूरा करने हेतु पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं होता है। जैसे-जैसे टाइप 2 मधुमेह बढ़ता जाता है, अग्न्याशय की इंसुलिन उत्पादन क्षमता कम होती जाती है।
- टाइप 2 मधुमेह एक समय बच्चों एवं किशोरों में दुर्लभ था लेकिन अब आम हो गया है। हालाँकि यह सामान्यतः 30 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में होता है तथा उम्र के साथ उत्तरोत्तर अधिक सामान्य होता जाता है।
- 65 वर्ष से अधिक उम्र के लगभग 26% लोगों को टाइप 2 मधुमेह है।
- टाइप 1 मधुमेह:
तपेदिक (TB):
- तपेदिक एक संक्रामक रोग है जो फेफड़ों या अन्य ऊतकों में संक्रमण उत्पन्न कर सकता है।
- सामान्यतः यह फेफड़ों को प्रभावित करता है लेकिन यह रीढ़ की हड्डी, मस्तिष्क या किडनी जैसे अन्य अंगों को भी प्रभावित कर सकता है।
- तपेदिक (TB) माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु के कारण होता है। ये बैक्टीरिया आमतौर पर फेफड़ों पर आक्रमण करते हैं लेकिन TB के बैक्टीरिया शरीर के किसी भी भाग जैसे- किडनी, रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क पर भी आक्रमण कर सकते हैं।
- तपेदिक (TB) के तीन चरण हैं:
- प्राथमिक संक्रमण
- गुप्त टीबी संक्रमण
- सक्रिय टीबी संक्रमण
स्रोत: द हिंदू
शासन व्यवस्था
बाल कल्याण और सहायता सुनिश्चित करना: मिशन वात्सल्य योजना
प्रिलिम्स के लिये:मिशन वात्सल्य, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, एकीकृत बाल संरक्षण योजना मेन्स के लिये:मिशन वात्सल्य, सरकारी नीतियाँ एवं हस्तक्षेप, बच्चों से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा भारत में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये मिशन वात्सल्य शुरू किया गया है।
- ग्राम स्तरीय बाल कल्याण और संरक्षण समिति (CW&PC) उन बच्चों की पहचान करेगी जो कठिन परिस्थितियों में हैं, अनाथ हैं या सड़कों पर रह रहे हैं। इन बच्चों को मिशन वात्सल्य योजना के तहत सुविधा प्रदान की जाएगी।
- ये सुविधाएँ बाल कल्याण समिति (CWC) की सिफारिशों और प्रायोजन तथा फोस्टर केयर अनुमोदन समिति (SFCAC) से अनुमोदन के आधार पर प्रदान की जाएंगी।
मिशन वात्सल्य:
- ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:
- वर्ष 2009 से पूर्व: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने तीन योजनाएँ लागू कीं:
- देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चों एवं कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों के लिये किशोर न्याय कार्यक्रम।
- सड़कों पर रहने वाले बच्चों के लिये एकीकृत कार्यक्रम।
- बाल गृहों की सहायता हेतु योजना।
- वर्ष 2010: इन योजनाओं का विलय एकीकृत बाल संरक्षण योजना में कर दिया गया।
- वर्ष 2017: बाल संरक्षण सेवा योजना का नाम परिवर्तित किया गया।
- वर्ष 2021-22: मिशन वात्सल्य के रूप में पुनः प्रस्तुत किया गया।
- वर्ष 2009 से पूर्व: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने तीन योजनाएँ लागू कीं:
- परिचय:
- भारत में बाल संरक्षण सेवाओं के लिये अम्ब्रेला योजना।
- इसका लक्ष्य देश के प्रत्येक बच्चे के लिये एक स्वस्थ और खुशहाल बचपन सुनिश्चित करना है।
- मिशन वात्सल्य के घटकों में शामिल हैं:
- वैधानिक निकायों की कार्यप्रणाली में सुधार करना।
- सेवा वितरण संरचनाओं को सुदृढ़ बनाना।
- संस्थागत देखभाल और सेवाओं को उन्नत बनाना।
- गैर-संस्थागत समुदाय-आधारित देखभाल को प्रोत्साहित करना।
- आपातकालीन सेवाओं तक पहुँच प्रदान करना।
- प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण।
- उद्देश्य:
- बच्चों द्वारा अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करने तथा सभी क्षेत्रों में उनके फलने-फूलने का अवसर सुनिश्चित करना।
- बाल विकास के लिये एक संवेदनशील, सहायक एवं समन्वित पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देना।
- किशोर न्याय अधिनियम, 2015 को लागू करने में राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों की सहायता करना।
- सतत् विकास लक्ष्य (SDG) को प्राप्त करना।
- बच्चों के लिये गैर-संस्थागत देखभाल के प्रकार:
- आर्थिक संरक्षण:
- सरकारी सहायता प्राप्त आर्थिक संरक्षण: सरकारी निधि के माध्यम से प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता।
- निजी सहायता प्राप्त आर्थिक संरक्षण: निजी स्रोतों या व्यक्तियों के माध्यम से प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता।
- पालन-पोषण संबंधी देखभाल:
- बच्चे की देखभाल एवं पुनर्वास की ज़िम्मेदारी एक असंबंधित परिवार द्वारा ली जाती है।
- बच्चे के पालन-पोषण के लिये पालक माता-पिता को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
- दत्तक ग्रहण:
- ऐसे बच्चों के लिये उपयुक्त परिवार ढूँढना जो कानूनी रूप से गोद लेने के लिये स्वतंत्र हो।
- केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (CARA) गोद लेने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाता है।
- दत्तक ग्रहण पश्चात् देखभाल:
- 18 वर्ष की आयु होने पर बाल देखभाल संस्थान छोड़ने वाले बच्चों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
- यह समर्थन उन्हें समाज में फिर से जुड़ने और आत्मनिर्भर बनने में मदद करता है।
- इस सहायता को 18 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक बढ़ाया जा सकता है, जिसे 23 वर्ष तक बढ़ाने की संभावना है।
- आर्थिक संरक्षण:
नोट: मिशन के तहत प्रदत्त आर्थिक संरक्षण और पालन-पोषण कार्यक्रम को लागू करने एवं निगरानी के लिये प्रत्येक ज़िले में एक SFCAC होगा।
बाल कल्याण समितियाँ:
- ज़रूरतमंद बच्चों की सुरक्षा और देखभाल के लिये प्रत्येक ज़िले या ज़िलों के समूह में राज्य सरकारों द्वारा बाल कल्याण समितियों (CWC) का गठन किया जाता है।
- प्रत्येक CWC में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होते हैं, जिनमें कम-से-कम एक महिला तथा बच्चों से संबंधित मामलों का एक विशेषज्ञ शामिल होता है।
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम एक CWC की स्थापना करना अनिवार्य है।
- बाल कल्याण समिति (CWC) किशोर न्याय अधिनियम/नियमों में परिभाषित कार्यों और भूमिकाओं का पालन करती है।
- यह समिति मजिस्ट्रेटों की एक पीठ के रूप में कार्य करती है और इसके पास बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, उपचार, विकास और पुनर्वास से संबंधित मामलों का निपटान करने का अधिकार है।
- मिशन वात्सल्य CWC की प्रभावी कार्यप्रणाली को स्थापित और सुनिश्चित करने के लिये राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को बुनियादी ढाँचा एवं वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
स्रोत: पी.आई.बी.
जैव विविधता और पर्यावरण
कास पठार में जलवायु परिवर्तन
प्रिलिम्स के लिये:कास पठार में जलवायु परिवर्तन, होलोसीन युग, दक्षिण-पश्चिम मानसून, राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान केंद्र, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) विश्व विरासत मेन्स के लिये:कास पठार में जलवायु परिवर्तन |
चर्चा में क्यों?
अगरकर अनुसंधान संस्थान (Agharkar Research Institute- ARI) और राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान केंद्र द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन ने प्रारंभिक-मध्य-होलोसीन एवं उत्तर होलोसीन काल के दौरान कास पठार में महत्त्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों पर प्रकाश डाला है।
- शोधकर्त्ताओं ने कास पठार की पूर्व जलवायु स्थितियों को समझने और अध्ययन के लिये एक मौसमी झील के तलछट का अध्ययन किया है।
कास पठार:
- महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में स्थित कास पठार यूनेस्को विश्व प्राकृतिक विरासत स्थल के साथ एक निर्दिष्ट जैवविविधता हॉटस्पॉट भी है।
- इसे मराठी में कास पत्थर के नाम से जाना जाता है, इसका नाम कासा वृक्ष से लिया गया है जिसे वानस्पतिक रूप से एलेओकार्पस ग्लैंडुलोसस (रुद्राक्ष परिवार) के रूप में जाना जाता है।
- अगस्त और सितंबर के महीनों के दौरान यह पठार विभिन्न मौसमी फूलों से ढका रहता है, जो विभिन्न रंगों के कालीन जैसा दिखता है।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष:
- प्राचीन झील एवं पर्यावरण संरक्षण:
- प्रारंभिक-मध्य-होलोसीन या लगभग 8000 वर्ष पूर्व का युग वह समय है जब कास पठार के वर्तमान "फ्लावर वंडर" का निर्माण हुआ था।
- मौसमी झील को लंबे समय के लिये संरक्षित किया गया है तथा यह क्षेत्र की विगत जलवायु के बारे में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
- प्रारंभिक-मध्य-होलोसीन के दौरान जलवायु परिवर्तन:
- लगभग 8664 वर्ष पहले की जलवायु में कम वर्षा के साथ मीठे जल से लेकर शुष्क परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ था।
- पॉलेन और डायटम डेटा ने इस दौरान भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून गतिविधि में एक बड़े बदलाव का संकेत दिया था।
- शुष्क परिस्थितियों के बावजूद डायटम की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि से पता चलता है कि रुक-रुक कर आर्द्र अवधि होती थी।
- लेट होलोसीन जलवायु परिवर्तन:
- लगभग 2827 वर्ष पहले लेट होलोसीन के दौरान वर्षा में कमी आई थी तथा दक्षिण-पश्चिम मानसून कमज़ोर हो गया था।
- हालिया पर्यावरणीय प्रभाव:
- पिछले 1000 वर्षों में प्लैंकटोनिक और प्रदूषण-सहिष्णु डायटम टैक्सा की उच्च संख्या की उपस्थिति से संकेत से झील के सुपोषण के प्रमाण मिले हैं।
- सुपोषण किसी जल निकाय का खनिजों और पोषक तत्त्वों से अत्यधिक समृद्ध होने की प्रक्रिया है जो शैवाल की अत्यधिक वृद्धि को प्रेरित करती है, जिससे जल निकायों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है।
- जलग्रहण क्षेत्र में कृषीय और मवेशी/पशुधन खेती सहित मानवीय गतिविधियों का इस पर्यावरणीय प्रभाव में योगदान रहा है।
- मानसून की तीव्रता और अवधि:
- लगभग 8000 वर्ष पहले प्रारंभिक होलोसीन/अभिनव युग के दौरान दक्षिण-पश्चिम मानसून की तीव्रता काफी अधिक थी।
- लगभग 2000 वर्ष पहले पूर्वोत्तर मानसून अपेक्षाकृत क्षीण हो गया था।
- यह संभावना है कि कास पठार का 'फ्लावर वंडर' मार्च-अप्रैल तक लंबी अवधि के लिये अस्तित्व में था, प्रारंभिक-मध्य-होलोसीन (8000-5000 वर्ष) के दौरान मानसूनी वर्षा प्रचुर मात्रा में यानी 100 से भी अधिक दिनों तक होती थी।
स्रोत : पी.आई.बी.
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
चंद्रयान-3
प्रिलिम्स के लिये:चंद्रयान-3, रहने योग्य पृथ्वी ग्रह की स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री, सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, एलिप्टिक पार्किंग ऑर्बिट, LVM3 M4, फ्लाईबीज़, ऑर्बिटर्स, इम्पैक्ट मिशन, NASA का आर्टेमिस प्रोग्राम मेन्स के लिये:अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, चंद्रयान-3 मिशन और इसका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
चंद्रयान-3 के प्रक्षेपण के साथ ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) चंद्रमा पर सफल सॉफ्ट लैंडिंग कराने की तैयारी में है।
- भारत का लक्ष्य संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन की कतार में शामिल होकर यह उपलब्धि हासिल करने वाला विश्व का चौथा देश बनना है।
चंद्रयान-3 मिशन:
- परिचय:
- चंद्रयान-3 भारत का तीसरा चंद्र मिशन और चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग का दूसरा प्रयास है।
- इस मिशन के तहत चंद्रयान-3 ने 14 जुलाई, 2023 को दोपहर 2:35 बजे श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र (SDSC) से उड़ान भरी थी।
- इसमें एक स्वदेशी लैंडर मॉड्यूल (LM), प्रोपल्शन मॉड्यूल (PM) और एक रोवर शामिल है जिसका उद्देश्य अंतर ग्रहीय मिशनों के लिये आवश्यक नई प्रौद्योगिकियों को विकसित एवं प्रदर्शित करना है।
- चंद्रयान-3 मिशन का उद्देश्य:
- चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित और सुगम लैंडिंग करना।
- रोवर को चंद्रमा पर घूमते हुए प्रदर्शित करना।
- यथास्थान वैज्ञानिक प्रयोगों का संचालन करना।
- विशेषताएँ:
- चंद्रयान-3 के लैंडर (विक्रम) और रोवर पेलोड (प्रज्ञान) चंद्रयान-2 मिशन के समान ही हैं।
- लैंडर पर वैज्ञानिक पेलोड का उद्देश्य चंद्रमा के पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करना है। इन पेलोड में चंद्रमा पर आने वाले भूकंपों का अध्ययन, सतह के तापीय गुण, सतह के पास प्लाज़्मा में बदलाव और पृथ्वी तथा चंद्रमा के बीच की दूरी को सटीक रूप से मापना शामिल है।
- चंद्रयान-3 के प्रणोदन मॉड्यूल में एक नया प्रयोग किया गया है जिसे स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री ऑफ हैबिटेबल प्लैनेट अर्थ (SHAPE) कहा जाता है।
- SHAPE का लक्ष्य परावर्तित प्रकाश का विश्लेषण कर संभावित रहने योग्य छोटे ग्रहों की खोज करना है।
- चंद्रयान-3 में बदलाव और सुधार:
- इसके लैंडिंग क्षेत्र का विस्तार किया गया है जो एक बड़े निर्दिष्ट क्षेत्र के भीतर सुरक्षित रूप से उतरने की सुविधा देता है।
- लैंडर को अधिक ईंधन से लैस किया गया है ताकि आवश्यकतानुसार लैंडिंग स्थल अथवा वैकल्पिक स्थानों तक लंबी दूरी तय की जा सके।
- चंद्रयान-2 में केवल दो सौर पैनल की तुलना में चंद्रयान-3 लैंडर में चार तरफ सौर पैनल लगाए गए हैं।
- चंद्रयान-2 ऑर्बिटर से प्राप्त उच्च-रिज़ॉल्यूशन छवियों का उपयोग लैंडिंग स्थान निर्धारित करने के लिये किया जाता है और साथ ही स्थिरता तथा मज़बूती बढ़ाने के लिये इसमें कुछ संशोधन किया गया है।
- लैंडर की गति की निरंतर निगरानी करने और आवश्यक सुधार के लिये चंद्रयान-3 में अतिरिक्त नेविगेशनल एवं मार्गदर्शन उपकरण मौजूद हैं।
- इसमें लेज़र डॉपलर वेलोसीमीटर नामक एक उपकरण शामिल है जो लैंडर की गति का माप करने के लिये चंद्रमा की सतह पर लेज़र बीम उत्सर्जित/छोड़ेगा करेगा।
- प्रक्षेपण और समयरेखा:
- चंद्रयान-3 को लॉन्च करने के लिये LVM3 M4 लॉन्चर का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है
- LVM3 के उड़ान भरने के लगभग 16 मिनट बाद अंतरिक्ष यान रॉकेट से अलग हो गया। यह एक अंडाकार पार्किंग कक्षा (EPO) में प्रवेश कर गया।
- चंद्रयान-3 की यात्रा में लगभग 42 दिन लगने का अनुमान है, 23 अगस्त, 2023 को इसकी चंद्रमा पर लैंडिंग निर्धारित है।
- लैंडर और रोवर का मिशन लाइफ, एक चंद्र दिवस (पृथ्वी के लगभग 14 दिन) का होगा क्योंकि वे सौर ऊर्जा पर कार्य करते हैं।
- चंद्रयान-3 की लैंडिंग साइट चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के समीप है।
- चंद्रयान-3 को लॉन्च करने के लिये LVM3 M4 लॉन्चर का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है
दक्षिणी ध्रुव के समीप चंद्रमा की लैंडिंग का महत्त्व:
- ऐतिहासिक रूप से चंद्रमा के लिये अंतरिक्ष यान मिशनों ने मुख्य रूप से भूमध्यरेखीय क्षेत्र को उसके अनुकूल भूखंड और परिचालन स्थितियों के कारण लक्षित किया है।
- हालाँकि चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव भूमध्यरेखीय क्षेत्र की तुलना में काफी अलग और अधिक चुनौतीपूर्ण भू-भाग है।
- कुछ ध्रुवीय क्षेत्रों में सूर्य का प्रकाश दुर्लभ है जिसके परिणामस्वरूप उन क्षेत्रों में हमेशा अंधेरा रहता है जहाँ तापमान -230 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच सकता है।
- सूर्य के प्रकाश की कमी के साथ अत्यधिक ठंड उपकरणों के संचालन एवं स्थिरता के लिये कठिनाइयाँ उत्पन्न करती है।
- चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव अत्यधिक विपरीत स्थितियाँ प्रदान करता है जो मनुष्यों के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न करता है लेकिन यह उन्हें प्रारंभिक सौरमंडल के बारे में बहुमूल्य जानकारी का संभावित भंडार बनाता है।
- इस क्षेत्र का पता लगाना महत्त्वपूर्ण है जो भविष्य में गहरे अंतरिक्ष अन्वेषण को प्रभावित कर सकता है।
भारत के अन्य चंद्रयान मिशन:
- चंद्रयान-1:
- भारत का चंद्र अन्वेषण मिशन 2008 में चंद्रयान-1 के साथ शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य चंद्रमा का त्रि-आयामी एटलस निर्मित करना और खनिज मानचित्रण करना था।
- प्रक्षेपण यान: PSLV-C11.
- चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह पर पानी और हाइड्रॉक्सिल का पता लगाने सहित महत्त्वपूर्ण खोजें कीं।
- भारत का चंद्र अन्वेषण मिशन 2008 में चंद्रयान-1 के साथ शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य चंद्रमा का त्रि-आयामी एटलस निर्मित करना और खनिज मानचित्रण करना था।
- चंद्रयान-2: आंशिक सफलता और खोज:
- चंद्रयान-2 में एक ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर शामिल थे, जिसका लक्ष्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की खोज करना था।
- प्रक्षेपण यान: GSLV MkIII-M1
- यद्यपि लैंडर और रोवर चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गए, ऑर्बिटर ने सफलतापूर्वक डेटा एकत्र किया और सभी अक्षांशों पर पानी के प्रमाण पाए।
- चंद्रयान-2 में एक ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर शामिल थे, जिसका लक्ष्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की खोज करना था।
चंद्रमा मिशन के प्रकार:
- फ्लाईबीज़: इन मिशनों में चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किये बिना अंतरिक्ष यान का चंद्रमा के पास से गुज़रना शामिल है, जिससे दूर से अवलोकन की अनुमति मिलती है।
- उदाहरणतः संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा पायनियर 3 और 4 तथा सोवियत रूस द्वारा लूना (Luna) 3 शामिल हैं।
- ऑर्बिटर: ये अंतरिक्ष यान चंद्रमा की सतह और वायुमंडल का लंबे समय तक अध्ययन करने के लिये चंद्र कक्षा में प्रवेश करते हैं।
- चंद्रयान-1 और 46 अन्य मिशन में ऑर्बिटर का उपयोग किया गया है।
- प्रभाव मिशन: ऑर्बिटर मिशन का विस्तार, प्रभाव मिशन में उपकरण को चंद्रमा की सतह पर अनियंत्रित लैंडिंग करवाना, नष्ट होने से पहले मूल्यवान डेटा प्रदान करवाना शामिल था।
- चंद्रयान-1 के चंद्रमा प्रभाव जाँच (MIP) ने इस दृष्टिकोण का पालन किया।
- लैंडर्स: इन मिशनों का लक्ष्य चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग करना है, जिससे करीब से अवलोकन किया जा सके।
- सोवियत रूस द्वारा वर्ष 1966 में Luna 9 चंद्रमा पर पहली सफल लैंडिंग थी।
- रोवर्स: रोवर्स, विशेष पेलोड हैं जो लैंडर्स से अलग हो जाते हैं और चंद्रमा की सतह पर स्वतंत्र रूप से गति करते हैं।
- ये बहुमूल्य डेटा एकत्रित करते हैं और स्थिर लैंडर्स की सीमाओं को पार कर जाते हैं। चंद्रयान-2 के रोवर को प्रज्ञान नाम दिया गया था (चंद्रयान-3 के लिये भी यही नाम रखा गया है)।
- मानव मिशन: इन मिशनों में चंद्रमा की सतह पर अंतरिक्ष यात्रियों की लैंडिंग शामिल है।
- वर्ष 1969 से 1972 के दौरान छह सफल लैंडिंग के साथ केवल NASA ने ही यह उपलब्धि हासिल की है।
- वर्ष 2025 के लिये नियोजित नासा का आर्टेमिस III, चंद्रमा पर मानव की वापसी को चिह्नित करेगा।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये। इस प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग ने भारत को इसके सामाजिक-आर्थिक विकास में कैसे मदद की है? (2016) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
जैव विविधता और पर्यावरण
भारत में कोयला गैसीकरण को प्रोत्साहन
प्रिलिम्स के लिये:भारत में कोयला गैसीकरण को प्रोत्साहन, कोयला गैसीकरण, वस्तु एवं सेवा कर, इनपुट टैक्स क्रेडिट, सिनगैस, प्राकृतिक गैस मेन्स के लिये:भारत में कोयला गैसीकरण को प्रोत्साहन देना |
चर्चा में क्यों?
कोयला गैसीकरण को बढ़ावा देने के लिये कोयला मंत्रालय एक व्यापक योजना पर विचार कर रहा है जिसका लक्ष्य वित्त वर्ष 2030 तक 100 मिलियन टन (MT) कोयला गैसीकरण हासिल करना है।
- मंत्रालय वाणिज्यिक परिचालन तिथि (COD) के बाद 10 वर्षों की अवधि के लिये गैसीकरण परियोजनाओं में उपयोग किये गए कोयले पर वस्तु और सेवा कर (GST) मुआवज़ा उपकर की प्रतिपूर्ति हेतु प्रोत्साहन पर भी विचार कर रहा है, बशर्ते कि GST मुआवज़ा उपकर वित्त वर्ष 2027 से आगे बढ़ाया जाए। इस प्रोत्साहन का उद्देश्य संस्थाओं की इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा करने में असमर्थता को दूर करना है।
योजना के मुख्य बिंदु:
- परिचय:
- इस पहल में उपायों का एक व्यापक सेट शामिल है जो प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाने के साथ कोयला गैसीकरण की वित्तीय एवं तकनीकी व्यवहार्यता प्रदर्शित करता है।
- इसका उद्देश्य कोयला गैसीकरण क्षेत्र में नवाचार, निवेश और सतत् विकास को बढ़ावा देकर सरकारी सार्वजनिक उपक्रमों तथा निजी क्षेत्र को आकर्षित करना है।
- प्रक्रिया:
- लिग्नाइट कोयला गैसीकरण योजना के लिये संस्थाओं का चयन प्रतिस्पर्द्धी और पारदर्शी बोली प्रक्रिया के माध्यम से किया जाएगा।
- सरकार सहायता प्राप्त सरकारी सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) और निजी क्षेत्र को कोयला गैसीकरण परियोजनाएँ प्रारंभ करने में सक्षम बनाने के लिये बजटीय सहायता प्रदान करेगी।
- महत्त्व:
- यह पहल कार्बन उत्सर्जन को कम करनें के साथ टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देकर हरित भविष्य के प्रति हमारी वैश्विक प्रतिबद्धताओं में योगदान देकर पर्यावरणीय बोझ को कम करने की क्षमता रखती है।
कोयला गैसीकरण:
- परिचय:
- कोयला गैसीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ईंधन गैस बनाने के लिये कोयले का वायु, ऑक्सीजन, भाप या कार्बन डाइऑक्साइड के साथ आंशिक रूप से ऑक्सीकरण किया जाता है।
- इस गैस का उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने के लिये पाइप्ड प्राकृतिक गैस, मीथेन और अन्य गैसों के स्थान पर किया जाता है।
- कोयले के स्वस्थाने (In-situ) गैसीकरण या भूमिगत कोयला गैसीकरण (UCG) कोयले को गैस में परिवर्तित करने की एक तकनीक है, इसे कुओं के माध्यम से निकाला जाता है।
- सिनगैस का उत्पादन:
- सिनगैस मुख्य रूप से मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), हाइड्रोजन (H2), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और जल वाष्प (H2O) से युक्त मिश्रण है।
- सिनगैस का उपयोग उर्वरक, ईंधन, सॉल्वैंट्स और सिंथेटिक सामग्री की एक विस्तृत शृंखला का उत्पादन करने के लिये किया जा सकता है।
- महत्त्व:
- स्टील कंपनियाँ अपनी विनिर्माण प्रक्रिया में महँगे आयातित कोक-कोयले को कोयला गैसीकरण संयंत्रों से सिनगैस में प्रतिस्थापित कर लागत को कम कर सकती हैं।
- इसका उपयोग मुख्य रूप से विद्युत उत्पादन, रासायनिक फीडस्टॉक के उत्पादन के लिये किया जाता है।
- कोयला गैसीकरण से प्राप्त हाइड्रोजन का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है जैसे- अमोनिया निर्मित करना और हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था को शक्ति प्रदान करना।
- चिंताएँ:
- सिनगैस प्रक्रिया अपेक्षाकृत उच्च गुणवत्ता वाले ऊर्जा स्रोत (कोयला) को निम्न गुणवत्ता वाली अवस्था (गैस) में परिवर्तित करती है और ऐसा करने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है। इस प्रकार रूपांतरण की दक्षता भी कम होती है।
भारत में कोयला गैसीकरण परियोजनाओं को बढ़ावा देने की आवश्यकता:
- भारत में गैसीकरण प्रौद्योगिकी को अपनाने से कोयला क्षेत्र में क्रांति आ सकती है, जिससे प्राकृतिक गैस, मेथनॉल, अमोनिया और अन्य आवश्यक उत्पादों के आयात पर निर्भरता कम हो सकती है।
- वर्तमान में भारत घरेलू मांग को पूरा करने के लिये अपनी प्राकृतिक गैस का लगभग 50%, कुल मेथनॉल खपत का 90% से अधिक और कुल अमोनिया खपत का लगभग 13-15% हिस्सा आयात करता है।
- यह भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में योगदान करने के साथ ही रोज़गार के अवसर में वृद्धि कर सकता है।
- कोयला गैसीकरण के कार्यान्वयन से वर्ष 2030 तक आयात में कमी आएगी, इससे देश के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलने की संभावना है।
आगे की राह
- सरकार को कोयला गैसीकरण परियोजनाओं के पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों का व्यापक मूल्यांकन करना चाहिये।
- कोयला गैसीकरण प्रौद्योगिकी में प्रगति के लिये अनुसंधान और विकास में निरंतर निवेश किये जाने की आवश्यकता है, ताकि यह अधिक कुशल एवं पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल बन सके।
- विविध स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त करने पर बल दिये जाने की भी आवश्यकता है जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत, ऊर्जा दक्षता उपाय और कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन के स्थायी विकल्प शामिल हों।
- धारणीय विकास सुनिश्चित करने के लिये कोयला गैसीकरण और हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था कार्यान्वयन में वैश्विक अनुभवों एवं सर्वोत्तम प्रथाओं से सीख लेनी चाहिये
स्रोत: पी.आई.बी.
जैव विविधता और पर्यावरण
जलवायु परिवर्तन से महासागरों का रंग परिवर्तन
प्रिलिम्स के लिये:जलवायु परिवर्तन, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र, ग्लोबल वार्मिंग मेन्स के लिये:भारत की जलवायु परिवर्तन शमन योजना, महासागरों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक नए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के 56% महासागरों का रंग परिवर्तित हुआ है।
- उष्णकटिबंधीय जल, विशेष रूप से दक्षिणी हिंद महासागर, हरे रंग का हो गया है, जो फाइटोप्लांकटन( phytoplankton) और समुद्री जीवन में वृद्धि का संकेत देता है।
- अध्ययन के मुख्य बिंदु:
- दीर्घकालिक रुझान और डेटा विश्लेषण:
- एक्वा सैटेलाइट डेटा (Aqua Satellite Data):
- शोधकर्त्ताओं ने दो दशकों (2002-2022) तक महासागरों के रंग की निगरानी करने वाले एक्वा उपग्रह (नासा के पृथ्वी विज्ञान उपग्रह मिशन) पर मॉडरेट रेज़ोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (MODIS) के डेटा का विश्लेषण किया।
- MODIS सात दृश्य तरंग दैर्ध्य (विभिन्न तरंग दैर्ध्य का प्रकाश रंग की विभिन्न धारणाएँ उत्पन्न करता है) में मापन करता है।
- सूक्ष्म रंग परिवर्तन:
- मानव आँख, महासागरों में सूक्ष्म रंग परिवर्तन का पता नहीं लगा सकती हैं, जिसमें नीले से लेकर हरे और यहाँ तक कि लाल रंग की तरंग दैर्ध्य का मिश्रण भी हो सकता है।
- हरित जल और फाइटोप्लांकटन:
- अध्ययन में पाया गया है कि हरे रंग का जल फाइटोप्लांकटन और आवश्यक सूक्ष्म पादप सदृश जीवों की उपस्थिति का संकेत देता है।
- फाइटोप्लांकटन, स्थल पर पौधों के खाद्य जाल की भांति ही समुद्री खाद्य जाल के आधार के रूप में कार्य करता है और समुद्री जीवन का समर्थन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- महासागर का रंग महासागरों द्वारा अवशोषित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को प्रभावित करता है, वर्तमान अनुमान से पता चलता है कि महासागर वैश्विक CO2 उत्सर्जन का 25% अवशोषित करते हैं।
- अध्ययन में पाया गया है कि हरे रंग का जल फाइटोप्लांकटन और आवश्यक सूक्ष्म पादप सदृश जीवों की उपस्थिति का संकेत देता है।
- जलवायु परिवर्तन की भूमिका:
- दो दशकों में वार्षिक स्तर पर समुद्र के रंग में भिन्नताओं की तुलना करके पाया गया कि जलवायु परिवर्तन ही रंगों में परिवर्तनों का प्राथमिक कारक है।
- एक मॉडल का उपयोग करते हुए शोधकर्त्ताओं ने दो परिदृश्यों का अनुकरण, एक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को ध्यान में रखते हुए और दूसरी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के बिना किया।
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन परिदृश्य के अनुसार, अनुमान है कि विश्व के लगभग 50% सतही महासागरों के रंग में परिवर्तन हो सकता है, यह उपग्रह डेटा के अनुरूप है जो हरे अथवा नीले जल में 56% बदलाव का संकेत देता है।
- समुद्री जीवन और संरक्षण पर प्रभाव:
- जीवों पर प्रभाव:
- हरे रंग का प्रमुख कारक क्लोरोफिल है, यह एक रंगद्रव्य है जो पादप प्लवक/फाइटोप्लांकटन को भोजन बनाने में मदद करता है। प्लवक खाने वाले जीव जनसंख्या में बदलाव के कारण होने वाले रंग परिवर्तन से प्रभावित होंगे।
- कार्बन पृथक्करण:
- विभिन्न प्रकार के प्लवक में कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता अलग-अलग होती है, यह संभावित रूप से समुद्र की कार्बन ग्रहण करने की क्षमता को प्रभावित करता है।
- जीवों पर प्रभाव:
- क्षेत्रीय विविधता और आगे के अध्ययन की आवश्यकता:
- दक्षिणी हिंद महासागर के रंग में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देते हैं, जबकि भारत के निकट का जल संभवतः प्राकृतिक परिवर्तनशीलता के कारण समान प्रवृत्ति का पालन नहीं करता है।
- एक्वा सैटेलाइट डेटा (Aqua Satellite Data):
- अनुशंसाएँ:
- शोधकर्त्ता व्यक्तियों एवं नीति निर्माताओं को इन परिवर्तनों के महत्त्व को पहचानने और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा के लिये उचित कार्रवाई करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।
- क्षेत्रीय विविधताओं एवं समुद्र के रंग पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की पूरी सीमा को समझने के लिये निरंतर निगरानी तथा आगे का शोध महत्त्वपूर्ण है।
भारत की जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण पहल:
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC):
- इसे भारत में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करने के लिये वर्ष 2008 में लॉन्च किया गया।
- इसका उद्देश्य भारत के लिये निम्न-कार्बन और जलवायु-लचीला विकास प्राप्त करना है।
- NAPCC के मूल में 8 राष्ट्रीय मिशन हैं जो जलवायु परिवर्तन में प्रमुख लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बहु-आयामी, दीर्घकालिक और एकीकृत रणनीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं:
- राष्ट्रीय सौर मिशन
- संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता पर राष्ट्रीय मिशन
- सतत् आवास पर राष्ट्रीय मिशन
- राष्ट्रीय जल मिशन
- नेशनल मिशन ऑन सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम
- हरित भारत के लिये राष्ट्रीय मिशन
- सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन
- जलवायु परिवर्तन के लिये रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन
- राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC)
- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (NAFCC)
- जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना (SAPCC)
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. समुद्री पारिस्थितिकी पर "मृत क्षेत्रों" (डेड ज़ोन) के विस्तार के क्या-क्या परिणाम होते हैं? (2018) |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
मंगल ग्रह पर कार्बनिक पदार्थ
प्रिलिम्स के लिये:पर्सीवरेंस रोवर, जेज़ेरो क्रेटर, उल्कापिंड, मल्टी-मिशन रेडियोआइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जेनरेटर, मार्स फीनिक्स लैंडर, क्यूरियोसिटी रोवर, मंगलयान (2013) मेन्स के लिये:नासा का मंगल 2020 मिशन, ऑर्गेनिक्स और केमिकल्स के लिये रमन और ल्यूमिनेसेंस के साथ रहने योग्य वातावरण की स्कैनिंग (SHERLOC) |
चर्चा में क्यों?
यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) के पर्सीवरेंस रोवर ने मंगल ग्रह के क्रेटर में कार्बनिक यौगिकों के साक्ष्य के विषय में बारे में पता लगाया है।
- जेज़ेरो क्रेटर में रोवर का लैंडिंग स्थान बीते किसी समय में यहाँ जीवन की प्रबल संभावना को इंगित करता है। कार्बोनेट, मृदा और सल्फेट जैसे विभिन्न खनिजों की प्रचुरता से पता चलता है कि यह क्षेत्र पहले एक झील बेसिन (lake basin) था।
कार्बनिक यौगिक:
- कार्बनिक यौगिक मुख्य रूप से कार्बन और हाइड्रोजन के अणु होते हैं तथा इनमें अक्सर ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं सल्फर जैसे अन्य तत्त्व पाए जाते हैं।
- वे पृथ्वी पर जीवन के प्रमुख निर्माण खंड हैं क्योंकि वे प्रोटीन, न्यूक्लिक एसिड, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड के साथ अन्य जैव अणुओं का आधार बनते हैं।
- इनका उत्पादन गैर-जैविक प्रक्रियाओं, जैसे- ज्वालामुखीय गतिविधि, उल्कापिंड प्रभाव, बिजली गिरने और ब्रह्मांडीय विकिरण द्वारा भी किया जा सकता है।
मंगल ग्रह पर कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति से संबंधित प्रमुख निष्कर्ष:
- पूर्व के मिशनों ने पहले ही उल्कापिंडों एवं गेल क्रेटर में मंगल ग्रह की उत्पत्ति वाले कार्बनिक रसायनों की पहचान कर ली थी।
- केवल मार्स फीनिक्स लैंडर और क्यूरियोसिटी रोवर ने पहले विकसित गैस विश्लेषण एवं गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग करके मंगल पर कार्बनिक पदार्थ का पता लगाया था।
- पर्सिवियरेंस रोवर के माध्यम से नवीनतम शोध में एक नया उपकरण, स्कैनिंग हैबिटेबल एन्वायरननमेंट विद रमन एंड ल्यूमिनसेंस फॉर ऑर्गेनिक्स एंड केमिकल्स (SHERLOC) उपकरण प्रस्तुत किया गया है, जो मंगल ग्रह पर बुनियादी रासायनिक यौगिकों का पता लगाने में सहायता करता है।
- इससे पता चलता है कि मंगल ग्रह के पास अधिक जटिल कार्बनिक भू-रासायनिक चक्र है।
- इस ग्रह पर कार्बनिक अणुओं के कई भंडार के विद्यमान होने की संभावना प्रस्तावित की गई है, जिससे संभावना बढ़ गई है कि यह ग्रह जीवन का समर्थन कर सकता है।
- अध्ययन में जलीय प्रक्रियाओं से जुड़े अणु भी पाए गए, जो यह दर्शाता है कि जल ने मंगल पर विद्यमान कार्बनिक पदार्थों की शृंखला में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी।
- इससे पता चलता है कि मंगल ग्रह के पास अधिक जटिल कार्बनिक भू-रासायनिक चक्र है।
- जीवन के लिये आवश्यक प्रमुख निर्माण खंडों की विस्तारित उपस्थिति से पता चलता है कि मंगल ग्रह पहले की तुलना में लंबे समय तक जीवन समर्थन योग्य रहा होगा।
टिप्पणी:
- SHERLOC मंगल ग्रह पर पहला उपकरण है जो कार्बनिक अणुओं का सूक्ष्म पैमाने पर मानचित्रण और विश्लेषण कर सकता है।
- यह चट्टानों और मृदा पर्पटी को प्रदीप्त करने के लिये लेज़र का उपयोग करता है और पराबैंगनी प्रकाश के संपर्क में आने पर कार्बनिक यौगिकों द्वारा उत्सर्जित प्रतिदीप्ति या ज्योति का मापन करता है।
- SHERLOC कार्बनिक यौगिकों से जुड़े खनिजों की भी पहचान कर सकता है, जो उनकी उत्पत्ति और संरक्षण के बारे में तथ्य प्रदान कर सकता है।
पर्सिवरेंस रोवर:
- परिचय: पर्सिवरेंस एक कार के आकार का मार्स रोवर है जिसे NASA के मार्स 2020 मिशन के हिस्से के रूप में मंगल पर जेज़ेरो क्रेटर का पता लगाने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- इसका निर्माण जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला द्वारा किया गया और 30 जुलाई, 2020 को लॉन्च किया गया।
- इसने सात महीने की यात्रा के बाद 18 फरवरी, 2021 को मंगल ग्रह पर लैंडिग की।
- ऊर्जा स्रोत: एक मल्टी-मिशन रेडियोआइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जेनरेटर (MMRTG) जो प्लूटोनियम (प्लूटोनियम डाइऑक्साइड) के प्राकृतिक रेडियोधर्मी क्षय से ऊष्मा को विद्युत में परिवर्तित करता है।
- प्रमुख उद्देश्य:
- प्राचीन जीवन के संकेतों की खोज और पृथ्वी पर संभावित वापसी के लिये चट्टान एवं मिट्टी के नमूने एकत्र करना।
- मंगल ग्रह के भूविज्ञान एवं जलवायु तथा समय के साथ हुए परिवर्तन का अध्ययन करना।
- ऐसी तकनीकों का प्रदर्शन करना जो भविष्य में मंगल ग्रह पर मानव अन्वेषण को सक्षम कर सकें जैसे कि मंगल ग्रह के वातावरण से ऑक्सीजन का उत्पादन और एक लघु हेलीकॉप्टर का परीक्षण।
विभिन्न मंगल मिशन:
- भारत का मंगल ऑर्बिटर मिशन (MOM) या मंगलयान (2013)
- एक्सोमार्स रोवर (2021) (यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी)
- तियानवेन-1: चीन का मंगल मिशन (2021)
- UAE का होप मार्स मिशन (UAE का अब तक का पहला अंतर-ग्रहीय मिशन) (2021)
- मंगल 2 और मंगल 3 (1971) (सोवियत संघ)
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016) इसरो द्वारा प्रक्षेपित मंगलयान:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल उत्तर: (c) |