महाकुंभ मेला 2025
प्रिलिम्स के लिये:गोदावरी नदी, शिप्रा नदी, अर्द्ध-कुंभ, विजयनगर साम्राज्य, दिल्ली सल्तनत और मुगल, यूनेस्को, अमूर्त सांस्कृतिक विरासत मेन्स के लिये:कुंभ का महत्त्व, ऐतिहासिक विकास। |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2025 में महाकुंभ मेला प्रयागराज में 13 जनवरी से 26 फरवरी 2025 तक आयोजित किया जाएगा जिसमें आध्यात्मिक शुद्धि, सांस्कृतिक उत्सव एवं एकता के प्रतीक के रूप में लाखों तीर्थयात्री आएंगे।
- 'कुंभ' शब्द की उत्पत्ति 'कुंभक' (अमरता के अमृत का पवित्र घड़ा) धातु से हुई है।
कुंभ मेले के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
परिचय:
- यह तीर्थयात्रियों का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण समागम है जिसके दौरान प्रतिभागी पवित्र नदी में स्नान या डुबकी लगाते हैं। यह समागम 4 अलग-अलग जगहों पर होता है, अर्थात्:
- हरिद्वार में गंगा के तट पर।
- उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर।
- नासिक में गोदावरी (दक्षिण गंगा) के तट पर।
- प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक अदृश्य सरस्वती के संगम पर।
कुंभ के विभिन्न प्रकार:
- कुंभ मेला 12 वर्षों में 4 बार मनाया जाता है।
- हरिद्वार और प्रयागराज में अर्द्धकुंभ मेला हर छठे वर्ष आयोजित किया जाता है।
- महाकुंभ मेला 144 वर्षों (12 'पूर्ण कुंभ मेलों' के बाद) के बाद प्रयाग में मनाया जाता है।
- प्रयागराज में प्रतिवर्ष माघ (जनवरी-फरवरी) महीने में माघ कुंभ मनाया जाता है।
ऐतिहासिक विकास:
- पृष्ठभूमि: आदि शंकराचार्य द्वारा रचित महाकुंभ मेले की उत्पत्ति पुराणों से हुई है जिसमें देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत के पवित्र घड़े के लिये संघर्ष का वर्णन है, जिसमें भगवान विष्णु (मोहिनी रूप में) ने घड़े को राक्षसों से बचाया।
- प्राचीन उत्पत्ति: मौर्य और गुप्त काल (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी) के दौरान कुंभ मेले की शुरुआत भारतीय उपमहाद्वीप के तीर्थयात्रियों के छोटे-छोटे आयोजन के रूप में हुई।
- हिंदू धर्म के उदय के साथ इसका महत्त्व बढ़ गया (विशेष रूप से गुप्त जैसे शासकों के अधीन, जिन्होंने इसको और भी महत्त्व दिया)।
- पुष्यभूति वंश के राजा हर्षवर्द्धन ने प्रयागराज में कुंभ मेले का आयोजन प्रारंभ किया।
- मध्यकाल में संरक्षण: चोल और विजयनगर साम्राज्यों, दिल्ली सल्तनत और मुगलों जैसे शाही राजवंशों द्वारा इसे समर्थन मिला।
- अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के क्रम में वर्ष 1565 में नागा साधुओं को मेले में शाही प्रवेश का नेतृत्व करने का सम्मान दिया।
- औपनिवेशिक काल: कुंभ मेले के महत्त्व और विविधता से प्रभावित होकर ब्रिटिश प्रशासकों ने इस उत्सव का अवलोकन करने के साथ इसका दस्तावेज़ीकरण किया।
- 19वीं शताब्दी में जेम्स प्रिंसेप ने इसकी अनुष्ठानिक प्रथाओं और सामाजिक-धार्मिक गतिशीलता का वर्णन किया।
- स्वतंत्रता के बाद का महत्त्व: कुंभ मेला राष्ट्रीय एकता और भारत की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है जिसे वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा इसकी प्राचीन परंपराओं के लिये मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी गई।
कुंभ 2019 के 3 गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड:
- सबसे बड़ी यातायात एवं भीड़ प्रबंधन योजना।
- पेंट माई सिटी योजना के तहत सार्वजनिक स्थलों की सबसे बड़ी पेंटिंग प्रक्रिया।
- सबसे बड़ा स्वच्छता और अपशिष्ट निपटान तंत्र।
कुंभ का महत्त्व:
- आध्यात्मिक प्रासंगिकता: ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी संगम (गंगा, यमुना, सरस्वती संगम) के पवित्र जल में स्नान करने से पापों से मुक्ति तथा आध्यात्मिक मुक्ति (मोक्ष) की ओर मार्गदर्शन मिलता है।
- सांस्कृतिक प्रदर्शन: कुंभ मेले में भक्ति कीर्तन, भजन और कथक, भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे पारंपरिक नृत्य आध्यात्मिक एकता तथा दिव्य प्रेम के विषयों पर प्रकाश डालते हैं।
- ज्योतिषीय महत्त्व: सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की स्थिति के आधार पर निर्धारित, यह आयोजन आध्यात्मिक गतिविधियों के लिये अत्यधिक शुभ है।
- नासिक और उज्जैन में, यह मेला तब आयोजित होता है जब कोई ग्रह सिंह राशि में होता है, तो उसे सिंहस्थ कुंभ कहा जाता है।
अनुष्ठान एवं गतिविधियाँ:
- शाही स्नान: संत और अखाड़े जुलूस के साथ औपचारिक रूप से स्नान करते है, इसे 'राजयोगी स्नान' के नाम से भी जाना जाता है, यह महाकुंभ मेले की शुरुआत का प्रतीक है।
- 'अखाड़ा' शब्द की उत्पत्ति 'अखंड' से हुई है, जिसका अर्थ है अविभाज्य। आदि गुरु शंकराचार्य ने 'सनातन' जीवन शैली की रक्षा के लिये तपस्वी संगठनों को एकजुट करने का प्रयास किया।
- अखाड़े सामाजिक व्यवस्था, एकता, संस्कृति और नैतिकता के प्रतीक हैं, जो आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे सद्गुण, नैतिकता, आत्म-संयम, करुणा एवं धार्मिकता पर ज़ोर देते हैं साथ ही विविधता में एकता के प्रतीक हैं।
- अखाड़ों को उनके इष्ट देवता के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
- शैव अखाड़े: भगवान शिव की विभिन्न रूपों में पूजा करते हैं।
- वैष्णव अखाड़े: भगवान विष्णु की विभिन्न रूपों में पूजा करते हैं।
- उदासीन अखाड़ा: चंद्र देव (प्रथम सिख गुरु, गुरु नानक के पुत्र) द्वारा स्थापित।
- पेशवाई जुलूस: अखाड़ों के पारंपरिक जुलूस का एक भव्य नजारा, जिसे 'पेशवाई ' के नाम से जाना जाता है, जिसमें हाथी, घोड़े और रथों पर प्रतिभागी शामिल होते हैं।
- आध्यात्मिक प्रवचन: इस कार्यक्रम में श्रद्धेय संतों और आध्यात्मिक नेताओं द्वारा आध्यात्मिक प्रवचन के साथ-साथ भारतीय संगीत, नृत्य तथा शिल्प का जीवंत संगम भी शामिल होता है।
यूनेस्को (UNESCO) की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची
- यह प्रतिष्ठित सूची उन अमूर्त विरासत तत्त्वों से बनी है जो सांस्कृतिक विरासत की विविधता को प्रदर्शित करने और इसके महत्त्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद करती है।
- यह सूची वर्ष 2008 में स्थापित की गई थी जब अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा हेतु अभिसमय लागू हुआ था।
यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत:
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत:
- अमूर्त सांस्कृतिक विरासत वे प्रथाएँ, अभिव्यक्तियाँ, ज्ञान और कौशल हैं जिन्हें समुदाय, समूह तथा कभी-कभी व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक विरासत के हिस्से के रूप में पहचानते हैं।
- इसे जीवित सांस्कृतिक विरासत भी कहा जाता है, इसे आमतौर पर निम्नलिखित रूपों में से एक में व्यक्त किया जाता है:
- मौखिक परंपराएँ
- कला प्रदर्शन
- सामाजिक प्रथाएँ
- अनुष्ठान और उत्सव कार्यक्रम
- प्रकृति और ब्रह्मांड से संबंधित ज्ञान और अभ्यास
- पारंपरिक शिल्प कौशल
क्र.सं. |
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत |
शिलालेख का वर्ष |
1 |
कुटियाट्टम, संस्कृत रंगमंच |
2008 |
2 |
वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा |
2008 |
3 |
रामलीला, रामायण का पारंपरिक प्रदर्शन |
2008 |
4 |
रम्माण, गढ़वाल हिमालय, भारत का धार्मिक उत्सव और अनुष्ठान रंगमंच |
2009 |
5 |
छऊ नृत्य |
2010 |
6 |
राजस्थान के कालबेलिया लोकगीत और नृत्य |
2010 |
7 |
मुदियेट्टू, केरल का अनुष्ठान रंगमंच और नृत्य नाटक |
2010 |
8 |
लद्दाख का बौद्ध मंत्रोच्चार: ट्रांस-हिमालयी लद्दाख क्षेत्र में पवित्र बौद्ध ग्रंथों का पाठ |
2012 |
9 |
मणिपुर का संकीर्तन, अनुष्ठानिक गायन, ढोलवादन और नृत्य |
2013 |
10 |
पंजाब के जंडियाला गुरु के ठठेरों में पीतल और तांबे के बर्तन बनाने की पारंपरिक कला |
2014 |
11 |
नवरोज़ |
2016 |
12 |
योग |
2016 |
१३ |
कुंभ मेला |
2017 |
14 |
कोलकाता में दुर्गा पूजा |
2021 |
15 |
गुजरात का गरबा |
2023 |
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: कुंभ मेला भारत की सांस्कृतिक विविधता और आध्यात्मिक विरासत को किस प्रकार दर्शाता है। चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के धार्मिक इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (B) प्रश्न 2. मणिपुरी संकीर्तन के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) 1, 2 और 3 Ans: (b) प्रश्न 3. भारत की संस्कृति एवं परंपरा के संदर्भ में 'कलारीपयट्टू' क्या है? (2014) (a) यह शैवमत का एक प्राचीन भक्ति पंथ है जो अभी भी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। Ans: (d) |
प्राकृतिक खेती की क्षमता का आकलन
प्रिलिम्स के लिये:'परंपरागत कृषि विकास योजना' (PKVY), भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP)/ZBNF, प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन (NMNF) मेन्स के लिये:प्राकृतिक खेती: महत्त्व,चुनौतियाँ,संबंधित पहल तथा आगे की राह |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) द्वारा आंध्र प्रदेश (AP) सरकार के सहयोग से किये गए विश्लेषण से जानकारी प्राप्त हुई है कि प्राकृतिक खेती के AP मॉडल में औद्योगिक कृषि की तुलना में किसानों के लिये रोज़गार के अवसरों को दोगुना करने की क्षमता है, जिससे वर्ष 2050 तक समग्र बेरोज़गारी कम होगी और साथ ही किसानों की आय में वृद्धि होगी।
- यह विश्लेषण आंध्र प्रदेश सरकार, फ्राँसीसी कृषि अनुसंधान संगठन एवं FAO द्वारा सामूहिक भविष्य-निर्माण अभ्यास 'एग्रोइको-2050' का एक हिस्सा था।
नोट:
- एग्रोइको-2050 पहल का उद्देश्य वर्ष 2050 तक आंध्र प्रदेश में कृषि, खाद्य, भूमि उपयोग, प्रकृति, नौकरियों और आय के लिये दो संभावित भविष्य का आकलन करना है।
- एक दृष्टिकोण पारंपरिक औद्योगिक खेती को तीव्र करने पर केंद्रित था, जबकि दूसरे ने प्राकृतिक खेती (कृषि पारिस्थितिकी) में वृद्धि करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- इसका लक्ष्य इन दोनों मार्गों के निहितार्थों की तुलना करना तथा उनकी सुसंगतता का आकलन करना था।
प्राकृतिक खेती क्या है?
- प्राकृतिक खेती परिचय एवं उद्देश्य: प्राकृतिक खेती एक रसायन मुक्त दृष्टिकोण है, जो गाय के गोबर और मूत्र सहित स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है,तथा पारंपरिक एवं स्वदेशी प्रथाओं पर बल देती है।
- यह कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को समाप्त करता है, तथा मल्चिंग सहित खेत पर बायोमास पुनर्चक्रण को बढ़ावा देती है, तथा जैवविविधता, वनस्पति मिश्रणों एवं सभी कृत्रिम रसायनों के बहिष्कार के माध्यम से कीट प्रबंधन करती है।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, प्राकृतिक खेती को पुनर्योजी कृषि का एक रूप माना जाता है - जो ग्रह को बचाने की एक प्रमुख रणनीति है।
- इसमें भूमि प्रथाओं का प्रबंधन करने तथा वायुमंडल से कार्बन को मृदा एवं पौधों में संग्रहित करने की क्षमता है, जहाँ यह हानिकारक होने के स्थान उपयोगी है।
- वर्तमान परिदृश्य: आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और केरल सहित कई राज्य पहले ही प्राकृतिक खेती को अपना चुके हैं और सफल मॉडल विकसित कर चुके हैं।
- अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में होने के बावजूद, प्राकृतिक खेती प्रणाली कृषक समुदाय में धीरे-धीरे स्वीकार्यता प्राप्त कर रही है।
शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF)
- आंध्र प्रदेश में ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती:
- रसायन आधारित, पूंजी प्रधान कृषि के विकल्प के रूप में आंध्र प्रदेश द्वारा वर्ष 2016 में प्रस्तुत शून्य बजट प्राकृतिक खेती को रायथु सधिकारा संस्था (राज्य के कृषि विभाग द्वारा बनाई गई एक गैर-लाभकारी संस्था) के माध्यम से क्रियान्वित किया जाता है।
- इस योजना को अब आंध्र प्रदेश सामुदायिक प्रबंधित प्राकृतिक खेती कहा जाता है, जिसका लक्ष्य 6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में 6 मिलियन किसानों को शामिल करना है।
- वर्ष 2019 के केंद्रीय बजट में ZBNF:
- वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के प्रयास में वर्ष 2019 के केंद्रीय बजट में भी शून्य बजट प्राकृतिक खेती को प्रमुखता दी गई थी।
- इसे केंद्र प्रायोजित योजना परंपरागत कृषि विकास योजना' (PKVY) के तहत ' भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP)'के रूप में बढ़ावा दिया जाता है,जिसका उद्देश्य पारंपरिक और स्वदेशी कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहित करना है।
प्राकृतिक खेती क्यों अपनाई जानी चाहिये?
- रोज़गार पर प्रभाव: FAO के अनुसार वर्ष 2050 तक प्राकृतिक खेती में औद्योगिक कृषि की तुलना में दोगुने किसानों को रोज़गार (प्राकृतिक खेती में 10 मिलियन किसान जबकि औद्योगिक खेती में 5 मिलियन किसान संलग्न होंगे) मिलेगा।
- इस बदलाव से बेरोज़गारी में कमी (प्राकृतिक खेती परिदृश्य में बेरोज़गारी घटकर 7% रह जाएगी) आएगी।
- किसानों की आय: कम उत्पादन लागत (बीज, रसायन, सिंचाई, ऋण और मशीनरी) और उच्च गुणवत्ता वाली उपज के लिये बेहतर बाज़ार मूल्य के कारण प्राकृतिक खेती, किसानों के लिये अधिक लाभदायक होने की आशा है।
- प्राकृतिक खेती से किसानों और गैर-किसानों के बीच आय का अंतर काफी कम (वर्ष 2019 के 62% से वर्ष 2050 तक 22%) हो जाएगा। यह वर्ष 2050 तक औद्योगिक कृषि परिदृश्य में अपेक्षित 47% आय अंतराल से लगभग आधा है।
- भूमि उपयोग और जैवविविधता: प्राकृतिक खेती के अंतर्गत वर्ष 2050 में कुल खेती योग्य क्षेत्र 8.3 मिलियन हेक्टेयर होगा जबकि औद्योगिक कृषि के अंतर्गत यह 5.5 मिलियन हेक्टेयर होगा।
- प्राकृतिक खेती मृदा क्षरण, मरुस्थलीकरण को रोकने के साथ पुनर्योजी और कृषि-पारिस्थितिकी प्रथाओं के माध्यम से जैवविविधता में सुधार लाने में सहायक होगी।
- पोषण संबंधी लाभ: प्रति हेक्टेयर कुछ कम पैदावार के बावजूद, प्राकृतिक खेती से औद्योगिक खेती (4,054 किलोकैलोरी/दिन) की तुलना में प्रति व्यक्ति (5,008 किलोकैलोरी/दिन) अधिक पौष्टिक भोजन मिलेगा।
- प्राकृतिक खेती से प्राप्त भोजन मैक्रोन्यूट्रिएंट्स, माइक्रोन्यूट्रिएंट्स और फाइबर से समृद्ध होगा तथा इसमें कोई रसायन (उर्वरक, कीटनाशक) या एंटीबायोटिक्स नहीं होंगे।
प्राकृतिक खेती से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- अपर्याप्त किसान प्रशिक्षण और सहायता: किसानों को प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाने और बनाए रखने के लिये अधिक व्यापक प्रशिक्षण और निरंतर सहायता की आवश्यकता है।
- वर्तमान प्रशिक्षण प्रणालियाँ सभी प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने में अपर्याप्त हैं।
- जटिल प्रमाणन प्रक्रिया: जैविक खेती के लिये प्रमाणन प्रक्रिया, विशेष रूप से भागीदारी गारंटी योजना (PGS-इंडिया), को जटिल होने के साथ किसान-अनुकूल नहीं माना जाता है।
- इसके अतिरिक्त तीसरे पक्ष से प्राप्त प्रमाणपत्र महँगे हैं, जो छोटे किसानों के लिये एक बाधा है।
- कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (APEDA) द्वारा कार्यान्वित राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम (NPOP) के तहत तीसरे पक्ष प्रमाणन की प्रक्रिया के माध्यम से जैविक खेती प्रमाणन प्रदान किया जाता है।
- इसके अतिरिक्त तीसरे पक्ष से प्राप्त प्रमाणपत्र महँगे हैं, जो छोटे किसानों के लिये एक बाधा है।
- खराब विपणन संपर्क: जैविक उत्पादों के लिये प्रभावी विपणन प्रणालियों का अभाव है, जिसके कारण लाभकारी कीमतों को लेकर चिंता बनी रहती है।
- प्रधानमंत्री कृषि विकास योजना (PKVY) जैसे उचित प्रावधानों के बिना, किसानों को अपने उत्पादों को उचित मूल्य पर बेचने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
- अपर्याप्त वित्तपोषण और नीतिगत समर्थन: रासायनिक उर्वरकों के लिये दी जाने वाली सब्सिडी की तुलना में जैविक और प्राकृतिक कृषि कार्यक्रमों को बहुत कम बजट प्राप्त होता है, जो महत्त्वपूर्ण बाधा है।
- वैज्ञानिक समुदाय में समग्र समझ और समर्थन का भी अभाव है, जिससे जैविक खेती में परिवर्तन एवं निवेश की संभावना सीमित होती है।
- राज्य-स्तरीय कार्यान्वयन में धीमी प्रगति: यद्यपि कुछ राज्यों की जैविक खेती से संबंधित नीतियाँ हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन धीमा बना हुआ है।
- संबंधित नीतियाँ होने के बावजूद कर्नाटक, केरल और अन्य राज्य अपने लक्ष्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं।
- रासायनिक आदानों पर निर्भरता: कृषि प्रणाली काफी हद तक उर्वरकों और कीटनाशकों जैसे रासायनिक आदानों पर बहुत अधिक निर्भर है तथा जैविक विकल्पों को अभी भी व्यापक रूप से बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है या अपनाया नहीं जा रहा है।
- प्राकृतिक और जैविक खेती में कम पैदावार, तथा कीटों एवं खरपतवारों के प्रति उच्च संवेदनशीलता, छोटे व सीमांत किसानों को इन पद्धतियों को अपनाने से रोकती है।
- इन किसानों के लिये, जो भारत के कृषि समुदाय का 80% से अधिक हिस्सा हैं, कम उत्पादन उनकी आजीविका के लिये एक गंभीर खतरा बन गया है, जिससे ऐसी कृषि पद्धतियों को अपनाने में देरी हो रही है।
भारत में प्राकृतिक खेती से संबंधित पहल
- परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY)
- भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP)/ZBNF
- प्राकृतिक खेती हेतु राष्ट्रीय मिशन
आगे की राह:
- उत्पादन पर वैज्ञानिक अध्ययन: प्राकृतिक खेती के साथ एक बड़ी चुनौती यह है कि इसके परिणामस्वरूप गेहूँ और चावल जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार कम हो सकती है, जिससे भारत की बड़ी आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा को खतरा हो सकता है।
- इस समस्या का समाधान करने के लिये, प्राकृतिक खेती से होने वाली फसल पैदावार पर गहन और कठोर वैज्ञानिक अनुसंधान करना आवश्यक है, विशेष रूप से इन प्रमुख फसलों के लिये, इससे पहले कि इसे व्यापक रूप से अपनाया जाए।
- स्थानीय स्तर पर अपनाना: यद्यपि प्राकृतिक खेती स्थानीय स्तर पर लाभकारी हो सकती है, फिर भी यह सुझाव दिया जाता है कि इसका प्रयोग मुख्य खाद्य पदार्थों के बजाय पूरक खाद्य पदार्थों तक ही सीमित रखा जाए।
- इससे स्थिरता और खाद्य सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित कर गैर-प्रधान फसलों के लिये प्राकृतिक खेती का प्रयोग किया जा सकेगा।
- खाद्य सुरक्षा के लिये जोखिम न्यूनीकरण: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिये संभावित जोखिमों से बचने के लिये, प्राकृतिक खेती को अपनाने का वैज्ञानिक परीक्षणों के माध्यम से सावधानीपूर्वक मूल्यांकन, विशेष रूप से प्रमुख फसलों की उत्पादकता और उपज के संबंध में, किया जाना चाहिये।
- बड़े पैमाने पर रासायनिक खेती से प्राकृतिक खेती में बदलाव से पहले व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। श्रीलंका में जैविक खेती में बदलाव के बाद (जिसमें रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाना भी शामिल था),पैदावार में कमी आई, खासकर चावल में, जिससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ गई।
- इसके परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हुई और व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे जल्दबाजी में नीतिगत परिवर्तन के जोखिम सामने आए।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत में एक संधारणीय कृषि मॉडल के रूप में प्राकृतिक खेती की क्षमता का मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. स्थायी कृषि (पर्माकल्चर), पारंपरिक रासायनिक कृषि से किस प्रकार भिन्न है? (2021)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. फसल विविधता के समक्ष मौजूदा चुनौतियाँ क्या हैं? उभरती प्रौद्योगिकियाँ फसल विविधता के लिये किस प्रकार अवसर प्रदान करती हैं? (2021) प्रश्न. जल इंजीनियरिंग और कृषि विज्ञान के क्षेत्रों में क्रमशः सर एम. विश्वेश्वरैया और डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन के योगदानों से भारत को किस प्रकार लाभ पहुँचा था? (2019) |
खाप पंचायतों में सुधार
प्रिलिम्स के लिये:वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR), जाति-आधारित परिषदें, संघर्ष समाधान, लैंगिक असमानता, संवैधानिक अधिकार, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (1987), मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक, 2021, ADR प्रणाली, मध्यस्थता, मानवाधिकार, बेरोज़गारी, शिक्षा, ग्रामीण विकास। मेन्स के लिये:विवाद समाधान में वैकल्पिक विवाद समाधान का महत्त्व। |
स्रोत: ईपीडब्लू
चर्चा में क्यों?
खाप पंचायतें प्राय: कई कारणों से समाचारों में होती हैं, जिनमें कुछ नेता बेरोज़गारी, शिक्षा और ग्रामीण विकास सहित प्रमुख सामाजिक और आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिये प्रगतिशील सुधारों की वकालत करते हैं।
- खाप पंचायतों को आधुनिक बनाने और विनियमित करने के प्रयास भी किये जा रहे हैं, तथा बेहतर प्रशासन और जवाबदेही के लिये उन्हें औपचारिक वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणालियों में एकीकृत किया जा रहा है।
खाप पंचायत क्या है?
- खाप पंचायतें मुख्य रूप से उत्तर भारत, विशेषकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पारंपरिक समुदाय-आधारित परिषदें हैं, जो अनौपचारिक न्यायिक निकायों के रूप में कार्य करती हैं।
- एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। यह पाँच गाँवों की भी हो सकती है और 20-25 गाँवों की भी हो सकती है। जिस क्षेत्र में जो कोई गोत्र अधिक प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में सबसे अधिक दबदबा होता है।
- ऐतिहासिक भूमिका: इस प्रणाली ने ग्रामीण समाजों में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जाति पदानुक्रम के भीतर संघर्ष समाधान के लिये एक मंच के रूप में कार्य किया और प्रथागत मानदंडों को प्राथमिकता देते हुए औपचारिक कानूनी प्रणालियों के समानांतर काम किया।
- खाप पंचायतों से संबंधित मुद्दे :
- पितृसत्तात्मक प्रथाएँ: वे अक्सर लैंगिक असमानता से जुड़ी होती हैं, कठोर सामाजिक मानदंडों को लागू करती हैं जो महिलाओं की स्वायत्तता को प्रतिबंधित करती हैं।
- ऑनर किलिंग: अंतरजातीय और समान गोत्र विवाह का विरोध करने के लिये कुख्यात, कभी-कभी ऑनर किलिंग जैसे चरम मामलों को मंजूरी देना।
- वैधता संबंधी चिंताएँ: उनके निर्णय अक्सर संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और गरिमा के सिद्धांतों के साथ टकराव पैदा करते हैं।
- जाति और सामाजिक असमानताएँ : जातिगत पदानुक्रम को बनाए रखने पर उनका ध्यान भेदभाव और बहिष्कार को मजबूत करता है।
- लैंगिक गतिशीलता और खाप पंचायतों की उभरती भूमिकाएँ :
- महिला खिलाड़ियों के लिये समर्थन: खापों ने सफल महिला खिलाड़ियों को सम्मानित किया है, जिससे महिलाओं में खेल संस्कृति को बढ़ावा मिला है।
- लैंगिक न्याय: यौन उत्पीड़न के खिलाफ 2023 के पहलवानों के विरोध का समर्थन किया, जो लैंगिक-संबंधी सक्रियता की ओर एक बदलाव को चिह्नित करता है।
- उदाहरण के लिये, हरियाणा की सबसे प्रभावशाली खापों में से एक, महम चौबीसी, न्याय, सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने और महिलाओं के मुद्दों को सुलझाने में बढ़ती भूमिका निभा रही है।
खाप पंचायत से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
- शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ मामला, 2018, भारत के सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसमें ऑनर किलिंग और अंतरजातीय विवाह के मुद्दे के संबंध में निर्णय दिया था।
- न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ऑनर किलिंग मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है तथा ऐसे अपराधों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की आवश्यकता पर बल दिया।
- इसने राज्य सरकारों को ऑनर किलिंग को रोकने के लिये सक्रिय कदम उठाने का निर्देश दिया, जिसमें विशेष प्रकोष्ठों की स्थापना और अपने परिवारों से खतरे का सामना कर रहे जोड़ों (युगलों) को सुरक्षा प्रदान करना शामिल है।
वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र क्या है?
- परिचय:
- ADR विवाद समाधान की एक गैर-प्रतिकूल विधि है जो पारस्परिक रूप से लाभकारी परिणामों तक पहुँचने के लिये सहकारी प्रयासों को प्रोत्साहित करती है।
- इससे न्यायालयीय भार को कम करने में सहायता प्राप्त होती है तथा संबंधित पक्षों को एक संतोषजनक अनुभव प्राप्त होता है।
- ADR रचनात्मक सौदेबाजी,अंतर्निहित हितों की पूर्ति और समाधान का विस्तार करने में सक्षम बनाता है।
- ADR की आवश्यकता:
- भारत की न्यायिक प्रणाली लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और देरी के कारण अत्यधिक तनाव का सामना कर रही है, जिससे ADR पद्धतियों की आवश्यकता को बल मिलता है।
- ADR गोपनीयता सुनिश्चित करता है, लागत प्रभावी है और साथ ही अनुकूलता प्रदान करता है,परिणामस्वरूप रचनात्मक समाधान और बेहतर संबंध निर्मित होते हैं।
- ADR तंत्र के प्रकार:
- मध्यस्थता : विवादों का समाधान मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा किया जाता है जिसका निर्णय बाध्यकारी होता है तथा इसमें सीमित न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश होती है।
- समझौता: एक तीसरा पक्ष विवादित पक्षों को पारस्परिक रूप से संतोषजनक समझौते तक पहुँचने में मदद करता है, जिसमें सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार करने का विकल्प होता है।
- सुलह: मध्यस्थ पक्षों के बीच संवाद स्थापित करने तथा विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने में मदद करता है, तथा नियंत्रण पक्षों के पास छोड़ देता है।
- वार्ता: एक गैर-बाध्यकारी पद्धति जिसमें पक्षकार तीसरे पक्ष की भागीदारी के बिना विवादों को सुलझाने के लिये सीधे बातचीत करते हैं।
- भारत में ADR की स्थिति:
- वैधानिक समर्थन: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (1987) और मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम (1996) अदालत के बाहर समझौते को बढ़ावा देते हैं।
- दलील-सौदेबाजी: पूर्व-परीक्षण वार्ता के लिये दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) में प्रस्तुत किया गया।
- लोक अदालतें: अनौपचारिक जन अदालतें जो कानूनी पेचीदगियों के बिना विवादों का समाधान करती हैं।
- हालिया घटनाक्रम: मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक (2021) दुरुपयोग को संबोधित करता है, और मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक, 2021 परिवर्तनों की सिफारिश करता है।
खाप पंचायत को औपचारिक ADR का हिस्सा बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा देना: संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप ढाँचे के भीतर मध्यस्थ भूमिकाओं को वैध बनाकर खाप पंचायतों को औपचारिक ADR प्रणाली में एकीकृत किया जा सकता है।
- खाप नेताओं को मध्यस्थता और पंचनिर्णय तकनीकों पर प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है ताकि विवादों के निष्पक्ष समाधान हेतु उनकी क्षमता में वृद्धि की जा सके।
- विधिक विनियमन: खाप पंचायत की गतिविधियों के दायरे और सीमाओं को परिभाषित करने के लिये कानून तैयार कर या सुनिश्चित किया जा सकता है कि इनके निर्णय भारतीय कानूनों और मानवाधिकारों के अनुरूप हों।
- उनके कार्यों की निगरानी के लिये निरीक्षण तंत्र स्थापित किये जाने चाहिये तथा ऑनर किलिंग या जबरन विवाह रद्द करने जैसी असंवैधानिक प्रथाओं पर रोक लगाई जानी चाहिये।
- विकास पर ध्यान केंद्रित करना: कुछ खाप नेता प्रगतिशील रुख का समर्थन करते हैं तथा बेरोज़गारी, शिक्षा और ग्रामीण विकास जैसी सामाजिक व आर्थिक चुनौतियों का समाधान करना चाहते हैं।
- खाप पंचायतों को आधुनिक बनाने या विनियमित करने के प्रयास जारी हैं, जिसमें उन्हें औपचारिक विवाद समाधान प्रणालियों में एकीकृत करना भी शामिल है।
- जागरूकता और जवाबदेही: संवैधानिक अधिकारों और कानूनी प्रणाली के महत्त्व पर समुदायों को शिक्षित करने के लिये सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिये।
- खाप पंचायतों को उन कार्यों के लिये जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये जो न्याय अथवा समानता की भावना को कमज़ोर करते हैं।
- औपचारिक संस्थाओं के साथ सहयोग: समावेशी निर्णय लेने वाले ढाँचे का निर्माण करने के लिये खाप पंचायतों और स्थानीय शासन निकायों के बीच साझेदारी को सरल बनाया जा सकता है।
- यह सुनिश्चित करने के लिये कि निर्णय कानूनी रूप से सही हैं, इन पंचायतों में न्यायपालिका के प्रतिनिधियों को शामिल किया जा सकता है।
निष्कर्ष
परंपरागत होने के बावजूद खाप पंचायतों को वैकल्पिक विवाद समाधान के प्रभावी उपकरण के रूप में कार्य करने के लिये विकसित किया जाना चाहिये चाहिये। अपनी प्रथाओं को संवैधानिक मूल्यों के साथ जोड़कर, सामुदायिक विकास को बढ़ावा देकर तथा सुधारों को अपनाकर, वे ग्रामीण शासन में सकारात्मक योगदान देते हुए सांस्कृतिक महत्त्व को कायम रख सकते हैं। खापों को ADR निकायों में परिवर्तित करने के लिये कानूनी विनियमन, सामुदायिक जागरूकता की आवश्यकता है तथा समाज में न्याय, समता एवं सद्भाव सुनिश्चित करने हेतु इनकी निगरानी भी आवश्यक होगी।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) के क्या लाभ हैं? खाप पंचायतों को ADR प्रणाली में शामिल करने से भारत की न्यायिक प्रणाली पर बोझ कम करने में कैसे मदद मिलेगी? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. खाप पंचायतें संविधानेतर प्राधिकरणों के तौर पर प्रकार्य करने, अक्सर मानवाधिकार उल्लंघनों की कोटि में आने वाले निर्णयों को देने के कारण खबरों में बनी रही हैं। इस संबंध में स्थिति को ठीक करने के लिये विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा की गई कार्रवाइयों पर समालोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2015) |