भारतीय समाज
लैंगिक असमानता
- 31 Dec 2019
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में महिला असमानता और उनसे संबंधित विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
भारत जहाँ एक ओर आर्थिक-राजनीतिक प्रगति की ओर अग्रसर है वहीं देश में आज भी लैंगिक असमानता की स्थिति गंभीर बनी हुई है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक ने वैश्विक स्तर पर भी लैंगिक असमानता को समाप्त करने में सैकड़ों वर्ष लगने की संभावना व्यक्त की है। इन्ही परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका की राजनीतिज्ञ हेलिरी क्लिंटन ने कहा कि- “महिलाएँ संसार में सबसे अप्रयुक्त भंडार हैं”।
किसी समाज की प्रगति का मानक केवल वहाँ का परिमाणात्मक विकास नहीं होना चाहिये। समाज के विकास में प्रतिभाग कर रहे सभी व्यक्तियों के मध्य उस विकास का समावेशन भी होना ज़रूरी है। इसी परिदृश्य में नवीन विकासवादियों ने विकास की नवीन परिभाषा में वित्तीय, सामाजिक और राजनीतिक समावेशन को आत्मसात किया है।
लैंगिक असमानता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति प्राचीन या वैदिक काल में सुदृढ़ थी उस समय महिलाओं को सभा और समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में समान प्रतिनिधित्व मिलता था। इसके अतिरिक्त अपाला और लोपामुद्रा जैसी महिलाओं ने वेदों की रचना में भी योगदान दिया। लेकिन परवर्ती काल में महिलाओं की स्थिति लगातार कमज़ोर होती गई। प्राचीन काल के पश्चात् मध्य काल में महिलाओं की स्थिति लगातार खराब बनी रही। ऐसी परिस्थितियों में आधुनिक काल के कुछ बुद्धजीवियों द्वारा भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान लैंगिक समानता हेतु किये गए प्रयास अत्यधिक प्रशंसनीय रहे तथा इन प्रयासों से महिला समानता की नवीन अवधारणा का उद्भव हुआ एवं स्वतंत्रता के पश्चात् निर्मित भारतीय संविधान में भी महिलाओं के सशक्तीकरण से संबंधित विभिन्न प्रावधान किये गए।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक:
नवीन विश्व में लैंगिक समानता की स्थिति का सबसे प्रखर और प्रगतिशील प्रकाशन विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum- WEF) द्वारा वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक के माध्यम से किया जाता है। इस सूचकांक में आधुनिक समानता के विभिन्न मुद्दों जैसे अवसर, शिक्षा की उपलब्धता, स्वास्थ्य की सुरक्षा के साथ ही आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी जैसे मानकों का प्रयोग करते हुए 153 (वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2020 में 153 देशों को शामिल किया गया) देशों में महिलाओं की स्थितियों से संबंधित आँकड़ों का प्रकाशन किया गया।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक के बारे में:
- वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी की जाती है।
- लैंगिक अंतराल/असमानता का तात्पर्य “लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेद-भाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है जिससे वे समाज में शोषण, अपमान और भेद-भाव से पीड़ित होती हैं।”
- वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक निम्नलिखित चार क्षेत्रों में लैंगिक अंतराल का परीक्षण करता है:
- आर्थिक भागीदारी और अवसर (Economic Participation and Opportunity)
- शैक्षिक अवसर (Educational Attainment)
- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता (Health and Survival)
- राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी (Political Empowerment)
- यह सूचकांक 0 से 1 के मध्य विस्तारित है।
- इसमें 0 का अर्थ पूर्ण लिंग असमानता तथा 1 का अर्थ पूर्ण लैंगिक समानता है।
- पहली बार लैंगिक अंतराल सूचकांक वर्ष 2006 में जारी किया गया था।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2020
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 में भारत 91/100 लिंगानुपात के साथ 112वें स्थान पर रहा। उल्लेखनीय है कि वार्षिक रूप से जारी होने वाले इस सूचकांक में भारत पिछले दो वर्षों से 108वें स्थान पर बना हुआ था। इस सूचकांक के विभिन्न मानकों जैसे- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता के क्षेत्र में भारत को 150वाँ, आर्थिक भागीदारी और अवसर क्षेत्र में भारत को 144वाँ स्थान, शैक्षिक अवसरों की उपलब्धता के क्षेत्र में भारत को 112वाँ स्थान तथा राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी में अन्य बिंदुओं की अपेक्षा बेहतर स्थिति के साथ भारत को 18वाँ स्थान प्राप्त हुआ।
इस सूचकांक में आइसलैंड को सबसे कम लैंगिक भेदभाव करने वाला देश बताया गया। इसके विपरीत यमन (153वाँ), इराक (152वाँ) और पाकिस्तान (151वाँ) का प्रदर्शन सबसे खराब रहा।
WEF के अनुमान के अनुसार, विश्व में फैली व्यापक लैंगिक असमानता को दूर करने में लगभग 99.5 वर्ष लगेंगे, जबकि इसी सूचकांक में पिछले वर्ष के आँकड़ों के आधार पर यह अवधि 108 वर्ष अनुमानित थी।
भारत में लैंगिक असमानता के कारक:
- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद भी वर्तमान भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त है। इसके कारण महिलाओं को आज भी एक ज़िम्मेदारी समझा जाता है। महिलाओं को सामाजिक और पारिवारिक रुढ़ियों के कारण विकास के कम अवसर मिलते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। सबरीमाला और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर सामाजिक मतभेद पितृसत्तात्मक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है।
- भारत में आज भी व्यावहारिक स्तर (वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति पर महिलाओं का समान अधिकार है) पर पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार प्रचलन में नहीं है इसलिये उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है।
- राजनीतिक स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़कर उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है।
- वर्ष 2017-18 के नवीनतम आधिकारिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) दर कम है। ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक मापदंड पर महिलाओं की आत्मनिर्भरता पुरुषों पर बनी हुई है। देश के लगभग सभी राज्यों में वर्ष 2011-12 की तुलना में वर्ष 2017-18 में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर में गिरावट देखी है। इस गिरावट के विपरीत केवल कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों जैसे मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और दमन-दीव में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर में सुधार हुआ है।
- महिलाओं में रोज़गार अंडर-रिपोर्टिंग (Under-Reporting) की जाती है अर्थात् महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर कार्य करने को तथा घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्यों को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता है।
- शैक्षिक कारक (Educational factor) जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा कमज़ोर है। हालाँकि लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा तक लिंग समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का शैक्षिक नामांकन पुरुषों की तुलना में काफी कम है।
भारत में महिला असमानता को समाप्त करने के प्रयास:
- समाज की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर गंभीरता से विमर्श किया जा रहा है। तीन तलाक, हाज़ी अली जैसे मुद्दों पर सरकार तथा न्यायालय की सक्रियता के कारण महिलाओं को उनका अधिकार प्रदान किया जा रहा है।
- राजनीतिक प्रतिभाग के क्षेत्र में भारत लगातार अच्छा प्रयास कर रहा है इसी के परिणामस्वरुप वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 के राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी मानक पर अन्य बिंदुओं की अपेक्षा भारत को 18वाँ स्थान प्राप्त हुआ। मंत्रिमंडल में महिलाओं की भागीदारी पहले से बढ़कर 23% हो गई है तथा इसमें भारत, विश्व में 69वें स्थान पर है।
- भारत ने मेक्सिको कार्य योजना (1975), नैरोबी अग्रदर्शी (Provident) रणनीतियाँ (1985) और लैगिक समानता तथा विकास और शांति पर संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र द्वारा 21वीं शताब्दी के लिये अंगीकृत "बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफार्म फॉर एक्शन को कार्यान्वित करने के लिये और कार्रवाइयाँ एवं पहलें" जैसी लैंगिक समानता की वैश्विक पहलों की अभिपुष्टि की है।
- ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’, ‘वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तीकरण का प्रयास किया जा रहा है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन के परिणामस्वरुप लिंगानुपात और लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में प्रगति देखी जा रही है।
- आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हेतु मुद्रा और अन्य महिला केंद्रित योजनाएँ चलाई जा रही है।
निष्कर्ष:
लैगिक समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है। संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति भी प्रदान करता है। प्रकृति द्वारा किसी भी प्रकार का लैंगिक विभेद नहीं किया जाता है। समाज में प्रचलित कुछ तथ्य जैसे- महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा जैविक रूप से कमज़ोर होती हैं इत्यादि केवल भ्रांतियाँ हैं। दरअसल महिलाओं में विशिष्ट जैविक अंतर, विभेद नहीं बल्कि प्रकृति प्रदत्त विशिष्टाएँ हैं, जिनमें समाज का सद्भाव और सृजन निहित हैं।
प्रश्न: “महिला असमानता समाज और परिस्थिति प्रदत्त है।” इस कथन के आलोक में महिला असमानता को समाप्त करने के लिये उठाये गए कदमों की समीक्षा कीजिये?