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अंतर्राष्ट्रीय शत्रुता एवं संघर्ष: कारण व समाधान

20वीं सदी में मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने ‘ऐ शरीफ इंसानों’ शीर्षक के साथ एक नज़्म लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ हैं–

“जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और ख़ून आज बख़्शेगी
भूख और एहतियाज कल देगी”

ये पंक्तियाँ लिखने वाले शायर आज जीवित होते तो दुनिया में अनेक देशों के बीच रह-रहकर हो रहे युद्धों व संघर्षों को देखकर विचलित हो जाते।

मौजूदा समय में दुनिया एक से अधिक युद्धों का सामना कर रही है, या ऐसे तनावों के से जूझ रही है, जहाँ दो देश युद्ध की कगार पर खड़े हैं। रूस-यूक्रेन हों, इज़राइल-फिलिस्तीन हों, अज़रबैजान-आर्मेनिया हों, चीन-ताइवान हों, उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया हों या भारत-पाकिस्तान। कई क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ते संघर्ष के बीच दुनिया का एक बड़ा भू-भाग तनाव का सामना कर रहा है।

ऐसे में इस बात पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि दरअसल वे कौन-सी वजहें हैं जिनके चलते दो देश एक-दूसरे के इतने विरुद्ध हो जाते हैं कि हिंसा का प्रयोग करने से भी नहीं कतराते। गौरतलब है कि देशों के बीच शत्रुता अक्सर जटिल और बहुआयामी होती हैं, जिसके पीछे विभिन्न ऐतिहासिक, भू-राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं। हालाँकि सभी द्विपक्षीय विवादों में एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष पर अपनी प्रभुता स्थापित करने की उत्कंठा का पहलू साझा होता है। इसके बावजूद यह कहना उचित नहीं होगा कि इन सभी विवादों के मूल में अक्सर भूगोल, राजनीति, संसाधन अथवा/और पहचान होते हैं। इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए कुछ प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय द्विपक्षीय विवादों, जिन्हें प्रकारांतर से शत्रुता भी‌ कहा जा सकता है, का विश्लेषण करना प्रासंगिक होगा।

बात यदि अंतर्राष्ट्रीय शत्रुता की आती है तो इसका सबसे प्रमुख और हमारे लिये सबसे प्रासंगिक उदाहरण भारत-पाकिस्तान का परस्पर संघर्ष ही है। यह संघर्ष पाकिस्तान के अस्तित्व के आरंभ से ही चला आ रहा है। इसकी हिंसक अभिव्यक्ति 1947-48, 1965, 1971 व‌ 1999 में प्रत्यक्ष सैन्य संघर्षों में हो चुकी है परंतु अप्रत्यक्ष रूप से यह संघर्ष पिछले लगभग 8 दशकों से चला आ रहा है, जिसे सीमा पर आए दिन‌ गोलीबारी व सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ के उदाहरणों के माध्यम से देखा जा सकता है। इस संघर्ष के ज्वलंत बने रहने का प्रमुख कारण 'कश्मीर' के मुद्दे को माना जाता है। हालाँकि सीमापार से पंजाब में भी अशांति उत्पन्न करने के असफल प्रयासों से यह संकेत भी लिया जा सकता है कि संघर्ष भौगोलिक क्षेत्र से अधिक प्रभुता व पहचान के संकट को लेकर है। भारत की ही सीमा के उत्तरी सिरे पर स्थित देश के साथ भी आए दिन संघर्ष नज़र आता रहता है। हालाँकि इसका सबसे प्रमुख कारण 21वीं सदी में एशिया की सर्वोच्च शक्ति के रूप में भारत के उभरने के प्रयासों के चलते उत्पन्न टकराव ही है।

भारत से बाहर निकलकर यदि वैश्विक स्तर पर मौजूद संघर्षों की बात करें तो रूस-यूक्रेन व इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्षों का उल्लेख करना सबसे आवश्यक है। दोनों हॊ मामलों में प्रथमदृष्टया भौगोलिक क्षेत्र पर ऐतिहासिक दावा संघर्ष का प्रमुख कारण दिखाई पड़ता है। हालाँकि रूस-यूक्रेन के मामले में विवाद का अधिक प्रभावी कारण पिछली सदी से अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों व रूस के मध्य चली आ रही प्रभुत्व की लड़ाई है। 2022 में भी रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने के तात्कालिक कारणों में से एक 'उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन' (NATO) के साथ यूक्रेन की बढ़ती निकटता माना गया।

दूसरी ओर, इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष जो कि विशेष भूक्षेत्र पर दावे को लेकर लड़ाई है। यह सदियों लंबे धार्मिक पहचानों को लेकर संघर्ष की अभिव्यक्ति है। 1948 में यहूदियों को जेरूसलम के निकट बसाए जाने के साथ ही सदियों पुराने मुस्लिम-यहू्दी विवाद में एक नया अध्याय जुड़ गया। इस विवाद के केंद्र में दोनों धर्मों के लिये जेरूसलम और इसके आसपास के इलाके का महत्त्व है। अभी भी इस अध्याय में पन्ने जुड़ते जा रहे हैं। दुःख की बात यह है कि ये पन्ने इज़राइलियों और अरबों के रक्त की स्याही से लिखे जा रहे हैं।

इनके अतिरिक्त, सुन्नी बहुल इस्लामी राष्ट्र और शिया बहुल ईरान समेत उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया और अनेक अफ्रीकी देश विभिन्न कारणों से एक-दूसरे से संघर्षरत रहते हैं। यहाँ तक कि इंग्लैंड-आयरलैंड जैसे पश्चिमी यूरोपीय देश भी पिछली सदी के अंत तक रक्तिम संघर्ष में जूझ रहे थे। बीती शताब्दी में यूरोपीय शक्तियों की आपसी शत्रुता और संघर्ष की बात तो जगज़ाहिर है ही।

विवादों व उनके कारणों के बाद समाधानों की बात की‌ जाए तो सभी संघर्षरत पक्षों ने अलग-अलग समय पर कभी स्वप्रेरणा तो कभी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अथवा दबाव के चलते समाधान के मार्ग तलाशने का प्रयास किया है। भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में ताशकंद समझौते व शिमला समझौते से लेकर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष ढंग से दशकों चले संवाद के माध्यम से शांति स्थापित करने की संभावना तलाशी गई। हालाँकि ये दोनों देश अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं खोज सके हैं। भारत-चीन भी निरंतर वार्ता के माध्यम से समाधान खोजने के प्रयास करते ही रहते हैं, भले ही ज़मीन पर बहुत प्रेरणादायक परिणाम न दिखाई दें।

इज़राइल और फिलिस्तीन‌ के मध्य शांति स्थापित करने के प्रयासों की दिशा में 1978 के कैंप डेविड समझौते व 1990 के दशक के ओस्लो समझौतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही और इसके अलावा भी अनेक समझौते दोनों पक्षों के मध्य हाल तक होते रहे हैं। हालाँकि इनके माध्यम से वास्तविक शांति की राह खोज पाना अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। वर्तमान संघर्ष की भयावहता देखते हुए बहुत जल्दी शांति की दिशा में अग्रसर हो पाना भी संभव नहीं दिखता। रूस-यूक्रेन के मामले में भी मिंस्क समझौते सहित अनेक प्रयास हुए हैं परंतु वास्तविक स्थिति में बहुत सुधार नहीं दिखता है।

विविध द्विपक्षीय विवादों के समाधान और शांति स्थापना के प्रयासों की सीमित सफलता के बाद इस दिशा में भावी समाधानों के सुझावों पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इनमें से किसी भी विवाद का समाधान हिंसक संघर्ष के माध्यम से नहीं निकल सकेगा। हिंसा दशकों से जारी है और समाधान अभी भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आता। यह तय है कि समाधान संवाद और कूटनीति के माध्यम से ही निकलेगा क्योंकि शांति स्थापना के मार्ग में जो थोड़ी बहुत प्रगति हुई है वह इसी के ज़रिये हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि संवाद और कूटनीति में शामिल पक्ष अल्पकालिक व लोकप्रिय सफलताओं को भुनाने का विकल्प न चुनते हुए दीर्घकालिक समाधानों की नींव तैयार करने में अपनी भूमिका निभाएँ, चाहे इसके लिये अल्पकाल में कुछ नुकसान ही क्यों न उठाना पड़े। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसी बातें कहना सरल व व्यवहार में इन्हें लागू करना कठिन है। चूँकि इन प्रक्रियाओं में सम्मिलित लोग अक्सर राजनीतिज्ञ ही होते हैं और अलोकप्रियता का ख़तरा उठा पाना उनके लिये बहुत कठिन है। हालाँकि संसार ने राजनीतिज्ञ बहुत देखे हैं परंतु राजपुरुष (Statesman) की संज्ञा उन्हीं को दी गई है, जिन्होंने स्वहित से ऊपर व्यापक हित व राष्ट्रहित को रखा है।

अंत में, साहिर लुधियानवी की बात पर वापस आते हैं। एक अन्य नज़्म‌ में वे लिखते हैं-

"ज़मीं भी तेरी है हम भी तेरे, ये मिल्कियत का सवाल क्या है
ये क़त्ल-ओ-ख़ूँ का रिवाज क्यूँ है, ये रस्म-ए-जंग-ओ-जिदाल क्या है
जिन्हें तलब है जहान भर की, उन्हीं का दिल इतना तंग क्यूँ है
ख़ुदा-ए-बर्तर तेरी ज़मीं पर, ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है"

अंततः यदि सभी संघर्ष भूगोल के संघर्ष हैं तो इन्हें समाप्त करने की दिशा में कार्य करना बहुत जटिल नहीं होना चाहिये। पहचान व संस्कृति से जुड़े संघर्षों को बढ़ावा देने की बजाय यथासंभव पाटने का प्रयास करना चाहिये।‌ भुखमरी और निर्धनता वर्तमान विश्व के सबसे बड़े शत्रु हैं। यदि युद्ध लड़ना भी है तो इन्हीं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिये। यह स्पष्ट करना बहुत आवश्यक है कि यहाँ आशय युद्ध अथवा हिंसक संघर्ष को पूर्णतः एक बुराई बताकर खारिज कर देना नहीं है बल्कि इसके वे स्वरूप जो क्षुद्र हितों से सृजित होते हैं, उन्हें रोकने के मार्गों की खोज को उत्प्रेरित करना है। दो राष्ट्र जब एक-दूसरे के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो इससे उत्पन्न होने वाला विष उन राष्ट्रों की जनता को भी अपनी चपेट में ले लेता है और जिस जनसमूह को मानव विकास के चरम को छू लेना चाहिये उसकी ऊर्जा पारस्परिक घृणा में व्यर्थ होती है। अतः शांति की स्थापना आवश्यकता ही नहीं, विवशता भी है।

  चार्वी दवे  

(लेखिका चार्वी दवे मूलत: राजस्थान की हैं। उन्होंने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से स्नातक और सिंबायोसिस पुणे से एचआर (मानव संसाधन) में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वर्तमान में वे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। साहित्य में विशेष रुचि होने के चलते ये लेखन का कार्य करती रही हैं और लेखन में करियर बनाना चाहती हैं। संगीत में इनकी विशेष रुचि है।)

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