मुख्य परीक्षा
पंचायतों में प्रधान पति संबंधी मुद्दा
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
पंचायती राज मंत्रालय द्वारा वर्ष 2023 में गठित एक पैनल ने अपनी रिपोर्ट, पंचायती राज प्रणालियों और संस्थानों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व एवं भूमिकाओं को बदलना: प्रॉक्सी भागीदारी के प्रयासों को खत्म करना के तहत 'प्रधान पति' की प्रथा को रोकने के क्रम में "अनुकरणीय दंड" की सिफारिश की गई।
- इस रिपोर्ट में महिला प्रतिनिधियों को सशक्त बनाने के क्रम में नीतिगत सुधार, प्रशिक्षण और प्रौद्योगिकी-संचालित समाधान सुझाए गए हैं।
समिति द्वारा सुझाए गए प्रमुख सुधार क्या हैं?
- प्रॉक्सी नेतृत्व के लिये कठोर दंड: इसमें पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के लिये प्रॉक्सी के रूप में कार्य करने वाले पुरुष रिश्तेदारों संबंधी सिद्ध मामलों के लिये 'अनुकरणीय दंड' का प्रावधान किया गया है।
- संरचनात्मक एवं नीतिगत सुधार: इस समिति ने पंचायत और वार्ड स्तर की समितियों (केरल के मॉडल की तरह) में लैंगिक-विशिष्ट कोटा के साथ प्रॉक्सी नेतृत्व के खिलाफ प्रयासों को मान्यता देने के क्रम में वार्षिक 'एंटी-प्रधान पति' पुरस्कार की सिफारिश की है।
- इसमें संबंधित शिकायतों को निपटाने के लिये महिला लोकपाल की नियुक्ति का प्रस्ताव रखा गया है। इसमें महिला प्रधानों के अधिकार को मज़बूत करने के क्रम में ग्राम सभाओं में सार्वजनिक शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करने का भी सुझाव दिया गया है।
- सहकर्मी समर्थन एवं सामूहिक निर्णय लेने के क्रम में इसमें महिला पंचायत प्रतिनिधियों के एक संघ बनाने का सुझाव दिया गया है।
- तकनीकी हस्तक्षेप: समिति ने कौशल को बढ़ावा देने के लिये आभासी वास्तविकता (VR) सिमुलेशन प्रशिक्षण के साथ रियल टाइम विधिक एवं शासन सहायता हेतु स्थानीय भाषाओं में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) संचालित क्वेरी-संचालित मार्गदर्शन का प्रस्ताव रखा है।
- महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों (WERs) को संबंधित मुद्दों के समाधान हेतु अधिकारियों के साथ जोड़ने के लिये व्हाट्सएप ग्रुप बनाए जाने चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, पंचायत निर्णय पोर्टल नागरिकों को प्रधानों की भागीदारी पर नज़र रखने में सक्षम बनाएगा, जिससे पारदर्शिता एवं जवाबदेहिता सुनिश्चित होगी।
- समिति द्वारा नेतृत्व कार्यक्रमों हेतु प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों एवं अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ सहयोग करने का सुझाव दिया गया है।
पंचायती राज संस्थाओं में प्रधान पति का मुद्दा क्या है?
- प्रधान पति: इसे 'सरपंच पति' या 'मुखिया पति' के नाम से भी जाना जाता है, इसमें निर्वाचित महिला पंचायत प्रतिनिधियों के पति उनकी ओर से सत्ता का प्रयोग करते हैं।
- परिणामस्वरूप, कई WER केवल नाममात्र के मुखिया के रूप में कार्य करती हैं, जिससे उनकी स्वायत्तता एवं नेतृत्व में कमी आती है। इससे पितृसत्ता को मज़बूती मिलने के साथ 73वें संविधान संशोधन अधिनियम की भावना कमज़ोर होती है।
- प्रधान पति की विद्यमानता: भारत में तीन स्तरों (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद) पर लगभग 2.63 लाख पंचायतें हैं। 32.29 लाख निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में से 46.6% (15.03 लाख) महिलाएँ हैं।
- हालाँकि, इनकी प्रभावी भागीदारी कम है, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा एवं राजस्थान जैसे उत्तरी राज्यों (जहाँ पुरुषों द्वारा अक्सर निर्णय निर्माण प्रक्रिया को नियंत्रित किया जाता है) में।
- प्रधान पति की समस्या को हल करने में चुनौतियाँ: पितृसत्तात्मक मानदंड एवं नौकरशाही उपेक्षा से महिलाओं के अधिकारों में कमी आती है और अक्सर उन्हें नाममात्र का मुखिया बना दिया जाता है।
- धमकियों, हिंसा और सामाजिक दबाव से महिलाएँ शासन में सक्रिय रूप से भाग लेने से हतोत्साहित होती हैं।
- इस समिति ने चेतावनी दी है कि कठोर दंड से पितृसत्ता जैसे मूल कारणों को हल करने के बजाय समस्या भूमिगत हो सकती है।
पंचायती राज संस्थाओं का विनियमन
- राज्य का विषय: स्थानीय शासन राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है, तथा पंचायती राज संस्थाएँ संबंधित राज्य पंचायती राज अधिनियमों के अनुसार कार्य करती हैं।
- संवैधानिक ढाँचा:
- 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) द्वारा त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली की स्थापना की गई जिसमे महिलाओं के लिये 1/3 आरक्षण अनिवार्य किया गया, जिसे बाद में 21 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों में बढ़ाकर 50% कर दिया गया।
- अनुच्छेद 243D पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान करता है।
- संविधान का अनुच्छेद 40, जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत है, राज्य को ग्राम पंचायतों की स्थापना करने तथा उन्हें स्वशासी इकाइयों के रूप में कार्य करने हेतु आवश्यक शक्तियाँ और प्राधिकार का अधिकार प्रदान करता है।
- पंचायतों (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996, अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और जनजातीय संस्कृति एवं आजीविका की रक्षा के लिये विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: 'प्रधान पति' की प्रथा 73वें संविधान संशोधन के उद्देश्यों को किस प्रकार प्रभावित करती है? पंचायती राज संस्थाओं में महिला नेतृत्व को मज़बूत करने के उपाय सुझाएँ। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारत में समय और स्थान के विरुद्ध महिलाओं के लिये निरंतर चुनौतियाँ क्या हैं? (2019) प्रश्न. विविधता, समानता और समावेश सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) |


मुख्य परीक्षा
कृषि उपज से किसानों की आय: RBI
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने रबी फसलों में उपभोक्ता मूल्यों में किसानों की हिस्सेदारी पर एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण किया।
- इसमें 18 राज्यों की मंडियों और गाँवों को शामिल किया गया, जिसमें 12 रबी फसलों का विश्लेषण किया गया तथा किसानों, व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं से प्राप्त इनपुट भी शामिल किये गए।
कृषि उपज से किसानों की आय पर सर्वेक्षण के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
- उपभोक्ता मूल्यों में किसानों की हिस्सेदारी: सर्वेक्षण में शामिल प्रमुख रबी फसलों के लिये किसानों को अंतिम उपभोक्ता मूल्य का 40-67% प्राप्त हुआ।
- गेहूँ किसान: गेहूँ किसानों को उपभोक्ता मूल्य का 67% प्राप्त हुआ, जो सर्वेक्षण की गई फसलों में सर्वाधिक है , तथा 25% किसानों ने सुनिश्चित बाज़ार के लिये MSP पर अपनी फसल बेची।
- चावल और अन्य अनाज: खुदरा कीमतों में चावल किसानों की हिस्सेदारी वर्ष 2024 में 52% थी जो पिछले कुछ वर्षों में स्थिर रही, अर्थात वर्ष 2022 में 45% और वर्ष 2018 में 49%।
- दलहन और तिलहन: मसूर किसानों को उपभोक्ता मूल्य का लगभग 66% प्राप्त हुआ, जबकि चना किसानों को उपभोक्ता मूल्य का 60% प्राप्त हुआ।
- सरसों किसानों को 52% प्राप्त हुआ, जो वर्ष 2021 के अध्ययन में दर्ज 55% से थोड़ा कम है।
- शीघ्र नष्ट होने वाली फसलें: फलों और सब्जियों में किसानों की हिस्सेदारी 40-63% के बीच थी, जो अनाज और दालों की तुलना में काफी कम है।
- अधिकांश शीघ्र नष्ट होने वाली फसलों (टमाटर को छोड़कर) के लिये उपभोक्ता कीमतों में व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं की संयुक्त हिस्सेदारी 50% से अधिक थी।
- शीघ्र नष्ट होने वाली फसलों (फल और सब्जियाँ) में किसानों की हिस्सेदारी गैर-जल्दी खराब होने वाली फसलों (जैसे गेहूँ और दालें) की तुलना में कम थी।
- शीघ्र नष्ट होने वाले उत्पादों की शेल्फ लाइफ कम होती है, इनका उत्पादन मौसमी होता है, इनकी गुणवत्ता भिन्न होती है, विशेष लॉजिस्टिक्स, सख्त मानक, मांग में उतार-चढ़ाव, जलवायु पर निर्भरता और आपूर्ति शृंखला अनिश्चितताएँ होती हैं।
- डिजिटल लेनदेन: कृषि में नकद लेनदेन अभी भी हावी है, लेकिन वर्ष 2018 और वर्ष 2022 की तुलना में वर्ष 2024 के सर्वेक्षण में इलेक्ट्रॉनिक भुगतान में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
- आपूर्ति शृंखला चुनौतियाँ:
- अनेक मध्यस्थों वाली असंगठित आपूर्ति शृंखला, उत्पाद की आवाजाही, वित्त और मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता को सीमित करती है, जिससे उपभोक्ता कीमतों में किसानों का हिस्सा कम हो जाता है।
- किसानों की कम हिस्सेदारी अनाज के अलावा फसल विविधीकरण को हतोत्साहित करती है।
यहाँ क्लिक करके पढ़ें: कृषि उत्पादों पर कृषकों की तुलना में मध्यस्थों को अधिक लाभ: RBI
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत की कृषि आपूर्ति शृंखला में मध्यस्थों की भूमिका और किसानों की आय पर इसके प्रभाव का आकलन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से आपका क्या तात्पर्य है? एमएसपी किसानों को निम्न-आय के जाल से कैसे बचाएगा? (2018) |


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
भारत के निजी अंतरिक्ष उद्योग का उदय
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्द्धन और प्राधिकरण केंद्र, वेंचर कैपिटल, POEM मेन्स के लिये:भारत के अंतरिक्ष स्टार्टअप, 2020 के अंतरिक्ष क्षेत्र सुधार और उनके प्रभाव |
स्रोत: बिज़नेस स्टैंडर्ड
चर्चा में क्यों?
2020 के अंतरिक्ष क्षेत्र सुधारों से प्रेरित भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी भागीदारी में वृद्धि से संबद्ध क्षेत्र में निजी अभिकर्त्ताओं को अनुमति प्रदान कर नवाचार और निवेश में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
- भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की निरंतर उपलब्धियाँ, भारत के अंतरिक्ष तकनीक स्टार्टअप के साथ, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, अन्वेषण और व्यावसायीकरण में तेज़ी से प्रगति कर रही हैं।
भारत का निजी अंतरिक्ष उद्योग किस प्रकार विकसित हुआ है?
- निजी भागीदारी: भारत में वर्तमान में 200 से भी अधिक अंतरिक्ष स्टार्टअप सक्रिय हैं, जो ISRO की सुविधाओं (ISRO की परीक्षण, प्रक्षेपण और ग्राउंड स्टेशन सुविधाएँ) का लाभ उठाते हैं।
- भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्द्धन और प्राधिकरण केंद्र (IN-SPACe) ने भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र के विकास में तेज़ी लाने के लिये विनियामक और वित्तीय सहायता (1,000 करोड़ रुपए के वेंचर कैपिटल (VC) फंड) प्रदान की है।
- ISRO की वाणिज्यिक शाखा, एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन ने उपग्रह प्रक्षेपण और निजी कंपनियों को प्रौद्योगिकी का अंतरण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- POEM (PSLV ऑर्बिटल एक्सपेरीमेंटल मॉड्यूल) कार्यक्रम के तहत स्टार्टअप पेलोड की संख्या में वृद्धि हुई, जो वर्ष 2022 में 6 थी और वर्ष 2024 में बढ़कर 24 हो गई।
- निजी निवेश: अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था निजी निवेश से प्रेरित है, जो तेज़ी से बढ़ रही है।
- माउंटटेक ग्रोथ फंड- कवच (MGF-कवच) उद्यम पूंजी वित्तपोषण के माध्यम से घरेलू निवेश को बढ़ावा दे रहा है, जिसमें पिछले 3 वर्षों में स्टार्टअप्स ने 2,500 करोड़ रुपए जुटाए हैं।
- MGF-कवच श्रेणी II के अंतर्गत भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा पंजीकृत वैकल्पिक निवेश कोष (AIF) है।
- भारतीय स्टार्टअप की प्रगति: GalaxEye ने विश्व का पहला ऑप्टिकल इमेजरी के साथ सिंथेटिक अपर्चर रडार (SAR) का संलयन किया, जिससे तीव्र डेटा संपीड़न संभव हुआ।
- पिक्सल (Pixxel) विश्व का सबसे उन्नत हाइपरस्पेक्ट्रल उपग्रह समूह (Firefly) विकसित कर रहा है, जबकि इंस्पेसिटी (आईआईटी बॉम्बे) उपग्रह की मरम्मत और ईंधन भरने के लिये इन-ऑर्बिट डॉकिंग पर कार्य कर रहा है।
- स्काईरूट (Skyroot) और अग्निकुल (Agnikul) लागत प्रभावी उपग्रह तैनाती के लिये अग्रणी निजी प्रक्षेपण यान हैं।
- पिक्सल (Pixxel) विश्व का सबसे उन्नत हाइपरस्पेक्ट्रल उपग्रह समूह (Firefly) विकसित कर रहा है, जबकि इंस्पेसिटी (आईआईटी बॉम्बे) उपग्रह की मरम्मत और ईंधन भरने के लिये इन-ऑर्बिट डॉकिंग पर कार्य कर रहा है।
अंतरिक्ष क्षेत्र सुधार 2020:
- भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र सुधार 2020 ने भारत की वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिये उपग्रह डिज़ाइन, प्रक्षेपण यान निर्माण और ग्राउंड स्टेशन सेवाओं सहित सभी अंतरिक्ष गतिविधियों में निजी भागीदारी का विस्तार किया।
- IN-SPACe की स्थापना एक नियामक निकाय के रूप में की गई थी, जिसका उद्देश्य निजी क्षेत्र की भागीदारी को सुविधाजनक बनाना तथा बढ़ावा देना है, तथा यह गैर-सरकारी निजी संस्थाओं (NGPEs) को ISRO के लिये केवल विक्रेता बनने के बजाय अंतरिक्ष-आधारित गतिविधियों में संलग्न होने को सक्षम बनाता है।
- इन सुधारों द्वारा न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) के माध्यम से ISRO से निजी संगठनों तक प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण को भी बढ़ावा दिया गया है।
भारत के अंतरिक्ष उद्योग के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?
- वित्तपोषण और निवेश में अंतराल: उद्यम पूंजी में रुचि बढ़ने के बावजूद प्रारंभिक स्तर का निवेश अभी भी दुर्लभ है, जिससे कंपनियों के लिये विकास करना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
- प्रतिभा की कमी: अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में विशिष्ट शैक्षणिक संस्थानों और पाठ्यक्रमों की कमी प्रतिभा विकास में बाधा डालती है।
- केवल एक ही भारतीय अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी संस्थान (IIST) मौजूद है, जिससे अधिक संस्थानों एवं उद्योग-अकादमिक सहयोग की आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है।
- वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा: अमेरिका, चीन और रूस जैसे देशों के उन्नत अंतरिक्ष कार्यक्रम हैं जिनमें पुन: प्रयोज्य अंतरिक्ष यान, अंतरिक्ष पर्यटन एवं व्यापक उपग्रह समूह शामिल हैं।
- भारत इस क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है लेकिन अनुसंधान एवं विकास के सीमित होने से इसमें बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं।
- विदेशी प्रक्षेपण यान: यद्यपि भारत ने प्रक्षेपण क्षमताएँ विकसित कर ली हैं लेकिन कई स्टार्टअप लागत तथा समय-सीमा संबंधी बाधाओं के कारण स्पेसएक्स के फाल्कन-9 जैसे विदेशी रॉकेटों पर निर्भर हैं।
- इस क्रम में निर्भरता कम करने के लिये अधिक कुशल एवं पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यानों का विकास करना आवश्यक है।
आगे की राह
- अनुसंधान एवं विकास के साथ बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा देना: अंतरिक्ष-ग्रेड घटकों के लिये उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन योजना के माध्यम से उपग्रह घटकों के घरेलू विनिर्माण का विस्तार करना चाहिये।
- कुशल कार्यबल तैयार करने के क्रम में IISTs तथा IITs में अधिक संख्या में अंतरिक्ष-केंद्रित पाठ्यक्रम शुरू करने चाहिये।
- उपग्रह और प्रक्षेपण यान निर्माण के लिये एक मज़बूत पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिये स्पेस कोस्ट, फ्लोरिडा की तरह एक समर्पित अंतरिक्ष औद्योगिक गलियारा विकसित करना।
- वैश्विक सहयोग: अग्रणी अंतरिक्ष एजेंसियों (नासा, ESA, रोस्कोस्मोस) के साथ द्विपक्षीय समझौतों को मज़बूत करना।
- उपग्रह प्रक्षेपण को अधिक किफायती बनाने के लिये स्टार्टअप्स के लिये राइडशेयर मिशन को बढ़ावा देना।
- प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: ISRO की प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पहल का विस्तार करना, ताकि स्टार्टअप्स को घरेलू नवाचारों का व्यवसायीकरण करने में सक्षम बनाया जा सके।
- कृषि, आपदा प्रबंधन और शहरी नियोजन जैसे उद्योगों के लिये अनुप्रयोग विकसित करने हेतु अंतरिक्ष स्टार्टअप का लाभ उठाना, जिससे वाणिज्यिक विकास को बढ़ावा मिलेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के अंतरिक्ष उद्योग में निजी भागीदारी को बढ़ावा देने में वर्ष 2020 के अंतरिक्ष क्षेत्र सुधारों के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्सप्रश्न. भारत की अपना स्वयं का अंतरिक्ष केंद्र प्राप्त करने की क्या योजना है और हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम को यह किस प्रकार लाभ पहुँचाएगी? (2019) प्रश्न. अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये। इस तकनीक के अनुप्रयोग ने भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार सहायता की? (2016) |


भारतीय राजव्यवस्था
चंपकम दोरायराजन मामला और FR और DPSP का विकासक्रम
प्रिलिम्स के लिये:चंपकम दोरायराजन मामला, मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व, अनुच्छेद 46, अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 16(4), प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, अनुच्छेद 15(4), नौवीं अनुसूची, 25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971, अनुच्छेद 31C, अनुच्छेद 39(b) और (c), 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 मेन्स के लिये:मूल अधिकारों (FR) और राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों (DPSP) और संबंधित न्यायिक निर्णयों के बीच संघर्ष |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
चंपकम दोरायराजन केस, 1951 में मौलिक अधिकारों (FR) और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) के बीच संघर्ष का प्रथम उदाहरण प्रस्तुत हुआ था।
चंपकम दोरायराजन केस, 1951 क्या है?
- मामले की पृष्ठभूमि: वर्ष 1948 में, मद्रास सरकार ने सांप्रदायिक साधारण आदेश (GO) पेश किया, जिसके तहत जाति और धर्म के आधार पर शैक्षणिक संस्थानों में सीटें आरक्षित की गईं।
- सरकार ने अनुच्छेद 46 को उद्धृत किया, जिसके अंतर्गत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और कमज़ोर वर्गों की शिक्षा और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने का प्रावधान है।
- मद्रास की एक महिला चंपकम दोरायराजन ने समता के अधिकार (अनुच्छेद 14) का उल्लंघन बताते हुए इस आदेश को मद्रास उच्च न्यायालय (HC) में चुनौती दी।
- मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय, 1950: मद्रास उच्च न्यायालय ने जाति और धर्म को वर्गीकरण के आधार के रूप में उपयोग करने के कारण सांप्रदायिक सरकारी आदेश को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया और तत्पश्चात् मद्रास सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
- सर्वोच्च न्यायालय का फैसला, 1951: सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा तथा सांप्रदायिक सरकारी आदेश को असंवैधानिक घोषित किया।
- फैसले में कहा गया कि यह अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15(1) (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि मूल कानून, राज्य पुलिस बलों पर प्रभावी होगा तथा यह सुनिश्चित किया गया कि संसद संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से मूल कानून में संशोधन कर सकती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का प्रभाव: इस फैसले ने शिक्षा में जाति-आधारित आरक्षण को रद्द कर दिया, क्योंकि संविधान के तहत केवल सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण की अनुमति प्रदान की गई थी ( अनुच्छेद 16(4) )।
- इसके परिणामस्वरूप शिक्षा में आरक्षण बहाल करने के लिये प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 पारित किया गया।
- प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951: सरकार द्वारा अनुच्छेद 15(4) को शामिल करके अनुच्छेद 15 में संशोधन किया गया, जिसने राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBC) , अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति दी।
- इस संशोधन ने शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लिये संवैधानिक आधार प्रदान किया।
कमज़ोर वर्गों के लिये प्रमुख संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
- अनुच्छेद 15(1): धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है ।
- अनुच्छेद 15(4): SEBC, SC और ST के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान करता है, जिससे शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण शामिल है।
- अनुच्छेद 16(4): पिछड़े वर्गों के लिये सार्वजनिक रोज़गार में आरक्षण की अनुमति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है।
- अनुच्छेद 46 (DPSP): SC, ST और कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का अधिदेश देता है।
प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा कौन से प्रावधान संशोधित किये गए?
- मौलिक अधिकार:
- अनुच्छेद 15(4): SEBC, SC और ST के लिये विशेष प्रावधानों की अनुमति दी गई।
- अनुच्छेद 19: स्वतंत्र भाषण पर उचित प्रतिबंधों का विस्तार (अनुच्छेद 19(2)), जिसमें राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और अपराधों के लिये उकसावा शामिल है।
- राज्य व्यावसायिक योग्यताएँ निर्धारित कर सकता है तथा राज्य के स्वामित्व वाले निगमों के माध्यम से व्यापार, कारोबार या उद्योग को विनियमित या राष्ट्रीयकृत कर सकता है।
- संसद और राज्य विधानमंडल:
- अनुच्छेद 85 और 174: यह सुनिश्चित किया गया कि दो संसदीय या राज्य विधान सत्रों के बीच का अंतराल छह महीने से अधिक न हो।
- अनुच्छेद 87 और 176: विधानमंडल में राष्ट्रपति/राज्यपाल का अभिभाषण अब प्रत्येक आम चुनाव के बाद केवल एक बार और प्रत्येक वर्ष पहले सत्र की शुरुआत में अनिवार्य होगा।
- भूमि सुधार:
- अनुच्छेद 31A: संपदा और संपत्ति के अधिकार के अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को मौलिक अधिकारों के तहत चुनौती दिये जाने से सुरक्षित किया गया।
- अनुच्छेद 31B: मौलिक अधिकारों के संबंध में सूचीबद्ध कानूनों को न्यायिक समीक्षा से सुरक्षित करते हुए नौवीं अनुसूची बनाई गई।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति: राष्ट्रपति को प्रत्येक राज्य के लिये अनुसूचित जाति (अनुच्छेद 341) और अनुसूचित जनजाति (अनुच्छेद 342) को अलग-अलग निर्दिष्ट करने का अधिकार दिया गया।
FR और DPSP के बीच टकराव पर अन्य निर्णय क्या हैं?
- गोलकनाथ मामला, 1967: सर्वोच्च न्यायालय ने चंपकम दोरायराजन मामले में अपने निर्णय को पलटते हुए कहा कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती, तथा उनके पूर्ण संरक्षण को सुनिश्चित किया।
- केशवानंद भारती मामला, 1973:
- पृष्ठभूमि: 25 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 द्वारा अनुच्छेद 31C जोड़ा गया, जिसमें दो प्रमुख प्रावधान थे:
- संसाधन वितरण पर DPSP को लागू करने के लिये कानून (अनुच्छेद 39 (b) और (c)) को न्यायिक समीक्षा से संरक्षित किया गया था, भले ही वे अनुच्छेद 14, 19, या 31 के तहत प्रदान किये गए FR का उल्लंघन करते हों।
- अनुच्छेद 39(b) और (c) को लागू करने के लिये बनाया गया कोई भी कानून न्यायिक समीक्षा से संरक्षित था, भले ही वह अपने लक्ष्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर पाया हो।
- निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने पहले प्रावधान को बरकरार रखा, तथा यह सुनिश्चित किया कि अनुच्छेद 39(b) और (c) को लागू करने वाले कानून वैध बने रहेंगे, भले ही वे मौलिक अधिकारों के साथ टकराव में हों।
- इसने न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाने वाले अनुच्छेद 31C के दूसरे प्रावधान को रद्द कर दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने मूल ढाँचा की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसके अनुसार संविधान के कुछ मूल सिद्धांतों को संशोधनों के माध्यम से बदला या नष्ट नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, न्यायिक समीक्षा, संशोधन की सीमित शक्ति आदि।
- पृष्ठभूमि: 25 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 द्वारा अनुच्छेद 31C जोड़ा गया, जिसमें दो प्रमुख प्रावधान थे:
- मिनर्वा मिल्स मामला, 1980:
- पृष्ठभूमि: 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद द्वारा 31C के संरक्षण को सभी DPSPs तक विस्तारित किया गया तथा उन्हें अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत FRs पर प्राथमिकता दी गई।
- निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संशोधन के तहत अनुच्छेद 31C के विस्तार को निरस्त कर दिया तथा निर्णय दिया कि संविधान के संतुलन को बनाए रखते हुए संविधान के मूल अधिकारों एवं राज्य पुलिस बलों के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन आवश्यक है तथा राज्य पुलिस बलों द्वारा संविधान के मूल अधिकारों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है।
- वर्तमान स्थिति: FR को DPSP पर वरीयता दी जाती है लेकिन संसद अनुच्छेद 39(b) और 39(c) को लागू करने के लिये अनुच्छेद 14 एवं 19 में संशोधन कर सकती है।
निष्कर्ष
चंपकम दोराईराजन मामले के तहत निर्देशक तत्त्वों पर मूल अधिकारों की सर्वोच्चता स्थापित की गई, जिससे संविधान संशोधनों और न्यायिक व्याख्याओं पर प्रभाव पड़ा। गोलकनाथ, केशवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स सहित बाद के फैसलों में FR और DPSP के बीच संतुलन को आकार मिला, जिससे संवैधानिक सुरक्षा उपायों के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा न्यायिक समीक्षा को बरकरार रखते हुए सामाजिक न्याय सुनिश्चित हुआ।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: मूल अधिकारों एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच टकराव पर सर्वोच्च न्यायालय के बदलते दृष्टिकोण का विश्लेषण कीजिये। |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्सप्रश्न: भारतीय संविधान का कौन सा भाग कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा से संबंधित है? (2020) (a) राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत उत्तर: (A) मेन्सप्रश्न: “संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति सीमित है और इसे पूर्ण शक्ति के रूप में विस्तारित नहीं किया जा सकता है।” इस कथन के प्रकाश में स्पष्ट कीजिये कि क्या संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद अपनी संशोधन शक्ति का विस्तार करके संविधान के मूल ढाँचे को नष्ट कर सकती है? (2019) |

