भारत के पर्यावरण शासन का सुदृढ़ीकरण | 28 Jan 2025
यह एडिटोरियल 16/01/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Burrow tragedy: On the coal mining tragedy in Assam’s Dima Hasao” पर आधारित है। यह लेख असम में अवैध कोयला खनन के लगातार जारी मुद्दे पर केंद्रित है, जिसका उदाहरण हाल ही में दीमा हसाओ त्रासदी है, जो भारत में पर्यावरण नियमों और उनके प्रवर्तन के बीच अंतर को उजागर करता है।
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय हरित अधिकरण, पर्यावरण नियम, जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) नियम, 2016, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980, सर्वोच्च न्यायालय का गोदावर्मन निर्णय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण प्रभाव आकलन, जैवविविधता अधिनियम, 2002, वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023, हिमाचल प्रदेश फ्लैश फ्लड- 2023, कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग मार्केट मेन्स के लिये:भारत में वर्तमान में लागू प्रमुख पर्यावरण विनियम, भारत के पर्यावरण विनियम प्रभावी कार्रवाई में परिवर्तित नहीं हो रहे हैं। |
असम में हाल ही में दीमा हसाओ कोयला खनन त्रासदी ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा प्रतिबंध के बावजूद अवैध और खतरनाक रैट-होल खनन के साथ भारत की निरंतर चुनौती को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। सीमेंट निर्माण और ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले की औद्योगिक मांगों से उत्प्रेरित चल रहा दोहन, पर्यावरण नियमों तथा उनके प्रवर्तन के बीच अंतर को दर्शाता है। विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच यह निरंतर संघर्ष तत्काल ध्यान देने की मांग करता है, विशेषकर जब भारत आर्थिक विकास को बनाए रखते हुए अपने महत्त्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है।
भारत में वर्तमान में लागू प्रमुख पर्यावरण नियम क्या हैं?
- अनुच्छेद 48A: राज्य को पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने तथा वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 51A(g): नागरिकों पर पर्यावरण का संरक्षण करने और जीव-जंतुओं के प्रति दया रखने का मौलिक कर्त्तव्य लागू करता है।
- अनुच्छेद 21: जीवन के अधिकार में स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार (एम.सी. मेहता केस में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या की गई) शामिल है।
- संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान पर्यावरण संरक्षण के लिये आधार प्रदान करता है।
- प्रदूषण नियंत्रण कानून:
- जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974: इसका उद्देश्य जल निकायों में अपशिष्ट निर्वहन को विनियमित करके जल प्रदूषण को रोकना और नियंत्रित करना है।
- अनुपालन की निगरानी और लागू करने के लिये केंद्रीय व राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB और SPCB) की स्थापना की गई।
- वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981: उद्योगों और वाहनों द्वारा उत्सर्जन को विनियमित करके वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने का प्रयास करता है।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986: यह एक व्यापक अधिनियम है जो केंद्र सरकार को पर्यावरण संरक्षण के लिये कदम उठाने का अधिकार देता है।
- ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) नियम, 2016: विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (EPR) के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट के प्रबंधन और निपटान को विनियमित करता है।
- प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016: एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाता है तथा प्लास्टिक अपशिष्ट के पुनर्चक्रण और उचित निपटान को अनिवार्य बनाता है।
- जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974: इसका उद्देश्य जल निकायों में अपशिष्ट निर्वहन को विनियमित करके जल प्रदूषण को रोकना और नियंत्रित करना है।
- वन एवं वन्यजीव संरक्षण
- भारतीय वन अधिनियम, 1927: वन संसाधनों के संरक्षण और सतत् प्रयोग को विनियमित करता है।
- वनों को आरक्षित, संरक्षित और ग्राम वनों में वर्गीकृत करने का प्रावधान (सर्वोच्च न्यायालय का गोदावर्मन निर्णय द्वारा अनुपूरित) करता है।
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980: यह अधिनियम केंद्र सरकार की स्वीकृति के बिना वन भूमि को गैर-वनीय उद्देश्यों के लिये उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाता है।
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: वन्यजीव और जैवविविधता के संरक्षण पर केंद्रित है।
- राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य और बायोस्फीयर रिज़र्व जैसे संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना करता है।
- प्रतिपूरक वनरोपण निधि अधिनियम, 2016: यह अधिनियम डेवलपर्स को प्रतिपूरक वनरोपण के लिये भुगतान करने का निर्देश देता है, यदि वे वन भूमि को गैर-वनीय उपयोग के लिये उपयोग करते हैं।
- जैवविविधता अधिनियम, 2002: भारत की जैविक विविधता की रक्षा करता है तथा वंशागत संसाधनों तक पहुँच और उनके सतत् उपयोग को नियंत्रित करता है।
- भारतीय वन अधिनियम, 1927: वन संसाधनों के संरक्षण और सतत् प्रयोग को विनियमित करता है।
- पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) अधिसूचना: महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव वाली परियोजनाओं के लिये पूर्व पर्यावरणीय अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
- अनुमोदन प्रदान करने से पहले सार्वजनिक परामर्श और पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं को अनिवार्य बनाया गया है।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) अधिनियम, 2010: पर्यावरण विवादों को निपटाने के लिये NGT को एक विशेष न्यायिक निकाय के रूप में स्थापित करता है।
- मामलों के शीघ्र समाधान और पर्यावरण उल्लंघनों के लिये कठोर दंड का प्रावधान करता है।
भारत के पर्यावरण नियमों से प्रमुख मुद्दे क्यों जुड़े हैं?
- कमज़ोर प्रवर्तन तंत्र: भारत के पर्यावरण कानून केवल कागज़ी तौर पर ही सख्त हैं, लेकिन अपर्याप्त संस्थागत क्षमता, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अकुशलता के कारण इनका प्रवर्तन बाधित है।
- भारत के 4,40,989 प्रचालनरत उद्योगों में से 6% से अधिक उद्योग पर्यावरण मानकों को पूरा करने में विफल रहते हैं, जिससे प्रदूषक उत्सर्जन और अपशिष्ट निर्वहन के माध्यम से वायु, जल एवं मृदा के लिये खतरा उत्पन्न होता है।
- प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (PCB) जैसे नियामक निकायों के पास पर्याप्त धन लेकिन अपर्याप्त कर्मचारी हैं, जिसके कारण उचित निगरानी नहीं हो पाती है तथा उल्लंघनकर्त्ताओं के प्रति जवाबदेही का अभाव होता है।
- एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश गंगा तटीय राज्य प्रदूषण बोर्डों में कर्मचारियों की कमी है तथा उनके पास अपर्याप्त उपकरणों की सुविधा है, जबकि वे प्रतिवर्ष अधिशेष धनराशि अर्जित करते हैं।
- विकास और संरक्षण के बीच संघर्ष: आर्थिक विकास को प्राथमिकता देने से प्रायः पर्यावरणीय नियमों में ढील आ जाती है, जिससे उनकी प्रभावशीलता कम हो जाती है।
- कुछ उद्योगों के लिये पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) मानदंडों में ढील देने जैसी नीतियाँ इस प्रवृत्ति को दर्शाती हैं।
- उदाहरण के लिये, वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 के तहत वन भूमि का रूपांतरण, पारिस्थितिक संरक्षण से समझौता करते हुए विकास को प्राथमिकता देता है।
- अमेरिकी संस्थाओं द्वारा पर्यावरण संबंधी प्रदर्शन के आधार पर 180 देशों की सूची में भारत को सबसे निचले स्थान पर (हालाँकि भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को मान्यता नहीं दी है) रखा गया है।
- अपर्याप्त सार्वजनिक भागीदारी: भारत में पर्यावरण शासन में प्रायः निर्णय लेने में स्थानीय समुदायों की भूमिका को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है।
- EIA जैसे कानूनों के तहत सार्वजनिक परामर्श या तो सतही होता है या पूरी तरह से नजरअंदाज़ कर दिया जाता है।
- सीमांत समुदाय, विशेषकर जनजातीय आबादी, पर्याप्त मुआवज़े या पुनर्वास के बिना विस्थापन और आजीविका के नुकसान का सामना कर रही है।
- उदाहरण के लिये, छत्तीसगढ़ में हसदेव अरंड कोयला खनन परियोजना को जनजातीय समुदायों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताओं के बावजूद खनन जारी रहा।
- पिछले 5 वर्षों में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कार्यालय ज्ञापनों के माध्यम से वर्ष 2006 की पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना में 110 परिवर्तन किये हैं, तथा सार्वजनिक परामर्श को दरकिनार कर दिया है, क्योंकि इन्हें कानूनी संशोधन नहीं माना जाता है।
- विनियमन में प्रौद्योगिकी का कम उपयोग: IoT-आधारित सेंसर, रिमोट सेंसिंग और AI जैसी उन्नत निगरानी प्रौद्योगिकियों का अंगीकरण सीमित है, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय उल्लंघनों का पता लगाने में विलंब होता है।
- मैन्युअल निरीक्षण पर निर्भरता प्रवर्तन एजेंसियों की प्रभावशीलता को और कम कर देती है।
- उदाहरण के लिये, 4,041 शहरों और कस्बों में से केवल 476 में वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन (मैनुअल या रियल टाइम) हैं, जबकि अधिकांश 267 शहर मैनुअल स्टेशनों पर निर्भर हैं।
- वर्ष 2023 में भारत का औसत AQI विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा से 10 गुना अधिक हो गया, फिर भी नियामक प्रतिक्रिया प्रतिक्रियात्मक रही।
- न्यायिक अतिक्रमण और विलंबित कार्रवाई: यद्यपि भारत की न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाई है, लेकिन न्यायालयों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण कार्रवाई में विलंब होता है।
- न्यायिक हस्तक्षेप से प्रायः परियोजना क्रियान्वयन में अनिश्चितता उत्पन्न होती है तथा समय पर निर्णय न होने से पर्यावरण संरक्षण एवं विकास लक्ष्य दोनों ही अवरुद्ध हो जाते हैं।
- तमिलनाडु में रेत खनन पर प्रतिबंध को लेकर चल रहे मुकदमे के कारण स्पष्ट नीति के क्रियान्वयन के अभाव में अनियंत्रित अवैध खनन को बढ़ावा मिला है।
- वर्ष 2022 में, भारत में पर्यावरण से संबंधित 88,400 से अधिक मामले लंबित थे, जिनमें से कुछ एक दशक से भी अधिक समय से लंबित थे।
- जलवायु अनुकूलन पर पर्याप्त ध्यान का अभाव: भारत की पर्यावरण नीतियाँ शमन (जैसे: नवीकरणीय ऊर्जा, उत्सर्जन में कमी) पर बहुत अधिक ज़ोर देती हैं, लेकिन प्रायः पारिस्थितिकी तंत्र के पुनर्स्थापन, सामुदायिक समुत्थानशक्ति और आपदा तैयारी जैसे समुत्थानशील उपायों की उपेक्षा करती हैं।
- यह असंतुलन जलवायु संबंधी आपदाओं के प्रभाव को और भी बदतर बना देता है।
- हिमाचल प्रदेश फ्लैश फ्लड- 2023 ने जलवायु -अनुकूल बुनियादी अवसंरचना की अनुपस्थिति को उजागर किया।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 से पता चलता है कि भारत का जलवायु अनुकूलन व्यय सत्र 2021-2022 में सकल घरेलू उत्पाद का 5.6% था, जो सतत् विकास और आर्थिक विकास का समर्थन करने के लिये अनुकूलन वित्त में वृद्धि की आवश्यकता पर बल देता है।
- असंवहनीय शहरीकरण का उदय: तीव्र शहरीकरण ने शहरी नियोजन कार्यढाँचे को प्रभावित किया है, जिसके परिणामस्वरूप शहरों में पर्यावरणीय क्षरण हुआ है।
- अनियमित निर्माण, अपर्याप्त अपशिष्ट प्रबंधन और अपर्याप्त हरित क्षेत्र ने वायु और जल प्रदूषण जैसी समस्याओं को बढ़ा दिया है।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2019 की MoEFCC की रिपोर्ट में हरियाणा के प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्रों (NCZs) में 47% की कमी का उल्लेख किया गया, जिसमें गुरुग्राम और फरीदाबाद में महत्त्वपूर्ण अपवर्जित क्षेत्र थे। पर्यावरणविदों ने चिंता जताई कि इन बदलावों से अरावली क्षेत्र में रियल एस्टेट विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, जिससे वायु गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और जल स्तर के पुनःपूर्ति में रुकावट आएगी।
- पिछले पाँच वर्षों में भारत में ई-अपशिष्ट में 73% की वृद्धि हुई है, फिर भी देश में इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट के लिये प्रभावी प्रबंधन और पुनर्चक्रण नीतियों का अभाव है। ई-अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 अभी भी क्रियान्वयन के अधीन हैं।
- अवैध खनन के विरुद्ध सख्त कार्रवाई का अभाव: अवैध खनन एक बड़ी चुनौती बना हुआ है, जो पर्यावरणीय नियमों को कमज़ोर कर रहा है और गंभीर पारिस्थितिक क्षरण का कारण बन रहा है।
- इस अनियमित गतिविधि के कारण निर्वनीकरण, जैवविविधता का ह्रास, मृदा अपरदन और भू-जल में कमी होती है, साथ ही स्थानीय समुदायों की आजीविका को भी खतरा होता है।
- उदाहरण के लिये, यमुना और गंगा जैसी नदियों में अवैध रेत खनन से नदी-तटों और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को व्यापक नुकसान पहुँचा है, जिससे जल प्रवाह बाधित हुआ है और आवास नष्ट हो गए हैं।
- वर्ष 2022 में अवैध खनन के केवल 6% मामलों में ही FIR दर्ज की गई। यह इस बात को दर्शाता है कि ऐसी गतिविधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई सीमित है।
आर्थिक विकास को संतुलित करते हुए पर्यावरण नियमों को सख्त करने के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है?
- प्रवर्तन तंत्र को मज़बूत करना: भारत को केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसी नियामक संस्थाओं को पर्याप्त धन, कुशल जनशक्ति और रियल टाइम मॉनिटरिंग के लिये उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ सशक्त बनाने की आवश्यकता है।
- प्रदूषण ट्रैकिंग के लिये AI-आधारित सेंसर, वन अतिक्रमण के लिये ड्रोन निगरानी और औद्योगिक क्षेत्रों के लिये GIS मैपिंग की शुरूआत से अनुपालन में सुधार हो सकता है।
- स्वतंत्र परीक्षण और नियामक निकायों की आवधिक निष्पादन समीक्षा जैसे जवाबदेही तंत्र आवश्यक हैं।
- कार्बन क्रेडिट मार्केट को लोकप्रिय बनाना: भारत एक मज़बूत घरेलू कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग मार्केट विकसित कर सकता है जो उद्योगों को निम्न-कार्बन प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण के लिये प्रोत्साहित करेगा।
- इस्पात, सीमेंट और ताप विद्युत जैसे उच्च प्रदूषण वाले क्षेत्रों के लिये कार्बन ऑफसेट को अनिवार्य बनाकर, औद्योगिक विकास को बाधित किये बिना उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।
- इन क्रेडिट से प्राप्त राजस्व को नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं और समुदाय-आधारित वनरोपण कार्यक्रमों में लगाया जा सकता है।
- राष्ट्रीय संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता मिशन के अंतर्गत प्रदर्शन, उपलब्धि, व्यापार (PAT) योजना को सुदृढ़ करना तथा अधिक प्रभाव के लिये इसे सत्र 2023-24 के बजट में प्रस्तुत ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के साथ संरेखित किया गया है।
- जलवायु-अनुकूल अवसंरचना को बढ़ावा देना: पर्यावरणीय स्थिरता के साथ विकास को संतुलित करने के लिये, भारत को अवसंरचना परियोजनाओं के लिये सख्त पर्यावरणीय ऑडिट लागू करना चाहिये तथा पर्यावरण अनुकूल विकल्पों में निवेश करना चाहिये।
- पारगमनीय फुटपाथ, हरित छत्र और ऊर्जा-कुशल भवन डिज़ाइन का उपयोग करके पारिस्थितिक क्षरण को कम किया जा सकता है।
- परियोजनाओं में संवेदनशील क्षेत्रों, विशेषकर हिमालयी और तटीय क्षेत्रों में आपदा-रोधी बुनियादी अवसंरचना को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया में सुधार: EIA कार्यढाँचे को अधिक पारदर्शी, सहभागी और साक्ष्य-आधारित बनाया जाना चाहिये।
- प्रत्येक स्तर पर सार्वजनिक परामर्श सख्ती से आयोजित किया जाना चाहिये, जिसमें सीमांत समुदायों को भी शामिल करने का प्रावधान होना चाहिये।
- मानदंडों को कमज़ोर करने के बजाय, भारत को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में कई परियोजनाओं के लिये संचयी प्रभाव आकलन को लागू करना चाहिये।
- तीव्र लेकिन संपूर्ण अनुमोदन प्रक्रियाओं के लिये EIA सुधारों को PARIVESH (ICT द्वारा सक्रिय उत्तरदायी सुविधा) जैसे डिजिटल प्लेटफार्मों के साथ जोड़े जाने चाहिये।
- स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन को प्रोत्साहित करना: आर्थिक विकास और पर्यावरणीय लक्ष्यों में संतुलन बनाए रखने के लिये, भारत को उद्योगों और घरों में नवीकरणीय ऊर्जा अंगीकरण के लिये सब्सिडी का विस्तार करना चाहिये।
- सोलर रूफ, बायोमास आधारित विद्युत ऊर्जा और मिनी ग्रिड जैसे विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा समाधान जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम कर सकते हैं, विशेष रूप से ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में।
- जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में चरणबद्ध कटौती तथा विद्युत गतिशीलता के लिये प्रोत्साहन से इस परिवर्तन में तीव्रता आ सकती है।
- परिवहन और ऊर्जा जैसे प्रमुख क्षेत्रों को कार्बन मुक्त करने के लिये ग्रीन हाइड्रोजन मिशन और हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों का तीव्र अंगीकरण एवं विनिर्माण (FAME) योजना के बीच तालमेल को दृढ किया जाना चाहिये।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को एकीकृत करना: चक्रीय अर्थव्यवस्था सिद्धांतों के अंगीकरण से अपशिष्ट उत्पादन और संसाधन निष्कर्षण को कम किया जा सकता है, साथ ही आर्थिक अवसर भी उत्पन्न किये जा सकते हैं।
- भारत को उद्योगों को संसाधन-कुशल प्रथाओं जैसे कि पुनर्चक्रण, पुनः उपयोग एवं पुनर्चक्रण प्रथाओं के अंगीकरण के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
- ई-अपशिष्ट, प्लास्टिक और पैकेजिंग सामग्री के लिये विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) जैसी पहलों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिये।
- शहरी हरित स्थानों का विस्तार: शहरी वानिकी को बढ़ावा देने और शहरों में समर्पित हरित क्षेत्रों का निर्माण करने से नगरीय उष्मा द्वीप प्रभाव को कम किया जा सकता है, वायु की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है तथा सामुदायिक कल्याण को बढ़ाया जा सकता है।
- नगर निगम के नियमों के तहत शहरों को अपने क्षेत्र का एक निश्चित प्रतिशत हरित आवरण के रूप में बनाए रखना अनिवार्य होना चाहिये। ऐसे स्थान घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में कार्बन सिंक के रूप में भी काम कर सकते हैं।
- शहरी पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन को बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम के साथ AMRUT 2.0 (अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन) को एकीकृत किया जाना चाहिये।
- संरक्षण में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को मुख्यधारा में लाना: भारत को वनरोपण, अपशिष्ट प्रबंधन और स्वच्छ ऊर्जा पहल जैसी पर्यावरण संरक्षण परियोजनाओं के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिये।
- इससे संसाधन जुटाना, परियोजना का कुशल क्रियान्वयन और निजी भागीदारों से प्रौद्योगिकी अंतरण सुनिश्चित हो सकता है। PPP मॉडल नदियों को पुनर्जीवित करने, जल निकायों की सफाई और आर्द्रभूमि के संरक्षण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- समुदाय-नेतृत्व संरक्षण को बढ़ावा देना: वन अधिकार अधिनियम (वर्ष 2006) के तहत निर्णय लेने को विकेंद्रीकृत करके स्थानीय समुदायों को पर्यावरण शासन में भाग लेने के लिये सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- समुदाय-नेतृत्व वाले वनरोपण कार्यक्रम, जलग्रहण प्रबंधन और संरक्षण परियोजनाएँ समावेशी विकास सुनिश्चित कर सकती हैं।
- जैवविविधता वाले क्षेत्रों के संरक्षण के लिये जनजातीय और सीमांत समूहों को उचित मुआवज़ा दिया जाना चाहिये।
- संरक्षण और जनजातीय आजीविका दोनों को समर्थन देने के लिये ट्राइफेड पहल के तहत वन धन विकास केंद्रों को राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये।
- क्षीण पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करना: भारत को वाटरशेड दृष्टिकोण अपनाकर क्षरित वनों, नदियों, आर्द्रभूमि और घास के मैदानों को पुनर्जीवित करने को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- मूल प्रजातियों के साथ वृहत पैमाने पर वनरोपण, संक्रामक प्रजातियों को हटाना तथा आर्द्रभूमि पुनर्भरण परियोजनाओं से जैवविविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार हो सकता है।
- ये प्रयास पेरिस समझौते के अंतर्गत भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को पूरा करने में भी मदद कर सकते हैं।
- न्यायिक और विवाद समाधान तंत्र को सुदृढ़ करना: भारत को पर्यावरणीय विवादों का त्वरित समाधान सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के अधिकार क्षेत्र और क्षमता का विस्तार करना चाहिये।
- जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता और प्रदूषण के जटिल मामलों को विशेष पीठ अधिक प्रभावी ढंग से निपटा सकती हैं।
- पर्यावरण उल्लंघनों से संबंधित औद्योगिक विवादों के लिये मध्यस्थता और पंचनिर्णय जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र शुरू किये जाने चाहिये।
- दिल्ली-NCR में वायु प्रदूषण के मामलों में NGT की सक्रिय भूमिका को जल प्रदूषण और वन डायवर्ज़न विवादों के लिये भी दोहराया जा सकता है।
- खनन में निगरानी तंत्र को मज़बूत करना: खनन गतिविधियों की रियल टाइम मॉनिटरिंग के लिये उपग्रह इमेजरी, ड्रोन और GPS-आधारित ट्रैकिंग सिस्टम जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों को तैनात किया जाना चाहिये।
- डिजिटल उपकरणों को केंद्रीकृत डेटा प्रणालियों के साथ एकीकृत करने से अधिकारियों को अवैध खनन कार्यों का पता लगाने और रोकने में मदद मिल सकती है।
- महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने रेत खनन के लिये ड्रोन आधारित निगरानी लागू की है जिसे अन्य राज्यों में भी लागू किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
भारत को कमज़ोर संस्थागत क्षमता, विकास और संरक्षण के बीच संघर्ष तथा अपर्याप्त सार्वजनिक भागीदारी के कारण अपने दृढ़ पर्यावरण नियमों को लागू करने में बहुत बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। प्रौद्योगिकी अंगीकरण, पारदर्शी EIA और स्थानीय समुदायों के सशक्तीकरण के माध्यम से नियामक कार्यढाँचे को सुदृढ़ करना अति आवश्यक है। आर्थिक विकास को पर्यावरण संरक्षण के साथ संतुलित करने के लिये एक संतुलित दृष्टिकोण जो सतत् विकास, जलवायु अनुकूलन और पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्भरण को एकीकृत करता है, आवश्यक है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में पर्यावरणीय विनियमों को लागू करने में आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये तथा पर्यावरणीय संवहनीयता के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने के उपाय सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. निम्नलिखित में से कीन-से भौंगोलिक क्षेत्र में जैवविविधता के लिये संकट हो सकते हैं? (2012)
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: (a) प्रश्न 2. जैवविविधता निम्नलिखित तरीकों से मानव अस्तित्व का आधार बनाती है: (2011)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न. भारत में जैवविविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैवविविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018) |