आपदा प्रबंधन
भारत के आपदा सुरक्षा तंत्र का सुदृढ़ीकरण
- 27 Dec 2024
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यह एडिटोरियल 25/12/2024 को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित “Two decades after the Indian Ocean tsunami: reflecting on a global turning point in disaster management” पर आधारित है। इस लेख में वर्ष 2004 के हिंद महासागर सुनामी के बाद से आपदा प्रबंधन में भारत के परिवर्तन का उल्लेख किया गया है तथा आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 जैसी पहलों के माध्यम से क्षेत्रीय अग्रणी के रूप में भारत के विकास पर प्रकाश डाला गया है।
प्रिलिम्स के लिये:वर्ष 2004 हिंद महासागर सुनामी, आपदा प्रबंधन अधिनियम- 2005, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल, भोपाल गैस त्रासदी, भुज भूकंप, सेंदइ फ्रेमवर्क फॉर डिज़ास्टर रिस्क रिडक्शन, आपदा रोधी अवसंरचना हेतु गठबंधन, स्मार्ट सिटी मिशन, चक्रवात मोखा, केदारनाथ बाढ़, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम मेन्स के लिये:भारत के समक्ष प्रमुख आपदा चुनौतियाँ, भारत में आपदा प्रबंधन फ्रेमवर्क का विकास। |
वर्ष 2004 में हिंद महासागर में आई विनाशकारी सुनामी के लगभग 2 दशक बाद, जिसमें 230,000 से अधिक लोगों की जान चली गई थी, भारत ने अपने आपदा प्रबंधन दृष्टिकोण को बदल दिया है। आपदा प्रबंधन अधिनियम- 2005 के माध्यम से, इसने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और राष्ट्रीय आपदा मोचन बल की स्थापना की, जो पीड़ित देश से क्षेत्रीय अग्रणी के रूप में विकसित हुआ है। फिर भी, इसकी विशाल तटरेखा, भौगोलिक विविधता और बढ़ती जलवायु सुभेद्यताओं के साथ निरंतर चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जो आपदा मोचन तंत्र में निरंतर सतर्कता एवं प्रगति की मांग करती हैं।
भारत में आपदा प्रबंधन का दृष्टिकोण किस प्रकार विकसित हुआ है?
- प्रारंभिक वर्ष: राहत-केंद्रित और प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण (1980 के दशक से पूर्व)
- राहत और पुनर्वास पर ध्यान: स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, भारत में आपदा प्रबंधन प्रतिक्रियात्मक राहत प्रयासों, जैसे कि खाद्य वितरण, अस्थायी आश्रय और चिकित्सा सहायता तक सीमित था।
- इसकी जिम्मेदारी मुख्य रूप से राज्य सरकारों की होती है, जिन्हें बड़ी आपदाओं के दौरान केंद्रीय सहायता प्राप्त होती है।
- बिहार अकाल (वर्ष 1966-67) और वर्ष 1972 के सूखे जैसी घटनाओं ने राहत वितरण में अकुशलता और निवारक उपायों की कमी को उजागर किया।
- राहत और पुनर्वास पर ध्यान: स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, भारत में आपदा प्रबंधन प्रतिक्रियात्मक राहत प्रयासों, जैसे कि खाद्य वितरण, अस्थायी आश्रय और चिकित्सा सहायता तक सीमित था।
- योजना और तैयारी की ओर संक्रमण (1980-2000 का दशक)
- संस्थागत फोकस में वृद्धि: पर्यावरण विभाग (वर्ष 1980) की स्थापना, जो बाद में पर्यावरण और वन मंत्रालय के रूप में विकसित हुआ, ने आपदा से जुड़ी पर्यावरणीय चिंताओं को दूर करने का प्रयास किया।
- प्रमुख घटनाओं पर प्रतिक्रिया: सबसे भयावह औद्योगिक आपदाओं में से एक, भोपाल गैस त्रासदी (वर्ष 1984) ने उद्योगों में सख्त सुरक्षा नियमों और आपदा प्रबंधन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- आंध्र प्रदेश में चक्रवात (वर्ष 1990) और लातूर भूकंप (वर्ष 1993) के कारण राहत समन्वय में सुधार हुआ, लेकिन रोकथाम व शमन सीमित रहा।
- राष्ट्रीय संगठनों का गठन: वर्ष 1990 में, देश भर में चक्रवात चेतावनी गतिविधियों का समन्वय करने और क्षेत्रीय मार्गदर्शन प्रदान करने के लिये क्षेत्रीय विशिष्ट मौसम विज्ञान केंद्र-उष्णकटिबंधीय चक्रवात (RSMC-TC) के रूप में कार्य करने के लिये नई दिल्ली में चक्रवात चेतावनी निदेशालय की स्थापना की गई थी।
- आपदा प्रबंधन का संस्थागतकरण (2000 का दशक)
- निर्णायक बिंदु के रूप में प्रमुख आपदाएँ: भुज भूकंप (वर्ष 2001) ने शहरी नियोजन और बुनियादी अवसंरचना की सुरक्षा में भेद्यताओं को उजागर किया, जिससे तैयारियों में प्रणालीगत सुधारों को बढ़ावा मिला।
- हिंद महासागर में आई सुनामी (वर्ष 2004) ने भारी तबाही मचाई, जिसके कारण भारत की आपदा प्रबंधन रणनीतियों में आमूलचूल परिवर्तन आया।
- आपदा प्रबंधन अधिनियम (वर्ष 2005) का अधिनियमन: इस अधिनियम ने भारत में आपदा प्रबंधन को संस्थागत रूप दिया तथा एक समर्पित फ्रेमवर्क तैयार किया।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) की स्थापना की गई, जिसमें राज्य (SDMA) और ज़िला (DDMA) समकक्ष शामिल हैं।
- आपदा प्रबंधन के चार स्तंभों पर ध्यान केंद्रित किया गया: न्यूनीकरण, तैयारी, मोचन और पुनर्वास।
- निर्णायक बिंदु के रूप में प्रमुख आपदाएँ: भुज भूकंप (वर्ष 2001) ने शहरी नियोजन और बुनियादी अवसंरचना की सुरक्षा में भेद्यताओं को उजागर किया, जिससे तैयारियों में प्रणालीगत सुधारों को बढ़ावा मिला।
- सक्रिय और समुत्थानशीलता-केंद्रित उपागम (वर्ष 2010-वर्तमान)
- शमन और समुत्थानशक्ति की ओर संक्रमण: ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (वर्ष 2005-2015) और सेंदइ फ्रेमवर्क फॉर डिज़ास्टर रिस्क रिडक्शन (वर्ष 2015-2030) जैसे वैश्विक फ्रेमवर्क के तहत जोखिम में कमी पर ज़ोर।
- प्रौद्योगिकी का संक्रमण: डॉपलर रडार, बाढ़ पूर्वानुमान और रियल टाइम डेटा साझाकरण शेयरिंग जैसी उन्नत प्रणालियाँ।
- समुदाय-केंद्रित और समावेशी रणनीतियाँ: आपदा मित्र और स्कूल आपदा प्रबंधन योजना जैसे कार्यक्रम स्थानीय समुदायों को प्रथम मोचनकर्त्ता के रूप में कार्य करने के लिये सशक्त बनाते हैं।
- वैश्विक सहयोग: भारत SAARC डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेंटर और यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिज़ास्टर रिस्क रिडक्शन जैसे वैश्विक फ्रेमवर्क में योगदान देता है तथा उनसे लाभान्वित होता है।
- कोलिशन फॉर डिज़ास्टर रेज़िलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर (CDRI) में भागीदारी।
- विकासशील फोकस क्षेत्र:
- जलवायु-प्रेरित आपदाओं से निपटना: जलवायु-संबंधी बढ़ते जोखिमों के कारण भारत ने आपदा प्रबंधन योजनाओं में जलवायु अनुकूलन को शामिल किया।
- बाढ़ को कम करने के लिये नमामि गंगे जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत मैंग्रोव पुनरुद्धार जैसे प्रकृति-आधारित समाधानों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- शहरी आपदा प्रबंधन: शहरी बाढ़ जैसे जोखिमों से निपटने के लिये स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत विकास फ्रेमवर्क में शहरी समुत्थानशक्ति को एकीकृत किया जा रहा है।
- वर्ष 2022 की बाढ़ के बाद बंगलुरु की बाढ़ प्रबंधन योजनाओं में आर्द्रभूमि पुनर्भरण और स्टॉर्मवाटर अवसंरचना उन्नयन पर ज़ोर दिया गया है।
- जलवायु-प्रेरित आपदाओं से निपटना: जलवायु-संबंधी बढ़ते जोखिमों के कारण भारत ने आपदा प्रबंधन योजनाओं में जलवायु अनुकूलन को शामिल किया।
भारत के सामने प्रमुख आपदा चुनौतियाँ क्या हैं?
- जलवायु-प्रेरित आपदाओं में वृद्धि: भारत जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति का अनुभव कर रहा है, जिससे शमन फ्रेमवर्क में अंतराल उजागर हो रहा है।
- चक्रवात मोखा (वर्ष 2023) ने सुंदरबन को प्रभावित किया, जबकि हिमाचल प्रदेश (वर्ष 2023) में रिकॉर्ड तोड़ बारिश के कारण 10,000 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ, जो वनों की कटाई तथा अनियमित विकास के कारण और भी बढ़ गया।
- एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि भारत को वर्ष 2023 में 365 दिनों में से 314 दिनों में चरम मौसमी घटनाओं का सामना करना पड़ा।
- जलवायु-अनुकूल बुनियादी अवसंरचना की कमी से मानवीय और आर्थिक दोनों तरह की भेद्यता बढ़ जाती हैं।
- अव्यवस्थित शहरीकरण के परिणामस्वरूप शहरी बाढ़: संधारणीय योजना के बिना तीव्रता से शहरी विस्तार ने शहरों को बाढ़ के हॉटस्पॉट में बदल दिया है।
- तीव्र शहरीकरण के कारण शहरी बाढ़ की चुनौती बढ़ गई है, जिसके कारण विकसित शहरों में जल स्तर 1.8 से 8 गुना तक बढ़ गया है।
- वर्ष 2021 में चेन्नई में आई बाढ़, पुरानी जल निकासी प्रणालियों और आर्द्रभूमि पर अवैध निर्माण के कारण हुई, जिससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया तथा आर्थिक नुकसान हुआ।
- वर्ष 2022 की बंगलुरु बाढ़ मुख्य रूप से नगर निकाय में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण हुई, जिसके परिणामस्वरूप झीलों, झील तलों, स्टॉर्मवाटर ड्रेन्स ( राजकालुवे) और बफर ज़ोन पर व्यापक अतिक्रमण हुआ।
- हिमालय की संवेदनशीलता और हिमनद-स्खलन: पिघलते ग्लेशियर और अस्थिर हिमालयी भू-स्खलन और हिमनद झीलों आउटबर्स्ट जैसी उच्च-परिमाण वाली आपदाओं को जन्म दे रहे हैं।
- केदारनाथ बाढ़ (वर्ष 2013) और चमोली आपदा (वर्ष 2021) ने अनियंत्रित जलविद्युत परियोजनाओं एवं निर्वनीकरण के कारण बढ़ते खतरों को उजागर किया।
- वर्ष 1975 से 2000 तक हिमालय के ग्लेशियरों में प्रतिवर्ष औसतन 4 बिलियन टन बर्फ पिघल गई, जो वर्ष 2000 से 2016 के बीच दोगुनी होकर 8 बिलियन टन प्रतिवर्ष हो गई।
- इससे न केवल आजीविका खतरे में पड़ती है, बल्कि लाखों लोगों की जल सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है।
- औद्योगिक खतरे और बढ़ती रासायनिक आपदाएँ: भारत में औद्योगिक सुरक्षा मानदंडों के लापरवाह क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप बार-बार औद्योगिक दुर्घटनाएँ हो रही हैं।
- विजाग गैस रिसाव (वर्ष 2020) से 10,000 से अधिक लोग जहरीले धुएँ के संपर्क में आ गए, जबकि लुधियाना गैस त्रासदी (वर्ष 2023) ने खतरनाक सामग्रियों की रियल टाइम मॉनिटरिंग की कमी को उजागर किया।
- सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि अपर्याप्त सुरक्षा उपायों के कारण भारतीय कारखानों में प्रतिदिन औसतन 3 श्रमिक अपनी जान गँवा देते हैं, तथापि NDMA के रासायनिक आपदा मानकों का अभी भी, विशेष रूप से टियर-2 और टियर-3 शहरों में, लगातार क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है।
- कृषि संबंधी भेद्यताएँ और सूखे का खतरा: अनियमित मानसून, गर्म हवाएँ और भू-जल में कमी ने सूखे की स्थिति को और गंभीर कर दिया है, जिससे भारत की कृषि अर्थव्यवस्था असंतुलित हो गई है।
- वर्ष 2022 के लातूर सूखे में फसलें बर्बाद हो गईं। लातूर में 60% से अधिक लोग खेती-बाड़ी में लगे हैं, जिससे सूखा एक गंभीर मुद्दा बन गया है
- वर्ष 2030 तक 40% भारतीयों के पास पीने योग्य शुद्ध जल नहीं होगा (NITI आयोग)। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) जैसी योजनाओं के बावजूद, सिंचाई का बुनियादी अवसंरचना और वर्षा जल संचयन अपर्याप्त है।
- वनाग्नि और कार्बन सिंक की क्षति: जलवायु परिवर्तन और मानव-प्रेरित कारकों के कारण भारत में वनाग्नि की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में वृद्धि हो रही है।
- भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR)- 2023 से पता चला है कि अकेले उत्तराखंड में नवंबर 2022 से जून 2023 के दौरान 5,351 वनाग्नि की घटना दर्ज की गई।
- ओडिशा (वर्ष 2021) में सिमलीपाल की वनाग्नि 10 दिनों से अधिक समय तक चली, जिससे लगभग एक तिहाई क्षेत्र प्रभावित हुआ।
- आपदाओं के बाद स्वास्थ्य संकट: आपदाओं से सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात-स्थितियाँ और भी गंभीर हो जाती हैं, जिससे स्वच्छता व्यवस्था बाधित हो जाती है, जल आपूर्ति दूषित हो जाती है, तथा स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियाँ कमज़ोर हो जाती हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2018 की केरल बाढ़ के बाद जलजनित बीमारियाँ बढ़ गईं, जिनमें लेप्टोस्पायरोसिस और हैजा सबसे आम थे।
- मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयों की सीमित तैनाती और आपदा मोचन के लिये धीमी प्रतिक्रिया समय, आपदा स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी अवसंरचना में स्पष्ट अंतराल को उजागर करते हैं।
- कमज़ोर पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ और समन्वय विफलताएँ: यद्यपि तकनीकी प्रगति ने पूर्वानुमान में सुधार किया है, फिर भी लास्ट माइल कनेक्टिविटी में अंतराल गंभीर बना हुआ है।
- विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) रिपोर्ट- 2023 में बताया गया है कि भारत पूर्व चेतावनी प्रणाली प्रभावशीलता के मामले में 21 देशों में से 14वें स्थान पर है, तथा जोखिम ज्ञान, अवलोकन, पूर्वानुमान, चेतावनी, प्रसार और तैयारी में इसे औसत से भी कम अंक प्राप्त हुए हैं।
- आपदाओं में लैंगिक और सामाजिक असमानताएँ: आपदाएँ मौजूदा सामाजिक भेद्यताओं को बढ़ाती हैं, जिसमें महिलाएँ, बच्चे एवं सीमांत समूह असमान रूप से प्रभावित होते हैं।
- उदाहरण के लिये, अम्फान और यास जैसे चक्रवातों के बाद प्रभावित क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों को तस्करों द्वारा निशाना बनाया गया तथा समुदायों के पुनर्वास के लिये संघर्ष करने के कारण सामाजिक असमानताएँ और भी बदतर हो गईं।
- संस्थागत फ्रेमवर्क और वित्तपोषण में अंतराल: भारत का आपदा प्रबंधन फ्रेमवर्क सक्रिय होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक बना हुआ है, तथा इसमें शमन प्रयासों के लिये वित्तपोषण अपर्याप्त है।
- सत्र 2021-22 से सत्र 2025-26 तक NDRMF के लिये कुल ₹68,463 करोड़ आवंटित किये गए हैं, जिसमें से 80% राष्ट्रीय आपदा मोचन कोष के लिये तथा केवल 20% राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण कोष के लिये रखा गया है।
- लापरवाह संस्थागत उत्तरदायित्व और खंडित नीतियाँ प्रभावी आपदा जोखिम न्यूनीकरण और समुत्थानशक्ति निर्माण में बाधा डालती हैं।
आपदा प्रबंधन में भारत अन्य देशों से क्या सीख सकता है?
- जापान की भूकंप संबंधी तैयारी: जापान के सख्त भवन नियम, बुनियादी अवसंरचना का नवीनीकरण और नियमित भूकंप अभ्यास भूकंपीय घटनाओं के दौरान न्यूनतम हताहत आँकड़ा सुनिश्चित करते हैं।
- भारत हिमालय जैसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में भी इसी प्रकार के भूकंपीय सुरक्षा मानदंड अपना सकता है।
- बांग्लादेश का चक्रवात प्रबंधन: बांग्लादेश की कुशल निकासी रणनीतियों ने चक्रवात से संबंधित मौतों में भारी कमी की है। भारत तटीय क्षेत्रों में समुदाय-आधारित आपदा नियोजन में सुधार कर सकता है।
- नीदरलैंड का बाढ़ प्रबंधन: नीदरलैंड में समुद्र से आने वाले तूफानी लहरों से सुरक्षा के लिये तटबंधों, बांधों और बाढ़द्वारों का एक नेटवर्क है।
- भारत के शहरी बाढ़ प्रबंधन को मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में इन समाधानों को अपनाने से लाभ मिल सकता है।
- दक्षिण कोरिया का तकनीकी एकीकरण: दक्षिण कोरिया में एजेंसियों के बीच आपदा मोचन समन्वय के लिये एकीकृत डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग किया जाता है। भारत बेहतर अंतर-एजेंसी समन्वय के लिये केंद्रीकृत कमांड सिस्टम अपना सकता है।
- स्वीडन की जलवायु अनुकूलन: स्वीडन की सक्रिय जलवायु अनुकूलन नीतियों में शहरी नियोजन के साथ आपदा जोखिम न्यूनीकरण को एकीकृत करना शामिल है।
- भारत अपने स्मार्ट सिटी मिशन को जलवायु अनुकूल रणनीतियों के साथ संरेखित कर सकता है।
आपदा समुत्थानशीलता और न्यूनीकरण को बढ़ाने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- जलवायु-अनुकूल बुनियादी अवसंरचना का सुदृढ़ीकरण: भारत को जलवायु-अनुकूल बुनियादी अवसंरचना में निवेश करने की आवश्यकता है जो चक्रवात, बाढ़ और हीटवेव्स जैसी चरम मौसमी घटनाओं का सामना कर सके।
- तटीय क्षेत्रों में हरित भवन, बाढ़ प्रतिरोधी शहरी जल निकासी प्रणालियाँ और चक्रवात रोधी आवास विकसित करना आवश्यक है।
- उदाहरण के लिये, ओडिशा के चक्रवात आश्रय स्थलों ने अनगिनत लोगों की जान बचाई है, यह एक ऐसा मॉडल है जिसे पूरे देश में अपनाया जा सकता है।
- स्मार्ट सिटी मिशन को जलवायु-अनुकूलन हेतु योजना के साथ एकीकृत करने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि शहरी विकास आपदा न्यूनीकरण लक्ष्यों के अनुरूप हो।
- समुदाय-आधारित आपदा जोखिम न्यूनीकरण (CBDRR) का कार्यान्वयन: स्थानीय समुदायों को प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण एवं आपदा तैयारी अभ्यास के माध्यम से जोखिमों का प्रबंधन करने के लिये सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) को समुदाय-आधारित जोखिम मानचित्रण के साथ संयोजित करके तटबंधों और चेकडैम जैसी स्थायी परिसंपत्तियों का निर्माण किया जा सकता है।
- शहरी और ग्रामीण बाढ़ से निपटने के लिये एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM): जल प्रबंधन के लिये एकीकृत दृष्टिकोण से बाढ़ और सूखे की चुनौतियों का एक साथ समाधान किया जा सकता है।
- इसमें आर्द्रभूमि का पुनर्भरण करना, शहरी वर्षा जल संचयन प्रणालियों का निर्माण करना और नदियों के किनारे तटबंधों का सुदृढ़ीकरण शामिल है।
- नमामि गंगे को शहर स्तरीय बाढ़ रोकथाम योजनाओं के साथ एकीकृत करने से शहरी बाढ़ की समस्या से निपटा जा सकता है, साथ ही नदी की स्थिति को भी बेहतर बनाया जा सकता है।
- प्रौद्योगिकी के साथ प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों का आधुनिकीकरण: भारत को प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को आधुनिक बनाने के लिये AI, IoT और भू-स्थानिक मानचित्रण जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाना चाहिये।
- मोबाइल अलर्ट को स्थानीय भाषा समर्थन के साथ एकीकृत करने के लिये कॉमन अलर्टिंग प्रोटोकॉल (CAP) के दायरे का विस्तार करने से अंतिम-मील संचार को बढ़ाया जा सकता है।
- उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की निगरानी के लिये ISRO की उपग्रह क्षमताओं का AI-संचालित मॉडल के साथ मिलकर लाभ उठाना आपदा मोचन समय को कम कर सकता है।
- भूकंपीय क्षेत्रों में पुनर्निर्माण और भवन संहिताओं को लागू करना: भारत को भूकंपीय सुरक्षा संहिताओं के साथ कड़े अनुपालन को लागू करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों और हिमालय जैसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में।
- पुरानी संरचनाओं, विशेषकर स्कूलों और अस्पतालों का नवीनीकरण करने से भूकंप के दौरान होने वाली हताहतों की संख्या को कम किया जा सकता है।
- ऐसे प्रयासों को प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) के साथ जोड़कर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि किफायती आवास आपदा-रोधी मानदंडों का पालन करें।
- आपदा से होने वाले नुकसान के लिये बीमा कवरेज को बढ़ाना: किसानों, छोटे व्यवसायों और कमज़ोर आबादी के लिये अनुकूलित सूक्ष्म बीमा योजनाएँ विकसित करने से आपदाओं के बाद होने वाले वित्तीय नुकसान को कम किया जा सकता है।
- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत फसल बीमा को शीघ्र भुगतान के लिये पैरामीट्रिक बीमा मॉडल के साथ जोड़ने से समय पर राहत मिल सकती है।
- जन धन खातों के अंतर्गत वित्तीय समावेशन एजेंडे में आपदा बीमा को एकीकृत करने से व्यापक कवरेज सुनिश्चित हो सकती है, विशेष रूप से बार-बार होने वाली आपदाओं से ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्रों में।
- स्मार्ट सिटी मिशन के माध्यम से शहरी आपदा तैयारी को सुदृढ़ करना: शहरी केंद्रों को अपनी विकास योजनाओं में आपदा प्रबंधन को एकीकृत करने को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत शहरों को जोखिम-संवेदनशील ज़ोनिंग और स्वचालित मौसम निगरानी प्रणाली अपनाने के लिये अनिवार्य किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिये, सूरत की पूर्व बाढ़ चेतावनी प्रणाली ने मानसून के दौरान होने वाली क्षति को कम कर दिया।
- स्टार्टअप इंडिया योजना के तहत स्टार्टअप्स के साथ सहयोग करने से शहरी आपदा सहनीयता प्रौद्योगिकियों में नवाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
- जलवायु परिवर्तन शमन को आपदा जोखिम प्रबंधन के साथ एकीकृत करना: भारत को प्रकृति आधारित समाधान अपनाकर अपनी जलवायु परिवर्तन शमन रणनीतियों को आपदा सहनीयता प्रयासों के साथ जोड़ना होगा।
- हाल ही में किये गए एक अध्ययन में पाया गया है कि मैंग्रोव प्रत्येक वर्ष वैश्विक स्तर पर बाढ़ से होने वाले नुकसान को 65 बिलियन डॉलर तक कम करते हैं। सुंदरबन जैसे तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव पुनर्भरण कार्यक्रमों को लागू करने से कार्बन को पृथक् करते हुए चक्रवात के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
- संस्थागत क्षमता निर्माण और एकीकृत प्रतिक्रिया प्रणाली: NDMA, SDRF और स्थानीय सरकारों जैसे संस्थानों के बीच समन्वय को सुव्यवस्थित करके आपदाओं के दौरान तेज़ी से आपदा मोचन सुनिश्चित किया जा सकता है।
- रियल टाइम डेटा एनालिटिक्स से सुसज्जित एकीकृत कमांड सेंटर स्थापित करने से समन्वय में वृद्धि हो सकती है।
- राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) के कार्यों को GIS-आधारित नियोजन उपकरणों जैसे तकनीकी प्लेटफॉर्मों से जोड़ने से दक्षता में और सुधार हो सकता है।
- न्यायसंगत क्षतिपूर्ति के लिये लिंग-समावेशी आपदा नीतियाँ: महिलाओं और सीमांत समूहों के समक्ष आने वाली विशिष्ट भेद्यताओं को दूर करने के लिये आपदा नीतियों में लिंग-संवेदनशील दृष्टिकोण को शामिल किया जाना चाहिये।
- दीनदयाल अंत्योदय योजना के अंतर्गत महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों (SHG) को आपदा राहत और क्षतिपूर्ति प्रयासों में एकीकृत करने से समावेशी परिणाम सुनिश्चित हो सकते हैं।
- सीमापार आपदा प्रबंधन फ्रेमवर्क तैयार करना: भारत को साझा आपदा जोखिमों के लिये सीमापार तंत्र विकसित करने हेतु पड़ोसी देशों के साथ सहयोग करना चाहिये।
- चीन और बांग्लादेश के साथ क्षेत्रीय सहयोग से बंगाल की खाड़ी में चक्रवात की तैयारी को बढ़ाया जा सकता है।
- SAARC आपदा प्रबंधन केंद्र की पहल में सीमापार तंत्र को एकीकृत करने से क्षेत्रीय सुरक्षा संजाल का निर्माण हो सकता है।
- आपदा शिक्षा और जागरूकता को संस्थागत बनाना: स्कूल के पाठ्यक्रमों में आपदा तैयारी शिक्षा को शामिल करने से छोटी उम्र से ही सुरक्षा की संस्कृति का निर्माण हो सकता है।
- आपदा स्वयंसेवकों के लिये आपदा मित्र योजना जैसे कार्यक्रमों को ग्रामीण स्कूलों तक विस्तारित किया जा सकता है ताकि छात्रों को बुनियादी मोचन तकनीकों का प्रशिक्षण दिया जा सके।
- सोशल मीडिया के माध्यम से आपदा शिक्षा को जोड़ने से अभिगम को बढ़ाया जा सकता है।
निष्कर्ष:
आपदा प्रबंधन अधिनियम- 2005 के कार्यान्वयन के साथ-साथ आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदई फ्रेमवर्क को शामिल करने से राष्ट्रीय तैयारियों को काफी मज़बूती मिली है। हालाँकि, जलवायु-प्रेरित आपदाएँ, शहरी बाढ़ और औद्योगिक खतरे जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। आपदा प्रबंधन के लिये भारत के दृष्टिकोण को प्रतिक्रियात्मक, राहत-केंद्रित मॉडल से प्रतिस्थापित कर सक्रिय, समुत्थानशील फ्रेमवर्क में बदलने की जरूरत है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत के आपदा प्रबंधन फ्रेमवर्क का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये, प्रमुख नीतिगत सुधारों, मौजूदा चुनौतियों और बढ़ती जलवायु भेद्यताओं के संदर्भ में आपदा समुत्थानशीलन को सुदृढ़ करने के संभावित उपायों पर प्रकाश डालिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्सQ. आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020) Q. आपदा प्रभावों और लोगों के लिए उसके खतरे को परिभाषित करने के लिए भेद्यता एक अत्यावश्यक तत्त्व है। आपदाओं के प्रति भेद्यता का किस प्रकार और किन-किन तरीकों के साथ चरित्र-चित्रण किया जा सकता है? आपदाओं के संदर्भ में भेद्यता के विभिन्न प्रकारों पर चर्चा कीजिये। (2019) Q. भारत में आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डी.आर.आर.) के लिये 'सेंदई आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रारूप (2015-2030)' हस्ताक्षरित करने से पूर्व एवं उसके पश्चात् किये गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिये। यह प्रारूप 'ह्योगो कार्रवाई प्रारूप, 2005' से किस प्रकार भिन्न है? (2018) |