डेली न्यूज़ (26 Sep, 2023)



फॉस्फोरस की समस्या

प्रिलिम्स के लिये:

फॉस्फोरस, सिंथेटिक उर्वरक, एपेटाइट, कैडमियम संदूषण, परिशुद्ध कृषि, पीएम-प्रणाम

मेन्स के लिये:

फॉस्फोरस से जुड़ी समसामयिक चुनौतियाँ, फॉस्फोरस उपयोग के प्रबंधन के लिये संभावित रणनीतियाँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

वैश्विक स्तर पर फॉस्फोरस संबंधी समस्या केंद्र में बनी हुई है। फॉस्फोरस के सीमित भंडार, संदूषण से जुड़े मुद्दे और उर्वरक बाज़ार में व्यवधान आदि को देखते हुए एक धारणीय समाधान की खोज वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता है।

फॉस्फोरस से संबंधित प्रमुख तथ्य: 

  • परिचय: 
    • फॉस्फोरस एक रासायनिक तत्त्व है जिसका प्रतीक चिह्न "P" तथा परमाणु संख्या 15 है। यह पृथ्वी पर जीवन के लिये एक आवश्यक घटक है और इसमें विभिन्न विशेषताएँ है एवं इसका विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है।
  • रासायनिक गुण:
    • फॉस्फोरस सरलता से अन्य तत्त्वों, विशेषकर ऑक्सीजन के साथ मिलकर यौगिकों का निर्माण करता है जिससे फिर विभिन्न फॉस्फेट बनते हैं।
    • यह अत्यंत अभिक्रियाशील होता है और हवा में स्वतः ही दहन हो सकता है जिससे सफेद धुआँ निकलता है।
    • फॉस्फोरस यौगिक का जीव विज्ञान में काफी महत्त्व है क्योंकि यह डी.एन.ए., आर.एन.ए. और ए.टी.पी. (एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट) का एक मूलभूत घटक है
  • प्राकृतिक उपलब्धता:
    • फॉस्फोरस आमतौर पर पृथ्वी की भू-पर्पटी में विभिन्न फॉस्फेट खनिजों (एपेटाइट) के रूप में पाया जाता है।
  • औद्योगिक उपयोग:
    • फॉस्फोरस यौगिकों का उपयोग उर्वरकों के उत्पादन में किया जाता है, क्योंकि वे पादपों की वृद्धि के लिये आवश्यक होते हैं।
    • इसका उपयोग डिटर्जेंट में भी किया जाता है, जिसमें फॉस्फेट यौगिक दाग-धब्बों को हटाने में मदद करते हैं।
    • फॉस्फोरस का उपयोग इस्पात तथा अन्य धातुकर्म प्रक्रियाओं के उत्पादन में किया जाता है।
  • भारत में फॉस्फोरस का वितरण: 
    • भारत में एपेटाइट (फॉस्फेट खनिजों का समूह) और रॉक फॉस्फेट की उपलब्धता की कमी है।
    • इंडियन मिनरल्स ईयरबुक 2018 के अनुसार, एपेटाइट के मामले में भारत पूर्णतः आयात पर निर्भर है, जबकि रॉक फॉस्फेट का उत्पादन केवल दो राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश में होता है।
      • भारत विश्वभर में फॉस्फोरस का सबसे बड़ा आयातक है, यह मुख्यतः अफ्रीका से, कैडमियम के द्वारा दूषित रूप में, आयात किया जाता है।
      • भारत की एक प्रमुख फसल धान है, जिसके उत्पादन में कैडमियम की सांद्रता वाले उर्वरक की अहम भूमिका होती है। भारतीय किसान धान के खेतों में बड़े पैमाने पर उर्वरकों का उपयोग करते हैं।

उर्वरकों के उपयोग का विकास और फॉस्फोरस से जुड़ी समकालीन चुनौतियाँ:

  • ऐतिहासिक विकास: 
    • भूमि को उपजाऊ बनाने का मुद्दा काफी समय से ही कृषि क्षेत्र के लिये एक बड़ी समस्या रहा है। प्रारंभिक कृषि समाजों ने स्वीकार किया कि बार-बार खेती और फसल चक्रों से मृदा में आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है, जिससे अंततः फसल की पैदावार भी निम्न हो जाती है।
      • स्वदेशी समुदायों ने खेतों की उर्वरता को बनाए रखने के लिये विभिन्न विधियाँ तैयार कीं, जिनमें मछली के अवशेष और पक्षियों का मल/विष्ठा (गुआनो) का उपयोग शामिल है।
    • हालाँकि, 19वीं शताब्दी के दौरान रसायन विज्ञान में हुई महत्त्वपूर्ण प्रगति के कारण सिंथेटिक उर्वरकों का निर्माण हुआ और मृदा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटेशियम जैसे प्रमुख तत्त्वों की पहचान की गई।
      • इन तत्वों ने आधुनिक रासायनिक उर्वरकों की नींव रखी और 20वीं सदी के मध्य की हरित क्रांति के दौरान कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
      • वर्तमान परिदृश्य में, उर्वरकों के एक महत्त्वपूर्ण घटक फॉस्फोरस को लेकर एक बहुआयामी चुनौती मौजूद है।
  • फॉस्फोरस से जुड़ी चुनौतियाँ:
    • सीमित भंडार और कैडमियम संदूषण:
      • फॉस्फोरस दुर्लभ पदार्थ है और मुख्य रूप से विशिष्ट भू-वैज्ञानिक संरचनाओं में पाया जाता है। यह एक प्रमुख भू-राजनीतिक चिंता का विषय है।
      • मोरक्को और पश्चिमी सहारा क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा फॉस्फोरस भंडार है, लेकिन इन भंडारों में कैडमियम अशुद्धि के रूप में उपस्थित होता है, यह एक हानिकारक भारी धातु है जो उपभोग करने पर जानवरों और मनुष्यों के गुर्दे में जमा हो सकती है।
      • फॉस्फोरस संसाधनों से कैडमियम का निष्कर्षण और निष्कासन महँगी प्रक्रियाएँ हैं।
        • कैडमियम युक्त उर्वरक फसलों को दूषित कर सकते हैं, जिससे हृदय रोग जैसे संभावित स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं।

नोट: फॉस्फोरस स्रोतों से कैडमियम को अलग करने में विफलता से सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की संभावना उत्पन्न हो सकती है। इसके विपरीत, कैडमियम को हटाने से उर्वरक खर्च बढ़ सकता है, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा और कृषि सामर्थ्य बनाए रखने के बीच एक जटिल समझौता हो सकता है।

  • यूरोपीय संघ ने उर्वरकों में कैडमियम के स्तर को विनियमित करने के लिये कानून प्रस्तुत किया है।
  • बाज़ार व्यवधान और संबंधित चिंताएँ:
    • विश्व में केवल छह देशों के पास कैडमियम मुक्त फॉस्फोरस के महत्त्वपूर्ण भंडार हैं।
      • उनमें से चीन ने वर्ष 2020 में निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया और कई यूरोपीय संघ के देशों ने रूस से खरीदारी बंद कर दी।
        • परिणामस्वरूप, शुद्ध फॉस्फोरस की मांग में वृद्धि हुई है।
      • वर्ष 2021 में कैडमियम की उपस्थिति के कारण ही श्रीलंका ने सिंथेटिक उर्वरक आयात पर प्रतिबंध लगाने और जैविक कृषि में बदलाव करने का निर्णय लिया
        • हालाँकि इस परिवर्तन के कारण फसल की उपज में अचानक गिरावट आई, जिससे देश में राजनीतिक और आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।
  • फॉस्फोरस का अति प्रयोग: अत्यधिक उर्वरक प्रयोग से फॉस्फोरस जल निकायों में चला जाता है। अत्यधिक फॉस्फोरस शैवाल के पनपने को बढ़ावा देता है, जल निकायों में ऑक्सीजन की कमी करता है और मछलियों की मृत्यु का कारण बनता है।
    • शैवाल मनुष्यों के लिये विषैला भी हो सकता है, जिससे श्वसन संबंधी बीमारियाँ और अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं।
  • ऊर्जा गहन खनन: फॉस्फेट रॉक के उत्खनन तथा प्रसंस्करण उद्योग में अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और पर्यावरणीय गिरावट में योगदान देता है।

फॉस्फोरस उपयोग के प्रबंधन हेतु संभावित रणनीतियाँ: 

  • स्मार्ट कृषि और परिशुद्धता उर्वरक: सटीक कृषि तकनीकों को लागू करना आवश्यक है जो खेतों पर फॉस्फोरस के उपयोग को अनुकूलित करने के लिये सेंसर नेटवर्क, AI और डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करती हैं। यह सुनिश्चित करता है कि फसलों को फॉस्फोरस की आवश्यक मात्रा प्राप्त हो रही है, जिससे जल निकायों में अतिरिक्त अपवाह कम हो जाता है।
    • केंद्रीय बजट 2023-24 ने पुनर्योजी कृषि (RA) के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने, रासायनिक और वैकल्पिक उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने के लिए पी.एम.-प्रणाम योजना शुरू की
  • सीवेज और अपशिष्ट से फॉस्फोरस पुनर्प्राप्ति: सीवेज एवं विभिन्न अपशिष्ट धाराओं से फॉस्फोरस  पुनर्प्राप्ति के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों को विकसित करने की आवश्यकता है।
    • इसमें उर्वरकों या अन्य अनुप्रयोगों में उपयोग हेतु फॉस्फोरस का निष्कर्षण और पुनर्चक्रण करने के लिये उन्नत निस्यंदन, अवक्षेपण तथा आयन-विनिमय प्रक्रियाओं का उपयोग सम्मिलित हो सकता है।
    • उदाहरण: ईज़ीमाइनिंग जैसी कंपनियाँ उच्च गुणवत्ता वाले फॉस्फोरस उत्पादों को पुनर्प्राप्त करने के लिये सीवेज उपचार संयंत्रों को पुनर्स्थापित कर रही हैं।
  • चक्रीय फॉस्फोरस अर्थव्यवस्था: फॉस्फोरस के लिये एक चक्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है, जहाँ फॉस्फोरस युक्त उत्पादों को सरल पुनर्प्राप्ति और रीसाइक्लिंग के लिये डिज़ाइन किया गया है, जिससे खनन की आवश्यकता तथा पर्यावरणीय प्रभाव न्यूनतम हों।
  • वैश्विक फॉस्फोरस प्रबंधन ढाँचा: वैश्विक जलवायु समझौतों के समान फॉस्फोरस प्रबंधन के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय ढाँचा विकसित करने की आवश्यकता है। यह वैश्विक स्तर पर फॉस्फोरस संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिये सहयोग और समन्वित प्रयासों को बढ़ावा देगा।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारत में रासायनिक उर्वरकों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों का खुदरा मूल्य बाज़ार-संचालित है और यह सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है।
  2. अमोनिया, जो यूरिया बनाने में काम आता है, वह प्राकृतिक गैस से उत्पन्न होता है।
  3. सल्फर, जो फॉस्फोरिक अम्ल उर्वरक के लिये कच्चा माल है, वह तेल शोधन कारखानों का उपोत्पाद है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: B

व्याख्या:

  • भारत सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी देती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि किसानों को उर्वरक आसानी से उपलब्ध हों तथा देश कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बना रहे। यह काफी हद तक उर्वरक की कीमत और उत्पादन की मात्रा को नियंत्रित करके प्राप्त किया जाता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • प्राकृतिक गैस से अमोनिया (NH3) का संश्लेषण किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्राकृतिक गैस के अणु कार्बन और हाइड्रोजन में परिवर्तित हो जाते हैं। फिर हाइड्रोजन को शुद्ध किया जाता है तथा अमोनिया के उत्पादन के लिये नाइट्रोजन के साथ प्रतिक्रिया कराई जाती है। इस सिंथेटिक अमोनिया को यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट तथा मोनो अमोनियम या डायमोनियम फॉस्फेट के रूप में संश्लेषण के बाद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उर्वरक के तौर पर प्रयोग किया जाता है। अत: कथन 2 सही है।
  • सल्फर तेलशोधन और गैस प्रसंस्करण का एक प्रमुख उप-उत्पाद है। अधिकांश कच्चे तेल ग्रेड में कुछ सल्फर होता है, जिनमें से अधिकांश को परिष्कृत उत्पादों में सल्फर सामग्री की सख्त सीमा को पूरा करने के लिये शोधन प्रक्रिया के दौरान हटाया जाना चाहिये। यह कार्य हाइड्रोट्रीटिंग के माध्यम से किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप H2S गैस का उत्पादन होता है जो मौलिक सल्फर में परिवर्तित हो जाता है। सल्फर का खनन भूमिगत, प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले निक्षेपों से भी किया जा सकता है लेकिन यह तेल और गैस से प्राप्त करने की तुलना में अधिक महँगा है तथा इसे काफी हद तक कम कर दिया गया है। सल्फ्यूरिक एसिड का उपयोग मोनोअमोनियम फॉस्फेट (Monoammonium Phosphate- MAP) एवं डाइ-अमोनियम फॉस्फेट (Di-Ammonium Phosphate- DAP) दोनों के उत्पादन में किया जाता है। अत: कथन 3 सही है।

अतः विकल्प (b) सही है।


जलवायु महत्त्वाकांक्षा शिखर सम्मेलन 2023

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु महत्त्वाकांक्षा शिखर सम्मेलन, पेरिस समझौता, भारत की जलवायु प्रतिबद्धताएँ

मेन्स के लिये:

भारत द्वारा की गई जलवायु प्रतिबद्धताएँ, वैश्विक जलवायु कार्रवाई और सहयोग को आगे बढ़ाने में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु शिखर सम्मेलन का महत्त्व।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

20 सितंबर 2023 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, न्यूयॉर्क में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु महत्त्वाकांक्षा शिखर सम्मेलन (CAS) का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC) के 28वें पार्टियों के सम्मेलन (COP28) की प्रस्तावना के रूप में जलवायु कार्रवाई में तेज़ी लाना है। )

  • हालाँकि चीन, अमेरिका और भारत, सामूहिक रूप से वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 42% हिस्सा उत्सर्जित करते हैं तथा ये देश उस क्रम में शीर्ष तीन उत्सर्जक हैं, सभी CAS में अनुपस्थित थे।

जलवायु महत्त्वाकांक्षा शिखर सम्मेलन (CAS):

  • परिचय:
    • CAS एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के गंभीर मुद्दे को संबोधित करना है।
    • CAS को सरकार, व्यवसाय, वित्त, स्थानीय अधिकारियों एवं नागरिक समाज के "प्रथम प्रस्तावक और क्रियाशील" नेतृत्वकर्ताओं को प्रदर्शित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है, जो न कि केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था के डी-कार्बोनाइज़ेशन में तेज़ी लाने एवं जलवायु न्याय प्रदान करने का वादा करते हैं बल्कि विश्वसनीय कार्यों, नीतियों और योजनाओं के साथ भी आए हैं।
    • CAS का केंद्रीय उद्देश्य पेरिस समझौते की 1.5°C तापमान वृद्धि सीमा को बनाए रखना है, जो पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5°C ऊपर ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करके गंभीर जलवायु परिणामों को रोकने का प्रयास करता है।
  • शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले देश:
    • कुल 34 राज्यों और 7 संस्थानों में वार्ता के स्लॉट थे, जिनमें भारत के पड़ोसी देशों श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका एवं ब्राज़ील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएँ भी शामिल थीं।
    • यूरोपीय संघ, जर्मनी, फ्राँस और कनाडा जैसे प्रमुख राष्ट्रों ने भी सम्मलेन में भाग लेकर दर्शकों को संबोधित किया।
  • भागीदारी के लिये मानदंड:
    • पहले देशों को वर्ष 2030 तक अद्यतन राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), शुद्ध-शून्य लक्ष्य और ऊर्जा संक्रमण योजनाएँ प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी।
    • देशों से नई कोयला, तेल और गैस परियोजनाओं, जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से कम करने की योजनाओं एवं महत्त्वाकांक्षी नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता अपेक्षित नहीं थी।
    • सम्मलेन में देशों से हरित जलवायु कोष की प्रतिज्ञा करने और अनुकूलन तथा लचीलेपन के लिये अर्थव्यवस्था-व्यापी योजनाएँ प्रदान करने का आग्रह किया गया।
  • शिखर सम्मेलन के मुख्य बिंदु:
    • अद्यतन जलवायु लक्ष्य:
      • ब्राज़ील ने अधिक महत्त्वाकांक्षी उपायों और जीवाश्म ईंधन से इतर अन्य ऊर्जा स्रोतों की ओर रुख करने की आवश्यकता पर बल देते हुए अपने ‘2015 जलवायु लक्ष्यों’ को बहाल करने का वादा किया।
      • नेपाल ने वर्ष 2050 के बदले वर्ष 2045 तक, जबकि थाईलैंड ने वर्ष 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा और पुर्तगाल ने वर्ष 2045 के लिये कार्बन-तटस्थ लक्ष्य निर्धारित किया।
      • सभी G20 राष्ट्रों को वर्ष 2025 तक पूर्ण उत्सर्जन में कटौती की विशेषता वाले अधिक महत्त्वाकांक्षी  NDC पेश करने हेतु प्रतिबद्ध होने के लिये कहा गया था।
      • शिखर सम्मेलन में जलवायु न्याय प्रदान करने की आवश्यकता पर बल दिया गया, विशेष रूप से उन समुदायों को जो जलवायु संकट की अग्रिम पंक्ति में हैं और गंभीर रूप से प्रभावित हैं।
    • अन्य घोषणाएँ:
      • कनाडा, जो वर्ष 2022 में जीवाश्म ईंधन के सबसे बड़े विस्तारकों में से एक था, ने तेल और गैस क्षेत्र के लिये उत्सर्जन कैप ढाँचे के विकास की घोषणा की।
      • यूरोपीय संघ और कनाडा कम से कम 60% उत्सर्जन को कवर करने के लिये वैश्विक कार्बन मूल्य निर्धारण का आह्वान करते हैं।
      • वर्तमान कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र केवल 23% उत्सर्जन को कवर करता है, जिससे 95 बिलियन अमेरिकी डॉलर का उत्पादन होता है।
      • एक अन्य विकास लक्ष्य में जर्मनी ने अंतर्राष्ट्रीय जलवायु क्लब के शुभारंभ की घोषणा की, जिसकी वह चिली के साथ सह-अध्यक्षता करेगा, जिसका लक्ष्य औद्योगिक क्षेत्रों को डीकार्बोनाइज़ करना और हरित विकास में वृद्धि करना है।
      • CAS ने संपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में अनुकूलन और लचीलेपन को संबोधित करने वाली व्यापक योजनाओं के महत्त्व पर प्रकाश डाला।

पेरिस जलवायु समझौता:

  • वैधानिक स्थिति: यह जलवायु परिवर्तन पर वैधानिक रूप से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय संधि है।
  • अंगीकरण: इसे दिसंबर 2015 में पेरिस में राष्ट्रों के सम्मेलन COP 21 में 196 देशों द्वारा अपनाया गया था।
  • लक्ष्य: ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में इसे अधिमानतः 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना। 
  • उद्देश्य: तापमान को सीमित करने के दीर्घकालिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पक्षकार देशों का लक्ष्य सदी के मध्य तक जलवायु-तटस्थता प्राप्त करने के लिये जितनी जल्दी हो सके वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के चरम (Peaking emissions globally) पर पहुँचना है।
  • वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के चरम (Peaking emissions globally) पर पहुँचना: इसका तात्पर्य चीन और अन्य देशों की उत्सर्जन वृद्धि पर अंकुश लगाना है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन तथा जर्मनी में वैश्विक उत्सर्जन औसत की तुलना में कहीं अधिक तेज़ी से गिरावट हो रही है।
  • भारत पेरिस समझौते का हस्ताक्षरकर्त्ता देश है। भारत ने अगस्त 2022 में UNFCCC को एक अद्यतन NDC प्रस्तुत करते हुए इस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की। NDC ने वर्ष 2021-2030 तक भारत के जलवायु लक्ष्यों की रूपरेखा तैयार की है।

भारत की जलवायु प्रतिबद्धताएँ:

  • वर्ष 2022 में भारत ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 45% तक कम करने के लिये अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं में बदलाव किया। यह भारत की पिछली वर्ष 2016 की प्रतिज्ञा से 10% अधिक है। अद्यतन प्रतिज्ञा भारत के NDC का हिस्सा है।
  • भारत ने वर्ष 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% गैर-जीवाश्म ईंधन के माध्यम से उत्पादित करने का लक्ष्य रखा है।
  • भारत ने वर्ष 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन CO2 समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने का लक्ष्य रखा है।
  • भारत ने वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन हासिल करने का संकल्प किया है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. ‘भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन संधि(ग्लोबल क्लाइमेट चेंज अलायंस)' के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2017)

  1. यह यूरोपीय संघ की पहल है।
  2. यह लक्ष्याधीन विकासशील देशों को उनकी विकास नीतियों और बजटों में जलवायु परिवर्तन के एकीकरण हेतु तकनीकी एवं वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
  3. इसका समन्वय विश्व संसाधन संस्थान (WRI) और धारणीय विकास हेतु विश्व व्यापार परिषद (WBCSD) द्वारा किया जाता है।

नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के सी.ओ.पी. के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं?(2021)

प्रश्न. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। भारत जलवायु परिवर्तन से किस प्रकार प्रभावित होगा? जलवायु परिवर्तन के द्वारा भारत के हिमालयी और समुद्रतटीय राज्य किस प्रकार प्रभावित होंगे? (2017)


भारत के सकल घरेलू उत्पाद डेटा से संबंधित चिंताएँ

प्रिलिम्स के लिये:

GDP (सकल घरेलू उत्पाद), सकल स्थिर पूंजी निर्माण, क्रय प्रबंधक सूचकांक, बैंक ऋण वृद्धि, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP)।

मेन्स के लिये:

भारत के GDP डेटा से संबंधित चिंताएँ, भारत में GDP के लिये गणना के तरीके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में वित्त मंत्रालय ने भारतीय GDP (सकल घरेलू उत्पाद) डेटा की विश्वसनीयता के संबंध में चिंताओं को संबोधित किया है, विशेष रूप से वित्त वर्ष 2023-24 की पहली तिमाही में 7.8% की वृद्धि के आलोक में।

  • कई विशेषज्ञों ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़ों में विसंगति की ओर इशारा किया है, जो बिलबोर्ड पर आर्थिक विकास की सकारात्मक छवि को प्रस्तुत करते हैं, जबकि बढ़ती असमानताएँ, रोज़गार की कमी और विनिर्माण रोज़गार में गिरावट जैसे अंतर्निहित मुद्दे लगातार बने रहते हैं।

GDP आँकड़ों के संबंध में चिंताएँ: 

  • GDP गणना में विसंगतियाँ:
    • सकल घरेलू उत्पाद व्यय घटकों के विश्लेषण से एक चिंताजनक प्रवृत्ति का पता चलता है जहाँ  सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में अधिकांश तत्त्वों में कमी आई है।
      • इसमें निजी खपत, सरकारी खर्च, कीमती वस्तु और निर्यात शामिल हैं।
    • आयात में थोड़ी वृद्धि हुई है, जबकि सकल स्थिर पूंजी निर्माण (परिसंपत्तियों में निवेश) और स्टॉक में परिवर्तन (इन्वेंट्री परिवर्तन) स्थिर बने हुए हैं।
    • इसलिये, GDP  गणना में एक अस्पष्ट अंतर दिखाई देता है, जो रिपोर्ट किये गए आर्थिक आँकड़ों की सटीकता पर सवाल उठाता है।
  • दोहरी GDP गणना के तरीके:
    • भारत की GDP की गणना दो अलग-अलग तरीकों का उपयोग करके की जाती है: आर्थिक गतिविधि (कारक लागत पर) और व्यय (बाज़ार कीमतों पर)।
      • कारक लागत पद्धति आठ विभिन्न उद्योगों के प्रदर्शन का आकलन करती है। इस लागत में निम्नलिखित आठ उद्योग क्षेत्रों पर विचार किया जाता है:
        • कृषि, वानिकी, और मत्स्य पालन,
        • खनन एवं उत्खनन,
        • उत्पादन,
        • बिजली, गैस, जल आपूर्ति, और अन्य उपयोगिता सेवाएँ,
        • निर्माण,
        • व्यापार, होटल, परिवहन, संचार और प्रसारण,
        • वित्तीय, रियल एस्टेट और पेशेवर सेवाएँ,
        • लोक प्रशासन, रक्षा, और अन्य सेवाएँ
      • व्यय-आधारित पद्धति इंगित करती है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं, जैसे व्यापार, निवेश और व्यक्तिगत खपत।
    • इन तरीकों के बीच अंतर से GDP आँकड़ों में भिन्नता हो सकती है।

  • सार्वजनिक धारणा पर प्रभाव:
    • विशेषज्ञ चिंता व्यक्त करते हैं कि GDP आँकड़ों के माध्यम से आर्थिक विकास की अत्यधिक सकारात्मक छवि प्रस्तुत करने से आबादी के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के सामने आने वाले आर्थिक संघर्ष और चुनौतियाँ छिप सकती हैं।
    • संभवतः इससे जनता की धारणा और नीतिगत निर्णय प्रभावित हो सकते हैं।
  • पुराने डेटा सेट और विलंबित जनगणना:
    • पुराने डेटा सेट का उपयोग GDP की गणना में प्रमुख चिंताओं में से एक है, जो वर्तमान आर्थिक परिदृश्य को सटीक रूप से प्रतिबिंबित नहीं कर सकता है।
    • इसके अतिरिक्त, जनगणना के संचालन में देरी आर्थिक आकलन में संभावित अशुद्धियों में योगदान करती है।
    • उपयोग की जाने वाली तकनीकों द्वारा जटिल और गतिशील आर्थिक परिदृश्य को सटीकता से प्रतिबिंबित किये जाने को लेकर चिंताएँ व्याप्त हैं, इससे विकृत GDP अनुमान प्राप्त होते हैं।
  • सरकारी हस्तक्षेप का आरोप:
    • GDP आँकड़ों की गणना और जारी किये जाने की प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप संबंधी आरोप देखने को मिले हैं।
    • विशेषज्ञों को चिंता है कि राजनीतिक प्रभाव का आर्थिक डेटा के प्रस्तुतिकरण पर प्रभाव पड़ सकता है, ऐसे में यह इसकी सटीकता तथा विश्वसनीयता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

विशेषज्ञों द्वारा उठाए गए मुद्दों का सरकार द्वारा समाधान:

  • भारतीय जी.डी.पी. डेटा की विश्वसनीयता:
    • वित्त मंत्रालय ने भारतीय जी.डी.पी. डेटा के विश्वसनीयता संबंधी संदेह से इनकार करते हुए स्पष्ट किया कि इसे वार्षिक रूप से समायोजित नहीं किया जाता है, बल्कि इन डेटा को तीन वर्ष बाद अंतिम रूप दिया जाता है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि अंतर्निहित आर्थिक गतिविधि का आकलन करने के लिये केवल जी.डी.पी. संकेतकों पर निर्भर रहना भ्रामक है।
  • व्यापक विश्लेषण की आवश्यकता:
    • मंत्रालय ने आलोचकों से आर्थिक गतिविधि के संदर्भ में एक समग्र दृष्टिकोण बनाने के लिये क्रय प्रबंधक सूचकांक, बैंक क्रेडिट वृद्धि और उपभोग पैटर्न जैसे विभिन्न विकास संकेतकों पर विचार करने का आग्रह किया।
  • विकास संबंधी आँकड़ों का निम्न आकलन:
    • औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (Index of Industrial Production- IIP) एक उदाहरण है, जहाँ विनिर्माण क्षेत्र में रिपोर्ट की गई वृद्धि कंपनियों द्वारा दर्शाए गये डेटा से अलग हो सकती है। इसका हवाला देते हुए मंत्रालय ने तर्क दिया कि भारत के विकास संबंधी आँकड़े संभावित रूप से आर्थिक वास्तविकताओं को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • सांकेतिक बनाम वास्तविक जी.डी.पी. वृद्धि:
    • वास्तविक जी.डी.पी. वृद्धि की तुलना में सांकेतिक जी.डी.पी. वृद्धि कम होने को लेकर चिंताओं पर विचार करते हुए मंत्रालय ने बताया कि थोक मूल्य सूचकांक (WPI) द्वारा चालित भारत के जी.डी.पी. डिफ्लेटर पर विभिन्न कारकों पर पड़ने वाला प्रभाव आगामी महीनों में सामान्य हो जाएगा।
  • जी.डी.पी. गणना के लिये आय आधारित दृष्टिकोण का उपयोग:
    • मंत्रालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि जी.डी.पी. वृद्धि की गणना के लिये भारत आय आधारित दृष्टिकोण का उपयोग करता है और अनुकूलता को देखते हुए इस दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं करता है। यह सांकेतिक जी.डी.पी. वृद्धि का समर्थन करने वाले तर्कों को खारिज़ करता है।

सकल घरेलू उत्पाद (GDP):

  • परिचय:
    • यह एक विशिष्ट अवधि, आमतौर पर एक वित्तीय वर्ष के लिये देश की सीमा के भीतर उत्पन्न सभी वस्तुओं और सेवाओं का सकल मूल्यांकन है।
      • किसी देश के विकास और आर्थिक प्रगति की पहचान उसकी जी.डी.पी. से की जा सकती है
    • एक तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की प्रतिशत वृद्धि को अर्थव्यवस्था की मानक वृद्धि माना जाता है।
      • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 में सांकेतिक जी.डी.पी. के आधार पर भारत विश्व के शीर्ष 10 देशों में शामिल है। 
  • GDP के प्रकार:
    • वास्तविक GDP:
      • इसे आधार वर्ष के आधार पर मापा जाता है। इसे मुद्रास्फीति के साथ समायोजित किया जाता है और इसलिए इसे इन्फ्लेशन कोर्रेक्टेड सकल घरेलू उत्पाद अथवा वर्तमान मूल्य के रूप में भी जाना जाता है।
        • उदाहरण के लिये; भारत की वास्तविक जी.डी.पी. की गणना के लिये आधार वर्ष 2011- 12 है। पहले यह वर्ष 2004-05 हुआ करता था।
      • ऐसा माना जाता है कि यह जी.डी.पी. का अधिक सटीक चित्रण है क्योंकि यह आधार वर्ष के लिये निर्धारित मूल्य के समायोजन के बाद प्रत्येक निवासी की वास्तविक आय को प्रदर्शित करता है।
    • मौद्रिक GDP:
      • मौद्रिक GDP का आकलन प्रचलित बाज़ार कीमतों का उपयोग करके किया जाता है और इसमें मुद्रास्फीति या अपस्फीति पर विचार नहीं किया जाता है।
      • सरकार के दृष्टिकोण से मौद्रिक GDP आर्थिक विकास का अधिक सटीक प्रतिबिंब है क्योंकि यह नागरिकों को सीधे प्रभावित करता है।
  • GDP की गणना:  
    • व्यय विधि: यह दृष्टिकोण किसी अर्थव्यवस्था में सभी व्यक्तियों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के लिये किये गए कुल व्यय पर केंद्रित है।
      • GDP (व्यय पद्धति के अनुसार) =  C + I + G + (X-IM) 
      • जहाँ, C: उपभोग व्यय, I: निवेश व्यय, G: सरकारी व्यय और (X-IM): निर्यात और आयात का अंतर, अर्थात् शुद्ध निर्यात है।
    • निर्गत विधि: इस दृष्टिकोण का उपयोग किसी देश में उत्पादित सभी सेवाओं और उत्पादों के बाज़ार मूल्य को निर्धारित करने के लिये किया जाता है।
      • यह विधि मूल्य स्तर में उतार-चढ़ाव के कारण GDP माप में किसी भी अंतर को समाप्त करने में सहायता करती है।
    • आय पद्धति: यह दृष्टिकोण किसी देश की सीमाओं के भीतर उत्पादन के विभिन्न कारकों, जैसे पूंजी और श्रम, द्वारा अर्जित सकल आय पर विचार करता है।
      • यह कंपनियों द्वारा अपने कार्यबल पर किये गए व्यय का योग है।
      • इस दृष्टिकोण के आधार पर गणना की गई GDP को GDI या सकल घरेलू आय के रूप में जाना जाता है।
      •  GDP (आय विधि के माध्यम से) = मज़दूरी + किराया + ब्याज + लाभ

GDP की सीमाएँ: 

  • GDP में गैर-बाज़ार लेनदेन शामिल नहीं हैं जो उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, जैसे घरेलू, स्वैच्छिक या अन्य भागीदारी। साथ ही यह निजी उपभोग के लिये उत्पादित वस्तुओं पर भी आधारित नहीं है।
  • भारत उन देशों में से एक है जहाँ असमान आय वितरण इसकी अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख विसंगति है। GDP इसे प्रतिबिंबित नहीं करता है।
  • किसी देश के जीवन स्तर का निर्धारण उसकी GDP से नहीं किया जा सकता। भारत इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। इसकी GDP तो उच्च है लेकिन जीवन स्तर अपेक्षाकृत निम्न है।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि GDP यह नहीं दर्शाता है कि उद्योग पर्यावरण और सामाजिक कल्याण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं।

निष्कर्ष:

  • वित्त मंत्रालय ने आर्थिक गतिविधियों का व्यापक दृष्टिकोण बनाने के लिये विभिन्न आर्थिक संकेतकों और उच्च आवृत्ति डेटा पर विचार करने के महत्त्व पर विशेष बल दिया।
  • इसने आलोचकों से डेटा का चयनात्मक उपयोग करने से बचने और भारतीय अर्थव्यवस्था की गहन समझ बनाए रखने का आग्रह किया।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2015)

  1. पिछले दशक में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि-दर लगातार बढ़ती रही है।
  2. पिछले दशक में बाज़ार कीमतों पर (रुपयों में) सकल घरेलू उत्पाद लगातार बढ़ता रहा है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


भारत का समुद्री इतिहास

प्रिलिम्स के लिये:

टँकाई पद्धति, प्रोजेक्ट मौसम, लोथल, जातक कथाएँ, जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट, मैरीटाइम विज़न 2030

मेन्स के लिये:

भारत के समुद्री व्यापार का इतिहास, भारत में समुद्री परिवहन की वर्तमान स्थिति

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

जहाज़ निर्माण की प्राचीन सिलाई वाली विधि (टंकाई विधि) के उपयोग से निर्मित 21 मीटर लंबा जहाज़ नवंबर 2025 में ओडिशा से इंडोनेशिया के बाली तक की यात्रा के लिये रवाना होगा।

  • भारतीय नौसेना के एक दल द्वारा संचालित, यह परियोजना न केवल भारत की समुद्री परंपरा को प्रदर्शित करती है बल्कि भारत के समुद्री इतिहास पर भी प्रकाश डालती है।
  • यह पहल संस्कृति मंत्रालय के प्रोजेक्ट मौसम के साथ संरेखित है, जिसका उद्देश्य समुद्री सांस्कृतिक संबंधों को पुनःस्थापित करना और हिंद महासागर की सीमा से लगे 39 देशों के बीच सांस्कृतिक साझेदारी को बढ़ावा देना है।

भारत के समुद्री व्यापार का इतिहास:

  • समुद्री व्यापार के प्रारंभिक साक्ष्य:
    • सिंधु घाटी और मेसोपोटामिया: लगभग 3300-1300 ईसा पूर्व में प्रारंभिक काल के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के व्यक्तियों द्वारा समुद्री व्यापार करने का साक्ष्य पाया गया है।
      • लोथल (वर्तमान गुजरात में) में पाया गया डॉकयार्ड ज्वार और हवाओं की कार्यप्रणाली के विषय में इस सभ्यता की गहन समझ को दर्शाता है।
    • वैदिक और बौद्ध धर्म संबंधी संदर्भ: 1500-500 ईसा पूर्व के बीच रचित वेदों में समुद्री यात्रा की अनेकों कहानियाँ वर्णित हैं।
      • इसके अतिरिक्त, जातक कथाएँ और तमिल संगम साहित्य, 300 ईसा पूर्व से लेकर 400 ईस्वी तक विस्तृत प्राचीन भारतीय समुद्री गतिविधियों के विषय में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
  • समुद्री गतिविधि की गहनता: पहली शताब्दी ईसा पूर्व तक समुद्र के माध्यम से आवागमन तीव्र हो गया, जो आंशिक रूप से विश्व के पूर्वी भाग की वस्तुओं के लिये रोमन साम्राज्य की मांग से प्रेरित था।
    • लंबी यात्राओं को पूरा करने के लिये मानसूनी पवनों की शक्ति का प्रयोग महत्त्वपूर्ण हो गया और रोमन वाणिज्य ने ऐसी समुद्री यात्राओं को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • रोमनों ने कोरोमंडल तट से घोड़े, मोती और मसाले जैसे उत्पाद प्राप्त किये।
  • विविध नाव-निर्माण परंपराएँ: प्राचीन भारतीय नाव-निर्माण परंपराएँ विविध थीं और इसमें अरब सागर की कॉयर-सिलाई परंपरा, दक्षिण पूर्व एशिया की जोंग परंपरा एवं आउटरिगर नावों की ऑस्ट्रोनेशियन परंपरा शामिल थी।.
    • इन परंपराओं में प्रायः निर्माण के लिये नावों में कीलें लगाने के बजाय उनकी सिलाई की जाती थी।
    • जहाज़ निर्माण के लिये विभिन्न प्रकार की लकड़ी का प्रयोग किया जाता था, जिसमें मैंग्रोव की लकड़ी डॉवेल के लिये और सागौन की लकड़ी तख्तों, कीलों एवं स्टर्न पोस्ट के लिये आदर्श होती थी।
      • इन लकड़ी के प्रयोग के साक्ष्य हिंद महासागर के तटीय समुदायों और पुरातात्त्विक स्थलों पर पाए जा सकते हैं।
  • व्यापार के केंद्र के रूप में भारत: सामान्य युग तक हिंद महासागर एक जीवंत "ट्रेड लेक (व्यापार झील)" बन गया था, जिसके केंद्र में भारत था:
    • पश्चिमी व्यापार मार्ग: भारत मध्य पूर्व और अफ्रीका के माध्यम से यूरोप से जुड़ा हुआ है, जिसमें भरूच और मुज़िरिस जैसे बंदरगाह महत्त्वपूर्ण व्यापार केंद्र के रूप में कार्यरत हैं।
    • पूर्वी व्यापार मार्ग: चीन के हेपू में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय कलाकृतियों के साक्ष्य, भारत को चीन और मलेशिया से जोड़ने वाले एक समुद्री मार्ग का संकेत देते हैं।
      • बंगाल में ताम्रलिप्ति ने इस व्यापार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • इन समुद्री नेटवर्कों ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देते हुए विभिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाया।
      • मिस्र में बेरेनिके तक भारतीय मूल की कलाकृतियाँ खोजी गई हैं, जिनमें हिंदू देवताओं के चित्र और संस्कृत में शिलालेख भी शामिल हैं।

भारत में समुद्री परिवहन की वर्तमान स्थिति

  • भारत विश्व का 16वाँ सबसे बड़ा समुद्री देश है। वर्तमान में, भारत में समुद्री परिवहन मात्रा के हिसाब से 95% और मूल्य के हिसाब से 68% व्यापार संभालता है।
    • भारत विश्व के शीर्ष 5 जहाज़ रीसाइक्लिंग देशों में से एक है और वैश्विक जहाज़ रीसाइक्लिंग बाज़ार में 30% की हिस्सेदारी रखता है।
    • भारत जहाज़ तोड़ने वाले उद्योग में 30% से अधिक वैश्विक बाज़ार हिस्सेदारी का मालिक है और अलंग, गुजरात में विश्व की सबसे बड़ी जहाज़ तोड़ने वाली सुविधा का स्थान है।
  • दिसंबर 2021 तक, भारत के पास 13,011 हजार के सकल टन भार (GT) के बेड़े की ताकत थी। हालाँकि, क्षमता के मामले में भारतीय बेड़ा विश्व के बेड़े का सिर्फ 1.2% है और भारत के EXIM व्यापार (आर्थिक सर्वेक्षण 2021-2022) का केवल 7.8% (2018-19 के लिये) वहन करता है।
  • वर्ष 2017 में, सरकार ने बंदरगाह-आधारित विकास और रसद-गहन उद्योगों के विकास की दृष्टि से महत्त्वाकांक्षी सागर माला कार्यक्रम शुरू किया।
    • भारत में वर्तमान में 12 प्रमुख और 200 गैर-प्रमुख/मध्यवर्ती बंदरगाह (राज्य सरकार प्रशासन के तहत) हैं।
    • जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट भारत का सबसे बड़ा प्रमुख बंदरगाह है, जबकि मुंद्रा सबसे बड़ा निजी बंदरगाह है।
  • मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 ने भारतीय समुद्री क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिये 150 से अधिक पहलों की पहचान की है।