शासन व्यवस्था
बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा आईटी नियम 2023 को रद्द किया जाना
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन नियम, 2023, फैक्ट चेक यूनिट (FCU), अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 19 (1) (g) (व्यवसाय की स्वतंत्रता और अधिकार), स्व-नियामक निकाय (SRB), आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 79। मुख्य परीक्षा के लिये:सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन नियम 2023 का आलोचनात्मक विश्लेषण। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2023 को रद्द कर दिया है, जो केंद्र सरकार को सोशल मीडिया पर फर्जी, झूठी और भ्रामक सूचनाओं की पहचान करने के लिये फैक्ट चेक यूनिट (FCU) स्थापित करने का अधिकार देता था।
FCU के संबंध में उच्च न्यायालय की टिप्पणी?
- सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) संशोधन नियम, 2023 के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 19(1)(g) (व्यवसाय की स्वतंत्रता और अधिकार) का उल्लंघन होता है।
- फर्जी या भ्रामक समाचार की परिभाषा अस्पष्ट बनी हुई है, इसमें स्पष्टता और सटीकता का अभाव है।
- कानूनी रूप से स्थापित "सत्य के अधिकार" के अभाव में राज्य यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य नहीं है कि नागरिकों को केवल वही जानकारी उपलब्ध कराई जाए जिसे फैक्ट चेक यूनिट (FCU) द्वारा सटीक माना गया हो।
- इसके अतिरिक्त ये उपाय आनुपातिकता के मानक को पूरा करने में विफल रहे हैं।
फेक न्यूज़ के बारे में मुख्य तथ्य
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 में फेक न्यूज़ के कुल 1,527 मामले दर्ज किये गए, जो 214% की वृद्धि दर्शाते हैं (वर्ष 2019 में 486 मामले और वर्ष 2018 में 280 मामले दर्ज किये गए थे)।
- पीआईबी की फैक्ट चेक यूनिट ने नवंबर 2019 में अपनी स्थापना के बाद से फेक न्यूज़ के 1,160 मामलों को खारिज किया है।
फैक्ट चेक यूनिट (FCU) क्या है?
- परिचय: FCU भारत सरकार से संबंधित फेक न्यूज़ के प्रसार को रोकने और उसका समाधान करने के लिये एक आधिकारिक निकाय है।
- इसका प्राथमिक कार्य तथ्यों की पहचान करना और उनका सत्यापन करना है तथा सार्वजनिक संवाद में सटीक जानकारी का प्रसार सुनिश्चित करना है।
- FCU की स्थापना: अप्रैल 2023 में MeitY ने सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 में संशोधन करके फैक्ट-चेक यूनिट (FCU) की स्थापना की थी।
- कानूनी मुद्दा: मार्च 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेस सूचना ब्यूरो के तहत फैक्ट-चेक यूनिट (FCU) की स्थापना पर रोक लगा दी।
- सरकार ने FCU का पक्ष लिया, क्योंकि इसका उद्देश्य फेक न्यूज़ के प्रसार को रोकना है और यह फेक न्यूज़ से निपटने के लिये सबसे कम प्रतिबंधात्मक उपाय है।
- अनुपालन और परिणाम: FCU द्वारा संबंधित विषय-वस्तु पर निर्णय लिया जाएगा तथा इसके निर्देशों का अनुपालन करने में मध्यस्थों की विफलता के परिणामस्वरूप आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 79 के तहत सुरक्षित हार्वर प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिये कार्रवाई की जा सकती है।
सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन नियम, 2023 क्या है?
- परिचय:
- ये नियम सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 द्वारा प्रदत्त शक्तियों के अंतर्गत स्थापित किये गए थे।
- इन नियमों को सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश) नियम, 2011 के स्थान पर लाया गया है।
- मध्यस्थों का उचित उत्तरदायित्व:
- मध्यस्थों को अपने प्लेटफॉर्म पर नियम, विनियम, गोपनीयता नीतियाँ और उपयोगकर्त्ता समझौतों को प्रमुखता से प्रदर्शित करना होगा।
- मध्यस्थों को अश्लील, अपमानजनक या भ्रामक जानकारी सहित गैर-कानूनी सामग्री के प्रकाशन को रोकने के लिये कदम उठाने चाहिये।
- उपयोगकर्त्ताओं की शिकायतों को निपटाने के लिये मध्यस्थों द्वारा शिकायत निवारण तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
- प्रमुख मध्यस्थों के लिये अतिरिक्त उत्तरदायित्व:
- प्रमुख सोशल मीडिया मध्यस्थों को एक मुख्य अनुपालन अधिकारी और एक शिकायत अधिकारी नियुक्त करना होगा।
- इन मध्यस्थों को शिकायतों और की गई कार्रवाई सहित मासिक अनुपालन की रिपोर्ट देनी होगी।
- शिकायत निवारण तंत्र:
- मध्यस्थों को 24 घंटे के अंदर शिकायतों की पावती देनी होगी तथा 15 दिनों के अंदर उनका समाधान करना होगा।
- गोपनीयता का उल्लंघन करने वाली या हानिकारक सामग्री से संबंधित शिकायतों का समाधान 72 घंटों के अंदर किया जाना चाहिये।
- प्रकाशकों के लिये आचार संहिता:
- समाचार और ऑनलाइन सामग्री के प्रकाशकों को आचार संहिता का पालन करना होगा तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि संबंधित सामग्री से भारत की संप्रभुता के साथ किसी मौजूदा कानून का उल्लंघन न हो।
- ऑनलाइन गेम्स का विनियमन:
- ऑनलाइन गेमिंग मध्यस्थों को जीत और उपयोगकर्त्ता पहचान सत्यापन के बारे में विस्तृत नीतियाँ बनानी होंगी।
- वास्तविक धन वाले ऑनलाइन गेम को स्व-नियामक निकाय द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिये।
- स्व -नियामक निकाय (SRB) को एक ऐसे संगठन के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे डिजिटल मीडिया और मध्यस्थों के लिये नैतिक मानकों, दिशानिर्देशों और सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुपालन की निगरानी एवं प्रवर्तन के लिये स्थापित किया गया है।
नोट:
- मध्यस्थ: मध्यस्थ ऐसी संस्थाएँ हैं जो इंटरनेट पर सामग्री या सेवाओं के प्रसारण या होस्टिंग की सुविधा प्रदान करती हैं। ये उपयोगकर्त्ताओं और इंटरनेट के बीच संचार माध्यम के रूप में कार्य करती हैं, जिससे सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव होता है। उदाहरण के लिये:
- सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म (जैसे, फेसबुक, ट्विटर)
- ई-कॉमर्स वेबसाइटें (जैसे, अमेज़न, फ्लिपकार्ट)
- सर्च इंजन (जैसे, गूगल)
- इंटरनेट सेवा प्रदाता (ISP)
- क्लाउड सेवा प्रदाता
- प्रमुख मध्यस्थ: इन्हें व्यापक उपयोगकर्त्ता आधार और सार्वजनिक संवाद पर अधिक प्रभाव के आधार पर परिभाषित किया जाता है।
- आईटी नियम, 2021 के तहत भारत में 5 मिलियन से अधिक उपयोगकर्त्ताओं वाले मध्यस्थों को प्रमुख मध्यस्थों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। अपनी व्यापक पहुँच के कारण इन्हें अतिरिक्त नियामक आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ता है।
संशोधित आईटी नियम, 2023 से संबंधित प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: माना जाता है कि इन नियमों द्वारा सरकार को फेक या भ्रामक सामग्री को हटाने का निर्देश देने में सक्षम बनाकर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन होता है।
- स्पष्टता का अभाव: फेक और भ्रामक शब्दों को अभी भी ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे इनकी मनमाने ढंग से व्याख्या और प्रवर्तन के बारे में चिंताएँ पैदा होती हैं।
- अत्यधिक सरकारी नियंत्रण: पीआईबी के अंतर्गत FCU की स्थापना से सूचना प्रसार के क्षेत्र में अत्यधिक सरकारी निगरानी की आशंका पैदा होती है, जिससे स्वतंत्र मीडिया और नागरिक समाज की भूमिका कमज़ोर होती है।
- मध्यस्थों पर प्रभाव: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं पर सरकारी निर्देशों का पालन करने के लिये अनुचित दबाव पड़ सकता है यदि वे अनिवार्य रूप से संबंधित सामग्री को हटाने में विफल रहते हैं, तो उनकी सुरक्षित हार्वर स्थिति को खतरा हो सकता है, जिससे स्व-सेंसरशिप की स्थिति हो सकती है।
- जवाबदेही में कमी आना: ये नियम सरकार की जवाबदेही को कम कर सकते हैं क्योंकि FCU का उपयोग पारदर्शी तथ्य-जाँच के बजाय आलोचना को दबाने के लिये एक उपकरण के रूप में किया जा सकता है।
- कंटेंट निर्माताओं पर नकारात्मक प्रभाव: कंटेंट निर्माता सरकार की ओर से होने वाले नकारात्मक प्रभाव के डर से स्वयं पर सेंसरशिप लगा सकते हैं, जिससे रचनात्मकता और खुले संवाद में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
- न्यायिक निगरानी का अभाव: FCU द्वारा लिये गए निर्णयों के लिये स्पष्ट और स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा प्रक्रिया के अभाव से अनियंत्रित प्राधिकार और सत्ता के दुरुपयोग को बढ़ावा मिल सकता है।
आगे की राह
- स्वतंत्र निगरानी को सुदृढ़ बनाना: FCU के संचालन की निगरानी के लिये एक स्वतंत्र नियामक निकाय की स्थापना करना, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित करना और सरकारी हस्तक्षेप की संभावना को कम करना आवश्यक है।
- न्यायिक समीक्षा तंत्र: FCU द्वारा लिये गए निर्णयों के लिये मज़बूत न्यायिक समीक्षा प्रक्रियाओं को लागू करना चाहिये जिससे व्यक्तियों और संगठनों को निष्पक्ष एवं समयबद्ध तरीके से सामग्री हटाने के आदेशों को चुनौती देने का अवसर मिल सके।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण: मौलिक स्वतंत्रता के उल्लंघन को रोकने एवं मुक्त भाषण के अधिकार को बनाए रखने की प्रतिबद्धता पर ध्यान देना चाहिये।
- हितधारकों के साथ सहभागिता: डिजिटल अधिकार संगठनों, मीडिया संस्थाओं और नागरिक समाज सहित हितधारकों के साथ सहयोगात्मक संवाद को बढ़ावा देना चाहिये, ताकि ऐसे नियम विकसित किये जा सकें जो लोक एवं व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करें।
- आवधिक समीक्षा और अनुकूलन: उभरते डिजिटल परिदृश्यों के अनुकूल होने और फेक न्यूज़ तथा डिजिटल अधिकारों से संबंधित उभरती चुनौतियों का समाधान करने के लिये आईटी नियमों की आवधिक समीक्षा हेतु रूपरेखा बनानी चाहिये।
- डिजिटल अधिकार संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना: डिजिटल अधिकार संरक्षण उपायों को व्यापक कानूनी ढाँचे के साथ एकीकृत करने के साथ यह सुनिश्चित करना चाहिये कि डिजिटल संचार के संदर्भ में विनियमन से उपयोगकर्त्ता अधिकार मज़बूत हो सके।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और डिजिटल अधिकारों पर संशोधित आईटी नियम, 2023 के प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न पत्रप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में, साइबर सुरक्षा घटनाओं पर रिपोर्ट करना निम्नलिखित में से किसके/किनके लिये विधितः अधिदेशात्मक है/हैं ?(2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्स:Q. साइबरडोम प्रोजेक्ट क्या है? यह भारत में इंटरनेट संबंधी अपराधों को नियंत्रित करने में किस प्रकार उपयोगी हो सकता है। (2019) Q. लोक जीवन में 'ईमानदारी' से आप क्या समझते हैं? वर्तमान समय में इसे व्यवहार में लाने में कौन सी जटिलताएँ आती हैं? इन जटिलताओ का समाधान किस प्रकार किया जा सकता है? (2014) |
सामाजिक न्याय
दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय विभाजन
प्रिलिम्स के लिये:नस्लीय भेदभाव, रंगभेद, दक्षिण अफ्रीका, बेरोज़गारी मेन्स के लिये:दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद प्रणाली, रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन, रंगभेद उन्मूलन में भारत का योगदान, महात्मा गांधी की भूमिका |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
दक्षिण अफ्रीका में 30 वर्ष पहले रंगभेद की समाप्ति के बावजूद, इसकी अर्थव्यवस्था अभी भी नस्ल के आधार पर विभाजित है तथा अभी भी प्रणालीगत असमानताएँ का सातत्य हैं।
- इससे रंगभेद के बाद की अश्वेत आर्थिक सशक्तीकरण (BEE) नीति की प्रभावशीलता पर राजनीतिक बहस पुनः शुरू हो गई है।
दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय विभाजन की वर्तमान स्थिति क्या है?
- बेरोज़गारी दर: अप्रैल-जून 2024 तक, दक्षिण अफ्रीका की कुल बेरोज़गारी दर 33.5% थी। अश्वेत दक्षिण अफ्रीकियों में, यह दर काफी अधिक अर्थात् 37.6% थी, जबकि श्वेत दक्षिण अफ्रीकियों में यह दर 7.9% और मिश्रित नस्ल के लोगों में 23.3% थी।
- अश्वेत व्यक्तियों में बेरोज़गारी लगातार राष्ट्रीय औसत से अधिक रही है तथा वर्ष 2014 से इसमें 9% से अधिक की वृद्धि हुई है।
- प्रबंधन नियंत्रण: दक्षिण अफ्रीका के रोज़गार समानता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में, श्वेत व्यक्ति, जो दक्षिण अफ्रीका की आबादी का लगभग 8% हैं, के पास शीर्ष प्रबंधन पदों का 65.9% हिस्सा था, जबकि अश्वेत व्यक्तियों के पास केवल 13.8% था।
- नौकरी के स्तर का वितरण: अकुशल श्रमिकों के स्तर पर अश्वेतों की हिस्सेदारी 82.8% है, जबकि श्वेत व्यक्तियों की हिस्सेदारी केवल 0.9% है तथा उच्च नौकरी के स्तरों पर अश्वेतों का प्रतिनिधित्व कम हो रहा है।
- कंपनियों में स्वामित्व: ब्रॉड-बेस्ड ब्लैक इकोनॉमिक एम्पावरमेंट कमीशन के अनुसार, जोहान्सबर्ग स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कोई भी कंपनी 100% अश्वेत स्वामित्व वाली नहीं है।
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन क्या था?
- रंगभेद: रंगभेद (या पृथकता) दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय पृथक्करण और भेदभाव की एक प्रणाली थी जो वर्ष 1948 से वर्ष 1994 तक चली।
- इसे दक्षिण अफ्रीका में श्वेत यूरोपीय उपनिवेशवादियों की सरकारों द्वारा लागू किया गया था।
- रंगभेद प्रणाली की प्रमुख नीतियाँ:
- पृथक्करण: अश्वेत लोगों को निर्दिष्ट क्षेत्रों में रहने तथा श्वेत लोगों से अलग सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग करने के लिये बाध्य किया गया।
- मतदान का अधिकार: अश्वेत लोगों को मतदान का अधिकार नहीं दिया गया।
- विवाह और सामाजिक संबंध: अंतरनस्लीय विवाह और सामाजिक संबंध निषिद्ध थे।
- संगठन और विरोध : अश्वेतों को संगठन बनाने या रंगभेद के विरुद्ध विरोध करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था।
- रंगभेद विरोधी आंदोलन (AAM): रंगभेद विरोधी आंदोलन (AAM) 20वीं सदी का पहला सफल अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आंदोलन था।
- उद्देश्य:
- दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन को आंतरिक रूप से समाप्त करना और
- सरकार के विरुद्ध राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिबंधों के लिये बाह्य दबाव डालना।
- AAM के चरण:
- प्रथम चरण (1960 के दशक से पूर्व): इसमें अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (ANC) और दक्षिण अफ्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी (SACP) जैसे संगठनों के नेतृत्व में अहिंसक प्रत्यक्ष कार्रवाई पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- दूसरा चरण (1960 के बाद): संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय हो गया, जिसे अफ्रीकी संघ, संयुक्त राष्ट्र (UN) और भारत जैसे देशों से समर्थन प्राप्त हुआ।
- संयुक्त राष्ट्र ने रंगभेद अपराध के दमन और दंड पर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय को अंगीकृत किया।
- तीसरा चरण (1980 के बाद): यह देश को अप्रशासनीय बनाने के लिये हड़तालों, बहिष्कारों, प्रदर्शनों और तोड़फोड़ की गतिविधियों के माध्यम से बड़े पैमाने पर आंतरिक प्रतिरोध द्वारा चिह्नित था।
- AAM का प्रभाव: वर्ष 1990 तक, दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध हटा लिया और प्रमुख रंगभेद कानूनों को निरस्त कर दिया, जिनमें वर्ष 1913 और वर्ष 1936 के भूमि अधिनियम, जनसंख्या पंजीकरण अधिनियम और पृथक सुविधा अधिनियम शामिल थे।
- अफ्रीकी राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (ANC) के नेता नेल्सन मंडेला को वर्ष 1991 में जेल से रिहा किया गया और वर्ष 1994 में वे दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बने।
- वैधानिक पृथक्करण का अंत: रंगभेद कानूनों को निरस्त कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1994 में एक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना हुई।
- सार्वभौमिक मताधिकार: सभी दक्षिण अफ्रीकियों को, नस्ल की परवाह किये बिना, मतदान का अधिकार प्राप्त हुआ।
- संवैधानिक संरक्षण: नए संविधान में सभी नागरिकों के लिये मानवाधिकार और समानता सुनिश्चित की गई है।
- दक्षिण अफ्रीकी सत्य एवं सुलह आयोग की स्थापना वर्ष 1995 में रंगभेद युग के दौरान किये गए अत्याचारों से निपटने तथा राष्ट्रीय पुनर्वास एवं सुलह को सुगम बनाने के लिये की गई थी।
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद समाप्त करने में भारत की क्या भूमिका थी?
- गांधीजी का प्रभाव : दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन (AAM) के बीज महात्मा गांधी द्वारा बोए गए थे, जो श्वेत यूरोपीय लोगों द्वारा एशियाई लोगों को दिये जाने वाले अपमान से प्रेरित थे।
- उन्होंने पहला उपनिवेशवाद-विरोधी और नस्लीय भेदभाव-विरोधी आंदोलन शुरू किया, वर्ष 1894 में नेटाल इंडियन काॅन्ग्रेस की स्थापना की और वर्ष 1903 में इंडियन ओपिनियन नामक समाचार पत्र की स्थापना की।
- वर्ष 1906 में, गांधीजी ने हज़ारों सत्याग्रहियों का नेतृत्व करते हुए एशियाई विधि संशोधन अध्यादेश का बहिष्कार किया, जिसमें भारतीयों के लिये अपनी उंगलियों के निशान के साथ पंजीकरण प्रमाण पत्र रखना अनिवार्य कर दिया गया था।
- वर्ष 1915 में जब वे दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत आए तो अपने पीछे फीनिक्स सेटलमेंट की विरासत छोड़ आए, जो डरबन के निकट एक आश्रम जैसा समुदाय था।
- भारतीय प्रवासियों की भूमिका:
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय आंदोलनों के बीच संबंध सुदृढ़ हुए।
- भारतीय दक्षिण अफ्रीकी लोग अफ्रीकी बहुसंख्यकों के साथ अपने साझा भाग्य को तेज़ी से स्वीकार करने लगे तथा नस्लवाद के विरुद्ध संयुक्त संघर्षों में भाग लेने लगे।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय आंदोलनों के बीच संबंध सुदृढ़ हुए।
- भारत सरकार की भूमिका:
- पदभार ग्रहण करते समय, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उपनिवेशवाद को समाप्त करने और विश्व स्तर पर नस्लीय समानता को बढ़ावा देने के लिये भारत की प्रतिबद्धता पर बल दिया।
- भारत पहला देश था जिसने वर्ष 1946 में रंगभेदी सरकार के साथ व्यापारिक संबंध समाप्त कर दिये थे और बाद में दक्षिण अफ्रीका पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था।
- यह वर्ष 1946 में दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (UN) में लाने वाला पहला संगठन था, जिससे नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय बनाने में सहायता मिली।
- इसके अतिरिक्त, अफ्रीकी राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (ANC) ने 1960 के दशक से नई दिल्ली में एक प्रतिनिधि कार्यालय बनाए रखा और भारत ने रंगभेद विरोधी आंदोलन को बनाए रखने के लिये अफ्रीका कोष को सक्रिय रूप से समर्थन दिया।
- वर्ष 1961 में प्रथम सम्मेलन से ही रंगभेद गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के एजेंडे में था।
- भारत ने NAM की स्थापना के समय से ही इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- वर्ष 1964 में काहिरा, मिस्र में दूसरे NAM सम्मेलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका की सरकार को रंगभेद की भेदभावपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ चेतावनी दी गई थी।
दक्षिण अफ्रीका की ब्लैक इकोनॉमिक एम्पावरमेंट (BEE) नीति क्या है?
- परिचय :
- ब्लैक इकोनॉमिक एम्पावरमेंट (BEE) नीति दक्षिण अफ्रीका में एक सरकारी पहल है जिसे काले, रंगीन और भारतीय दक्षिण अफ्रीकियों की आर्थिक स्थिति को बढ़ाने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
- इसका उद्देश्य दक्षिण अफ्रीकी नागरिकों के बहुमत के बीच आर्थिक संसाधनों के न्यायसंगत वितरण को बढ़ावा देकर ऐतिहासिक असंतुलन को दूर करना है।
- ब्रॉड बेस्ड ब्लैक इकॉनोमिक एम्पोवेर्मेंट एक्ट को वर्ष 2003 में अधिनियमित किया गया।
- ब्लैक इकोनॉमिक एम्पावरमेंट (BEE) नीति दक्षिण अफ्रीका में एक सरकारी पहल है जिसे काले, रंगीन और भारतीय दक्षिण अफ्रीकियों की आर्थिक स्थिति को बढ़ाने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
- उद्देश्य:
- अश्वेत व्यक्तियों द्वारा उद्यमों के स्वामित्व, प्रबंधन और नियंत्रण को बढ़ाना।
- समुदायों, श्रमिकों और सहकारी समितियों के लिये स्वामित्व एवं प्रबंधन के अवसरों को सुविधाजनक बनाना।
- कार्यबल में विविध नस्लीय समूहों का उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त करना।
- अश्वेत स्वामित्व वाले व्यवसायों से अधिमान्य अधिप्राप्ति को प्रोत्साहित करना।
- अश्वेत व्यक्तियों के स्वामित्व वाले उद्यमों में निवेश करना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत् वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये :
उपर्युक्त में से कौन-से कथन सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. असहयोग आंदोलन एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को स्पष्ट कीजिये। (2021) |
जैव विविधता और पर्यावरण
मीथेन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग
प्रिलिम्स के लिये:मीथेन (CH4 ) उत्सर्जन, पेरिस समझौता, कार्बन डाइऑक्साइड, ग्रीनहाउस गैस, जीवाश्म ईंधन, वायु गुणवत्ता, ओज़ोन, ग्लासगो जलवायु संधि, ग्लोबल मीथेन ट्रैकर, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान मेन्स के लिये:मीथेन उत्सर्जन से निपटने हेतु भारत की पहल, वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा, ग्रीनहाउस गैस के रूप में मीथेन का महत्त्व तथा जलवायु परिवर्तन पर इसका प्रभाव। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
मीथेन (CH₄) उत्सर्जन के बढ़ने के आलोक में पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में चुनौतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) जलवायु संबंधी चर्चाओं में मुख्य केंद्र रही है लेकिन मीथेन (जो कहीं अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस (GHG) है) की ओर इस दिशा में ध्यान आकर्षित हो रहा है।
- ग्लोबल वार्मिंग में मीथेन की भूमिका पर विचार करने से जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में और भी क्षमता हासिल होगी।
मीथेन उत्सर्जन का जलवायु पर क्या प्रभाव होता है?
- जलवायु प्रभाव: मीथेन ग्रीनहाउस गैस के रूप में CO2 से लगभग 80 गुना अधिक शक्तिशाली है और औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक तापन में इसका लगभग 30% का योगदान रहा है।
- हालाँकि यह गैस वायुमंडल में केवल 7 से 12 वर्षों तक ही रहती है। इसलिये मीथेन उत्सर्जन को कम करने या इसके सिंक को बढ़ाने से अल्पावधि में जलवायु परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है, जिससे जीवाश्म ईंधन और संबंधित CO2 उत्सर्जन पर निर्भरता को कम करने की अधिक जटिल चुनौती से निपटने में सहायता मिल सकती है।
- वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 45% की कमी लाने से वैश्विक तापन में वृद्धि को 1.5°C तक सीमित रखने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
- मीथेन उत्सर्जन में कमी लाने तथा वायुमंडल से इसके निष्कासन को बढ़ाने से तापमान वृद्धि को कम किया जा सकता है।
- वायु गुणवत्ता संबंधी मुद्दे: वायु गुणवत्ता में सुधार के लिये मीथेन उत्सर्जन को नियंत्रित करना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मीथेन क्षोभमंडलीय ओज़ोन के निर्माण में योगदान देती है, जो एक हानिकारक वायु प्रदूषक है, जिससे श्वसन स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
- उत्सर्जन स्रोत: मीथेन उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख क्षेत्रों में ऊर्जा (विशेष रूप से तेल, गैस और कोयला), कृषि (मुख्य रूप से पशुधन और धान की खेती) और अपशिष्ट प्रबंधन (लैंडफिल) शामिल हैं।
- वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का अनुमान प्रतिवर्ष लगभग 580 मिलियन टन है जिसमें से लगभग 40% प्राकृतिक स्रोतों से और 60% मानवीय गतिविधियों (मानवजनित उत्सर्जन) से उत्सर्जित होती है।
- इसका सबसे बड़ा मानवजनित स्रोत कृषि है, जो लगभग 25% उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार है, इसके बाद ऊर्जा क्षेत्र (कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस और जैव ईंधन) का स्थान आता है।
मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये कौन से वैश्विक प्रयास चल रहे हैं?
- वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा (GMP): इसे CoP26 2021 (ग्लासगो जलवायु संधि) में शुरू किया गया था और इसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को वर्ष 2020 के स्तर से कम से कम 30% तक कम करना है।
- अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्व में GMP में अब 158 देश भागीदार हैं, जो वैश्विक मानवजनित मीथेन उत्सर्जन के 50% से अधिक की हिस्सेदारी रखते हैं।
- भारत ने वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर न करने का विकल्प चुना है।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP): UNEP ऊर्जा, कृषि और अपशिष्ट क्षेत्रों से मीथेन की निगरानी और उसे कम करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मीथेन उत्सर्जन ऑब्जर्वेटरी (IMEO) और तेल एवं गैस मीथेन साझेदारी जैसी पहलों का नेतृत्व करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी: IEA का ग्लोबल मीथेन ट्रैकर ऊर्जा क्षेत्र में उत्सर्जन को कम करने का एक अपरिहार्य उपकरण है।
- जलवायु और स्वच्छ वायु गठबंधन (CCAC): इसके द्वारा मीथेन कटौती उपायों को लागू करने में देशों का समर्थन किया जाता है।
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की रिपोर्ट: IPCC ने वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये मीथेन को कम करने के महत्त्व पर बल दिया है और देशों को अपनी जलवायु रणनीतियों में मीथेन उत्सर्जन को शामिल करने के लिये दिशानिर्देश प्रदान किये हैं।
भारत ने वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा को क्यों अस्वीकार कर दिया?
- कृषि आजीविका पर प्रभाव: भारत में मीथेन उत्सर्जन के प्राथमिक स्रोत पशुधन और धान की खेती हैं। ये क्षेत्र छोटे और सीमांत किसानों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जो भारत के कृषि क्षेत्र का आधार हैं।
- इन कृषि गतिविधियों से उत्पन्न मीथेन उत्सर्जन को "सर्वाइवल" उत्सर्जन माना जाता है, क्योंकि ये विलासितापूर्ण उपभोग से संबंधित होने के बजाय सीधे खाद्य उत्पादन एवं किसानों की आजीविका को प्रभावित करते हैं।
- खाद्य सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: भारत चावल के सबसे बड़े उत्पादकों और निर्यातकों में से एक है। मीथेन उत्सर्जन में कमी (विशेष रूप से चावल की खेती से) से खाद्य सुरक्षा को खतरा हो सकता है, जिससे घरेलू आपूर्ति एवं निर्यात क्षमता दोनों ही प्रभावित हो सकती हैं।
- कृषि उत्पादन पर संभावित नकारात्मक प्रभाव से किसानों की आय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खतरा हो सकता है।
- CO2 पर ध्यान न देना: भारत का मानना है कि CO2 (जिसकी समाप्ति अवधि 100-1000 वर्ष है) जलवायु परिवर्तन में प्राथमिक योगदानकर्त्ता है जबकि इस प्रतिज्ञा में मीथेन में कमी लाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिसकी समाप्ति अवधि कम है, जिससे CO2 में कमी लाने के भार में बदलाव आता है।
- जलवायु संबंधी कार्यवाही निर्धारित करने का संप्रभु अधिकार: पेरिस समझौते के तहत भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के तहत क्षेत्र-विशिष्ट उत्सर्जन कटौती लक्ष्य निर्धारित नहीं किये गए हैं, जिससे देश को राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं प्राथमिकताओं के आधार पर अपनी जलवायु संबंधी कार्यवाही निर्धारित करने की अनुमति मिलती है।
- भारत सरकार ने अपने आकलन के माध्यम से यह निर्धारित किया कि शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर करना उसके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप नहीं होगा।
भारत मीथेन उत्सर्जन किस प्रकार कम कर रहा है?
- जलवायु समझौतों में भारत की भागीदारी: भारत जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) का पक्षकार है, जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौता भी शामिल है, जिसका उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को कम करना है।
- सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन (NMSA): कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित, NMSA धान की खेती में मीथेन उत्सर्जन को कम करने की तकनीकों सहित जलवायु-अनुकूल प्रथाओं को बढ़ावा देता है।
- जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (NICRA): भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने चावल उत्पादन में मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये कई प्रौद्योगिकियाँ विकसित की हैं:
- चावल गहन प्रणाली (SRI): इससे चावल की उपज में 36-49% की वृद्धि होती है तथा परंपरागत तरीकों की तुलना में 22-35% कम जल का उपयोग होता है, जिससे मीथेन उत्सर्जन में कमी आती है।
- चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR): DSR प्रणाली मीथेन उत्सर्जन को कम करती है क्योंकि इसमें नर्सरी तैयार करना और रोपाई करना शामिल नहीं होता है।
- फसल विविधीकरण कार्यक्रम: धान की खेती के स्थान पर अन्य फसलों जैसे दालें, तिलहन, मक्का और कपास की खेती को अपनाने से चावल के खेतों से मीथेन उत्सर्जन में कमी आती है।
- क्षमता निर्माण कार्यक्रम: भारत भर में कृषि विज्ञान केंद्र किसानों के लिये जलवायु-अनुकूल और मीथेन-कम करने वाली कृषि पद्धतियों पर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन: पशुपालन और डेयरी विभाग (DAHD) के तहत यह मिशन निम्नलिखित को बढ़ावा देता है:
- नस्ल सुधार और संतुलित राशनिंग: पशुओं को संतुलित और बेहतर गुणवत्ता वाला आहार खिलाने से मीथेन उत्सर्जन में कमी आती है।
- हरा चारा उत्पादन और साइलेज बनाना: पशुधन से उत्सर्जन को कम करने के लिये हरा चारा उत्पादन, भूसा और कुल मिश्रित राशन प्रथाओं को प्रोत्साहित करता है।
- गोबरधन योजना (जैव-कृषि संसाधनों को समृद्ध करना): इससे स्वच्छ ऊर्जा और जैविक खाद के उत्पादन के लिये मवेशी अपशिष्ट के उपयोग को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में पशुधन अपशिष्ट से मीथेन उत्सर्जन में कमी आती है।
- नया राष्ट्रीय बायोगैस और जैविक खाद कार्यक्रम गाँवों में मवेशी अपशिष्ट उपयोग और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन को प्रोत्साहित करता है।
मीथेन
- मीथेन सबसे सरल हाइड्रोकार्बन है जिसमें एक कार्बन परमाणु और चार हाइड्रोजन परमाणु (CH4) होते हैं। यह प्राकृतिक गैस का प्राथमिक घटक है, जिसमें मुख्य विशेषताएँ होती हैं: गंधहीन, रंगहीन और स्वादहीन गैस।
- यह पूर्ण दहन में नीली लौ के साथ जलती है तथा ऑक्सीजन की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और जल (H2O) उत्पन्न करती है।
- ग्लोबल वार्मिंग क्षमता (GWP) एक माप है जिससे पता चलता है कि एक टन गैस का उत्सर्जन एक निश्चित अवधि में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के सापेक्ष कितनी ऊर्जा अवशोषित करेगा।
- मीथेन का GWP 28 है, अर्थात यह कार्बन डाइऑक्साइड से 28 गुना अधिक शक्तिशाली है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में मीथेन उत्सर्जन के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. ‘मीथेन हाइड्रेट’ के निक्षेपों के बारे में निम्नलिखित में से कौन-से कथन सही हैं? (2019) 1. भूमंडलीय तापन के कारण इन निक्षेपों से मीथेन गैस का निर्मुक्त होना प्रेरित हो सकता है। नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मुख्य:प्रश्न. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन से भारत कैसे प्रभावित होगा? भारत के हिमालयी और तटीय राज्य जलवायु परिवर्तन से कैसे प्रभावित होंगे? (2017) |
आंतरिक सुरक्षा
7वाँ राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन, 2024
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन (NSSC) 2024, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, गैर-प्रमुख बंदरगाह, वित्तीय प्रौद्योगिकियाँ, स्थायी बंदोबस्त, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006। मेन्स के लिये:आदिवासियों से संबंधित चुनौतियाँ और उनसे निपटने के गैर-औपनिवेशिक उपाए। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री ने नई दिल्ली में सातवें राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन-2024 का उद्घाटन किया।
- उभरती राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के समाधान के रोडमैप पर शीर्ष पुलिस नेतृत्व के साथ चर्चा की गई है।
- इस सम्मेलन में उभर रही राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के समाधान के रोडमैप पर शीर्ष पुलिस अधिकारी नेतृत्व के साथ चर्चा की गई है।
- शीर्ष पुलिस अधिकारियों ने इस बात पर भी चर्चा की कि जनजातीय समुदायों से संबंधित मुद्दों का अध्ययन “गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण” से कैसे किया जाए।
NSSC, 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- NSSC के बारे में: इसकी परिकल्पना प्रधानमंत्री द्वारा DGP/IGSP सम्मेलन के दौरान की गई थी, जिसका उद्देश्य वरिष्ठ पुलिस नेतृत्व के बीच विचार-विमर्श के माध्यम से प्रमुख राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों का समाधान ढूंढना था।
- प्रतिभागियों की विविधता: यह सम्मेलन राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों का प्रबंधन करने वाले शीर्ष पुलिस नेतृत्व, अत्याधुनिक स्तर पर कार्य करने वाले युवा पुलिस अधिकारियों और विशिष्ट क्षेत्रों के विशेषज्ञों का एक अनूठा मिश्रण है।
- DGP/IGSP सम्मेलन अनुशंसा डैशबोर्ड: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा विकसित एक नया डैशबोर्ड लॉन्च किया गया है।
- इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित पुलिस निदेशकों और महानिरीक्षकों के वार्षिक सम्मेलन के दौरान लिये गए निर्णयों के कार्यान्वयन में सहायता करना है।
- गैर-पश्चिमी दृष्टिकोण के साथ जनजातीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना: चर्चा में जनजातीय समुदायों की शिकायतों के समाधान में गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- यह इस विचारधारा पर आधारित है कि स्वदेशी आबादी के साथ उस तरह का व्यवहार न किया जाए जैसा कि पश्चिमी मॉडल में किया गया है (जिसमें ऐतिहासिक रूप से उनके प्रति दुराग्रह की भावना बनी रही तथा उन्हें हाशिये पर रखा गया)। इस प्रकार स्वदेशी आबादी को नियंत्रित करने या उनका बहिष्कार करने के बजाय सम्मान, समावेशन और सशक्तीकरण पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
- विविध सुरक्षा चुनौतियों पर चर्चा:
- सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं का कट्टरपंथीकरण, विशेष रूप से " इस्लामिक और खालिस्तानी कट्टरपंथ" पर ध्यान केंद्रित करना।
- मादक पदार्थ और तस्करी आंतरिक सुरक्षा में एक प्रमुख चिंता का विषय बन गया है, जिससे सामाजिक और आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो रही है ।
- गैर-प्रमुख बंदरगाहों और मत्स्य संग्रहण वाले बंदरगाहों पर सुरक्षा, जो तस्करी और अन्य अवैध गतिविधियों के लिये महत्त्वपूर्ण जोखिम पैदा करते हैं।
- उभरते खतरे और तकनीकी चुनौतियाँ: सम्मेलन में कई उभरते सुरक्षा खतरों पर चर्चा की गई है।
- फिनटेक धोखाधड़ी: इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि किस प्रकार वित्तीय प्रौद्योगिकियों का आपराधिक गतिविधियों के लिये शोषण किया जा रहा है।
- रूज़ ड्रोन: तस्करी और निगरानी के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ‘रूज़ ड्रोन’ के विरुद्ध जवाबी उपाय, सत्र का केंद्र बिंदु थे।
- ऐप इकोसिस्टम का शोषण: अपराधी अवैध गतिविधियों के लिये मोबाइल ऐप का उपयोग तेज़ी से कर रहे हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारत में जनजातीय समुदायों के साथ कैसा व्यवहार किया?
- आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871: ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 में कई जनजातियों को वंशानुगत, आदतन अपराधियों के रूप में वर्गीकृत किया गया।
- अंग्रेज़ों के अनुसार, वे स्वाभाविक रूप से छोटे-मोटे अपराध करने के लिये प्रवृत्त थे।
- किसी भी समय अपराध करने की उनकी कथित संभावना के कारण हर समय उनके विरुद्ध कठोर निगरानी रखी जानी उचित थी।
- भारतीय वन अधिनियम, 1865: इस अधिनियम ने जनजातीय समुदायों की कई दैनिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया, जैसे लकड़ी काटना, मवेशी चराना , फल और जड़ें इकट्ठा करना तथा मत्स्यन।
- जनजातीय समुदायों को वनों से लकड़ियाँ चुराने के लिये मज़बूर किया जाता था, पकड़े जाने पर उन्हें वन रक्षकों को रिश्वत देनी पड़ती थी।
- वन अधिनियम, 1878: यह पहले के अधिनियमों की तुलना में अधिक व्यापक था।
- वनों को आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्राम वन के रूप में वर्गीकृत किया गया, जिससे जनजातीय समुदायों की वनों तक पहुँच प्रतिबंधित हो गई।
- लकड़ी पर शुल्क लगाने का प्रावधान किया गया ।
- भारतीय वन अधिनियम, 1927 : इस अधिनियम ने वनों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया, अर्थात् आरक्षित वन, ग्राम वन और संरक्षित वन ।
- आरक्षित वनों में स्थानीय लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध है, जिसके कारण जनजातीय समुदायों को उनके प्रवेश पर शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
- स्थायी बंदोबस्त (वर्ष 1793): जनजातीय क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त की शुरूआत ने भूमि के सामूहिक और पारंपरिक स्वामित्व (खुटकुट्टी प्रथा) की पारंपरिक प्रथाओं को समाप्त कर दिया।
- पुलिस, व्यापारियों और साहूकारों जैसे बाह्य लोगों (दीकूओं) द्वारा शोषण से जनजातीय समुदायों की समस्याएँ और भी बढ़ गई।
भारत सरकार ने जनजातीय समुदायों के लिये गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण कैसे अपनाया है?
- आदतन अपराधी अधिनियम, 1952: स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 को आदतन अपराधी अधिनियम, 1952 से प्रतिस्थापित किया ।
- आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के तहत जिन समुदायों को 'अपराधी' के रूप में अधिसूचित किया गया था वे "विमुक्त जनजाति" बन गए थे और अब उन्हें "जन्मजात अपराधी" नहीं माना जाता था।
- राष्ट्रीय वन नीति 1952: इसने वनों के साथ जनजातीय सहजीवी संबंध को मान्यता दी और वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास की अनुमति दी।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: इसका उद्देश्य अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार के अपराधों को रोकना है।
- इसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों के मामलों की सुनवाई के लिये विशेष अदालतों के गठन का प्रावधान है।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006: FRA 2006 का उद्देश्य औपनिवेशिक युग के वन कानूनों द्वारा वन-निवासी समुदायों के प्रति किये गए अन्याय की क्षतिपूर्ति करना है।
- यह वन में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को आदिवासियों या वनवासियों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर स्वामित्व का अधिकार देता है।
जनजातीय समुदायों को अभी भी किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
- कलंक की औपनिवेशिक विरासत: वर्ष 1952 में "आपराधिक जनजाति" कानून को निरस्त कर दिये जाने के बावजूद , जनजातीय समुदायों के साथ जुड़ा कलंक बना हुआ है।
- जनजातीय समुदायों को बहिष्कृत करने तथा उन्हें मुख्यधारा की आबादी से असमान समझने की औपनिवेशिक मानसिकता स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही है।
- गैर-अनुसूचित जनजातियों के समक्ष चुनौतियाँ: गैर-अनुसूचित जनजातियों के पास विधायी संरक्षण का अभाव है , जिससे वे और भी अधिक असुरक्षित हो जाती हैं।
- जनजातीय समुदायों के विरुद्ध बढ़ती हिंसा: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़े ऐसे अपराधों में लगातार वृद्धि का संकेत देते हैं, जिनकी घटनाएँ वर्ष 2021 में 8,802 मामलों से बढ़कर वर्ष 2022 में 10,064 हो गईं (14.3% की वृद्धि)।
- मध्य प्रदेश (30.61%), राजस्थान (25.66%) और ओडिशा (7.94%) में अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिकांश मामले दर्ज किये गये।
- समस्याओं में राज्यवार भिन्नता: मध्य प्रदेश में वेश्यावृत्ति के रैकेट से जनजातीय समुदायों का शोषण होता है जबकि झारखंड और छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी अभियान जनजातीय समुदायों की आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
- बेदखली और विस्थापन: FRA के संरक्षण के बावजूद, कुछ जनजातीय समुदायों को अभी भी प्रवर्तन के निम्न स्तर या उनके अधिकारों की मान्यता की कमी के कारण वन भूमि से बेदखली का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिये, असम में ऑरेंज नेशनल पार्क से बोडो, राभा और मिशिंग जनजाति को बेदखल किया गया।
जनजातीय समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान कैसे करें?
- ऐतिहासिक कलंक को संबोधित करना: जन जागरूकता अभियान, शैक्षिक सुधार और मीडिया चित्रण की रूढ़िवादिता को चुनौती देनी चाहिये और जनजातीय समुदायों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना चाहिये।
- कानून प्रवर्तन को बढ़ावा देना: कानून प्रवर्तन तंत्र को मज़बूत करना, दोषसिद्धि दरों में वृद्धि करना और जनजातीय समुदायों के खिलाफ अपराधों के लिये फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना करना, न्याय सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA) का प्रभावी कार्यान्वयन: स्थानीय स्तर पर FRA के कार्यान्वयन को मज़बूत करने के प्रयास किये जाने चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जनजातीय समुदायों को उनकी भूमि से अन्यायपूर्ण तरीके से बेदखल न किया जाए।
- भूमि स्वामित्व सत्यापन, वन प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी तथा विस्थापित जनजातीय समुदायों के लिये कानूनी सहायता जैसी व्यवस्थाओं को बढ़ाया जाना चाहिये।
- सांस्कृतिक संरक्षण: जनजातीय समुदायों की संस्कृति, भाषा और परंपराओं को बढ़ावा देने और संरक्षित करने वाली पहलों का समर्थन करना चाहिये, जिससे गौरव एवं पहचान को बढ़ावा मिल सके। जैसे आदि महोत्सव।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: स्थानीय शासन और निर्णय लेने वाले निकायों में जनजातीय समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना ताकि वे अपनी चिंताओं को व्यक्त कर सकें। उदाहरण के लिये, लोकसभा (अनुच्छेद 330), राज्य विधानसभाओं (अनुच्छेद 332) और पंचायतों (अनुच्छेद 243) में एसटी के लिये सीटों का आरक्षण और संविधान की 5 वीं अनुसूची का उचित कार्यान्वयन।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में जनजातीय मुद्दों के समाधान में गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न.राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021) (a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय उत्तर: (d) प्रश्न: भारत के संविधान की किस अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019) (A) तीसरी अनुसूची उत्तर: (B) मेन्सप्रश्न: स्वतंत्रता के बाद से अनुसूचित जनजातियों (ST) के खिलाफ भेदभाव को दूर करने के लिये राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहल क्या हैं? (2017) प्रश्न: भारत में आदिवासियों को 'अनुसूचित जनजाति' क्यों कहा जाता है? उनके उत्थान के लिये भारत के संविधान में निहित प्रमुख प्रावधानों को इंगित कीजिये। (2016) |