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डेली न्यूज़

  • 17 Feb, 2024
  • 42 min read
शासन व्यवस्था

इस्पात क्षेत्र में हरित हाइड्रोजन का उपयोग

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, इस्पात क्षेत्र, ग्रीन हाइड्रोजन, डीकार्बोनाइज़ेशन

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप और उनकी रूपरेखा एवं कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने "राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन के तहत इस्पात क्षेत्र में ग्रीन हाइड्रोजन के उपयोग के लिये केंद्रक/पायलट परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिये योजना दिशा-निर्देश” शीर्षक से दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

  • इसका उद्देश्य इस्पात क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन और जीवाश्म ईंधन-आधारित फीडस्टॉक्स के स्थान पर ग्रीन हाइड्रोजन एवं उसके डेरिवेटिव को उपयोग में लाना है।
  • यह योजना वित्त वर्ष 2029-30 तक निर्धारित परिव्यय के साथ कार्यान्वित की जाएगी।

दिशा-निर्देशों से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • प्रमुख क्षेत्र:
    • इस्पात क्षेत्र में केंद्रक परियोजनाओं के लिये निम्नलिखित तीन क्षेत्रों को प्रमुख क्षेत्रों के रूप में पहचाना गया है:
      • प्रत्यक्ष रूप से कम किये गए लौह निर्माण (डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरनमेकिंग) प्रक्रिया में हाइड्रोजन का उपयोग।
      • ब्लास्ट फर्नेस में हाइड्रोजन का उपयोग।
      • क्रमिक तरीके से जीवाश्म ईंधन के स्थान पर हरित हाइड्रोजन का उपयोग।
    • यह योजना लौह और इस्पात उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये हाइड्रोजन के किसी अन्य नवीन उपयोग से संबंधित केंद्रक पायलट परियोजनाओं का भी समर्थन करेगी।
  • हाइड्रोजन मिश्रण दृष्टिकोण:
    • इस्पात संयंत्रों को वर्तमान में अपनी प्रक्रियाओं में हरित हाइड्रोजन के एक छोटे प्रतिशत को मिश्रित करके तथा लागत अर्थशास्त्र में सुधार और प्रौद्योगिकी में विकास के साथ हाइड्रोजन के मिश्रण अनुपात को धीरे-धीरे बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित किया गया।
  • नये संयंत्रों में समावेशन:
    • दिशा-निर्देशों के अनुसार संभावित इस्पात हरित हाइड्रोजन के साथ कार्य करने में सक्षम होंगे जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये संयंत्र भविष्य के वैश्विक निम्न-कार्बन इस्पात बाज़ारों में भाग लेने में सक्षम हैं।
    • यह योजना शत-प्रतिशत पर्यावरण-अनुकूल स्टील के उद्देश्य वाली ग्रीनफील्ड परियोजनाओं का भी समर्थन करेगी।

हरित हाइड्रोजन क्या है?

  • परिचय:
    • यह हाइड्रोजन एक प्रमुख औद्योगिक ईंधन है जिसके अमोनिया (प्रमुख उर्वरक), इस्पात, रिफाइनरियों और विद्युत उत्पादन सहित विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोग हैं।
    • हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है लेकिन शुद्ध हाइड्रोजन की मात्रा अत्यंत ही कम है। यह लगभग हमेशा ऑक्सीजन के साथ H2O तथा अन्य यौगिकों में मौजूद होता है।
    • जब विद्युत धारा जल से गुजरती है, तो यह इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से इसे मूल ऑक्सीजन और हाइड्रोजन में खंडित करती है। यदि इस प्रक्रिया के लिये उपयोग की जाने वाली विद्युत का स्रोत पवन अथवा सौर जैसे नवीकरणीय स्रोत है तो इस प्रकार उत्पादित हाइड्रोजन को हरित हाइड्रोजन कहा जाता है।
    • हाइड्रोजन के साथ दर्शाए गए रंग हाइड्रोजन अणु को प्राप्त करने के लिये उपयोग की जाने वाली विद्युत स्रोत को संदर्भित करते हैं। उदाहरणार्थ यदि कोयले का उपयोग किया जाता है तो इसे ब्राउन हाइड्रोजन कहा जाता है।

  • हरित हाइड्रोजन के उत्पादन की आवश्यकता:
    • प्रति इकाई भार में उच्च ऊर्जा सामग्री के कारण हाइड्रोजन ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत है, यही कारण है कि इसका उपयोग रॉकेट ईंधन के रूप में किया जाता है।
    • विशेष रूप से हरित हाइड्रोजन लगभग शून्य उत्सर्जन के साथ ऊर्जा के सबसे स्वच्छ स्रोतों में से एक है। इसका उपयोग कारों के लिये फ्यूल सेल अथवा उर्वरक एवं इस्पात विनिर्माण जैसे ऊर्जा खपत वाले उद्योगों में किया जा सकता है।
    • विश्व भर के देश हरित हाइड्रोजन क्षमता के वृद्धि हेतु कार्य कर रहे हैं क्योंकि यह ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है तथा कार्बन उत्सर्जन को कम करने में भी मदद कर सकता है।
    • हरित हाइड्रोजन वैश्विक चर्चा का विषय बन गया है, विशेष रूप से जब विश्व अपने सबसे बड़े ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है एवं जलवायु परिवर्तन का खतरा वास्तविकता में बदल रहा है।
  • अक्षय/नवीकरणीय ऊर्जा से संबंधित पहल:

इस्पात संयंत्रों में हरित हाइड्रोजन के उपयोग से संबंधित क्या चुनौतियाँ हैं?

  • तकनीकी अनुकूलन:
    • पारंपरिक इस्पात निर्माण प्रक्रियाओं से हाइड्रोजन-आधारित प्रक्रियाओं पर स्विच करने के लिये प्रमुख तकनीकी समायोजन की आवश्यकता होती है। डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरनमेकिंग में हाइड्रोजन को प्रमुख कारक के रूप में उपयोग करने के लिये, मौजूदा इस्पात संयंत्रों को पूर्ण रूप से पुनः डिज़ाइन करने अथवा उनमें महत्त्वपूर्ण बदलाव करने की आवश्यकता हो सकती है।
  • अवसंरचना संबंधी आवश्यकताएँ:
    • हाइड्रोजन के उत्पादन, भंडारण और परिवहन के लिये अवसंरचना में महत्त्वपूर्ण विकास की आवश्यकता है। हाइड्रोजन उत्पादन सुविधाएँ, भंडारण टैंक और वितरण नेटवर्क स्थापित करने से इस्पात संयंत्र संचालन में जटिलता एवं लागत बढ़ जाती है।
  • लागत प्रभाव:
    • हाइड्रोजन-आधारित प्रक्रियाओं को अपनाने से पारंपरिक तरीकों की तुलना में प्रारंभिक पूंजी की लागत अधिक आ सकती है। नवीन उपकरण, बुनियादी ढाँचे एवं प्रौद्योगिकी में निवेश और साथ ही मौजूदा परिचालन व्यय, इस्पात उत्पादकों के लिये वित्तीय चुनौतियाँ, विशेषकर बाज़ार की उतार-चढ़ाव वाली स्थितियों में, उत्पन्न कर सकते हैं।
  • आपूर्ति शृंखला संबंधी बाधाएँ:
    • निर्बाध इस्पात संयंत्र संचालन के लिये कच्चे माल की सोर्सिंग और उत्पादन स्तर में निरंतरता तथा हाइड्रोजन की एक विश्वसनीय आपूर्ति शृंखला सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है। बाह्य आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता तथा आपूर्ति शृंखला में संभावित व्यवधान लॉजिस्टिक संबंधी चुनौतियाँ पेश कर सकते हैं।
  • कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS):
    • यद्यपि हाइड्रोजन-आधारित इस्पात उत्पादन कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं किंतु इस प्रक्रिया के दौरान उत्सर्जित CO2 में कैप्चर और स्टोरेज संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
    • शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करने के लिये इस्पात संयंत्र संचालन के साथ संगत लागत प्रभावी CCS प्रौद्योगिकियों का विकास करना भी महत्त्वपूर्ण है।

हरित इस्पात उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये क्या प्रयास किये गए हैं? 

  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:
    • जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय के पक्षकारों (COPs) के 28वें सम्मेलन के दौरान भारत ने LEAD-IT पहल के तहत स्वीडन के साथ अपनी साझेदारी की घोषणा की जो विशेष रूप से इस्पात क्षेत्र के औद्योगिक डीकार्बोनाइज़ेशन पर केंद्रित था।
      • स्वीडिश कंपनी SSAB वर्ष 2018 में हाइड्रोजन के माध्यम से स्टील का उत्पादन करने वाली विश्व की पहली कंपनी बनी।
      • एक अन्य स्वीडिश कंपनी, H2-ग्रीन स्टील भी वर्ष 2025 तक हाइड्रोजन का उपयोग करके हरित इस्पात का अपना पहला बैच तैयार करने की योजना कर रही है।
      • इसी प्रकार की पहल जापान में निप्पॉन स्टील और फ्राँस और जर्मनी में अन्य कंपनियों द्वारा की जा रही है।
  • घरेलू कंपनियाँ:
    • घरेलू स्तर पर, टाटा स्टील और आर्सेलरमित्तल निप्पॉन स्टील इंडिया जैसी कंपनियों ने हाइड्रोजन के उपयोग की दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया है।
    • जनवरी 2024 में आर्सेलरमित्तल निप्पॉन स्टील इंडिया ने महाराष्ट्र सरकार के साथ एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये, जिसमें महाराष्ट्र में 6 मिलियन टन प्रतिवर्ष का ग्रीन स्टील प्लांट स्थापित करने का प्रस्ताव है, इसमें कोयले के जगह हाइड्रोजन का उपयोग करने की योजना है।
  • सरकारी योजनाएँ:

आगे की राह

  • सहायक नीतियाँ और विनियम विकसित करना: भारत को हरित हाइड्रोजन के संबंध में एक व्यापक और सुसंगत नीति ढाँचा विकसित करने की आवश्यकता है जिसमें लक्ष्य निर्धारित करने, प्रोत्साहन प्रदान करने, मानक विकसित करने तथा नियम कार्यान्वित करने जैसे पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिये। भारत जर्मनी, फ्राँस और स्वीडन जैसे अन्य देशों की सर्वोत्तम प्रथाओं एवं अनुभवों से भी सीख ले सकता है।
  • केंद्रक परियोजनाएँ और स्केल-अप: भारत को इस्पात संयंत्रों में हरित हाइड्रोजन के उपयोग संबंधी केंद्रक परियोजनाओं के कार्यान्वन की आवश्यकता है जिसमें प्राकृतिक गैस अथवा कोयले के साथ हाइड्रोजन का मिश्रण, डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरनमेकिंग और ब्लास्ट फर्नेस में हाइड्रोजन का उपयोग करना शामिल है।
  • ये परियोजनाएँ हरित हाइड्रोजन की साध्यता, व्यवहार्यता और लाभों को प्रदर्शित करने के साथ-साथ चुनौतियों एवं अंतरालों की पहचान करने में मदद कर सकती हैं।
  • इन परियोजनाओं से मिली सीख और परिणामों के आधार पर भारत इस्पात संयंत्रों में हरित हाइड्रोजन के उपयोग को बढ़ा सकता है।
  • निवेश और सहयोग वृद्धि: भारत को हरित हाइड्रोजन परियोजनाओं में सार्वजनिक और निजी निवेश बढ़ाने के साथ-साथ सरकार, उद्योग, शिक्षा एवं नागरिक समाज जैसे विभिन्न हितधारकों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। भारत अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन एवं मिशन इनोवेशन जैसी अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी और पहल के माध्यम से संबद्ध क्षेत्र में प्रगति कर सकता है।
  • अनुसंधान एवं विकास और नवाचार क्षमता में वृद्धि: भारत को हरित हाइड्रोजन के क्षेत्र में अपने अनुसंधान एवं विकास (R&D) और नवाचार क्षमताओं में वृद्धि करने की आवश्यकता है जिसमें उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करना, स्टार्टअप्स व उद्यमियों का समर्थन करना एवं प्रौद्योगिकी हस्तांतरण तथा प्रसार की सुविधा प्रदान करना शामिल है।

अनुपूरक पाठन: ग्रीन हाइड्रोजन: भारत में अपनाने हेतु सक्षम उपाय रोडमैप, राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, भारत के हरित हाइड्रोजन पहल के नुकसान

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रश्न. हाइड्रोजन ईंधन सेल वाहन "निकास" के रूप में निम्नलिखित में से एक का उत्पादन करते हैं: (2010)

(a) NH3
(b) CH4
(c) H2O 
(d) H2O2

उत्तर: c

व्याख्या:

  • ईंधन सेल एक उपकरण है जो रासायनिक ऊर्जा (आणविक बंधनों में संग्रहीत ऊर्जा) को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है।
  • यह ईंधन के रूप में हाइड्रोजन गैस (H2) और ऑक्सीजन गैस (O2) का उपयोग करता है एवं सेल में अभिक्रिया के उपरांत उत्पाद जल (H2O), विद्युत और ऊष्मा हैं।
  • यह आंतरिक दहन इंजन, कोयला जलाने वाले विद्युत संयंत्रों और परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में एक बड़ा सुधार है, जो सभी हानिकारक उपोत्पाद उत्पन्न करते हैं। अतः विकल्प (c) सही है।


जैव विविधता और पर्यावरण

वर्ष 2030 तक वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करना

प्रिलिम्स के लिये:

वर्ष 2030 तक वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करना, नवीकरणीय ऊर्जा, पक्षकारों का सम्मेलन(COP) 28, वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन

मेन्स के लिये:

वर्ष 2030 तक वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करना, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में थिंक टैंक क्लाइमेट एनालिटिक्स द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट, जिसका शीर्षक ‘ट्रिप्लिंग रिनेवेबल्स बाय 2030: इंटरप्रेटिंग द ग्लोबल गोल ऐट द रीज़नल लेवल’ है, में 1.5o सेल्सियस के लक्ष्य के साथ संरेखित करने के लिये क्षेत्रीय स्तर पर वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता निर्माण एवं संबद्ध निवेश आवश्यकताओं को रेखांकित किया गया है। 

  • पक्षकारों का सम्मेलन (COP) 28 में विभिन्न देश की सरकारों ने वर्ष 2030 तक वैश्विक नवीकरणीय क्षमता को तीन गुना करने पर सहमति व्यक्त की। यह ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की दिशा में संभवतः प्रमुखतम कार्रवाई है।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • 1.5o सेल्सियस के लक्ष्य के साथ संरेखित करने के लिये नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करना: 
    • पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5°C लक्ष्य के साथ संरेखित करने के लिये वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को वर्ष 2022 के स्तर से 3.4 गुना अधिक, यानी वर्ष 2030 तक 11.5 टेरावाट(TW) तक बढ़ाने की आवश्यकता है
    • इसे प्राप्त करने के लिये विभिन्न देशों ने इस संबंध में अपनी वर्तमान नवीकरणीय क्षमता के सापेक्ष अलग-अलग संभावनाएँ जताई हैं, मुख्यतः जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की दर एवं भविष्य में विद्युत की मांग पर आधारित है

  • क्षेत्रीय सहयोग:
    • एशियाई क्षेत्र: वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर आवश्यक 8.1 TW अतिरिक्त नवीकरणीय क्षमता का लगभग आधा (47%) एशिया से आने के साथ इस क्षेत्र का समग्र योगदान सर्वाधिक है।
      • एशिया एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जो आमतौर पर वर्ष 2030 तक 1.5ºC के अनुरूप नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने की दिशा में अग्रसर है।
        • इसका प्रमुख कारण चीन और भारत में हो रहा विकास है, जो दक्षिण कोरिया जैसे अन्य देशों, जहाँ नवीकरणीय क्षमता का विकास संपूर्ण क्षेत्र की तुलना में आधी दर से बढ़ने की उम्मीद है, को संतुलित करता है, ।
    • हालाँकि, चीन और भारत में कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों के निर्माण की होड़ एक बड़ी चिंता का विषय है। यदि यह जारी रहा, तो यह 1.5ºC संरेखित विद्युत क्षेत्र संक्रमण को खतरे में डाल सकता है।
    • OECD: OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) लगभग एक तिहाई (36%) वैश्विक क्षमता वृद्धि का अगला सबसे बड़ा हिस्सा प्रदान करता है।
    • बिजली की मांग में कम वृद्धि और 2022 में स्थापित मौजूदा नवीकरणीय क्षमता के उच्च स्तर के कारण क्षेत्र में नवीकरणीय ऊर्जा 3.1x की धीमी दर पर है।
    • आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD): वैश्विक क्षमता वृद्धि में लगभग एक तिहाई (36%) के योगदान के साथ अगली सबसे बड़ी हिस्सेदारी OECD की है।
      • विद्युत की मांग में अपर्याप्त वृद्धि और वर्ष 2022 में संस्थापित मौजूदा नवीकरणीय क्षमता के उच्च स्तर के कारण इस क्षेत्र में नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता निर्माण की दर धीमी (3.1x) है।
    • उप-सहारा अफ्रीका: मौजूदा नवीकरणीय क्षमता के निम्न स्तर और उच्च ऊर्जा आवश्यकताओं के कारण उप-सहारा अफ्रीका को नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को 6.6 गुना तेज़ गति से बढ़ाने की आवश्यकता है।
      • उप-सहारा अफ्रीका में इतनी तेज़ी से नवीकरणीय ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिये काफी उन्नत अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त की आवश्यकता होगी।
        • इस क्षेत्र में वर्ष 2020-2030 के बीच विद्युत की मांग प्रति-व्यक्ति 66% तक बढ़ने का अनुमान है, जिसके परिणामस्वरूप नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता निर्माण दर वैश्विक औसत से दोगुनी हो जाएगी।
  • निवेश आवश्यकताएँ:
    • 1.5°C तापमान के अनुरूप लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वर्ष 2030 तक विद्युत प्रणाली में 12 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता है अर्थात् वर्ष 2024 से प्रतिवर्ष औसतन 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश आवश्यक होगा।
    • इस निवेश का दो-तिहाई हिस्सा नवीकरणीय प्रतिष्ठानों के लिये आवंटित किया जाएगा, जबकि शेष ग्रिड और भंडारण संबंधी बुनियादी ढाँचे के लिये आवश्यक होगा।
  • निवेश अंतराल और संभावित समाधान:
    • निवेश में काफी अंतराल विद्यमान है, विश्व 2024-2030 तक आवश्यक निवेश से 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर कम निवेश कर पाएगा।
    • जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय और ग्रिड में निवेश को स्थानांतरित कर इस अंतराल को पूरी तरह से समाप्त किया जा सकता है, जिससे विद्युत क्षेत्र 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के साथ संरेखित करने में सहायता मिलेगी।
  • चुनौतियाँ और तात्कालिकता:
    • उप-सहारा अफ्रीका को निवेश और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन की कमी के कारण महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे लाखों लोगों को नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों से वंचित होने का जोखिम है।
    • COP28 प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिये वित्त जुटाने और अल्प समृद्ध क्षेत्रों में नवीकरणीय ऊर्जा के परिनियोजन का समर्थन करने के लिये तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
  • नीति संबंधी सिफारिशें:
    • नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ाने के अतिरिक्त, सरकारों को उत्सर्जन को प्रभावी ढंग से कम करने के लिये जीवाश्म ईंधन हेतु सार्वजनिक समर्थन और सब्सिडी को समाप्त करना चाहिये।
    • लक्ष्य की दिशा में प्रयासों का मार्गदर्शन करने के लिये, सरकारों को निवेश और जलवायु वित्त आवश्यकताओं पर एक स्पष्ट मार्ग निर्देश व जानकारी की आवश्यकता होती है, जबकि नागरिक समाज को सरकारों को ध्यान में रखने के लिये मानदंड की आवश्यकता होती है।

स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन की दिशा में भारतीय पहल क्या हैं?

  • भारत ने वर्ष 2030 तक 450 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा (RE) क्षमता वृद्धि और 43% नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व सहित 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों के साथ स्वच्छ ऊर्जा के प्रति प्रतिबद्धता का संकेत दिया है।
  • नेट ज़ीरो लक्ष्य:
    • भारत ने वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन तक पहुँचने का महत्त्वाकांक्षी दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित किया है।
    • अगस्त 2022 में, भारत ने वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा स्रोतों से 50% संचयी विद्युत स्थापित क्षमता प्राप्त करने के अपने लक्ष्य को प्रतिबिंबित करने के लिये पेरिस समझौते के तहत अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) का अद्यतन किया।
  • ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2022:
    • अगस्त 2022 में, लोकसभा ने ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2022 पारित किया, जिसका उद्देश्य उद्योगों में ऊर्जा और फीडस्टॉक के लिये हरित हाइड्रोजन, हरित अमोनिया, जैवईंधन एवं इथेनॉल सहित गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों के उपयोग को अनिवार्य करना है।
    • यह विधेयक केंद्र सरकार को कार्बन बाज़ार स्थापित करने का अधिकार भी देता है।
भारत के जलवायु लक्ष्य : पहले से विद्यमान और नए
लक्ष्य (वर्ष 2030 के लिये) पहले से मौजूद: प्रथम NDC (2015) नया: अद्यतन NDC (2022) प्रगति
उत्सर्जन प्रबलता
में कमी
वर्ष 2005 के स्तर से 33-35 प्रतिशत 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत

वर्ष 2016 में ही 24 प्रतिशत की कमी हासिल की गई। 30 प्रतिशत तक पहुँचने का अनुमान

स्थापित विद्युत क्षमता में गैर-जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी

40 प्रतिशत 50 प्रतिशत

विगत वर्ष जून के अंत तक 41.5

कार्बन सिंक वनीकरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन अतिरिक्त सिंक का निर्माण पूर्व की भाँति स्पष्ट नहीं

और पढ़ें: IEA की इलेक्ट्रिसिटी 2024 रिपोर्ट, इंडियन ऑयल मार्केट आउटलुक 2030: IEA

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. वर्ष 2015 में पेरिस में UNFCCC बैठक में हुए समझौते के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2016) 

  1. इस समझौते पर UN के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किये और यह वर्ष 2017 से लागू होगा।
  2. यह समझौता ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को सीमित करने का लक्ष्य रखता है जिससे इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान की वृद्धि उद्योग-पूर्व स्तर से 2°C या कोशिश् करें कि 15° C से भी अधिक न होने पाए।
  3. विकसित देशों ने वैश्विक तापन में अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को स्वीकारा और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये विकासशील देशों की सहायता के लिये 2020 से प्रतिवर्ष 1000 अरब डॉलर देने की प्रतिबद्धता जताई।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उतर चुनिये:

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर:(b)

मेन्स:

प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के सी.ओ.पी. के 26 वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं? (2021)


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

उत्तरी आयरलैंड संघर्ष

प्रिलिम्स के लिये:

उत्तरी आयरलैंड संघर्ष, गणतंत्रवादी और संघवादी, प्रथम विश्व युद्ध, गुड फ्राइडे समझौता

मेन्स के लिये:

उत्तरी आयरलैंड संघर्ष, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और भारत पर प्रभाव

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक आयरिश एकीकरण समर्थक नेता ने राजनीतिक गतिरोध के बावजूद, इस क्षेत्र के गहन विभाजन को दर्शाते हुए, उत्तरी आयरलैंड के पहले राष्ट्रवादी प्रथममंत्री के रूप में पद ग्रहण करके इतिहास रच दिया।

  • इस निर्णय से सुलह और समावेशी प्रशासन की ओर एक बदलाव की शुरुआत की जा सकती है।

उत्तरी आयरलैंड कैसे अस्तित्व में आया?

  • 'द ट्रबल्स':
    • उत्तरी आयरलैंड 30 वर्ष के गृहयुद्ध (1968-1998) का स्थल था, जिसे रिपब्लिकन और संघवादियों के बीच 'द ट्रबल्स' के रूप में जाना जाता था, जिसमें 3,500 से अधिक लोग मारे गए थे। 
    • इसका एक धार्मिक पहलू भी था, जिसमें रिपब्लिकन ज्यादातर कैथोलिक थे और संघवादी बड़े पैमाने पर प्रोटेस्टेंट थे।
    • उत्तरी आयरलैंड पूर्व में उल्स्टर प्रांत का हिस्सा था, जो आधुनिक आयरलैंड के उत्तर में स्थित है। 
  • प्रोटेस्टेंट और आयरिश कैथोलिकों के बीच संघर्ष:
    • प्रोटेस्टेंट और आयरिश कैथोलिकों के बीच संघर्ष की जडें 1609 तक पहुँची, जब किंग जेम्स-I ने प्रवास की एक आधिकारिक नीति शुरू की, जिसमें इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के लोगों को अपने विभिन्न बागानों में काम करने के लिये उल्स्टर जाने के लिये प्रोत्साहित किया गया। 
    • प्रोटेस्टेंट और कैथोलिकों के बीच उस समय यूरोप के अधिकांश भागों में जो धार्मिक युद्ध चल रहा था, उल्स्टर ने भी उसका अनुभव किया। 
    • हालाँकि, एक बहुत मज़बूत प्रतिरोध धीरे-धीरे बढ़ रहा था, उस समय आयरलैंड इंग्लैंड के शासन के अधीन था। 
  • औपनिवेशिक अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ प्रतिरोध:
    • औपनिवेशिक अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध, विशेष रूप से 1845 के आलू के अकाल के बाद, जहाँ बीमारी एवं भुखमरी के कारण 1 मिलियन से अधिक आयरिश लोग मारे गए, ने इन सांप्रदायिक और धार्मिक मतभेदों को मज़बूत किया।
    • अंत में, 1916 में, प्रथम विश्व युद्ध के मध्य में, ईस्टर सप्ताह के दौरान, आयरलैंड ने आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (IRA) के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ युद्ध शुरू किया। 
  • उत्तरी आयरलैंड का गठन:
    • एक रक्तिम संघर्ष के बाद, यह वर्ष 1921 की आंग्ल-आयरिश संधि के साथ इंग्लैंड से स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम था।
    • यद्यपि, आयरलैंड दो क्षेत्रों में विभाजित हो गया था। चूँकि उल्स्टर में प्रोटेस्टेंट बहुमत में थे, आयरलैंड की 32 काउंटियों में से छह ब्रिटेन के साथ रहीं, जिससे उत्तरी आयरलैंड का क्षेत्र बना।

उत्तरी आयरलैंड में राजनीतिक गतिरोध की पृष्ठभूमि क्या है?

  • उत्तरी आयरलैंड में राजनीतिक गतिरोध ब्रेक्सिट के बाद ब्रिटेन और आयरलैंड द्वीप के बीच सीमा नियंत्रण के कार्यान्वयन पर असहमति से उत्पन्न हुआ।
  • जब संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) ने यूरोपीय संघ छोड़ दिया, तो संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) के हिस्से के रूप में उत्तरी आयरलैंड, यूरोपीय संघ के सदस्य राज्य, आयरलैंड गणराज्य के साथ भूमि सीमा वाला एकमात्र प्रांत बन गया।
  • इस मुद्दे को संबोधित करने के लिये, संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) और यूरोपीय संघ ने ब्रेक्सिट समझौते के हिस्से के रूप में उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकॉल तैयार किया। इस प्रोटोकॉल का उद्देश्य व्यापार सीमा को आयरिश बंदरगाहों में स्थानांतरित करके, उत्तरी आयरलैंड और शेष संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) के बीच प्रभावी ढंग से एक समुद्री सीमा बनाकर उत्तरी आयरलैंड तथा आयरलैंड गणराज्य के बीच एक दुरूह सीमा के पुन: परिचय को रोकना था।
  • हालाँकि, यह व्यवस्था विवादास्पद थी, विशेष रूप से डेमोक्रेटिक यूनियनिस्ट पार्टी (DUP) के लिये, जिसने ब्रिटेन के भीतर उत्तरी आयरलैंड की स्थिति को कमज़ोर करने और गुड फ्राइडे समझौते के सिद्धांतों का उल्लंघन करने पर आपत्ति जताई थी।
    • उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकॉल पर DUP की आपत्ति के कारण उन्हें सत्ता-साझाकरण सरकार से हटना पड़ा, क्योंकि उनका मानना था कि प्रोटोकॉल ने संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) के भीतर उत्तरी आयरलैंड की स्थिति को खतरे में डाल दिया है और गुड फ्राइडे समझौते के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, जिसमें सीमापार माल तथा लोगों की मुक्त आवाजाही पर ज़ोर दिया गया है। 
  • अंततः गतिरोध का समाधान सीमा नियंत्रण और संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) के भीतर उत्तरी आयरलैंड की स्थिति के संबंध में आश्वासनों पर पुनर्विचार के माध्यम से आया, जिससे DUP सरकार में लौटने के लिये सहमत हो गई।

गुड फ्राइडे समझौता क्या है?

  • परिचय:
    • बेलफास्ट समझौते के रूप में प्रचलित गुड फ्राइडे समझौता उत्तरी आयरलैंड में 10 अप्रैल, 1998 को हस्ताक्षरित एक ऐतिहासिक शांति संधि है।
    • इसका उद्देश्य दशकों से इस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले हिंसा और संघर्ष को समाप्त करना था, विशेषकर उस अवधि के दौरान जिसे "द ट्रबल" के रूप में जाना जाता था।
  • प्रमुख प्रावधान:
    • शक्ति का साझाकरण: इस समझौते ने उत्तरी आयरलैंड में एक विकसित सरकार की स्थापना की, जिसमें शक्तियाँ संघवादियों (जो आम तौर पर चाहते थे कि उत्तरी आयरलैंड यूनाइटेड किंगडम का हिस्सा बना रहे) और गणतंत्रवादियों (जो आम तौर पर आयरलैंड के साथ पुनरेकीकरण चाहते हैं) के बीच साझा की गई। इस शक्ति-साझाकरण व्यवस्था का उद्देश्य उत्तरी आयरलैंड की शासन व्यवस्था में दोनों समुदायों की भूमिका सुनिश्चित करना था।
    • सहमति सिद्धांत: इसने सहमति के सिद्धांत को मान्यता दी, जिसका अर्थ है कि उत्तरी आयरलैंड की दर्जे में यहाँ के अधिकांश लोगों की सहमति के बिना कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। इस प्रावधान ने जनमत संग्रह के माध्यम से आयरलैंड के साथ पुनरेकीकरण की संभावना को बल दिया, लेकिन यह केवल तभी संभव था जब उत्तरी आयरलैंड के अधिकांश लोग इसके पक्ष में हों।
    • मानवाधिकार: इस समझौते में उत्तरी आयरलैंड के सभी नागरिकों (किसी भी पृष्ठभूमि अथवा राजनीतिक मान्यता वाले) के लिये मानवाधिकार और समता के महत्त्व पर विशेष बल दिया गया।
    • हथियारों पर पाबंदी लगाना: हालाँकि, इस समझौते में स्पष्ट रूप से अर्द्धसैनिक समूहों के तत्काल निरस्त्रीकरण को अनिवार्य नहीं किया गया था, लेकिन इसने इस प्रकार के समूहों द्वारा रखे गए हथियारों पर पाबंदी लगाने की एक प्रक्रिया निर्धारित की। समझौते के अन्य पहलुओं तथा इस प्रक्रिया का कार्यान्वयन एक साथ होना था।
    • सीमा-पार सहयोग: समझौते ने उत्तरी आयरलैंड और आयरलैंड गणराज्य के साथ-साथ यू.के. व आयरलैंड के बीच व्यापक रूप से सहयोग एवं सामंजस्य को प्रोत्साहित किया। इसने सीमा-पार आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा दिया, जबकि दोनों राज्यों की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता को भी मान्यता दी।

उत्तरी आयरलैंड के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • अवस्थिति और भूगोल: उत्तरी आयरलैंड, आयरलैंड द्वीप के उत्तरपूर्वी चतुर्थांश में अवस्थित है। यह दक्षिण और पश्चिम में आयरलैंड गणराज्य के साथ सीमा साझा करता है, जबकि आयरिश सागर इसे पूर्व और दक्षिण-पूर्व में इंग्लैंड तथा वेल्स से अलग करता है एवं उत्तरी चैनल इसे स्कॉटलैंड से उत्तर-पूर्व में अलग करता है। 
  • राजनीतिक स्थिति: उत्तरी आयरलैंड इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स के साथ संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) का एक घटक देश है। यह एक संप्रभु राज्य नहीं है बल्कि संयुक्त राष्ट्र (ब्रिटेन) के ढाँचे के भीतर इसकी अपनी विकसित सरकार है।
  • राजधानी और प्रमुख शहर: उत्तरी आयरलैंड की राजधानी बेलफास्ट है, जो जहाज़ निर्माण सहित समृद्ध औद्योगिक इतिहास रखने वाला एक आधुनिक शहर है। अन्य प्रमुख शहरों में लंदनडेरी (जिसे डेरी के नाम से भी जाना जाता है) और अर्माघ शामिल हैं।
  • सांस्कृतिक योगदान: उत्तरी आयरलैंड ने विश्व संस्कृति, विशेषकर साहित्य, संगीत और कला में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उल्लेखनीय हस्तियों में कवि सीमस हेनी और संगीतकार वान मॉरिसन शामिल हैं।
  • अर्थव्यवस्था: ऐतिहासिक रूप से जहाज़ निर्माण और कपड़ा जैसे उद्योगों पर निर्भर, उत्तरी आयरलैंड की अर्थव्यवस्था हाल के दशकों में प्रौद्योगिकी, पर्यटन एवं सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करने के साथ विविधतापूर्ण हो गई है।
  • जनसांख्यिकी: उत्तरी आयरलैंड की जनसंख्या जातीयता, धर्म और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के मिश्रण के साथ विविध है। इस क्षेत्र की जनसंख्या मुख्य रूप से ईसाई है, जिसमें मुख्य रूप से प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक समुदाय निवास करते हैं।

निष्कर्ष:

  • गुड फ्राइडे समझौते की सफलता सभी हितधारकों के मतभेदों को दूर करने, विविधता को अपनाने तथा आपसी सम्मान और समझ पर आधारित साझा भविष्य का निर्माण करने की क्षमता पर निर्भर करेगी। केवल शांति और सामंजस्य के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता के माध्यम से ही उत्तरी आयरलैंड एक ऐसे समाज के रूप में अपनी क्षमता का पूरी तरह से अनुभव कर सकता है जो समृद्धि एवं एकता की दिशा में एक मार्ग प्रशस्त करते हुए अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का उत्सव मनाता है।

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