विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
नाइट्रोजन उपयोग दक्षता और बायोफोर्टिफिकेशन
प्रिलिम्स के लिये:नाइट्रोजन, नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE), उच्च उत्पादकता किस्में , नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), अमोनिया प्रदूषण, ओज़ोन क्षरण, जलवायु परिवर्तन, मृत क्षेत्र, शैवाल प्रस्फुटन, भू-स्तरीय ओज़ोन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR), CR धान 416, ड्यूरम गेहूँ किस्म, बायोफोर्टिफिकेशन, पोषक तत्त्व घनत्व, जैव प्रौद्योगिकी, कोपेनहेगन सहमति मेन्स के लिये:भारत में पोषण सुरक्षा को पूरा करने में बायोफोर्टिफिकेशन खाद्य पदार्थों का महत्त्व और संबंधित चुनौतियाँ। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बायोफोर्टिफिकेशन ने लोकप्रिय भारतीय चावल किस्मों के बीच नाइट्रोजन उपयोग दक्षता में महत्त्वपूर्ण भिन्नता पाई है, जिससे उर्वरक लागत में कटौती और प्रदूषण को कम करने के लिये उच्च उत्पादकता वाली, कम नाइट्रोजन वाली किस्मों का विकास संभव हो पाया है। सबसे कुशल किस्मों की नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (Nitrogen Use Efficiency- NUE) सबसे कम कुशल किस्मों की तुलना में पाँच गुना अधिक थी।
- एक अन्य घटनाक्रम में भारत के प्रधानमंत्री ने कृषि उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने के लिये भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research- ICAR) द्वारा विकसित 109 उच्च उत्पादकता वाली, जलवायु-अनुकूल, बायोफोर्टिफाइड बीज किस्मों को लॉन्च किया।
नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE) क्या है?
- परिचय:
- इसका उपयोग बायोमास उत्पादन के लिये प्रयुक्त या स्थिर नाइट्रोजन का उपयोग करने में संयंत्र की दक्षता का वर्णन करने हेतु किया जाता है।
- इसे फसल की उपज और जड़ों के माध्यम से मिट्टी से या बैक्टीरिया द्वारा स्थिरीकरण के माध्यम से, वातावरण से अवशोषित नाइट्रोजन की मात्रा के बीच के अनुपात के रूप में भी परिभाषित किया जाता है।
- अनाजों विशेषकर चावल में NUE, कृषि स्थिरता में एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
- चिंताएँ:
- नाइट्रोजन उपयोग दक्षता अपर्याप्त होने के कारण भारत में प्रतिवर्ष 1 लाख करोड़ रुपए तथा विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 170 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक मूल्य के नाइट्रोजन उर्वरक बर्बाद होते हैं।
- नाइट्रोजन उर्वरक वायु में नाइट्रस ऑक्साइड और अमोनिया प्रदूषण तथा जल में नाइट्रेट/अमोनियम प्रदूषण का मुख्य स्रोत हैं, जो हमारे स्वास्थ्य, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करते हैं।
- भारत विश्व में नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है, जो एक ग्रीनहाउस गैस है, जो कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में वायुमंडल को कहीं अधिक गर्म करती है।
- वर्ष 2020 में ऐसे वैश्विक मानव निर्मित उत्सर्जन का लगभग 11% भारत से था, जो चीन (16%) से दूसरे स्थान पर था। इन उत्सर्जनों का प्रमुख स्रोत उर्वरक का उपयोग है।
नाइट्रोजन प्रदूषण क्या है?
- परिचय:
- नाइट्रोजन प्रदूषण तब होता है जब अमोनिया और नाइट्रस ऑक्साइड जैसे कुछ नाइट्रोजन यौगिक पर्यावरण में अत्यधिक मात्रा में हो जाते हैं, जिससे स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो जाता है।
- पिछले 150 वर्षों में मानव-चालित प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन का प्रवाह दस गुना बढ़ गया है, जिससे अप्रयुक्त प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन का खतरनाक संचयन हो रहा है।
- उर्वरक के रूप में नाइट्रोजन का फसलों द्वारा उपयोग सीमित है। प्रतिवर्ष 200 मिलियन टन प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन (80%) पर्यावरण में नष्ट हो जाता है, मिट्टी, नदियों और झीलों में रिस जाता है तथा हवा में उत्सर्जित होता है।
- परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र अत्यधिक समृद्ध हो जाता है, जैव विविधता नष्ट हो जाती है और मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कुछ रूपों में यह ओज़ोन क्षरण और जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है।
- प्रभाव:
- जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत:
- ग्रीनहाउस गैस के रूप में नाइट्रस ऑक्साइड मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड से 300 गुना अधिक शक्तिशाली है।
- यह ओज़ोन परत के लिये सबसे बड़ा मानव निर्मित खतरा भी है।
- जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र:
- नाइट्रोजन प्रदूषण मृदा को निम्नीकृत कर सकता है। सिंथेटिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी को अम्लीय बनाता है, जिससे मृदा का स्वास्थ्य निम्नीकृत होता है और मृदा की उत्पादकता कम होती है।
- इसके कारण वृक्षों और घास के मैदानों या नाइट्रोजन सहनशील प्रजातियों में अनजाने में निषेचन हो सकता है, जिससे अधिक संवेदनशील जंगली पौधे और कवक प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ सकते हैं।
- नाइट्रोजन प्रदूषण से समुद्र में “मृत क्षेत्र” बन सकते हैं और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में विषाक्त शैवाल प्रस्फुटन फैल सकता है।
- वायु:
- कोयला विद्युत संयंत्रों से निकलने वाले उत्सर्जन और वाहनों से निकलने वाले धुएँ से उत्पन्न नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा धुंध ज़मीनी स्तर पर ओज़ोन का कारण बन सकते हैं।
- कृषि से निकलने वाले अमोनिया उत्सर्जन और वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण के कारण हवा में अत्यंत खतरनाक कण उत्पन्न होते हैं, जो श्वसन संबंधी बीमारियों को बढ़ा सकते हैं।
- जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत:
ICAR द्वारा विकसित बायोफोर्टिफाइड बीज किस्में कौन-कौन सी हैं?
- परिचय: हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा लॉन्च की गई बायोफोर्टिफाइड बीज किस्मों में 61 फसलें शामिल हैं, जिनमें 34 खेत की फसलें और 27 बागवानी किस्में हैं।
- फसल किस्में: अनाज, बाजरा, चारा फसलें, तिलहन, दालें, गन्ना, कपास और रेशा फसलें।
- बागवानी: फल, सब्जियाँ, बागान फसलें, कंद, मसाले, फूल और औषधीय पौधे।
- कुछ उदाहरण:
- CR धान 416: यह चावल की किस्म तटीय लवणीय क्षेत्रों के लिये आदर्श है। यह भूरे धब्बे, नेक ब्लास्ट (Neck Blast), आच्छद विगलन (Sheath Rot), चावल टंग्रो रोग और ग्लूम विवर्णता के लिये मध्यम प्रतिरोधी है, इसके अलावा भूरा पौधा हॉपर, टिड्डा और स्टेम बोरर हेतु पूर्ण प्रतिरोध प्रदान करता है।
- ड्यूरम गेहूँ की किस्म: यह सिंचित परिस्थितियों के लिये अनुकूल है जो महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के मैदानी इलाकों हेतु उपयुक्त है। यह टर्मिनल गर्मी के प्रति सहनशील है, तने और पत्ती के जंग के प्रति प्रतिरोधी है, और जिंक (41.1 पीपीएम) और आयरन (38.5 ppm) के उच्च स्तर के साथ बायोफोर्टिफाइड है। इसमें 12% प्रोटीन भी होता है।
- बायोफोर्टिफिकेशन के संदर्भ में:
- बायोफोर्टिफिकेशन वह प्रक्रिया है जिसके तहत खाद्य फसलों में पोषक तत्त्वों की सघनता/सांद्रता को पारंपरिक पादप प्रजनन, उन्नत कृषि पद्धतियों और आधुनिक जैव-प्रौद्योगिकी के माध्यम से उपभोक्ताओं द्वारा वांछित किसी भी विशेषता का त्याग किये बिना बढ़ाया जाता है।
- इसे पोषण-संवेदनशील-कृषि हस्तक्षेप के रूप में मान्यता प्राप्त है जो विटामिन और खनिज की कमी को कम कर सकता है।
- बायोफोर्टिफिकेशन परियोजनाओं के उदाहरणों में शामिल हैं:
- चावल, सेम, शकरकंद, कसावा और फलियों का आयरन-बायोफोर्टिफिकेशन;
- गेहूँ, चावल, सेम, शकरकंद और मक्का का ज़िंक-बायोफोर्टिफिकेशन;
- शकरकंद, मक्का और कसावा का प्रो-विटामिन A कैरोटीनॉयड-बायोफोर्टिफिकेशन; और
- ज्वार और कसावा का एमिनो एसिड और प्रोटीन-बायोफोर्टिफिकेशन।
- बायोफोर्टिफिकेशन की आवश्यकता:
- कुपोषण: भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का स्तर बहुत अधिक है। वर्ष 2019-21 NFHS-5 के अनुसार, 15-49 आयु वर्ग की 57% महिलाएँ और 6 से 59 महीने के बीच के 67% बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। आयरन, विटामिन A और आयोडीन की कमी सबसे आम है।
- बायोफोर्टिफिकेशन पोषक तत्त्वों की कमी को पूरा करके ‘कुपोषण’ और 'प्रच्छन्न भुखमरी’ की घटनाओं को कम करने में मदद कर सकता है।
- रोग प्रतिरोधक: बायोफोर्टिफाइड फसलें प्रायः कीटों, बीमारियों, उच्च तापमान और अनावृष्टि के प्रति अधिक आघात सह होती हैं, साथ ही इनकी पैदावार भी उच्च होती हैं।
- संधारणीय: एक बार बायोफोर्टिफाइड बीज विकसित हो जाने के बाद, उन्हें सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की सांद्रता खोए बिना पुनरुत्पादित और वितरित किया जा सकता है, जिससे वे लागत प्रभावी एवं संधारणीय बन जाते हैं।
- व्यवहार में कोई बदलाव की आवश्यकता नहीं: यह लोगों की खाद्य आदतों या सांस्कृतिक प्रथाओं में बदलाव किये बिना पोषक तत्त्वों को सहजता से वितरण सुनिश्चित करता है, जिससे यह सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य उपागम बन जाता है।
- लागत प्रभावी: मौजूदा तकनीक और वितरण प्लेटफॉर्म का उपयोग करके बायोफोर्टिफिकेशन लागत प्रभावी सिद्ध हुआ है। कोपेनहेगन कॉन्सेंसस का अनुमान है कि फोर्टिफिकेशन पर खर्च किये गए प्रत्येक 1 रुपए से अर्थव्यवस्था को 9 रुपए का लाभ होता है।
- कुपोषण: भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का स्तर बहुत अधिक है। वर्ष 2019-21 NFHS-5 के अनुसार, 15-49 आयु वर्ग की 57% महिलाएँ और 6 से 59 महीने के बीच के 67% बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। आयरन, विटामिन A और आयोडीन की कमी सबसे आम है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न. जैव प्रौद्योगिकी खाद्य और पोषण सुरक्षा प्राप्त करने में किस प्रकार मदद कर सकती है? प्रश्न. जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके उगाए गए खाद्य उत्पादों से जुड़ी चुनौतियाँ कौन-सी हैं, जो भारत में इसके व्यापक रूप से अपनाए जाने में बाधा डालती हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2019)
फसल/जैव मात्रा के अवशेषों के दहन के कारण वायुमंडल में उपर्युक्त में से कौन-सी निर्मुक्त गैस होती हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत सरकार कृषि में 'नीम-लेपित यूरिया (Neem-coated Urea)' के उपयोग को क्यों प्रोत्साहित करती है? (2016) (a) मृदा में नीम तेल के निर्मुक्त होने से मृदा सूक्ष्मजीवों द्वारा नाइट्रोजन यौगिकीकरण बढ़ता है उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. अनुप्रयुक्त जैव-प्रौद्योगिकी में शोध तथा विकास-संबंधी उपलब्धियाँ क्या हैं ? ये उपलब्धियाँ समाज के निर्धन वर्गों के उत्थान में किस प्रकार सहायक होंगी ? (2021) प्रश्न. किसानों के जीवन मानकों को उन्नत करने के लिये जैव प्रौद्योगिकी किस प्रकार सहायता कर सकती है? (2019) प्रश्न. क्या कारण है कि हमारे देश में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अत्यधिक सक्रियता है? इस सक्रियता ने बायोफार्मा के क्षेत्र को कैसे लाभ पहुँचाया है? (2018) |
भारतीय राजनीति
समान नागरिक संहिता
प्रिलिम्स के लिये:समान नागरिक संहिता (UCC), राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, हिंदू लॉ, विधि आयोग मेन्स के लिये:भारतीय राजनीति में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का महत्त्व, समान नागरिक संहिता (UCC) की चुनौतियाँ एवं महत्त्व। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
78वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code- UCC) की मांग की तथा इसे धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता के रूप में संबोधित किया।
समान नागरिक संहिता क्या है?
- परिचय:
- समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में किया गया है, जो राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy- DPSP) का अंग है। अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि ‘‘राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’’
- हालाँकि इसका कार्यान्वयन सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है।
- गोवा भारत का एकमात्र राज्य है, जहाँ वर्ष 1867 के पुर्तगाली नागरिक संहिता के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू है।
- समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में किया गया है, जो राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy- DPSP) का अंग है। अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि ‘‘राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’’
- ऐतिहासिक संदर्भ:
- अंग्रेज़ों ने भारत में एक समान आपराधिक कानून स्थापित किये, लेकिन उन्होंने पारिवारिक कानूनों को उनकी संवेदनशील प्रकृति के कारण मानकीकृत करने से परहेज़ किया।
- बहस के दौरान संविधान सभा ने समान नागरिक संहिता पर चर्चा की थी लेकिन मुस्लिम सदस्यों ने सामुदायिक व्यक्तिगत कानूनों पर इसके प्रभाव के बारे में चिंता जताई तथा धार्मिक प्रथाओं के लिये सुरक्षा उपायों का प्रस्ताव रखा।
- दूसरी ओर के.एम. मुंशी, अल्लादी कृष्णस्वामी और बी.आर. अंबेडकर जैसे समर्थकों ने समानता को बढ़ावा देने के लिये समान नागरिक संहिता की समर्थन की।
- UCC पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय का रुख:
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम केस, 1985: न्यायालय ने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि “अनुच्छेद 44 एक मृत पत्र बन कर रह गया है” और इसके कार्यान्वयन का समर्थन किया।
- सरला मुद्गल बनाम भारत संघ, 1995 और जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ, 2003: न्यायालय ने UCC को लागू करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
- शायरा बानो बनाम भारत संघ, 2017: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि तीन तलाक की प्रथा असंवैधानिक है और मुस्लिम महिलाओं की गरिमा और समानता का उल्लंघन करती है।
- इसमें यह भी सुझाव दिया गया कि संसद को मुस्लिम विवाह और तलाक को विनियमित करने के लिये कानून पारित करना चाहिये।
- जोस पाउलो कॉउटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटिना परेरा केस, 2019: न्यायालय ने गोवा की प्रशंसा एक “उज्ज्वल उदाहरण” के रूप में की, जहाँ “समान नागरिक संहिता सभी पर लागू होती है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, सिवाय कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा के” और पूरे भारत में इसके कार्यान्वयन का आह्वान किया।
- विधि आयोग का रुख:
- वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान के नेतृत्व में 21वें विधि आयोग ने “पारिवारिक कानून में सुधार” पर एक परामर्श पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया कि “इस स्तर पर समान नागरिक संहिता का निर्माण न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है।”
UCC का महत्त्व क्या है?
- राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता:
- एकता को बढ़ावा देना: समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों के बीच साझा पहचान और अपनेपन की भावना पैदा करके राष्ट्रीय एकीकरण और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देगी।
- संघर्षों में कमी: इससे विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के कारण उत्पन्न होने वाले सांप्रदायिक और संप्रदायिक संघर्षों में कमी आएगी।
- संवैधानिक मूल्यों को कायम रखना: UCC सभी व्यक्तियों के लिये समानता, बंधुत्व और सम्मान के सिद्धांतों को सुदृढ़ करेगी।
- लैंगिक न्याय और समानता:
- समानता सुनिश्चित करना: UCC विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और भरण-पोषण में महिलाओं को समान अधिकार तथा दर्जा प्रदान करके लैंगिक भेदभाव एवं उत्पीड़न को दूर करेगी।
- यह महिलाओं को पितृसत्तात्मक और प्रतिगामी प्रथाओं को चुनौती देने के लिये सशक्त करेगी, जो उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
- समानता सुनिश्चित करना: UCC विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और भरण-पोषण में महिलाओं को समान अधिकार तथा दर्जा प्रदान करके लैंगिक भेदभाव एवं उत्पीड़न को दूर करेगी।
- कानूनी प्रणाली का सरलीकरण और युक्तिकरण:
- कानूनों को सरल बनाना: समान नागरिक संहिता विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों की जटिलताओं और विरोधाभासों को समाप्त करके कानूनी प्रणाली को सुव्यवस्थित और तर्कसंगत बनाएगी।
- कानूनी ढाँचे में सामंजस्य: यह विविध व्यक्तिगत कानूनों से उत्पन्न विसंगतियों और खामियों को दूर करके सिविल और आपराधिक कानूनों में सामंजस्य स्थापित करेगी।
- सुगम्यता में वृद्धि: UCC सामान्य जनता के लिये कानूनी प्रणाली को अधिक सुगम्य और समझने योग्य बनाएगी।
- पुरानी प्रथाओं का आधुनिकीकरण और सुधार:
- प्रथाओं का नवीनीकरण: समान नागरिक संहिता कुछ व्यक्तिगत कानूनों में पुरानी और प्रतिगामी प्रथाओं का आधुनिकीकरण और सुधार करेगी।
- हानिकारक प्रथाओं को समाप्त करना: यह मानव अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों के विपरीत प्रथाओं, जैसे तीन तलाक, बहुविवाह और बाल विवाह को समाप्त करेगी।
UCC के कार्यान्वयन में क्या चुनौतियाँ हैं?
- विविध व्यक्तिगत कानून: भारत के कई समुदाय विवाह, तलाक, विरासत और उत्तराधिकार के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं। इन विविध प्रथाओं को एक ही संहिता में समेटना एक बड़ी चुनौती है।
- धार्मिक संवेदनशीलताएँ: विभिन्न धार्मिक समुदायों की परंपराएँ और कानून गहराई से जुड़े हुए हैं।
- वे यह भी तर्क देते हैं कि UCC अनुच्छेद 25 के तहत उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा, जो अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है।
- राजनीतिक एवं सामाजिक विरोध: UCC को प्राय: राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है। पार्टियाँ एवं नेता चुनावी विचारों के आधार पर UCC का विरोध या समर्थन कर सकते हैं, जिससे असंगत नीतियाँ और साथ ही क्रियान्वयन में देरी हो सकती है।
- सामाजिक चिंताएँ: ऐसी आशंका है कि UCC पारंपरिक प्रथाओं को बाधित कर सकती है तथा सामाजिक अशांति उत्पन्न कर सकती है।
- विधायी एवं कानूनी बाधाएँ: एक व्यापक समान नागरिक संहिता तैयार करने के लिये व्यापक विधायी कार्य एवं विस्तृत कानूनी प्रारूपण के साथ-साथ विभिन्न कानूनों को संबोधित करने के लिये प्रशासनिक क्षमताओं की आवश्यकता होती है।
आगे की राह
- एकता एवं एकरूपता: समान नागरिक संहिता को भारत की बहुसंस्कृतिवाद को स्वीकार करना चाहिये और इसकी विविधता को बनाए रखना चाहिये, और साथ ही इस बात पर ज़ोर देना चाहिये कि एकता, एकरूपता से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- भारतीय संविधान सांस्कृतिक मतभेदों को दूर करने के लिये एकीकरणवादी तथा बहुसांस्कृतिक दोनों प्रकार के दृष्टिकोणों का समर्थन करता है।
- हितधारकों के साथ चर्चा एवं विचार-विमर्श: UCC के विकास एवं कार्यान्वयन में धार्मिक नेताओं, कानूनी विशेषज्ञों एवं सामुदायिक प्रतिनिधियों सहित व्यापक हितधारकों को शामिल करना आवश्यक है।
- यह सहभागिता सुनिश्चित करती है कि UCC विविध दृष्टिकोणों को प्रतिबिंबित करने के साथ-साथ सभी नागरिकों द्वारा इसे निष्पक्ष और वैध माना जाए।
- संतुलन बनाना: कानून निर्माताओं को उन प्रथाओं को हटाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये जो संवैधानिक मानकों के साथ संघर्ष करती हैं, साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिये कि सांस्कृतिक प्रथाएँ वास्तविक समानता और लैंगिक न्याय के सिद्धांतों के साथ संरेखित हों।
- समुदायों को अलग-थलग किये बिना सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील प्रथाओं को एक समान प्रणाली में शामिल करने के लिये एक बेहतर संतुलन बनाया जाना चाहिये।
- संवैधानिक परिप्रेक्ष्य: भारतीय संविधान सांस्कृतिक स्वायत्तता का समर्थन करने के साथ ही सांस्कृतिक समायोजन का लक्ष्य रखता है, जिसमें अनुच्छेद 29(1) सभी नागरिकों की विशिष्ट संस्कृतियों की रक्षा करता है।
- समुदायों को यह आकलन करना चाहिये कि क्या बहुविवाह एवं तलाक जैसी प्रथाएँ उनके सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हैं। उनका लक्ष्य एक न्यायपूर्ण संहिता बनाना होना चाहिये, जो समानता और न्याय को बढ़ावा दे।
- शिक्षा एवं जागरूकता: यह सुनिश्चित करना कि सभी नागरिक UCC के बारे में जागरूक हों, उसे समझें और साथ ही उसके प्रभावी कार्यान्वयन हेतु व्यापक पहुँच एवं शैक्षणिक प्रयासों की आवश्यकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: संपूर्ण भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने में प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों का किस प्रकार से प्रभावी समाधान किया जा सकता है? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारत के संविधान में निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त में से कौन-से गांधीवादी सिद्धांत हैं जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में परिलक्षित होते हैं? (a) केवल 1, 2 और 4 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. उन संभावित कारकों पर चर्चा कीजिये, जो भारत को अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने से रोकते हैं, जैसा कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में प्रदान किया गया है। (2015) |
सामाजिक न्याय
दलित उद्यमियों के द्वारा आय असमानता का सामना
प्रिलिम्स के लिये:दलित,अनुसूचित जनजाति (STs),अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती,भक्ति आंदोलन, नव-वैदांतिक आंदोलन, डॉ. बी.आर. अंबेडकर, अनुच्छेद 17 मेन्स के लिये:सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानताएँ, दलितों का सामाजिक उत्थान, दलितों के समक्ष चुनौतियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलूरू के एक अध्ययन के अनुसार, समान शिक्षा और सामाजिक पूंजी के स्तर के बावजूद भारत में दलित व्यवसाय मालिकों को अन्य हाशिए के समूहों की तुलना में आय के महत्त्वपूर्ण अंतर का सामना करना पड़ता है।
- अध्ययन में दलितों के आर्थिक परिणामों पर संस्थागत कलंक के प्रभाव को रेखांकित किया गया है, तथा उनकी व्यावसायिक आय में लगातार असमानताओं पर प्रकाश डाला गया है।
अध्ययन की मुख्य बातें क्या हैं?
- कार्य पद्धति: अध्ययन में भारत मानव विकास सर्वेक्षण (IHDS) 2011 के आँकड़ों का उपयोग किया गया है, जिसमें भारत के 373 ज़िलों के 42,000 से अधिक परिवारों को शामिल किया गया है, ताकि व्यवसाय-स्वामित्व वाले परिवारों के बीच आय असमानताओं का विश्लेषण किया जा सके।
- संस्थागत कलंक का प्रभाव
- अध्ययन में दलित व्यवसाय मालिकों द्वारा सामना किये जाने वाले विशिष्ट कलंक-संबंधी नकारात्मक प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है, जिनकी तुलना लैंगिक, जाति या जातीयता जैसी अन्य पहचान-आधारित चुनौतियों से नहीं की जा सकती।
- अध्ययन संस्थागत कलंक को उनके जनसांख्यिकीय समूह सदस्यता के आधार पर व्यक्तियों के प्रति पूर्वाग्रह और नकारात्मक धारणाओं के रूप में परिभाषित करता है, जो परस्पर जुड़े सामाजिक तंत्रों के माध्यम से समाज में विद्यमान है।
- दलित व्यवसाय मालिकों को उनकी ऐतिहासिक रूप से वंचित स्थिति के कारण निम्न आय स्तर का सामना करना पड़ता है, जो संसाधनों,अवसरों और व्यक्तिगत गरिमा तक उनकी पहुँच को प्रतिबंधित करता है, जिससे उनकी आर्थिक उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है।
- आय असमानताएँ: दलित व्यवसाय मालिकों को आय में काफ़ी अंतर का सामना करना पड़ता है, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), अनुसूचित जनजाति (STs) और मुसलमानों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों की तुलना में उनकी आय लगभग 16% कम है।
- शिक्षा, भूमि स्वामित्व, शहरी परिवेश और सामाजिक वातावरण जैसे कारकों को नियंत्रित करने पर भी यह आय अंतर बना रहता है।
- सामाजिक पूंजी: सामाजिक पूंजी लोगों के बीच संबंधों के नेटवर्क को संदर्भित करती है जो समाज या समुदाय को प्रभावी ढंग से कार्य करने में सक्षम बनाती है।
- सामाजिक पूंजी आम तौर पर नेटवर्क और संसाधनों तक पहुँच प्रदान करके व्यवसाय मालिकों को लाभान्वित करती है; हालाँकि, दलितों को अन्य वंचित समूहों की तुलना में इन नेटवर्क से काफी कम लाभ होता है।
- सामाजिक पूंजी में एक मानक विचलन वृद्धि के परिणामस्वरूप गैर-कलंकित समुदायों के लिये व्यावसायिक आय में 17.3% की वृद्धि होती है, लेकिन दलित परिवारों के लिये सिर्फ 6% की वृद्धि होती है।
- मानव पूंजी: मानव पूंजी का तात्पर्य ज्ञान, कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूल्यवान कारकों सहित व्यक्तिगत विशेषताओं से है, जो उत्पादन प्रक्रिया में योगदान करती है।
- अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि यद्यपि शिक्षा से दलितों को लाभ होता है, लेकिन यह कुप्रथाएँ के कारण होने वाली आय की हानि को दूर करने के लिये अपर्याप्त है।
- अध्ययन की सीमाएँ:
- अध्ययन में सामाजिक पूंजी की माप काफी सीमित है; इसमें केवल संबंधों को ही शामिल किया गया है, उनकी मात्रा या गुणवत्ता को नहीं।
- अध्ययन में वर्ष 2011 के डेटा का उपयोग किया गया है,जिससे वर्तमान आर्थिक गतिशीलता और जाति-आधारित आय असमानताओं में बदलाव का पूर्णरूप से मापन करना असंभव है। परिणामों की वर्तमान प्रासंगिकता का आकलन करने के लिये निष्कर्षों को नवीनतम डेटा के साथ पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता हो सकती है।
आय असमानताओं के निहितार्थ क्या हैं?
- पारंपरिक विचारों को चुनौती: अध्ययन उस पारंपरिक दृष्टिकोण को चुनौती देता है कि जाति की पहचान आय असमानता में योगदान करने वाले कई कारकों में से एक है, इसके स्थान पर यह दलितों द्वारा सामना किये जाने वाले अद्वितीय कुप्रथाएँ-संबंधी नुकसानों को उजागर करता है।
- निष्पक्ष आर्थिक प्रणालियों की आवश्यकता: परिणाम समतामूलक आर्थिक प्रणालियों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं, जिनकी सफलता किसी व्यक्ति की जन्म पहचान पर निर्भर नहीं होती।
- अध्ययन में दलित समुदायों द्वारा सामना किये जाने वाले भेदभाव की अंतर्निहित प्रक्रियाओं की गहन समझ की आवश्यकता निर्धारित की गई है।
- लक्षित हस्तक्षेप: अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि नीतिगत हस्तक्षेपों को दलितों द्वारा सामना की जाने वाली विशिष्ट कुप्रथाएँ-संबंधी चुनौतियों को समाधान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, न कि सार्वभौमिक रणनीतियों पर निर्भर रहना चाहिये जो आय के अंतर को प्रभावी रूप से कम नहीं कर सकती हैं।
- इन परिणामों से इस बात की अधिक जाँच का मार्ग प्रशस्त होता है कि कुप्रथाएँ आर्थिक परिणामों को किस प्रकार प्रभावित करता है, ताकि भारत में वंचित वर्गों को अधिक सहायता प्रदान की जा सके।
दलित कौन हैं?
- दलित, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से "अछूत" कहा जाता है, भारत में एक हाशिये पर स्थित समूह है जो पारंपरिक जाति पदानुक्रम में सबसे नीचे है। इस समूह को सदियों से प्रणालीगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक अभाव का सामना करना पड़ा है।
- भारत की आबादी में दलित समुदाय का लगभग 16.6% हिस्सा हैं। वे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में केंद्रित हैं।
- "दलित" शब्द का ऐतिहासिक विकास:
- "दलित" शब्द संस्कृत शब्द "दल" से निकला है, जिसका अर्थ है "ज़मीन", "दबाया हुआ" या "कुचल दिया हुआ।" इसका प्रयोग पहली बार 19वीं सदी के समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने जाति व्यवस्था से पीड़ित लोगों का वर्णन करने के लिये किया था।
- पूरे इतिहास में दलितों को कई नामों से जाना जाता रहा है, जिनमें अंत्यज, परिया और चांडाल शामिल हैं।
- महात्मा गांधी ने दलितों का वर्णन करने के लिये "हरिजन" (ईश्वर की संतान) शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि इसका उद्देश्य अधिक सम्मान देना था, लेकिन दलित नेताओं सहित कई लोगों ने इसे संरक्षणात्मक और अपर्याप्त रूप से सशक्त बनाने वाला पाया।
- "दलित" शब्द संस्कृत शब्द "दल" से निकला है, जिसका अर्थ है "ज़मीन", "दबाया हुआ" या "कुचल दिया हुआ।" इसका प्रयोग पहली बार 19वीं सदी के समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने जाति व्यवस्था से पीड़ित लोगों का वर्णन करने के लिये किया था।
- अनुसूचित जातियाँ: ब्रिटिश प्रशासन ने वर्ष 1935 में इन समूहों को आधिकारिक तौर पर "अनुसूचित जातियाँ" के रूप में मान्यता दी, जिससे कानूनी ढाँचे के भीतर उनकी स्थिति औपचारिक हो गई।
- वर्तमान में कानूनी तौर पर दलितों को भारत में अनुसूचित जाति के रूप में जाना जाता है और संविधान में प्रतिपूरक कार्यक्रमों के लिये इन जातियों की एक सूची अनिवार्य है। वर्तमान में भारत में लगभग 166.6 मिलियन दलित हैं।
- हालांकि इस सूची में ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरित दलितों को शामिल नहीं किया गया है, इसमें सिख धर्म अपनाने वाले लोग शामिल हैं।
- संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में कहा गया है कि केवल हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म को मानने वाले व्यक्ति ही अनुसूचित जाति के सदस्य माने जाते हैं।
- वर्तमान में कानूनी तौर पर दलितों को भारत में अनुसूचित जाति के रूप में जाना जाता है और संविधान में प्रतिपूरक कार्यक्रमों के लिये इन जातियों की एक सूची अनिवार्य है। वर्तमान में भारत में लगभग 166.6 मिलियन दलित हैं।
- दलित उत्पीड़न:
- जाति व्यवस्था: दलित उत्पीड़न की जड़ें जाति व्यवस्था की उत्पत्ति में निहित हैं, जैसा कि मनुस्मृति में वर्णित है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का एक हिंदू ग्रंथ है। दलितों को ऐतिहासिक रूप से निम्न कार्यों तक ही सीमित रखा गया था।
- पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में अछूतों को पंचम वर्ण के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जो समाज में सबसे निचले पायदान पर थे। उन्हें नीच और प्रदूषणकारी व्यवसायों में धकेल दिया गया और उन्हें गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा।
- स्वतंत्रता-पूर्व भारत में प्रमुख दलित आंदोलन:
- भक्ति आंदोलन: 15वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया और रूढ़िवादी हिंदू धर्म को चुनौती दी। इसमें सगुण (साकार इश्वर) और निर्गुण (निराकार इश्वर) परंपराएँ शामिल थीं।
- रविदास और कबीर जैसे संत, जिन्होंने सामाजिक समानता और आध्यात्मिक मोक्ष का समर्थन करके दलितों को प्रेरित किया।
- नव-वैदांतिक आंदोलन: दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों द्वारा शुरू किये गए इन आंदोलनों का उद्देश्य जाति व्यवस्था के भीतर अस्पृश्यता को खत्म करना था।
- वर्ष 1875 में दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज का उद्देश्य जाति व्यवस्था को अस्वीकार करके और सामाजिक समानता को बढ़ावा देकर हिंदू धर्म में सुधार करना था।
- वर्ष 1873 में ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज, ने गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मणवादी प्रभुत्व से मुक्त करने का प्रयास किया।
- इसने निचली जातियों के उत्थान के लिये शैक्षिक और सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया तथा मौजूदा जाति पदानुक्रमों को चुनौती दी।
- संस्कृतिकरण के लिये आंदोलन: एम.एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को निम्न जाति के समूहों द्वारा अपनी स्थिति को ऊपर उठाने के लिये उच्च जाति के रीति-रिवाजों को अपनाने के रूप में परिभाषित किया।
- दलित नेताओं ने सामाजिक मुखरता और उत्थान के रूप में ब्राह्मणवादी प्रथाओं (जैसे, शाकाहार) का अनुसरण किया।
- गांधी का योगदान: उन्होंने छुआछूत की आलोचना की और दलितों के उत्थान की दिशा में काम करने के लिये वर्ष 1932 में हरिजन सेवक संघ की स्थापना की।
- महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और उनका उद्देश्य दलितों को समाज में मुख्यधारा के रूम में एकीकृत करना था।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर का योगदान: उन्होंने दलित अधिकारों के लिये विभिन्न आंदोलनों और कानूनी लड़ाइयों का नेतृत्त्व किया, जिनमें महाड़ सत्याग्रह (1927) और कालाराम मंदिर सत्याग्रह (1930) शामिल हैं।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने बहिष्कृत भारत और समाज समता संघ की स्थापना की और राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिये अनुसूचित जाति महासंघ की स्थापना की।
- भक्ति आंदोलन: 15वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया और रूढ़िवादी हिंदू धर्म को चुनौती दी। इसमें सगुण (साकार इश्वर) और निर्गुण (निराकार इश्वर) परंपराएँ शामिल थीं।
- जाति व्यवस्था: दलित उत्पीड़न की जड़ें जाति व्यवस्था की उत्पत्ति में निहित हैं, जैसा कि मनुस्मृति में वर्णित है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का एक हिंदू ग्रंथ है। दलितों को ऐतिहासिक रूप से निम्न कार्यों तक ही सीमित रखा गया था।
समकालीन भारत में दलितों के सामने क्या चुनौतियाँ विद्यमान हैं?
- सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार: दलितों को अक्सर गाँवों और शहरी क्षेत्रों में अलग-थलग तथा सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत कर दिया जाता है एवं उन्हें अस्पृश्यता संबंधी प्रथाओं का सामना करना पड़ता है।
- संकट के समय भी भेदभाव जारी रहता है जैसे कि वर्ष 2004 की सुनामी, जिसमें तमिलनाडु में दलितों को राहत प्रयासों से गंभीर रूप से वंचित रखा गया था।
- आर्थिक शोषण: कई दलित कर्ज़ के कारण बंधुआ मज़दूर के रूप में कार्य करते हैं जबकि वर्ष 1976 में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उन्हें अक्सर न्यूनतम या कोई मज़दूरी नहीं मिलती है तथा विरोध करने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है।
- लगभग 80% दलित समुदाय ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं, मुख्य रूप से भूमिहीन मजदूरों या सीमांत किसानों के रूप में जिससे वे आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं।
- कानूनी निषेध के बावज़ूद कई दलितों के लिये हाथ से मैला ढोना एक प्रचलित और अपमानजनक व्यवसाय बना हुआ है।
- "भारत में आय और संपत्ति असमानता" रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष 1% भारतीयों को वर्ष 2022 में राष्ट्रीय आय का 22.6% प्राप्त हुआ, जो वर्ष 1951 में 11.5% था, इसी अवधि में मध्यम स्तर 40% की आय का अनुपात 42.8% से घटकर 27.3% हो गया, जबकि निचले स्तर 50% की आय का हिस्सा 20.6% से घटकर 15% हो गया।
- ये आँकड़े बढ़ते आय अंतर को रेखांकित करते हैं, जिसने दलितों सहित सभी वंचित समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
- राजनीतिक भेदभाव: राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण के बावज़ूद दलित मुद्दों को अक्सर राजनीतिक दलों द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है।
- हालाँकि हाल के वर्षों में राजनीतिक लामबंदी हुई है और दलित नेताओं का उदय हुआ है, लेकिन बहुसंख्यक दलितों के लिये वास्तविक लाभ अभी भी सीमित हैं।
- अप्रभावी कानून: नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जैसे कानून राजनीतिक इच्छाशक्ति और संस्थागत समर्थन की कमी के कारण अप्रभावी तरीके से लागू किये जाते हैं।
- न्यायिक स्तर पर अन्याय: जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव के कारण दलित महिलाओं को गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर यौन शोषण एवं हिंसा का सामना करना पड़ता है, इन अपराधों के लिये अपराध दर भारत में अन्य महिलाओं की तुलना में काफी अधिक है।
- कुछ क्षेत्रों में युवा दलित लड़कियों को धार्मिक या सांस्कृतिक प्रथाओं के आधार पर वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है।
- प्रवासन एवं शहरी चुनौतियाँ: कई दलित परिवार शहरों की ओर पलायन करते हैं, जहाँ वे अक्सर शहरी स्लम क्षेत्रों में रहते हैं, जहाँ वे न्यूनतम सुरक्षा के साथ सबसे कम वेतन वाली नौकरियाँ करते हैं।
- हालाँकि शहरों में दलित मध्यम वर्ग में वृद्धि हो रही है, जो शिक्षा तक पहुँच प्राप्त कर रहा है और सार्वजनिक सेवा, बैंकिंग और निजी उद्योगों में सुरक्षित रोज़गार प्राप्त कर रहा है।
भारत में दलितों के लिये क्या पहल और योजनाएँ हैं?
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और किसी भी रूप में इसके अभ्यास को प्रतिबंधित करता है। अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी भी विसंगति को लागू करना कानून के तहत दंडनीय अपराध है।
- विधिक प्रयास:
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (एससी/एसटी अधिनियम), 1989।
- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955: इसका उद्देश्य भारत में अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करना है।
- आरक्षण नीतियाँ: भारत शिक्षा और सरकारी नौकरियों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिये आरक्षण लागू करता है, जिसका उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े समुदायों को अवसर प्रदान करना है।
- राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC)।
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम/योजना (मनरेगा/एस)।
- स्टैंड अप इंडिया पहल।
आगे की राह
- अमेरिका में अश्वेत पूंजीवाद: आपूर्ति शृंखलाओं में लक्षित समावेशन द्वारा समर्थित अमेरिका में अश्वेत उद्यमिता का अनुभव, इस बात का एक मॉडल प्रस्तुत करता है कि कैसे इसी तरह के उपाय भारत में दलित व्यवसायों को लाभ पहुँचा सकते हैं।
- जबकि कुछ भारतीय निगमों ने दलित व्यवसायों का समर्थन करने में सकारात्मक संकेत दिखाए हैं लेकिन व्यापक और अधिक प्रणालीगत परिवर्तनों की आवश्यकता है।
- नेटवर्क तक पहुँच बढ़ाना: दलित उद्यमियों को औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों सहित व्यापक व्यावसायिक नेटवर्क में एकीकृत करने के लिये पहल विकसित करें। बड़ी निगमों को अपनी आपूर्ति शृंखलाओं और खरीद प्रक्रियाओं में दलित व्यवसायों को सक्रिय रूप से शामिल करने के लिये प्रोत्साहित करें।
- वित्तीय सहायता में सुधार: सुनिश्चित करना कि स्टैंड अप इंडिया पहल बेहतर निगरानी के साथ प्रभावी ढंग से लागू की जाए।
- दलित उद्यमियों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये वैकल्पिक वित्तपोषण तंत्रों की खोज करें और जोखिम पूंजी प्रदान करें।
- सामाजिक भेदभाव को खत्म करना: ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करें जो बाज़ार प्रणालियों के भीतर जाति-आधारित भेदभाव को कम करते हैं और दलित उद्यमियों के साथ समान व्यवहार को बढ़ावा देते हैं।
- नीति एकीकरण: आर्थिक सशक्तीकरण पहलों को व्यापक सामाजिक न्याय लक्ष्यों के साथ संरेखित करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बाज़ार में प्रगति सामाजिक असमानताओं को दूर करने में भी योगदान दे।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: दलित उद्यमियों के विशेष संदर्भ में आर्थिक परिणामों पर संस्थागत कुप्रथाएँ के प्रभाव की जाँच कीजिये। नीतिगत हस्तक्षेप इन चुनौतियों का समाधान कैसे कर सकते हैं? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न . 'स्टैंड अप इंडिया स्कीम (Stand Up India Scheme)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये। (a) केवल 1 उत्तर (c) मेन्सप्रश्न 1. क्या बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज को समझने में जाति ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है? उदाहरणों के साथ अपने उत्तर को विस्तृत कीजिये। (2020) प्रश्न 2."जाति व्यवस्था नई पहचान और संघात्मक रूप ग्रहण कर रही है। इसलिये भारत में जाति व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता।" टिप्पणी कीजिये।(2018) प्रश्न 3. इस मुद्दे पर चर्चा कीजिये कि क्या और कैसे दलित पहचान हेतु समकालीन आंदोलन जाति के उन्मूलन की दिशा में कार्य करते हैं। (2015) प्रश्न 4. महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर के अलग-अलग दृष्टिकोण और रणनीति होने के बावज़ूद, दलितों के उत्थान का एक ही लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये।2015) |