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सामाजिक न्याय

भारत में अंतर-समूह जाति आरक्षण

  • 14 Mar 2024
  • 28 min read

यह एडिटोरियल 13/03/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Intra-group caste variances, equality and the Court’s gaze” लेख पर आधारित है। इसमें इस विषय पर विचार किया गया है कि क्या राज्य सरकारें सार्वजनिक रोज़गार भर्ती में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये निर्धारित अनुपात के भीतर उप-वर्गीकरण का निर्माण कर सकती हैं। इसमें अन्य समूहों की तुलना में अधिक पिछड़े माने जाने वाले कुछ समूहों को विशेष भत्ता देना शामिल होगा।

प्रिलिम्स के लिये:

अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण, मडिगा समुदाय, न्यायमूर्ति पी. रामचन्द्र राजू आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामला, 2004, अनुसूचित जाति (SCs), अनुसूचित जनजाति (STs), उच्च स्तरीय समिति।

मेन्स के लिये:

अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण से संबंधित विधिक विरोधाभास,  इनके उप-वर्गीकरण के लाभ एवं संबंधित चुनौतियाँ।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) की सात-न्यायाधीशों की पीठ ‘पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह’ मामले में विधि के उस प्रश्न पर अपना निर्णय देगी, जो संविधान के अंतर्गत सकारात्मक कार्रवाई (affirmative action) और आरक्षण के भविष्य के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। अनुसंधान और आँकड़ों से संकेत मिलता है कि जबकि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) को प्रायः सार्वभौमिक श्रेणियों के रूप में देखा जाता है, लेकिन इन समूहों के भीतर उल्लेखनीय असमानताएँ मौजूद हैं, जहाँ कुछ जातियों को दूसरों की तुलना में अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

क्या राज्य सरकारों को इन अंतर-समूह विभेदों को संबोधित करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिये? दविंदर सिंह मामले में आगामी निर्णय का उद्देश्य इसी मुद्दे को संबोधित करना होगा, जो संभावित रूप से एक ऐसे विधिक क्षेत्र में एक अत्यंत आवश्यक स्पष्टता लेकर आएगा जहाँ लंबे समय से सुधार की प्रतीक्षा की जा रही है। केंद्र सरकार ने सबसे पिछड़े समुदायों के लिये लाभ, योजनाओं और पहलों के समतामूलक वितरण के लिये एक पद्धति का मूल्यांकन एवं निर्माण करने के लिये कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है।

पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह, 2020:

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध एक अपील के रूप में लाया गया जहाँ उस राज्य विधि को निरस्त कर दिया गया था जो सरकार को कोटा प्रदान करने के लिये SC/ST को उप-वर्गीकृत करने का अधिकार सौंपता था।
  • उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में पंजाब सरकार के उस सर्कुलर को रद्द कर दिया था, जिसमें प्रावधान था कि SC के लिये आरक्षित सीटों में से 50% सीटें बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को प्रदान की जाएँगी।
  • इस निर्णय में उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये चिन्नैया निर्णय (Chinnaiah judgement) का सहारा लिया था।

जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण (Sub-Categorisation within Castes):

  • परिचय:
    • जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण आरक्षण और सकारात्मक कार्रवाई के लिये अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) की मौजूदा श्रेणियों के भीतर उप-समूह के निर्माण की प्रक्रिया को संदर्भित करता है।
    • इस उप-वर्गीकरण का उद्देश्य अंतर-श्रेणी असमानताओं को संबोधित करना और समाज के सबसे वंचित और हाशिये पर स्थित वर्गों के बीच लाभ एवं अवसरों का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना है।
  • उप-वर्गीकरण की वैधता:
    • पूर्व के प्रयास: पंजाब, बिहार और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पूर्व में उप-वर्गीकरण का प्रयास किया था जिन्हें कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और वे मामले सर्वोच्च न्यायालय के विचारण के लिये लाए गए।
    • संवैधानिक दुविधा: ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2004) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केवल संसद के पास SC एवं ST सूची का निर्माण करने तथा इसे अधिसूचित करने का अधिकार है।
      • पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020) मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि राज्य पहले से अधिसूचित SC/ST सूचियों में कोई ‘छेड़छाड़’ किये बिना लाभ की मात्रा पर निर्णय ले सकते हैं।
      • वर्ष 2004 और वर्ष 2020 के निर्णयों के बीच विरोधाभास के कारण वर्ष 2020 के निर्णय को विचरण के लिये एक बड़ी पीठ के पास भेजा गया।

उप-वर्गीकरण की राज्यों की शक्ति के बारे में मत:

  • पक्ष में तर्क:
    • राज्यों के पास अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) और अनुच्छेद 341(1) एवं 342(1) के संदर्भ में SC/ST को आरक्षण लाभ देने की शक्ति है। 
    • अनुच्छेद 15(4) राज्य को SC/ST जैसे समाज के सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों और कल्याण को बढ़ावा देने के लिये विशेष व्यवस्था करने का अधिकार देता है।
    • जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण के लिये एक संवैधानिक अधिदेश एवं न्यायिक समर्थन मौजूद है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 16 (4) यह अधिकार देता है कि राज्य SC/ST के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये उपबंध कर सकता है, यदि राज्य के अधीन सेवाओं में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
    • अनुच्छेद 341(1) एवं 342(1) के अनुसार, भारत का राष्ट्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद, जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उनमें से यूथों (या कुछ हिस्सों) को विनिर्दिष्ट कर सकेगा उस राज्य में SC एवं ST माना जाएगा।
  • विपक्ष में तर्क:
    • चिन्नैया निर्णय में पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम 2000 को इस आधार पर रद्द कर दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 341 का उल्लंघन करता है।
    • आंध्र प्रदेश के कानून में राष्ट्रपति की सूची से चार अलग-अलग श्रेणियाँ बनाने का प्रयास किया गया था और प्रत्येक श्रेणी को उसके पिछड़ेपन के आधार पर एक अलग कोटा प्रदान किया गया था।
      • न्यायालय ने माना कि राज्य सरकार के पास सूची के साथ छेड़छाड़ करने की कोई शक्ति नहीं है क्योंकि अनुच्छेद 341 के पाठ से यह स्पष्ट है कि ऐसा अधिकार केवल संसद के पास है।
      • निर्णय में राष्ट्रपति की विनिर्दिष्ट सूची के बचाव में बी.आर. अंबेडकर के भाषण की ओर भी संकेत किया गया, जहाँ उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि राज्य सरकारों को सूची में संशोधन करने की अनुमति दी गई तो पूरी तरह से राजनीतिक विचारों के आधार पर इसके अभ्यास का जोखिम उत्पन्न होगा।

कैबिनेट सचिव के अधीन उच्चाधिकार प्राप्त समिति का अधिदेश:

  • समिति का प्राथमिक उद्देश्य देश भर में विभिन्न SC समुदायों की शिकायतों के समाधान के लिये वैकल्पिक पद्धतियों का पता लगाना है।
  • तेलंगाना के मडिगा (Madiga) समुदाय की चिंताओं के जवाब में गठित की गई समिति का दायरा किसी एक समुदाय या राज्य से परे तक विस्तृत है।
    • मडिगा समुदाय का संघर्ष: मडिगा समुदाय, जो तेलंगाना में अनुसूचित जाति के 50% भाग का निर्माण करता है, को माला (Mala) समुदाय के प्रभुत्व के कारण अनुसूचित जाति के लिये मौजूद सरकारी लाभों तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
    • मडिगा समुदाय की शिकायत है कि उनकी बड़ी आबादी के बावजूद उन्हें SC से संबंधित पहलों से अपवर्जित रखा गया है।
    • वे अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण के लिये वर्ष 1994 से संघर्ष कर रहे हैं और यही वह मांग थी जिसके कारण वर्ष 1996 में न्यायमूर्ति पी. रामचन्द्र राजू आयोग का गठन किया गया और बाद में वर्ष 2007 में एक राष्ट्रीय आयोग का गठन हुआ।
  • इसका उद्देश्य देश भर में 1,200 से अधिक अनुसूचित जातियों (जहाँ अपेक्षाकृत अगड़ों और प्रभुत्वशाली जातियों का वर्चस्व है) के बीच सबसे पिछड़े समुदायों के लिये लाभ, योजनाओं एवं पहलों के समतामूलक वितरण के लिये एक पद्धति का मूल्यांकन एवं निर्माण करना है।

भारत में अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण से संबंधित प्रमुख पहलू:

  • SC/ST की पहचान करना:
    • संविधान में समता की प्राप्ति के लिये SC एवं ST के साथ विशेष व्यवहार का प्रावधान to किया गया है, लेकिन उन जातियों और जनजातियों को निर्दिष्ट नहीं किया गया है जिन्हें SC एवं ST कहा जाएगा।
    • अनुच्छेद 341 के तहत यह शक्ति केंद्रीय कार्यपालिका (जिसका प्रधान राष्ट्रपति है) को सौंपी गई है:
      • अनुच्छेद 341 के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को SC एवं ST के रूप में जाना जाएगा। किसी एक राज्य में अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित कोई जाति किसी अन्य राज्य में अनुसूचित जाति नहीं भी हो सकती है।
  • उप-वर्गीकरण के पक्ष में तर्क:
    • चूँकि भारत एक कल्याणकारी राज्य है, यह समुदाय के वंचित वर्ग की मुक्ति और असमानताओं को दूर करने का दायित्व रखता है।
      • जब आरक्षण स्वयं आरक्षित जातियों के बीच असमानता उत्पन्न कर रही हो फिर यह दायित्व राज्य पर आता है कि वह उप-वर्गीकरण करे और एक वितरणात्मक न्याय पद्धति अपनाए ताकि राज्य के संसाधन कुछ हाथों में संकेंद्रित न हों तथा सभी को समान न्याय प्रदान किया जा सके।
    • यदि उप-वर्गीकरण को अस्वीकृत किया जाता है तो यह असमान को समान मानते हुए (unequal as equal) समता के अधिकार को पराजित करेगा।
    • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची में असमान जातियाँ मौजूद हैं।
    • विभिन्न रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक समरूप समूह का गठन नहीं करते हैं। अनुसूचित जातियों के भीतर असमानता को कई रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है और इसे संबोधित करने के लिये विशेष कोटा तैयार किया गया है:
      • न्यायमूर्ति रामचंद्र राजू आयोग, 1997 ने अनुसूचित जाति को चार समूहों में विभाजित करने और प्रत्येक के लिये अलग-अलग आरक्षण आवंटित करने की अनुशंसा की।
      • आयोग ने यह भी अनुशंसा की कि अनुसूचित जाति के ‘क्रीमी लेयर’ को सार्वजनिक नियुक्तियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में किसी भी आरक्षण लाभ से बाहर रखा जाए।
  • उप-वर्गीकरण के विपक्ष में तर्क:
    • प्रमुख तर्क यह है कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का परीक्षण या आवश्यकता अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं की जा सकती।
    • अस्पृश्यता (untouchability) के कारण अनुसूचित जाति को विशेष उपचार दिया जाता है, जिससे वे सदियों से पीड़ित रहे हैं।
    • वर्ष 1976 में एन.एम. थॉमस बनाम केरल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं माना था कि अनुसूचित जातियाँ जाति नहीं हैं बल्कि वे एक वर्ग हैं और इसलिये उन्हें एक वर्ग के रूप में देखा जाना चाहिये।
    • उप-वर्गीकरण का उपयोग SC/ST के बीच इधर-उधर के वोट-बैंक को ख़ुश करने के लिये किया जाएगा और इस प्रकार सामाजिक न्याय का राजनीतिकरण हो जाएगा।

पंजाब में SCs के उप-वर्गीकरण पर कानूनी संघर्ष का घटनाक्रम

  • वर्ष 1975:
    • पंजाब सरकार ने एक अधिसूचना जारी करते हुए अपने 25% SC आरक्षण को दो श्रेणियों में विभाजित किया। यह किसी राज्य द्वारा मौजूदा आरक्षण को ‘उप-वर्गीकृत’ किये जाने का पहला उदाहरण था।
    • हालाँकि यह अधिसूचना लगभग 30 वर्षों तक लागू रही, वर्ष 2004 में यह कानूनी बाधाओं का शिकार हुई।
  • वर्ष 2004:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में समता के अधिकार के उल्लंघन का हवाला देते हुए आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 को रद्द कर दिया और इस बात पर बल दिया कि SCs को एक एकल, सजातीय समूह के रूप में देखा जाना चाहिये।
    • बाद में डॉ. किशन पाल बनाम पंजाब राज्य मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया निर्णय का समर्थन करते हुए वर्ष 1975 की अधिसूचना को रद्द कर दिया।
  • वर्ष 2006:
    • पंजाब सरकार ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के माध्यम से उप-वर्गीकरण को फिर से शुरू करने का प्रयास किया, लेकिन वर्ष 2010 में इसे निरस्त कर दिया गया।
  • वर्ष 2014:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2004 के ई.वी. चिन्नैया निर्णय की यथातथ्यता (correctness) पर सवाल उठाते हुए मामले को पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास विचारण के लिये भेजा।
  • वर्ष 2020:
    • संविधान पीठ ने माना कि वर्ष 2004 के निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्यकता है; इसने SCs के एक सजातीय समूह होने के विचार को खारिज कर दिया गया और सूची के भीतर ‘असमान’ (unequal) के अस्तित्व को स्वीकार किया।
    • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा SCs/STs के लिये ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा की भी सिफ़ारिश की गई।
  • वर्तमान समय:
    • सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ इस मुद्दे पर सुनवाई कर रही है क्योंकि केवल बड़ी पीठ का निर्णय ही छोटी पीठ के निर्णय पर हावी हो सकता है।
    • उप-वर्गीकरण विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों को प्रभावित करेगा, जिनमें पंजाब में बाल्मीकि एवं मज़हबी सिख, आंध्र प्रदेश में मडिगा, बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतियार शामिल हैं।

दविंदर सिंह मामले के विभिन्न घटनाक्रम

  • इंद्रा साहनी फैसले से संकेत ग्रहण करना: मौजूदा दृष्टिकोण पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले (जो मंडल आयोग की रिपोर्ट से उत्पन्न हुआ मामला था) में लिये गए अपने निर्णय का हवाला दिया।
    • उस मामले में नौ न्यायाधीशों की पीठ ने माना था कि सरकार के अधीन सेवाओं के लिये सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (OBCs) के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति है।
  • के.सी. वसंत कुमार (1985) मामले के निर्णय का समर्थन: न्यायाधीशों के बहुमत ने के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य (1985) मामले में न्यायमूर्ति चिन्नाप्पा रेड्डी के निर्णय का समर्थन किया। इस मामले में न्यायमूर्ति रेड्डी ने निर्णय दिया था कि जबकि उप-वर्गीकरण करने का औचित्य प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर हो सकता है, लेकिन:
    • न्यायालय यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सैद्धांतिक रूप से पिछड़े वर्गों और अधिक पिछड़े वर्गों में वर्गीकरण क्यों नहीं किया जा सकता है, यदि दोनों वर्ग न केवल कुछ पीछे हैं, बल्कि सबसे अगड़े वर्गों से बहुत पीछे हैं।
    • वास्तव में अधिक पिछड़े वर्गों की सहायता करने के लिये ऐसा वर्गीकरण आवश्यक होगा; अन्यथा पिछड़े वर्गों के वे लोग, जो अधिक पिछड़े वर्गों की तुलना में कुछ अधिक उन्नत हों, सभी सीटें जीत सकते हैं।
    • यदि आरक्षण अधिक पिछड़े वर्गों के लिये चिंतित है और कुछ अधिक उन्नत पिछड़े वर्गों के लिये कोई आरक्षण नहीं किया गया, तो सबसे उन्नत वर्ग सामान्य वर्ग के लिये उपलब्ध सभी सीटें जीत लेंगे और पिछड़े वर्गों के लिये कोई भी सीट नहीं छोड़ेंगे।

विभिन्न जाति समूहों को उप-वर्गीकृत करने के लिये विभिन्न सुझाव:

  • वास्तविक समता का वादा सुनिश्चित करना:
    • मामले की जड़ में संविधान की समता के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता है। अनुच्छेद 14 से 16 में (जिन्हें एक साथ संहिता के रूप में पढ़ा जा सकता है) वास्तविक समता का वादा किया गया है।
      • समता की यह गारंटी मानती है कि भारत के इतिहास में व्यक्तियों के साथ उनकी जाति के आधार पर भेदभाव किया गया है।
    • इसलिये, हमारी संवैधानिक दृष्टि यह मांग रखती है कि हम समान व्यवहार सुनिश्चित करने के प्रयास में समूह हितों के प्रति सचेत रहें।
      • इस मॉडल के तहत, आरक्षण को समता की मूल धारणा के साथ टकराव में और इसके अपवाद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये, बल्कि इसके बजाय उस लक्ष्य को आगे बढ़ाने और सुदृढ़ करने के साधन के रूप में देखा जाना चाहिये।
  • राज्य सरकारों की भूमिका को स्वीकार करना:
    • केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1975) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कम से कम सैद्धांतिक रूप से यह स्वीकार किया है कि सरकारों के पास न केवल आरक्षण प्रदान करने और ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की शक्ति है, बल्कि ग़ैर-भेदभाव सुनिश्चित करने का सकारात्मक कर्तव्य भी है। 
    • इस दृष्टिकोण से, यदि पंजाब सरकार को अपने अध्ययनों के आधार पर यह लगता है कि आरक्षण के उसके मौजूदा उपाय बाल्मीकि और मज़हबी सिखों तक पर्याप्त रूप से नहीं पहुँचे हैं तो वह यह सुनिश्चित करने के लिये संवैधानिक रूप से बाध्य है कि इन उपायों में सुधार किया जाए।
  • अनुच्छेद 341 की व्यापक व्याख्या की आवश्यकता:
    • यदि अनुच्छेद 341 को उप-वर्गीकरण के विरुद्ध एक अवरोधक के रूप में देखा जाता है तो यह निषेध संविधान की समता संहिता के विरुद्ध जाएगा। वैसे भी, सीधे तौर पर पढ़ने पर भी, अनुच्छेद 341 इस तरह का कोई निषेध नहीं लगाता है।
      • यह केवल राज्य सरकारों को राष्ट्रपति की अनुसूचित जाति की सूची में जातियों को शामिल करने या बाहर करने से रोकता है।
    • यदि राज्य इस सूची में शामिल कुछ जातियों को विशेष उपाय प्रदान करते हैं, तो इसे अन्य जातियों को सूची में शामिल करने या बाहर करने का कृत्य नहीं माना जा सकता।
      • वे जातियाँ राज्य के सामान्य आरक्षण प्रावधानों की हक़दार बनी रहेंगी।
  • युक्तियुक्त वर्गीकरण का पालन करना:
    • पंजाब के कानून के मामले में देखें तो यह निश्चित रूप से राष्ट्रपति की सूची को संशोधित नहीं करता है। यह केवल बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को अधिक प्राथमिकता प्रदान करने के लिये सूची के भीतर अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ेपन को संबोधित करना चाहता है।
    • यह उप-वर्गीकरण संविधान के उस समय-सिद्ध सिद्धांत के अनुरूप है जहाँ समता सुनिश्चित करने के लिये युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति है।
  • उप-वर्गीकरण को उसके अपने गुणों (मेरिट) के आधार पर आँकना:
    • यदि SC और ST की सूचियों को समरूप/सजातीय श्रेणियों के रूप में नहीं देखा जाए, बल्कि विकास के विभिन्न स्तरों पर मौजूद विभिन्न जातियों की सूची के रूप में देखा जाए तो फिर उप-वर्गीकरण को उसके गुणों के आधार पर आँकना होगा।
    • अर्थात्, न्यायालय को केवल यह परीक्षण करना होगा कि क्या बाल्मीकि एवं मज़हबी सिख राष्ट्रपति की सूची के भीतर अन्य जातियों से स्पष्ट रूप से भिन्न हैं और उन्हें अधिमान्य उपचार प्रदान करना तथा इस तरह के अनुदान की सीमा उपयुक्त उपचार सुनिश्चित करने के कानून के बड़े उद्देश्य के साथ तर्कसंगत संबंध रखती है या नहीं।

निष्कर्ष:

उच्चस्तरीय समिति की अंतर्दृष्टि के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की पीठ का आगामी निर्णय अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा। समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय एन.एम. थॉमस मामले में इसके द्वारा मान्य दृष्टि को गंभीरता से ले कि सरकारों के पास न केवल आरक्षण प्रदान करने की शक्ति है, बल्कि यह सुनिश्चित करने का कर्तव्य भी है कि समता का संवैधानिक स्वप्न साकार किया जाए।

इस दृष्टिकोण से, SC/ST के भीतर भेदभाव की सर्वाधिक शिकार जातियों के लिये विशेष उपाय प्रदान करने के राज्यों में निहित किसी भी अधिकार को समान अवसर के विचार को साकार करने के एक तरीके के रूप में देखा जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण सामाजिक कल्याण नीतियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को कैसे प्रभावित करता है? भारतीय संदर्भ में उदाहरण सहित चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न  

प्रश्न. भारत के निम्नलिखित संगठनों/निकायों पर विचार कीजिये: (2023)

  1. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
  2.  राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग
  3.  राष्ट्रीय विधि आयोग
  4.  राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग

उपर्युक्त में से कितने सांविधानिक निकाय हैं? 

(a) केवल एक
(b) केवल दो
(c) केवल तीन
(d) सभी चार 

उत्तर: (a)


प्रश्न. भारत के 'चांगपा' समुदाय के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2014) 

  1. वे मुख्य रूप से उत्तराखंड राज्य में रहते हैं। 
  2.  वे पश्मीना बकरियों को पालते हैं जिनसे उन्नत ऊन प्राप्त होता है।
  3.  इन्हें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (b) 


प्रश्न. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (STs) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहलें क्या हैं? (2017)

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