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डेली न्यूज़

  • 11 Jul, 2023
  • 47 min read
शासन व्यवस्था

राष्ट्रीय निकास परीक्षा (NExT) के विषय में चिंताएँ

प्रिलिम्स के लिये:

IMA, राष्ट्रीय निकास परीक्षा (National Exit Test- NExT), राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission- NMC) के विषय में चिंताएँ

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय निकास परीक्षा के विषय में चिंताएँ

चर्चा में क्यों? 

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) ने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) से भारत में सभी MBBS छात्रों के लिये प्रस्तावित राष्ट्रीय निकास परीक्षा (NeXT) पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है, इसके लिये अब लाइसेंसिंग परीक्षा और स्नातकोत्तर चयन परीक्षा होगी।

राष्ट्रीय निकास परीक्षा:

  • NExT मेडिकल लाइसेंसिंग परीक्षा है जिसे मेडिकल स्नातकों की योग्यता का आकलन करने के लिये डिज़ाइन किया गया है। 
  • जिन छात्रों ने NMC से मान्यता प्राप्त चिकित्सा संस्थानों और विदेशी छात्रों से अपनी मेडिकल डिग्री प्राप्त की है, उन्हें भी राष्ट्रीय निकास परीक्षा क्वालिफाई करनी होगी।
    • भारत में चिकित्सा पेशा के लिये पंजीकरण कराने हेतु उन्हें NExT परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी।
  • यह केंद्रीकृत सामान्य परीक्षा, इस उद्देश्य के लिये आयोग द्वारा गठित एक निकाय द्वारा आयोजित की जाएगी।
    • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (संशोधन) विधेयक, 2022 'चिकित्सा विज्ञान में परीक्षा बोर्ड' का प्रस्ताव करता है, जो प्रभावी होने पर NExT परीक्षा आयोजित करने के लिये  ज़िम्मेदार होगा।
  • NExT, FMGE और NEET PG जैसी परीक्षाओं का स्थान लेगा। 
  • NExT में दो अलग-अलग परीक्षाएँ होंगी जिन्हें 'स्टेप्स' कहा जाएगा।
  • प्रयासों की संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है, बशर्ते उम्मीदवार MBBS में शामिल होने के 10 वर्ष के भीतर दोनों चरणों में उत्तीर्ण हो। 

IMA की चिंताएँँ:  

  • भारत के लगभग 50% मेडिकल कॉलेज पिछले 10-15 वर्षों में स्थापित किये गए हैं और हो सकता है कि उनमें पुराने संस्थानों के समान स्तर के सुप्रशिक्षित शिक्षक और प्रणालियाँ न हों। अतः इन नए कॉलेजों के मानकों की तुलना अधिक स्थापित कॉलेजों से करना उचित नहीं हो सकता है। 
  • IMA के अनुसार, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के माध्यम से NExT का संचालन वर्तमान में स्थापित मेडिकल कॉलेजों के छात्रों को हानि पहुँचा सकता है।
  • वे 30% से अधिक के न्यूनतम उत्तीर्ण अंक का समर्थन करते हैं और सुझाव देते हैं कि लाइसेंसिंग परीक्षा का ध्यान चुनौतीपूर्ण प्रश्नों को शामिल करने के बजाय न्यूनतम मानक का आकलन करने पर होना चाहिये।
  • इसके अतिरिक्त IMA  इस बात पर ज़ोर देता है कि सबसे मेधावी छात्रों का मूल्यांकन करने के लिये स्नातकोत्तर मेडिकल प्रवेश परीक्षा NExT द्वारा नहीं ली जानी चाहिये।

भारत में चिकित्सा शिक्षा के मानक: 

  • प्रवेश प्रक्रिया:
    • भारत में सभी चिकित्सा संस्थानों में MBBS सहित स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश तभी होता है जब छात्र राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी द्वारा आयोजित NEET की परीक्षा पास कर लेता है।
    • नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन इन मेडिकल साइंसेज़ (NBEMS) पोस्ट ग्रेजुएशन (NEET PG) के लिये परीक्षा आयोजित करवाता है।
  • प्रत्यायन: 
    • नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) द्वारा प्रतिस्थापित मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI), भारत में मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देती है।
    • प्रत्यायन यह सुनिश्चित करता है कि कॉलेज बुनियादी ढाँचे, संकाय, सुविधाओं और पाठ्यक्रम के निर्धारित मानकों को पूरा करते हैं। हालाँकि ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहाँ कॉलेज इन मानकों को पूरा करने में विफल रहे, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर चिंताएँ पैदा हुईं।
  • सीटें: 
    • हाल के वर्षों में कॉलेजों में मेडिकल (MBBS) की उपलब्ध सीटों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2023 तक 60,000 से बढ़कर 1,04,333 हो गई है। इन सीटों में से 54,278 सीटें सरकारी मेडिकल कॉलेजों को आवंटित की गई हैं, जबकि शेष 50,315 निजी मेडिकल कॉलेजों के लिये नामित हैं।

भारत में चिकित्सा शिक्षा को प्रभावित करने वाली समस्याएँ: 

  • मांग-आपूर्ति में असंतुलन:  
    • जनसंख्या मानदंडों के संदर्भ में मांग-आपूर्ति में गंभीर विसंगति के साथ-साथ सीटें भी अपर्याप्त हैं। निजी कॉलेजों में एक सीट की कीमत 15-30 लाख रुपए प्रतिवर्ष (हॉस्टल खर्च और अध्ययन सामग्री शामिल नहीं) के बीच है।
    • यह अधिकांश भारतीयों की क्षमता से कहीं अधिक है। गुणवत्ता पर टिप्पणी करना कठिन है क्योंकि कोई भी इसे मापता नहीं है। हालाँकि निजी-सार्वजनिक विभाजन के बावजूद अधिकांश मेडिकल कॉलेजों में यह अत्यधिक परिवर्तनशील और खराब है।
  • कुशल फैकल्टी का मुद्दा:  
    • नए मेडिकल कॉलेज खोलने की सरकार की पहल के कारण संकाय की कमी की गंभीर स्थिति है। सबसे निचले स्तर को छोड़कर जहाँ नए प्रवेशकर्त्ता आते हैं, नए मेडिकल कॉलेजों में फैकल्टी को नियुक्त करने के साथ ही शैक्षणिक गुणवत्ता एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है।
    • MCI ने होस्ट फैकल्टी तथा भ्रष्टाचार की कई पूर्व कमियों को दूर करने का प्रयास किया। इसने फैकल्टी की शैक्षणिक कठोरता में सुधार के लिये पदोन्नति के साथ प्रकाशनों की आवश्यकता को प्रस्तुत किया। इसका परिणाम यह हुआ कि संदिग्ध गुणवत्ता वाली पत्रिकाएँ तीव्रता से बढ़ने लगीं।
  • निजी मेडिकल कॉलेजों की समस्याएँ:  
    • 1990 के दशक में कानून में बदलाव किये जाने से निजी स्कूल खोलना आसान हो गया और देश में ऐसे कई मेडिकल संस्थान खुले, जिनका वित्तपोषण ऐसे व्यवसायियों एवं राजनेताओं ने किया जिनके पास मेडिकल स्कूल चलाने का कोई अनुभव नहीं था। इस कारण चिकित्सा शिक्षा का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण हुआ
  • चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र में भ्रष्टाचार:  
    • चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में फर्ज़ी डिग्री, रिश्वत और दान, प्रॉक्सी संकाय आदि जैसी धोखाधड़ी की प्रथाएँ और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है।

आगे की राह 

  • कॉलेज फीस को विनियमित करने के NMC के हालिया प्रयासों का मेडिकल कॉलेजों द्वारा विरोध किया जा रहा है। सरकार को निजी क्षेत्र में भी चिकित्सा शिक्षा को सब्सिडी देने पर गंभीरता से विचार करना चाहिये अथवा वंचित छात्रों के लिये चिकित्सा शिक्षा के वित्तपोषण के वैकल्पिक तरीकों पर विचार करने की आवश्यकता है।
  • मेडिकल कॉलेजों का नियमित रूप से गुणवत्ता मूल्यांकन किया जाना चाहिये और यह रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई जानी चाहिये। गुणवत्ता नियंत्रण उपाय के रूप में NMC सभी मेडिकल स्नातक के लिये एक सामान्य निकास परीक्षा के आयोजन पर विचार कर रहा है।
  • बढ़ती उम्र की आबादी पुरानी और जीवनशैली संबंधी बीमारियों के इलाज को लेकर काफी परेशान होती है, इस समस्या के निराकरण और स्वास्थ्य पेशेवरों की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने हेतु चिकित्सा पेशेवरों के लिये मानक में वृद्धि करने के साथ ही चिकित्सा प्रणाली में नवाचार को प्रोत्साहित करना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

गैलियम और जर्मेनियम पर चीन का निर्यात नियंत्रण

प्रिलिम्स के लिये:

गैलियम, जर्मेनियम, सेमीकंडक्टर, महत्त्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकी पहल (iCET)

मेन्स के लिये:

चीन के निर्यात नियंत्रण का प्रभाव, वैश्विक बाज़ार में अर्द्धचालकों का महत्त्व

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में चीन ने 1 अगस्त, 2023 से सेमीकंडक्टर निर्माण के लिये आवश्यक गैलियम और जर्मेनियम पर निर्यात नियंत्रण की घोषणा की है।

  • इस कार्रवाई को संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और नीदरलैंड द्वारा लागू निर्यात नियंत्रणों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को व्यक्त करते हैं और चीन पर सैन्य उपयोग और मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। 
  • चीन इन आरोपों को यह कहते हुए अस्वीकार करता है कि उसके निर्यात नियंत्रण का उद्देश्य किसी भी देश को बाहर किये बिना वैश्विक औद्योगिक और आपूर्ति शृंखला स्थिरता की रक्षा करना है।

गैलियम और जर्मेनियम: 

  • गैलियम: 
    • यह एक नरम, चाँदी जैसी सफेद धातु है जो कमरे के तापमान पर तरल रूप में रहती है।
    • यह एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में नहीं पाया जाता है और केवल कुछ खनिजों, जैसे- जस्ता अयस्कों और बॉक्साइट में कम मात्रा में मौजूद होता है।
    • गैलियम का उपयोग गैलियम आर्सेनाइड बनाने के लिये किया जाता है, जो अर्द्धचालकों के लिये एक मुख्य सब्सट्रेट है।
    • इसका उपयोग सेमीकंडक्टर वेफर्स, एकीकृत सर्किट, मोबाइल और उपग्रह संचार (चिपसेट में) तथा LED (डिस्प्ले में) के उत्पादन में किया जाता है। 
    • गैलियम का अनुप्रयोग ऑटोमोबाइल तथा लाइटिंग उद्योग के साथ-साथ विमानन, अंतरिक्ष और रक्षा प्रणालियों के सेंसर में भी पाया जाता है।

  • जर्मेनियम: 
    • यह एक चमकदार, कठोर, चाँदी जैसी सफेद अर्द्ध-धातु है जिसकी क्रिस्टल संरचना हीरे के समान होती है।
    • जर्मेनियम का उपयोग विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक तथा ऑप्टिकल अनुप्रयोगों में किया जाता है।
    • इसका उपयोग सामान्य रूप से फाइबर-ऑप्टिक केबल तथा इन्फ्रारेड इमेजिंग उपकरणों में किया जाता है।
    • जर्मेनियम कठिन परिस्थितियों में हथियार प्रणालियों को संचालित करने की क्षमता बढ़ाता है।
    • इसकी ऊष्मा प्रतिरोध के साथ उच्च ऊर्जा रूपांतरण दक्षता के कारण इसका उपयोग सौर सेलों में भी किया जाता है।

नोट: 

  • खान मंत्रालय द्वारा इसे भारत की हाल ही में जारी महत्त्वपूर्ण खनिज सूची में सूचीबद्ध किया है, साथ ही गैलियम और जर्मेनियम, दोनों को यूरोपीय संघ के कच्चे माल की सूची में भी शामिल किया गया है, जिन्हें यूरोप की अर्थव्यवस्था के लिये भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
    • इसके अतिरिक्त इन तत्त्वों को संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान द्वारा रणनीतिक संसाधन माना जाता है।

कच्चे माल की वैश्विक आपूर्ति में चीन का प्रभुत्व:

  • चीन, गैलियम एवं जर्मेनियम का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है।
  • वर्ष 2020 में चीन ने वैश्विक गैलियम उत्पादन का 80% तथा वैश्विक जर्मेनियम उत्पादन का 60% उत्पादन किया था।
  • चीन में गैलियम एवं जर्मेनियम के प्रचुर भंडार, बाज़ार में इसकी प्रमुख स्थिति में योगदान करते हैं।
  • चीन अपनी घरेलू आपूर्ति को पूरा करने के लिये कज़ाखस्तान, रूस और कनाडा जैसे देशों से गैलियम एवं जर्मेनियम का आयात करता है।
  • गैलियम एवं जर्मेनियम को उच्च शुद्धता वाले उत्पादों में प्रसंस्कृत और परिष्कृत करने के लिये चीन के पास एक मज़बूत औद्योगिक आधार है।
  • कम श्रम लागत, अनुकूल नीतियाँ और बड़े घरेलू बाज़ार की उपलब्धता से चीन को काफी लाभ होता है, जिससे इसे वैश्विक आपूर्ति शृंखला में प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ भी मिलता है।

चीन की निर्यात रणनीतियों का बाज़ार पर प्रभाव:

  • भारत: 
    • गैलियम और जर्मेनियम पर चीनी निर्यात नियंत्रण का भारत एवं इसके उद्योगों पर अल्पकालिक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है।
    • भारत वर्तमान में सभी इलेक्ट्राॅनिक चिप्स का आयात करता है और अनुमान है कि यह बाज़ार वर्ष 2025 तक 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा। आपूर्ति शृंखलाओं में उत्पन्न व्यवधान के परिणामस्वरूप कीमतों में इज़ाफा और भारत में इन कच्चे माल की उपलब्धता सीमित होने की संभावना है।
    • गैलियम और जर्मेनियम के आयात पर निर्भरता के कारण भारत की चिप बनाने की योजना पर प्रभाव पड़ सकता है।
    • भारत के सेमीकंडक्टर/अर्द्धचालक उद्योग के दीर्घकालिक परिणाम वैकल्पिक आपूर्ति स्रोतों और घरेलू उत्पादन क्षमताओं पर निर्भर हैं।
    • भारत-अमेरिका क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (iCET) जैसी रणनीतिक साझेदारी एक विश्वसनीय आपूर्ति शृंखला के निर्माण को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभा सकती है।
    • डेलॉइट इंडिया ने गैलियम और जर्मेनियम के संभावित स्रोत के रूप में जस्ता तथा एल्यूमिना उत्पादन से निकले अपशिष्ट की पुनर्प्राप्ति का सुझाव दिया है।
    • भारत के पास घरेलू क्षमताओं को विकसित करने और इंडियम तथा सिलिकॉन जैसे विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करके अपनी आपूर्ति शृंखला में विविधता लाने का अवसर है।
  • वैश्विक: 
    • विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप सीमित आपूर्ति के कारण वैश्विक बाज़ार में गैलियम और जर्मेनियम की कीमतें बढ़ सकती हैं।
    • अनेक देश और कंपनियाँ चीनी आपूर्ति पर अत्यधिक निर्भर हैं, इस निर्भरता को कम करने के लिये इन्हें गैलियम और जर्मेनियम के अन्य स्रोतों की खोज करने की आवश्यकता है।
    • चीन द्वारा निर्यात नियंत्रण अन्य देशों या क्षेत्रों के लिये गैलियम और जर्मेनियम के उत्पादन तथा आपूर्ति को बढ़ाने के अवसर प्रदान कर सकता है, जिससे संभावित रूप से अधिक विविध बाज़ार तैयार हो सकता है।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. हाल में तत्त्वों के एक वर्ग, जिसे 'दुर्लभ मृदा धातु' कहते हैं, की कम आपूर्ति पर चिंता जताई गई। क्यों? (2012)

  1. चीन, जो इन तत्त्वों का सबसे बड़ा उत्पादक है, द्वारा इनके निर्यात पर कुछ प्रतिबंध लगा दिया गया है।
  2. चीन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और चिली को छोड़कर अन्य किसी भी देश में ये तत्त्व नहीं पाए जाते हैं।
  3. दुर्लभ मृदा धातु विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक सामानों के निर्माण में आवश्यक हैं और इन तत्त्वों की मांग बढ़ती जा रही है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3 
(c) केवल 1 और 3 
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (c) 

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

ओटीटी संचार सेवाएँ

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण, ओवर द टॉप सेवाएँ, कोविड-19 महामारी, यूनिवर्सल सर्विस ऑब्लिगेशन फंड, ड्राफ्ट टेलीकम्युनिकेशन बिल, 2022, टेलीकॉम सेवा प्रदाता

मेन्स के लिये:

भारत में ओटीटी संचार सेवाओं की वर्तमान नियामक स्थिति, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण

चर्चा में क्यों?  

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (Telecom Regulatory Authority of India- TRAI) व्हाट्सएप, ज़ूम और गूगल मीट जैसी ओवर-द-टॉप (OTT) संचार सेवाओं के विनियमन पर पुनर्विचार कर रहा है

ओवर द टॉप (OTT) सेवाएँ:

  • "ओवर-द-टॉप" मीडिया सेवा ऑनलाइन मनोरंजन सामग्री प्रदाता है जो स्ट्रीमिंग मीडिया को एक स्टैंडअलोन उत्पाद के रूप में पेश करती है।
    • आमतौर पर यह शब्द वीडियो-ऑन-डिमांड प्लेटफाॅर्म पर लागू होता है, लेकिन यह ऑडियो स्ट्रीमिंग, मैसेजिंग सेवाओं अथवा इंटरनेट-आधारित वॉयस कॉलिंग समाधानों को भी संदर्भित करता है।
  • डेटा उपयोग पर निर्भर ये सेवाएँ भारत में, खासकर कोविड-19 महामारी के दौरान तेज़ी से लोकप्रिय हुईं और व्यापक रूप से उपयोग की जा रही हैं।
    • वर्ष 2014 से 2022 तक भारत में मासिक वायरलेस डेटा उपयोग लगभग 156 गुना बढ़ गया है। पारंपरिक वॉयस और एसएमएस सेवाओं के बजाय डेटा उपयोग अब राजस्व सृजन का साधन बन गया है। 

भारत में ओटीटी संचार सेवाओं की वर्तमान नियामक स्थिति:

  • अभी तक भारत में OTT संचार सेवाओं के लिये कोई विशिष्ट नियामक ढाँचा उपलब्ध नहीं है। TRAI ने वर्ष 2015 से इस मुद्दे पर कई परामर्श-पत्र जारी किये हैं लेकिन कोई अंतिम सिफारिश या नियम नहीं बनाए हैं।
  • सितंबर 2020 में TRAI ने OTT प्लेटफाॅर्मों के लिये नियामक हस्तक्षेप के खिलाफ सिफारिश करते हुए कहा कि इसे बाज़ार ताकतों पर छोड़ दिया जाना चाहिये।
    • हालाँकि यह भी कहा गया कि क्षेत्र की निगरानी की जानी चाहिये और हस्तक्षेप "उचित समय" पर किया जाना चाहिये।
  • वर्ष 2022 में दूरसंचार विभाग ( Department of Telecommunication- DoT), जो कि दूरसंचार नीति और लाइसेंसिंग के लिये नोडल मंत्रालय है, ने TRAI को एक उपयुक्त नियामक तंत्र लाने तथा "OTT सेवाओं पर चयनात्मक प्रतिबंध" लगाने का सुझाव दिया।

OTT संचार सेवाओं का विनियमन: 

  • TSP और OTT प्लेटफाॅर्मों के बीच समान स्तर बनाना: दूरसंचार सेवा प्रदाताओं (TSP) और OTT प्लेटफाॅर्मों के बीच निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा बनाना महत्त्वपूर्ण है। 
    • भारत में TSP को कई कानूनों द्वारा विनियमित किया जाता है, जिनमें भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885; वायरलेस टेलीग्राफ अधिनियम, 1933 और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण अधिनियम, 1997 शामिल हैं। 
    • TSP को वॉयस और एसएमएस सेवाएँ प्रदान करने के लिये कुछ नियमों का पालन करना होगा तथा सरकार को शुल्क का भुगतान करना होगा।
      • उन्हें गुणवत्ता मानकों को पूरा करने, सुरक्षा सुनिश्चित करने और उपभोक्ताओं की सुरक्षा करने की भी आवश्यकता है। 
    • हालाँकि OTT प्लेटफॉर्म इन आवश्यकताओं का सामना किये बिना समान सेवाएँ प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें लाभ मिलता है।
    • यह अनुचित प्रतिस्पर्द्धा TSPs के राजस्व के साथ लाभप्रदता को भी प्रभावित करती है तथा दूरसंचार क्षेत्र के माध्यम से सरकार के राजस्व को भी प्रभावित करती है।
  •  वैध अवरोधन और राष्ट्रीय सुरक्षा: राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के लिये OTT संचार सेवाओं को विनियमित करना आवश्यक है।
    • गलत सूचना के प्रसार, हिंसा भड़काने या आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा देने से रोकने के लिये OTT प्लेटफॉर्मों को सुरक्षा एजेंसियों द्वारा वैध अवरोधन के साथ निगरानी के अधीन होना चाहिये।
    • OTT प्लेटफॉर्म को अपने प्लेटफॉर्म पर किसी भी अवैध सामग्री या गतिविधि के लिये ज़िम्मेदार बनाने से ऑनलाइन वातावरण को सुरक्षित बनाए रखने में सहायता प्राप्त होती  है।

 सेवाओं के संबंध में मसौदा दूरसंचार विधेयक, 2022:

  • मसौदा दूरसंचार विधेयक, 2022 एक प्रस्तावित कानून है जिसका उद्देश्य भारत में दूरसंचार क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले तीन मौजूदा कानूनों को बदलना है: भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885; भारतीय वायरलेस टेलीग्राफी अधिनियम, 1933 और टेलीग्राफ तार (गैर-कानूनी अधिकार) अधिनियम, 1950। 
  • मसौदा कानून में व्हाट्सएप, सिग्नल और टेलीग्राम जैसी OTT संचार सेवाओं को दूरसंचार सेवाओं की परिभाषा में शामिल करने का प्रस्ताव है।
    • इसका प्रस्ताव है कि भारत में OTT संचार सेवाओं को लाइसेंस प्राप्त करना चाहिये तथा  दूरसंचार क्षेत्र के अभिकर्ताओं को नियंत्रित करने वाले समान नियमों का पालन करना चाहिये।
    • ये नियम सेवा की गुणवत्ता और सुरक्षा उपायों जैसे विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हैं।

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण:  

  • कानूनी समर्थन:  
    • TRAI की स्थापना 20 फरवरी, 1997 को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण अधिनियम, 1997 द्वारा की गई थी
  • TRAI के उद्देश्य: 
    • TRAI का मिशन देश में दूरसंचार के विकास के लिये परिस्थितियाँ बनाना और उनका पोषण करना है।
    • TRAI दूरसंचार सेवाओं को नियंत्रित करता है जिसमें दूरसंचार सेवाओं के लिये टैरिफ का निर्धारण/संशोधन भी शामिल है जो पहले केंद्र सरकार में निहित थे।
    • इसका उद्देश्य एक निष्पक्ष और पारदर्शी नीति वातावरण प्रदान करना भी है जो समान अवसर को बढ़ावा देता है और निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा की सुविधा प्रदान करता है।
  • मुख्यालय:  
    • TRAI का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
  • TRAI की संरचना:  
    • सदस्य: ट्राई में एक अध्यक्ष, दो पूर्णकालिक सदस्य और दो अंशकालिक सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की जाती है।
    • ट्राई की सिफारिशें केंद्र सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं हैं।
    • सदस्यों का कार्यकाल: अध्यक्ष और अन्य सदस्य तीन वर्ष की अवधि या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, पद पर बने रहेंगे।

स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ग्लोबल साउथ

प्रिलिम्स के लिये:

ग्लोबल साउथ, नाटो, रूस-यूक्रेन, ब्रिक्स, साम्राज्यवाद, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, विकासशील राष्ट्र, ग्लोबल नॉर्थ

मेन्स के लिये:

ग्लोबल साउथ, इसका महत्त्व और चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों? 

अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के कई देशों ने यूक्रेन युद्ध में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organisation- NATO) का समर्थन करने से इनकार कर दिया है, इसके परिणामस्वरूप "ग्लोबल साउथ" फिर से चर्चा का विषय बन गया है। 

ग्लोबल साउथ: 

  • परिचय: 
    • ग्लोबल साउथ से तात्पर्य उन देशों से है जिन्हें अक्सर विकासशील, कम विकसित अथवा अविकसित के रूप में जाना जाता है, ये मुख्य रूप से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में स्थित हैं।
    • आमतौर पर ग्लोबल नाॅर्थ के धनी देशों की तुलना में इन देशों में उच्च स्तर की गरीबी, आय असमानता और जीवन स्थितियाँ चुनौतीपूर्ण हैं।
    • "ग्लोबल नॉर्थ" अधिक समृद्ध राष्ट्र हैं जो ज़्यादातर उत्तरी अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं, इनमें ओशिनिया तथा अन्य जगहों पर कुछ नए देश भी शामिल हैं।

  • "थर्ड वर्ल्ड/तीसरी दुनिया" से "ग्लोबल साउथ" तक:
    • ग्लोबल साउथ शब्द को पहली बार वर्ष 1969 में राजनीतिक कार्यकर्त्ता कार्ल ओग्लेसबी द्वारा दिया गया था।  
    • वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद इसमें तेज़ी आई, जो "दूसरी दुनिया/सेकंड वर्ल्ड" के अंत का प्रतीक था।
    • पूर्व में विकासशील देशों को आमतौर पर "तीसरी दुनिया" कहा जाता था, यह शब्द वर्ष 1952 में अल्फ्रेड सॉवी द्वारा दिया गया था।  
    • यद्यपि यह शब्द गरीबी, अस्थिरता और पश्चिमी मीडिया द्वारा प्रचारित नकारात्मक रूढ़िवादिता से संबद्ध है।  
    • परिणामस्वरूप "ग्लोबल साउथ" शब्द एक अधिक तटस्थ विकल्प के रूप में उभरा। 
  • भू-राजनीतिक और आर्थिक समानताएँ: 
    • ग्लोबल साउथ शब्द की कोई विशुद्ध भौगोलिक परिभाषा नहीं है। यह राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, भू-राजनीतिक और आर्थिक समानताओं के संयोजन का प्रतीक है। 
    • ग्लोबल साउथ के कई देशों में साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक शासन का इतिहास रहा है, विशेष रूप से अफ्रीकी देशों में यह स्पष्ट है।
    • इस इतिहास ने विश्व राजनीतिक अर्थव्यवस्था के भीतर वैश्विक केंद्र (ग्लोबल नॉर्थ) और परिधि (ग्लोबल साउथ) के बीच संबंधों पर उनके दृष्टिकोण को आयाम दिया है।

वर्तमान समय में ग्लोबल साउथ का महत्त्व: 

  • आर्थिक और राजनीतिक शक्ति में बदलाव: 
    • ग्लोबल साउथ में हाल के दशकों में धन और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। विश्व बैंक ने आर्थिक शक्ति वितरण की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देते हुए उत्तरी अटलांटिक से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में "संपत्ति में बदलाव" की पहचान की है।
    • अनुमानों से संकेत मिलता है कि वर्ष 2030 तक चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन ग्लोबल साउथ के होंगे जिनमें चीन और भारत अग्रणी होंगे।
  • भू-राजनीति पर प्रभाव: 
    • ग्लोबल साउथ की बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का वैश्विक भू-राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव है।  
    • अनुमान है कि जिसे विशेषज्ञ "एशियाई सदी" कहते हैं उसमें एशियाई देशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
    • इसके अतिरिक्त "पोस्ट-वेस्टर्न वर्ल्ड" की भी चर्चा की गई है क्योंकि ग्लोबल साउथ का प्रभाव ग्लोबल नॉर्थ के ऐतिहासिक प्रभुत्व को चुनौती देता है। 
    • ये बदलाव विश्व मंच पर ग्लोबल साउथ की बढ़ती मुखरता और प्रभाव को दर्शाते हैं।

ग्लोबल साउथ के विकास में चुनौतियाँ:  

  • हरित ऊर्जा कोष जारी करना: 
    • वैश्विक उत्‍सर्जन के प्रति वैश्विक उत्तरी देशों के उच्‍च योगदान के बावजूद वे हरित ऊर्जा के वित्तपोषण के लिये भुगतान करने की उपेक्षा कर रहे हैं, जिसके अंतिम पीड़ित कम विकसित देश हैं।
  • रूस-यूक्रेन युद्ध का प्रभाव: 
    • रूस-यूक्रेन युद्ध ने अल्प विकसित देशों (LDC) को गंभीर रूप से प्रभावित किया, जिससे भोजन, ऊर्जा और वित्त से संबंधित चिंताएँ बढ़ गईं, जिससे LDC की विकास संभावनाओं को खतरा उत्पन्न हो गया।
  • चीन का हस्तक्षेप: 
    • चीन बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के ज़रिये ग्लोबल साउथ में तेज़ी से अपनी पैठ बना रहा है।
    • हालाँकि यह अभी भी संदिग्ध है कि क्या BRI दोनों पक्षों के लिये लाभप्रद रहेगा या यह केवल चीन के लाभ पर ध्यान केंद्रित करेगा। 
  • अमेरिकी आधिपत्य: 
    • विश्व को अब कई लोगों द्वारा बहुध्रुवीय माना जाता है, लेकिन फिर भी केवल अमेरिका ही अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर हावी है।
      • अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका वैश्विक वित्तीय बाज़ारों पर पर्याप्त प्रभाव है। अमेरिकी डॉलर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिये प्रमुख मुद्रा बना हुआ है और कई देशों द्वारा इसे आरक्षित मुद्रा के रूप में उपयोग किया जाता है।
  • संसाधनों तक अपर्याप्त पहुँच: 
    • ऐतिहासिक ग्लोबल नॉर्थ-साउथ विचलन महत्त्वपूर्ण विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता में व्यापक असमानताओं को दर्शाता है।
    • उदाहरण के लिये औद्योगीकरण 1960 के दशक की शुरुआत से ही उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के पक्ष में झुका हुआ है और इस संबंध में वैश्विक अभिसरण का कोई बड़ा सबूत नहीं मिला है। 
  • कोविड-19 का प्रभाव: 
    • कोविड-19 महामारी ने पहले से मौजूद विभाजन को और अधिक बढ़ा दिया है।
    • न केवल देशों को महामारी के शुरुआती चरणों से निपटने में विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, बल्कि आज जिन सामाजिक और व्यापक आर्थिक प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है, यह ग्लोबल-साउथ के लिये बहुत ही खराब स्थिति है।
    • अर्जेंटीना और मिस्र से लेकर पाकिस्तान, श्रीलंका तक के देशों में घरेलू अर्थव्यवस्थाओं की कमज़ोरियाँ अब कहीं अधिक स्पष्ट हैं।

ग्लोबल साउथ के लिये भारत की पहल:

  • जनवरी 2023 में भारत द्वारा आयोजित "वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट" में भारतीय प्रधानमंत्री ने अन्य विकासशील देशों के विकास का समर्थन करने के लिये पाँच पहलों की घोषणा की।
    •  "ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस" विकास समाधानों और सर्वोत्तम प्रथाओं पर शोध करेगा जिन्हें अन्य विकासशील देशों में लागू किया जा सकता है।
    • "ग्लोबल साउथ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इनिशिएटिव" का उद्देश्य अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भारतीय विशेषज्ञता को साझा करना है।
    • "आरोग्य मैत्री" परियोजना प्राकृतिक आपदाओं या मानवीय संकटों से प्रभावित किसी भी विकासशील देश को आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति प्रदान करेगी।
    • "ग्लोबल साउथ यंग डिप्लोमैट्स फोरम" विदेश मंत्रालयों के युवा अधिकारियों को जोड़ेगा।
    •   "ग्लोबल साउथ स्कॉलरशिप" विकासशील देशों के छात्रों को भारत में उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान करेगी। 

निष्कर्ष:

  • एक आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में ग्लोबल साउथ के उदय ने पारंपरिक शक्ति की गतिशीलता को चुनौती दी है और बदलती वैश्विक व्यवस्था की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
  • जैसा कि ग्लोबल साउथ ने स्वयं को मज़बूत करना जारी रखा है, यह भू-राजनीति को नया आकार देता है, एक नए युग की शुरुआत करता है जहाँ अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के भविष्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

स्रोत:द हिंदू


सामाजिक न्याय

सरपंच-पतिवाद

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

भारत का सर्वोच्च न्यायालय, पंचायत प्रणाली, 73वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम 

मुख्य परीक्षा के लिये:

सरपंच-पतिवाद और पंचायत प्रणाली में इसके निहितार्थ, सरपंच-पतिवाद से निपटने में शामिल चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में मुंडोना ग्रामीण विकास फाउंडेशन, एक गैर सरकारी संगठन (NGO) ने पंचायत प्रणाली में "सरपंच-पतिवाद" के मुद्दे के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है।

  • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस मुद्दे को सीधे संबोधित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इसके बदले न्यायालय ने NGO को पंचायती राज मंत्रालय से संपर्क करने की सलाह दी और सरकार से महिला सशक्तीकरण एवं आरक्षण के उद्देश्यों को लागू करने के लिये उचित कार्रवाई करने का आग्रह किया।

सरपंच-पतिवाद क्या है?

  • सरपंच-पतिवाद एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग उस स्थिति का वर्णन करने के लिये किया जाता है जहाँ पुरुष "सरपंच-पति, सरपंच-देवर, प्रधान-पति" आदि के रूप में कार्य करते हैं, जो पंचायत व्यवस्था में सरपंच या प्रधान के रूप में चयनित महिलाओं के संबद्ध पद के पार्श्व में वास्तविक राजनीतिक और निर्णायक शक्ति रखते हैं। 
  • सरपंच-पतिवाद की अवधारणा, पंचायतों में महिला आरक्षण की भावना और उद्देश्य को कमज़ोर करती है, जिसे 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा ज़मीनी स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाने और लोकतंत्र के प्रतिनिधि के माध्यम से उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार करने के लिये पेश किया गया था।
  • सरपंच-पतिवाद महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों और सम्मान का भी उल्लंघन करता है, जो ज़मीनी स्तर की राजनीति में "बेपर्दा पत्नियों और बहुओं" तक सीमित रह जाती हैं। 
  • परिणामस्वरूप वे अपने संस्थान के सार्वजनिक मामलों में स्वायत्तता और प्रभाव खो देते हैं। 
  • सरपंच-पतिवाद स्थानीय स्तर पर शासन एवं सेवा वितरण की गुणवत्ता और प्रभावशीलता को भी प्रभावित करता है, क्योंकि यह निर्वाचित प्रतिनिधियों तथा लोगों के बीच एक अंतर पैदा करता है। इससे भ्रष्टाचार और धन का दुरुपयोग भी होता है।

सरपंच-पतिवाद से निपटने में चुनौतियाँ: 

  • सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी तथा सशक्तीकरण में बाधा डालने वाले पितृसत्तात्मक मानदंडों, दृष्टिकोण और प्रथाओं पर काबू पाना।
  • उन प्रमुख समूहों या पार्टियों के राजनीतिक हस्तक्षेप, दबाव और हिंसा का विरोध करना जो पंचायतों को नियंत्रित या प्रभावित करना चाहते हैं।
  • गरीबी, अशिक्षा, गतिशीलता की कमी आदि जैसी सामाजिक-आर्थिक बाधाएँ, जो संसाधनों और अवसरों तक महिलाओं की पहुँच को सीमित करती हैं।
  • महिलाओं के स्वास्थ्य या कल्याण से समझौता किये बिना घरेलू ज़िम्मेदारियों और सार्वजनिक भूमिकाओं को संतुलित करना।

PRI में महिलाओं के प्रतिनिधित्व हेतु संवैधानिक प्रावधान: 

  • वर्ष 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत भारत के संविधान का अनुच्छेद 243D देश भर में PRI में महिलाओं के लिये कम-से-कम एक-तिहाई आरक्षण का आदेश देता है।
    • आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, बिहार आदि कई राज्यों में उनसे संबंधित राज्य पंचायती राज अधिनियमों में इसे बढ़ाकर 50% आरक्षण कर दिया गया है।
  • अनुच्छेद 243D में यह भी प्रावधान है कि  PRIs में प्रत्येक स्तर पर अध्यक्षों की सीटों और कार्यालयों की कुल संख्या का एक-तिहाई महिलाओं के लिये आरक्षित किया जाएगा, जिन्हें पंचायत में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रीय प्रक्रिया द्वारा आवंटित किया जाएगा।
    • महिलाओं के लिये अध्यक्षों की सीटों और कार्यालयों का ऐसा आरक्षण PRIs के तीनों स्तरों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये भी आरक्षित है।

PRIs में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिये सरकार द्वारा प्रयास:

  • राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान (RGSA):  
    • RGSA को वर्ष 2018 में उत्तरदायी ग्रामीण प्रशासन के लिये PRIs की क्षमताओं को बढ़ाने, SDGs के साथ संरेखित टिकाऊ समाधानों के लिये प्रौद्योगिकी और संसाधनों का लाभ उठाने हेतु लॉन्च किया गया था। इसने PRIs में महिलाओं की भागीदारी को भी प्रोत्साहित किया।
  • ग्राम पंचायत विकास योजना (GPDP): 
    • GPDP दिशा-निर्देश जो महिला सशक्तीकरण के लिये प्रासंगिक हैं, उनमें GPDP के बजट, योजना, कार्यान्वयन और निगरानी में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के साथ  सामान्य ग्राम सभाओं से पहले महिला सभाओं का आयोजन करना तथा  उन्हें ग्राम सभाओं और GPDP में सम्मिलित करना शामिल है।

आगे की राह

  • महिला प्रतिनिधियों के लिये क्षमता निर्माण और नेतृत्व विकास कार्यक्रम आयोजित करना।
  • महिला प्रतिनिधियों की भागीदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये ग्राम सभाओं की भूमिका और कार्यप्रणाली को मज़बूत बनाना।
  • लैंगिक समानता और लोकतंत्र के विषय में पुरुषों और महिलाओं के बीच जागरूकता तथा संवेदीकरण अभियान का आयोजन करना।
  • महिला प्रतिनिधियों को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक सहायता सुनिश्चित करना।
  • सरपंच-पतिवाद और छद्म राजनीति के अन्य रूपों को रोकने तथा दंडित करने के लिये कानून एवं नीतियाँ बनाना। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. स्थानीय स्वशासन की सर्वोत्तम व्याख्या यह की जा सकती है कि यह एक प्रयोग है। (2017) 

(a) संघवाद का
(b) लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का
(c) प्रशासकीय प्रत्यायोजन का
(d) प्रत्यक्ष लोकतंत्र का

उत्तर: (b) 


प्रश्न. पंचायती राज व्यवस्था का मूल उद्देश्य क्या सुनिश्चित करना है? (2015) 

  1. विकास में जन-भागीदारी
  2. राजनीतिक जवाबदेही
  3. लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण
  4. वित्तीय संग्रहण 

नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2 और 4
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (c)

स्रोत: द हिंदू


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