डेली न्यूज़ (10 May, 2024)



वन संरक्षण के लिये बाज़ार आधारित दृष्टिकोण की विफलता

प्रिलिम्स के लिये:

वन संरक्षण, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए भुगतान (Payments for Ecosystem Services- PES), कार्बन उत्सर्जन, ग्रीनवाशिंग

मेन्स के लिये:

वन संरक्षण के लिये बाज़ार आधारित दृष्टिकोण का विश्लेषण।

स्रोत: बिज़नेस टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन (IUFRO) की एक प्रमुख वैज्ञानिक समीक्षा में पाया गया कि वन संरक्षण के लिये बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण, जैसे कार्बन ऑफसेट और वनों की कटाई-मुक्त प्रमाणीकरण योजनाएँ, पेड़ों की रक्षा करने या निर्धनता कम करने में अत्यधिक विफल रही हैं।

हाल के अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?

  • 120 देशों में किये गए वैश्विक अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि व्यापार और वित्त-संचालित पहलों ने वनों की कटाई को रोकने में "सीमित" प्रगति की है तथा कुछ मामलों में आर्थिक समानता बिगड़ गई है।
  • रिपोर्ट बाज़ार-आधारित दृष्टिकोणों पर "कट्टरपंथी पुनर्विचार" का सुझाव देती है क्योंकि वैश्विक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में गरीबी और वन हानि जारी है, जहाँ बाज़ार तंत्र दशकों से मुख्य नीति विकल्प रहे हैं।
  • यह कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मलेशिया और घाना के उदाहरण भी प्रदान करता है, जहाँ बाज़ार-आधारित परियोजनाएँ स्थानीय समुदायों को लाभ पहुँचाने या वनों की कटाई को रोकने में विफल रही हैं।
  • जटिल व अतिव्यापी बाज़ार-आधारित योजनाओं में वृद्धि हुई है "वित्तीय अभिकर्ता और शेयरधारक अक्सर दीर्घकालिक न्यायसंगत एवं स्थायी वन प्रशासन की तुलना में अल्पकालिक लाभ में रुचि रखते हैं"।
  • अध्ययन में अमीर देशों की हरित व्यापार नीतियों के बारे में चिंता व्यक्त की गई है, उनका तर्क है कि उचित कार्यान्वयन के बिना विकासशील देशों के लिये उनके नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।
  • रिपोर्ट को उच्च-स्तरीय संयुक्त राष्ट्र मंच पर प्रस्तुत करने की योजना है, जिसमें वन संरक्षण के क्षेत्र में नीति निर्माताओं और हितधारकों के लिये इसके निष्कर्षों एवं अनुशंसाओं के महत्त्व पर ज़ोर दिया जाएगा।

वन संरक्षण के लिये बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण क्या हैं?

  • परिचय:
    • यह परंपरागत रूप से, वन संरक्षण नियमों और सरकारी हस्तक्षेप पर निर्भर था।
    • बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण वनों के पर्यावरणीय लाभों को महत्त्व देते हैं और लोगों के लिये उनकी सुरक्षा से लाभ कमाने के लिये आवश्यक तंत्र का निर्माण करते हैं।
    • इसका लक्ष्य एक ऐसा बाज़ार तैयार करना है जहाँ सतत् प्रथाएँ वनों की कटाई की तुलना में अधिक आकर्षक बनें।
  • बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण के उदाहरण:
    • कार्बन ऑफसेट: कार्बन उत्सर्जन उत्पन्न करने वाली कंपनियाँ उन परियोजनाओं में निवेश कर सकती हैं जो वनों की रक्षा करती हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। इससे उन्हें अपने उत्सर्जन पदचिह्न की भरपाई करने की अनुमति मिलती है।
    • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (PES) के लिये भुगतान: जो भूस्वामी वनों का सतत् तरीके से प्रबंधन करते हैं, वे वनों द्वारा प्रदान की जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं, जैसे स्वच्छ जल अथवा जैवविविधता आवास के लिये सरकारों, गैर सरकारी संगठनों या व्यवसायों से भुगतान प्राप्त कर सकते हैं।

वनों की कटाई-मुक्त प्रमाणनः इसमें स्वतंत्र सत्यापन शामिल है कि उत्पाद स्थायी रूप से प्रबंधित वनों से आते हैं, जिससे उपभोक्ताओं को वन-अनुकूल विकल्प चुनने की अनुमति मिलती है।

वन संरक्षण पर बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण (MBA) के प्रभाव क्या हैं?

  • सकारात्मक प्रभाव:
    • संरक्षण को प्रोत्साहित: यह वनों को संरक्षित रखने के लिये आर्थिक मूल्यों को निर्धारित करता है। यह उन भूस्वामियों को प्रेरित कर सकता है जो वन कटाई और वन संरक्षण में लाभ देख सकते हैं।
      • उदहारण: कार्बन ऑफसेट वनों की रक्षा करने वाले समुदायों के लिये आय प्रदान करता है जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने में एक आवश्यक तंत्र है।
    • बाज़ार दक्षता: यह पारंपरिक नियमों की तुलना में अधिक कुशल है। वे बाज़ार को संरक्षण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये सर्वाधिक लागत प्रभावी तरीके खोजने की अनुमति देते हैं।
      • उदहारण: पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (PES) कार्यक्रमों के लिये भुगतान संसाधनों को भूमि मालिकों की ओर निर्देशित कर सकता है जो स्पष्ट रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक लाभ प्रदान कर सकते हैं।
    • सतत् प्रथाओं को बढ़ावा देना: यह वनों की कटाई पर सतत् प्रथाओं को प्रोत्साहित करके दीर्घकालिक वन प्रबंधन को बढ़ावा देता है।
      • उदहारण: वनों की कटाई-मुक्त प्रमाणन योजनाएँ उपभोक्ताओं को ऐसे उत्पाद चुनने का विकल्प देती हैं जो ज़िम्मेदार वानिकी को बढ़ावा देते हैं, जिससे स्थायी प्रथाओं के लिये बाज़ार पर दबाव बनता है।
  • नकारात्मक प्रभाव:
    • असमान लाभः यह मौजूदा असमानताओं को बढ़ा सकता है। जिससे अमीर कंपनियों या भूमि मालिकों को अत्यधिक लाभ हो सकता है, जबकि निर्धन समुदाय प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिये संघर्ष करते हैं। 
      • उदाहरण के लिये: कार्बन ऑफसेट बाज़ारों में जटिलताएँ कुछ स्थानीय समुदायों को लूप से बाहर कर सकती हैं, जिससे वन संरक्षण से लाभ कमाने की समुदायों की क्षमता सीमित हो सकती है।
    • निगरानी चुनौतियाँ: यह सुनिश्चित करने के लिये कि परियोजनाएँ वास्तविक संरक्षण लाभ प्रदान करें, मज़बूत निगरानी की आवश्यकता है। लापरवाही बरतने से "ग्रीनवॉशिंग" हो सकती है, जहाँ  परियोजनाएँ लाभकारी दिखाई देती हैं परंतु उनका वास्तविक प्रभाव बहुत कम होता है।
      • उदहारण: PES कार्यक्रमों को वन स्वास्थ्य में सुधार मापने के लिये  स्पष्ट आधार रेखा और संरक्षण प्रयासों के फर्ज़ी दावों को रोकने के लिये प्रभावी सत्यापन की आवश्यकता है।
    • अनिश्चित दीर्घकालिक प्रभाव: MBA की दीर्घकालिक प्रभावशीलता का अभी भी मूल्यांकन किया जा रहा है।

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन (IUFRO) के हालिया अध्ययन में पाया गया कि वन संरक्षण के लिये बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण, जैसे कार्बन ऑफसेट एवं वनों की कटाई-मुक्त प्रमाणीकरण योजनाएँ, वृक्षों की रक्षा करने या गरीबी कम करने में काफी हद तक विफल रही हैं।

ग्रीनवॉशिंग:

  • ग्रीनवॉशिंग एक भ्रामक पद्धति है जहाँ कंपनियाँ या यहाँ तक ​​कि सरकारें जलवायु परिवर्तन को कम करने पर अपने कार्यों और उनके प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं, तथा भ्रामक जानकारी अथवा अप्रमाणित दावे करती हैं।
  • यह पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों की बढ़ती माँग की पूर्ति करने का एक प्रयास है।
  • यह काफी व्यापक है और संस्थाएँ अक्सर विभिन्न गतिविधियों को बिना सत्यापन के जलवायु-अनुकूल बताने का प्रयत्न करती हैं, जो जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध वास्तविक प्रयासों को कमज़ोर करती हैं।

आगे की राह

  • भूमि स्वामित्व अधिकारों एवं क्षमता निर्माण के माध्यम से स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना तथा निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना, सतत् वन प्रबंधन के लिये एक दृढ़ आधार तैयार कर सकता है।
  • MBA के साथ नियमों में स्पष्टता तथा इन नियमों का कठोरता से प्रवर्तन वनों की कटाई को नियंत्रित करने तथा सतत् पर्यावरणीय प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने में सहायता कर सकते हैं।
  • समान लाभ-साझाकरण तंत्र के अंतर्गत, वन संरक्षण के लिये बाज़ार-आधारित पद्धतियाँ विकसित करना जो स्थानीय समुदायों को प्राथमिकता देने एवं निर्धनता कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
  • प्रभावी निगरानी प्रणालियों में निवेश करने तथा परियोजना कार्यान्वयन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने से ग्रीनवॉशिंग को रोका जा सकता है एवं वास्तविक संरक्षण परिणाम सुनिश्चित किये जा सकते हैं।

निष्कर्ष:

बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण वन संरक्षण के लिये एक मूल्यवान उपकरण हो सकते हैं, लेकिन उन्हें सावधानीपूर्वक एवं रणनीतिक रूप से लागू किया जाना चाहिये। IUFRO अध्ययन समुदाय-संचालित समाधानों को प्राथमिकता देने, नियमों को मज़बूत करने एवं समानता को बढ़ावा देने हेतु जानकारी प्रदाता के रूप में कार्य करता है। अधिक समग्र दृष्टिकोण अपनाकर हम वनों की दीर्घकालिक सुरक्षा एवं उन पर निर्भर समुदायों के कल्याण को सुनिश्चित कर सकते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. हाल के अध्ययनों के संदर्भ में वन संरक्षण हेतु बाज़ार-आधारित दृष्टिकोण का विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. "कार्बन क्रेडिट" के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही नहीं है?  (2011)

(a) क्योटो प्रोटोकॉल के साथ कार्बन क्रेडिट सिस्टम की पुष्टि की गई थी।
(b) कार्बन क्रेडिट उन देशों या समूहों को दिया जाता है जिन्होंने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अपने उत्सर्जन कोटा से कम कर दिया है।
(c) कार्बन क्रेडिट सिस्टम का लक्ष्य कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि को सीमित करना है।
(d) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा समय-समय पर निर्धारित मूल्य पर कार्बन क्रेडिट का कारोबार किया जाता है।

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. क्या कार्बन क्रेडिट के मूल्य में भारी गिरावट के बावज़ूद UNFCCC के तहत स्थापित कार्बन क्रेडिट और स्वच्छ विकास तंत्र की खोज को बनाए रखा जाना चाहिये? आर्थिक विकास के लिये भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं के संबंध में चर्चा कीजिये।  (2014)


चिनाब घाटी में भूमि अवतलन

प्रिलिम्स के लिये:

भूमि अवतलन, हिमालय, भूकंप, भू-स्खलन, जोशीमठ

मेन्स के लिये:

भूमि अवतलन के कारण और उपाय एवं सिफारिशें।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चिनाब घाटी के विभिन्न हिस्सों, विशेषकर रामबन, किश्तवाड़ और डोडा ज़िलों में भूमि अवतलन की खबरें आईं जिसमें कई घर नष्ट हो गए हैं।

  • पहले इस क्षेत्र में वर्षा और बर्फबारी के दौरान भू-स्खलन सामान्य बात थी। हालाँकि, पिछले 10 से 15 वर्षों में भूमि अवतलन की घटनाएँ लगातार हुई हैं।

भूमि अवतलन क्या है?

  • परिचय:
    • नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फेयरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के अनुसार, भूमिगत हलचल के कारण भूमि अवतलन हो रहा है।
      • यह कई मानव निर्मित या प्राकृतिक कारकों, जैसे खनन गतिविधियों के साथ-साथ पानी, तेल या प्राकृतिक संसाधनों को हटाए जाने के कारणों से हो सकता है। भूकंप, मृदा अपरदन और मृदा संघनन भी अवतलन के कुछ प्रसिद्ध कारण हैं।
      • यह बहुत बड़े क्षेत्रों जैसे पूरे राज्यों या प्रांतों, या बहुत छोटे क्षेत्रों में हो सकता है।
  • कारण: 
    • भूमिगत संसाधनों का अत्यधिक दोहन: पानी, प्राकृतिक गैस और तेल जैसे संसाधनों के निष्कर्षण से छिद्रों का दबाव कम हो जाता है और प्रभावी तनाव बढ़ जाता है, जिससे भूमि अवतलन होता है।
      • विश्व में निकाले गए पानी का 80% से अधिक उपयोग सिंचाई और कृषि उद्देश्यों के लिये किया जाता है, जो भूमि अवतलन में योगदान देता है।
    • ठोस खनिजों का निष्कर्षण: भूमिगत ठोस खनिज संसाधनों के दोहन से भूमिगत बड़े खाली स्थान (goaf) का निर्माण होता है, जिससे भूमि अवतलन हो सकता है।
      • खनन गतिविधियाँ, जैसे कि कोयला खनन, गोफ क्षेत्रों के निर्माण का कारण बन सकती हैं, जो भूमि अवतलन में योगदान करती हैं।
    • भूमि पर पड़ा बल:
      • ऊँची इमारतों और भारी बुनियादी ढाँचे के निर्माण से भूमि पर बहुत बल पड़ सकता है, जिससे समय के साथ मृदा की विकृति एवं अवतलन हो सकता है।
        • मृदा अपरदन गुरुत्वाकर्षण के कारण मृदा के नीचे की ओर धीमी, क्रमिक गति है और समय के साथ भूमि के अवतलन में योगदान दे सकता है।
      • मृदा अपरदन: लगातार कम भार और मृदा अपरदन से नींव की धीमी गति से विकृति हो सकती है, जो भूमि अवतलन में योगदान करती है।
  • उदाहरण: 
    • जकार्ता, इंडोनेशिया: अत्यधिक भूजल दोहन के कारण यहाँ अत्यधिक भूमि अवतलन (25 से.मी/वर्ष) का सामना करना पड़ रहा है।
    • नीदरलैंड: भूमिगत जलाशयों से प्राकृतिक गैस के निष्कर्षण के कारण भूमि अवतलन एक बड़ी समस्या रही है।

चिनाब क्षेत्र में भूमि अवतलन के कारण क्या हैं?

  • भूवैज्ञानिक कारक: क्षेत्र में नरम तलछटी निक्षेप और जलोढ़ मृदा की उपस्थिति है, जो भूमि अवतलन में योगदान करती है।
    • ये सामग्रियाँ ऊपरी संरचनाओं के भार और भूजल निष्कर्षण जैसी बाह्य शक्तियों के प्रभाव के तहत संघनन की संभावना रखती हैं।
  • अनियोजित निर्माण एवं शहरीकरण:
    • पर्वतीय क्षेत्रों में शहरीकरण और अनियोजित निर्माण से भूमि पर अत्यधिक दबाव पड़ता है।
    • हिमालय की तलहटी में तेज़ी से विकास हुआ है, जिससे भूमि का अवतलन हुआ है।
  • जलविद्युत परियोजनाएँ:
    • जलविद्युत स्टेशनों का निर्माण पानी के प्राकृतिक प्रवाह को परिवर्तित कर सकता है तथा भूमि की स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।
      • उदाहरण के लिये: जोशीमठ, जोकि पर्यटकों के लिये एक लोकप्रिय शहर है, एक जलविद्युत स्टेशन के निकट होने के कारण भूस्खलन का सामना कर रहा है।
  • खराब जल निकासी प्रणालियाँ:
    • चिनाब क्षेत्र में अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियाँ जलभराव, भू-जल स्तर में वृद्धि, मृदा अपरदन, खारे पानी की उपस्थिति और बुनियादी ढाँचे की क्षति के कारण भूमि अवतलन में वृद्धि कर सकती हैं।
  • भूवैज्ञानिक सुभेद्यता:
    • क्षेत्र में बिखरी हुई चट्टानें(Shattered rocks) पुराने भूस्खलन के मलबे से ढकी हुई हैं, जिनमें बोल्डर, नीस चट्टानें और अल्प सहन क्षमता वाली भुरभुरी मृदा शामिल है।
    • ये नीस चट्टानें अत्यधिक अपक्षयित होती हैं और विशेष रूप से मानसून के समय जल से भर जाने पर उच्च छिद्र दबाव के कारण इनकी संसंजकता (जुड़ाव क्षमता) कम हो जाती है।

जोशीमठ भूमि अवतलन:

  • इससे पूर्व, उत्तराखंड में चमोली ज़िले के जोशीमठ को भूस्खलन और बाढ़ की एक शृंखला का सामना करना पड़ा।
  • जोशीमठ के कुछ क्षेत्रों का मानवीय गतिविधियों और प्राकृतिक कारणों के संयोजन के कारण धीरे-धीरे अवतलन हो रहा था
  • विशेषज्ञ भूमि अवतलन का कारण अनियमित निर्माण, उच्च जनसंख्या घनत्व, प्राकृतिक जल प्रवाह में व्यवधान और जल विद्युत से संबंधित गतिविधियों को मानते हैं।

आगे की राह 

  • सतत् एवं क्षेत्रीय विकास योजना: 
    • हिमालय क्षेत्र में विकास कार्य करते समय पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
    • इस रणनीति को वनों, जल, जैवविविधता और पारिस्थितिक पर्यटन सहित क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का उत्तरदायी तथा सतत् उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
    • वर्षा जल संचयन एवं जल पुनर्चक्रण जैसी कुशल जल प्रबंधन पद्धतियों को लागू करने से अत्यधिक भूजल दोहन तथा भूस्खलन को कम करने में सहायता मिल सकती है।
  • सतत् भूकंपीय निगरानी और पूर्व चेतावनी प्रणाली:
    • ज़मीनी गतिविधियों एवं भूकंपीय गतिविधि पर नज़र रखने के लिये निगरानी नेटवर्क स्थापित करने से संभावित भूस्खलन तथा भूकंप से संबंधित खतरों की पूर्व चेतावनी प्राप्त हो सकती है।
    • उपग्रह प्रौद्योगिकी एवं ज़मीनी स्तर के वैज्ञानिक अध्ययनों का उपयोग करके क्षेत्र की निरंतर निगरानी की जानी चाहिये।
  • खनन और संसाधन निष्कर्षण का विनियमन: 
    • भूमिगत गहरे गड्डे बनने से रोकने के लिये खनन गतिविधियों एवं संसाधन निष्कर्षण पर सख्त नियम लागू करने से भूमि अवतलन के संकट को कम किया जा सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन शमन:
    • जलवायु परिवर्तन प्रभाव को कम करने के लिये आवश्यक उपाय सुनिश्चित करना, जैसे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करना तथा सतत् पद्धतियों को बढ़ावा देना, हिमनदों के पिघलने की गति को धीमा कर सकता है तथा भूमि अवतलन को कम कर सकता है।

जोशीमठ संकट के संबंध में 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट:

  • वर्ष 1976 में जोशीमठ में डूबने की घटना के कारणों की जाँच के लिये एक समिति गठित की गई थी। इस समिति ने संकट से बचने के लिये कई सिफारिशें पेश कीं।
  • अत्यधिक निर्माण पर प्रतिबंध लगाना: 
    • मृदा की भार वहन क्षमता और स्थल की स्थिरता की जाँच के बाद ही निर्माण की अनुमति दी जानी चाहिये और ढलानों की खुदाई पर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये।
  • पत्थरों एवं चट्टानों का सरंक्षण: 
    • भूस्खलन क्षेत्रों में पहाड़ियों के निचले भाग से पत्थरों एवं चट्टानों को नहीं हटाया जाना चाहिये क्योंकि ये अधोपर्वतीय क्षेत्रों से पत्थरों को हटा देते हैं जिसके परिणामस्वरूप भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
  • वृक्षों का संरक्षण: 
    • समिति ने भूस्खलन क्षेत्र में वृक्षों को न काटने की भी सलाह दी है। मृदा और जल संसाधनों के संरक्षण के लिये क्षेत्र में व्यापक वृक्षारोपण कार्य भी किये जाने चाहिये।
  • जल रिसाव को रोकना: 
    • भविष्य में भूस्खलन को रोकने के लिये पक्की जल निकासी प्रणाली का निर्माण करके खुले वर्षा जल के रिसाव को रोकना होगा।
  • नदी प्रशिक्षण: 
    • नदी के प्रवाह को निर्देशित करने के लिये संरचनाओं का निर्माण किया जाना चाहिये। पहाड़ियों पर बने हैंगिंग बोल्डर्स को भी सहारा दिया जाना चाहिये।

और पढ़े: जोशीमठ भूस्खलन

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन के कारणों और परिणामों पर चर्चा करें। प्रभावी भूमि-उपयोग योजना और सतत् जल प्रबंधन प्रथाएँ इस घटना से जुड़े जोखिमों को कैसे कम कर सकती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिये सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था तथा संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था? (2021)

(a) धौलावीरा       
(b) कालीबंगा
(c) राखीगढ़ी       
(d) रोपड़

उत्तर: (a)


 प्रश्न. ‘वाटरक्रेडिट’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)

  1. यह जल एवं स्वच्छता क्षेत्र में कार्य के लिये सूक्ष्म वित्त साधनों (माइक्रोफाइनेंस टूल्स) को लागू करता है।
  2. यह एक वैश्विक पहल है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में प्रारंभ किया गया है।
  3. इसका उद्देश्य निर्धन व्यक्तियों को सहायिकी के बिना अपनी जल-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये समर्थ बनाना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सेे सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b)  केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3  
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. भूस्खलन के विभिन्न कारणों एवं प्रभावों का वर्णन कीजिये। राष्ट्रीय भू-स्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति के महत्त्वपूर्ण घटकों का उल्लेख कीजिये। (2021)

प्रश्न. पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं के प्रायः होते रहने के कारण बताइए। (2013)


कार्बन फार्मिंग: सतत् कृषि की राह

प्रिलिम्स के लिये:

कार्बन फार्मिंग, कार्बन पृथक्करण, कृषि उत्सर्जन, GHG उत्सर्जन, UNFCCC, कार्बन क्रेडिट, कार्बन बैंक, पेरिस जलवायु अभिसमय, 4 per 1000 पहल, शुद्ध शून्य उत्सर्जन

मेन्स के लिये:

कृषि उत्सर्जन, कार्बन फार्मिंग- महत्त्व, कार्बन फार्मिंग को प्रोत्साहित करने वाले उपाय, किसानों के लिये नकदी फसल के रूप में कार्बन।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में कार्बन फार्मिंग सतत् कृषि के लिये एक आशाजनक दृष्टिकोण के रूप में उभरी है।

  • यह जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करने के साथ-साथ मृदा के स्वास्थ्य और कृषि उपज को बढ़ाने के उद्देश्य से पुनर्योजी खेती के तरीकों को एकीकृत करता है।

कार्बन फार्मिंग क्या है?

  • परिचय:
    • कार्बन फार्मिंग कृषि के प्रति एक दृष्टिकोण है जो कार्बन पृथक्करण (वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का संग्रहण और भंडारण) को बढ़ाने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये कृषि एवं वानिकी प्रथाओं के प्रबंधन पर केंद्रित है।
      • इसका उद्देश्य मृदा और वनस्पति में कार्बन भंडारण को बढ़ाकर, मृदा के स्वास्थ्य में सुधार एवं कृषि गतिविधियों के कार्बन फुटप्रिंट को कम करके जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करना है।
  • कार्बन फार्मिंग की आवश्यकता:
    • वायुमंडलीय CO2 का निर्माण: वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में चिंताजनक वृद्धि हो रही है, जो जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख चालक है।
      • कार्बन फार्मिंग वातावरण में CO2 के निष्कर्षण और इसे लंबे समय तक संग्रहीत करने में सहायता कर सकते हैं।
    • कार्बन पृथक्करण क्षमता: नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित शोध कृषि योग्य मृदा की महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक के रूप में कार्य करने की क्षमता पर ज़ोर देता है, जो वायुमंडल से CO2 को प्रभावी ढंग से हटाता है।
      • कार्बन फार्मिंग की प्रथाएँ कार्बन पृथक्करण में हुई वृद्धि के लिये आदर्श स्थितियाँ निर्मित करके स्पष्ट तौर पर इस क्षमता को बढ़ाती हैं।
    • मृदा क्षरण: पारंपरिक कृषि पद्धतियों के कारण मृदा का क्षरण एक गंभीर मुद्दा है। यह क्षरण मृदा की कार्बन संग्रहीत करने की क्षमता को कम कर देता है।
      • कार्बन फॉर्मिंग की प्रथाएँ, जैसे कवर क्रॉपिंग (आवरण फसल) और कम जुताई, स्वस्थ मिट्टी सूक्ष्मजीव एवं कार्बनिक पदार्थ सामग्री को बढ़ावा देती हैं, जिससे मिट्टी की कार्बन ग्रहण तथा संग्रहीत करने की क्षमता में वृद्धि होती है।
    • पुनर्योजी पद्धतियाँ: कंपोस्ट अनुप्रयोग जैसी कार्बन फॉर्मिंग पद्धतियाँ मृदा के स्वास्थ्य, उर्वरता और समग्र कृषि उत्पादकता में सुधार कर सकती हैं।
      • ये पद्धतियाँ  मिट्टी के क्षरण को संबोधित करती हैं तथा एक प्राकृतिक प्रणाली बनाती हैं जो सक्रिय रूप से वायुमंडलीय CO2 का अवशोषण करती है, जिससे जलवायु परिवर्तन को कम करने में योगदान मिलता है।
  • कार्बन फार्मिंग पद्धतियों के प्रकार: ये अभ्यास मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार, जैवविविधता में वृद्धि, रसायनों की आवश्यकता तथा मीथेन उत्सर्जन को कम करने एवं चरागाहों में कार्बन भंडारण को बढ़ाने आदि में सहायता करते हैं।

पद्धतियाँ 

विवरण 

आवर्ती पशु चारण 

चरागाहों में पशुओं की योजनाबद्ध आवाजाही

एग्रोफॉरेस्ट्री 

वृक्षों एवं पौधों को कृषि में एकीकृत करना

संरक्षण कृषि

शून्य जुताई, फसल चक्र, आवरण फसल जैसी प्रथाएँ

एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन

जैविक खाद और कंपोस्ट खाद का प्रयोग 

कृषि पारिस्थितिकी

पारिस्थितिक सिद्धांतों को कृषि में एकीकृत करना 

पशुधन प्रबंधन

आवर्ती पशु चारण तथा बेहतर भोजन गुणवत्ता जैसी रणनीतियाँ

भूमि पुनर्स्थापन

पुनर्वनरोपण और आर्द्रभूमि पुनर्स्थापन जैसी प्रथाएँ

Carbon_Farming

विश्व में संचालित सर्वोत्तम प्रथाएँ:

  • शिकागो क्लाइमेट एक्सचेंज और ऑस्ट्रेलिया के कार्बन फार्मिंग इनिशिएटिव जैसे प्रयास बिना जुताई वाली खेती, पुनर्वनीकरण एवं प्रदूषण में कमी जैसी प्रथाओं के माध्यम से कृषि में कार्बन शमन को प्रोत्साहित करते हैं।
  • विश्व बैंक द्वारा समर्थित केन्या की कार्बन फार्मिंग  परियोजना दर्शाती है कि कैसे कार्बन फार्मिंग आर्थिक रूप से विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने, खाद्य सुरक्षा बढ़ाने और इसके प्रभावों के अनुकूल होने में सहायता कर सकती है।
  • पेरिस में 2015 COP21 जलवायु वार्ता के दौरान '4 प्रति 1000' पहल की शुरुआत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में कार्बन फार्मिंग के विशिष्ट महत्त्व को रेखांकित करती है।

कार्बन फार्मिंग से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • मानकीकरण और प्रमाणन: खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की एक रिपोर्ट कृषि मृदा में कार्बन पृथक्करण को मापने के लिये मानकीकृत पद्धतियों की कमी पर प्रकाश डालती है।
    • इससे कार्बन फार्मिंग पद्धतियों के माध्यम से उत्पन्न कार्बन क्रेडिट को सत्यापित करना कठिन हो जाता है।
  • जागरूकता और विस्तार सेवाओं की कमी: भारत सरकार के नीति आयोग की एक रिपोर्ट भारतीय किसानों के बीच कार्बन फार्मिंग प्रथाओं और उनके लाभों के बारे में सीमित जागरूकता पर प्रकाश डालती है।
  • छोटी जोत और अल्पकालिक लक्ष्य: भारत में छोटी तथा खंडित जोत का प्रभुत्व है। इससे कार्बन फार्मिंग पद्धतियों का बड़े पैमाने पर कार्यान्वयन और अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
  • नीति और नियामक ढाँचे: भारतीय उद्योग परिसंघ (Confederation of Indian Industry- CII) की एक रिपोर्ट भारत में कार्बन फार्मिंग प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिये व्यापक नीति एवं नियामक ढाँचे की आवश्यकता पर ज़ोर देती है। 
  • वित्तीय प्रोत्साहन और बाज़ार पहुँच: भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER) द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र किसानों को कार्बन फार्मिंग पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करने के लिये सब्सिडी या कार्बन क्रेडिट योजनाओं जैसे वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने के महत्त्व को रेखांकित करता है।
    • कार्बन बाज़ारों तक सीमित पहुँच भी एक चुनौती है।
  • अन्य चुनौतियाँ:
    • गर्म और शुष्क क्षेत्र: सीमित जल की उपलब्धता, पादपों की वृद्धि तथा कार्बन पृथक्करण क्षमता को प्रतिबंधित करती है।
    • जल प्राथमिकता: पेयजल और नियमित आवश्यकताओं के लिये जल की कमी कृषि प्रथाओं को सीमित करती है।
    • कवर क्रॉपिंग के साथ चुनौतियाँ: अतिरिक्त जल की माँग कवर क्रॉपिंग जैसी प्रथाओं को अव्यवहार्य बना सकती है।
    • पादप चयन: सभी पादप प्रजातियाँ कार्बन का संग्रहण और भंडारण करने में शुष्क वातावरण में समान रूप से प्रभावी नहीं हैं।

आगे की राह 

  • जलवायु परिवर्तन और कृषि: जलवायु-लचीली और उत्सर्जन कम करने वाली कृषि पद्धतियाँ अनुकूलन रणनीतियों से लाभान्वित हो सकती हैं।
    • जलवायु परिवर्तन को कम करने में कृषि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • भारत में जैविक कृषि की व्यवहार्यता: भारत में शुरुआती पहल और कृषि अनुसंधान कार्बन पृथक्करण के लिये जैविक कृषि की व्यवहार्यता को प्रदर्शित करते हैं।
  • कृषि-पारिस्थितिकी प्रथाओं की आर्थिक क्षमता: भारत में कृषि-पारिस्थितिकी प्रथाओं में लगभग 170 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि से 63 बिलियन अमेरिकी डॉलर उत्पन्न करने की क्षमता है।
    • स्थायी कृषि पद्धतियों के माध्यम से जलवायु सेवाएँ प्रदान करने के लिये किसानों को प्रति एकड़ लगभग ₹5,000-6,000 का वार्षिक भुगतान प्राप्त हो सकता है।
  • कार्बन फार्मिंग के लिये क्षेत्रीय उपयुक्तता: सिंधु-गंगा के मैदान और दक्कन के पठार जैसे क्षेत्र कार्बन फार्मिंग के लिये उपयुक्त हैं।
    • हिमालय क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों व तटीय क्षेत्रों में लवणीकरण तथा सीमित संसाधनों जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे पारंपरिक कृषि पद्धतियों को अपनाना सीमित हो जाता है। इसलिये, क्षमता निर्माण के बाद इन क्षेत्रों का उपयोग कार्बन फार्मिंग के लिये किया जा सकता है।
  • कार्बन क्रेडिट सिस्टम की भूमिका: कार्बन क्रेडिट सिस्टम पर्यावरणीय सेवाओं के माध्यम से अतिरिक्त आय प्रदान करके किसानों को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
    • कृषि मृदा में 20-30 वर्षों में सालाना 3-8 बिलियन टन CO2 -समकक्ष को अवशोषित करने की क्षमता होती है, जो व्यवहार्य उत्सर्जन को कम करके जलवायु स्थिरीकरण के मध्य अंतर को कम करती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. कार्बन फार्मिंग की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये और जलवायु परिवर्तन को कम करने में इसकी क्षमता पर चर्चा कीजियेI कार्बन फार्मिंग को भारत में कृषि पद्धतियों में कैसे एकीकृत किया जा सकता है? कार्बन फार्मिंग को बढ़ावा देने से जुड़ी चुनौतियाँ और अवसर क्या हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. ब्लू कार्बन क्या है?  (2021)

(a) महासागरों और तटीय पारिस्थितिक तंत्रों द्वारा प्रगृहीत कार्बन
(b) वन जैव मात्रा (बायोमास) और कृषि मृदा में प्रच्छादित कार्बन
(c) पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस में अंतर्विष्ट कार्बन
(d) वायुमंडल में विद्यमान कार्बन

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा ‘‘कार्बन निषेचन’’ (कार्बन फर्टिलाइज़ेशन) को सर्वोत्तम वर्णित करता है? (2018)

(a) वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ी हुई सांद्रता के कारण बढ़ी हुई पादप वृद्धि
(b) वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ी हुई सांद्रता के कारण पृथ्वी का बढ़ा हुआ तापमान
(c) वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ी हुई सांद्रता के परिणामस्वरूप महासागरों की बढ़ी हुई अम्लता
(d) वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ी हुई सांद्रता के द्वारा हुए जलवायु परिवर्तन के अनुरूप पृथ्वी पर सभी जीवधारियों का अनुकूलन

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ‘कार्बन के सामाजिक मूल्य’ पद का सर्वोत्तम रूप से वर्णन करता है? आर्थिक मूल्य के रूप में यह निम्नलिखित में से किसका माप है? (2020)

(a) प्रदत्त वर्ष में एक टन CO2 के उत्सर्जन से होने वाली दीर्घकालीन क्षति,     
(b) किसी देश की जीवाश्म ईंधनाें की आवश्यकता, जिन्हें जलाकर देश अपने नागरिकाें को वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करता है,
(c) किसी जलवायु शरणार्थी (Climate Refugee) द्वारा किसी नए स्थान के प्रति अनुकूलित होने हेतु किये गए प्रयास, 
(d) पृथ्वी ग्रह पर किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अंशदत कार्बन पदचिह्न,

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. फसल विविधीकरण के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ क्या हैं? उभरती प्रौद्योगिकियाँ फसल विविधीकरण का अवसर कैसे प्रदान करती हैं? (2021)


चॉकलेट उद्योग में मंदी

प्रिलिम्स के लिये:

अल नीनो, हीट वेव, जलवायु परिवर्तन, कोको की खेती, अंतर्राष्ट्रीय कोको संगठन (ICCO)

मेन्स के लिये:

चॉकलेट उद्योग पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, भारत में कोको उत्पादन के लिये नीतिगत विकास का महत्त्व

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों ? 

चॉकलेट उद्योग संकट का सामना कर रहा है क्योंकि कोको बीन्स की कीमतें बढ़ रही है, जो अप्रैल 2024 में रिकॉर्ड 12,000 अमरीकी डॉलर प्रति टन तक पहुँच गई है। 

  • वर्ष 2023 में कीमत में हुई लगभग चार गुना वृद्धि ने चिंता उत्पन्न कर दी है तथा कीमतों में उतार चढ़ाव के अंतर्निहित कारणों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

कोको की बढ़ती कीमतों के पीछे क्या कारण हैं?

  • अल-नीनो और जलवायु परिवर्तन:
    • मौज़ूदा संकट का प्रत्यक्ष कारण पश्चिम अफ्रीकी देशों घाना और आइवरी कोस्ट में मौसमी फसलों का नष्ट होना है, जो विश्व की 60% कोको बीन्स का उत्पादन करते हैं। 
    • अल-नीनो, एक मौसम पैटर्न जो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में सतह के जल के असामान्य रूप से गर्म होने की घटना है, जिसके कारण पश्चिम अफ्रीका में सामान्य से अधिक भारी वर्षा हुई। इसने ब्लैक पाड रोग के प्रसार के लिये एक आदर्श वातावरण निर्मित किया, जिसके कारण कोको पेड़ की शाखाओं पर कोको की फलियाँ सड़ जाती हैं।
    • जलवायु परिवर्तन, भी एक प्रेरक कारक है, हीट वेव, सूखे और भारी वर्षा से कोको उत्पादन को अत्यधिक खतरा है, जो किसानों तथा चॉकलेट निर्माताओं के लिये समान रूप से दीर्घकालिक चुनौतियाँ पेश करता है। 
  • कोको किसानों की निम्न आय:
    • अंतर्निहित मुद्दा यह है कि बड़ी चॉकलेट कंपनियाँ पश्चिम अफ्रीका में कोको किसानों को पर्याप्त भुगतान नहीं करती हैं, जो औसतन 1.25 डॉलर प्रतिदिन से कम कमाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की 2.15 डॉलर प्रतिदिन की पूर्ण गरीबी रेखा से काफी कम है।
    • किसान धन के अभाव के कारण उपज में बढ़ोतरी करने या जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लचीलापन लाने के लिये भूमि में निवेश करने में सक्षम नहीं हैं, जिससे दास और बाल श्रमिकों के उपयोग में वृद्धि होती है तथा अवैध सोने के खनिकों को भूमि का विक्रय कर दिया जाता है। 
      • परिणामस्वरूप, कोको किसान निर्धन हैं तथा अपनी भूमि में निवेश करने या सतत् प्रथाओं को अपनाने में असमर्थ हैं, जिससे उत्पादन में गिरावट और कीमतों में वृद्धि हुई है।
    • चॉकलेट कंपनियों को हुए भारी लाभ के बावज़ूद, उन्होंने किसानों की आय बढ़ाने में सहायता करने के लिये कुछ नहीं किया है, जिससे किसानों का दीर्घकालिक शोषण हुआ और संभावित रूप से लंबे समय में उपभोक्ताओं के लिये चॉकलेट की कीमतें बढ़ गईं।
  • चल रहे संकट के संभावित परिणाम:
    • अंतर्राष्ट्रीय कोको संगठन (ICCO) ने वर्ष 2023-2024 सीज़न के लिये लगभग 374,000 टन की वैश्विक कमी की भविष्यवाणी की है, जिससे कोको की बीन्स में कमी होगी परिणामस्वरूप चॉकलेट की कीमतें बढ़ जाएंगी।
      • ICCO संयुक्त राष्ट्र के तहत वर्ष 1973 में स्थापित एक अंतर्सरकारी संगठन है।
      • आबिदजान, आइवरी कोस्ट में स्थित ICCO को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय कोको सम्मेलन में जिनेवा में बातचीत के पहले अंतर्राष्ट्रीय कोको समझौते को लागू करने के लिये बनाया गया था।
    • कोको बीन्स की कमी बनी रहने की संभावना है, जिससे किसानों का शोषण बढ़ेगा और चॉकलेट की कीमतों में वृद्धि होगी।
    • विशेषज्ञों का मानना है कि प्रमुख चॉकलेट कंपनियों के पास आपूर्ति शृंखला में धन का पुनर्वितरण करने की गुंज़ाइश है, लेकिन जब तक वे ऐसा नहीं करते, स्थिति में सुधार होने की संभावना नहीं है।

Rising_Cost_of_cococa

कोको की खेती की आवश्यकताएँ:

  • ऊँचाई तथा वर्षा: कोको को समुद्र तल से 300 मीटर उच्च स्थान पर उगाया जा सकता है। इसके लिये 1500-2000 मि.मी. वार्षिक वर्षा के साथ प्रतिमाह न्यूनतम 90-100 मि.मी वर्षा की आवश्यकता होती है।  
  • तापमान एवं मृदा की स्थिति: कोको को उच्च तापमान में उगाया जाता है, अधिकतम 25 डिग्री सेल्सियस के साथ 15- 39 डिग्री सेल्सियस का तापमान आदर्श माना जाता है।
    • कोको की खेती के लिये उत्कृष्ट जल निकासी वाली मृदा की आवश्यकता होती है। खराब जल निकासी वाली मृदा पौधों की वृद्धि को प्रभावित करती है। कोको की खेती का अधिकांश रूप से  चिकनी दोमट और बलुई दोमट मृदा वाले क्षेत्र पर की जाती है। यह 6.5 से 7.0 pH रेंज में अच्छी तरह से बढ़ता है।
  • कृषिवानिकी: कोको के पेड़ छाया में पनपते हैं और अक्सर ऊँचे पेड़ों की छत्रछाया में उगाए जाते हैं। यह कृषिवानिकी अभ्यास न केवल आवश्यक माइक्रॉक्लाइमेट को बनाए रखने में सहायता करता है बल्कि जैवविविधता का भी समर्थन करता है।
  • भारत में कोको उत्पादन:
    • भारत में नारियल और सुपारी के खेत कोको उगाने के लिये आदर्श स्थान हैं क्योंकि सुपारी, कोको को 30 से 50 प्रतिशत तक सूर्य की किरणों को अवशोषित करने की अनुमति प्रदान करती है।
    • भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में मुख्य रूप से सुपारी तथा नारियल के साथ सहफसल के रूप में की जाती है।
    • राष्ट्रीय बागवानी मिशन आंध्र प्रदेश में कोको किसानों को पहले तीन वर्षों के लिये 20,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी प्रदान करता है।
    • जर्मप्लाज़्म की शुरूआत के साथ, सेंट्रल प्लांटेशन क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट कोको में सुधार हेतु पद्धतिगत परियोजनाएँ निर्मित करता है।

Cocoa_Production_Globally

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. जलवायु परिवर्तन किस प्रकार कोको की कृषि करने वाले किसानों के लिये चुनौतियों में वृद्धि करता है और साथ ही चॉकलेट उद्योग पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. बाज़ार में बिकने वाला ऐस्परटेम कृत्रिम मधुरक है। यह ऐमीनो अम्लों से बना होता है और अन्य ऐमीनो अम्लों के समान ही कैलोरी प्रदान करता है। फिर भी यह भोज्य पदार्थों में कम कैलोरी मधुरक के रूप में इस्तेमाल होता है। उसके इस्तेमाल का क्या आधार है? (2011) 

(a) ऐस्परटेम सामान्य चीनी जितना ही मीठा होता है, किंतु चीनी के विपरीत यह मानव शरीर में आवश्यक एन्ज़ाइमों के अभाव के कारण शीघ्र ऑक्सीकृत नहीं हो पाता है।
(b) जब ऐस्परटेम आहार प्रसंस्करण में प्रयुक्त होता है, तब उसका मीठा स्वाद तो बना रहता है किंतु यह ऑक्सीकरण-प्रतिरोधी हो जाता है।
(c) ऐस्परटेम चीनी जितना ही मीठा होता है, किंतु शरीर में अंतर्गहण होने के बाद यह कुछ ऐसे मेटाबोलाइट्स में परिवर्तित हो जाता है जो कोई कैलोरी नहीं देते हैं।
(d) ऐस्परटेम सामान्य चीनी से कई गुना अधिक मीठा होता है, अतः थोड़े से ऐस्परटेम में बने भोज्य पदार्थ ऑक्सीकृत होने पर कम कैलोरी प्रदान करते हैं।

उत्तर: (d)