संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ | 28 Jan 2025

प्रिलिम्स के लिये:

संसदीय विशेषाधिकार, संसदीय परंपराएँ, वैधानिक कानून, प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सूचना का अधिकार, न्यायिक उन्मुक्ति, विशेषाधिकार का उल्लंघन, विशेषाधिकार समिति, लोकसभा, राज्यसभा, निंदा, निलंबन, निष्कासन, 44वाँ संशोधन अधिनियम 1978, संसदीय स्वायत्तता, सर्वोच्च न्यायालय (SC), संविधान के अनुच्छेद 105, 122, 194 और 212।

मेन्स के लिये:

लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में संसदीय विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों का महत्त्व

संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ क्या हैं?

  • परिचय:
    • संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्ति से तात्पर्य भारत में संसद सदस्यों (MP) और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को दिये गए विशेष अधिकारों, स्वतंत्रताओं और उन्मुक्तियों से है, ताकि वे अपने कर्त्तव्यों का कुशलतापूर्वक और बिना किसी हस्तक्षेप के पालन कर सकें। 
    • ये विशेषाधिकार लोकतांत्रिक ढाँचे में विधायी संस्थाओं की स्वतंत्रता, गरिमा और प्रभावी कार्यप्रणाली सुनिश्चित करते हैं।
  • उत्पत्ति:
  • संसदीय विशेषाधिकारों के स्रोत:
    • भारत का संविधान :
      • अनुच्छेद 105: अनुच्छेद 105 सांसदों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संसद या इसकी समितियों में कार्यवाही के लिये न्यायालयी कार्यवाही से उन्मुक्ति प्रदान करता है, तथा संसद को विधि द्वारा विशेषाधिकारों को परिभाषित करने का अधिकार देता है।
      • अनुच्छेद 122: अनुच्छेद 122 प्रक्रियागत अनियमितताओं के आधार पर संसदीय कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगाता है।
      • अनुच्छेद 194: अनुच्छेद 194 राज्य विधायकों को विधायिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कार्यों के लिये उन्मुक्ति प्रदान करता है, साथ ही विधियों के माध्यम से विशेषाधिकारों को परिभाषित करने की शक्ति भी प्रदान करता है।
      • अनुच्छेद 212: अनुच्छेद 212 प्रक्रियागत अनियमितताओं के कारण न्यायालयों को राज्य विधानमंडल की कार्यवाही पर सवाल उठाने से प्रतिबंधित करता है।
    • संसदीय सम्मेलन (1947 की ब्रिटिश संसदीय प्रथाओं पर आधारित)।
    • वैधानिक कानून (संसद द्वारा अधिनियमित कानून )।
    • प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम (लोकसभा और राज्यसभा)।
    • न्यायिक व्याख्याएँ (सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्णय)।
  • प्रमुख विशेषताएँ:
    • इसका उद्देश्य संसदीय कार्यों के निष्पादन के दौरान सदस्यों को बाह्य दबावों और विधिक दायित्वों से संरक्षण देना है।
    • ये विशेषाधिकार सदस्यता के साथ ही समाप्त हो जाते हैं, अर्थात व्यक्ति के विधानमंडल का सदस्य न रहने पर ये विशेषाधिकार समाप्त हो जाते हैं।
    • इनका विस्तार व्यक्तिगत सदस्यों और सामूहिक संस्था (सदन) तक है।

नोट:

  • वर्तमान में संसद का कोई ऐसा अधिनियम नहीं है जो संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित करता हो। 
  • ये उन्मुक्तियाँ वर्तमान में ब्रिटिश संसदीय परंपराओं द्वारा शासित हैं।
  • विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने के प्रयासों को अस्वीकार कर दिया गया है, तथा वर्ष 2008 में लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने इसके विरुद्ध सिफारिश की थी।

सांसदों और विधायकों को कौन-कौन से संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त हैं?

व्यक्तिगत विशेषाधिकार:

  • परिचय:
    • व्यक्तिगत विशेषाधिकार से तात्पर्य सांसदों और राज्य विधानमंडल के सदस्यों  द्वारा प्राप्त अधिकारों और उन्मुक्तियों से है, जो उन्हें हस्तक्षेप या अभियोजन के भय के बिना अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में सक्षम बनाती हैं।
  • विशेषाधिकार:
    • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: सदस्यों को संसद में अपनी बात स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार है (अनुच्छेद 105(1))।
    • विधिक कार्यवाही से उन्मुक्ति: संसद या उसकी समितियों में कही गई किसी बात या दिये गए मत के लिये सदस्यों को न्यायालयी कार्यवाही से संरक्षण प्राप्त है (अनुच्छेद 105(2))।
    • प्रकाशनों के लिये संरक्षण: रिपोर्ट, पत्र, वोट या संसद द्वारा अधिकृत कार्यवाही प्रकाशित करने के लिये व्यक्तियों के खिलाफ कोई न्यायालयी कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती (अनुच्छेद 105 (2))।
    • न्यायिक जाँच से उन्मुक्ति: न्यायालय प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के आधार पर संसदीय कार्यवाही की वैधता पर प्रश्न नहीं उठा सकते (अनुच्छेद 122(1))।
    • गिरफ्तारी से उन्मुक्ति: सदस्यों को सत्र के दौरान सिविल मामलों में गिरफ्तारी से उन्मुक्ति प्रदान की जाती है, साथ ही सत्र से 40 दिन पहले और बाद में भी गिरफ्तारी से उन्मुक्ति प्रदान की जाती है (धारा 135 A, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908)।

सामूहिक विशेषाधिकार:

  • परिचय:
    • ये वे अधिकार और उन्मुक्तियाँ हैं जो भारतीय संसद और राज्य विधानमंडल तथा उनके सदस्यों और अधिकारियों को सामूहिक रूप से प्राप्त हैं।
  • विशेषाधिकार:
    • प्रकाशन अधिकार: संसद अपनी रिपोर्ट, बहस और कार्यवाही प्रकाशित कर सकती है और दूसरों को ऐसा करने से प्रतिबंधित कर सकती है। 
      • 44वाँ संशोधन अधिनियम 1978, प्रेस को गुप्त बैठकों को छोड़कर, बिना पूर्व अनुमोदन के संसदीय कार्यवाही की सटीक रिपोर्ट प्रकाशित करने की अनुमति देता है।
    • गुप्त बैठकें: संसद अतिथियों (Strangers) को बाहर रख सकती है और महत्त्वपूर्ण मामलों पर गुप्त चर्चा कर सकती है।
    • नियम-निर्माण प्राधिकरण: यह संबंधित मामलों के न्यायनिर्णयन सहित अपनी प्रक्रियाओं और व्यावसायिक आचरण के लिये नियम स्थापित कर सकता है।
    • अनुशासनात्मक शक्तियाँ: संसद विशेषाधिकार के उल्लंघन या अवमानना ​​के लिये सदस्यों या बाहरी व्यक्तियों को निंदा, चेतावनी, कारावास, निलंबन या निष्कासन के माध्यम से दंडित कर सकती है।
    • सूचना का अधिकार: इसे अपने सदस्यों की गिरफ्तारी, बंदी, अपराध सिद्धि, कारावास या मुक्ति के बारे में तुरंत सूचित किये जाने का अधिकार है।
    • जाँच शक्तियाँ: संसद जाँच कर सकती है, गवाहों को समन भेज सकती है, तथा संबंधित पेपर तथा रिकॉर्ड की मांग कर सकती है।
    • न्यायिक उन्मुक्ति: न्यायालय संसदीय कार्यवाही या उसकी समिति की गतिविधियों पर प्रश्न नहीं उठा सकते।
    • परिसर की सुरक्षा: पीठासीन अधिकारी की अनुमति के बिना संसद परिसर के भीतर गिरफ्तारी या विधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती।

विशेषाधिकार हनन और सदन की अवमानना ​​क्या है?

  • विशेषाधिकार का उल्लंघन:
    • विशेषाधिकार का उल्लंघन तब होता है जब कोई व्यक्ति या प्राधिकारी किसी सदस्य या सदन के विशेषाधिकारों की उपेक्षा करता है या उन्हें कमज़ोर करता है। 
    • इसमें सदन के वैध आदेशों की अवज्ञा या सदन, उसके सदस्यों, समितियों या अधिकारियों के विरुद्ध अपमानजनक कार्यवाही जैसे अपराध शामिल हैं।
    • ऐसे उल्लंघन दंडनीय हैं।
  • सदन की अवमानना:
    • यह विशेषाधिकार हनन से अलग है और इसका तात्पर्य किसी ऐसे कृत्य या चूक से है जो सदन, उसके सदस्यों या अधिकारियों को अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालता है। 
    • इसमें सदन या उसके सदस्यों के बारे में अपमानजनक भाषण या लेख, सभापति की निष्पक्षता पर सवाल उठाना, या निष्कासित कार्यवाही को प्रकाशित करना शामिल है।

विशेषाधिकार का प्रश्न उठाने की प्रक्रिया क्या है?

  • प्राधिकार: केवल संसद ही विशेषाधिकार उल्लंघन या अवमानना ​​का निर्धारण कर सकती है; न्यायालयों को इस पर कोई अधिकार नहीं है।
  • प्रक्रिया:
    • कोई सदस्य राज्यसभा के सभापति/लोकसभा अध्यक्ष की सहमति से विशेषाधिकार हनन का मामला उठा सकता है।
    • यदि सहमति मिल जाती है, तो सदन मामले पर निर्णय ले सकता है या इसे विशेषाधिकार समिति (राज्यसभा में 10 सदस्य, लोक सभा में 15 सदस्य) को भेज सकता है।
    • विशेषाधिकार समिति का कार्य:
      • समिति संदर्भित मामलों की जाँच करती है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या विशेषाधिकार का उल्लंघन हुआ है, इसकी प्रकृति क्या है, तथा परिस्थितियाँ क्या हैं।
      • समिति द्वारा अनुशंसाओं सहित एक रिपोर्ट सदन में प्रस्तुत की जाती है।
      • रिपोर्ट पर विचार करने के लिये प्रस्ताव के बाद, समिति सदन से अनुशंसाओं को स्वीकार या अस्वीकार करने का प्रस्ताव रखती है।
      • आगे की कार्यवाही सदन के निर्णय पर आधारित होती है, जिसे प्रस्ताव के सर्वसम्मति से पारित होने पर क्रियान्वित किया जाएगा।
  • अध्यक्ष की भूमिका: अध्यक्ष स्वयं भी मामले को समिति को भेज सकते हैं या स्वतंत्र जाँच कराकर सदन को सूचित कर सकते हैं।
  • प्रतिबंध: किसी विशिष्ट, हालिया मामले पर ध्यान केंद्रित करते हुए, प्रत्येक बैठक केवल एक विशेषाधिकार प्रश्न उठाया जा सकता है।
  • विशेषाधिकार उल्लंघन के लिये दंड:
    • एक बार जब सदन विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिये दंड निर्धारित कर देता है, तो इसमें निंदा, चेतावनी या कारावास जैसे उपाय शामिल हो सकते हैं, तथा बंदी सदन सत्र की अवधि तक ही सीमित रह सकती है।
    • दोषी सांसदों के लिये दंड में निलंबन या निष्कासन शामिल हो सकता है।
  • उल्लेखनीय मामला:
    • वर्ष 1978 में, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लोकसभा विशेषाधिकार समिति द्वारा विशेषाधिकार हनन और अवमानना ​​का दोषी पाया गया था। सरकारी अधिकारियों को परेशान करने के आरोप में उन्हें संसद से निष्कासन और कारावास का सामना करना पड़ा। बाद में वर्ष 1981 में इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया गया।

संसदीय विशेषाधिकारों से संबंधित प्रमुख निर्णय क्या हैं?

  • पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (CBI/SPE), 1998: सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने निर्णय दिया कि रिश्वत लेने वाले सांसदों पर भ्रष्टाचार के लिये मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, यदि वे सहमति के अनुसार मतदान करते हैं या सदन में बोलते हैं।
  • केरल राज्य बनाम के. अजित और अन्य, 2021: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ सभी नागरिकों पर लागू आपराधिक विधियों सहित सामान्य विधियों से उन्मुक्ति प्रदान नहीं करती हैं।
  • सीता सोरेन बनाम भारत संघ, 2024: सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1998 के पी.वी. नरसिम्हा राव मामले में दिये गए निर्णय को पलट दिया, जिसमें मतदान करने के लिये रिश्वत लेने वाले संसद और विधानसभा सदस्यों को उन्मुक्ति प्रदान की गई थी। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों और शासन पर रिश्वतखोरी के हानिकारक प्रभाव पर ज़ोर दिया, तथा निर्णय दिया कि अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 के तहत उन्मुक्ति रिश्वतखोरी के मामलों तक विस्तारित नहीं होती, जो कि एक पृथक आपराधिक कृत्य है, जो विधिनिर्माताओं के मूल कर्त्तव्यों से संबंधित नहीं है।

संसदीय विशेषाधिकारों की आलोचनाएँ क्या हैं?

  • पारदर्शिता का अभाव: संसदीय विशेषाधिकारों का प्रयोग प्रायः अपारदर्शी प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है, जिससे सार्वजनिक निगरानी सीमित हो जाती है तथा विधायी प्रणाली में विश्वास कम हो जाता है।
    • इससे विधायी कार्यवाही के दौरान तथा उनके सार्वजनिक आचरण में विधायकों को जवाबदेह ठहराने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न होती है।
  • दुरुपयोग की संभावना: विधायकों ने कभी-कभी विधिक जवाबदेही से बचने या असहमति को दबाने के लिये विशेषाधिकारों का दुरुपयोग किया है, तथा अनुचित या निराधार बयान देने के लिये विधायिका के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग किया है।
    • विशेषाधिकारों के उपयोग की निगरानी और विनियमन के तंत्र अपर्याप्त हैं, जिससे दुरुपयोग का खतरा बढ़ रहा है और विधायी प्रक्रियाओं में विश्वास कम हो रहा है।
  • कार्यक्षेत्र में अस्पष्टता: कई विशेषाधिकारों की अलिखित प्रकृति असंगत व्याख्याओं और अनुप्रयोगों को जन्म देती है, जिससे अनिश्चितता और मनमाने निर्णयों की गुंजाइश बनती है।
  • समानता के साथ टकराव: गिरफ्तारी से उन्मुक्ति जैसे विशेषाधिकारों को विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत के साथ असंगत माना जा सकता है, जिससे विधायकों को अनुचित संरक्षण प्राप्त होता है।
  • पुरानी प्रथाएँ: औपनिवेशिक युग की परंपराओं में निहित कुछ विशेषाधिकार अब पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही के आधुनिक लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप नहीं हैं।

संसदीय विशेषाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ क्या हैं?

  • यूनाइटेड किंगडम: 
    • UK की संसद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गिरफ्तारी से उन्मुक्ति तथा अपनी कार्यवाही को विनियमित करने का अधिकार जैसे विशेषाधिकार प्राप्त हैं। ये संविधि, सामान्य विधि और पूर्व निर्णयों के संयोजन से प्राप्त होते हैं।
  • कनाडा: 
    • कनाडा की संसद अपने सदस्यों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गिरफ्तारी से उन्मुक्ति, तथा विशेषाधिकार के उल्लंघन के मामले में कार्यवाही करने की शक्ति प्रदान करती है। 
    • इन्हें संविधान अधिनियम, 1867 और कनाडा संसद अधिनियम, 1985 के तहत परिभाषित किया गया है।
  • ऑस्ट्रेलिया: 
    • संसदीय विशेषाधिकार संविधान में निहित हैं। विधायकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गिरफ्तारी से उन्मुक्ति, तथा संसदीय कार्यवाही को विनियमित करने का अधिकार प्राप्त है, तथा ये अधिकार UK और कनाडा के समान सिद्धांतों पर आधारित हैं।

संसदीय विशेषाधिकारों से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • संसदीय स्वायत्तता को खतरा: संहिताकरण संसदीय मामलों को न्यायिक जाँच या कार्यकारी हस्तक्षेप के अधीन करके विधायिका की स्वतंत्रता को कमज़ोर कर सकता है, जिससे शक्तियों का पृथक्करण समाप्त हो सकता है।
  • संवैधानिक प्रावधानों का खंडन : संविधान का अनुच्छेद 122 न्यायालयों को संसदीय कार्यवाही की जाँच करने से रोकता है, जिससे विधायी स्वायत्तता सुनिश्चित होती है। विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने से संसदीय मामलों को विधिक चुनौतियों की अनुमति देकर इस सुरक्षा को कमज़ोर किया जा सकता है।
  • नम्यता की क्षति: संसदीय विशेषाधिकार नम्य होते हैं और विधायकों को उभरते मुद्दों के अनुकूल ढलने की अनुमति देते हैं। संहिताकरण से कठोर नियम लागू हो सकते हैं, जिससे विधायिका की बदलती राजनीतिक गतिशीलता पर प्रतिक्रिया देने की क्षमता कम हो सकती है।
  • जटिलता और लंबी प्रक्रिया: संहिताकरण के लिये सांसदों, विधिक विशेषज्ञों और नागरिक समाज के बीच व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता होगी, जिससे यह एक समय लेने वाली और जटिल प्रक्रिया बन जाएगी।

आगे की राह

  • उत्तरदायी उपयोग: विधायकों को अपने विशेषाधिकारों का विवेकपूर्ण उपयोग करना चाहिये, व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिये दुरुपयोग से बचना चाहिये। अनुचित टिप्पणियाँ, निराधार आरोप या शिष्टाचार को कमज़ोर करने वाली कार्यवाहियों से बचना चाहिये।
  • अधिकारों का सम्मान: संसदीय विशेषाधिकारों से व्यक्तियों के अधिकारों और सम्मान का उल्लंघन नहीं होना चाहिये। विधायकों को विशेषाधिकारों का उपयोग भय, परेशान करने अथवा भेदभावपूर्ण व्यवहार करने के लिये नहीं करना चाहिये।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही: विधिक निर्माताओं को विशेषाधिकारों का उपयोग करने में पारदर्शिता बनाए रखनी चाहिये, अपने कारणों को स्पष्ट रूप से बताना चाहिये और अपने कार्यों को उचित ठहराने के लिये तैयार रहना चाहिये। इससे जनता का विश्वास बढ़ता है और विधायी विश्वसनीयता मज़बूत होती है।
  • संसदीय प्रक्रियाओं का पालन: स्थापित संसदीय नियमों और स्थायी आदेशों का सख्ती से पालन करना आवश्यक है। विधायी प्रक्रियाओं की पवित्रता को बनाए रखते हुए विशेषाधिकारों के आह्वान और प्रवर्तन में निष्पक्षता और न्यायसंगतता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
  • क्षमता निर्माण और जागरूकता: संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे, सीमाओं और नैतिक उपयोग पर प्रशिक्षण कार्यक्रम और नियमित जागरूकता सत्र, विधायकों को अपनी ज़िम्मेदारियों को बेहतर ढंग से समझने और उन्हें बनाए रखने में मदद कर सकते हैं।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स

प्रश्न. समाज में समानता होने का एक निहितार्थ यह है कि उसमें (2017)

(a) विशेषाधिकारों का अभाव है
(b) अवरोधों का अभाव है
(c) प्रतिस्पर्द्धा का अभाव है
(d) विचारधारा का अभाव है

उत्तर: A


मेन्स

प्रश्न. संसद और उसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ (इम्यूनिटीज़), जैसे कि वे संविधान की धारा 105 में परिकल्पित हैं, अनेकों असंहिताबद्ध (अन-कोडिफाइड) और अ-परिगणित विशेषाधिकारों के जारी रहने का स्थान खाली छोड़ देती हैं। संसदीय विशेषाधिकारों के विधिक संहिताकरण की अनुपस्थिति के कारणों का आकलन कीजिये। इस समस्या का क्या समाधान निकाला जा सकता है? (2014)