भारतीय राजनीति
चुनावी बॉण्ड्स की पारदर्शिता का मुद्दा: विरोध में चुनाव आयोग
- 28 Mar 2019
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संदर्भ
एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम में 27 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए चुनावों में फंडिंग को लेकर चुनाव आयोग ने ‘चुनावी बॉण्ड्स योजना’ को पारदर्शिता के लिये गंभीर खतरा बताया। केंद्र सरकार की नीति से असहमति जाहिर करते हुए चुनाव आयोग ने कहा कि राजनीतिक दलों को इनके ज़रिये दिया जाने वाला चंदा कहीं से भी सही नहीं है। आयोग ने सरकार के इस कदम को गलत फैसला बताया। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया कि 26 मई, 2017 को उसने विधि एवं न्याय मंत्रालय को पत्र लिखकर अपने इस विचार से अवगत कराया था। आयोग ने कहा कि उसने अपने पत्र में बताया था कि आयकर कानून, जनप्रतिनिधित्व कानून और वित्त कानून में बदलाव राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट में दी गई है चुनौती
कम्युनिस्ट पार्टी और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएँ दायर कर चुनावी बॉण्ड योजना की वैधता को चुनौती दी है। याचिकाकर्त्ताओं ने कहा है कि यह योजना अपारदर्शी फंडिंग सिस्टम है जिस पर कोई निगरानी नहीं है। इसके अलावा बॉण्ड में बरती गई गोपनीयता से कॉर्पोरेट हाउसों को फायदा होगा, क्योंकि इसमें बॉण्ड प्राप्त करने वाले राजनैतिक दलों के नाम का खुलासा नहीं करने का प्रावधान है। ऐसे में राज्य की सरकारी नीतियों में कॉर्पोरेट के निजी हित को प्राथमिकता मिल सकती है और आम जनता का हित पीछे रह जाएगा। दूसरी तरफ केंद्र सरकार का कहना है कि चुनावी बॉण्ड योजना से राजनैतिक दलों को चंदा देने के मामले में पारदर्शिता आएगी। नकद में चुनावी चंदा लेने के बजाय यह व्यवस्था कहीं अधिक पारदर्शी और जवाबदेह है। गौरतलब है कि राजनीतिक दल किसी एक व्यक्ति से अधिकतम दो हज़ार रुपए का नकद चंदा ले सकता है। इन जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट 2 अप्रैल को सुनवाई करेगा।
क्या है चुनावी बॉण्ड योजना?
सरकार ने चुनावी फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने के लिये 2017-18 के बजट में चुनावी बॉण्ड स्कीम की घोषणा की थी। चुनावी बॉण्ड सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिये रिज़र्व बैंक अधिनियम-1937, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951, आयकर अधिनियम-1961 और कंपनी अधिनियम-2013 में किये गए संशोधनों के बाद शुरू किये थे। भारतीय स्टेट बैंक के ज़रिये मिलने वाले इन बॉण्ड्स को कोई भी व्यक्ति खरीद सकता है और इन्हें राजनैतिक दल को जारी कर सकता है।
प्रमुख विशेषताएँ
- यह योजना 2 जनवरी, 2018 से लागू है।
- चुनावी बॉण्ड की खरीद ऐसे व्यक्ति द्वारा की जा सकती है, जो भारत का नागरिक हो या भारत में निगमित या स्थापित हो।
- व्यक्ति विशेष के रूप में कोई भी व्यक्ति एकल रूप से या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बॉण्ड्स खरीद सकता है।
केवल वही राजनीतिक पार्टियाँ चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने की पात्र होंगी, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अनुच्छेद 29ए के तहत पंजीकृत हैं और जिसने आम लोकसभा चुनावों या राज्य विधानसभा चुनावों में डाले गए मतों के एक प्रतिशत से कम मत प्राप्त नहीं किये हों। साथ ही चुनावी बॉण्ड्स को इसके लिये अधिकृत किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा केवल अधिकृत बैंक खाते के माध्यम से ही भुनाया जा सकेगा।
- जो दानकर्त्ता इन बॉण्ड्स को खरीदेगा उसे अपनी बैलेंस शीट में इसका विवरण दिखाना होगा।
- ये बॉण्ड सिर्फ स्टेट बैंक से ही खरीदे जा सकेंगे जो जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर में सिर्फ 10 दिनों के लिये ही बिक्री हेतु खुलेंगे।
- इसमें देने वाले की पहचान बैंक के पास रहेगी जो उसे गुप्त रखेगा। दानकर्त्ता का नाम इन बॉण्ड पर नहीं होगा।
- हर राजनैतिक दल को चुनाव आयोग के समक्ष रिटर्न दाखिल करना होता है कि आय कहाँ से प्राप्त हुई। ऐसे में इसका मूल्य राजनैतिक दल की स्वैच्छिक स्रोतों से हुई आय के रूप में दिखाया जाएगा।
- इनकी राशि 1000, 10,000, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ रुपए है और इन पर बैंक कोई ब्याज नहीं देता।
- राजनैतिक दलों को इसे 15 दिनों के अंदर भुनाना होता है तथा चुनाव आयोग को बताना होता है कि उन्हें कितना धन चुनावी बॉण्ड से मिला है।
अंतर्निहित सुरक्षा फीचर भी हैं
इसके अलावा, चुनावी बॉण्ड में कुछ अंतर्निहित (Inbuilt) सुरक्षा फीचर हैं जिससे इसके ज़रिये धोखाधड़ी करने अथवा फर्जी बॉण्ड पेश करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। क्रमरहित (Random) संख्या भी इन विशेषताओं में शामिल है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा इस संख्या को किसी भी ऐसे रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किया जाता जो चुनावी बॉण्ड खरीदने वाले अथवा किसी विशेष चुनावी बॉण्ड को जमा करने वाले राजनीतिक दल से संबंधित होता है। अत: जब बैंक किसी खरीदार को कोई चुनावी बॉण्ड जारी करता है तो संबंधित संख्या किसी भी राजनीतिक दल के लेन-देन से जुड़ी नहीं होती है।
जनप्रतिनिधत्व कानून, 1951 तथा विभिन्न समितियों की रिपोर्ट
भारतीय राजनीति में चुनावी चंदे का मामला हमेशा से ही विवादों में रहा है। कभी इसे राजनीति में कालेधन के उपयोग से जोड़ा जाता है, तो कभी राजनीति के अपराधीकरण के लिये भी इसे ही दोषी माना जाता है। इसीलिये चुनावी चंदा देने के तरीकों में लगातार बदलाव होते रहे हैं और चुनावी बॉण्ड योजना भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है।
- जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 29-बी में चुनावी फंडिग के तरीकों का जिक्र है। इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति या गैर-सरकारी कंपनी द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा दिया जा सकता है। लेकिन 1968 में कॉर्पोरेट फंडिंग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
- 1974 में कंवर लाल गुप्ता बनाम अमर नाथ चावला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि उम्मीदवारों के चुनावी खर्च को पार्टी के चुनावी खर्च में शामिल किया जाना चाहिये।
- इसके अगले ही साल संसद ने कोर्ट के आदेश के खिलाफ कानून बना दिया। बाद में 1985 में कंपनी अधिनियम में संशोधन ने कॉर्पोरेट फंडिंग को बहाल किया। इसके मुताबिक कंपनियाँ पिछले तीन सालों में हुए अपने औसत शुद्ध लाभ का पाँच फीसद तक दान कर सकती हैं।
- चुनावी फंडिंग में और अधिक बदलाव तब आए, जब दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट, 1990 और इंद्रजीत गुप्ता समिति की रिपोर्ट, 1998 ने चुनावों में आंशिक राज्य वित्तपोषण की सिफारिश की।
- 2003 में सरकार ने व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट फंडिंग को पूरी तरह से कर-मुक्त बना दिया। हालाँकि इसकी सीमा ज़रूर तय कर दी गई कि कंपनियाँ कितना राजनीतिक चंदा दे सकती हैं।
- इसमें यह प्रावधान था कि 20 हज़ार रुपए से कम की नकद राशि चंदे के तौर पर दी जा सकती है और उसमें दानकर्त्ता की पहचान बताने की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन चुनावी फंडिंग के कई संदेहास्पद मामलों के बाद 2017 में केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की उस सिफारिश को मान लिया जिसमें 20 हज़ार रुपए की सीमा को घटाकर 2 हज़ार रुपए करने की बात कही गई थी। साथ ही सरकार ने चुनावी फंडिंग को और पारदर्शी बनाने के लिये चुनावी बॉण्ड की संकल्पना पर विचार कर उस पर अमल किया। गौरतलब यह है कि चुनावी बॉण्ड योजना को लेकर चुनाव आयोग और अधिकांश दलों ने इसका विरोध किया था।
आसान नहीं है भारत में चुनाव लड़ना
चुनाव के मौसम में चुनाव लड़ने वालों को पैसा चाहिये होता है। भारत में चुनाव लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है। लोकसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार करोड़ों रुपए खर्च करते हैं सिर्फ इस उम्मीद में कि चुनाव उन्हें ही जीतना है। माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव भारत का ही नहीं दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव साबित होने जा रहा है। अमेरिकी थिंक टैंक कार्नेगी एंडॉमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस साउथ एशिया प्रोग्राम के विशेषज्ञ के अनुसार, “2016 में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव और कॉन्ग्रेस चुनाव में कुल साढ़े 6 अरब डॉलर (4.62 खरब रुपए) खर्च हुए थे और भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में एक अनुमान के मुताबिक 5 अरब डॉलर (3.55 खरब रुपए) खर्च हुए थे। ऐसे में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अमेरिकी चुनाव से अधिक ही खर्च होगा और इस तरह भारत का यह चुनाव दुनिया का सबसे महँगा चुनाव होगा।
क्यों लोकप्रिय नहीं हुए चुनावी बॉण्ड?
इन बॉण्ड के द्वारा दानकर्त्ताओं में बैंकिंग सिस्टम के ज़रिये राजनीतिक दलों को चंदा देने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। ऐसा माना जा रहा है कि चुनावी बॉण्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक पारदर्शी माध्यम है, क्योंकि इस बॉण्ड को डिज़िटल या चेक के ज़रिये भुगतान करके ही खरीदा जा सकता है। लिहाज़ा, अगर कोई व्यक्ति किसी दल को चंदा देता है तो उसके खाते में चंदे की रकम साफ तौर पर देखी जा सकेगी। यही कारण है कि चंदा लेने वाले और चंदा देने वाले दोनों के ही द्वारा बैंक खाते के इस्तेमाल किये जाने की वज़ह से इस दिशा में पारदर्शिता आने की उम्मीद जताई जा रही है। लेकिन जहाँ तक सवाल चुनावी बॉण्ड की बिक्री का है तो बेशक इसका प्रमुख उद्देश्य राजनीतिक दलों की फंडिंग के लिये एक संस्थागत तंत्र विकसित करना था। लेकिन संभवत: इसे लेकर उपजी आशंकाओं और इसमें सरकार की भागीदारी लोगों में आकर्षण पैदा नहीं कर पाई।
पारदर्शी बनाम अपारदर्शी
बेशक सरकार ने चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने और राजनीतिक दलों को मिलने वाले इस चंदे का हिसाब-किताब रखने के लिये चुनावी बॉण्ड योजना पेश की थी।
2017 में इसे पेश करते समय केंद्र सरकार का तर्क था कि इससे राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता देखने को मिलेगी।
लेकिन चुनाव आयोग सहित कई राजनीतिक दलों का मानना है कि यदि कोई राजनीतिक दल चुनावी बॉण्ड के ज़रिये मिलने वाले चंदे की जानकारी नहीं देता है तो इससे उनके द्वारा सरकारी कंपनियों और अनजान विदेशी स्रोतों से धन लेने की संभावना बढ़ जाएगी, जिसका जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29बी के तहत निषेध है। चुनाव आयोग का यह भी कहना है कि शेल कंपनियों के माध्यम से चुनाव में कालेधन का इस्तेमाल बढ़ सकता है। शेल कंपनी उसे कहा जाता है, जो कारोबार की आड़ में या कोई कारोबार न करते हुए अवैध रूप से धन या संपत्ति जमा करने, कालेधन को सफेद करने और कर-चोरी के लिये बनाई और इस्तेमाल की जाती है।
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 में संशोधन ने उन प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया है, जिसके तहत कोई कंपनी एक वित्तीय वर्ष में पिछले तीन साल के अपने औसत नेट प्रॉफिट का 7.5 फीसदी से ज्यादा का राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती। इस संशोधन के बाद नई कंपनियाँ भी चुनावी बॉण्ड माध्यम से दान देने में सक्षम हैं।
दरअसल, चुनावी बॉण्ड योजना लाने का उद्देश्य भारत में चुनावी फंडिंग की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाकर कालेधन पर रोक लगाना था। तब यह तर्क दिया गया था कि फंडिंग की परंपरागत प्रणाली में नकद में खर्च होने वाले चंदों के साथ कई अन्य दोष हैं और यह पूरी तरह अपारदर्शी सिस्टम है। चुनावी बॉण्ड का प्रयास एक वैकल्पिक प्रणाली जैसा है जिससे राजनीतिक फंडिंग की प्रक्रिया को सुधारा जा सकता है। अब देखना है कि तमाम विरोधों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या फैसला देता है।