विशेष: सरकार गठन की प्रक्रिया/प्रधानमंत्री की नियुक्ति और उसकी शक्तियाँ

संदर्भ

हाल ही में 17वीं लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए और इसके बाद सरकार के गठन की प्रक्रिया भी संपन्न हो गई। हमारे देश के संविधान में देश का शासन चलाने के लिये एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन की परिकल्पना की गई है, जिसके तहत नागरिकों को मतदान का अधिकार और देश को सुचारू रूप से चलाने के लिये सरकार चुनने का मौका भी मिला। इस व्यवस्था के मुताबिक लोकसभा चुनाव के बाद बहुमत के आधार पर सरकार का गठन होता है। लोक सभा चुनावों के लिये मतदान होता है और जिस दल या गठबंधन (चुनाव-पूर्व) को कम-से-कम 272 सीटें (साधारण स्पष्ट बहुमत) मिल जाती हैं, उसके नेता को सरकार बनाने का मौका मिलता है। दरअसल, सरकार कुछ निश्चित व्यक्तियों का समूह होती है, जो राष्ट्र और राज्यों में एक तय सीमा के लिये निश्चित पद्धति से शासन करती है।

लोकतंत्र के चार स्तंभ

विधायिका, कार्यपालिका, न्‍यायपालिका को लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्‍तंभ माना जाता है और इसमें चौथे स्‍तंभ के रूप में मीडिया को शामिल किया जाता है। किसी भी लोकतंत्र की सफलता और निरंतरता के लिये ज़रूरी है कि उसके ये चारों स्तंभ मजबूत हों और अपना-अपना काम पूरी ज़िम्मेदारी व निष्ठा से करें।

वैसे हमारे संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों के बारे में स्पष्ट प्रावधान किया गया है और अपेक्षा की गई है कि उसी दायरे में लोकतंत्र के इन तीन महत्त्वपूर्ण स्तंभों को काम करना चाहिये।

इसे कुछ इस प्रकार समझाने का प्रयास करते हैं- विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्‍हें लागू करती है और न्‍यायपालिका कानूनों की व्‍याख्‍या करती है तथा उनका उल्‍लंघन करने वालों को सजा देती है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाने वाला मीडिया समसामयिक विषयों पर लोगों को जागरूक करने तथा जनमत को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सरकार द्वारा अधिकारों/शक्ति के दुरुपयोग को रोकने का भी काम करता है।

कैसे होता है नई लोकसभा का गठन

संविधान के अनुसार लोकसभा में राज्‍यों के क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्‍यक्ष चुनाव द्वारा चुने गए 530, केंद्रशासित क्षेत्र का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये 20 सदस्‍य (अनुच्‍छेद 81) और यदि राष्‍ट्रपति की यह राय है कि लोकसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्‍व पर्याप्‍त नहीं है तो राष्‍ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गए उस समुदाय के 2 सदस्‍य शामिल हैं (अनुच्‍छेद 331)। संसद के अधिनियम द्वारा राज्‍यों का पुनर्गठन होने की स्थिति में राज्‍यों के क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्‍यक्ष चुनाव द्वारा चुने गए सदस्‍य संख्‍या की सीमा बढ़ सकती है।

लोकसभा का सामान्‍य कार्यकाल पाँच वर्षों का है, किंतु इसे राष्‍ट्रपति द्वारा पहले भी विघटित किया जा सकता है। संविधान के अनुच्‍छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की अवधि के दौरान स्‍वयं संसद द्वारा पारित अधिनियम द्वारा सामान्‍य कार्यकाल को बढ़ाया जा सकता है। इस अवधि को एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता।

(टीम दृष्टि इनपुट)

राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यकारी प्रमुख

भारत में संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका है तथा प्रधानमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है। भारत में राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष होता है अर्थात् नागरिकों की उसमें भागीदारी नहीं होती। राष्ट्रपति का निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा होता है। राज्यसभा, लोकसभा और राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य इसके मतदाता होते हैं। राष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तिथि से पाँच वर्ष की अवधि तक पद पर बना रहता है।

प्रधानमंत्री का चयन राष्ट्रपति नहीं कर सकता तथा सामान्यतः लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही सरकार बनाने के लिये बुलाना होता है। यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो राष्ट्रपति उस व्यक्ति को सरकार बनाने के लिये बुलाता है जिसमें दो या अधिक दलों का समर्थन प्राप्त करने की संभावना होती है और जो इस प्रकार के समर्थन से लोकसभा में जरूरी बहुमत साबित कर सकता है.

प्रधानमंत्री में निहित होती हैं कार्यकारी शक्तियाँ

प्रधानमंत्री हमारे देश की शासन व्यवस्था का सर्वोच्च प्रधान होता है, हालाँकि संविधान के अनुसार राष्ट्र का सर्वोच्च राष्ट्रपति होता है लेकिन वस्तुतः देश की शासन व्यवस्था की बागडोर प्रधानमंत्री के हाथों में ही होती है।

देश की रक्षा, सुरक्षा, शासन व्यवस्था, अहम नीतिगत फैसले, आर्थिक और सामाजिक नीतियों का निर्धारण, विदेश नीति और राष्ट्र नीति का नीति-निर्धारक देश का प्रधानमंत्री ही होता है। देश की संविधानिक संस्थाओं के प्रमुखों की नियुक्ति से लेकर मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चुनाव करना और उनके के कार्य और उसकी ज़िम्मेदारियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रधानमंत्री के कार्य और अधिकार

  • प्रधानमंत्री देश के राजनीतिक दल का नेता और संसद के बहुमत दल का नेता होता है और मंत्रिपरिषद का गठन करता है।
  • वह मंत्रियों के बीच कार्यों का बँटवारा करता है और इस कार्य में उसे लगभग पूर्ण स्वतंत्रता रहती है।
  • आवश्यकतानुसार किसी भी मंत्री को इस्तीफा देने के लिये कह सकता है। यदि उसके चाहने पर भी कोई मंत्री त्यागपत्र न दे तो वह मंत्रिपरिषद को भंग कर नए मंत्रिपरिषद का गठन करता है।
  • वह मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा मंत्रिपरिषद के कार्यों, निर्णयों, नीति-निर्धारण इत्यादि में उसका पूरा दखल रहता है.
  • प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का नेता होता है और सभी विभागों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने और उनके बीच मतभेद, यदि कोई है तो उन्हें सुलझाने का उसे अधिकार है।
  • राष्ट्र की नीतियों का निर्धारण प्रधानमंत्री ही करता है और यही कारण है कि उसके प्रधानमंत्रित्व में सरकार उसी की कहलाती है। जैसे- मोदी सरकार, नेहरू सरकार, इंदिरा सरकार इत्यादि।
  • प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद द्वारा लिये गए निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को देता है। वह राष्ट्रपति, लोकसभा तथा मंत्रिपरिषद के बीच कड़ी का कार्य करता है। कोई अन्य मंत्री राष्ट्रपति को किसी बात की सूचना सीधे नहीं दे सकता।
  • प्रशासन में उच्च/सर्वोच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करते हैं। जैसे- राज्यपाल, राजदूत, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष, लोकपाल, मुख्य चुनाव आयुक्त आदि।
  • इसके अलावा नीति आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद, राष्ट्रीय एकता परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद और राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद का अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री ही होता है।
  • चूँकि प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का नेता होता है, इसलिये पूरे देश के शासन के ऊपर उसका व्यापक अधिकार रहता है। देश की आंतरिक एवं बाह्य नीतियों का निर्धारण वही करता है।
  • संकट के समय प्रधानमंत्री का अधिकार और भी अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि उसी के परामर्श से राष्ट्रपति अपने संकटकालीन अधिकारों का प्रयोग करता है।
  • प्रधानमंत्री की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति लोकसभा को समय-पूर्व विघटित कर नए निर्वाचन की आज्ञा जारी कर सकता है।

ऐसे में कहा जा सकता है कि जब तक संसद के बहुमत का विश्वास प्राप्त है तब तक प्रधानमंत्री की शक्ति असीम है और वह देश का वास्तविक शासक है। जिस प्रकार इंगलैंड के प्रधानमंत्री के बारे में कहा जाता है, मंत्रिमंडल राज्यरूपी जहाज का निर्देशन चक्र है और प्रधानमंत्री उसका चालक...उसी प्रकार भारत के प्रधानमंत्री के संबंध में भी यही कहा जा सकता है।

सरकार के गठन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान में मंत्रिमंडल के गठन से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 74, 75 और 77 बेहद महत्त्वपूर्ण हैं।

अनुच्छेद 74 के तहत राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद का गठन किया जाता है, जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होते हैं। उनकी सहायता और सुझाव के आधार पर राष्ट्रपति मंत्रिमंडल पर सहमति देते हैं।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 75

  • प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है; वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75(i) की शक्तियों का प्रयोग करते हुए देश का प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं।
  • भारत के प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी एवं उसके अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के परामर्श से करेंगे।
  • सभी मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत (During the pleasure of the President) तक कार्य करेंगे।
  • मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी।
  • राष्ट्रपति तीसरी अनुसूची में वर्णित कर्त्तव्यों के तहत पद और गोपनीयता की शपथ दिलाएंगे।
  • सामान्यतः प्रधानमंत्री को वही वेतन और भत्ते मिलते हैं, जो एक संसद सदस्य को मिलते हैं। इसके अलावा व्यय विषयक भत्ता, स्वास्थ्य सुविधाएँ आदि भी प्राप्त होती हैं।
  • कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
  • संसद द्वारा अधिनियम बनाकर इन वेतन-भत्तों में बदलाव किया जा सकता है।

मंत्रिमंडल सचिवालय

  • भारत के संविधान में मंत्रिमंडल को कार्यपालिका का दर्जा प्राप्त है तथा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल भारत सरकार के पूरे प्रशासन की ज़िम्मेदारी है।
  • इस कार्य में मंत्रिमंडल की सहायता के लिये मंत्रिमंडल सचिवालय (Cabinet Secretariat) होता है।
  • इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल की स्टाफ एजेंसी कहा जा सकता है और यह भारत के प्रधानमंत्री के दिशा-निर्देशन और नेतृत्व में कार्य करता है।
  • केंद्र सरकार में उच्च स्तरीय नीति-निर्धारण प्रक्रिया में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • मंत्रिमंडल सचिवालय को कार्य विभाजन नियमावली 1961 के तहत भारत सरकार में एक विभाग का दर्जा प्राप्त है।
  • इसका राजनीतिक प्रमुख प्रधानमंत्री और प्रशासनिक प्रमुख मंत्रिमंडल सचिव होता है।
  • मंत्रिमंडल सचिवालय वर्ष 1947 में गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद के स्थान पर अस्तित्व में आया था।

खंडित जनादेश के मामले में सरकार गठन

गठबंधन राजनीति के इस दौर में खंडित जनादेश में सरकार बनाने के मुद्दे पर समय-समय पर मंथन चलता रहा है। सरकारिया आयोग द्वारा विशेष रूप से इसमें स्पष्टता लाने की कोशिश की गई। इसकी सिफारिशों में कहा गया है कि किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में चुनाव पूर्व हुए गठबंधन को बहुमत के आधार पर बुलाने को प्राथमिकता दी जाए। दूसरी स्थिति में सबसे बड़े राजनीतिक दल को मौका देने और तीसरे क्रम में चुनाव के बाद हुए गठबंधन को अवसर देने की बात कही गई। हालाँकि इन सभी परिस्थितियों में दावा करने वाले किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को सरकार बनाने से पूर्व संख्या बल सुनिश्चित करने का अधिकार हमेशा राष्ट्रपति तथा राज्यों के मामले में राज्यपाल के पास होता है। सरकार गठन से पहले सरकार बनाने का दावा करने वाले राजनीतिक दल या नेता के बहुमत के समर्थन की पुष्टि हेतु आवश्यक पड़ताल करना भी इनके अधिकारों में अंतर्निहित है।

खंडित जनादेश के बाद ऐसी राजनीति देखने को मिल जाती है कि जो सबसे बड़ी पार्टी थी, वह चाहकर भी सरकार नहीं बना सकी, या उसे सरकार बनाने नहीं दी गई और किसी दूसरे दल ने समीकरण बिठा लिये। अस्थिर राजनीति के इस दौर में राज्यों के मामले में यह अक्सर देखने को मिल जाता है। यह भी सच है कि ऐसे मौकों पर फायदा उसी दल या गठजोड़ का होता है, जिसके साथ केंद्र सरकार होती है। ऐसे मौकों पर राज्यपाल को स्वविवेक से फैसला करना होता है...और निश्चित ही यह विवेक राजनीति निरपेक्ष नहीं होता। इसलिये खंडित जनादेश की स्थिति में राज्यों में सरकार बनाने के दिशा-निर्देश बेहद स्पष्ट होने चाहिये। सबसे पहले सबसे बड़े दल या गठजोड़ के नेता को आमंत्रित करने की परंपरा को यदि सांविधानिक बाध्यता में बदला जाए तो कई तरह के विवादों पर विराम लगाया जा सकता है। अभी जो व्यवस्था है, वह विधायकों की खरीद-फरोख्त जैसे राजनीतिक कदाचार को बढ़ाती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

बहुमत सदन में सिद्ध करना होगा

सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले हैं, जिनका समाज और राजनीति पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करने वाला ऐतिहासिक बोम्मई जजमेंट।

  • सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
  • धारा 356 के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिये दिये गए इस फैसले को ही बोम्मई जजमेंट के नाम से जाना जाता है।
  • कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था।
  • नज़ीर माने जाने वाले इस फैसले में न्यायालय ने कहा, 'किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।'
  • इस मामले में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संदर्भ में दिशा-निर्देश तय किये।
  • यह निर्णय भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय कर दिया कि बहुमत होने-न होने का फैसला सदन में होना चाहिये, कहीं और नहीं।
  • बोम्मई जजमेंट का असर तब देखने को मिला था, जब 1997 और 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने धारा 356 के इस्तेमाल से उत्तर प्रदेश और बिहार की सरकारों को बर्खास्त करने के केंद्र के प्रस्ताव को वापस भेज दिया था।
  • बोम्मई जजमेंट के बाद विधानसभाओं को भंग करने का सिलसिला तो लगभग खत्म हो चुका है, लेकिन राज्यपालों के माध्यम से अपनी पसंद की सरकार बनवाने का प्रयास केंद्र की तरफ से जारी है।

ब्रिटिश मॉडल पर आधारित संसदीय व्यवस्था

भारत को अपना संविधान ब्रिटेन की संसद से नहीं हासिल हुआ, न ही यह किसी धर्म संहिता पर आधारित है। भारत के लोगों के संकल्प की प्रतिनिधि संप्रभु संविधान सभा ने संविधान बनाया, जिसकी प्रस्तावना ने हमारी आगे की दिशा तय की। संविधान सभा में काफी सोच-विचार और बहस-मुबाहिसे के बाद हमने संसदीय व्यवस्था की सरकार चुनी। तब कई तरह के मॉडल और प्रारूप उपलब्ध थे- उन्मुक्त बाज़ार उदार लोकतंत्र, केंद्रीकृत राष्ट्रपति प्रणाली, साम्यवाद का बेहद मनमोहक विचार, फेबियन समाजवाद जैसे कई स्वाभाविक विकल्प मौजूद थे। हमने हर निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य वाली संसदीय प्रणाली का चुनाव किया, परंतु सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन के इसके लक्ष्य क्रांतिकारी हैं।

सरकार की संसदीय प्रणाली का चयन किया, क्योंकि यह भारत के संदर्भ में अधिक मुफीद और कारगर थी। इसका चयन करते समय हमारे संविधान निर्माताओं ने स्‍थायित्व की जगह जवाबदेही को महत्त्व दिया। हमारी संसदीय व्यवस्‍था वेस्टमिंस्टर प्रणाली की ही स्वाभाविक परिणति है, लेकिन यह इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र और अमेरिका के गणराज्यीय लोकतंत्र का बेहतर स्वरूप और दोनों का मिश्रण है।

अभ्यास प्रश्न: भारत का लोकतंत्र इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र और अमेरिका के गणराज्यीय लोकतंत्र का मिश्रण है। विश्लेषण कीजिये।