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भारत में समावेशी स्वास्थ्य देखभाल को नया आकार देना

  • 09 Apr 2024
  • 28 min read

यह एडिटोरियल 08/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Shaping India’s path to inclusive health care” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है भारत के स्वास्थ्य समानता के मुद्दे किस प्रकार सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा, लिंग, भूगोल और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच जैसे कारकों की जटिल परस्पर क्रिया से उत्पन्न होते हैं। इन मुद्दों के समाधान के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो केवल स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार तक सीमित नहीं होगी।

प्रिलिम्स के लिये:

सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज, सतत् विकास लक्ष्य (SDGs), NFHS-5, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, स्वास्थ्य का अधिकार, WHO, मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948), संयुक्त राष्ट्र, मौलिक अधिकार, DPSPs, सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये:

वर्ष 2047 तक सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल/कवरेज (UHC) प्राप्त करने में चुनौतियाँ, विकसित भारत के लिये स्वास्थ्य देखभाल का महत्त्व।

प्रत्येक वर्ष 7 अप्रैल को मनाया जाने वाला विश्व स्वास्थ्य दिवस (World Health Day) हमें स्वास्थ्य समानता (health equity) के बारे में एकजुट करता है, जो वैश्विक स्वास्थ्य एवं न्याय के केंद्र में स्थित एक महत्त्वपूर्ण विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने स्वास्थ्य को एक मूल मानव अधिकार घोषित किया है। इस वर्ष का मुख्य विषय या थीम है- “मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार”। स्वास्थ्य देखभाल पहुँच में एक चिंताजनक अंतराल मौजूद है, जो कोविड-19 महामारी, पर्यावरणीय संकटों और बढ़ते सामाजिक-आर्थिक अंतरों से उजागर हुआ है।

यद्यपि विश्व के 140 से अधिक देश स्वास्थ्य को एक संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता देते हैं, WCEH (WHO Council on the Economics of Health for All) की रिपोर्ट है कि दुनिया की आधी से अधिक आबादी को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पूर्ण पहुँच की आवश्यकता है। विश्व स्वास्थ्य दिवस 2024 के बहाने यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य समानता को बढ़ावा देना लाखों लोगों के लिये आशा का स्रोत है जो सामाजिक न्याय और विधायी परिवर्तन तक ही सीमित नहीं है, इससे परे जाता है।

संयुक्त राष्ट्र समावेशी स्वास्थ्य सेवा को इस प्रकार परिभाषित करता है, “हर किसी को, हर जगह, वित्तीय कठिनाई के जोखिम के बिना उन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच होनी चाहिये जिनकी उन्हें आवश्यकता है।” सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals- SDGs) का लक्ष्य 3.8 (वित्तीय जोखिम संरक्षण, गुणवत्तापूर्ण आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और सभी के लिये सुरक्षित, प्रभावी, गुणवत्तापूर्ण एवं सस्ती आवश्यक दवाओं एवं टीकों तक पहुँच सहित सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज प्राप्त करना) भी समावेशी स्वास्थ्य देखभाल पर केंद्रित है।

Components_of_Inclusive_Health_Care

समावेशी स्वास्थ्य देखभाल (Inclusive Healthcare):

ऐसा कोई एक फॉर्मूला नहीं है जो देखभाल को सभी के लिये पूरी तरह से समावेशी बना दे। समावेशी देखभाल का संवहनीय होना महत्त्वपूर्ण है। अर्थात्, इसमें शामिल प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार पुनर्मूल्यांकन एवं अनुकूलन के लिये तैयार रहना होगा। समावेशी देखभाल के चार लक्षणों में शामिल हैं:

  • समावेशन की संस्कृति:
    • समावेशी देखभाल को किसी संगठन की संस्कृति में शामिल किया जाना चाहिये। सभी कर्मियों को (केवल MDs/MSs योग्यता वाले ही नहीं बल्कि मरीजों से संवाद में शामिल प्रत्येक कर्मी) लोगों के समक्ष विद्यमान सामान्य बाधाओं के प्रकारों को समझना चाहिये।
    • यह सुनिश्चित करने के लिये कर्मियों को नियमित रूप से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे मरीजों के लिये स्वयं एक और चुनौती न बन जाएँ। समावेशी देखभाल की शुरूआत मरीज के साथ पहली बातचीत से ही हो जानी चाहिये। समावेशन की एक संवहनीय संस्कृति महज आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये सर्वोत्तम देखभाल प्रदान करने का एक तरीका है।
  • अनुकूल स्थान (Welcoming Spaces):
    • समावेशी देखभाल में ऐसे भौतिक स्थान शामिल होते हैं जो सभी क्षमताओं के लोगों के लिये सुलभ होते हैं। इनमें मरीजों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में सामग्री (क्लिनिकल एवं लॉजिस्टिकल) देना शामिल हैं। समावेशी स्थानों में कार्य करने वाले कर्मियों को देखभाल चाहने वाले लोगों के एक ही प्रकार के विविध समूहों को प्रतिबिंबित करना चाहिये।
  • सुलभ सामग्री:
    • समावेशी देखभाल रोगियों के लिये उपलब्ध भौतिक स्थान से लेकर उपलब्ध सामग्रियों तक विस्तृत है। समावेशी सामग्री में बड़े प्रिंट हो सकते हैं, वे कई भाषाओं में उपलब्ध हो सकते हैं, उनमें उपयुक्त भाषा का उपयोग किया जा सकता है (सभी लिंग और यौन उन्मुखताओं को शामिल करते हुए) और वे सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील रखे जा सकते हैं।
  • सभी मरीजों का महत्त्व:
    • समावेशी देखभाल में रोगियों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाता है और रोगियों की चिंताओं को ध्यान में रखा जाता है। जब भी संभव हो, देखभाल प्रदानकर्ताओं को मरीजों के साथ उनके शैक्षिक या बौद्धिक स्तर पर और उनके साधनों एवं पहुँच को ध्यान में रखते हुए कार्य करना चाहिये।

स्वास्थ्य समानता का अर्थ:

  • प्रत्येक व्यक्ति के लिये समान अवसर:
    • स्वास्थ्य समानता यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उच्चतम स्वास्थ्य क्षमता प्राप्त करने का समान अवसर मिले, चाहे उनकी परिस्थितियाँ कुछ भी हों। यह स्वीकार करते हुए कि सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारक स्वास्थ्य परिणामों को प्रभावित करते हैं, यह विचार आनुवंशिकी तक सीमित नहीं है। WHO का मिशन विभिन्न सामाजिक और आर्थिक श्रेणियों के बीच स्वास्थ्य क्षेत्र में विद्यमान अनुचित एवं निवारण योग्य असमानताओं को समाप्त करना है।
  • मूल कारणों को संबोधित करना:
    • वास्तविक स्वास्थ्य समानता गरीबी, भेदभाव, उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सीमित पहुँच, स्वस्थ आहार, स्वच्छ जल, स्वच्छ हवा और आवास जैसी स्वास्थ्य असमानताओं के मूल कारणों को संबोधित करती है तथा स्वास्थ्य देखभाल तक समान पहुँच प्रदान करती है।
      • ये असमानताएँ महामारी, जलवायु परिवर्तन और सामाजिक-राजनीतिक अशांति से और भी बदतर हो गई हैं। भारत विविधतपूर्ण देश है और यहाँ व्यापक सामाजिक-आर्थिक अंतराल पाए जाते हैं। इससे एक जटिल परिस्थिति उत्पन्न होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल की पहुँच महानगरीय क्षेत्रों की तुलना में व्यापक रूप से कम है। सामाजिक और आर्थिक बाधाएँ इस असमानता को बढ़ाती हैं।
  • एक व्यापक रणनीति को अपनाना:
    • यह गारंटी देने के लिये कि हर कोई स्वस्थ जीवन जी सके, स्वास्थ्य समानता प्राप्त करने के लिये एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता है जो स्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक निर्धारकों को संबोधित करने के लिये विधायी सुधार से आगे तक जाती हो। स्वास्थ्य के लिये प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता को साकार करने के लिये सरकारों, समुदायों और व्यक्तियों द्वारा ठोस प्रयास की आवश्यकता है ताकि इन बाधाओं को दूर किया जा सके।

स्वास्थ्य समानता के लिये विभिन्न चुनौतियाँ:

भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देशों में विशेष रूप से स्वास्थ्य समानता की राह कठिनाइयों से भरी है, जिसमें गहराई तक व्याप्त सामाजिक अन्याय से लेकर वैश्विक प्रणालीगत स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ शामिल हैं। विविध आबादी को उच्च गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच पाने के लिये सहायता की आवश्यकता है।

  • वैश्विक चुनौतियाँ:
    • महामारी से उत्पन्न जोखिम:
      • स्वास्थ्य समानता की लड़ाई उन वैश्विक चुनौतियों का सामना करती है जो राष्ट्रीय सीमाओं से आगे तक विस्तृत हैं और सामूहिक अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की मांग करती हैं। कोविड-19 महामारी ने स्पष्ट रूप से खुलासा किया है कि संक्रामक रोग हाशिए पर स्थित और कमज़ोर समूहों को सबसे अधिक निशाना बनाते हैं, जिससे स्वास्थ्य समानता का अंतराल बढ़ जाता है।
    • जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताएँ:
      • जलवायु परिवर्तन एक गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है क्योंकि यह निम्न-आय वाले और कमज़ोर लोगों पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव डालता है। स्वास्थ्य देखभाल प्रावधान संघर्षों से गंभीर रूप से बाधित होता है, जो अवसंरचना को नष्ट कर देता है, समुदायों को विस्थापित करता है और महत्त्वपूर्ण चिकित्सा सेवाओं तक पहुँच को अवरुद्ध कर देता है।
  • भारत-विशिष्ट चुनौतियाँ:
    • विशाल और विविध जनसंख्या:
      • एक विशाल और विविध आबादी के साथ, भारत को स्वास्थ्य समानता के लिये लगातार बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल परिणामों और पहुँच में उल्लेखनीय अंतर भी शामिल हैं। भले ही पिछले 20 वर्षों में स्वास्थ्य देखभाल की पहुँच में सुधार हुआ है, लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी बहुत कार्य किया जाना शेष है।
      • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, शहरी मलिन बस्तियाँ भारत के महानगरीय क्षेत्रों में 17% से अधिक भाग को दायरे में लेती हैं और गंभीर स्वास्थ्य असमानताओं को प्रदर्शित करती हैं। भीड़भाड़, बदतर साफ-सफाई की स्थिति और स्वच्छ जल तक सीमित पहुँच से स्वास्थ्य जोखिम बढ़ जाते हैं।
    • जातिगत और लैंगिक असमानताएँ:
      • विभिन्न जाति और लिंग के बीच गहरी असमानताएँ देखी जाती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-5 (2019-21) के आँकड़ों से पता चलता है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में बाल मृत्यु दर अधिक है और टीकाकरण दर कम है।
      • इसके अतिरिक्त, निम्नतम आर्थिक स्तर की 59% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं, जो उच्चतम आर्थिक स्तर की महिलाओं में मौजूद दर से लगभग दोगुनी है। यह स्वास्थ्य परिणामों में जाति, लिंग और आर्थिक स्थिति के प्रतिच्छेदन को दर्शाता है।
    • गैर-संचारी रोगों का बोझ:
      • भारत में होने वाली सभी मौतों में से 60% से अधिक मौतें गैर-संचारी रोगों (Non-communicable diseases- NCDs) के कारण होती हैं। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने समतामूलक उपचार पहुँच और निवारक स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता बताई है, जहाँ कहा गया है कि NCDs का आर्थिक प्रभाव वर्ष 2030 तक 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर सकता है। यह परिदृश्य हितधारकों द्वारा तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता रखता है।
    • चिकित्सकों की भारी कमी:
      • चिकित्सकों की भारी कमी इन समस्याओं को बढ़ा देती है। WHO के आँकड़ों के अनुसार प्रति 1,000 लोगों पर केवल 0.8 चिकित्सक उपलब्ध हैं, जो अनुशंसित अनुपात से कम है। 75% से अधिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर महानगरीय क्षेत्रों में कार्य करते हैं, जो आबादी के केवल 27% को दायरे में लेता है। चिकित्सकों की कमी ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से गंभीर है।
    • वित्तीय सुरक्षा का अभाव:
      • जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम जैसी योजनाओं के अस्तित्व में होने के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों में प्रति प्रसव औसत जेबी व्यय (out-of-pocket expenditure- OOPE) अभी भी, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, अधिक है।
      • भारत के विभिन्न राज्यों में OOPE और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच में उल्लेखनीय असमानताएँ पाई जाती हैं। कई पूर्वोत्तर राज्यों और बड़े राज्यों में NFHS-4 और NFHS-5 के बीच OOPE में वृद्धि देखी गई है।
        • NFHS-5 की नवीनतम रिपोर्ट से पता चला है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठान में प्रति प्रसव औसत OOPE 2,916 रुपए है, जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिये क्रमशः 3,385 रुपए और  2,770 रुपए है।

Healthcare_Expenditure_Per_Person

समतामूलक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिये क्या किया जाना चाहिये?

  • स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं से परे व्यापक दृष्टिकोण:
    • भारत के स्वास्थ्य समानता के मुद्दों को स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में सुधार से परे एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है ताकि स्वास्थ्य के अधिक व्यापक सामाजिक-आर्थिक निर्धारकों को संबोधित किया जा सके। भारत को सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज और अधिक न्यायसंगत भविष्य की ओर ले जाने के लिये, सरकार, नागरिक समाज, स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं और समुदायों को एक साथ कार्य करने की आवश्यकता है।
      • स्वास्थ्य समानता प्राप्त करने के लिये स्वास्थ्य साक्षरता बढ़ाने की आवश्यकता है। भारत को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) में स्वास्थ्य शिक्षा को शामिल करते हुए स्वास्थ्य समानता को एक साझा, समुदाय-संचालित लक्ष्य में बदलना चाहिये ताकि लोगों को समान देखभाल प्राप्त करने और शिक्षित स्वास्थ्य निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सके।
  • सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता:
    • सरकार और अधिकारी वित्तपोषण, रचनात्मक नीतियों और कानूनों के माध्यम से स्वास्थ्य की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिये, ‘आयुष्मान भारत’ पहल आर्थिक रूप से निचले 40% लोगों को निःशुल्क स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करती है, जो स्वास्थ्य संबंधी असमानताओं को कम करने की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती है।
      • NHM—जिसमें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) दोनों शामिल हैं, पहुँच के विस्तार, अवसंरचना को सुदृढ़ करने और कमज़ोर आबादी को आवश्यक सेवाएँ प्रदान करके के माध्यम से ग्रामीण एवं शहरी भारत के बीच स्वास्थ्य देखभाल अंतर को कम करता है।
  • सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की सहकार्यता:
    • सरकार के साथ, सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र वंचित समुदायों को सेवाएँ प्रदान करते हैं, जहाँ निवारक शिक्षा, कार्यबल विकास और अवसंरचना संवर्द्धन पर बल देते हैं।
      • गैर-सरकारी संगठन और नागरिक समाज क्षेत्रीय स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की ओर ध्यान आकर्षित करने तथा उनका समाधान करने के लिये प्रत्यक्ष सामुदायिक आउटरीच में संलग्न हैं। अंतर्राष्ट्रीय और सरकारी संगठनों के साथ उनका सहयोग उन्हें ऐसी स्वास्थ्य पहलों को तैयार करने की अनुमति देता है जो समुदाय की विशिष्ट आवश्यकताओं के प्रति सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील होती हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों पर निर्भरता:
    • अंतर्राष्ट्रीय संस्थान विकासशील देशों में स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों का समर्थन करने के लिये वित्तीय और तकनीकी संसाधन प्रदान कर सकते हैं। इससे अवसंरचना, प्रशिक्षण और आवश्यक दवाओं एवं प्रौद्योगिकियों तक पहुँच में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
  • नवाचार और तकनीकी विकास को बढ़ावा देना:
    • विशेष रूप से डिजिटल स्वास्थ्य में नवाचार और तकनीकी विकास के माध्यम से वाणिज्यिक क्षेत्र और धर्मार्थ संगठन पहुँच एवं प्रभावकारिता का विस्तार करते हुए अभिगम्यता एवं वहनीयता को आगे बढ़ाते हैं।
    • अनुसंधान संस्थान एवं शैक्षणिक संस्थान स्वास्थ्य असमानताओं और हस्तक्षेपों की प्रभावकारिता में महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा समर्थित साक्ष्य-आधारित अभ्यासों और नीतियों के निर्माण में सहायता करते हैं।
    • तकनीकी प्रगति ने स्वास्थ्य देखभाल में नवाचार को बढ़ावा देना जारी रखा है, जिससे निदान, उपचार और रोगी देखभाल में सुधार हुआ है। कुछ उल्लेखनीय प्रगतियों में प्रिसिजन मेडिसिन एवं जीनोमिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) एवं मशीन लर्निंग (ML), वियरेबल डिवाइस एवं रिमोट मॉनिटरिंग और रोबोटिक्स एवं ऑटोमेशन शामिल हैं।
  • सशक्त स्थानीय उपस्थिति रखने वाले संगठनों से सहयोग:
    • स्वास्थ्य समानता के लिये सशक्त स्थानीय उपस्थिति रखने वाले संगठन आवश्यक हैं। वे स्वास्थ्य कार्यक्रमों की प्रासंगिकता एवं प्रभावशीलता की गारंटी के लिये, योजना बनाने से लेकर मूल्यांकन तक हर चरण में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। उन्हें अपने समुदाय की आवश्यकताओं की भी पूरी समझ होती है।
  • साझा दृष्टिकोण और खुले संचार को अपनाना:
    • स्वास्थ्य समानता की प्राप्ति के लिये सफल सहकार्यता खुले संचार, एक दूसरे के प्रति सम्मान और साझा लक्ष्यों पर निर्भर करती है। वे बदलती स्वास्थ्य चिंताओं और सामुदायिक मांगों के अनुकूल ढलने के लिये तैयार होते हैं क्योंकि वे समुदायों को सशक्त बनाने, ज्ञान साझा करने और क्षमता निर्माण पर बल देते हैं।
      • नीति-निर्माताओं से लेकर ज़मीनी स्तर के संगठनों तक विभिन्न क्षेत्रों के बीच प्रभावी संचार स्वास्थ्य समानता को उल्लेखनीय रूप से बढ़ा सकता है और ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है जब उच्च गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच एक विशेषाधिकार के बजाय एक साझा वास्तविकता होगी।
  • सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में आवंटन बढ़ाना:
    • वित्तीय वर्ष 2020 के बजट अनुमान के अनुसार, भारत की जीडीपी का लगभग 1.35% सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय किया गया था। यह पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में मामूली वृद्धि थी जब GDP का लगभग 1.29% स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय किया गया था।
      • वर्तमान में 20% आबादी के पास सामाजिक और निजी स्वास्थ्य बीमा है, जबकि शेष 30%, जिन्हें ‘लापता मध्य’ (missing middle) के रूप में जाना जाता है, के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है।
        • 15वें वित्त आयोग की अनुशंसा है कि केंद्र और राज्यों के सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को एक साथ बढ़ाया जाना चाहिये ताकि वर्ष 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद (विकास घरेलू उत्पाद) के 2.5% तक पहुँचा जा सके।

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स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र की प्रमुख पहलें:

निष्कर्ष:

समावेशी स्वास्थ्य देखभाल (Inclusive healthcare) केवल चिकित्सा उपचार प्रदान करने तक सीमित नहीं है; यह एक ऐसी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के सृजन का लक्ष्य रखता है जो प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों का सम्मान करती है। इसके लिये सभी लोगों की विविध आवश्यकताओं को संबोधित करने की आवश्यकता है (जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो हाशिए पर हैं या कमज़ोर हैं) और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि स्वास्थ्य सेवाएँ सुलभ, सस्ती और सांस्कृतिक रूप से सक्षम हों। समावेशी स्वास्थ्य देखभाल न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है, बल्कि सभी के लिये बेहतर स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करने के लिये एक व्यावहारिक आवश्यकता भी है। स्वास्थ्य देखभाल में समावेशिता को अपनाकर, हम अधिक स्वस्थ, अधिक न्यायसंगत समाज का निर्माण कर सकते हैं जहाँ हर किसी को स्वस्थ एवं पूर्ण जीवन जीने का अवसर मिले।

अभ्यास प्रश्न: प्रौद्योगिकी और नीति सुधारों की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए भारत में समावेशी स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने की राह की चुनौतियों और आवश्यक रणनीतियों की चर्चा कीजिये। वे कौन-से प्रमुख क्षेत्र हैं जहाँ सुधार किये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण के बारे में ज़ागरूकता पैदा करना।
  2.  छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया के मामलों को कम करना।
  3.  बाजरा, मोटे अनाज और बिना पॉलिश किये चावल की खपत को बढ़ावा देना।
  4.  पोल्ट्री अंडे की खपत को बढ़ावा देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a)  केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: A


मेन्स:

प्रश्न: “कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता होने के अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना सतत् विकास के लिये एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" परीक्षण कीजिये।

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