कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि | 11 Dec 2024
प्रिलिम्स के लिये:अनौपचारिक अर्थव्यवस्था, सेवा क्षेत्र, विनिर्माण क्षेत्र, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डेटा विश्लेषण, सकल मूल्य वर्द्धन, उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन मेन्स के लिये:कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि और इसके निहितार्थ, भारत में रोज़गार, भारत के श्रम बाज़ार से संबंधित संरचनात्मक मुद्दे |
स्रोत: लाइवमिंट
चर्चा में क्यों?
भारत में वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच कृषि श्रमिकों की संख्या में 68 मिलियन की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जिससे इस क्षेत्र में संलग्न श्रमिकों में गिरावट की पिछली प्रवृत्ति से विपरीत प्रवृत्ति देखी गई है।
- इसमें महिलाओं की प्रमुख भागीदारी के साथ आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की अधिक हिस्सेदारी है। इस बदलाव से संरचनात्मक श्रम बाज़ार संबंधी चुनौतियों पर प्रकाश पड़ता है।
कृषि में संलग्न श्रमिकों की वृद्धि हेतु कौन से कारक उत्तरदायी हैं?
- इकोनाॅमिक रिवर्सल: भारत में वर्ष 2004-05 से वर्ष 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में लगभग 66 मिलियन कृषि श्रमिकों की कमी आने के बाद वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच 68 मिलियन कृषि श्रमिकों की उल्लेखनीय वृद्धि, पूर्व की प्रवृत्ति में व्यापक बदलाव का संकेतक है।
- कोविड-19 महामारी का प्रभाव: लॉकडाउन के दौरान बहुत से श्रमिक (विशेषकर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों से संबंधित) अपने मूल निवास क्षेत्रों में लौट आए और कृषि कार्यों में संलग्न हुए। इसके साथ ही आर्थिक सुधारों के बावजूद कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि की प्रवृत्ति बनी रही।
- रोज़गार की गतिशीलता: गैर-कृषि रोज़गार से संबंधित पर्याप्त अवसरों की कमी के कारण कृषि एक विकल्प बना हुआ है।
- कृषि में संलग्न श्रमिकों की वृद्धि में महिलाओं की प्रमुख भागीदारी (वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच इनकी संख्या बढ़कर 66.6 मिलियन तक हो गई) है। यह तथ्य कृषि क्षेत्र की लैंगिक गतिशीलता में प्रमुख बदलाव का संकेतक है।
- प्रमुख राज्यों में आर्थिक स्थिति: कृषि रोज़गार में वृद्धि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे आर्थिक रूप से कमज़ोर राज्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय है, जहाँ सीमित रोज़गार के अवसरों ने कृषि श्रम की उच्च मांग को बढ़ावा दिया है।
कृषि संबंधी रोज़गार में वृद्धि के संदर्भ में चिंताएँ क्या हैं?
- आर्थिक परिवर्तन का उलटना: जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि होती हैं, उच्च उत्पादकता और बेहतर मजदूरी के कारण कार्यबल आमतौर पर कृषि से विनिर्माण एवं सेवाओं की ओर स्थानांतरित हो जाता है।
- भारत में इस प्रवृत्ति का उलट जाना आर्थिक गतिशीलता संबंधी समस्याओं को उजागर करता है, क्योंकि श्रमिक कृषि से अधिक उत्पादक क्षेत्रों में जाने में असमर्थ हैं।
- वर्ष 2023-24 में कृषि उत्पादकता अत्यधिक कम होगी, उत्पादन सेवाओं की तुलना में 4.3 गुना और विनिर्माण की तुलना में 3 गुना कम होगी।
- इससे पता चलता है कि श्रमिक कम उत्पादकता, कम वेतन वाली नौकरियों में कार्यरत हैं, जिनमें उन्नति के अवसर सीमित हैं।
- आर्थिक अक्षमता: सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि की अवधि के दौरान भी कृषि रोज़गार में वृद्धि, उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में अपर्याप्त रोज़गार सृजन को उजागर करती है।
- विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की अधिशेष श्रम को अवशोषित करने में असमर्थता भारत की आर्थिक नीतियों में संरचनात्मक कमियों को दर्शाती है।
- आर्थिक अक्षमता: सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि की अवधि के दौरान भी कृषि रोज़गार में वृद्धि, उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में अपर्याप्त रोज़गार सृजन को उजागर करती है।
- कृषि में अल्परोज़गार: कृषि से संबंधित कई रोज़गार मौसमी और कम वेतन वाले होते हैं, जो प्रायः अल्परोज़गार को दर्शाती हैं, जहाँ लोग आवश्यकता के आधार पर कार्य करते हैं, अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम वेतन प्राप्त करते हैं और साथ ही इनके कार्य करने के घंटों की संख्या भी कम होती हैं।
- यह निर्भरता ग्रामीण गरीबी और असमानता को बनाए रखती है। आवश्यकता से अधिक लोगों को रोज़गार दिये जाने से श्रम का अकुशल तरीके से उपयोग होता है, जिससे नवाचार एवं मशीनीकरण में बाधा उत्पन्न होती है।
- अनौपचारिकता में वृद्धि: इस वृद्धि से श्रम बाज़ार में अनौपचारिकता में वृद्धि हो सकती है। अनौपचारिक श्रमिकों के पास कानूनी सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा का अभाव है, जिससे वे आर्थिक हानि और खराब परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
- लैंगिक असमानता तथा असमान मजदूरी: कृषि रोज़गार में वृद्धि से लैंगिक असमानताएँ और अधिक खराब हो गई हैं, अनौपचारिक, कम वेतन वाली नौकरियों में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में कम वेतन प्राप्त कर रही हैं।
- इससे लैंगिक वेतन अंतराल में वृद्धि होती है, ग्रामीण आय स्थिरता कमज़ोर होती है, तथा शहरी नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी कम होती है।
- इसके अतिरिक्त कृषि श्रमिकों की क्रय शक्ति कम हो गई है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन में मुद्रास्फीति के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है।
भारत में गैर-कृषि रोज़गार की कमी के लिये कौन से कारक जिम्मेदार हैं?
- स्थिर विनिर्माण क्षेत्र: विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने पारंपरिक रूप से कृषि क्षेत्र से विनिर्माण और तत्त्पश्चात् सेवा क्षेत्र की ओर संक्रमण किया है। (उदाहरणार्थ चीन, कोरिया)।
- हालाँकि, भारत ने सेवा क्षेत्र के विकास पर अत्यधिक निर्भरता के कारण अपना लक्ष्य बदल दिया, जिससे विनिर्माण उत्पादन और रोज़गार 20% पर स्थिर रहा, जिससे रोज़गार सृजन में बाधा उत्पन्न हुई।
- यद्यपि उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना का लक्ष्य पाँच वर्षों में 60 लाख रोज़गार का सर्जन करना है किंतु यह रोज़गार-केंद्रित न होकर उत्पादन-केंद्रित है।
- सेवा क्षेत्र की वृद्धि के समक्ष चुनौतियाँ: भारत का सेवा क्षेत्र ध्रुवीकृत है, जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डेटा एनालिटिक्स जैसी उच्च तकनीक सेवाएँ उत्पादन आउटपुट विकास को बढ़ावा दे रही हैं जबकि सर्वाधिक रोज़गार सर्जन अल्प कुशल सेवाओं (ग्राहक सेवा भूमिकाएँ) से होता है।
- मंद औद्योगिक विकास के कारण उच्च तकनीकी सेवाओं की घरेलू मांग कम है।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार जनरेटिव ए.आई. (GenAI) का बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) जैसे क्षेत्रों में आगमन होने वाला है, जिससे आगामी दस वर्षों में रोज़गार के अवसरों में संभावित रूप से कमी आएगी।
- 6.5% वार्षिक योजित सकल मूल्य (GVA) वृद्धि बनाए रखने हेतु भारत को 2024-25 से 2029-30 तक प्रतिवर्ष लगभग 10 मिलियन रोज़गार का सर्जन करना होगा।
- कौशल का अभाव और शिक्षा की गुणवत्ता: भारत में प्रतिवर्ष 2.2 मिलियन विद्यार्थी विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) से स्नातक की शिक्षा पूरी करते हैं, फिर भी निम्न शैक्षिक गुणवत्ता के कारण उनमें से कई बेरोज़गार रह जाते हैं।
- प्रतिवर्ष लगभग 8-10 मिलियन नए श्रमिक नौकरी बाज़ार में प्रवेश करते हैं, जिनकी आकांक्षाएँ उपलब्ध नौकरी के अवसरों से पूरी नहीं हो पाती हैं।
- 28 वर्ष की औसत आयु के साथ भारत पर उच्च मूल्य वाली नौकरियाँ सृजित करने का दबाव बढ़ रहा है, ताकि उसका जनसांख्यिकीय लाभांश बोझ में न बदल जाए।
- अनौपचारिक अर्थव्यवस्था: महामारी के बाद अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या में वृद्धि आर्थिक संकट को दर्शाती है, जहाँ औपचारिक रोज़गार विकल्पों की अनुपस्थिति के कारण श्रमिकों ने संभवतः अनौपचारिक कार्यों की ओर रुख किया।
गैर-कृषि रोज़गार के लिये भारत की पहल
आगे की राह
- गैर-कृषि रोज़गार: उच्च उत्पादकता वाली नौकरियाँ सृजित करने के लिये विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना।
- ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार योग्य कौशल विकसित करने के लिये मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं का लाभ उठाना।
- लिंग-विशिष्ट हस्तक्षेप: बेहतर वेतन नीतियों के माध्यम से कृषि में महिलाओं के लिये वेतन समानता सुनिश्चित करना। महिला-केंद्रित स्वयं सहायता समूहों और उद्यमिता के अवसरों को बढ़ावा देना।
- वर्ष 2050 तक, बुज़ुर्गों की आबादी 34.7 करोड़ तक पहुँच जाएगी, जिन्हें महत्त्वपूर्ण देखभाल सेवाओं की आवश्यकता होगी। देखभाल अर्थव्यवस्था में निवेश करने से महिला श्रम भागीदारी को बढ़ावा मिल सकता है और GDP के 2% निवेश के साथ 11 मिलियन नौकरियाँ पैदा हो सकती हैं।
- कृषि उत्पादकता में वृद्धि: उत्पादकता बढ़ाने के लिये मशीनीकरण और आधुनिक कृषि तकनीकों को बढ़ावा देना। बेहतर संसाधन प्रबंधन के लिये डिजिटल कृषि मिशन जैसी पहलों का विस्तार करना।
- ग्रामीण युवाओं और महिलाओं को खाद्य प्रसंस्करण में शामिल करने से श्रमिकों को अधिक उत्पादक भूमिकाएं मिल सकती हैं। मेगा फूड पार्क जैसी पहल कृषि प्रसंस्करण नौकरियों के लिये रसद, ऋण और विपणन का समर्थन कर सकती है।
- ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को मज़बूत बनाना: औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के विकास को समर्थन देने के लिये मज़बूत ग्रामीण बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना।
- हरित नौकरियाँ: हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाना तथा पर्यावरण, सामाजिक और शासन (Environmental, Social, and Governance- ESG) मानकों को अपनाना, हरित अर्थव्यवस्था में रोज़गार सृजन के नए अवसर प्रदान करता है।
- सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा लागू करना: लक्षित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण श्रमिकों के लिये सुरक्षा जाल उपलब्ध कराना।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के सामने कृषि से विनिर्माण और सेवाओं में कार्यबल के परिवर्तन में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इस परिवर्तन को तीव्र कैसे किया जा सकता है? |
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