राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति, दुर्लभ रोग, राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति मेन्स के लिये:स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर दुर्लभ बीमारियों का प्रभाव, भारत में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज से संबंधित पहल |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र की दुर्लभ रोग नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने हेतु पाँच सदस्यीय पैनल की स्थापना कर दुर्लभ रोगों से पीड़ित रोगियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिये सक्रिय पहल की है।
- यह पैनल, जिसे राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति के रूप में जाना जाता है, का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (All-India Institute of Medical Sciences- AIIMS), दिल्ली में नामांकित रोगियों को समय पर उपचार एवं नीति से लाभ मिले सके।
- इस पैनल का जनादेश प्रमुख रूप से राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति, 2021 के कार्यान्वयन हेतु आवश्यक सभी कदम उठाना है।
दुर्लभ रोग (Rare Diseases):
- वर्गीकृत दुर्लभ रोगों की संख्या लगभग 6,000-8,000 है, लेकिन 5% से भी कम दुर्लभ रोगों का उपचार उपलब्ध है।
- उदाहरण: लाइसोसोमल स्टोरेज डिसआर्डर (LSD), पोम्पे डिज़ीज़, सिस्टिक फाइब्रोसिस, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी, स्पाइना बिफिडा, हीमोफीलिया आदि।
- लगभग 95% दुर्लभ रोगों का कोई स्वीकृत उपचार नहीं है और 10 में से 1 से कम रोगियों को रोग-विशिष्ट उपचार प्राप्त होता है।
- इनमें से 80% रोगों की उत्पत्ति आनुवंशिक होती है।
- इन रोगों की विभिन्न देशों में अलग-अलग परिभाषाएँ हैं। जनसंख्या में ये रोग 10,000 में से 1 या 10,000 में से प्रति 6 में प्रचलित हैं।
- हालाँकि एक 'दुर्लभ रोग' को कम व्यापकता वाली स्वास्थ्य स्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो सामान्य आबादी में अन्य प्रचलित रोगों की तुलना में लोगों की कम संख्या को प्रभावित करता है। दुर्लभ रोगों के कई मामले गंभीर, पुराने और जानलेवा हो सकते हैं।
- भारत में लगभग 50-100 मिलियन लोग दुर्लभ रोगों या विकारों से प्रभावित हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन दुर्लभ स्थिति वाले रोगियों में लगभग 80% बच्चे हैं और उनमें से अधिकांश के वयस्कता तक नहीं पहुँचने का प्रमुख कारण उच्च रुग्णता और मृत्यु दर है।
राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति:
- परिचय:
- राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति एक पाँच सदस्यीय पैनल है, इसकी स्थापना दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दुर्लभ रोगों की नीति को लागू करने और रोगियों के लिये कुशल उपचार सुनिश्चित करने हेतु की गई है, ताकि दुर्लभ रोगों वाले रोगियों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिये मिलकर काम किया जा सके।
- समिति में प्रासंगिक क्षेत्रों के विशेषज्ञ, जिनमें चिकित्सा पेशेवर, नीति निर्माता और स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
- राष्ट्रीय दुर्लभ रोग समिति एक पाँच सदस्यीय पैनल है, इसकी स्थापना दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दुर्लभ रोगों की नीति को लागू करने और रोगियों के लिये कुशल उपचार सुनिश्चित करने हेतु की गई है, ताकि दुर्लभ रोगों वाले रोगियों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिये मिलकर काम किया जा सके।
- उत्तरदायित्व और उद्देश्य:
- मामलों का आकलन:
- दिल्ली में एम्स में भर्ती मरीज़ों पर ध्यान देना।
- चिकित्सा आवश्यकताओं को समझने और उपचार निर्धारित करने के लिये व्यक्तिगत मामलों का मूल्यांकन करना।
- नीति का कार्यान्वयन:
- नीतिगत प्रावधानों को कार्रवाई में बदलने के लिये रणनीति और दिशा-निर्देश तैयार करना।
- समन्वय और सहयोग:
- चिकित्सा समुदाय, चिकित्सा प्रदाताओं और सरकारी एजेंसियों के बीच घनिष्ठ समन्वय की सुविधा प्रदान करना।
- दुर्लभ रोगों से संबंधित चुनौतियों का समाधान करने के लिये सहयोगी वातावरण प्रदान करना।
- उपचार तक पहुँच:
- दुर्लभ रोगों के मरीज़ों का समय पर इलाज सुनिश्चित करना।
- आवश्यक चिकित्सा और दवाओं की खरीद के लिये मार्ग प्रशस्त करना।
- निर्बाध उपचार सुनिश्चित करने के लिये एक तार्किक ढाँचा स्थापित करना।
- मामलों का आकलन:
राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति, 2021:
- उद्देश्य:
- स्वदेशी अनुसंधान और औषधियों के स्थानीय उत्पादन में वृद्धि पर ध्यान देना।
- दुर्लभ बीमारियों के उपचार की लागत कमी करके।
- दुर्लभ रोगों की रोकथाम के लिये जाँच करना और उनका शीग्रता से पता लगाना।
- नीति के मुख्य प्रावधान:
- वर्गीकरण:
- समूह 1: एक बार के उपचारात्मक उपचार के लिये उत्तरदायी रोग।
- समूह 2: दीर्घकालिक या आजीवन उपचार की आवश्यकता वाले रोग।
- समूह 3: रोगी के चयन के साथ उपलब्ध उपचार, उच्च लागत और चिकित्सा में चुनौतियाँ।
- वर्गीकरण:
- वित्तीय सहायता:
- राष्ट्रीय आरोग्य निधि के तहत अंब्रेला योजना केअतिरिक्त NPRD-2021 में उल्लिखित किसी भी दुर्लभ रोग के किसी भी समूह से पीड़ित रोगियों और किसी भी उत्कृष्टता केंद्र (COE) में उपचार के लिये 50 लाख रुपए तक की आर्थिक सहायता का प्रावधान है।
- समूह 1 के अंतर्गत सूचीबद्ध दुर्लभ रोगों के लिये राष्ट्रीय आरोग्य निधि के अंतर्गत 20 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता।
- राष्ट्रीय आरोग्य निधि, गरीबी की स्थिति की परवाह किये बिना प्रमुख जानलेवा रोगों से पीड़ित रोगियों को सहायता प्रदान करती है।
- व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट योगदान के लिये एक डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से उपचार के लिये स्वैच्छिक क्राउडफंडिंग।
- उत्कृष्टता केंद्र:
- आठ स्वास्थ्य सुविधाओं को 'उत्कृष्टता केंद्र' के रूप में नामित करना।
- नैदानिक/डायग्नोस्टिक सुविधाओं के उन्नयन के लिये 5 करोड़ रुपए तक की एकमुश्त वित्तीय सहायता प्रदान करना।
- राष्ट्रीय रजिस्ट्री:
- दुर्लभ रोगों की अस्पताल आधारित राष्ट्रीय रजिस्ट्री का निर्माण करना।
- अनुसंधान और विकास उद्देश्यों के लिये व्यापक डेटा और परिभाषाएँ सुनिश्चित करना।
- चिंता का कारण:
- समूह 3 रोग के मरीज़ों के लिये स्थायी वित्तपोषण की कमी।
- दुर्लभ रोगों के लिये दवाओं की निषेधात्मक लागत।
- दुर्लभ रोगों के लिये दवाओं के सीमित वैश्विक और घरेलू निर्माता।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारत में 'सभी के लिये स्वास्थ्य' को प्राप्त करने के लिये समुचित स्थानीय सामुदायिक-स्तरीय स्वास्थ्य देखभाल का मध्यक्षेप एक पूर्वापेक्षा है। व्याख्या कीजिये। (2018) |
स्रोत: द हिंदू
राइस फोर्टिफिकेशन
प्रिलिम्स के लिये:राइस फोर्टिफिकेशन, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI), विश्व स्वास्थ्य संगठन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, नैनो टेक्नोलॉजी मेन्स के लिये:चावल के आयरन फोर्टिफिकेशन के लाभ, चावल के आयरन फोर्टिफिकेशन से जुड़े जोखिम |
चर्चा में क्यों?
आयरन फोर्टीफाइड राइस/चावल के वितरण की आलोचना के जवाब में केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने एक आधिकारिक बयान जारी कर आयरन फोर्टिफाइड चावल के खिलाफ लगाए गए आरोपों को खारिज कर दिया है।
राइस फोर्टिफिकेशन:
- परिचय:
- फोर्टिफिकेशन खाद्य उत्पादों में पोषक तत्त्वों को मिश्रित करने की प्रक्रिया है जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं या अपर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के मिश्रण के साथ चावल के दानों को लेप करके या सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से समृद्ध चावल का उत्पादन करके और फिर नियमित चावल के साथ मिश्रित कर राइस फोर्टिफिकेशन (चावल का फोर्टिफिकेशन) किया जा सकता है।
- भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India- FSSAI) के मानदंडों के अनुसार, 1 किलो फोर्टिफाइड चावल में आयरन (28 mg-42.5 mg), फोलिक एसिड (75-125 माइक्रोग्राम) और विटामिन B-12 (0.75-1.25 माइक्रोग्राम) होना चाहिये।
- उद्देश्य:
- भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का स्तर बहुत अधिक पाया गया है। खाद्य मंत्रालय के अनुसार, देश में प्रत्येक दूसरी महिला एनीमिया से पीड़ित है और प्रत्येक तीसरा बच्चा नाटा है।
- चावल प्रोटीन का एक स्रोत है और इसमें विभिन्न विटामिन होते हैं। मिलिंग और पॉलिशिंग के दौरान विटामिन E, मैग्नीशियम, पोटेशियम और मैंगनीज़ सहित कुछ पोषक तत्त्व कम हो जाते हैं (जिस प्रक्रिया से ब्राउन राइस सफेद या पॉलिश किये हुए चावल बन जाते हैं)।
- चावल दुनिया में, विशेष रूप से एशिया और अफ्रीका में व्यापक रूप से खाए जाने वाले मुख्य खाद्य पदार्थों में से एक है।
- भारत में प्रति व्यक्ति चावल की खपत 6.8 किलोग्राम प्रतिमाह है। इसलिये चावल को सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के साथ पुष्ट करना गरीबों के आहार को पूरा करने का एक विकल्प है।
- आयरन की कमी भी एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है जो विश्व स्तर पर दो अरब से अधिक लोगों को प्रभावित करती है, इससे एनीमिया, कमज़ोरी, थकान, चक्कर आना, सुस्ती तथा मातृ मृत्यु दर का खतरा बढ़ जाता है।
- इस समस्या का समाधान करने के लिये कुछ देशों ने चावल को आयरन और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्त्वों, जैसे फोलिक एसिड और विटामिन B12 से पुष्ट करने की रणनीति अपनाई है।
- हमें अधिकांश आयरन मांस से मिलता है, जो हमारे शरीर द्वारा 50% अवशोषित हो जाता है। सब्जियों के माध्यम से सीमित सेवन और केवल 3% अवशोषण होता है। यही कारण है कि आयरन की कमी भारत में एक बड़ी समस्या है।
विटामिन B12:
- विटामिन B12, जिसे सायनोकोबलामिन के रूप में भी जाना जाता है, अधिकांश बैक्टीरिया और शैवाल द्वारा एंजाइम की मदद से संश्लेषित किया जाता है।
- यह सूक्ष्मजीवों में संश्लेषित होता है जो पशु मूल के भोजन में समावेश के माध्यम से मानव खाद्य शृंखला में प्रवेश करते हैं।
- ये मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के सामान्य कार्य के लिये भी महत्त्वपूर्ण हैं।
- लौह (Iron) की कमी इसका सबसे सामान्य लक्षण है। इसके साथ ही फोलेट (Folet), विटामिन बी 12 और विटामिन ए की कमी, दीर्धकालिक सूजन और जलन ,परजीवी संक्रमण और आनुवंशिक विकार भी एनीमिया के कारण हो सकते है। एनीमिया की गंभीर स्थिति में थकान, कमज़ोरी ,चक्कर आना और सुस्ती इत्यादि समस्याएँ होती है।
- विटामिन B12 की कमी से घातक रक्ताल्पता की स्थिति उत्पन्न होती है। इसका कारण ऑटोइम्यून डिसऑर्डर है। घातक रक्ताल्पता में कुअवशोषण विटामिन B12 के अवशोषण के लिए आवश्यक आंतरिक कारकों की कमी या हानि के कारण होता है।
फोलिक एसिड
- फोलेट विटामिन B9 का प्राकृतिक रूप है जो जल में घुलनशील और कई खाद्य पदार्थों में स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। इसे खाद्य पदार्थों में भी शामिल किया जाता है तथा फोलिक एसिड के पूरक के रूप में बिक्री की जाती है।
- गर्भधारण अवधि में गर्भवती महिलाओं को फोलिक एसिड लेने की ज़रूरत होती है।
- गर्भवती महिलाओं में फोलिक एसिड की कमी से बच्चे स्पाइना बिफिडा जैसे न्यूरल ट्यूब दोष से ग्रसित हो जाते हैं।
- स्पाइना बिफिडा एक ऐसी स्थिति है जो रीढ़ को प्रभावित करती है तथा सामान्यत: जन्म के समय स्पष्ट होती है।
- भारत (पंजाब और हरियाणा में प्रति 1000 में 4.7 से 9 तक) और दक्षिण-पूर्व एशिया तथा अफ्रीका के कुछ भागों में न्यूरल ट्यूब दोष के सबसे ज्यादा मामले पाए गए हैं।
- विकसित राष्ट्रों में यह 1 प्रति 1000 से भी कम है।
- गर्भवती महिलाओं में फोलिक एसिड की कमी से बच्चे स्पाइना बिफिडा जैसे न्यूरल ट्यूब दोष से ग्रसित हो जाते हैं।
चावल में आयरन फोर्टिफिकेशन के लाभ:
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WORLD HEALTH ORGANIZATION) के अनुसार, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के साथ राइस फोर्टिफिकेशन, चावल का नियमित रूप से सेवन करने वाली आबादी के पोषण की स्थिति और स्वास्थ्य परिणामों में सुधार के लिये एक प्रभावी, सरल और सस्ती रणनीति हो सकती है। चावल में आयरन फोर्टिफिकेशन के कुछ लाभ इस प्रकार हैं:
- बेहतर संज्ञानात्मक विकास: आयरन मस्तिष्क के विकास और कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- इष्टतम संज्ञानात्मक विकास और सीखने की क्षमताओं के लिये प्रारंभिक बचपन के दौरान पर्याप्त आयरन का सेवन आवश्यक है।
- आयरन के साथ चावल का फोर्टिफिकेशन करके, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ चावल एक प्राथमिक प्रधान आहार है, आयरन की कमी के कारण होने वाली संज्ञानात्मक हानि को रोका जा सकता है जिससे संज्ञानात्मक प्रदर्शन में सुधार और बेहतर शैक्षिक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
- बेहतर मातृ और शिशु स्वास्थ्य: जो गर्भवती महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं, यह उनकी गर्भावस्था की अवधि और प्रसव के दौरान जटिलताओं के जोखिम में वृद्धि कर सकता है।
- चावल का आयरन फोर्टिफिकेशन गर्भवती महिलाओं की आयरन स्थिति में सुधार करने में सहायता कर सकता है, मातृ एनीमिया और संबंधित जोखिमों को कम कर सकता है। इसके अतिरिक्त गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त आयरन का सेवन भ्रूण के विकास के लिये आवश्यक है और स्वस्थ जन्म परिणामों की वृद्धि में योगदान कर सकता है।
- इष्टतम संज्ञानात्मक विकास और सीखने की क्षमताओं के लिये प्रारंभिक बचपन के दौरान पर्याप्त आयरन का सेवन आवश्यक है।
चावल के आयरन फोर्टिफिकेशन संबंधी जोखिम:
- प्रभावहीनता की संभावना:
- यह सभी व्यक्तियों विशेषत: आयरन की उच्च आवश्यकताओं या कम जैव उपलब्धता वाले लोगों की आयरन की आवश्यकता को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकता है।
- आयरन की जैव उपलब्धता शरीर द्वारा अवशोषित और उपयोग किये जाने वाले आयरन के अनुपात को संदर्भित करती है जो कई कारकों पर निर्भर करती है जैसे- फोर्टिफिकेशन के लिये उपयोग किये जाने वाले आयरन के यौगिक का प्रकार एवं मात्रा, आहार में आयरन के अवशोषण को बढ़ाने वाले या अवरोधकों की उपस्थिति, तथा व्यक्ति की शारीरिक स्थिति और आनुवंशिक भिन्नता।
- संवेदनशील व्यक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव:
- यह आयरन का अधिक सेवन या संचय करने वाले व्यक्तियों में प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। अतिरिक्त आयरन शरीर के लिये विषाक्त हो सकता है और यह ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस, सूजन, अंग क्षति एवं संक्रमण तथा पुरानी बीमारियों के बढ़ते जोखिम का कारण बन सकता है।
- कुछ समूह जो कि आनुवंशिक विकार जैसे- हेमोक्रोमैटोसिस या थैलेसीमिया, यकृत रोग या संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस या मलेरिया से पीड़ित हैं और वे जो फोर्टीफाइड खाद्य पदार्थों या पूरक आहार के अन्य स्रोतों का सेवन करते हैं, उन्हें अतिरिक्त आयरन के सेवन या संचय से जोखिम हो सकता है।
- यह आयरन का अधिक सेवन या संचय करने वाले व्यक्तियों में प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। अतिरिक्त आयरन शरीर के लिये विषाक्त हो सकता है और यह ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस, सूजन, अंग क्षति एवं संक्रमण तथा पुरानी बीमारियों के बढ़ते जोखिम का कारण बन सकता है।
- बाधाएँ:
- इसके कार्यान्वयन में तकनीकी, विनियामक या सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
- तकनीकी बाधाओं में फोर्टिफाइड चावल उत्पादों की गुणवत्ता, स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है।
- विनियामक बाधाओं में फोर्टिफिकेशन के लिये मानकों, दिशा-निर्देशों और निगरानी प्रणालियों को स्थापित करना और लागू करना शामिल है।
- सामाजिक बाधाओं में उपभोक्ताओं और हितधारकों के बीच फोर्टिफाइड चावल उत्पादों की स्वीकार्यता, सामर्थ्य और पहुँच सुनिश्चित करना शामिल है।
- इसके कार्यान्वयन में तकनीकी, विनियामक या सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
आगे की राह
- नैनो-प्रौद्योगिकी का विस्तार: आयरन के कणों को कूटबद्ध करने और उनकी जैव उपलब्धता बढ़ाने के लिये नैनो-प्रौद्योगिकी के उपयोग का पता लगाने की आवश्यकता है।
- लोहे के अवशोषण को बढ़ावा देने हेतु नैनो कणों की घुलनशीलता में सुधार किया जा सकता है और चावल में पाए जाने वाले अवरोधकों के साथ अंतःक्रिया से बचा जा सकता है।
- बायोफोर्टिफिकेशन के साथ आयरन फोर्टिफिकेशन का सम्मिश्रण: बायोफोर्टिफिकेशन रणनीतियों के साथ आयरन फोर्टिफिकेशन को संयोजित करने की आवश्यकता है।
- बायोफोर्टिफिकेशन में पारंपरिक प्रजनन तकनीकों के माध्यम से आयरन सहित उच्च पोषक तत्त्वों वाली फसलों का संकरण शामिल है।
- आयरन फोर्टिफिकेशन और बायोफोर्टिफिकेशन को एकीकृत करके चावल की ऐसी किस्में विकसित करना जो प्राकृतिक रूप से आयरन से समृद्ध हों।
- सार्वजनिक-निजी भागीदारी: आयरन फोर्टिफिकेशन गतिविधियों को बढ़ावा देने और विस्तार करने हेतु सरकारों, अनुसंधान संस्थानों, वाणिज्यिक क्षेत्र के संगठनों एवं गैर-सरकारी संगठनों के बीच संबंधों को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
- ये साझेदारियाँ आयरन-फोर्टिफाइड चावल हेतु नवीन तकनीकों, वित्तपोषण तंत्र और वितरण नेटवर्क के विकास की सुविधा प्रदान कर सकती हैं।
- निरंतर अनुसंधान और विकास: नई तकनीकों, सूत्रीकरण विधियों और फोर्टिफिकेशन तकनीकों का पता लगाने हेतु अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- सुधार और नवाचार हेतु क्षेत्रों की पहचान करने के लिये नियमित रूप से आयरन फोर्टिफिकेशन कार्यक्रमों की प्रभावकारिता एवं प्रभाव का आकलन करना आवश्यक है।
स्रोत: द हिंदू
भारत की कॉफी
प्रिलिम्स के लिये:कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया, चिकोरी, भारत में कॉफी उत्पादन मेन्स के लिये:सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में कॉफी बागानों का महत्त्व, कॉफी की खपत और ऑक्सीडेटिव क्षति से बचाने में इसकी भूमिका |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में स्टेटिस्टा साइट से प्राप्त जानकारी के अनुसार, ब्राज़ील (कॉफी का सबसे बड़ा उत्पादक), वियतनाम, कोलंबिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और होंडुरास के बाद भारत दुनिया में कॉफी का छठा सबसे बड़ा उत्पादक है।
- हाल के दिनों में दक्षिण भारतीय कॉफी मिश्रण अपने स्वास्थ्य लाभों के चलते अधिक ध्यान आकृष्ट कर रहा है, यह विशेष रूप से दूध के साथ चिकोरी (Chicory) और कॉफी की भूमिका पर प्रकाश डालता है।
दक्षिण भारतीय कॉफी मिश्रण:
- परिचय:
- इसमें कॉफी और कासनी पाउडर का मिश्रण शामिल होता है।
- यह मिश्रण अनूठे स्वाद और विशेषताओं से युक्त है।
- चिकोरी:
- यूरोप और एशिया मूल की स्थानिक जड़ी-बूटी।
- इसमें इंसुलिन होता है, जो स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद एक स्टार्चयुक्त पदार्थ है, जो गेहूँ, प्याज़, केले, लीक, चुकंदर और शतावरी सहित विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों एवं जड़ी-बूटियों में पाया जाता है।
- इसमें हल्के रेचक गुण होते हैं और यह सूजन को कम करता है तथा बीटा-कैरोटीन से भरपूर होता है, जो ऑक्सीडेटिव क्षति के खिलाफ बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है।
- चिकोरी में कैफीन की अनुपस्थिति इसे कॉफी, जिसमें कैफीन होता है, का उपयुक्त पूरक बनाती है।
- कॉफी के स्वास्थ्य लाभ:
- ऑक्सीडेटिव क्षति से सुरक्षा।
- टाइप 2 मधुमेह का खतरा कम होता है।
- उम्र से संबंधित बीमारियों का खतरा कम होता है।
- दूध के साथ कॉफी के संभावित स्वास्थ्य प्रभाव:
- हालाँकि सादा कॉफी दुनिया के कई हिस्सों में लोकप्रिय है, जबकि दक्षिण भारतीय फिल्टर कॉफी आमतौर पर गर्म दूध के साथ पेश की जाती है।
- कॉफी में दूध मिलाने से कॉफी का स्वाद और सुगंध बढ़ जाता है।
- कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोध से पता चलता है कि दूध के साथ कॉफी का एंटी-इंफ्लेमेटरी प्रभाव हो सकता है, जो दूध में मौजूद प्रोटीन और एंटी-ऑक्सिडेंट के संयोजन का कारक है।
- दूध में मिलाई गई कॉफी के स्वास्थ्य प्रभावों का अध्ययन करने के लिये बड़े पैमाने पर मानव परीक्षण चल रहा है और भारतीय कॉफी प्रेमियों के बीच इसे लेकर रुचि बढ़ रही है।
कॉफी के विषय में:
- इतिहास और व्यावसायीकरण:
- सत्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत में कॉफी की शुरुआत हुई थी।
- वर्ष 1670 में एक भारतीय तीर्थयात्री द्वारा यमन से भारत में सात कॉफी बीन्स की तस्करी से इसके प्रारंभिक आगमन को चिह्नित किया जा सकता है।
- 17वीं शताब्दी के दौरान भारत के कुछ भागों पर अधिकार करने वाले डचों ने कॉफी की खेती के प्रसार में भूमिका निभाई।
- हालाँकि उन्नीसवीं सदी के मध्य ब्रिटिश राज के दौरान यह विशेष रूप से मैसूर क्षेत्र में वाणिज्यिक कॉफी की खेती के रूप में विकसित हुई।
- खेती और जैवविविधता:
- भारत में कॉफी बागान प्रथाएँ:
- यह मुख्य रूप से प्राकृतिक छाया में उगाई जाती है।
- मुख्यतः पश्चिमी और पूर्वी घाट के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में।
- जैवविविधता हॉटस्पॉट:
- इन क्षेत्रों में स्थित कॉफी बागानों को जैवविविधता हॉटस्पॉट के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- भारत की अनूठी जैवविविधता में महत्त्वपूर्ण योगदानकर्त्ता।
- निर्यात एवं घरेलू खपत:
- भारत में उत्पादित कॉफी का लगभग 65% से 70% निर्यात किया जाता है और शेष कॉफी का घरेलू स्तर पर उपभोग किया जाता है।
- स्थिरता एवं सामाजिक-आर्थिक विकास में भूमिका:
- कॉफी की खेती जैवविविधता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा देती है।
- भारत में कॉफी बागान प्रथाएँ:
- जलवायु की स्थिति और मृदा के प्रकार:
- जलवायु की स्थिति:
- गर्म तथा आर्द्र जलवायु, तापमान 15°C से 28°C और वर्षा 150 से 250 सेमी.।
- हानिकारक परिस्थितियाँ:
- ठंढ, हिमपात, 30 डिग्री सेल्सियस से आधिक उच्च तापमान और तेज़ धूप।
- आदर्श मृदा की स्थिति:
- अच्छी जल निकासी वाली दोमट मृदा, ह्यूमस और खनिजों (लौह, कैल्शियम) की उपस्थिति, उपजाऊ ज्वालामुखी लाल मृदा तथा गहरी रेतीली दोमट मृदा।
- कम उपयुक्त मृदा की स्थिति:
- भारी चिकनी मृदा, रेतीली मृदा।
- जलवायु की स्थिति:
- भौगोलिक वितरण और किस्में:
- भारत में कॉफी बागान क्षेत्र:
- कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश (अराकू घाटी), ओडिशा, मणिपुर, मिज़ोरम और अन्य पूर्वोत्तर राज्य।
- प्रमुख कॉफी उत्पादक:
- कर्नाटक में भारत के कुल कॉफी उत्पादन का लगभग 70% हिस्सा उगाया जाता है।
- भारत में कॉफी की किस्में:
- अरेबिका और रोबस्टा।
- अरेबिका की विशेषताएँ:
- यह अधिक ऊँचाई पर उगाई जाती है और इसकी सुगंध के कारण इसका बाज़ार मूल्य अधिक होता है।
- रोबस्टा की विशेषताएँ:
- इसे इसकी क्षमता हेतु जाना जाता है, जिसका विभिन्न मिश्रणों में प्रयोग किया जाता है।
- भारत में कॉफी बागान क्षेत्र:
भारतीय कॉफी बोर्ड:
- कॉफी बोर्ड कॉफी अधिनियम, 1942 की धारा (4) के तहत गठित एक वैधानिक संगठन है और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करता है। बोर्ड में अध्यक्ष सहित 33 सदस्य होते हैं।
- बोर्ड मुख्य रूप से अनुसंधान, विस्तार, विकास, बाज़ार आसूचना, बाहरी और आंतरिक संवर्द्धन तथा कल्याणकारी उपायों के माध्यम से अपनी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
- इसका मुख्यालय बंगलूरू में है।
- बालेहोन्नूर (कर्नाटक) में भी कॉफी बोर्ड का एक केंद्रीय अनुसंधान संस्थान स्थित है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. सूची-I को सूची-II से सुमेलित कीजिये और सूचियों के नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (2008)
कूट: A B C D (a) 2 4 3 1 उत्तर: (b) प्रश्न. हालाँकि कॉफी और चाय दोनों की खेती पहाड़ी ढलानों पर की जाती है लेकिन इनकी खेती से संबंधित कुछ अंतर है। इस संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) |
स्रोत: द हिंदू
भारत का नया संसद भवन
प्रिलिम्स के लिये:भारत का नया संसद भवन, सेंट्रल विस्टा परियोजना, लोकसभा, राज्यसभा, भूकंप, फौकॉल्ट पेंडुलम, सेन्गोल मेन्स के लिये:भारत के नए संसद भवन की आवश्यकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने देश के नए संसद भवन का उद्घाटन किया जो पुनर्निर्मित सेंट्रल विस्टा परियोजना का हिस्सा है।
- आर्किटेक्ट बिमल पटेल द्वारा डिज़ाइन किये गए नए संसद भवन का निर्माण वर्ष 2019 में शुरू हुआ।
नए संसद भवन की आवश्यकता:
- सांसदों के बैठने के लिये स्थान कम होना:
- पुराने भवनों को पूर्ण लोकतंत्र के लिये द्विसदनीय विधायिका को समायोजित करने के लिये डिज़ाइन नहीं किया गया था। वर्ष 2026 के बाद सीटों की कुल संख्या पर रोक हटने पर लोकसभा सीटों की संख्या मौजूदा 545 से काफी बढ़ने की संभावना है।
- संकटग्रस्त अवसंरचना:
- जल आपूर्ति और सीवर लाइन, एयर-कंडीशनिंग, अग्निशमन उपकरण, सीसीटीवी कैमरे आदि जैसी सेवाओं को जोड़ने से कई स्थानों पर जल का रिसाव हुआ है जिसने भवनों की सौंदर्यता को प्रभावित किया है।
- आधिकारिक भवन में अग्नि सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है।
- अप्रचलित संचार संरचनाएँ:
- पुरानी संसद में संचार अवसंरचना और प्रौद्योगिकी पुरातन थी तथा सभी हॉलों की ध्वनिकी में सुधार की आवश्यकता थी।
- सुरक्षा चिंताएँ:
- पुराना संसद भवन तब बना था जब दिल्ली भूकंपीय ज़ोन-II में था; वर्तमान में यह भूकंपीय ज़ोन-V में है जो संरचनात्मक सुरक्षा चिंताओं को बढाता है।
- कर्मचारियों के लिये अपर्याप्त कार्यक्षेत्र:
- इन वर्षों में आंतरिक सेवा गलियारों को कार्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप खराब-गुणवत्ता तथा कई मामलों में अधिक श्रमिकों को समायोजित करने के लिये उप-विभाजन के कारण ये कार्यस्थल कर्मचारियों के कार्य करने हेतु छोटे पड़ने लगे।
नई संसद से संबंधित प्रमुख बिंदु:
- त्रिकोणीय आकार:
- नया संसद भवन आकार में त्रिकोणीय है, यह ऐसा इसलिये है क्योंकि जिस भूखंड पर बना है वह त्रिकोणीय है।
- नए संसद भवन का स्वरूप विभिन्न धर्मों में पाई जाने वाली पवित्र ज्यामिति से प्रभावित है। इसका डिज़ाइन और सामग्री पुरानी संसद की पूरक है, साथ ही दोनों भवनों का एक परिसर है।
- पर्यावरण के अनुकूल:
- हरित निर्माण तकनीकों का उपयोग के कारण निर्मित नए भवन में पुराने भवन की तुलना में विद्युत की खपत में 30% की कमी आने की उम्मीद है।
- इसमें वर्षा जल संचयन और जल पुनर्चक्रण प्रणालियों को शामिल किया गया है। यह अधिक स्थान की उपलब्धता हेतु डिज़ाइन किया गया है, साथ ही यह अगले 150 वर्षों तक कार्य करने में सक्षम है।
- भूकंप-सुरक्षित:
- चूँकि दिल्ली भूकंपीय क्षेत्र-V में है, इसलिये इमारत को भूकंप-रोधी बनाया गया है।
- लोकसभा:
- नए लोकसभा कक्ष में एक मोर विषयवस्तु को अपनाया गया है, जिसमें दीवारों और छत पर राष्ट्रीय पक्षी के पंखों के समान नक्काशीदार डिज़ाइन तैयार किये गए हैं, जो टील कार्पेट से सुसज्जित हैं।
- लोकसभा कक्ष में वर्तमान के 543 के बजाय 888 सीटें होंगी, जिसकी क्षमता बढ़कर 1,272 हो जाएगी। सेंट्रल हॉल के अभाव में लोकसभा का उपयोग दोनों सदनों की संयुक्त बैठक हेतु किया जाएगा।
- नए लोकसभा कक्ष में एक मोर विषयवस्तु को अपनाया गया है, जिसमें दीवारों और छत पर राष्ट्रीय पक्षी के पंखों के समान नक्काशीदार डिज़ाइन तैयार किये गए हैं, जो टील कार्पेट से सुसज्जित हैं।
- राज्यसभा:
- राज्यसभा कक्ष को लाल कालीनों के साथ इसकी थीम के रूप में कमल से सज़ाया गया है।
- लोकसभा और राज्यसभा दोनों में एक बेंच पर दो सांसद बैठ सकेंगे और प्रत्येक सांसद की डेस्क पर टच स्क्रीन होगी।
- राज्यसभा कक्ष अब 250 की मौजूदा क्षमता के विपरीत 384 संसद सदस्यों (सांसदों) को समायोजित कर सकता है। परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या में भविष्य में होने वाली किसी भी वृद्धि को ध्यान में रखकर दोनों कक्षों की क्षमता को पहले से अधिक किया गया है।
- संविधान सभागार:
- नए भवन में एक संविधान सभागार बनाया गया है, जहाँ भारतीय लोकतंत्र की यात्रा का दस्तावेज़ीकरण किया गया है।
- भारत भर से सामग्री:
- भवन के आंतरिक और बाहरी निर्माण के लिये देश भर से विभिन्न प्रकार की निर्माण सामग्री लाई गई है, जिसमें धौलपुर के सरमथुरा से बलुआ पत्थर और राजस्थान राज्य के जैसलमेर ज़िले के लाखा गाँव से ग्रेनाइट शामिल है।
- इसी प्रकार साज-सज्जा में प्रयुक्त लकड़ी नागपुर से लाई गई और मुंबई के शिल्पकारों ने इस पर वास्तुशिल्प डिज़ाइन का कार्य किया है।
- उत्तर प्रदेश के भदोही के बुनकरों ने भवन के लिये हाथ से बुने पारंपरिक कालीन बनाए हैं।
- गांधी प्रतिमा:
- मूल रूप से वर्ष 1993 में संसद के मुख्य द्वार पर स्थापित की गई महात्मा गांधी की 16 फुट ऊँची काँस्य प्रतिमा को पुराने और नए भवनों के बीच स्थानांतरित कर दिया गया है।
- यह अब लोकसभा अध्यक्ष द्वारा उपयोग किये जाने वाले प्रवेश द्वार के समीप पुराने भवन के सामने है। यह प्रतिमा छात्रों और संसद सदस्यों के विरोध, सभाओं और फोटो-ऑप्स के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्थल रही है।
- इसे पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध मूर्तिकार राम वी सुतार ने बनाया था।
- राष्ट्रीय चिह्न:
- यह भवन राष्ट्रीय प्रतीकों से भरा हुआ है, जिसमें राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ के सिंह को भवन के शीर्ष पर स्थापित किया है जिसका वज़न 9,500 किलोग्राम है और ऊँचाई 6.5 मीटर है।
- इस विशाल काँस्य प्रतिमा को सहारा देने के लिये सेंट्रल फोयर के शीर्ष पर 6,500 किलोग्राम की संरचना का निर्माण किया गया है। भवन के प्रवेश द्वार पर अशोक चक्र और 'सत्यमेव जयते' शब्द पत्थरों पर अंकित किये गए हैं।
- गोल्डन राजदंड:
- अंग्रेज़ो से सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिये आज़ादी की पूर्व संध्या पर जवाहरलाल नेहरू को दिया गया गोल्डन राजदंड (सेन्गोल) स्पीकर के पोडियम के पास नए लोकसभा कक्ष में रखा जाएगा। यह राजदंड उन्हें तमिलनाडु के पुजारियों द्वारा दिया गया था।
- डिजिटलीकरण की ओर:
- नई संसद के पर्यावरण के अनुकूल दृष्टिकोण के अनुसार सभी रिकॉर्ड- सदन की कार्यवाही, प्रश्न और अन्य व्यवसाय को डिजिटाइज़ किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त टैबलेट और आईपैड एक आदर्श प्रदर्शित करेंगे।
- भवन में गैलरी:
- 'शिल्प' नामक एक गैलरी सभी भारतीय राज्यों की मिट्टी से बने मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ पूरे भारत के वस्त्र प्रतिष्ठानों को प्रदर्शित करेगी। गैलरी 'स्थापत्य' भारत के प्रतिष्ठित स्मारकों को प्रदर्शित करेगी जिनमें विभिन्न राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के स्मारक शामिल हैं। स्मारकों के अतिरिक्त यह योग आसनों को भी समाहित करती है।
- वास्तु शास्त्र:
- भारतीय संस्कृति और वास्तु शास्त्र में उनके महत्त्व के आधार पर भवन के सभी प्रवेश द्वारों पर संरक्षक मूर्तियों के रूप में शुभ पशुओं को प्रदर्शित किया जाएगा। इनमें हाथी, घोड़ा, चील, हंस और पौराणिक जीव शार्दुला और मकर शामिल हैं।
- फौकॉल्ट पेंडुलम:
- नए संसद भवन के अंदर स्थापित एक फौकॉल्ट पेंडुलम है जिसे संसद के अक्षांश पर इसे एक चक्कर पूरा करने में 49 घंटे 59 मिनट और 18 सेकंड का समय लगता है।
- फौकॉल्ट पेंडुलम, जिसका नाम फ्राँसीसी भौतिक विज्ञानी लियोन फौकॉल्ट के नाम पर रखा गया है, इसका उपयोग पृथ्वी के घूर्णन को प्रदर्शित करने के लिये किया जाता है।
- पेंडुलम में एक भारी बॉब होता है जो छत में एक निश्चित बिंदु से एक लंबे, मज़बूत तार के अंत में निलंबित होता है। जब लोलक झूलता है तब जिस काल्पनिक सतह पर तार और गोलक स्वाइप करते हैं, उसे दोलन का तल कहा जाता है।
- नए संसद भवन के अंदर स्थापित एक फौकॉल्ट पेंडुलम है जिसे संसद के अक्षांश पर इसे एक चक्कर पूरा करने में 49 घंटे 59 मिनट और 18 सेकंड का समय लगता है।
सेंट्रल विस्टा:
- वर्तमान में नई दिल्ली के सेंट्रल विस्टा में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, उत्तर और दक्षिण ब्लॉक, इंडिया गेट, राष्ट्रीय अभिलेखागार शामिल हैं।
- दिसंबर 1911 में किंग जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की।
- दिल्ली दरबार का आयोजन किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के अवसर पर किया गया था।
- इन भवनों के निर्माण का उत्तरदायित्व एडविन लुटियंस (Edwin Lutyens) व हर्बर्ट बेकर (Herbert Baker) को दिया गया, जो यूरोपीय शास्त्रीयतावाद के मज़बूती से पालन के लिये जाने जाते थे और दक्षिण अफ्रीका के एक प्रमुख वास्तुकार हर्बर्ट बेकर थे।
- हर्बर्ट बेकर दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया में यूनियन बिल्डिंग के वास्तुकार भी हैं।
- संसद भवन की इमारत लुटियंस और बेकर दोनों ने डिज़ाइन किया था।
- राष्ट्रपति भवन को एडविन लुटियंस ने डिज़ाइन किया था।
- सचिवालय, जिसमें उत्तर और दक्षिण दोनों ब्लॉक शामिल हैं, हर्बर्ट बेकर द्वारा डिज़ाइन किया गया था।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
लोकसभा की दक्षता और निहितार्थ
प्रिलिम्स के लिये:लोकसभा, संसद, लोकसभा, राज्यसभा, बजट सत्र की दक्षता मेन्स के लिये:लोकसभा की दक्षता और निहितार्थ |
चर्चा में क्यों?
17वीं लोकसभा जो अपने अंतिम वर्ष में प्रवेश कर रही है, ने अब तक 230 बैठकें की हैं।
- पूरे पाँच वर्ष के कार्यकाल को पूरा करने वाली सभी लोकसभाओं की तुलना में 16वीं लोकसभा की बैठक के दिन सबसे कम (331) हैं। एक और वर्ष शेष होने एवं वर्ष में 58 औसत बैठक दिवसों के साथ 17वीं लोकसभा के 331 दिनों से अधिक बैठने की संभावना नहीं है।
- यह वर्ष 1952 के बाद से इसे सबसे छोटी पूर्ण अवधि वाली लोकसभा बना सकता है।
वर्तमान लोकसभा के अब तक के कार्य:
- बजट सत्र 2023 की दक्षता:
- जनवरी 2023 से अप्रैल 2023 तक आयोजित नवीनतम सत्र (बजट सत्र) में लगातार व्यवधानों के बीच सीमित विधायी गतिविधि और बजट पर न्यूनतम चर्चा देखी गई है।
- इस सत्र में लोकसभा ने अपने निर्धारित समय (46 घंटे) के 33% और राज्यसभा ने (32 घंटे) 24% कार्य किया।
- वर्ष 1952 के बाद से यह छठा सबसे छोटा बजट सत्र रहा है। लोकसभा ने वित्तीय कामकाज़ पर 18 घंटे लगाए, जिनमें से 16 घंटे बजट की सामान्य चर्चा पर खर्च किये गए।
- जनवरी 2023 से अप्रैल 2023 तक आयोजित नवीनतम सत्र (बजट सत्र) में लगातार व्यवधानों के बीच सीमित विधायी गतिविधि और बजट पर न्यूनतम चर्चा देखी गई है।
- विगत ग्यारह सत्र:
- वर्ष 2019 के बजट सत्र से लेकर 2023 के बजट सत्र तक 150 विधेयक पेश किये जा चुके हैं और 131 विधेयक पारित किये जा चुके हैं।
- पहले सत्र में 38 विधेयक पेश किये गए और 28 पारित किये गए। तब से पेश किये गए और पारित किये गए विधेयकों की संख्या में गिरावट आई है।
- पिछले लगातार चार सत्रों में से प्रत्येक में 10 से कम विधेयक पेश या पारित किये गए हैं।
- सभा दक्षता:
- वर्ष 2022 में लोकसभा का कामकाज़ 177 घंटे और राज्यसभा में 127.6 घंटे का था।
- वर्ष 2021 में लोकसभा में 131.8 घंटे और राज्यसभा में 104 घंटे कामकाज़ हुआ था।
- इसी प्रकार वर्ष 2020 में निचले सदन की उत्पादकता 111.2 घंटे और उच्च सदन की 93.8 घंटे थी।
- इस वर्ष के बजट सत्र के पहले भाग के दौरान लोकसभा ने 12 घंटे के आवंटित समय की तुलना में कुल 14 घंटे 45 मिनट का समय चर्चा के लिये समर्पित किया।
- संसद में तर्क-वितर्क की कमी:
- 17वीं लोकसभा में केवल 11 अतिलघु अवधि की चर्चाएँ और आधे घंटे की एक चर्चा हुई तथा नवीनतम सत्र के दौरान कोई भी चर्चा नहीं हुई।
- लोकसभा में प्रश्नकाल निर्धारित समय के विपरीत केवल 19% और राज्यसभा में निर्धारित समय के विपरीत 9% चला।
- किसी भी निजी सदस्य द्वारा न तो बिल पेश किया गया और न ही चर्चा के लिये लाया गया। प्रत्येक सदन ने केवल एक निजी सदस्य संकल्प पर चर्चा की ।
- संसदीय समिति के तहत निम्न परीक्षण:
- 17वीं लोकसभा के दौरान अब तक केवल 14 विधेयकों को आगे की जाँच के लिये संसदीय समिति के पास भेजा गया है।
- 15वीं और 14वीं लोकसभा में क्रमश: 71% और 60% की तुलना में 16वीं लोकसभा में प्रस्तुत किये गए बिलों में से 25% कम-से-कम समितियों को भेजे गए थे। यह विशेषज्ञ जाँच के अधीन राष्ट्रीय कानून की गिरावट की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
- 17वीं लोकसभा के दौरान अब तक केवल 14 विधेयकों को आगे की जाँच के लिये संसदीय समिति के पास भेजा गया है।
- डिप्टी स्पीकर के चुनाव में विलंब:
- संविधान के अनुच्छेद 93 में कहा गया है कि लोकसभा जल्द से जल्द सदन के दो सदस्यों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में चुनेगी। 17वीं लोकसभा ने अपने पांँच वर्ष के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में प्रवेश करते हुए भी एक उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं किया है।
लोकसभा की न्यूनतम उत्पादकता का कारण:
- बार-बार होने वाली रुकावटें:
- 17वीं लोकसभा में विपक्षी दलों द्वारा लगातार व्यवधान और विरोध का अनुभव किया गया। इन व्यवधानों के परिणामस्वरूप समय की महत्त्वपूर्ण हानि हुई तथा उत्पादकता में कमी आई है।
- नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC), और कृषि कानूनों सहित कई प्रमुख मुद्दों ने इन व्यवधानों को जन्म दिया।
- 17वीं लोकसभा में विपक्षी दलों द्वारा लगातार व्यवधान और विरोध का अनुभव किया गया। इन व्यवधानों के परिणामस्वरूप समय की महत्त्वपूर्ण हानि हुई तथा उत्पादकता में कमी आई है।
- समझौते का अभाव:
- सत्ताधारी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद महत्त्वपूर्ण मामलों पर सहमति का अभाव था। संसद सदस्यों के बीच सहमति की कमी के कारण महत्त्वपूर्ण विधेयकों और कानूनों को पारित करने में देरी हुई।
- लघु सत्र:
- 17वीं लोकसभा के पिछले सत्र की तुलना में लघु सत्र हुए। आवश्यक विधेयकों और मुद्दों पर विस्तृत चर्चा और बहस के लिये यह सीमित समय रहा। परिणामस्वरूप कई महत्त्वपूर्ण मामले पर्याप्त ध्यान दिये बिना लंबित रह गए।
लोकसभा की कम उत्पादकता के निहितार्थ:
- विलंबित विधान:
- प्राथमिक निहितार्थ महत्त्वपूर्ण विधेयकों और कानूनों को पारित करने में देरी है।
- जब लोकसभा प्रभावी ढंग से कार्य करने में असमर्थ होती है, तो कराधान, बुनियादी ढाँचे और सामाजिक कल्याण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित विधेयकों को स्थगित किया जा सकता है।
- यह देरी देश की प्रगति को बाधित करती है क्योंकि यह आवश्यक नीतियों और सुधारों के कार्यान्वयन में बाधा डालती है।
- जवाबदेही और निरीक्षण की कमी:
- जब लोकसभा उत्पादक नहीं होती है, तो यह संसद के सदस्यों को उनके कार्यों के लिये जवाबदेह ठहराने की प्रक्रिया में बाधा डालती है। अपर्याप्त बहस और जाँच के परिणामस्वरूप प्रस्तावित कानूनों और निर्णयों की पूरी तरह से जाँच नहीं हो पाती है।
- यह जाँच और संतुलन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को कमज़ोर करता है, जिससे कार्यपालिका को पर्याप्त निरीक्षण के बिना निर्णय लेने की अनुमति मिलती है।
- सार्वजनिक विश्वास में कमी:
- यह लोकतांत्रिक संस्थानों में नागरिकों के विश्वास को नुकसान पहुँचा सकता है। जब निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी ज़िम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से पूरा करने में असमर्थ होते हैं, तो यह जनता के बीच मोहभंग और असंतोष की भावना पैदा करता है।
- इससे नागरिकों की भागीदारी में गिरावट आ सकती है, एक स्वस्थ लोकतंत्र की नींव का क्षरण हो सकता है।
- संसाधनों की बर्बादी:
- लोकसभा की विशेषत: करदाताओं के पैसे की कम उत्पादकता बेकार संसाधनों में बदल जाती है।
- संसद सदस्यों के वेतन और भत्तों का वित्तपोषण राजकोष से होता है। यदि व्यवधान या उत्पादकता में कमी के कारण इन संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं किया जाता है तो इसका परिणाम सार्वजनिक धन की बर्बादी होती है जिसका उपयोग अन्य विकासात्मक उद्देश्यों के लिये किया जा सकता था।
- आर्थिक प्रभाव:
- एक कम उत्पादक लोकसभा का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। महत्त्वपूर्ण आर्थिक मुद्दों पर विलंबित या अपर्याप्त कानून विकास, निवेश और विकास को बाधित कर सकते हैं।
- निश्चितता और कुशल निर्णय लेने की कमी निवेशकों के विश्वास को कम कर सकती है जिससे आर्थिक प्रगति में मंदी आ सकती है।
आगे की राह
- भारत में संसदीय लोकतंत्र की संस्कृति को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसमें सांसदों के बीच सम्मान, मर्यादा तथा व्यावसायिकता की भावना को बढ़ावा देना शामिल है। सदस्यों को जनप्रतिनिधियों के रूप में अपनी भूमिका को प्राथमिकता देने तथा बहस और चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- संसद के भीतर रचनात्मक संवाद तथा बहस की संस्कृति को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है। राजनेताओं को विघटनकारी रणनीति या व्यक्तिगत हमलों का सहारा लेने के बजाय नीतिगत मामलों पर ठोस चर्चाओं में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- कठोर पूछताछ, सरकारी कार्यों की जाँच और महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों पर गहन बहस के माध्यम से संसद के निरीक्षण कार्य को मज़बूत करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इसके लिये यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि सांसदों को प्रासंगिक जानकारी समय पर और पारदर्शी तरीके से प्रदान की जाए।
स्रोत: द हिंदू
विपरीत परिसंचरण में सुस्ती
प्रिलिम्स के लिये:विपरीत परिसंचरण, सतही जल, अंटार्कटिक, ग्रीनहाउस प्रभाव, महासागरीय धाराएँ मेन्स के लिये:विपरीत परिसंचरण और जलवायु स्थिरता को बनाए रखने में इसका महत्त्व, अंटार्कटिक के गहरे समुद्र की धाराओं की गति में कमी और इसके परिणाम |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंटार्कटिका में गहरे समुद्र की धाराएँ पहले की तुलना में धीमी हो रही हैं जो संभावित रूप से महत्त्वपूर्ण विपरीत परिसंचरण को बाधित कर रही हैं।
- अंटार्कटिक समुद्र के महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों का संकेत देते हुए पिछले तीन दशकों में गहरे समुद्र में परिसंचरण और ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट देखी गई है।
- इस परिघटना के परिणाम विपरीत परिसंचरण पर अंटार्कटिक बर्फ के पिघलने के प्रभावों से और अधिक रेखांकित होते हैं।
विपरीत परिसंचरण:
- परिचय:
- विपरीत परिसंचरण महासागरीय धाराओं के वैश्विक नेटवर्क को संदर्भित करता है जो विश्व के महासागरों में ऊष्मा, कार्बन और पोषक तत्त्वों का पुनर्वितरण करता है।
- अंटार्कटिक में इसकी सतह के घने ऑक्सीजन युक्त पानी का डूबना तथा समुद्र तल के साथ इसका फैलाव और दूर के क्षेत्रों में धीमी वृद्धि शामिल है।
- प्रक्रिया:
- ध्रुवीय क्षेत्रों में सतही जल कम तापमान और ठंडी वायु राशियों के संपर्क में आने के कारण ठंडा हो जाता है।
- शीतलन समुद्री बर्फ का निर्माण करता है, जो आसपास के समुद्री जल से मीठे जल को निकालता है। यह प्रक्रिया शेष जल की लवणता और घनत्व में वृद्धि कर देती है।
- उच्च लवणता और घनत्व के कारण सतह का जल सघन हो जाता है जिससे इसके डूबने की संभावना अधिक हो जाती है।
- घना जल गहरी परतों में डूब जाता है, जिसे सतही जल के रूप में भी जाना जाता है।
- घने जल के डूबने से जल विपरीत परिसंचरण होने लगता है। यह भूमध्य रेखा की ओर प्रवाहित होता है, जबकि एक ही समय में निचले अक्षांशों से सतह का गर्म जल ध्रुवों की ओर प्रवाहित होता है।
- जैसे-जैसे गहरे जल आगे की ओर प्रवाहित होता है, यह धीरे-धीरे आस-पास के जल के साथ मिल जाता है, साथ ही गर्मी, कार्बन और पोषक तत्त्वों का आदान-प्रदान करता है। अंतिम रूप से इस संशोधित जल की अपवेलिंग अन्य क्षेत्रों में होती है जो विपरीत परिसंचरण को पूर्ण करता है।
- महत्त्व:
- पृथ्वी पर जलवायु स्थिरता बनाए रखने में परिवर्तित परिसंचरण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है
- यह ग्रह की जलवायु प्रणाली को प्रभावित करते हुए ऊष्मा, कार्बन और पोषक तत्त्वों के परिवहन की सुविधा प्रदान करता है।
- इसके अतिरिक्त यह गहरे समुद्र में ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करता है तथा समुद्री जीवन और उसके पारिस्थितिक तंत्र का समर्थन करता है।
- परिवर्तित परिसंचरण में कमी का प्रभाव:
- अंटार्कटिका में गहरे समुद्र की धाराओं की धीमी गति देखी गई जो जलवायु स्थिरता के बारे में चिंता उत्पन्न करती है।
- नीचे के जल के कम प्रवाह के परिणामस्वरूप गहरे समुद्र में ऑक्सीजन की आपूर्ति में गिरावट आती है जिससे ऑक्सीजन पर निर्भर जीव प्रभावित होते हैं।
- ऑक्सीजन के स्तर में कमी समुद्री खाद्य शृंखला में व्यवहार परिवर्तन, पलायन और व्यवधान उत्पन्न कर सकती है।
- इसके अलावा यह ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड और ऊष्मा को संग्रहीत करने की समुद्र की क्षमता कम होने पर ग्रीनहाउस प्रभाव तेज़ हो जाता है।
- अंटार्कटिक की बर्फ के पिघलना में इसका योगदान:
- अंटार्कटिक की बर्फ के पिघलने से अंटार्कटिक तलीय जल का निर्माण बाधित होता है जिससे सतही जल ताज़ा और कम घना हो जाता है जिससे उसका डूबना बाधित हो जाता है।
- यह व्यवधान परिवर्तित परिसंचरण को कमज़ोर करता है जिससे गहरे समुद्र में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है।
- नीचे के जल को गर्म तथा ऑक्सीजन रहित पानी से बदलने से ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट आती है।
- इसके अतिरिक्त पिघलने वाली बर्फ थर्मल विस्तार के माध्यम से समुद्र के बढ़ते स्तर में योगदान करती है क्योंकि गर्म पानी अधिक स्थान घेरता है।
- अंटार्कटिक की बर्फ के पिघलने से अंटार्कटिक तलीय जल का निर्माण बाधित होता है जिससे सतही जल ताज़ा और कम घना हो जाता है जिससे उसका डूबना बाधित हो जाता है।
अंटार्कटिक की प्रमुख विशेषताएँ:
- वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये भारत सहित कई देशों द्वारा स्थापित लगभग 40 स्थायी स्टेशनों को छोड़कर अंटार्कटिक निर्जन है।
- अंटार्कटिक महाद्वीप पर भारत के दो अनुसंधान केंद्र हैं- 'मैत्री' (1989 में स्थापित) शिरमाकर हिल्स में तथा 'भारती' (2012 में स्थापित) लारसेमैन हिल्स में।
- भारत द्वारा अंटार्कटिक कार्यक्रम के तहत अब तक यहाँ 40 वैज्ञानिक अभियान पूरे किये जा चुके हैं। आर्कटिक सर्कल के ऊपर स्वालबार्ड में 'हिमाद्री' स्टेशन के साथ भारत ध्रुवीय क्षेत्रों में शोध करने वाले देशों के एक विशिष्ट समूह में शामिल है।
- अंटार्कटिक पृथ्वी का सबसे दक्षिणतम महाद्वीप है। इसमें भौगोलिक रूप से दक्षिणी ध्रुव शामिल है और यह दक्षिणी गोलार्द्ध के अंटार्कटिक क्षेत्र में स्थित है।
- 14,000,000 वर्ग किलोमीटर (5,4 लाख वर्ग मील) में विस्तृत यह विश्व का पाँचवाँ सबसे बड़ा महाद्वीप है।
- भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम एक बहु-अनुशासनात्मक, बहु-संस्थागत कार्यक्रम है, जो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के ‘नेशनल सेंटर फॉर अंटार्कटिक एंड ओशियन रिसर्च’ (National Centre for Antarctic and Ocean Research) के नियंत्रण में है।
- भारत ने आधिकारिक रूप से अगस्त 1983 में अंटार्कटिक संधि प्रणाली को स्वीकार किया।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. महासागरीय धाराएँ और जलराशियाँ समुद्री जीवन और तटीय पर्यावरण पर अपने प्रभावों में किस प्रकार परस्पर भिन्न हैं? उपयुक्त उदाहरण दीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2019) प्रश्न. समुद्री धाराओं को प्रभावित करने वाली शक्तियाँ कौन सी हैं? विश्व के मत्स्य-उद्योग में इनके योगदान का वर्णन कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2022) |
स्रोत: द हिंदू
इसरो का नया NavIC उपग्रह NVS-01
प्रिलिम्स के लिये:NVS-01, GSLV, NavIC, IRNSS, GPS, IMO, इसरो मेन्स के लिये:ISRO का नया NavIC उपग्रह NVS-01, NavIC का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organisation- ISRO) द्वारा NVS-01 उपग्रह को GSLV-F12 का उपयोग करके सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया था और 19 मिनट की उड़ान के बाद इसे सटीक रूप से जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट में स्थापित किया गया।
- GSLV-F12 भारत के भू-तुल्यकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (Geosynchronous Satellite Launch Vehicle- GSLV) की 15वीं उड़ान है और स्वदेशी साइरो स्टेज वाली 9वीं उड़ान है। स्वदेशी क्रायोजेनिक चरण के साथ GSLV की यह छठी परिचालन उड़ान है।
NVS-01:
- परिचय:
- यह उपग्रह इसरो के नेविगेशनल सैटेलाइट (NVS) शृंखला के पेलोड की दूसरी पीढ़ी के उपग्रहों में से पहला है।
- इसका वज़न 2,232 किलोग्राम है, जो इसे तारामंडल में सबसे भारी बनाता है।
- NVS-01 नेविगेशन पेलोड के साथ L1, L5 और S बैंड भेजा गया।
- इसका उद्देश्य NavIC की सेवाओं को निरंतरता प्रदान करना है, जो जीपीएस के समान एक भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम है और यह केवल भारतीय उपमहाद्वीप के 1,500 किमी. क्षेत्र तक सटीक और रीयल-टाइम नेविगेशन की सुविधा प्रदान करता है।
- पहली पीढ़ी में भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (IRNSS) में सात उपग्रह हैं जिन्हें परिचालन रूप से NavIC नाम दिया गया है। इनका वज़न बहुत कम लगभग 1,425 किलोग्राम है।
- परमाणु घड़ी:
- इस उपग्रह में रुबिडियम परमाणु घड़ी (Rubidium Atomic Clock) लगाई गई है जो भारत द्वारा विकसित एक महत्त्वपूर्ण तकनीक है।
- नेविगेशन तारामंडल में मौजूद कुछ उपग्रहों की परमाणु घड़ियों (एटॉमिक क्लॉक) ने इनके खराब होने के कारण स्थान का सटीक डेटा प्रदान करने की क्षमता खो दी है। उपग्रह-आधारित पोज़िशनिंग प्रणाली स्थानों को निर्धारित करने हेतु परमाणु घड़ियों द्वारा सटीक समय मापन पर भरोसा करती हैं। जब घड़ियाँ खराब हो जाती हैं, तो उपग्रह सटीक स्थान की जानकारी नहीं दे सकता है।
- इस उपग्रह में रुबिडियम परमाणु घड़ी (Rubidium Atomic Clock) लगाई गई है जो भारत द्वारा विकसित एक महत्त्वपूर्ण तकनीक है।
- वियरएवल डिवाइस में बेहतर L1 सिग्नल का उपयोग:
- यह मौजूदा उपग्रहों द्वारा प्रदान किये जाने वाले L5 और S फ्रीक्वेंसी सिग्नल के अतिरिक्त तृतीय फ्रीक्वेंसी के L1 सिग्नल भी भेजेगा, जिससे अन्य उपग्रह-आधारित नेविगेशन प्रणालियों के साथ अंतर्संचालनीयता और अधिक बढ़ेगी।
- L1 फ्रीक्वेंसी ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली फ्रीक्वेंसी में से एक है। यह पहनने योग्य उपकरणों में सिंगल-फ्रीक्वेंसी चिप्स का उपयोग करने वाले व्यक्तिगत ट्रैकर्स में क्षेत्रीय नेविगेशन सिस्टम के उपयोग को बढ़ाएगी।
- लंबा मिशन काल:
- इसका मिशन काल 12 वर्ष से अधिक का होगा, जबकि मौजूदा उपग्रहों का मिशन काल 10 वर्ष है।
NavIC:
- परिचय:
- NavIC या IRNSS को 7 उपग्रहों के समूह और 24×7 संचालित ग्राउंड स्टेशनों के नेटवर्क के साथ डिज़ाइन किया गया है।
- इसमें कुल आठ उपग्रह हैं लेकिन अभी केवल सात ही सक्रिय हैं।
- भूस्थैतिक कक्षा में तीन उपग्रह तथा भूतुल्यकालिक कक्षा में चार उपग्रह हैं।
- तारामंडल का पहला उपग्रह (IRNSS-1A) 1 जुलाई, 2013 को लॉन्च किया गया था और आठवाँ उपग्रह IRNSS-1I अप्रैल, 2018 में लॉन्च किया गया था।
- तारामंडल के उपग्रह (IRNSS-1G) के सातवें प्रक्षेपण के साथ वर्ष 2016 में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा IRNSS का नाम बदलकर NavIC कर दिया गया।
- इसे वर्ष 2020 में हिंद महासागर क्षेत्र में संचालन के लिये वर्ल्ड-वाइड रेडियो नेविगेशन सिस्टम (WWRNS) के एक भाग के रूप में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन (IMO) द्वारा मान्यता दी गई थी।
- NavIC या IRNSS को 7 उपग्रहों के समूह और 24×7 संचालित ग्राउंड स्टेशनों के नेटवर्क के साथ डिज़ाइन किया गया है।
- संभावित उपयोग:
- स्थलीय, हवाई और समुद्री नेविगेशन;
- आपदा प्रबंधन;
- वाहन ट्रैकिंग और बेड़ा प्रबंधन (विशेष रूप से खनन और परिवहन क्षेत्र के लिये);
- मोबाइल फोन के साथ एकीकरण;
- सटीक समय (ATM और पावर ग्रिड के लिये);
- मैपिंग और जियोडेटिक डेटा कैप्चर।
क्षेत्रीय नेविगेशन प्रणाली लाभ:
- क्षेत्रीय नेविगेशन प्रणाली:
- NavIC (नाविक), भारत की अपनी क्षेत्रीय नेविगेशन प्रणाली है जिसे इसरो द्वारा विकसित किया गया है। यह संपूर्ण भारतीय भू-भाग को कवर करती है और यह चारों ओर 1,500 किलोमीटर तक फैली हुई है। NavIC का प्राथमिक उद्देश्य इस विशिष्ट क्षेत्र में उपयोगकर्त्ताओं की स्थिति और नेविगेशन आवश्यकताओं को पूरा करना है।
- ग्राउंड स्टेशन:
- इसरो जापान, फ्राँस और रूस जैसे देश ग्राउंड स्टेशन स्थापित करने पर काम कर रहे हैं। ये अतिरिक्त ग्राउंड स्टेशन बेहतर त्रिकोण के माध्यम से नाविक संकेतों की सटीकता और कवरेज को बढ़ाएंगे।
- सिग्नल रिसेप्शन:
- NavIC, सिग्नल 90 डिग्री के कोण पर भारत तक पहुँचते हैं, जिससे भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों, घने जंगलों और पहाड़ी इलाकों में संकेतों की पहुँच आसान हो जाती है। इसके विपरीत GPS सिग्नल एक कोण पर पहुँचते हैं, जो कभी-कभी कुछ स्थानों पर संकेत प्राप्ति के लिये चुनौतियों उत्पन्न करते हैं।
- उपयोगिता:
- NavIC, सिग्नल मुख्य रूप से भारतीय क्षेत्र की सेवा के लिये डिज़ाइन किये गए हैं। इसलिये कवरेज क्षेत्र के भीतर उपयोगकर्त्ता नाविक सिग्नलों तक विश्वसनीय पहुँच की अपेक्षा कर सकते हैं, जो दूरस्थ या दुर्गम क्षेत्रों तक भी पहुँच में सहायता प्रदान करता है
विश्व के अन्य नेविगेशन सिस्टम
- चार ग्लोबल सिस्टम्स:
- अमेरिका का GPS
- रूस का GLONASS
- यूरोपीय संघ का गैलीलियो
- चीन का BeiDou।
- दो क्षेत्रीय सिस्टम:
- भारत का NavIC
- जापान का QZSS
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से किस देश का अपना सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम है? (2023) (a) ऑस्ट्रेलिया उत्तर: (d) विश्व में परिचालन नेविगेशन प्रणाली:
प्रश्न. भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली (IRNSS) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (A) मेन्स:प्रश्न. भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली (IRNSS) की आवश्यकता क्यों है? यह नेविगेशन में कैसे मदद करती है? (2018) |