डेली न्यूज़ (29 Nov, 2024)



यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (ICH)

UNESCO's List of Intangible Cultural Heritage (ICH

अधिक पढ़ें: भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (ICH)


महिला जनप्रतिनिधियों के सशक्तीकरण हेतु सर्वोच्च न्यायलय का आह्वान

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचित महिला प्रतिनिधि, पंचायती राज संस्थाएँ, प्रधान-पति, स्वयं सहायता समूह, शहरी स्थानीय निकाय, परिसीमन अभ्यास

मेन्स के लिये:

भारत में लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण, महिला जनप्रतिनिधियों के लिये शासन सुधार, भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को सशक्त बनाने और उनकी स्वायत्तता की रक्षा के लिये शासन सुधारों का आह्वान किया है। इसने प्रणालीगत लैंगिक पूर्वाग्रह, नौकरशाही के अतिक्रमण और भेदभावपूर्ण प्रथाओं को उज़ागर किया जो नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाओं को कमज़ोर करते हैं। 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने शासन में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये आत्मनिरीक्षण और संरचनात्मक परिवर्तन का आग्रह किया।

शासन में महिला जनप्रतिनिधियों के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?

  • प्रणालीगत भेदभाव: भारत की पंचायती राज संस्थाओं (PRI) की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (EWR) को प्रायः नौकरशाहों के अधीनस्थ माना जाता है, जो अक्सर उनकी वैधता की अनदेखी करते हैं। 
    • नौकरशाह अपनी भूमिका का अतिक्रमण कर सकते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधियों से परामर्श किये बिना एकतरफा निर्णय ले सकते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमज़ोर हो सकती है।
    • यह शक्ति असंतुलन निर्वाचित प्रतिनिधियों, विशेषकर महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता को बाधित करता है।
  • सरपंच-पतिवाद: इसे प्रधान-पति के नाम से भी जाना जाता है, यह प्रथा जिसमें निर्वाचित महिला पंचायत नेताओं के पति सत्ता का प्रयोग करते हैं, जिससे महिलाओं की स्वायत्तता और नेतृत्व कमज़ोर होता है। यह पितृसत्ता को मज़बूत करता है और महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये 73 वें संविधान संशोधन (पंचायतों में महिलाओं के लिये आरक्षण) के इरादे को कमज़ोर करता है।
  • इसे प्रधान-पति के नाम से भी जाना जाता है, यह पंचायतों में अपनाई जाने वाली एक प्रथा है, जहाँ पुरुष प्रायः वास्तविक राजनीतिक और निर्णय लेने की शक्ति का प्रयोग करते हैं, जबकि निर्वाचित महिला प्रतिनिधि सरपंच या प्रधान का पद धारण करती हैं, जिसके कारण महिला जनप्रतिनिधियों के लिये स्वायत्तता में कमी आती है।
  • राजनीतिक बाधाएँ: महिला जनप्रतिनिधियों को अक्सर अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में  सीमित वित्तीय सहायता और कम राजनीतिक संबंधों का सामना करना पड़ता है।
    • राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को कम संसाधन आवंटित कर सकते हैं, जिससे उनके लिये चुनाव लड़ना और मान्यता प्राप्त करना अधिक कठिन हो जाएगा।
    • इसके अतिरिक्त, सीमित संसाधनों के कारण पंचायती राज संस्थाओं में अधिकांश महिला जनप्रतिनिधि केवल एक ही कार्यकाल के लिये पद पर रहती हैं, जिससे उनकी दोबारा भागीदारी करने की क्षमता में बाधा आती है।
  • हिंसा और धमकी: महिला जनप्रतिनिधियों को धमकियों, उत्पीड़न और हिंसा का सामना करना पड़ सकता है, जो उन्हें अपनी भूमिका पूरी तरह से निभाने से रोक सकता है। 
    • प्रशासनिक अधिकारी और पंचायत सदस्य प्रायः महिला जनप्रतिनिधियों से बदला लेने के लिये एकजुट हो जाते हैं।
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की उपेक्षा: निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को हटाने से उन्हें निष्पक्ष सुनवाई से वंचित करके और अस्पष्ट निर्णय लेकर लोकतांत्रिक मानदंडों और निष्पक्षता को कमज़ोर किया जाता है, जिससे शासन में भेदभाव और पक्षपातपूर्ण प्रथाओं को बढ़ावा मिलता है।
  • संरचनात्मक बाधाएँ: विलंबित कार्य आदेश और प्रक्रियात्मक बाधाएँ महिलाओं की विकासात्मक पहल में बाधा डालने के साथ शासन में उनकी भागीदारी को हतोत्साहित करती हैं।

शासन में महिलाओं की भूमिका क्या है?

  • लैंगिक समानता को बढ़ावा देना: शासन में महिलाओं की भागीदारी दीर्घकालिक लैंगिक असमानताओं को दूर करती है तथा निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में समानता को बढ़ावा देती है।
  • यह उन सामाजिक मानदंडों को चुनौती देकर सार्वजनिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है, जो महिलाओं की भूमिका को निजी क्षेत्र तक सीमित रखते हैं।
  • नीतिगत परिणामों में वृद्धि: महिलाएँ अपने अनुभवों से उत्पन्न विविध दृष्टिकोण लेकर आती हैं, जिससे नीति निर्माण अधिक व्यापक और सहानुभूतिपूर्ण हो जाता है।
    • उदाहरण के लिये, राजस्थान में EWR स्वच्छ भारत अभियान से जुड़ी पहलों और प्लास्टिक के उपयोग पर अंकुश लगाने के प्रयासों के माध्यम से पर्यावरणीय स्थिरता को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे स्वच्छ एवं हरित भविष्य में योगदान मिल रहा है।
  • महिला जनप्रतिनिधियों को अक्सर कम भ्रष्ट और अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति अधिक प्रतिबद्ध माना जाता है, जिससे लोक प्रशासन में पारदर्शिता और विश्वास बढ़ता है।
  • उनका समावेशन लैंगिक-संवेदनशील नीतियों के निर्माण को सुनिश्चित करता है, तथा मातृ स्वास्थ्य, कार्यस्थल समानता और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान देता है।
  • ज़मीनी स्तर पर भागीदारी को बढ़ावा देना: स्थानीय प्रशासन में महिलाओं की भागीदारी अन्य महिलाओं को भी ऐसा करने के लिये प्रोत्साहित करती है, जिसके परिणामस्वरूप सशक्तीकरण की एक शृंखला बनती है। इसके अतिरिक्त, स्वयं सहायता समूहों (SHG) के विस्तार का समर्थन करके, यह भागीदारी आजीविका को बढ़ाती है।
  • स्थानीय शासन में भारत की 44% से अधिक EWR की भागीदारी सीट आरक्षण और महिला-केंद्रित नीतियों की सफलता को दर्शाती है।
  • लिंग आधारित हिंसा का समाधान: महिला घरेलू हिंसा, बाल विवाह और अन्य लिंग आधारित मुद्दों का समाधान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
    • उदाहरण के लिये, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2023 में 2 लाख बाल विवाह पर रोक लगाई गई। विदित है की EWR द्वारा अपने निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा रिपोर्ट किये गए दुर्व्यवहार को रोकने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए थे।
  • लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन: लोकतांत्रिक मूल्यों में महिलाओं का समर्थन आधे से अधिक आबादी को नीति निर्माण में अपनी बात कहने का अधिकार सुनिश्चित करता है, महिलाओं की भागीदारी लोकतांत्रिक आदर्शों को कायम रखती है। यह राजनीतिक प्रक्रियाओं में समान प्रतिनिधित्व के अधिकार के साथ-साथ सामाजिक निष्पक्षता का भी समर्थन करता है।

भारत के शासन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

  • संसद: लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व वर्ष 2004 तक 5-10% से बढ़कर 18वीं लोकसभा (2024-वर्तमान) में 13.6% हो गया है, जबकि राज्यसभा में यह 13% है।
    • चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो वर्ष 1957 में 45 महिला उम्मीदवारों से बढ़कर वर्ष 2024 में 799 (कुल उम्मीदवारों का 9.5%) हो गई है।
  • राज्य विधानमंडल: राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का राष्ट्रीय औसत सिर्फ 9% है, और किसी भी राज्य में महिला विधायकों की संख्या 20% से अधिक नहीं है। छत्तीसगढ़ में यह आँकड़ा सबसे अधिक 18% है।
  • पंचायती राज संस्था: भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, पंचायती राज संस्थाओं के कुल प्रतिनिधियों में से 45.6% EWR हैं।
  • शहरी स्थानीय निकाय: भारत में 46% पार्षद महिलाएँ हैं, तथा सक्रिय शहरी स्थानीय निकायों वाले 21 राजधानी शहरों में से 19 में यह संख्या 60% से अधिक है।
  • वैश्विक परिदृश्य: संसद के निम्न सदन के संदर्भ में भारत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 185 देशों में से 143वें स्थान पर है।

शासन में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने हेतु भारत में कौन से प्रयास किये गए हैं?

  • पंचायतों में आरक्षण: 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के अनुसार पंचायतों (स्थानीय सरकारी निकायों) में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित की गई हैं, जिनमें अध्यक्ष का पद भी शामिल है।
    • शहरी स्थानीय निकायों में आरक्षण: पंचायतों के समान ही 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा शहरी स्थानीय निकायों (जैसे नगर पालिकाओं) में महिलाओं के लिये एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित किया गया है।
  • महिला आरक्षण अधिनियम, 2023: 106वें संविधान संशोधन (2023) के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है।
  • पहल: 
    • राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान (RGSA): वर्ष 2018 में शुरू किए गए RGSA का उद्देश्य स्थायी समाधानों को बढ़ावा देने तथा महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये प्रौद्योगिकी एवं संसाधनों का उपयोग करके उत्तरदायी ग्रामीण शासन के क्रम में PRI की क्षमता को मज़बूत करना है।
  • ग्राम पंचायत विकास योजना (GPDP): यह महिला सभाओं सहित बजट, योजना, कार्यान्वयन एवं निगरानी में सक्रिय भागीदारी के माध्यम से महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।

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आगे की राह

  • संरचनात्मक सुधार: निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं नौकरशाहों के साथ समान व्यवहार सुनिश्चित करने के लिये शासन ढाँचे को नया स्वरूप देना चाहिये। इसके साथ ही प्रशासनिक शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये जवाबदेही तंत्र को मज़बूत करना चाहिये।
  • प्रौद्योगिकी एकीकरण: महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति एवं सहभागिता की निगरानी हेतु डिजिटल प्लेटफाॅर्म का उपयोग करना चाहिये। महिलाओं से संबंधित मुद्दों को उठाने एवं ज़मीनी स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु मोबाइल एप्लिकेशन का प्रयोग करना चाहिये।
  • महिला नेतृत्व को बढ़ावा देना: महिला जनप्रतिनिधियों के लिये क्षमता निर्माण पहल को प्रोत्साहित (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) करना चाहिये। उन्हें प्रणालीगत चुनौतियों से निपटने में मदद करने के क्रम में मार्गदर्शन एवं सहायता प्रदान करनी चाहिये।
    • स्वयं सहायता समूहों जैसे मंचों से उम्मीदवारों का चयन करके पंचायत की भूमिकाओं (जैसे, पंचायत सचिव) में महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाना चाहिये।
  • समावेशी शासन पद्धतियाँ: सभी स्तरों पर निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहिये। निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों के बीच सहयोग की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिये।
  • विधिक सुरक्षा उपाय: निर्वाचित प्रतिनिधियों के मामलों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन हेतु कठोर दंड का प्रावधान करना चाहिये। इसके साथ ही प्रणालीगत उत्पीड़न का समाधान करने के लिये शिकायत निवारण तंत्र विकसित करना चाहिये।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: शासन में महिला जनप्रतिनिधियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी सक्रिय भागीदारी को बढ़ावा देने हेतु उपाय बताइये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न.1 भारत में महिलाओं के समक्ष समय और स्थान संबंधित निरंतर चुनौतियाँ क्या-क्या हैं? (2019)

प्रश्न.2 विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021)


भारत में विचाराधीन बंदियों की स्थिति

प्रिलिम्स के लिये:

संविधान दिवस, BNSS की धारा 479, CrPC की धारा 436A, सर्वोच्च न्यायालय, विचाराधीन बंदियों के लिये ज़मानत संबंधी कानून, संसद, पुलिस, न्यायालय 

मेन्स के लिये:

भारत में कारागार प्रशासन की स्थिति, भारत में कारागार से संबंधित मुद्दे, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री ने 26 नवंबर (संविधान दिवस) तक अपनी अधिकतम सजा का एक तिहाई से अधिक हिस्सा काट चुके विचाराधीन बंदियों की रिहाई में तीव्रता लाने की आवश्यकता पर बल दिया। 

  • यह पहल हाल ही में अधिनियमित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के अनुरूप है, जिसमें पहली बार अपराध करने वालों के लिये रियायती जमानत का प्रावधान किया गया है।

नोट: विचाराधीन बंदी ऐसा व्यक्ति होता है जो मुकदमे की प्रतीक्षा करते हुए या अपने खिलाफ विधिक कार्यवाही के समापन की प्रतीक्षा करते हुए कारागार में रहता है। इस श्रेणी में ऐसे लोग शामिल होते हैं जिन्हें अभी तक किसी अपराध के लिये दोषी न ठहराया गया हो एवं विधिक प्रक्रिया के दौरान उन्हें न्यायिक हिरासत में रखा गया हो।

भारत में विचाराधीन बंदियों की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • विचाराधीन बंदियों का उच्च अनुपात: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की कारागार सांख्यिकी भारत 2022 रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कारागारों में बंदियों की संख्या 75.8% (5,73,220 में से 4,34,302) है।
    • कारागार में बंद 23,772 महिलाओं में से 76.33% विचाराधीन हैं तथा सभी विचाराधीन बंदियों में से 8.6% तीन वर्ष से अधिक समय से कारागार में हैं।
  • अत्यधिक भीड़: सर्वोच्च न्यायालय के अनुसंधान एवं योजना केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय कारागारें 131% क्षमता पर संचालित हो रही हैं तथा इनमें 436,266 की क्षमता के मुकाबले 573,220 बंदी हैं। 
    • उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से 75.7% बंदी विचाराधीन हैं।
  • विधिक प्रतिनिधित्व का अभाव: अनुच्छेद 39A के तहत मुफ्त विधिक सहायता की गारंटी दिये जाने के बावजूद, कई विचाराधीन बंदियों को अधिवक्ता-बंदी अनुपात अपर्याप्त होने के कारण विधिक प्रतिनिधित्व तक पहुँच नहीं मिल पाती है, जिससे वे प्रभावी रूप से अपना बचाव करने में असमर्थ हो जाते हैं।

Undertrial_ Prisoner

भारत में विचाराधीन बंदियों से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • BNSS की धारा 479: इसका उद्देश्य पहली बार अपराध करने वालों पर ध्यान केंद्रित करते हुए लंबे समय तक हिरासत में रखने की अवधि को कम करना है।
  • पहली बार अपराध करने वालों के लिये शिथिल मानक: पहली बार अपराध करने वालों को (जिन पर पूर्व में कोई दोष सिद्ध न हुआ हो) अधिकतम सजा का एक तिहाई हिस्सा पूरा करने के बाद जमानत पर रिहा किया जाना चाहिये।
  • जमानत के लिये सामान्य नियम: गैर-मृत्युदंड योग्य अपराधों (मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं) के आरोपी विचाराधीन बंदी अधिकतम सजा की आधी अवधि पूरी करने के बाद जमानत के लिये पात्र होते हैं।
    • यह CrPC की धारा 436A पर आधारित है, जिसमें इसी तरह आधी सजा काटने के बाद रिहाई की अनुमति दी गई है।
    • अपवाद: ये प्रावधान एक से अधिक अपराधों या अन्य अपराधों के लिये चल रही जाँच से संबंधित मामलों पर लागू नहीं होंगे।
  • CrPC की धारा 436A: 
    • जमानत के लिये पात्रता: जिन विचाराधीन बंदियों ने अपने कथित अपराध के लिये अधिकतम कारावास अवधि की आधी अवधि काट ली है, उन्हें व्यक्तिगत बॉण्ड (जमानत के साथ या बिना) पर रिहा किया जा सकता है।
    • अपवर्जन: यह मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराधों पर लागू नहीं होता।
  •  न्यायपालिका द्वारा निर्देश:
    • कारागार की स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय की जनहित याचिका (2013): 1382 कारागारों में अमानवीय स्थिति के संबंध में न्यायालय ने कारागारों में अत्यधिक भीड़, विलंबित सुनवाई और विचाराधीन बंदियों की लंबे समय तक हिरासत में रखने जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला।
      • इसने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे CrPC की धारा 436A  के तहत पात्र विचाराधीन बंदियों की समय पर पहचान और रिहाई सुनिश्चित करें।
  • BNSS की धारा 479 का पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होना: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि BNSS के तहत जमानत के शिथिल प्रावधान, इसके अधिनियमन से पहले दर्ज मामलों पर पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होंगे।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई एक मौलिक अधिकार है और सुनवाई में किसी भी अनुचित देरी के कारण जमानत दी जा सकती है।

भारत में विचाराधीन बंदियों के संकट के निहितार्थ क्या हैं?

  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: बिना सुनवाई के लंबे समय तक हिरासत में रखना भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें शीघ्र सुनवाई का अधिकार (अनुच्छेद 21) और दोषी साबित होने तक निर्दोषता की धारणा [अनुच्छेद 20(3)] शामिल है।
    • न्यायिक लंबित मामले: विचाराधीन बंदियों की उच्च संख्या भारतीय न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। ये लंबित मामले सभी व्यक्तियों के लिये न्याय में विलंब करते है और विधिक प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करते है।
  • विलंबित न्याय का प्रभाव: लंबे समय तक हिरासत में रखने से न्याय तक पहुँच, पुनर्वास और विचाराधीन बंदियों और उनके परिवारों की सामाजिक-आर्थिक भलाई प्रभावित होती है। 
    • कारागारों में अत्यधिक भीड़ के कारण प्रायः अमानवीय जीवन स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, जिससे स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक चुनौतियाँ बढ़ जाती हैं।
  • मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ: बिना दोषसिद्धि के लंबे समय तक कारावास में रहने से विचाराधीन बंदियों में गंभीर मनोवैज्ञानिक संकट पैदा हो सकता है, जिसमें चिंता, अवसाद और निराशा की भावना शामिल है।
  • विश्वास का क्षरण: विचाराधीन बंदियों की अधिक संख्या और इसके परिणामस्वरूप होने वाली देरी से विधिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम होता है। जब न्याय में देरी होती है या उसे नकार दिया जाता है, तो नागरिकों का विधिक व्यवस्था की समय पर और निष्पक्ष परिणाम देने की क्षमता पर विश्वास खत्म हो सकता है।

भारत में कारागारों का विनियमन कैसे किया जाता है?

  • संवैधानिक प्रावधान: 
    • अनुच्छेद 21: यह बंदियों को यातना और अमानवीय व्यवहार से बचाता है। यह बंदियों के लिये समय पर सुनवाई भी सुनिश्चित करता है। 
    • अनुच्छेद 22:  गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में तुरंत सूचित किया जाना चाहिये और उसे अपनी पसंद के अधिवक्ता से परामर्श करने और बचाव कराने का अधिकार है। 
    • अनुच्छेद 39A: विधिक प्रतिनिधित्व का व्यय वहन करने में असमर्थ लोगों को न्याय सुनिश्चित करने के लिये निःशुल्क विधिक सहायता सुनिश्चित करता है।
  • विधिक ढाँचा: 
    • कारागार अधिनियम, 1894: ब्रिटिश शासन के दौरान अधिनियमित कारागार अधिनियम, भारत में कारागार प्रबंधन के लिये आधारभूत विधिक ढाँचे के रूप में कार्य करता है।  
      • यह बंदियों की हिरासत और अनुशासन पर केंद्रित है, लेकिन इसमें पुनर्वास और सुधार के प्रावधानों का अभाव है। 
    • बंदी शनाख्त अधिनियम, 1920: यह कानून बंदियों की पहचान प्रक्रिया और बायोमेट्रिक डेटा के संग्रह को नियंत्रित करता है। 
    • बंदियों अंतरण अधिनियम, 1950: यह विभिन्न राज्यों और अधिकार क्षेत्रों के बीच बंदियों के अंतरण के लिये दिशानिर्देश प्रदान करता है। 
  • निरीक्षण तंत्र 
    • न्यायिक निगरानी: भारतीय न्यायपालिका जनहित याचिकाओं (PIL) और बंदियों के अधिकारों से संबंधित विशिष्ट मामलों के माध्यम से कारागार की स्थितियों की निगरानी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  
      • उदाहरण के लिये, डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी और हिरासत के लिये सख्त प्रोटोकॉल का निर्देश दिया था। 

भारत में कारागार सुधार से संबंधित पहल क्या हैं?

  • कारागार आधुनिकीकरण योजना: कारागारों, बंदियों और कारागार कर्मियों की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से कारागारों के आधुनिकीकरण की योजना वर्ष 2002-03 में शुरू की गई थी।
  • कारागार आधुनिकीकरण परियोजना (2021-26): सरकार द्वारा कारागारों की सुरक्षा बढ़ाने और सुधारात्मक प्रशासन कार्यक्रमों के माध्यम से बंदियों के सुधार और पुनर्वास के कार्य को सुविधाजनक बनाने के लिये कारागारों में आधुनिक सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करने के लिये परियोजना के माध्यम से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया गया है।
  • ई-कारागार परियोजना: ई-कारागार परियोजना का उद्देश्य डिजिटलीकरण के माध्यम से कारागार प्रबंधन में दक्षता लाना है।
  • मैनुअल कारागार का मॉडल अधिनियम, 2016: यह मैनुअल कारागार के बंदियों को उपलब्ध विधिक सेवाओं (निःशुल्क सेवाओं सहित) के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA): इसका गठन विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किया गया था, जो 9 नवंबर, 1995 को लागू हुआ था, जिसका उद्देश्य समाज के कमज़ोर वर्गों को मुफ्त एवं सक्षम विधिक सेवाएँ प्रदान करने के लिये एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क स्थापित करना था।

आगे की राह:

  • कारागारों को सुधारात्मक संस्थान बनाना: कारागारों को पुनर्वास और "सुधारात्मक संस्थान" बनाने का आदर्श नीतिगत नुस्खा तभी प्राप्त होगा जब अवास्तविक रूप से कम बजटीय आवंटन, उच्च कार्यभार और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के संबंध में पुलिस की लापरवाही के मुद्दों का समाधान किया जाएगा।
  • कार्यान्वयन समिति की सिफारिश: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति अमिताव रॉय (सेवानिवृत्त) समिति (2018) नियुक्त की गई, समिति द्वारा कारागारों में भीड़भाड़ की समस्या से निपटने हेतु निम्नलिखित सिफारिशें की गई:
    • त्वरित सुनवाई, भीड़भाड़ की अनुचित घटना को दूर करने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है।
    • प्रत्येक 30 बंदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना चाहिये, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।
    • पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित की जानी चाहिये।
    • प्ली बार्गेनिंग की अवधारणा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, जिसमें अभियुक्त द्वारा कम सज़ा के लिये अपना अपराध स्वीकार किया जाता है।
  • कारागार प्रबंधन में सुधार: इसमें कारागार कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराना, साथ ही निगरानी और जवाबदेही के लिये प्रभावी प्रणालियाँ लागू करना शामिल है।
    • इसमें बंदियों को स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना भी शामिल है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: भारत में विचाराधीन बंदियों की वर्तमान स्थिति पर चर्चा कीजिये और इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के तहत प्रावधानों की क्षमता का विश्लेषण कीजिये तथा ऐसे सुधारों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. संविधान दिवस के बारे में निम्नलिखित कथनों पर कीजिये: (2023)

कथन-I: नागरिकों के बीच सांविधानिक मूल्यों को संवर्द्धित करने के लिये संविधान दिवस प्रतिवर्ष 26 नवंबर को मनाया जाता है।

 कथन-II: 26 नवंबर, 1949 को भारत की संविधान सभा में भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिये डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारूपण समिति बनाई।

उपर्युक्त कथनों के बारे में, निम्नलिखित में से कौन-सा एक सही है?

(a) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II कथन-I की सही व्याख्या है।
(b) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II, कथन-I की सही व्याख्या नहीं है।
(c) कथन-I सही है किंतु कथन-II गलत है।
(d) कथन-I गलत है किंतु कथन-II सही है।

उत्तर: (c)


प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा एक कथन किसी देश के 'संविधान' के मुख्य प्रयोजन को सर्वोत्तम रूप से प्रतिबिंबित करता है? (2023)

(a) यह आवश्यक विधियों के निर्माण के उद्देश्य को निर्धारित करता है।
(b) यह राजनीतिक पदों और सरकार के सृजन को सुकर बनाता है।
(c) यह सरकार की शक्तियों को परिभाषित और सीमाबद्ध करता है।
(d) यह सामाजिक न्याय, सामाजिक समता और सामाजिक सुरक्षा को प्रतिभूत करता है।

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न 1 मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये ? विश्लेषण कीजिये।  (2014)

प्रश्न 2 भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये।  (2014)


द्वितीय विश्व युद्ध और भारत

प्रिलिम्स के लिये:

प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, वर्साय की संधि, ऑपरेशन बारबारोसा, तुष्टिकरण की नीति, हिरोशिमा और नागासाकी, मार्शल योजना 

मेन्स के लिये:

द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की भूमिका, द्वितीय विश्व युद्ध के कारण और परिणाम, द्वितीय विश्व युद्ध के वैश्विक प्रभाव

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में 80 से अधिक वर्षों के बाद बांग्लादेश में 23 जापानी सैनिकों के अवशेष मिलने से द्वितीय विश्व युद्ध तथा उसमें भारत सहित कई देशों की भागीदारी के बारे में चर्चाएँ पुनः शुरू हो गई हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में मुख्य बिंदु क्या हैं?

  • समय अवधि: द्वितीय विश्व युद्ध वर्ष 1939 से 1945 तक चला और यह मानव इतिहास का सबसे व्यापक और विनाशकारी संघर्ष था।
  • प्राथमिक लड़ाकू: दो मुख्य विरोधी गठबंधन धुरी शक्तियाँ (जर्मनी, इटली, जापान) और मित्र शक्तियाँ (जिनमें अमेरिका, फ्राँस, ग्रेट ब्रिटेन, सोवियत संघ और कुछ हद तक चीन शामिल थे) थे।

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  • युद्ध का तात्कालिक कारण 1 सितंबर, 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण था, जिसके कारण ब्रिटेन और फ्राँस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
  • युद्ध के कारण: 
    • वर्साय की संधि (1919): वर्ष 1919 में जर्मनी और मित्र राष्ट्रों द्वारा हस्ताक्षरित वर्साय की संधि ने के साथ प्रथम विश्व युद्ध औपचारिक रूप से समाप्त हो गया।
      • जर्मनी को इस संधि के तहत निरस्त्रीकरण, अपने विदेशी क्षेत्रों को छोड़ने, क्षतिपूर्ति का भुगतान करने और भूमि खोने के लिये मज़बूर किया गया। एडॉल्फ हिटलर और नाज़ी जर्मनी इन कठोर शर्तों के कारण विकसित हुई आर्थिक अस्थिरता और असंतोष के परिणामस्वरूप सत्ता में आए।
    • राष्ट्र संघ की विफलता: विश्व शांति बनाए रखने के लिये वर्ष 1919 में स्थापित राष्ट्र संघ का उद्देश्य सार्वभौमिक सदस्यता और विवादों का समाधान बल के बजाय वार्तालाप के माध्यम से करना था। 
      • एक अच्छा विचार होने के बावजूद, राष्ट्र संघ अंततः विफल हो गया क्योंकि सभी देश इसमें शामिल नहीं हुए। चीन में मंचूरिया पर जापान के आक्रमण और इथियोपिया पर इटली के आक्रमण को रोकने में इसकी असमर्थता ने धुरी शक्तियों को और अधिक आक्रामक कार्रवाई करने के लिये प्रोत्साहित किया।
    • आर्थिक मंदी 1929: वर्ष 1920 के दशक के अंत और वर्ष 1930 के दशक की शुरुआत में वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण इटली, जापान और जर्मनी जैसे देशों में अधिनायकवादी शासन (एक राजनीतिक दल जिसके पास पूर्ण शक्ति होती है) का उदय हुआ।
      • वर्ष 1930 के दशक में जर्मनी, इटली और जापान ने आक्रामक तरीके से अपने क्षेत्रों का विस्तार किया, जिसके परिणामस्वरूप सैन्य टकराव हुआ।
    • फासीवाद का उदय: प्रथम विश्व युद्ध के बाद, विजेताओं का लक्ष्य "विश्व को लोकतंत्र के लिये सुरक्षित बनाना" था, जिसके परिणामस्वरूप जर्मनी और अन्य राज्यों में लोकतांत्रिक संविधान स्थापित हुए। 
      • हालाँकि, वर्ष 1920 के दशक में राष्ट्रवाद और सैन्यवादी अधिनायकवाद (फासीवाद) का उदय हुआ। इसने लोकतंत्र की तुलना में लोगों की ज़रूरतों को ज़्यादा प्रभावी ढंग से पूरा करने का वादा किया तथा स्वयं को साम्यवाद के विरुद्ध बचाव के रूप में पेश किया। 
      • बेनिटो मुसोलिनी ने वर्ष 1922 में इटली में यूरोप में पहली फासीवाद अधिनायकत्व स्थापित किया।
    • नाज़ीवाद का उदय: जर्मन नेशनल सोशलिस्ट (नाज़ी) पार्टी के नेता एडॉल्फ हिटलर ने फासीवाद के एक नस्लवादी रूप का प्रचार किया, जिसमें वर्साय संधि को खत्म करने और "श्रेष्ठ" जर्मन जाति के लिये अधिक लेबेन्स्राम ("रहने की जगह") सुरक्षित करने का वादा किया गया था।
      • वर्ष 1933 में वे जर्मन चांसलर बने और खुद को तानाशाह के रूप में स्थापित किया। वर्ष 1941 में, नाज़ी शासन ने स्लाव, यहूदियों और अन्य हीन समझे जाने वाले लोगों के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध की शुरूआत की।
    • तुष्टीकरण की नीति: ब्रिटेन और फ्राँस द्वारा अपनाई गई तुष्टीकरण की नीति का उद्देश्य शांति बनाए रखने संबंधी मांगों को मानकर जापान, इटली और जर्मनी जैसी आक्रामक शक्तियों के साथ युद्ध से बचना था। 
      • इस दृष्टिकोण से जर्मनी को बिना सैन्य हस्तक्षेप के क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने की अनुमति मिलने से संघर्ष को बढ़ावा मिला।
  • युद्ध के प्रमुख चरण:
    • युद्ध की शुरुआत और प्रारंभिक धुरी राष्ट्रों की जीत: फोनी युद्ध (1939-1940) के दौरान हिटलर ने पोलैंड पर विजय प्राप्त की, जिसके परिणामस्वरूप भूमिगत गतिविधि न्यूनतम हुई, क्योंकि देश एक-दूसरे की कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रहे थे।
      • जर्मनी की ब्लिट्जक्रेग (तीव्रता, कूटनीति और संकेंद्रित मारक क्षमता का संयोजन) रणनीति के माध्यम से प्रारंभिक धुरी राष्ट्रों की सफलताओं के कारण फ्राँस सहित पश्चिमी यूरोप के अधिकांश हिस्सों पर तीव्रता से कब्ज़ा हुआ।
    • ऑपरेशन बारबारोसा (1941): जर्मनी द्वारा सोवियत संघ पर आक्रमण (ऑपरेशन बारबारोसा), एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। 
      • प्रारंभिक सफलताओं के बावजूद, सोवियत संघ जर्मन गतिविधियों को रोकने में सफल (विशेष रूप से स्टेलिनग्राद के युद्ध (1942-1943) के दौरान) रहा।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रवेश: वर्ष 1941 में पर्ल हार्बर पर जापान के हमले के बाद अमेरिका ने युद्ध में प्रवेश किया, जिससे शक्ति संतुलन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया।
    • निर्णायक बिंदु: मिडवे के युद्ध (1942) (जिसमें अमेरिका ने जापान को हराया) के साथ एल अलामीन (1942), स्टेलिनग्राद और 1944 में नॉरमैंडी (डी-डे) पर मित्र देशों के आक्रमण जैसे प्रमुख युद्धों से धुरी देशों की प्रगति धीमी हो गई और वह अंततः हार की ओर अग्रसर हुए।
  • युद्ध का अंत:
    • जर्मनी की पराजय: बर्लिन के पतन एवं हिटलर की आत्महत्या के बाद मई 1945 में जर्मनी द्वारा बिना शर्त आत्मसमर्पण के साथ ही यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया।
    • जापान की हार: अगस्त 1945 में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा (6 अगस्त) और नागासाकी (9 अगस्त) पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। जापान के आत्मसमर्पण के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध का अंत हो गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम?

  • नतीजे:
    • मानवीय क्षति: इस युद्ध के कारण अनुमानतः 70-85 मिलियन लोगों (जिनमें सैन्य और नागरिक दोनों शामिल थे) की मृत्यु हुई जिसमें होलोकॉस्ट (जिसमें नाज़ी जर्मनी द्वारा छह मिलियन यहूदियों को मार दिया गया था) भी शामिल है।
    • शीत युद्ध का उदय: धुरी राष्ट्रों की हार के परिणामस्वरूप नाज़ी जर्मनी और शाही जापान का पतन हुआ तथा जर्मनी का विभाजन हो गया। 
      • सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप में अपना प्रभाव बढ़ाया, जबकि अमेरिका एक महाशक्ति के रूप में उभरा जिससे शीत युद्ध की शुरुआत हुई।
    • संयुक्त राष्ट्र: अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने तथा भविष्य के संघर्षों को रोकने के लिये संयुक्त राष्ट्र की स्थापना वर्ष 1945 में की गई थी।
    • आर्थिक सुधार: अमेरिका ने युद्धग्रस्त पश्चिमी यूरोप के पुनर्निर्माण में सहायता के लिये मार्शल योजना (1948) को लागू किया।
    • परमाणु हथियारों की दौड़: हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम विस्फोटों से परमाणु युग की शुरुआत हुई, जिससे शीत युद्ध के दौरान परमाणु हथियारों की दौड़ शुरू हो गई।
    • वि-औपनिवेशीकरण: युद्ध के बाद कई यूरोपीय औपनिवेशिक साम्राज्य कमज़ोर हो गए, जिससे अफ्रीका, एशिया एवं मध्य पूर्व में उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों को बढ़ावा मिला।
  • द्वितीय विश्व युद्ध की विरासत:
    • शीत युद्ध का उदय: अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वैचारिक एवं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण शीत युद्ध शुरू हुआ, जो कई दशकों तक चला।
    • वैश्विक पुनर्गठन: युद्ध के कारण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को नया स्वरूप मिलने से नए गठबंधनों का निर्माण हुआ तथा आने वाले दशकों में विश्व के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिदृश्य पर इसका प्रभाव पड़ा।

द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की भूमिका क्या थी?

  • ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा: द्वितीय विश्व युद्ध के समय, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ ब्रिटिश शासन के अधीन एक उपनिवेश था।
  • युद्ध की एकतरफा घोषणा: वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजनीतिक नेताओं से परामर्श किये बिना ही युद्ध में भारत की भागीदारी की घोषणा कर दी, जिससे असंतोष फैल गया।
  • सैनिकों का विशाल योगदान: भारत ने ब्रिटिश कमान के तहत युद्ध के विभिन्न क्षेत्रों में लड़ने के लिये 2.5 मिलियन से अधिक सैनिक भेजे, जिससे यह विश्व की सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना बन गई।
  • मित्र राष्ट्रों के लिये समर्थन: भारतीय सैनिकों ने यूरोप, अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया सहित सभी प्रमुख मोर्चों पर लड़ाई लड़ी। उन्होंने इटली को आज़ाद कराने और युद्ध प्रयासों के लिये ज़रूरी आपूर्ति प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • इटली में मोंटे कैसिनो की लड़ाई में उनकी भागीदारी महत्त्वपूर्ण थी।
  • धुरी शक्तियों के साथ भारत: द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सुभाष चंद्र बोस ने जापान के समर्थन से  भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) का नेतृत्व किया।
    • INA ने जापानी सेनाओं के साथ मिलकर दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिशों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी, जिसमें म्याँमार और थाईलैंड जैसे क्षेत्र भी शामिल थे, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना था।

भारतीयों ने द्वितीय विश्व युद्ध को किस प्रकार देखा?

  • ब्रिटिश शासन का विरोध: भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (INC) की प्रांतीय सरकारों ने भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो के द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल करने के एकतरफा निर्णय के विरोध में 1939 में इस्तीफा दे दिया।
    • उन्होंने मांग की कि युद्ध के बाद भारत का राजनीतिक भविष्य उसके अपने लोगों द्वारा तय किया जाना चाहिये।
  • स्वतंत्रता के लिये समर्थन: कई भारतीयों ने, विशेषकर महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने, युद्ध को ब्रिटेन से स्वतंत्रता की मांग करने के अवसर के रूप में देखा। 
    • उनका मानना ​​था कि युद्ध के दौरान ब्रिटेन की कमज़ोर स्थिति का लाभ उठाकर स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
  • सशर्त समर्थन: मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा सहित कुछ गुटों ने ब्रिटिश युद्ध प्रयास का समर्थन किया, यह आशा करते हुए कि भारत के योगदान के परिणामस्वरूप नरमी आएगी और अंततः स्वतंत्रता मिलेगी।

द्वितीय विश्व युद्ध का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा?

  • राष्ट्रवाद में वृद्धि: युद्ध और ब्रिटिश प्रतिक्रिया ने राष्ट्रवाद की एक नई लहर को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से सुभाष चंद्र बोस द्वारा भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के निर्माण के बाद, जिसने दक्षिण पूर्व एशिया में जापानियों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी।
  • आर्थिक तनाव: युद्ध का भारत की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा, जिससे मुद्रास्फीति, उच्च कर, भ्रष्टाचार और अकाल जैसी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। 
    • 1943 का बंगाल अकाल, जो कि सबसे भयावह अकालों में से एक था, लाखों लोगों की मृत्यु का कारण बना।
  • युद्ध के बाद स्वतंत्रता आंदोलन: युद्ध के प्रभाव ने ब्रिटेन के लिये अपने साम्राज्य को बनाए रखना मुश्किल बना दिया। युद्ध के अंत तक, भारतीय स्वतंत्रता की मांग को नकारा नहीं जा सकता था। 
  • इसके अतिरिक्त, युद्ध से लौटे कई भारतीयों को यह महसूस हुआ कि यूरोपीय लोगों की तुलना में उनके पास कम नागरिक स्वतंत्रताएँ थीं, जिससे स्वतंत्रता की मांग और अधिक बढ़ गई तथा 1947 में भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने के कारणों और उसके वैश्विक प्रभाव का विश्लेषण कीजिये। इन घटनाओं ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को किस प्रकार आकार दिया?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स

प्रश्न. "दोनों विश्व युद्धों के बीच लोकतंत्रीय राज्य प्रणाली के लिये एक गंभीर चुनौती उत्पन्न हुई।" इस कथन का मूल्यांकन कीजिये। (2021)

प्रश्न. किस सीमा तक जर्मनी को दो विश्व युद्धों का कारण बनने का ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? समालोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2015)


भारत में सार्वभौमिक बुनियादी साक्षरता का आकलन

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020, नव भारत साक्षरता कार्यक्रम, शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ASER), राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण

मेन्स के लिये:

सार्वभौमिक साक्षरता के मूल्यांकन के तरीके, सार्वभौमिक साक्षरता के लिये सरकारी रणनीतियाँ, साक्षरता स्तरों के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ।

स्रोत: इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, जुलाई 2022 और जून 2023 के बीच आयोजित राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के 79 वें दौर से पता चला है कि भारत में 15-29 आयु वर्ग के 95.9% व्यक्तियों के पास बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल है।

  • सर्वेक्षण में भारतीयों की साक्षरता और बुनियादी संख्यात्मक कौशल का आकलन किया गया है, जिसमें पढ़ने, लिखने और अंकगणितीय क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

सर्वेक्षण के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • ग्रामीण क्षेत्रों में 95.3% व्यक्तियों के पास बुनियादी साक्षरता और अंकगणित कौशल है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 97.4% है। 
    • विशेष रूप से, 97.4% ग्रामीण पुरुषों और 93.4% ग्रामीण महिलाओं के पास ये कौशल हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में 98% पुरुष और 96.7% महिलाएँ इस मानक को पूरा करती हैं।
  • मिज़ोरम (100%), गोवा (99.9%), और सिक्किम (99.9%) जैसे राज्य साक्षरता दर में आगे हैं, जबकि बिहार (91.9%) और उत्तर प्रदेश (92.3%) पीछे हैं।

नोट: NSS साक्षरता को किसी भी भाषा में एक सरल संदेश को पढ़ने, लिखने और समझने की क्षमता के रूप में परिभाषित करता है।

  • "सार्वभौमिक" शब्द का तात्पर्य सामान्यतः पूर्ण या लगभग पूर्ण कवरेज से है, जो आमतौर पर 100% के करीब होता है।
  • यूनेस्को के अनुसार, साक्षरता का दायरा पढ़ने, लिखने और गिनती से कहीं आगे तक फैला हुआ है; यह पहचान, समझ और संचार से जुड़ा एक सतत् कौशल है, जो हमारी तेज़ी से बदलती, सूचना-समृद्ध विश्व में डिजिटल, मीडिया और नौकरी-विशिष्ट कौशल तक विस्तारित हो रहा है।

साक्षरता और संख्यात्मकता दर बढ़ाने के लिये सरकार की रणनीतियाँ क्या हैं?

सार्वभौमिक बुनियादी साक्षरता कितनी सार्वभौमिक है? 

  • असंगत परिभाषाएँ: "बुनियादी साक्षरता" शब्द की कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत परिभाषा नहीं है। उदाहरण के लिये, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन साक्षरता को किसी भी भाषा में पढ़ने और लिखने की क्षमता के रूप में परिभाषित करता है, जो साक्षरता की बहुत ही संकीर्ण व्याख्या प्रतीत होती है।
  • आँकड़ों में असंगति: NSS के अनुसार, 95.9% युवाओं के पास बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल है, जो लगभग सार्वभौमिक दक्षता को दर्शाता है। 
    • हालाँकि, वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2023 एक विपरीत परिदृश्य को उजागर करती है, जिसमें कक्षा 10 या उससे नीचे के 14-18 वर्ष की आयु के 29% छात्र दूसरी कक्षा के स्तर पर पढ़ने में असमर्थ हैं।
  • पूर्वाग्रह: कई साक्षरता मूल्यांकन पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं, जहाँ कुछ जनसांख्यिकी ( जैसे, ग्रामीण आबादी, हाशिये पर रहने वाले समुदाय) का प्रतिनिधित्व कम होता है। 
    • जिन व्यक्तियों ने कभी औपचारिक शिक्षा में दाखिला नहीं लिया है, उनके लिये NSS के प्रश्न, बिना किसी औपचारिक परीक्षण के, स्व-रिपोर्टिंग के आधार पर उनकी पढ़ने और लिखने की क्षमता का निर्धारण करते हैं।
    • औपचारिक शिक्षा में नामांकित लोगों के लिये, उनकी पढ़ने और लिखने की क्षमता की जाँच किये बिना, यह मान लिया गया कि उन्होंने कम-से-कम पूर्व-प्राथमिक या कक्षा 1 तक की शिक्षा पूरी कर ली है। 
      • यह विधि बुनियादी साक्षरता कौशल को सटीक रूप से प्रतिबिंबित नहीं कर सकती है।
  • दिव्यांगता बहिष्करण: मौजूदा ढाँचे में अक्सर दिव्यांग व्यक्तियों की ज़रूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। 
    • इस जनसांख्यिकी के लिये साक्षरता कार्यक्रमों का लेखा-जोखा न रखने से बुनियादी साक्षरता हासिल करने में उनकी विशिष्ट चुनौतियों और बाधाओं को समझने में अंतराल उत्पन्न होता है।

भारत में साक्षरता स्तर के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ क्या हैं?

  • आर्थिक विकास: उच्च साक्षरता दर कार्यबल उत्पादकता और नवाचार को बढ़ाकर आर्थिक विकास में योगदान देती है।
    • साक्षर जनसंख्या कुशल श्रम में संलग्न होने के लिये बेहतर रूप से सुसज्जित है, जो भारत के ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के लिये आवश्यक है।
  • सामाजिक सशक्तीकरण: साक्षरता व्यक्तियों, विशेषकर महिलाओं को सूचित निर्णय लेने के लिये आवश्यक सूचना और संसाधनों तक पहुँच प्रदान करके सशक्त बनाती है।
  • यह समुदायों में गरीबी के स्तर को कम करने और स्वास्थ्य परिणामों को बेहतर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • विश्व बैंक का कहना है कि सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा से अत्यधिक गरीबी में 12% की कमी आ सकती है।
  • क्षेत्रीय असमानताएँ: महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय भिन्नताएँ मौज़ूद हैं, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में साक्षरता दर कम है, जो समग्र राष्ट्रीय प्रगति में बाधा उत्पन्न कर सकती है।
  • दीर्घकालिक विकास लक्ष्य: निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों (SGD-4) के अनुरूप हैं।
    • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करना सतत् विकास और सामाजिक समानता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • स्वास्थ्य और कल्याण: साक्षरता स्वास्थ्य परिणामों को बेहतर बनाती है क्योंकि साक्षर व्यक्ति स्वास्थ्य संबंधी जानकारी को बेहतर ढंग से समझते हैं, सेवाओं तक पहुँच और सूचित विकल्प सुनिश्चित करते हैं। 
    • शिक्षित महिलाओं द्वारा अपने बच्चों का टीकाकरण कराने की संभावना 50% अधिक होती है, जिससे भावी पीढ़ियों के स्वास्थ्य में सुधार होता है।
  • सामाजिक सामंजस्य और स्थिरता: साक्षरता आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करके और सामाजिक तनाव को कम करके सामाजिक सामंजस्य को बढ़ाती है। 
    • इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ट्रस्ट (ISST) ने पाया कि जिन समुदायों में साक्षरता दर अधिक है, उनमें हिंसा और सामाजिक अशांति का स्तर कम है।

किन रणनीतियों द्वारा भारत में साक्षरता की दर बढ़ सकती है?

  • मानकीकृत परिभाषाएँ और मापदंड: बुनियादी साक्षरता की सार्वभौमिक परिभाषा के साथ मूल्यांकन के लिये मानकीकृत मापदंड स्थापित करने से विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति को मापने हेतु अधिक सुसंगत ढाँचा बनाने में मदद मिल सकती है।
  • समावेशी मूल्यांकन पद्धतियाँ: ऐसे मूल्यांकन उपकरण विकसित करने चाहिये जो विविध शिक्षण वातावरणों एवं समूहों (जिनमें विकलांग लोग भी शामिल हैं) को ध्यान में रखते हुए साक्षरता स्तरों की अधिक सटीक तस्वीर प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • शिक्षक प्रशिक्षण को मज़बूत बनाना: शिक्षक प्रशिक्षण में निवेश करने से शिक्षकों को आवश्यक कौशल (खासकर संसाधन-सीमित ग्रामीण क्षेत्रों में) प्राप्त होते हैं। निरंतर व्यावसायिक विकास से शिक्षकों को फिनलैंड और सिंगापुर जैसी सर्वोत्तम प्रथाओं के बारे में अपडेट रखा जा सकता है।
  • सामुदायिक सहभागिता कार्यक्रम: शिक्षा को बढ़ावा देने में स्थानीय समुदायों को शामिल करने वाली पहल से सीखने की संस्कृति को बढ़ावा मिलने के साथ नामांकन दर में वृद्धि हो सकती है।
    • सर्व शिक्षा अभियान (SSA) का उद्देश्य समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देना है और इससे हाशिये पर स्थित समूहों को सहायता मिलती है।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: शैक्षिक सामग्री वितरण के लिये स्वयं प्रभा पोर्टल जैसे डिजिटल प्लेटफाॅर्मों का उपयोग करने से विशेष रूप से दूरदराज़ के क्षेत्रों में शिक्षण संसाधनों तक पहुँच बढ़ सकती है।
    • युवाओं को इंटरैक्टिव शिक्षण अनुभव प्रदान करने के लिये E-PG पाठशाला जैसे मोबाइल शिक्षण एप्लिकेशन विकसित किये जा सकते हैं।
    • डिजिटल इंडिया पहल का उद्देश्य डिजिटल विभाजन को कम करना है तथा यह सुनिश्चित करना है कि छात्रों की ऑनलाइन संसाधनों तक पहुँच हो।
  • शिक्षा की गुणवत्ता: कोठारी आयोग ने ऐसे पाठ्यक्रम की वकालत की जो समाज एवं अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के लिये प्रासंगिक हो। 
    • व्यावहारिक कौशल एवं समकालीन ज्ञान को शामिल करने के लिये पाठ्यक्रम को अद्यतन करने से छात्रों को अधिक रोज़गार योग्य बनने एवं अपने समुदायों में अधिक सक्रिय होने में मदद मिल सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: सार्वभौमिक साक्षरता की अवधारणा पर चर्चा कीजिये। आकलन कीजिये कि भारत में युवा साक्षरता सामाजिक-आर्थिक विकास को किस प्रकार प्रभावित करती है एवं इससे संबंधित चुनौतियों का समाधान करने हेतु रणनीतियाँ बताइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. संविधान के निम्नलिखित प्रावधानों में से कौन से प्रावधान भारत की शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव डालते हैं? (2012)

  1. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
  2.  ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकाय
  3.  पाँचवीं अनुसूची
  4.  छठी अनुसूची
  5.  सातवीं अनुसूची

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3, 4 और 5
(c) केवल 1, 2 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न 1. भारत में डिजिटल पहल ने किस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन में योगदान किया है? विस्तृत उत्तर दीजिये। (2020)

प्रश्न 2. जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना कीजिये तथा भारत में उन्हें प्राप्त करने के उपायों का विस्तार से उल्लेख कीजिये। (2021)