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डेली न्यूज़

  • 24 Apr, 2021
  • 41 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में गिरावट

चर्चा में क्यों?

सरकारी द्वारा जारी नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-2021 में भारत के कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में गिरावट आई है।

  • उल्लेखनीय है कि भारत में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन वर्ष 2011-12 से लगातार कम हो रहा है।

प्रमुख बिंदु

उत्पादन में गिरावट:

  • कच्चे तेल के उत्पादन में 5.2% की कमी आई है क्योंकि निजी और सार्वजनिक कंपनियों द्वारा वर्ष 2020-21 में 30.5 मिलियन टन कच्चे तेल का उत्पादन किया गया, जबकि वर्ष 2019-2020 में 32.17 मिलियन टन कच्चे तेल का उत्पादन किया गया था। 
  • प्राकृतिक गैस के उत्पादन में 8.1% की गिरावट आई है। वर्ष 2020-21 में 28.67 बिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस का उत्पादन हुआ जबकि वर्ष 2019-20 में 31.18 बिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस का उत्पादन हुआ था।

गिरावट के कारण:

  • अत्यधिक पुराने स्रोत:
    • भारत में अधिकांश कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन अत्यधिक पुराने हो चुके कुओं से होता है तथा समय के साथ इनकी उत्पादन क्षमता में कमी आई है।
  • गहन प्रौद्योगिकी की आवश्यकता:
    • भारत में तेल तथा गैस अब अधिक सरलता से उपलब्ध नहीं है ऐसे में उत्पादकों को दुर्गम क्षेत्रों (जैसे अत्यधिक गहरे पानी वाले क्षेत्र) से तेल और गैस के निष्कर्षण  हेतु प्रौद्योगिकी गहन साधनों के उपयोग में निवेश करना होगा।
  • सरकार के स्वामित्व वाली कंपनियों का वर्चस्व:
    • भारत में कच्चे तेल के उत्पादन पर सरकार के स्वामित्व वाली दो प्रमुख अन्वेषण एवं उत्पादन कंपनियों, ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (ONGC) और ऑयल इंडिया का प्रभुत्व है।
      • ये कंपनियाँ नीलामी में हाइड्रोकार्बन ब्लॉकों के लिये सबसे प्रमुख बोलीदाता रही हैं और ओपन एकरेज लाइसेंसिंग पॉलिसी (OALP) शासन के तहत पाँचवें और नवीनतम दौर की नीलामी में भी केवल यही दोनों कंपनियाँ सफल बोलीदाता रहीं, जहाँ ग्यारह में से सात तेल और गैस ब्लॉकों पर ONGC ने तथा अन्य चार पर ऑयल इंडिया ने अधिकार प्राप्त किये।
  • विदेशी कंपनियों की कम रुचि:
    • हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और उत्पादन में ऊर्जा क्षेत्र की दिग्गज विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिये भारत द्वारा किये जा रहे प्रयासों को भी काफी हद तक सफलता नहीं मिली है।
      • सरकार ने दुर्गम क्षेत्रों से तेल और गैस के निष्कर्षण में तकनीकी सहायता प्रदान करने हेतु ONGC से निवेश में वृद्धि करने तथा विदेशी अग्रणी कंपनियों के साथ संपर्क/सहभागिता बढ़ाने के लिये कहा है।
      • सरकार प्रमुख विदेशी अग्रणी कंपनियों को यह समझाने का प्रयास भी कर रही है कि नीलामी और विनियमन की वर्तमान प्रणाली पहले की तुलना में अधिक "खुली एवं पारदर्शी" है।
  • जलवायु परिवर्तन: 
    • जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता दबाव तेल और गैस के प्रमुख चालकों को स्वच्छ ऊर्जा में विविधता लाने के लिये प्रेरित कर रहा है।

निजी भागीदारी कम होने के कारण:

  • परिचालन में देरी: पर्यावरणीय मंज़ूरी और क्षेत्र विकास योजनाओं के नियामक द्वारा अनुमोदन आदि में देरी के कारण हाइड्रोकार्बन ब्लॉकों के परिचालन में विलंब भारत के अपस्ट्रीम तेल और गैस क्षेत्र में कम निजी भागीदारी के लिये विशेषज्ञों द्वारा उद्धृत प्रमुख कारणों में से एक है।
  • उच्च उपकर:
    • उद्योग चालकों द्वारा घरेलू स्तर पर कच्चे तेल के उत्पादन पर मौजूदा उपकर 20% को घटाकर 10% करने की मांग की जाती रही है।
  • अधिकतम उत्पादन की सीमा:
    • जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये तेल और गैस की बड़ी कंपनियों द्वारा निर्धारित आंतरिक अधिकतम उत्पादन स्तर के चलते भी तेल की बड़ी कंपनियों ने भारत में परिचालन का विस्तार करने में कम रुचि दिखाई है।

प्रभाव:

  • आयात पर निर्भरता:
    • कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का घरेलू स्तर पर कम उत्पादन  होने से इनके आयात पर भारत की निर्भरता में वृद्धि होगी।
      • वित्त वर्ष 2020 में भारत में कच्चे तेल की कुल खपत के अनुपात में आयात का हिस्सा वित्त वर्ष 2012 के 81.8% से बढ़कर 87.6% हो गया है।
  • भारत के दृष्टिकोण के पक्ष में नहीं:
    • तेल और गैस के उत्पादन को बढ़ावा देना भी सरकार की आत्मनिर्भर भारत पहल का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है और इसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक भारत के प्राथमिक ऊर्जा मिश्रण में प्राकृतिक गैस के उपयोग को मौजूदा 6.2% से बढ़ाकर 15% तक करना है। लेकिन कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में हो रही लगातार गिरावट सरकार के इस दृष्टिकोण के पक्ष में नहीं है।

उत्पादन में सुधार के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • अन्वेषण और लाइसेंसिंग संबंधी सुधार:
    • अक्तूबर 2020 में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA) ने तेल एवं गैस के घरेलू अन्वेषण तथा उत्पादन को बढ़ाने के लिये अन्वेषण और लाइसेंसिंग क्षेत्र में सुधारों पर नीतिगत ढाँचे को मज़ूरी दी।
  • राष्ट्रीय डेटा रिपोजिटरी (NDR):
    • अनुसंधान एवं विकास तथा अन्य शैक्षणिक संस्थानों के उपयोग के अलावा, भविष्य में किये जाने वाले अन्वेषण और विकास में सहायता हेतु व्यवस्थित एवं विनियमित डेटा की विशाल मात्रा को संग्रहीत करने उसे सुरक्षित रखने तथा इसके अनुरक्षण के लिये वर्ष 2017 में सरकार द्वारा NDR की स्थापना की गई थी।
    • यह भारत की तलछट युक्त (Sedimentary) घाटियों में अन्वेषण और उत्पादन (Exploration and Production- E&P) से संबंधित जानकारी हेतु एकीकृत डेटा भंडार है।
  • हाइड्रोजन अन्वेषण तथा लाइसेंसिंग नीति (HELP):
    • यह वर्ष 2016 में लागू की गई ‘नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति’ (New Exploration Licensing Policy (NELP) का स्थान लेती है तथा पारंपरिक और गैर-पारंपरिक हाइड्रोकार्बन संसाधनों के अन्वेषण एवं उत्पादन के लिये एकल लाइसेंस; मूल्य निर्धारण एवं विपणन की स्वतंत्रता; अपतटीय ब्लॉकों के लिये कम रॉयल्टी दर का प्रावधान करती है। 

आगे की राह

  • विभिन्न प्रकार की नई प्रौद्योगिकियों की सहायता से अत्यधिक पुराने हो चुके तेल क्षेत्रों को पुनर्जीवन प्रदान कर उनकी उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जा सकता है लेकिन इन प्रौद्योगिकियों का अधिग्रहण, परीक्षण और अनुप्रयोग पूंजी-गहन है। अतः राजकोषीय ढाँचे के तहत उत्पादकों के लिये संवर्द्धित तेल रिकवरी तंत्र की तैनाती के लिये पर्याप्त रिटर्न सुनिश्चित करना चाहिये।
  • प्रत्येक साइन-ऑफ के लिये समय-सीमा निर्धारित कर वर्तमान स्वीकृति प्रक्रियाओं को सरल बनाया जाना चाहिये ताकि जिससे देरी के कारण लागत में होने वाली वृद्धि से बचा जा सके।
  • शेल ऑयल और गैस, टाइट ऑयल/गैस और गैस हाइड्रेट जैसे अपरंपरागत हाइड्रोकार्बन (Unconventional Hydrocarbons- UHC) की क्षमता को अब व्यावसायिक दोहन के लिये खोला जाना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

हिम तेंदुआ

चर्चा में क्यों?

पृथ्वी दिवस से कुछ दिन पहले एक हिम तेंदुए की तस्वीर इंटरनेट पर वायरल हो रही थी।

प्रमुख बिंदु:

वैज्ञानिक नाम: पैंथेरा अनकिया (Panthera uncia)

  • शीर्ष शिकारी: हिम तेंदुआ खाद्य शृंखला में शीर्ष शिकारी के रूप में अपनी स्थिति के कारण पहाड़ के पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के एक संकेतक के रूप में कार्य करता है
  • आवास:
  • मध्य और दक्षिणी एशिया के पर्वतीय क्षेत्र।
  • भारत में इनकी भौगोलिक सीमा है-
    • पश्चिमी हिमालय: जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश।
    • पूर्वी हिमालय: उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश।
  • हिम तेंदुए की वैश्विक राजधानी: हेमिस, लद्दाख।
    • हेमिस नेशनल पार्क भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान है और इसमें हिम तेंदुओं की अच्छी संख्या पाई जाती है।

सुरक्षा स्थिति:

भारत में संरक्षण के प्रयास:

  • भारत सरकार ने हिम तेंदुए की पहचान उच्च हिमालय की एक प्रमुख प्रजाति के रूप में की है।
  • भारत वर्ष 2013 से वैश्विक हिम तेंदुआ एवं पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण (GSLEP) कार्यक्रम का हिस्सा है।
  • हिमाल संरक्षक: यह अक्तूबर, 2020 में हिम तेंदुओं की रक्षा के लिये शुरू किया गया एक सामुदायिक स्वयंसेवक कार्यक्रम है।
  • वर्ष 2019 में ‘स्नो लेपर्ड पॉपुलेशन असेसमेंट’ पर फर्स्ट नेशनल प्रोटोकॉल भी लॉन्च किया गया, जो इसकी आबादी की निगरानी के लिये बहुत उपयोगी है।
  • सिक्योर हिमालय: वैश्विक पर्यावरण सुविधा (GEF) के तहत संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने ऊँचाई पर स्थित जैव विविधता के संरक्षण और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर स्थानीय समुदायों की निर्भरता को कम करने के लिये इस परियोजना का वित्त पोषण किया।

हिम तेंदुआ परियोजना: 

  • यह परियोजना वर्ष 2009 में हिम तेंदुओं और उनके निवास स्थान के संरक्षण के लिये एक समावेशी और सहभागी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने हेतु शुरू की गई थी।
  • पद्मजा नायडू हिमालयन ज़ूलॉजिकल पार्क, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल में हिम तेंदुआ संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम चलाया जाता है।

हिम तेंदुआ संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम:

  • GSLEP सभी 12 हिम तेंदुए रेंज वाले देशों का एक उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी गठबंधन है।
    • भारत, नेपाल, भूटान, चीन, मंगोलिया, रूस, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, किर्गिज़स्तान, कज़ाखस्तान, ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान में हिम तेंदुए पाए जाते हैं।
  • यह पारिस्थितिकी तंत्र के लिये प्रमुख रूप से हिम तेंदुए के बारे में जागरूकता और समझ की आवश्यकता पर केंद्रित है।

‘लिविंग हिमालय नेटवर्क’ पहल:

  • भारत के तीन पूर्वी हिमालयी देशों भूटान, भारत (उत्तर-पूर्व) और नेपाल में परिवर्तनकारी संरक्षण प्रभाव लाने के लिये WWF की वैश्विक पहल के रूप में ‘लिविंग हिमालय इनिशिएटिव’ (Living Himalayas Initiative) की स्थापना की गई है।
  • LHI के उद्देश्यों में जलवायु परिवर्तन का पालन करना, निवास स्थान से जुड़ना और प्रतिष्ठित प्रजातियों को बचाना शामिल है।

स्रोत- द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

ब्लू फ्लैग तटों का विरोध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ओडिशा सरकार की पाँच समुद्र तटों के लिये ब्लू फ्लैग प्रमाणन (Blue Flag Certification) प्राप्त करने की योजना का मछुआरों द्वारा विरोध किया गया था।

  • ओडिशा ने वर्ष 2020 में पुरी के गोल्डन तट हेतु प्रमाणन प्राप्त करने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने के लिये तीन ज़िलों में पाँच और समुद्र तटों को विकसित करने की योजना बनाई है।

प्रमुख बिंदु:

मछुआरों की मांग:

  • प्रमाणीकरण के लिये प्रस्तावित भूमि का उपयोग मछुआरों द्वारा अपनी नौकाओं हेतु लंगर डालने के लिये किया जाता है।
    • मछुआरे, मछली पकड़ने वाली नौकाओं के लंगर के लिये एक स्थायी समुद्री मुहाने की मांग कर रहे हैं।
  • उनकी मांग है कि आजीविका के संरक्षण को सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
  • इसके अलावा वे एक नए मछली पकड़ने के जेट्टी (Jetty) को फिर से खोलने की मांग कर रहे हैं।

 ब्लू फ्लैग प्रमाणन (Blue Flag Certification):

  • ब्लू फ्लैग समुद्र तटों को विश्व का सबसे स्वच्छ समुद्र तट माना जाता है।
  • ब्लू फ्लैग विश्व के मान्यता प्राप्त स्वैच्छिक पर्यावरण-लेबल में से एक है जिसे समुद्र तटों, मैरिन और स्थायी नौका विहार पर्यटन ऑपरेटरों को प्रदान किया जाता है।
  • प्रमाणन के लिये मानदंड:
    • ब्लू फ्लैग हेतु अर्हता प्राप्त करने के लिये कठोर पर्यावरणीय, शैक्षिक, सुरक्षा और अभिगम्यता मानदंडो की एक शृंखला को पूरा करना तथा बनाए रखना आवश्यक है।
    • ब्लू फ्लैग प्रमाणीकरण हेतु अर्हता प्राप्त करने के लिये लगभग 33 मानदंड हैं-
      • जैसे कि पानी की गुणवत्ता के कुछ मानकों को पूरा करना, अपशिष्ट निपटान की सुविधा होना, दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील या उनकी सहायता करना, प्राथमिक चिकित्सा उपकरण का होना और समुद्र तट के मुख्य क्षेत्रों में पालतू जानवरों की पहुँच न होना। 
    • कुछ मानदंड स्वैच्छिक हैं और कुछ अनिवार्य होते हैं।
  • संगठन (Organisations):
    • समुद्र तटों और मरीन्स के लिये ब्लू फ्लैग प्रमाण-पत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक गैर सरकारी संगठन फाउंडेशन फॉर एन्वायरमेंटल एजुकेशन (Foundation for Environmental Education-FEE) द्वारा प्रदान किया जाता है।
      • FEE की स्थापना वर्ष 1985 में फ्राँस में की गई थी।
  • ब्लू फ्लैग सर्टिफिकेशन की तरह ही भारत ने भी अपना इको-लेबल बीच एन्वायरमेंट एंड एस्थेटिक्स मैनेजमेंट सर्विसेज़’ (Beach Environment and Aesthetics Management Services- BEAMS) लॉन्च किया है।

 इको-लेबल बीच एन्वायरमेंट एंड एस्थेटिक्स मैनेजमेंट सर्विस (BEAMS):

  • इको-लेबल बीच एन्वायरमेंट एंड एस्थेटिक्स मैनेजमेंट सर्विस, एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (Integrated Coastal Zone Management- ICZM) परियोजना के तहत आती है।
  • इसे सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटेड कोस्टल मैनेजमेंट (Society of Integrated Coastal Management- SICOM) और केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Union Ministry of Environment, Forest and Climate Change - MoEFCC) द्वारा लॉन्च किया गया था।
  • BEAMS कार्यक्रम के उद्देश्य है:
    • तटीय जल प्रदूषण को न्यून करना
    • समुद्र तट सुविधाओं के सतत् विकास को बढ़ावा देना
    • तटीय पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण
    • स्वच्छता के उच्च मानकों को मज़बूत करना और उन्हें बनाए रखना
    • तटीय वातावरण और नियमों के अनुसार समुद्र तट के लिये स्वच्छता और सुरक्षा।
  • भारत में आठ समुद्र तट हैं जिन्हें ब्लू फ्लैग प्रमाणन प्राप्त हुआ है:
    • शिवराजपुर, गुजरात
    • घोघला, दमन व दीव
    • कासरकोड, कर्नाटक
    • पदुबिद्री तट, कर्नाटक
    • कप्पड़, केरल
    • रुशिकोंडा, आंध्र प्रदेश
    • गोल्डन बीच, ओड़िसा
    • राधानगर तट, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह

Blue-Flag

स्रोत: डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ब्रूसेलोसिस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल ने ब्रूसेलोसिस (Brucellosis) के कुछ मामलों के बाद निवारक उपाय शुरू किये हैं, यह एक जूनोटिक संक्रमण है जो कुछ डेयरी जानवरों (Dairy Animals) में पाया गया है।

ज़ूनोटिक रोग

  • ऐसे रोग जो पशुओं के माध्यम से मनुष्यों में फैलते है उन्हें  ज़ूनोसिस या ज़ूनोटिक रोग कहा जाता है।
  • ज़ूनोटिक संक्रमण प्रकृति या मनुष्यों में जानवरों के अलावा बैक्टीरिया, वायरस या परजीवी के माध्यम से फैलता है।
  • एचआईवी-एड्स, इबोला, मलेरिया, रेबीज़ तथा वर्तमान कोरोनावायरस रोग (COVID-19) ज़ूनोटिक संक्रमण के कारण फैलने वाले रोग हैं।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • यह विभिन्न ब्रूसेला प्रजातियों के कारण होने वाला एक जीवाणु रोग है, जो मुख्य रूप से मवेशी, सूअर, बकरी, भेड़ और कुत्तों को संक्रमित करता है।
  • इसे माल्टा ज्वर या भूमध्य ज्वर के रूप में भी जाना जाता है।
  • ब्रुसेलोसिस भारत में भी एक स्थानिक बीमारी है इससे डेयरी उद्योग को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है और यह निम्नलिखित का कारक है- 
    • बाँझपन
    • गर्भपात
    • पशु के कमजोर बच्चे का जन्म
    • उत्पादकता में कमी

मनुष्य में संक्रमण:

  • संक्रमण:
    • ब्रुसेलोसिस ने चीन में 3000 से अधिक लोगों को संक्रमित किया है।
    • आमतौर पर मनुष्य में इस बीमारी के कारक हैं:
      • संक्रमित जानवरों से सीधा संपर्क।
      • दूषित पशु उत्पादों को खाना, अस्वास्थ्यकर दूध पीना।
      • श्वास के माध्यम से एयरबोर्न घटकों का शरीर में प्रवेश करना।
    • अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र द्वारा कहा गया है कि ब्रुसेलोसिस का व्यक्ति-से-व्यक्ति संचरण "अत्यंत दुर्लभ" है, लेकिन कुछ लक्षण दोबारा हो सकते हैं या उन्हें कभी खत्म नहीं किया जा सकता है।
  • लक्षण:
    • बुखार, पसीना आना, अस्वस्थता, एनोरेक्सिया (मनोवैज्ञानिक विकार, जिसमें व्यक्ति वज़न बढ़ने के डर से कम खाता है), सिरदर्द और मांसपेशियों में दर्द।
  • उपचार और रोकथाम:
    • इसका इलाज आमतौर पर एंटीबायोटिक दवाओं से किया जाता है, जिसमें रिफैम्पिन (Rifampin) और डॉक्सीसाइक्लिन (Doxycycline) शामिल हैं।
    • अस्वास्थ्यकर डेयरी उत्पादों से बचना और सावधानी बरतना जैसे- रबर के दस्ताने, गाउन या एप्रन पहनना चाहिये, यह जानवरों के बीच या प्रयोगशाला में काम करते समय ब्रूसेलोसिस से होने वाले जोखिम को रोकने या कम करने में मदद कर सकता है।
    • अन्य निवारक उपायों में मांस को ठीक से पकाना, घरेलू पशुओं का टीकाकरण करना आदि शामिल हैं।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गृह मंत्रालय ने आपदा प्रबंधन अधिनियम (Disaster Management Act), 2005 को लागू करके ऑक्सीजन ले जाने वाले वाहनों के मुक्त अंतर-राज्य संचालन का आदेश दिया।

  • इससे पूर्व विभिन्न सरकारी अधिकारियों ने मार्च 2020 में देश में कोरोना वायरस (कोविड-19) के प्रकोप से निपटने के लिये इस अधिनियम के अंतर्गत अपनी शक्तियों का प्रयोग किया था।

प्रमुख बिंदु

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के विषय में:

  • इस अधिनियम को वर्ष 2005 में भारत सरकार द्वारा आपदाओं के कुशल प्रबंधन और इससे जुड़े अन्य मामलों के लिये पारित किया गया था। हालाँकि यह जनवरी 2006 में लागू हुआ।

उद्देश्य:

  • आपदा प्रबंधन में शमन रणनीति तैयार करना, क्षमता निर्माण करना आदि शामिल है।
    • इस अधिनियम की धारा 2 (d) में "आपदा" को परिभाषित किया गया है, जिसके अंतर्गत आपदा का अर्थ प्राकृतिक या मानव निर्मित कारणों से उत्पन्न किसी भी क्षेत्र में "तबाही, दुर्घटना, आपदा या गंभीर घटना" से है।

अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ:

  • नोडल एजेंसी:
    • यह अधिनियम गृह मंत्रालय को समग्र राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन को संचालित करने के लिये नोडल मंत्रालय के रूप में नामित करता है।
  • संस्थागत संरचना: यह राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तरों पर संस्थानों की एक व्यवस्थित संरचना बनाए रखता है।
  • राष्ट्रीय स्तर की महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ:
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण:
      • यह आपदाओं के प्रति समय पर और प्रभावी प्रतिक्रिया के लिये नीतियाँ, योजनाएँ तथा दिशा-निर्देश तैयार करने हेतु यह एक शीर्ष निकाय है।
    • राष्ट्रीय कार्यकारी समिति:
      • आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 8 के अंतर्गत राष्ट्रीय प्राधिकरण को उसके कार्यों के निष्पादन में सहायता देने के लिये एक राष्ट्रीय कार्यकारी समिति का गठन किया गया है।
      • इस समिति को आपदा प्रबंधन हेतु समन्वयकारी और निगरानी निकाय के रूप में कार्य करने, राष्ट्रीय योजना बनाने तथा राष्ट्रीय नीति का कार्यान्वयन करने का उत्तरदायित्व दिया गया है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान:
      • यह संस्थान प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन के लिये प्रशिक्षण और क्षमता विकास कार्यक्रमों को संचालित करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल:
      • यह आपदाओं के समय विशेषीकृत कार्यवाही करने में सक्षम एक प्रशिक्षित पेशेवर यूनिट है।

राज्य और ज़िला स्तरीय संस्थाएँ:

  • इस अधिनियम में राज्य और ज़िला स्तर के अधिकारियों को भी राष्ट्रीय योजनाओं को लागू करने और स्थानीय योजनाओं को तैयार करने के लिये ज़िम्मेदारी दी गई है।
    • राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण
    • ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण

वित्त:

  • इस अधिनियम में आपातकालीन प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (National Disaster Response Fund) और राज्य तथा ज़िला स्तर पर भी इसी तरह की निधि सृजन के लिये वित्तीय तंत्र  का प्रावधान किया गया है।

नागरिक और आपराधिक दायित्व:

  • इस अधिनियम के अनेक अनुभागों के उल्लंघन पर दंड का भी प्रावधान किया गया है।
  • आपदा के समय जारी आदेशों का पालन करने से इनकार करने वाले व्यक्ति को इस अधिनियम की धारा 51 के अंतर्गत एक वर्ष तक के कारावास या जुर्माना या दोनों सज़ा एक साथ हो सकती है और यदि इस आदेश के अनुपालन से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उत्तरदायी व्यक्ति को दो वर्ष तक का कारावास हो सकता है।

चुनौतियाँ:

  • आपदा प्रवण क्षेत्र घोषित न होना:
    • इस अधिनियम में आपदा प्रवण क्षेत्र (Disaster Prone Zone) की घोषणा के प्रावधान का अभाव है।
    • विश्व के लगभग सभी आपदा संबंधी विधानों ने अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर आपदा प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण किया है।
    • राज्य से तब तक सक्रिय भूमिका निभाने की उम्मीद नहीं की जा सकती जब तक कि एक क्षेत्र को आपदा प्रवण क्षेत्र घोषित नहीं किया जाता। इस तरह का वर्गीकरण नुकसान की सीमा को भी निर्धारित करने में मदद करता है।
  • आपदाओं के समय प्रगतिशील व्यवहार की उपेक्षा:
    • यह अधिनियम प्रत्येक आपदा को एक आकस्मिक घटना के रूप में चित्रित करता है और इस बात को नज़रअंदाज करता है कि आपदाएँ प्रकृति में प्रगतिशील हो सकती हैं।
      • भारत में वर्ष 2006 में 3,500 से अधिक लोग डेंगू (Dengue) से प्रभावित थे, भारत में इसके प्रकोप का एक इतिहास था, फिर भी इस तरह की प्रक्रिया को रोकने के लिये कोई प्रभावी तंत्र नहीं बनाया गया है।
      • देश में तपेदिक (TB) से प्रत्येक वर्ष हज़ारों लोग मर जाते हैं, फिर भी इस बीमारी को आकस्मिक घटना नहीं होने के कारण वर्ष 2005 के आपदा अधिनियम में शामिल नहीं किया गया।
  • परस्पर संबद्ध कार्य:
    • यह अधिनियम अनेक राष्ट्रीय स्तर के निकायों की स्थापना का ज़िक्र करता है, जिनके कार्य परस्पर संबद्ध हैं। अतः इन निकायों के बीच समन्वय स्थापित करना बोझिल कार्य हो जाता है।
    • इस अधिनियम में स्थानीय प्राधिकारियों, जिनकी आपदा के समय पहली प्रतिक्रिया के रूप में मूल्यवान भूमिका होती है, का बमुश्किल उल्लेख मिलता है। इन प्राधिकारियों का मार्गदर्शन करने के लिये कोई ठोस प्रावधान नहीं है, इनका केवल आवश्यक उपाय करने हेतु एक मामूली संदर्भ दिया गया है।
  • प्रक्रियात्मक विलंब और अपर्याप्त प्रौद्योगिकी:
    • इसके अतिरिक्त भारत में आपदा प्रबंधन योजना को विलंबित प्रतिक्रिया, योजनाओं और नीतियों के अनुचित कार्यान्वयन तथा प्रक्रियात्मक अंतराल ने प्रभावित किया है।
    • बड़े पैमाने पर होने वाली क्षति के सटीक पूर्वानुमान और माप के लिये अपर्याप्त तकनीकी क्षमता।

आगे की राह

  • समग्र रूप से देखा जाए तो आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 ने निस्संदेह आपदाओं से निपटने की दिशा में सरकारी कार्यों की योजना में एक बड़ा अंतर ला दिया है, लेकिन जब तक इसका प्रभावी क्रियान्वयन नहीं किया जाता है, तब तक कागज़ पर विस्तृत योजनाएँ बनाने मात्र से उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती है।
  • एक सुरक्षित भारत के निर्माण में नागरिक समाज, निजी उद्यम और गैर-सरकारी संगठन (NGO) भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

कठोर प्रवाल

चर्चा में क्यों?

एक हालिया अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि प्रवाल अपनी चट्टान जैसी कठोर संरचनाओं की प्रभावशाली प्रक्रिया के कारण जलवायु परिवर्तन का सामना कर सकती हैं।

प्रमुख बिंदु:

अध्ययन के प्रमुख बिंदु:

  • यह अध्ययन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक सामान्य चट्टानी प्रवाल ‘स्टाइलोफोरा पिस्टिलटा’ (Stylophora Pistillata) पर किया गया, जिसमें बताया गया है कि प्रवाल संरचनाओं में एक जैविक खनिज होता है जिसमें प्रोटीन का उच्च संगठित कार्बनिक मिश्रण होता है जो मानव हड्डियों से मिलता-जुलता है।
  • इससे यह सिद्ध हुआ है कि इस प्रक्रिया में कई प्रोटीनों को स्थानिक रूप से व्यवस्थित किया जाता है, यह प्रक्रिया चट्टान जैसे कठोर प्रवाल कंकाल बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • अध्ययन के अनुसार, जैव-खनिजीकरण नामक प्रक्रिया से प्रवाल लाखों वर्षों में वैश्विक जलवायु परिवर्तन से बच गए हैं।
    • जैव-खनिजीकरण उन प्रक्रियाओं का अध्ययन है जो जीवित जीवों द्वारा उत्पन्न पदानुक्रमिक रूप से संरचित कार्बनिक-अकार्बनिक सामग्रियों का गठन करती हैं, जैसे- शैल, हड्डी और दाँत।

प्रवाल:

  • प्रवाल आनुवंशिक रूप से समान जीवों से बने होते हैं जिन्हें ‘पॉलीप्स’ कहा जाता है। इन पॉलीप्स में सूक्ष्म शैवाल होते हैं जिन्हें ज़ूजैन्थेले (Zooxanthellae) कहा जाता है जो उनके ऊतकों के भीतर रहते हैं।
    • प्रवाल और शैवाल में परस्पर संबंध होता है।
    • प्रवाल ज़ूजैन्थेले को प्रकाश संश्लेषण हेतु आवश्यक यौगिक प्रदान करता है। बदले में ज़ूजैन्थेले कार्बोहाइड्रेट की तरह प्रकाश संश्लेषण के जैविक उत्पादों की प्रवाल को आपूर्ति करता है, जो उनके कैल्शियम कार्बोनेट कंकाल के संश्लेषण हेतु प्रवाल पॉलीप्स द्वारा उपयोग किया जाता है।
    • यह प्रवाल को आवश्यक पोषक तत्त्वों को प्रदान करने के अलावा इसे अद्वितीय और सुंदर रंग प्रदान करता है।
  • उन्हें "समुद्र का वर्षावन" भी कहा जाता है।
  • प्रवाल दो प्रकार के होते हैं:
    • कठोर, उथले पानी के प्रवाल।
    • ‘सॉफ्ट’ प्रवाल और गहरे पानी के प्रवाल जो गहरे ठंडे पानी में रहते हैं।

प्रवालों से लाभ:

  • आवास: प्रवाल 1 मिलियन से अधिक विविध जलीय प्रजातियों का घर है, जिनमें हज़ारों मछलियों की प्रजातियाँ शामिल हैं।
  • आय: प्रवाल भित्ति और संबंधित पारिस्थितिकी प्रणालियों का वैश्विक अनुमानित मूल्य 2.7 ट्रिलियन डॉलर प्रतिवर्ष है, यह सभी वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र सेवा मूल्यों का 2.2% है, इसमें पर्यटन और भोजन शामिल हैं।
  • तटीय सुरक्षा: प्रवाल भित्ति तरंगों से ऊर्जा को अवशोषित करके तटरेखा क्षरण को कम करते हैं। वे तटीय आवास, कृषि भूमि और समुद्र तटों की रक्षा कर सकते हैं।
  • चिकित्सा: ये भित्तियाँ उन प्रजातियों का घर है, जिनमें दुनिया की कुछ सबसे प्रचलित और खतरनाक बीमारियों के इलाज की क्षमता है।

प्रवालों को हानि पहुँचाने वाले कारक:

  • अत्यधिक मत्स्ययन:
    • प्रवाल भित्तियों पर या आस-पास की कुछ प्रजातियों की अधिकता से इनका पारिस्थितिकी संतुलन और जैव विविधता प्रभावित हो सकती है। उदाहरण के लिये, शाकाहारी मछलियों के अधिक सेवन से उच्च स्तर की क्षारीय वृद्धि हो सकती है।
  • मछली पकड़ने का गलत तरीका:
    • डायनामाइट, साइनाइड, बॉटम ट्रॉलिंग और मूरो अमी (लाठी से भित्ति पर वार करना) के साथ मछली पकड़ना पूरी भित्ति को नुकसान पहुँचा सकता है।
  • मनोरंजक गतिविधियाँ:
    • अनियमित मनोरंजक गतिविधियाँ और पर्यटन, जिस पर उद्योग निर्भर करते हैं, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं । प्रवाल भित्तियों को शारीरिक क्षति लापरवाह तैराकों, गोताखोरों के माध्यम से हो सकती है।
  • तटीय विकास:
    • उष्णकटिबंधीय देशों में तटीय क्षेत्रों में विकास दर सबसे तेज़ है। हवाई अड्डे और इमारतों को अक्सर समुद्र भूमि पर बनाया जाता है।
  • प्रदूषण:
    • शहरी और औद्योगिक अपशिष्ट, सीवेज, एग्रोकेमिकल्स और तेल प्रदूषण भित्तियों को विषाक्त कर रहे हैं। इन विषाक्त पदार्थों को सीधे समुद्र में फेंक दिया जाता है या नदी प्रणालियों द्वारा स्रोतों से ऊपर की ओर ले जाया जाता है। कुछ प्रदूषक जैसे कि कृषि सीवेज अपवाह समुद्री जल में नाइट्रोजन के स्तर को बढ़ाते हैं, जिससे शैवाल में अतिवृद्धि होती है, जो 'सूर्य की किरणों' को प्रवालों तक नहीं पहुँचने देते हैं।
  • जलवायु  परिवर्तन (Climate Change):
    • प्रवाल विरंजन (Coral Bleaching):
      • जब तापमान, प्रकाश या पोषण में किसी भी परिवर्तन के कारण प्रवालों पर तनाव बढ़ता है तो वे अपने ऊतकों में निवास करने वाले सहजीवी शैवाल ज़ूजैन्थेले को निष्कासित कर देते हैं जिस कारण प्रवाल सफेद रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। इस घटना को कोरल ब्लीचिंग या प्रवाल विरंजन कहते हैं।
    • महासागर अम्लीकरण (Ocean Acidification):
      • महासागरीय अम्लीकरण को समुद्री जल की pH में होने वाली निरंतर कमी के रूप में परिभाषित किया जाता है। महासागरों में प्रवेश करने के बाद कार्बन डाइऑक्साइड (CO2 ) जल के साथ संयुक्त होकर कार्बोनिक अम्ल का निर्माण करती है जिससे महासागर की अम्लता बढ़ जाती है और समुद्र के जल का pH कम हो जाता है। 

प्रवालों के संरक्षण हेतु की गई पहलें:

  • प्रवाल विरंजन संबंधी मुद्दों से निपटने के लिये कई वैश्विक पहल की जा रही हैं, जैसे:
    • अंतर्राष्ट्रीय कोरल रीफ पहल
    • ग्लोबल कोरल रीफ मॉनीटरिंग नेटवर्क (GCRMN)
    • ग्लोबल कोरल रीफ अलायंस (GCRA)
    • ग्लोबल कोरल रीफ आर एंड डी एक्सेलेरेटर प्लेटफॉर्म
  • इसी तरह पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत ने तटीय क्षेत्र अध्ययन (CZS) के तहत प्रवाल भित्तियों पर अध्ययन को शामिल किया है।
    • भारत में ज़ूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI), गुजरात के वन विभाग की मदद से "बायोरॉक" या खनिज अभिवृद्धि तकनीक का उपयोग करके प्रवाल भित्तियों को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रयास कर रहा है।
    • देश में प्रवाल भित्तियों की सुरक्षा और रखरखाव के लिये राष्ट्रीय तटीय मिशन कार्यक्रम (National Coastal Mission Programme) चलाया जा रहा है।

स्रोत- द हिंदू


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