विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
समुद्री सूक्ष्म शैवाल का जलवायु अनुकूलन
प्रिलिम्स के लिये:समुद्री सूक्ष्म शैवाल का जलवायु अनुकूलन, समुद्री सूक्ष्म शैवाल, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, रोडोप्सिन मेन्स के लिये:समुद्री सूक्ष्म शैवाल का जलवायु अनुकूलन, विकास और दैनिक दिनचर्या में उनके अनुप्रयोग एवं प्रभाव, पर्यावरण प्रदूषण एवं क्षरण। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इंग्लैंड के ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय (UEA) के वैज्ञानिकों ने खोज की है कि यूकेरियोटिक फाइटोप्लांकटन, जिसे सूक्ष्म शैवाल भी कहा जाता है, ने ग्लोबल वार्मिंग और बदलती समुद्री परिस्थितियों से निपटने के लिये स्वयं को अनुकूलित कर लिया है।
समुद्री सूक्ष्म शैवाल:
- सूक्ष्म शैवाल प्रकाश संश्लेषक सूक्ष्मजीव हैं जो विभिन्न प्राकृतिक वातावरणों जैसे; जल, चट्टानों और मृदा में पाए जाते हैं। वे स्थलीय पौधों की तुलना में उच्च प्रकाश संश्लेषक दक्षता प्रस्तुत करते हैं और विश्व में ऑक्सीजन उत्पादन के एक महत्त्वपूर्ण अंश के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- समुद्री सूक्ष्म शैवाल समुद्री खाद्य शृंखला और कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- हालाँकि जैसा कि जलवायु परिवर्तन निरंतर जारी है, ग्लोबल वार्मिंग के कारण महासागरों का जल गर्म हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप सतही जल और पोषक तत्त्वों से भरपूर जल के बीच मिश्रण कम हो रहा है जिससे पोषक तत्त्वों की उपलब्धता कम हो रही है।
- अतः सतह पर पोषक तत्त्व दुर्लभ हो जाते हैं, जिससे शीर्ष परत में मौजूद सूक्ष्म शैवाल जैसे प्राथमिक उत्पादक प्रभावित होते हैं।
- लौह तत्त्व सहित पोषक तत्वों की यह कमी, सूक्ष्म शैवाल जैसे प्राथमिक उत्पादकों को प्रभावित करती है, जिससे वे कम भोजन बनाते हैं और वातावरण से ग्रहण की जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम कर देते हैं।
- सूक्ष्म शैवाल के उदाहरण: डायटम, डायनोफ्लैगलेट, क्लोरेला आदि।
नोट:
सूक्ष्म शैवाल को भोजन बनाने और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिये सूर्य के प्रकाश तथा प्रचुर मात्रा में आयरन की आवश्यकता होती है, लेकिन समुद्र की सतह के 35% भाग पर उनकी वृद्धि के लिये आवश्यक आयरन की कमी है।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष:
- रोडोप्सिन नामक प्रोटीन को सक्रिय करना:
- रोडोप्सिन, एक प्रोटीन जो मानव नेत्रों में प्रकाश दृष्टि को कम करने के लिये ज़िम्मेदार है, के समान एक अन्य प्रोटीन समुद्र की सतह पर बदलती जलवायु परिस्थितियों के जवाब में समुद्री सूक्ष्म शैवाल द्वारा सक्रिय किया जाता है।
- रोडोप्सिन पारंपरिक क्लोरोफिल-आधारित प्रकाश संश्लेषण के वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके इन सूक्ष्म शैवाल को पनपने की अनुमति देता है।
- यह अनुकूलन उनके अस्तित्व के लिये आवश्यक है, विशेष रूप से समुद्र के गर्म होने के कारण पोषक तत्त्वों की कमी वाले सतही जलीय क्षेत्रों में।
- प्रकाश संश्लेषण के रूप में प्रकाश का संग्रह:
- रोडोप्सिन समुद्र में प्रमुख प्रकाश संग्राहक हैं और क्लोरोफिल आधारित प्रकाश संश्लेषण क्रिया जितना ही प्रकाश अवशोषित कर सकते हैं।
- रोडोप्सिन ऊर्जा उत्पन्न करने के लिये प्रकाश को ग्रहण करते हैं (एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट या ATP के रूप में) जो सूक्ष्म शैवाल को भोजन का उत्पादन करने और कार्बन डाइ-ऑक्साइड को अवशोषित करने में सक्षम बनाता है।
अध्ययन के निहितार्थ:
- पर्यावरणीय अनुकूलन:
- रोडोप्सिन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि कैसे सूक्ष्म शैवाल समुद्र की बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित कर अन्योन्य क्रिया करते हैं, जो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर समुद्र के गर्म होने के हानिकारक प्रभावों को कम करने में सहायता कर सकता है।
- यह ज्ञान उन पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकता है जो खाद्य स्रोत के रूप में सूक्ष्म शैवाल पर निर्भर हैं।
- जैव प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग:
- यीस्ट जैसे गैर-प्रकाश-निर्भर रोगाणुओं की गतिविधि को बढ़ाने के लिये जैव प्रौद्योगिकी में इसी तरह के तंत्र को नियोजित किया जा सकता है। यह इंसुलिन, एंटीबायोटिक्स, एंज़ाइम, एंटीवायरल और जैव ईंधन सहित विभिन्न जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के उत्पादन में मूल्यवान हो सकता है।
- वैश्विक कृषि:
- ये निष्कर्ष भूमि-आधारित कृषि के साथ भी समानता रखते हैं, जहाँ पोषक तत्त्वों की कम उपलब्धता से फसल की उपज कम हो सकती है।
- जिस प्रकार सूक्ष्म शैवाल बदलती परिस्थितियों के अनुकूलन हेतु रोडोप्सिन पर निर्भर होते हैं, उसी प्रकार जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने हेतु फसल की अनुकूलन क्षमता में वृद्धि करने के लिये नवीन रणनीतियों का पता लगाने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा एक आहार शृंखला का सही क्रम है? (2014) (a) डायटम-क्रस्टेशियाई-हेरिंग व्याख्या:
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सामाजिक न्याय
भारत में कैंसर के मामले और उपचार
प्रिलिम्स के लिये:सर्वाइकल कैंसर, जनसंख्या आधारित कैंसर रजिस्ट्रीज़ (PBCR), द लैंसेट, राष्ट्रीय रोग सूचना विज्ञान और अनुसंधान केंद्र, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) मेन्स के लिये:भारत में विभिन्न प्रकार के कैंसर के बढ़ते मामले और स्वास्थ्य क्षेत्र पर इसका प्रभाव |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में द लैंसेट रीजनल हेल्थ साउथ-ईस्ट एशिया में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि पूरे भारत में सर्वाइकल कैंसर के रोगियों के जीवित रहने की दर में महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय असमानताएँ मौजूद है।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष:
- उत्तरजीविता दर:
- भारत में वर्ष 2012 और 2015 के दौरान सर्वाइकल कैंसर के लगभग 52 प्रतिशत मरीज़ों का सफलतापूर्वक उपचार किया गया।
- सभी क्षेत्रों में भिन्नताएँ:
- अध्ययन में भाग लेने वालों में अहमदाबाद के शहरी PBCR ने सर्वाधिक 61.5% उत्तरजीविता दर प्रदर्शित की, इसके बाद तिरुवनंतपुरम में 58.8% और कोल्लम में 56.1% उत्तरजीविता दर दर्ज की गई। इसके विपरीत त्रिपुरा में न्यूनतम उत्तरजीविता दर (31.6%) दर्ज की गई।
- क्षेत्रीय असमानताओं में योगदान देने वाले कारक:
- अध्ययन में कहा गया है कि नैदानिक सेवाओं तक पहुँच, प्रभावी उपचार, नैदानिक देखभाल सुविधाओं से दूरी, यात्रा लागत, सह-रुग्णताएँ और गरीबी जैसे कारकों ने उत्तरजीविता दर को प्रभावित किया।
सर्वाइकल कैंसर:
- सर्वाइकल कैंसर अर्थात् गर्भाशय ग्रीवा कैंसर महिला के गर्भाशय ग्रीवा (योनि से गर्भाशय का प्रवेश द्वार) में होने वाला एक प्रकार का कैंसर है।
- सर्वाइकल कैंसर के लगभग सभी मामले (99 प्रतिशत) उच्च जोखिम वाले ह्यूमन पैपिलोमावायरस (HPV) के संक्रमण से जुड़े हैं, जो यौन संपर्क के माध्यम से फैलने वाला वायरस है।
- दो HPV प्रकार (16 और 18) लगभग 50 प्रतिशत उच्च श्रेणी के सर्वाइकल प्री-कैंसर के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- वैश्विक स्तर पर महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर चौथा सबसे सामान्य कैंसर है। वर्ष 2020 में विश्व में इसके लगभग 90 प्रतिशत नए मामले और मृत्यु निम्न तथा मध्यम आय वाले देशों में हुईं।
- व्यापक सर्वाइकल कैंसर के नियंत्रण में प्राथमिक रोकथाम (HPV टीकाकरण), माध्यमिक रोकथाम (कैंसर पूर्व घावों की जाँच और उपचार), तृतीयक रोकथाम (आक्रामक सर्वाइकल कैंसर का निदान व उपचार) तथा प्रशामक देखभाल शामिल हैं।
कैंसर के उपचार के दौरान स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के समक्ष चुनौतियाँ:
- कैंसर की विविधताएँ: कैंसर कोई एक बीमारी नहीं है बल्कि बीमारियों का एक समूह है जो असामान्य कोशिकाओं के अनियंत्रित विभाजन और वृद्धि की विशेषता है। कैंसर की विविधता इसके लिये एक सार्वभौमिक उपचार ढूँढना चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के उपचार के लिये एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता हो सकती है।
- विलंब से निदान: अधिकतर कैंसर के मामलों का निदान बीमारी के उन्नत अर्थात् अंतिम चरण में किया जाता है, जिससे पूर्ण इलाज की संभावना कम हो जाती है। रोग का शीघ्र पता लगाने के तरीके खोजना और सार्वजनिक जागरूकता इस दिशा में महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन कई क्षेत्रों में प्रायः इसकी कमी देखी जाती है।
- उपचार विषाक्तता: पारंपरिक कैंसर उपचार, जैसे; कीमोथेरेपी और विकिरण थेरेपी के गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जो रोगी के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं। कम दुष्प्रभावों के साथ लक्षित उपचार विकसित करना एक चुनौती है।
- उपचार के प्रति प्रतिरोध: कुछ कैंसर समय के साथ उपचार के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं, जिससे उपचार करना कठिन हो जाता है। प्रतिरोध पर काबू पाने के लिये रणनीति को विकसित करना एक प्रमुख चुनौती है।
- उपचार की लागत: कैंसर का उपचार अत्यधिक महँगा होता है और सभी मरीज़ इसे वहन भी नहीं कर सकते। कैंसर की दवाओं और उपचार की उच्च लागत कैंसर के उपचार में एक बहुत बड़ी बाधा है।
- देखभाल तक अभिगम का अभाव: कई क्षेत्रों, विशेष रूप से कम आय वाले देशों में कैंसर देखभाल सुविधाओं और विशेषज्ञों तक अभिगम का अभाव है। यह कैंसर के परिणामों में क्षेत्रीय असमानताओं में योगदान देता है।
- इसके अतिरिक्त कानून और योजनाओं के तहत अपने अधिकारों एवं दायित्वों को लेकर मरीज़ों में जागरूकता की कमी तथा स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिये अपर्याप्त प्रशिक्षण व क्षमता निर्माण से समस्याएँ बढ़ जाती हैं।
- विशिष्ट देखभाल की सीमित उपलब्धता: नवीनतम तकनीक एवं कुशल स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों से सुसज्जित विशिष्ट कैंसर देखभाल केंद्र केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित हैं जिससे ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्र वंचित रह जाते हैं।
- कलंक और भय: सांस्कृतिक और सामाजिक कलंक के कारण निदान एवं उपचार में देरी हो सकती है, क्योंकि मरीज़ डर, शर्म या गलत सूचना के कारण सहायता लेने से बचते हैं।
देश में कैंसर उपचार व देखभाल में क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के उपाय:
- जागरूकता और शिक्षा: कैंसर की रोकथाम, बीमारी के बारे में शीघ्र पता लगाने और उपलब्ध उपचारों के बारे में जन जागरूकता अभियान शुरू करना चाहिये। इन अभियानों को विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिये।
- निवारक उपाय: स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देना, तंबाकू के उपयोग को कम करना तथा नियमित जाँच और टीकाकरण (उदाहरण के लिये सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिये HPV वैक्सीन) के महत्त्व पर ज़ोर देना।
- प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल को सुदृढ़ बनाना: वंचित क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता और पहुँच में सुधार करना। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों का एक नेटवर्क विकसित करना जो संभावित कैंसर के मामलों की पहचान कर उन्हें संदर्भित कर सके।
- टेलीमेडिसिन: दूरदराज़ के क्षेत्रों में कैंसर परामर्श एवं शिक्षा प्रदान करने के लिये टेलीमेडिसिन और मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयों का उपयोग करना, इससे मरीज़ों को विशेषज्ञ की राय तथा मार्गदर्शन प्राप्त करने में सहायता मिल सकती है।
- सरकारी पहल: राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम जैसी सरकार प्रायोजित कैंसर देखभाल पहलों को लागू करना और वित्त पोषित करना। वंचित क्षेत्रों में कैंसर उपचार केंद्रों के निर्माण और उन्नयन के लिये संसाधन आवंटित करना।
- रियायती उपचार: सरकारी योजनाओं और बीमा कार्यक्रमों के माध्यम से, मुख्यतः आर्थिक रूप से वंचित रोगियों के लिये, कैंसर के उपचार हेतु सब्सिडी प्रदान करना।
- अनुसंधान और विकास: लागत प्रभावी उपचार एवं निदान विकसित करने के लिये कैंसर अनुसंधान और नवाचार में निवेश करना। सरकार, शिक्षा जगत और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित करना।
- सामुदायिक सहभागिता: जागरूकता अभियानों और सहायता सेवाओं में स्थानीय समुदायों एवं गैर सरकारी संगठनों को शामिल करना।
कैंसर के उपचार से संबंधित सरकारी पहल:
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (B) |
जैव विविधता और पर्यावरण
SDG शिखर सम्मेलन- 2023
प्रिलिम्स के लिये:SDG शिखर सम्मेलन- 2023, सतत् विकास लक्ष्य (SDG), अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा, ऋण स्वैप, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क। मेन्स के लिये:SDG शिखर सम्मेलन 2023, समावेशी विकास और इससे उत्पन्न मुद्दे। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में वैश्विक नेताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क में SDG शिखर सम्मेलन के दौरान सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने में धीमी प्रगति के बारे में आशंका व्यक्त की।
SDG शिखर सम्मेलन- 2023 की मुख्य विशेषताएँ:
- फंडिंग गैप को स्वीकार करना:
- वार्षिक SDG फंडिंग अंतर, जो महामारी से पहले 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था, अब बढ़कर अनुमानित 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है, जो SDG को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त निवेश की तत्काल आवश्यकता पर बल देता है।
- वित्त चुनौती से निपटना:
- अभिकर्त्ताओं ने वर्ष 2030 के एजेंडे को प्राप्त करने में अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा (AAAA) के महत्त्व पर बल दिया, जिसमें सतत् विकास के लिये सार्वजनिक और निजी, सभी वित्तीय प्रवाह के कुशल उपयोग पर बल दिया गया।
- उन्होंने SDG प्रोत्साहन के लिये संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रस्ताव को तेज़ी से लागू करने का आह्वान किया, ताकि फंडिंग में सालाना 500 अरब अमेरिकी डॉलर की उल्लेखनीय वृद्धि हो।
- AAAA सतत् विकास के वित्तपोषण का एक वैश्विक ढाँचा है। इसका उद्देश्य सतत् विकास के लिये वर्ष 2030 का एजेंडा और 17 SDG के कार्यान्वयन हेतु संसाधन जुटाना तथा आवश्यक वित्तपोषण प्रदान करने के तरीकों पर चर्चा करना एवं सहमत होना है।
- बहुपक्षीय कार्रवाइयाँ और ऋण स्वैप:
- SDG कार्यान्वयन को मज़बूत करने के लिये अभिकर्त्ताओं ने जलवायु और प्रकृति से संबंधित ऋण स्वैप सहित SDG हेतु ऋण स्वैप को बढ़ाने पर बल देते हुए सभी लेनदारों द्वारा बहुपक्षीय कार्यों एवं समन्वय का आग्रह किया।
- ऋण स्वैप, पर्यावरण और अन्य नीतिगत चुनौतियों से निपटने एवं हरित विकास का समर्थन करने के लिये कम आय वाले देशों में पूंजी जुटाने के अवसर प्रदान करती है।
- कोविड-19 का प्रभाव:
- इस सम्मेलन में स्वीकार किया गया कि कोविड-19 महामारी ने SDG पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, विशेष रूप से विश्व के सबसे निर्धन और कमज़ोर देशों में। इसने SDG को प्राप्त करने में प्रगति में तेज़ी लाने के लिये आपातकालीन पाठ्यक्रम सुधार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- जलवायु कार्रवाई और आपदा जोखिम न्यूनीकरण को एकीकृत करना:
- अभिकर्ताओं ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क को पूर्ण रूप से लागू करने की सिफारिश की और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों को तेज़ करने का संकल्प लिया।
- उन्होंने जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप, हानि और क्षति का जवाब देने के लिये नई वित्त व्यवस्था को क्रियान्वित करने के लिये भी प्रतिबद्धता जताई।
- वर्ष 2030 एजेंडा के प्रति प्रतिबद्धता:
- अभिकर्ताओं ने कार्यान्वयन के आधे चरण में SDG की स्थिति के बारे में गहन चिंता व्यक्त की, उन्होंने निर्धनता, जबरन स्थानांतरण, असमानताओं और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों जैसी चुनौतियों पर प्रकाश डाला।
- इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने एक स्थायी विश्व के लिये सभी के अधिकारों और कल्याण की रक्षा हेतु वर्ष 2030 एजेंडा तथा 17 SDG को पूरी तरह से लागू करने की सिफारिश की।
SDG में प्रगति से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?
- प्रगति और प्रतिबद्धता का अभाव:
- प्रतिबद्धताओं के बावजूद, 17 SDG सहित 169 लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में प्रगति केवल 15% है और इसमें कुछ क्षेत्र पिछड़ भी रहे हैं।
- फंडिंग की पर्याप्तता और पहुँच:
- हालाँकि चिंता की बात यह है कि प्रतिबद्धता अवधि के आधे पड़ाव पर (दूसरी छमाही में) आवश्यक प्रगति को लेकर विश्वास बहुत कम है।
- विकासशील देशों में SDG हासिल करने में निवेश का अंतर 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होने का अनुमान है जो पूर्व के अनुमानों से काफी अधिक है।
- यह विशाल वित्तीय आवश्यकता SDG को असंभव बना देती है, जिससे फंडिंग की पर्याप्तता और पहुँच पर सवाल खड़े हो जाते हैं।
- असंबद्धताएँ और बाधाएँ:
- SDG हस्तक्षेपों में पाँच असमानताओं की पहचान की गई है, जिनमें संसाधन आवंटन, सक्षम वातावरण का निर्माण, सह-लाभ, लागत-प्रभावशीलता और संतृप्ति सीमाएँ शामिल हैं।
- विभिन्न बाधाएँ सहक्रियात्मक कार्रवाई में बाधा डालती हैं, जैसे सूचनाओं तक पहुँच में अंतर, राजनीतिक और संस्थागत बाधाएँ एवं आर्थिक चुनौतियाँ।
- नीति कार्यान्वयन में चुनौतियाँ:
- एकीकरण और सटीक उद्देश्यों की कमी के कारण नीति कार्यान्वयन में विसंगतियाँ एवं गलत संरेखण कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं, विशेष रूप से नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों तथा छोटे पैमाने के अनुप्रयोगों को पूरा करने में।
- जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय प्रभाव:
- जलवायु परिवर्तन को एक महत्त्वपूर्ण चुनौती के रूप में पहचाना गया है, जिससे SDG लक्ष्यों की प्राप्ति को खतरा है। वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति हमारी संवेदनशीलता के विषय में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
आगे की राह
- जलवायु परिवर्तन और इसके पर्यावरणीय प्रभावों से निपटना एक प्राथमिकता होनी चाहिये, जिसके लिये समन्वित वैश्विक प्रयासों की आवश्यकता है।
- सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रगति के लिये राष्ट्रों के बीच बहुपक्षीय कार्यों और सहयोग को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
- अभिकर्त्ताओं को धारणीय विश्व हेतु सभी के अधिकारों और कल्याण की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए वर्ष 2030 एजेंडा के प्रति समर्पित रहना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. सतत् विकास को उस विकास के रूप में वर्णित किया जाता है जो भविष्य की पीढ़ियों की अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझौता किये बिना वर्तमान की ज़रूरतों को पूरा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में सतत् विकास की अवधारणा निम्नलिखित अवधारणाओं में से किसके साथ जुड़ी हुई है? (2010) (a) सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण उत्तर: (d) प्रश्न. हरित अर्थव्यवस्था पर कार्रवाई के लिये भागीदारी (पी.ए.जी.ई.), जो अपेक्षाकृत हरित एवं और अधिक समावेशी अर्थव्यवस्था की ओर देशों के संक्रमण में सहायता देने के लिये संयुक्त राष्ट्र की क्रियाविधि है, आविर्भूत हुई: (2018) (a) जोहान्सबर्ग में 2002 के संधारणीय विकास के पृथ्वी शिखर-सम्मेलन में उत्तर: (b) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
बहुपक्षीय विकास बैंकों के लिये प्रस्तावित सुधार
प्रिलिम्स के लिये:MDB, G20, विश्व बैंक समूह, एशियाई विकास बैंक, अफ्रीकी विकास बैंक, अंतर-अमेरिकी विकास बैंक, उभरते बाज़ार और विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ (EMDE), सतत् विकास लक्ष्य (SDG), एशियाई बुनियादी ढाँचा निवेश बैंक मेन्स के लिये:बहुपक्षीय विकास बैंक, भारत को समर्थन देने में MDB का योगदान, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में G20 विशेषज्ञ पैनल ने सिफारिश की है कि बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs) को अपने दृष्टिकोण को व्यक्तिगत परियोजनाओं के वित्तपोषण के बजाय राष्ट्रीय सरकारों द्वारा उल्लिखित क्षेत्र-विशिष्ट कार्यक्रमों और दीर्घकालिक परिवर्तनकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
बहुपक्षीय विकास बैंक:
- MDB अंतर्राष्ट्रीय संस्थान हैं जिनमें विकसित और विकासशील देश शामिल हैं।
- वे परिवहन, ऊर्जा, शहरी बुनियादी ढाँचे और अपशिष्ट प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में विभिन्न परियोजनाओं के लिये वित्तपोषण तथा तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं।
- विकसित देश MDB को ऋण देने में योगदान करते हैं, जबकि विकासशील देश आमतौर पर विकास परियोजनाओं के लिये उनसे उधार लेते हैं।
- MDB गरीबी में कमी, बुनियादी ढाँचे के विकास, मानव पूंजी निर्माण आदि जैसे मुद्दों को हल करके निम्न-आय और मध्यम-आय वाले देशों (LIC और MIC) दोनों के विकास का समर्थन करने में सहायक रहे हैं।
- MDB में विश्व बैंक समूह, एशियाई विकास बैंक, अफ्रीकी विकास बैंक, अंतर-अमेरिकी विकास बैंक आदि शामिल हैं।
विशेषज्ञों द्वारा MDB में सुधार के समर्थन का कारण:
- जलवायु संकट: G20 विशेषज्ञ पैनल का तर्क है कि जलवायु संकट के कारण वैश्विक चुनौतियों, विशेषकर उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) में MDB में सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
- दीर्घकालिक परिवर्तन: MDB को दीर्घकालिक परिवर्तनकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय सरकारों द्वारा पहचाने गए सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के साथ अपने संचालन को संरेखित करना चाहिये।
- निजी क्षेत्र की भागीदारी: निजी और संप्रभु वित्तपोषण के अपने पिछले विभाजन के विपरीत MDB संचालन के लिये व्यापक निजी क्षेत्र की भागीदारी पर अधिक ज़ोर दिया जाना चाहिये।
- समन्वय: MDB की सफलता विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय पर निर्भर करती है। सुधारों का लक्ष्य घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय, सार्वजनिक एवं निजी हितधारकों के बीच समन्वय सुनिश्चित करने में आने वाली बाधाओं को कम करना होना चाहिये।
- राष्ट्रीय भागीदारी: लक्ष्यों, नीतियों, निवेश और वित्तपोषण की एकीकृत दृष्टि को आकार देने में राष्ट्रीय सरकारों की अधिक प्रमुख भूमिका होनी चाहिये।
भारत में पारंपरिक रूप से MDB का ऋण:
- भारत के प्रति विश्व बैंक की प्रतिबद्धता:
- विश्व बैंक की स्थापना वर्ष 1944 में हुई थी। विश्व बैंक ने भारत को पूर्ण तथा मौजूदा दोनों परियोजनाओं के लिये अब तक लगभग 97.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया है।
- कुल आवंटित ऋण में से 19% सार्वजनिक प्रशासन क्षेत्र में परियोजनाओं के लिये 15% कृषि, मत्स्यपालन व वानिकी के लिये तथा 11% परिवहन क्षेत्र के लिये व्यय किया गया है।
- एशियाई विकास बैंक (ADB) की भागीदारी:
- एशियाई विकास बैंक फिलिपींस की राजधानी मनीला में स्थित है, जिसकी स्थापना वर्ष 1969 में हुई थी। ADB ने भारत को कुल 59.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर की परियोजना संबंधी एवं तकनीकी सहायता प्रदान की है।
- बैंक द्वारा प्रदत्त कुल सहायता में से 34% धनराशि परिवहन क्षेत्र के लिये, 25% ऊर्जा क्षेत्र के लिये, तथा 10% शहरी आधारभूत अवसंरचना के लिये आवंटित की गई है।
- एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) का योगदान:
- AIIB की स्थापना वर्ष 2016 में हुई जिसका मुख्यालय बीजिंग (चीन) में स्थित है। इसके द्वारा भारत को 9.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता प्रदान की गई है।
- इस राशि में से 42% परिवहन क्षेत्र के लिये, 14% ऊर्जा क्षेत्र हेतु तथा 12.6% आर्थिक विकास के लिये आवंटित किया गया है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न एशियाई आधारिक-संरचना निवेश बैंक [एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (AIIB)] के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019) AIIB के 80 से अधिक सदस्य राष्ट्र हैं। उपर्युत्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. भारत ने हाल ही में न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक (AIIB) का संस्थापक सदस्य बनने के लिये हस्ताक्षर किये हैं। इन दोनों बैंकों की भूमिका किस प्रकार भिन्न होगी? भारत के लिये इन दोनों बैंकों के रणनीतिक महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (2012) |
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष में भारत की मध्यस्थ की भूमिका
प्रिलिम्स के लिये:इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष में भारत की मध्यस्थ की भूमिका, इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष, महात्मा गांधी, शीत युद्ध, वेस्ट बैंक, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC) मेन्स के लिये:इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष में भारत की मध्यस्थ की भूमिका, भारत से जुड़े और/या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले समूह एवं समझौते, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत के कूटनीतिक रुख में पिछले कुछ वर्षों में कुछ परिवर्तन आया है, जो फिलिस्तीन के लिये इसके ऐतिहासिक समर्थन और इज़रायल के साथ इसके बढ़ते संबंधों के बीच एक संवेदनशील संतुलन को दर्शाता है।
इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत की नीति:
- पृष्ठभूमि:
- ऐतिहासिक रूप से देखें तो इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत फिलिस्तीन का समर्थक रहा है, यह रुख फिलिस्तीन में यहूदी राज्य के लिये महात्मा गांधी के विरोध, भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी और अरब देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की आवश्यकता जैसे कारकों से प्रेरित था।
- फिलिस्तीन के संबंध में भारत के रुख पर अरब देशों, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और संयुक्त राष्ट्र के बीच आम सहमति का प्रभाव था।
- जब फिलिस्तीन के विभाजन की योजना पर संयुक्त राष्ट्र में मतदान की चर्चा चल रही थी, तब भारत ने अरब देशों के साथ मिलकर इसके विरोध में मतदान किया था। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इज़रायल के प्रवेश का भी विरोध किया।
- भारत ने शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ का पक्ष लेते हुए अपना फिलिस्तीन समर्थक रुख बरकरार रखा, जिसने अरब राज्यों का समर्थन किया था।
- ऐतिहासिक रूप से देखें तो इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत फिलिस्तीन का समर्थक रहा है, यह रुख फिलिस्तीन में यहूदी राज्य के लिये महात्मा गांधी के विरोध, भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी और अरब देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की आवश्यकता जैसे कारकों से प्रेरित था।
- भारत की नीति में बदलाव:
- राजनयिक संबंधों की स्थापना: वर्ष 1992 में भारत ने एक बड़ा बदलाव चिह्नित करते हुए इज़रायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किये। इसके बावजूद भारत ने फिलिस्तीनी मुद्दे को लेकर समर्थन जारी रखा।
- शीत युद्ध की समाप्ति के बाद ही प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अरब देशों के साथ संभावित मतभेदों के बावजूद इज़रायल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने का साहसिक कदम उठाया।
- राष्ट्रीय हित में संतुलनवादी दृष्टिकोण: भारत के राजनयिक निर्णयों का मुख्य आधार राष्ट्रीय हित रहा है, जिसके लिये इज़रायल के साथ मज़बूत संबंध बनाए रखने, फिलिस्तीन का समर्थन करने तथा अरब देशों के साथ संबंध विकसित करने के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
- राजनयिक संबंधों की स्थापना: वर्ष 1992 में भारत ने एक बड़ा बदलाव चिह्नित करते हुए इज़रायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किये। इसके बावजूद भारत ने फिलिस्तीनी मुद्दे को लेकर समर्थन जारी रखा।
वर्तमान नीति और कूटनीति:
- राष्ट्रीय हित में इज़रायल के साथ संबंध:
- हालिया कुछ वर्षों में इज़रायल और भारत के संबंध काफी मज़बूत हुए हैं, जिसमें व्यापार, प्रौद्योगिकी, रक्षा और आतंकवाद रोधी सहयोग जैसे विभिन्न क्षेत्र शामिल हैं।
- इज़रायल के लिये भारत के समर्थन को सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ उसकी लड़ाई की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाता है, हालाँकि इज़रायल और भारत की स्थितियों में काफी भिन्नता है।
- फिलिस्तीन मुद्दे का समर्थन:
- इज़रायल के साथ संबंधों को मज़बूत करने के अतिरिक्त भारत ने फिलिस्तीन मुद्दे पर अपने समर्थन की पुष्टि की है।
- इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष के बीच भारत ने फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (UN Relief and Works Agency- UNRWA) को 29.53 मिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया गया है।
- भारत ने फिलिस्तीन के प्रभावित लोगों के लिये लगभग 6.5 टन चिकित्सा सहायता और 32 टन आपदा राहत सामग्री भी भेजी।
- इज़रायल के साथ संबंधों को मज़बूत करने के अतिरिक्त भारत ने फिलिस्तीन मुद्दे पर अपने समर्थन की पुष्टि की है।
- भारत द्वारा अपने रुख को संतुलित करना:
- वर्ष 2017 में भारतीय प्रधानमंत्री ने पहली बार इज़रायल का दौरा किया और वर्ष 2018 में उन्होंने पहली बार फिलिस्तीन की आधिकारिक यात्रा की।
- वर्ष 2017 में भारत ने एकतरफा ही पूरे यरूशलम को इज़रायल की राजधानी घोषित करने के प्रयास के लिये अमेरिका और इज़रायल के खिलाफ मतदान किया।
- भारत की नीति स्पष्ट है, वह आतंकवाद की निंदा करता है किंतु अंधाधुंध प्रतिशोधात्मक बमबारी का समर्थन नहीं करता है।
- भारत का आधिकारिक रुख:
- इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत के आधिकारिक रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है, भारत इज़रायल और फिलिस्तीन को अच्छे पड़ोसी देश के रूप में मानते हुए टू-स्टेट साॅल्यूशन (इसका अर्थ है दो समुदायों के लोगों के लिये दो राज्यों की स्थापना करना, यानी यहूदी लोगों के लिये इज़रायल और फिलिस्तीनी लोगों के लिये फिलिस्तीन) की वकालत कर रहा है।
- अमेरिका की मध्यस्थता के बाद ही वर्ष 1991 के मैड्रिड शांति सम्मेलन में इज़रायल-फिलिस्तीनी संघर्ष को हल करने के लिये टू-स्टेट साॅल्यूशन पर सहमति बनी थी।
- वर्ष 2018 में भारतीय प्रधानमंत्री की वेस्ट बैंक में रामल्ला की यात्रा इसका प्रमाण है।
- इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत के आधिकारिक रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है, भारत इज़रायल और फिलिस्तीन को अच्छे पड़ोसी देश के रूप में मानते हुए टू-स्टेट साॅल्यूशन (इसका अर्थ है दो समुदायों के लोगों के लिये दो राज्यों की स्थापना करना, यानी यहूदी लोगों के लिये इज़रायल और फिलिस्तीनी लोगों के लिये फिलिस्तीन) की वकालत कर रहा है।
इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष का भारत पर संभावित प्रभाव:
- इज़रायल के साथ रक्षा सौदे पर प्रभाव:
- रक्षा उपकरण खरीद और प्रौद्योगिकी सहयोग के रूप से भारत का इज़रायल के साथ महत्त्वपूर्ण रक्षा संबंध है। इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष के दौरान इस बात की संभावना है कि इज़रायल अपनी सुरक्षा ज़रूरतों को अधिक प्राथमिकता दे सकता है, जिसका इन दोनों के बीच संबंधों पर भी प्रभाव पड़ सकता है।
- इज़रायल भारत का सबसे अधिक सैन्य उपकरण आपूर्तिकर्त्ता है, दोनों देशों के बीच लगभग 2.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का सैन्य कारोबार होता है।
- ऊर्जा सुरक्षा:
- भारत कच्चे तेल के आयात के लिये मध्य पूर्व पर निर्भर है और इस क्षेत्र में कोई भी संघर्ष इनकी कीमतों तथा परिणामतः भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती है।
- चूँकि विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाएँ एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हैं, इसलिये अगर सऊदी अरब और ईरान जैसे देश इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच चल रहे संघर्ष में शामिल होते हैं तो निश्चित रूप से भारत की ऊर्जा आपूर्ति, अर्थव्यवस्था तथा निवेश पर इसका सीधा असर पड़ेगा।
- भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे पर प्रभाव:
- भारत ने हाल ही में एक महत्त्वाकांक्षी बुनियादी ढाँचा परियोजना के रूप में भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (IMEC) पर हस्ताक्षर किये, जिसका उद्देश्य शिपिंग और रेल नेटवर्क सहित विभिन्न परिवहन साधनों के माध्यम से भारत, मध्य-पूर्व तथा यूरोप को जोड़ना है।
- इस क्षेत्र में कसी भी प्रकार की अस्थिरता सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को जन्म दे सकती है, और IMEC के सुचारु संचालन को भी प्रभावित कर सकती है।
- इस संघर्ष में भारत के लिये रणनीतिक महत्त्व वाले क्षेत्र- मध्य-पूर्व की स्थिरता को प्रभावित करने की क्षमता है।
- संघर्ष बढ़ने तथा स्थिति के और खराब होने से इस क्षेत्र में भारत के हितों पर प्रभाव पड़ सकता है।
आगे की राह
- इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष की तीव्रता व गंभीरता को देखते हुए भारत टू-स्टेट साॅल्यूशन के आधार पर शांतिपूर्ण समाधान को बढ़ावा दे सकता है।
- भारत को अपने कूटनीतिक प्रयास जारी रखने के साथ ही अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का उपयोग करके इज़रायल और फिलिस्तीन दोनों को बातचीत के ज़रिये मुद्दे का समाधान निकालने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
- भारत को मध्यस्थता करने के प्रयास को जारी रखना चाहिये और साथ ही फिलिस्तीनी लोगों की तत्काल आवश्यकताओं को पूरा करने तथा संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में मानवीय सहायता प्रदान करनी चाहिये।
- आपसी समझ और विश्वास को बढ़ावा देने के लिये इज़रायल तथा फिलिस्तीनी नागरिक समाज समूहों, शिक्षाविदों एवं युवाओं के बीच संवाद को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. दक्षिण-पश्चिम एशिया का निम्नलिखित में से कौन-सा एक देश भूमध्यसागर तक नहीं फैला है? (2015) (a) सीरिया उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. ‘आवश्यकता से कम नगदी, अत्यधिक राजनीति ने यूनेस्को को जीवन- रक्षण की स्थिति में पहुँचा दिया है।’ अमेरिका द्वारा सदस्यता परित्याग करने और सांस्कृतिक संस्था पर ‘इज़रायल विरोधी पूर्वाग्रह’ होने का दोषारोपण करने के प्रकाश में इस कथन की विवेचना कीजिये।’ (2019) प्रश्न. “भारत के इज़रायल के साथ संबंधों ने हाल में एक ऐसी गहराई एवं विविधता प्राप्त कर ली है, जिसकी पुनर्वापसी नहीं की जा सकती है।” विवेचना कीजिये। (2018) |
भारतीय राजव्यवस्था
विशेष और स्थानीय कानूनों में सुधार
प्रिलिम्स के लिये:भारत के आपराधिक कानूनों में सुधार की आवश्यकता, भारतीय दंड संहिता (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), भारतीय साक्ष्य अधिनियम, आपराधिक न्याय प्रणाली, संज्ञेय अपराध मेन्स के लिये:भारत के आपराधिक कानूनों में सुधार की आवश्यकता, सरकारी नीतियों तथा विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप एवं उनके डिज़ाइन और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय दंड संहिता (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) में निहित वास्तविक आपराधिक कानून में सुधार के लिये कई विधेयक पेश किये गए हैं, किंतु विशेष और स्थानीय कानूनों (SLLs) पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है।
विशेष और स्थानीय कानून (SLL):
- परिचय:
- SLL विशेष रूप से किसी विशेष राज्य अथवा स्थानीय क्षेत्र के भीतर क्षेत्र-विशेष, सांस्कृतिक अथवा कानूनी मामलों के समाधान के लिये बनाए गए हैं।
- वे भारतीय दंड संहिता (IPC) में उल्लिखित सामान्य कानूनों तथा विनियमों से भिन्न हैं।
- यह उन आपराधिक गतिविधियों को सूचीबद्ध करता है जिन्हें राज्य सरकार विशेष मुद्दों के संबंध में तैयार करती है।
- महत्त्व:
- SLL भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अभिन्न हिस्सा है, इनमें सबसे मुख्य अपराधों तथा कार्यवाहियों को शामिल किया जाता है। वे भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में सार्थक भूमिका निभाते हैं।
- वर्ष 2021 में पंजीकृत सभी संज्ञेय अपराधों में से लगभग 39.9% SLL के अंतर्गत थे।
- संज्ञेय अपराधों में एक अधिकारी न्यायालय के वारंट की मांग किये बिना किसी संदिग्ध के मामले का संज्ञान ले सकता है तथा उसे गिरफ्तार कर सकता है, यदि उसके पास "विश्वास करने का कारण" है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है और संतुष्ट है कि कुछ निश्चित आधारों पर गिरफ्तारी आवश्यक है।
- गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अधिकारी को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत की पुष्टि करनी होगी।
भारत में विशेष और स्थानीय कानूनों में सुधार की आवश्यकता:
- अस्पष्ट परिभाषाएँ:
- कुछ SLL, जैसे कि गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967, अपराधों की अपर्याप्त और अस्पष्ट परिभाषाओं तथा 'आतंकवादी कृत्य,' 'गैर-कानूनी गतिविधि' एवं 'संगठित अपराध' जैसे शब्दों से ग्रस्त हैं।
- ये अस्पष्टताएँ कानून की उचित प्रक्रिया को प्रभावित करते हुए दुरुपयोग और गलत व्याख्या का कारण बन सकती हैं।
- कानूनी प्रक्रिया में परिवर्तनशीलता:
- SLL के परिणामस्वरूप व्यक्तियों या समूहों के लिये उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग व्यवहार हो सकता है, जिससे न्याय और कानूनी सुरक्षा तक पहुँच में असमानताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
- कानूनी स्थिरता की कमी व्यक्तियों और व्यवसायों के लिये अनिश्चितता उत्पन्न कर सकती है, जिससे कानूनी अधिकारों तथा दायित्वों को वहन करना कठिन हो जाता है।
- चिंतनशीलता की कमी:
- चिंतनशील विचारों की अनुपस्थिति अक्षमताओं और अनिश्चितताओं को जन्म दे सकती है।
- उदाहरण के लिये यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की नाबालिगों के बीच सहमति से यौन गतिविधियों पर लागू होने के कारण आलोचना की गई है, जिससे इस तरह के आचरण को अपराध घोषित करने के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने पी. मोहनराज बनाम मेसर्स शाह ब्रदर्स इस्पात लिमिटेड, 2021 के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act), 1881 की धारा 138 को 'आपराधिक भेड़िये' के भेष में 'सिविल भेड़' के रूप में संदर्भित किया।
- NI अधिनियम की धारा 138, धन की कमी के कारण चेक बाउंस होने के संबंध में आपराधिक प्रावधान प्रदान करती है।
- चिंतनशील विचारों की अनुपस्थिति अक्षमताओं और अनिश्चितताओं को जन्म दे सकती है।
- नियत प्रक्रिया को कमज़ोर करना:
- SLL ने उचित प्रक्रिया मूल्यों में गड़बड़ी की है, जिसका उदाहरण तलाशी और ज़ब्ती के दौरान बढ़ी हुई शक्तियाँ तथा पुलिस अधिकारियों द्वारा दर्ज किये गए बयानों की स्वीकार्यता है।
- यह अभियुक्तों के अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा नहीं करता है तथा निष्पक्षता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करता है।
- मज़बूत सुरक्षा उपायों की कमी कानूनी प्रक्रिया के संभावित दुरुपयोग का द्वार खोल सकती है, जिससे अभियुक्तों के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
- SLL में प्रतिबंधात्मक ज़मानती प्रावधान आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन करते हुए जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना देते हैं।
- उदाहरण के लिये: UAPA की धारा 43(D)(5) के तहत ज़मानत प्रावधान असाधारण रूप से कड़े हैं, जिससे UAPA के तहत आरोपियों के लिये ज़मानत प्राप्त करना लगभग असंभव हो जाता है।
निष्कर्ष:
- SLL जिन व्यवहारों को अवैध बनाते हैं उन्हें दंड संहिता में अलग अध्याय के रूप में एकीकृत किया जाना चाहिये। रिपोर्टिंग, गिरफ्तारी, जाँच, अभियोजन, परीक्षण, साक्ष्य और ज़मानत के लिये अलग-अलग प्रक्रियाओं वाले SLL को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) में शामिल किया जाना चाहिये या अपवाद के रूप में माना जाना चाहिये।
- वर्तमान सुधार प्रक्रिया का एक प्रमुख प्रतिबंध SLL घटकों का बहिष्कार है, जो इन कमियों को दूर करने के लिये सुधारों के दूसरे चरण की मांग करता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारत सरकार ने हाल ही में गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, (UAPA), 1967 और NIA अधिनियम में संशोधन करके आतंकवाद विरोधी कानूनों को सुदृढ़ किया है। मानवाधिकार संगठनों द्वारा UAPA के विरोध के दायरे और कारणों पर चर्चा करते हुए मौजूदा सुरक्षा माहौल के संदर्भ में परिवर्तनों का विश्लेषण कीजिये। (2019) |
सामाजिक न्याय
POSH अधिनियम, 2013 के तहत अधिकारियों की नियुक्ति
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, विशाखा दिशा-निर्देश, स्थानीय शिकायत समिति (LCC) मेन्स के लिये:भारत में महिला सुरक्षा से संबंधित पहल और उससे संबंधित मुद्दे। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के महिला एवं बाल विकास मंत्रालयों (MoWCD) को कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH अधिनियम) के तहत ज़िला अधिकारियों को नियुक्त करने का निर्देश दिया है ताकि कानून का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जा सके।
राज्यों को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश:
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की आवश्यकता:
- सर्वोच्च न्यायालय ने अनुभव किया कि महिलाओं को उनकी पहुँच से परे कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक कानून के तहत सुरक्षा मिली।
- न्यायालय ने पाया कि कई राज्यों ने इन सभी वर्षों में POSH अधिनियम के तहत ज़िला अधिकारियों को सूचित करने की ज़हमत नहीं उठाई। इसलिये उसने सभी राज्यों को POSH अधिनियम के तहत तुरंत ज़िला अधिकारियों की नियुक्ति करने का निर्देश दिया।
- POSH अधिनियम के तहत ज़िला अधिकारियों की भूमिका:
- POSH अधिनियम राज्यों को प्रत्येक ज़िले में एक अधिकारी नियुक्त करने का आदेश देता है जो अधिनियम के कार्यान्वयन में "महत्त्वपूर्ण" भूमिका निभाएगा।
- ज़िला अधिकारी 10 से कम श्रमिकों वाले छोटे प्रतिष्ठानों में कार्यरत महिलाओं या ऐसे मामलों में जहाँ हमलावर स्वयं नियोक्ता है, से शिकायतें प्राप्त करने के लिये स्थानीय शिकायत समितियों (LCC) का गठन करेगा।
- एक ज़िला अधिकारी की ज़िम्मेदारियों में ग्रामीण, आदिवासी और शहरी क्षेत्रों में अधिनियम के तहत नोडल अधिकारी की नियुक्ति करना भी शामिल था।
- नोडल व्यक्तियों की नियुक्ति:
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि प्रत्येक राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (MoWCD) को अपने प्रमुख सचिव के माध्यम से विभाग के भीतर एक 'नोडल व्यक्ति' की पहचान करने पर विचार करना चाहिये, जो PoSH अधिनियम के तहत समन्वय की निगरानी और सहायता करेगा।
- यह व्यक्ति इस अधिनियम और इसके कार्यान्वयन से संबंधित मामलों पर केंद्र सरकार के साथ समन्वय करने में भी सक्षम होगा।
- रिपोर्ट प्रस्तुत करने की समय सीमा:
- इसके अतिरिक्त प्रत्येक राज्य/केंद्र शासित प्रदेश सरकार को 8 सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार को निम्नलिखित निर्देशों के अनुपालन की एक समेकित रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी:
PoSH अधिनियम, 2013:
- परिचय:
- PoSH अधिनियम, कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा सामना किये जाने वाले यौन उत्पीड़न के मुद्दे को संबोधित करने के लिये वर्ष 2013 में भारत सरकार द्वारा अधिनियमित एक कानून है।
- इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के लिये एक सुरक्षित एवं अनुकूल कार्य वातावरण बनाने के साथ यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना है।
- PoSH अधिनियम, यौन उत्पीड़न को परिभाषित करता है जिसमें अवांछित कृत्यों जैसे शारीरिक संपर्क तथा यौन प्रगति, यौन संबंधों की मांग अथवा अनुरोध, यौन टिप्पणियाँ करना, अश्लील साहित्य दिखाना एवं यौन संबंध के किसी भी अन्य प्रकृति के अवांछित शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण को शामिल किया गया है।
- PoSH अधिनियम, कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा सामना किये जाने वाले यौन उत्पीड़न के मुद्दे को संबोधित करने के लिये वर्ष 2013 में भारत सरकार द्वारा अधिनियमित एक कानून है।
- पृष्ठभूमि:
- सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य 1997 मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय में 'विशाखा दिशा-निर्देश' दिये।
- इन दिशा-निर्देशों ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 का आधार बनाया।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 15 (केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के खिलाफ) सहित संविधान के कई प्रावधानों से अपनी शक्ति प्राप्त की, साथ ही प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों एवं मानदंडों जैसे कि सामान्य सिफारिशों से भी प्रेरणा ली। महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (CEDAW), जिसे भारत ने वर्ष 1993 में अनुमोदित किया था।
- प्रमुख प्रावधान:
- रोकथाम एवं निषेध: अधिनियम नियोक्ताओं पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने तथा प्रतिबंधित करने का कानूनी दायित्व रखता है।
- आंतरिक शिकायत समिति (ICC): यौन उत्पीड़न की शिकायतें प्राप्त करने तथा उनका समाधान करने के लिये नियोक्ताओं को 10 अथवा अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यस्थल पर एक ICC का गठन करना आवश्यक है।
- शिकायत समितियों के पास साक्ष्य एकत्रित करने के लिये सिविल न्यायालयों की शक्तियाँ हैं।
- नियोक्ताओं के कर्तव्य: नियोक्ताओं को जागरूकता कार्यक्रम चलाने चाहिये, एक सुरक्षित कामकाज़ी माहौल प्रदान करना चाहिये साथ भी कार्यस्थल पर POSH अधिनियम के बारे में जानकारी प्रदर्शित करनी चाहिये।
- ज़ुर्माना: अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन न करने पर ज़ुर्माना लगाया जा सकता है, जिसमें ज़ुर्माना एवं व्यापार लाइसेंस रद्द करना भी शामिल है।
आगे की राह:
- रोज़गार न्यायाधिकरण: कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम में आंतरिक शिकायत समिति (ICC) के बजाय रोज़गार न्यायाधिकरण की स्थापना का पालन किया जाना चाहिये।
- स्वयं की प्रक्रिया बनाने की शक्ति: शिकायतों का त्वरित निपटान सुनिश्चित करने के लिये यह प्रस्तावित करना आवश्यक है कि न्यायाधिकरण सिविल न्यायालय के रूप में कार्य न करे जबकि प्रत्येक शिकायत के निपटान के लिये स्वयं प्रक्रिया का चयन कर सकता है।
- अधिनियम के दायरे का विस्तार: घरेलू कामगारों को अधिनियम के दायरे में शामिल किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति वर्मा समिति के अनुसार किसी भी "अवांछनीय व्यवहार" को शिकायतकर्त्ता की व्यक्तिपरक धारणा से देखा जाना चाहिये, इस प्रकार यौन उत्पीड़न की परिभाषा का दायरा व्यापक हो जाएगा।
- नियोक्ता का दायित्व: न्यायमूर्ति वर्मा समिति ने कहा कि नियोक्ता को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिये यदि:
- उसने यौन उत्पीड़न को बढ़ावा दिया हो।
- ऐसे माहौल की अनुमति दी हो जहाँ यौन दुराचार व्यापक और व्यवस्थित हुआ हो।
- जहाँ नियोक्ता यौन उत्पीड़न पर कंपनी की नीति और श्रमिकों द्वारा शिकायत दर्ज करने के तरीकों का खुलासा करने में विफल रहता हो।
- वर्मा पैनल ने यह भी कहा कि शिकायत दर्ज करने की तीन महीने की समय-सीमा खत्म की जानी चाहिये और किसी शिकायतकर्त्ता को उसकी सहमति के बिना स्थानांतरित नहीं किया जाना चाहिये।
महिला सुरक्षा से संबंधित अन्य पहले:
- वन स्टॉप सेंटर योजना
- उज्जवला: तस्करी की रोकथाम तथा तस्करी एवं वाणिज्यिक यौन शोषण के पीड़ितों के बचाव, पुनर्वास और पुन:एकीकरण के लिये एक व्यापक योजना
- स्वधार गृह (कठिन परिस्थितियों में महिलाओं के लिये एक योजना)
- नारी शक्ति पुरस्कार
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: स्वाधार और स्वयं सिद्ध महिलाओं के विकास के लिये भारत सरकार द्वारा शुरू की गई दो योजनाएँ हैं। उनके बीच अंतर के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये : (2010)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) |