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डेली न्यूज़

  • 22 Jun, 2023
  • 58 min read
सामाजिक न्याय

वैश्विक रुझान: वर्ष 2022 में विस्थापन

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त, द्वितीय विश्व युद्ध, आंतरिक विस्थापन, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, यूक्रेन, शरणार्थी सम्मेलन 1951, संयुक्त राष्ट्र महासभा

मेन्स के लिये:

विश्व भर में विस्थापन के कारक, जबरन विस्थापन से निपटने हेतु समाधान

चर्चा में क्यों?  

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (Nations High Commissioner for Refugees- UNHCR) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में वर्ष 2022 में सामाजिक कारकों तथा जलवायु संकट के कारण बेघर व विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या में भारी वृद्धि देखी गई। 

  • वर्ष 2021 की तुलना में वर्ष 2022 में 21% की वृद्धि के साथ जबरन विस्थापित होने वाले लोगों की कुल संख्या 108.4 मिलियन के करीब पहुँच गई , जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं। 

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:  

  • जबरन विस्थापन पर UNHCR के आँकड़ों के अनुसार, उत्पीड़न, संघर्ष, हिंसा के कारण  होने वाली परेशानियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन तथा सार्वजनिक व्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं की वजह से  वर्ष 2022 में रिकॉर्ड 108.4 मिलियन लोगों, जिनमें लगभग 30% बच्चे थे, को अपने घरों को छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा।
    • जबरन विस्थापन का कारण आंतरिक अथवा बाह्य दोनों हो सकता है, यह इस पर निर्भर करता है कि विस्थापित लोग अपने मूल देश के भीतर ही रहते हैं अथवा सीमा पार कर जाते हैं।
    • इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 के अंतिम आँकड़ों की तुलना में वर्ष 2022 में विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या 19 मिलियन अधिक है।
      • वैश्विक स्तर पर विस्थापित हुए कुल 108.4 मिलियन लोगों में से 35.3 मिलियन शरणार्थी थे, जो सुरक्षा पाने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर गए थे।
  • विस्थापन के कारक:  
    • वर्ष 2022 में विस्थापन का मुख्य कारण यूक्रेन में फरवरी 2022 में शुरू हुआ वृहत पैमाने पर युद्ध था, यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सबसे तीव्र और सबसे बड़े विस्थापन संकटों में से था।
      • वर्ष 2022 के अंत तक कुल 11.6 मिलियन यूक्रेनी लोग विस्थापित हुए, जिनमें 5.9 मिलियन लोग अपने देश के भीतर और 5.7 मिलियन लोग पड़ोसी व अन्य देशों में चले गए।
    • विश्व भर में जारी और नए संघर्षों ने भी बड़ी संख्या में जबरन विस्थापन में योगदान दिया, जैसे- डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इथियोपिया और म्याँमार, इन दोनों देशों के 1 मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हुए।
    • संघर्ष और हिंसा के अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन एवं प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी भारी संख्या में विस्थापन हुए।
      • जलवायु आपदाओं के कारण वर्ष 2022 में आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या 32.6 मिलियन रही और करीब 8.7 मिलियन लोग वर्ष के अंत तक स्थायी रूप से विस्थापित हो गए।
      • वर्ष 2022 में सभी आंतरिक विस्थापनों में से आधे से अधिक (54%) आपदाओं के कारण हुए।
  • विपन्न/गरीब देशों में विस्थापन के कारण उत्पन्न समस्याएँ:  
    • विस्थापित होने वाली 90 फीसदी आबादी निम्न और मध्यम आय वाले देशों से थी, जिन पर सबसे अधिक बोझ पड़ा तथा  विस्थापित आबादी का 90% इन्हीं देशों से है।
    • इसके अतिरिक्त वर्ष 2022 में विश्व के 76% शरणार्थियों को इन गरीब देशों ने शरण दी, जो कि इन देशों की बड़ी ज़िम्मेदारी को रेखांकित करता है।
    • विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे बांग्लादेश, चाड, कांगो, इथियोपिया, रवांडा, दक्षिण सूडान, सूडान, युगांडा, तंज़ानिया और यमन जैसे देशों से आए वैश्विक शरणार्थी आबादी के 20% शरणार्थियों को अल्प विकसित देशों ने शरण दी।
  • राज्यविहीनता:  
    • राज्यविहीनता शरणार्थियों के सामने आने वाली कठिनाइयों को बढ़ा देती है जो उन्हें स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा तथा रोज़गार जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच से वंचित कर देती है।
    • अनुमान है कि वर्ष 2022 के अंत तक दुनिया भर में 4.4 मिलियन लोग राज्यविहीन या अनिर्धारित राष्ट्रीयता वाले थे जो कि वर्ष 2021 से 2% अधिक है।

जबरन विस्थापन के प्रभाव:

  • शरणार्थियों पर प्रभाव: 
    • आर्थिक कठिनाइयाँ: विस्थापन के कारण अनेक शरणार्थी अपनी आजीविका और आर्थिक स्थिरता की स्थिति को खो देते हैं। उन्हें अक्सर मेज़बान देशों में रोज़गार के अवसरों, शिक्षा और वित्तीय संसाधनों तक पहुँच में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
      • आर्थिक कठिनाइयों के परिणामस्वरूप गरीबी, आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं तक सीमित पहुँच और भेद्यता बढ़ सकती है।
    • शिक्षा में व्यवधान: शरणार्थी बच्चों और युवाओं के लिये शिक्षा तक पहुँच बाधित हो जाती है या पूरी तरह से अस्वीकार कर दी जाती है।
      • सीमित शैक्षिक अवसर उनके दीर्घकालिक विकास और बेहतर भविष्य की संभावनाओं में बाधा बन सकते हैं जिससे गरीबी एवं निर्भरता का चक्र बन सकता है।
    • आघात और भावनात्मक संकट: शरणार्थी अक्सर विस्थापन के दौरान दर्दनाक घटनाओं का सामना करते हैं जिसमें हिंसा, प्रियजनों की हानि तथा उनके घरों एवं समुदायों का विनाश शामिल है।
      • इससे गंभीर भावनात्मक संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है जिसमें पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD), चिंता और अवसाद आदि शामिल हैं।
    • शारीरिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ: विस्थापित शरणार्थियों को अनेक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जिनमें स्वास्थ्य देखभाल तक अपर्याप्त पहुँच, कुपोषण और अस्वच्छ स्थितियों का जोखिम शामिल है।
      • उचित स्वच्छता एवं स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की कमी के कारण  बीमारियाँ फैल सकती हैं जिससे उनकी सेहत भी प्रभावित हो सकती है।
    • सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियाँ: शरणार्थियों को अक्सर भाषा की बाधाओं, सांस्कृतिक मतभेदों और भेदभाव के कारण समाज में एकीकृत होने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
      • सामाजिक बहिष्कार और हाशियाकरण उनमें अलगाव की भावनाओं को बढ़ा सकता है तथा उनके जीवन के पुनर्निर्माण की क्षमता में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
  • मेज़बान समुदायों पर प्रभाव: 
    • संसाधनों और सेवाओं पर दबाव: शरणार्थियों की असमय आमद आवास, स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं, स्कूलों एवं सार्वजनिक सेवाओं सहित मेज़बान समुदायों के संसाधनों पर गंभीर  दबाव डाल सकती है।
      • शरणार्थियों की अधिक संख्या के कारण संसाधनों की मौजूदा मांग बढ़ सकती है जो बुनियादी ढाँचे पर दबाव डाल सकती है, जिससे संसाधनों की कमी तथा शरणार्थियों और मेज़बान समुदाय के सदस्यों दोनों के लिये संसाधनों तक पहुँच कम हो सकती है।
    • सामाजिक एकजुटता और सांस्कृतिक गतिशीलता पर प्रभाव: शरणार्थियों के आगमन से सामाजिक तनाव और मेज़बान समुदायों के भीतर सांस्कृतिक गतिशीलता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
      • भाषा, धर्म और रीति-रिवाज़ों में अंतर गलतफहमी और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
    • नौकरियों के लिये प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि: शरणार्थियों की उपस्थिति मेज़बान समुदायों में रोज़गार के अवसरों के लिये प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दे सकती है।
      • शरणार्थियों को नौकरियाँ देने या उनके द्वारा कम वेतन पर काम करने से मेज़बान समुदाय के सदस्यों में तनाव और द्वेष बढ़ सकता है।

जबरन विस्थापन से निपटने हेतु संभावित समाधान:

  • मानवीय सहायता: विस्थापित आबादी को भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छ पेयजल जैसी तत्काल मानवीय सहायता प्रदान करना आवश्यक है।
    • विस्थापित लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हों यह सुनिश्चित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, सरकारों तथा गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना चाहिये।
  • संघर्ष का समाधान और शांति स्थापना: जबरन विस्थापन के मूल कारणों को संबोधित करने के लिये संघर्षों को हल करने और शांति को बढ़ावा देने के प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
    • राजनयिक वार्ता, मध्यस्थता और शांति हेतु पहल से अंतर्निहित मुद्दों को हल करके भविष्य में  विस्थापन को रोकने में मदद मिल सकती है।
  • मानवाधिकारों का संरक्षण: विस्थापित व्यक्तियों के मानवाधिकारों को कायम रखना और उनकी रक्षा करना आवश्यक है। 
    • सरकारों को ऐसे कानून बनाने और लागू करने चाहिये जो विस्थापित लोगों के अधिकारों की रक्षा करें, इसमें उनकी सुरक्षा, सम्मान और बुनियादी सेवाओं तक पहुँच का अधिकार भी शामिल है।
  • स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना: विस्थापित आबादी को समायोजित करने और समर्थन करने के लिये मेज़बान समुदायों की क्षमता को मज़बूत करने से तनाव को कम करने एवं सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।
    • यह कार्य बुनियादी ढाँचे, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और आजीविका के अवसरों में निवेश के माध्यम से किया जा सकता है।
  • क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: जबरन विस्थापन के लिये अक्सर कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की समन्वित प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है।
    • विस्थापन की चुनौतियों से निपटने में ज़िम्मेदारियों, संसाधनों और विशेषज्ञता को साझा करने के लिये सरकारों, क्षेत्रीय निकायों तथा  मानवीय एजेंसियों के बीच सहयोग सुनिश्चित करना आवश्यक है।
    • इसमें एक ऐसे कानून का निर्माण करना  शामिल है जो विस्थापित लोगों के अधिकारों को मान्यता देता हो, उनकी सुरक्षा हेतु प्रक्रियाएँ और स्वैच्छिक वापसी, पुनर्वास तथा स्थानीय एकीकरण जैसे टिकाऊ समाधानों के लिये मार्ग प्रदान करता हो।

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त:  

  • संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) एक वैश्विक संगठन है जो संघर्ष और उत्पीड़न के कारण जबरन विस्थापित समुदायों को बचाने, उनके अधिकारों की रक्षा करने तथा बेहतर भविष्य के निर्माण के लिये समर्पित है।
  • इसकी स्थापना वर्ष 1950 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन लाखों लोगों की मदद के लिये संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा की गई थी, जो अपना घर छोड़कर भाग गए थे या लापता हो गए थे।
  • यह 1951 शरणार्थी कन्वेंशन और इसके 1967 प्रोटोकॉल द्वारा निर्देशित है एवं संरक्षक के रूप में कार्य करता है।
    • भारत 1951 शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 प्रोटोकॉल का पक्षकार नहीं है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

मेन्स: 

प्रश्न. "शरणार्थियों को उस देश में वापस नहीं लौटाया जाना चाहिये जहाँ उन्हें उत्पीड़न अथवा मानवाधिकारों के उल्लंघन का सामना करना पड़ेगा"। खुले समाज और लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाले राष्ट्र द्वारा नैतिक आयाम का उल्लंघन के संदर्भ में इस कथन का परीक्षण कीजिये। (2021)

प्रश्न. बड़ी परियोजनाओं के नियोजन के समय मानव बस्तियों का पुनर्वास महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक संघात है, जिस पर सदैव विवाद होता है। विकास की बड़ी परियोजनाओं के प्रस्ताव के समय इस संघात को कम करने के लिये सुझाए गए उपायों पर चर्चा कीजिये। (2016)

स्रोत: डाउन टू अर्थ  


सामाजिक न्याय

चिंता विकार

प्रिलिम्स के लिये:

चिंता या एंग्जायटी, चिंता विकार, मानसिक स्वास्थ्य

मेन्स के लिये:

भारत में मानसिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कलंक/स्टिग्मा निवारण

चर्चा में क्यों?

हाल के वर्षों में इस बात की समझ बढ़ रही है कि चिंता/एंग्जायटी विकार लोगों के दैनिक जीवन और समग्र कल्याण को प्रभावित करते हैं। ये व्यापक मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ आबादी के एक बड़े हिस्से में स्थायी तनाव एवं क्षीणता का कारण बन सकती हैं।

  • चिंता एक सामान्य भावना है जो स्थायी और विघटनकारी होने पर समस्याग्रस्त हो सकती है। ऐसे मामले चिंता विकार के लक्षण हो सकते हैं जिस पर ध्यान देने एवं उचित उपचार की आवश्यकता होती है।

चिंता/एंग्जायटी विकार:

  • परिचय: 
    • चिंता विकार मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों का एक समूह है जिसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में अत्यधिक और अतार्किक भय एवं चिंता शामिल होती है।
    • चिंता संबंधी विकार उम्र, लिंग, संस्कृति या पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं।
  • चिंता विकारों का ऐतिहासिक संदर्भ:  
    • 19वीं सदी के अंत तक चिंता विकारों को ऐतिहासिक रूप से मनः विकारों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया था। सिग्मंड फ्रायड ने चिंता लक्षणों को अवसाद से अलग करने हेतु "एंग्जायटी न्यूरोसिस" की अवधारणा प्रस्तुत की।
    • फ्रायड की मूल “एंग्जायटी न्यूरोसिस" की अवधारणा में फोबिया और पैनिक अटैक वाले लोग शामिल थे।
      • एंग्जायटी न्यूरोसिस को एंग्जायटी न्यूरोसिस (मुख्य रूप से चिंता के मनोवैज्ञानिक लक्षणों वाले लोग) एवं एंग्जायटी हिस्टीरिया (फोबिया और चिंता के शारीरिक लक्षणों वाले लोग) में वर्गीकृत किया गया है।
  • प्रचलन: 
    • भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में न्यूरोसिस और तनाव संबंधी विकार 3.5% आबादी को प्रभावित करते हैं।
      • ये विकार आमतौर पर महिलाओं में अधिक देखे जाते हैं तथा प्राथमिक देखभाल में अक्सर इन्हें अनदेखा कर दिया जाता है या गलत निदान किया जाता है। चिंता विकारों की शुरुआत के लिये बचपन, किशोरावस्था और प्रारंभिक वयस्कता को उच्च जोखिम वाली अवधि माना जाता है।
  • सामान्य चिंता विकारों की नैदानिक विशेषताएँ:
    • सामान्यीकृत चिंता विकार (GAD):  
      • छह महीने से अधिक समय तक चलने वाली अत्यधिक चिंता विशिष्ट परिस्थितियों तक ही सीमित नहीं है। यह सामान्यतः शारीरिक परेशानी एवं लक्षणों के साथ देखी जाती है। 
    • घबराहट की समस्या:  
      • आवर्ती, अप्रत्याशित घबराहट की समस्या विशेष रूप से तीव्र शारीरिक लक्षण और विनाशकारी परिणामों का भय।
    • सामाजिक चिंता विकार: 
      • दूसरों द्वारा नकारात्मक मूल्यांकन का अत्यधिक भय जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक स्थितियों और गंभीर संकट से बचा जा सकता है।
    • पृथक्करण चिंता विकार:
      • संभावित हानि के बारे में अत्यधिक चिंता के साथ-साथ किसी विशेष वस्तु से अलग होने का भय और परेशानी।
    • विशिष्ट फोबिया:  
      • विशिष्ट वस्तुओं, पशुओं या स्थितियों का अतार्किक भय।
  • चिंता विकारों का कारण:
    • आनुवंशिकी:  
      • जिन परिवारों के लोगों में चिंता के लक्षण पहले देखे गए हैं उनमें चिंता विकारों की अधिक संभावना देखी जा सकती है जो आनुवंशिक प्रवृत्ति दर्शाता है।
    • मस्तिष्क संरचना:  
      • न्यूरोट्रांसमीटर में असंतुलन, जो स्वभाव और भावनाओं को विनियमित करने के लिये ज़िम्मेदार है चिंता विकारों में भूमिका निभा सकता है।
    • व्यक्तिगत विशेषता:  
      • कुछ व्यक्तित्व लक्षण, जैसे- शर्मीला होना, आदर्शवादी या तनावग्रस्त होना, व्यक्तियों को चिंता विकार विकसित होने के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकता है।
    • जीवन की घटनाएँ:
      • दुर्व्यवहार, हिंसा, हानि या बीमारी जैसे दर्दनाक या तनावपूर्ण अनुभव, चिंता विकारों को ट्रिगर या बढ़ा सकते हैं। इसके विपरीत यहाँ तक कि शादी, बच्चे का जन्म या नया काम शुरू करने जैसी सकारात्मक जीवन की घटनाएँ भी कुछ व्यक्तियों में चिंता पैदा कर सकती हैं। 
    • चिकित्सा दशाएँ:
      • मधुमेह, हृदय रोग, थायरॉइड की समस्याएँ या हार्मोनल असंतुलन सहित अंतर्निहित शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएँ, चिंता के लक्षणों की शुरुआत या अभिव्यक्ति में योगदान कर सकती हैं।
  • चिंता विकारों का इलाज:
    • उपचार का निर्णय लक्षणों की गंभीरता, दृढ़ता और प्रभाव के साथ-साथ रोगी की प्राथमिकताओं पर आधारित होता है।
    • साक्ष्य-आधारित हस्तक्षेपों में चयनात्मक सेरोटोनिन रीपटेक इनहिबिटर (SSRI) और संज्ञानात्मक-व्यवहार थेरेपी (CBT) शामिल हैं।
    • अवसाद के लिये अलग से विचार और विशिष्ट उपचार की आवश्यकता होती है।
    • उपचार आम तौर पर लक्षण कम होने के बाद 9-12 महीनों तक जारी रहता है, जिसे धीरे-धीरे सिफारिश के अनुसार समाप्त कर दिया जाता है।

मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने हेतु भारत सरकार की पहल: 

  • राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP): बड़ी संख्या में मानसिक विकारों और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी को देखते हुए  सरकार द्वारा वर्ष 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP) को अपनाया गया था।
    • प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल स्तर पर सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने के लिये ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMHP), 1996 भी शुरू किया गया था।
  • मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम: मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के हिस्से के रूप में प्रत्येक प्रभावित व्यक्ति को सरकारी संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और उपचार तक पहुँच प्राप्त है।
    • इससे IPC की धारा 309 का महत्त्व काफी कम हो गया है और आत्महत्या का प्रयास केवल अपवाद के रूप में दंडनीय है।
  • किरण हेल्पलाइन:
    •  वर्ष 2020 में, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिये 24/7 टोल-फ्री हेल्पलाइन 'किरण' की शुरुआत की।
  • मनोदर्पण पहल:
    • इसका उद्देश्य कोविड-19 महामारी के दौरान छात्रों, शिक्षकों और परिवार के सदस्यों को मनो-सामाजिक सहायता प्रदान करना है।
  • मानस मोबाइल एप:

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न.  इस उद्धरण का आपके विचार में क्या अभिप्राय है- "हम बाहरी दुनिया में तब तक शांति प्राप्त नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने भीतर शांति प्राप्त नहीं कर लेते।" -दलाई लामा (2021)

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023: WEF

प्रिलिम्स के लिये:

ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023, WEF, ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स, लैंगिक समानता, स्थानीय शासन

मेन्स के लिये:

ग्लोबल जेंडर गैप/सार्वभौमिक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2023, विभिन्न क्षेत्रों में लैंगिक असमानता के मुद्दे

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में विश्व आर्थिक मंच द्वारा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट का 17वाँ संस्करण- ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023 जारी की गई है, जिसमें 146 देशों में लैंगिक समानता की स्थिति का मूल्यांकन किया गया है।

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स/सूचकांक: 

  • परिचय: 
    • यह चार प्रमुख आयामों में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति पर देशों का मूल्यांकन करता है।
      • आर्थिक भागीदारी और अवसर
      • शिक्षा का अवसर
      • स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता
      • राजनीतिक सशक्तीकरण
      • चार उप-सूचकांकों में से प्रत्येक पर और साथ ही समग्र सूचकांक पर GGG सूचकांक 0 और 1 के बीच स्कोर प्रदान करता है, जहाँ 1 पूर्ण लैंगिक समानता को दर्शाता है और 0 पूर्ण असमानता की स्थिति का सूचक है।
      • यह सबसे लंबे समय तक चलने वाला सूचकांक है, जो वर्ष 2006 में स्थापना के बाद से समय के साथ लैंगिक अंतरालों को समाप्त करने की दिशा में हुई प्रगति को ट्रैक करता है। 
  • उद्देश्य: 
    • स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर महिलाओं व पुरुषों के बीच सापेक्ष अंतराल पर प्रगति को ट्रैक करने के लिये दिशासूचक के रूप में कार्य करना।
    • इस वार्षिक मानदंड के माध्यम से प्रत्येक देश के हितधारक विशिष्ट आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ में प्रासंगिक प्राथमिकताएँ निर्धारित करने में सक्षम होते हैं।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु: 

  • ग्लोबल जेंडर गैप स्कोर/अंक:  
    • वर्ष 2023 में ग्लोबल जेंडर गैप स्कोर 68.4% है, इसमें  पिछले वर्ष की तुलना में 0.3% का मामूली सुधार हुआ है।
    • प्रगति की वर्तमान दर पर पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने में 131 वर्ष लगेंगे, जो यह दर्शाता है कि परिवर्तन की समग्र दर काफी धीमी है।
  • शीर्ष रैंकिंग वाले देश: 
    • 91.2% के लैंगिक अंतर/जेंडर गैप स्कोर के साथ आइसलैंड ने लगातार 14वें वर्ष सबसे अधिक लैंगिक समता वाले देश के रूप में अपनी स्थिति बरकरार रखी है।
      • यह एकमात्र ऐसा देश है जो लैंगिक अंतर को 90% से अधिक कम करने में  सफल हुआ है।
    • आइसलैंड के बाद तीन नॉर्डिक देश- नॉर्वे (87.9%), फिनलैंड (86.3%) और स्वीडन (81.5%) का स्थान है, यह इन देशों की लैंगिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करता है।
  • स्वास्थ्य और उत्तरजीविता:
    • विश्व स्तर पर स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में लैंगिक अंतर 96% कम हो गया है।
  • राजनीतिक सशक्तीकरण:  
    • राजनीतिक सशक्तीकरण में लैंगिक अंतर को समाप्त करने में 162 वर्ष लगेंगे, जिसकी वर्तमान में विश्व भर में समापन दर 22.1% है।
  • शैक्षणिक उपलब्धि:  
    • शैक्षिक उपलब्धि में वर्ष 2006-2023 की अवधि में महत्त्वपूर्ण प्रगति के साथ लैंगिक अंतर 95.2% कम हो गया है।
    • शैक्षणिक उपलब्धि में लैंगिक अंतर 16 वर्षों में कम होने का अनुमान है।
  • आर्थिक भागीदारी और अवसर:  
    • वैश्विक स्तर पर आर्थिक भागीदारी और अवसर में लैंगिक अंतर 60.1% है, यह आँकड़ा कार्यबल में लैंगिक समानता हासिल करने में स्थायी चुनौतियों को उजागर करता है।
    • आर्थिक भागीदारी और अवसर में लैंगिक अंतर 169 वर्षों में कम होने का अनुमान है।

जेंडर गैप रिपोर्ट 2023 में भारत का प्रदर्शन: 

  • भारत का रैंक: 
    • भारत ने महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, रिपोर्ट के 2023 संस्करण में भारत 146 देशों में 135वें (2022 में) से 127वें स्थान पर पहुँच गया है, जो इसकी रैंकिंग में सुधार का संकेत देता है।
      • भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान 142वें, बांग्लादेश 59वें, चीन 107वें, नेपाल 116वें, श्रीलंका 115वें और भूटान 103वें स्थान पर हैं।
    • पिछले संस्करण के बाद से देश में 1.4 प्रतिशत अंक और आठ स्थान का सुधार हुआ है जो कि वर्ष 2020 के समता स्तर की ओर आंशिक सुधार को दर्शाता है।
      • भारत ने समग्र लैंगिक अंतर को 64.3% कम कर दिया है।
  • शिक्षा में लैंगिक समानता: 
    • भारत ने शिक्षा के सभी स्तरों पर नामांकन में लैंगिक समानता हासिल कर ली है जो देश की शिक्षा प्रणाली में सकारात्मक विकास को दर्शाता है।
  • आर्थिक भागीदारी और अवसर:
    • आर्थिक भागीदारी और अवसर के क्षेत्र में प्रगति भारत के लिये एक चुनौती बनी हुई है। इस क्षेत्र में केवल 36.7% लैंगिक समानता हासिल की गई है।
    • जबकि वेतन और आय समानता में वृद्धि हुई है। वरिष्ठ या उच्च पदों एवं  तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में मामूली गिरावट आई है।
  • राजनीतिक सशक्तीकरण:
    • भारत ने राजनीतिक सशक्तीकरण में प्रगति की है तथा इस क्षेत्र में 25.3% समानता हासिल की है। संसद में कुल सांसदों की तुलना में महिला सांसद प्रतिनिधित्व 15.1%  है जो वर्ष 2006 में प्रारंभिक रिपोर्ट के बाद से सबसे अधिक है।
    • बोलीविया (50.4%), भारत (44.4%) और फ्राँस (42.3%) सहित 18 देशों ने स्थानीय शासन में 40% से अधिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया है।
  • स्वास्थ्य और उत्तरजीविता: 
    • एक दशक से अधिक की धीमी प्रगति के बाद भारत में जन्म के समय लिंगानुपात में 1.9% अंक का सुधार हुआ है।
    • हालाँकि वियतनाम, चीन और अज़रबैजान के साथ-साथ भारत का स्कोर अभी भी विषम लिंगानुपात के कारण स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता उप-सूचकांक में अपेक्षाकृत कम है।

सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक जीवन में लैंगिक अंतर को कम करने हेतु भारतीय पहल:

  • आर्थिक भागीदारी और स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता: 
    • बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ: यह बालिकाओं की सुरक्षा, उत्तरजीविता और शिक्षा सुनिश्चित करता है।
    • महिला शक्ति केंद्र: इसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं को कौशल विकास एवं रोज़गार के अवसरों के साथ सशक्त बनाना है। 
    • महिला पुलिस वालंटियर्स: इसमें राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में महिला पुलिस वालंटियर्स की भागीदारी की परिकल्पना की गई है जो पुलिस और समुदाय के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करते ती हैं तथा संकट में महिलाओं की सहायता करतेती हैं।
    • राष्ट्रीय महिला कोष: यह एक शीर्ष सूक्ष्म-वित्त संगठन है जो गरीब महिलाओं को विभिन्न आजीविका और आय सृजन गतिविधियों के लिये रियायती शर्तों पर सूक्ष्म ऋण प्रदान करता है।
    • सुकन्या समृद्धि योजना: इस योजना के तहत लड़कियों के बैंक खाते खुलवाकर उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाया गया है।
    • महिला उद्यमिता: महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये सरकार ने स्टैंड-अप इंडिया और महिला ई-हाट (महिला उद्यमियों/SHG/NGO को समर्थन देने हेतु ऑनलाइन मार्केटिंग प्लेटफॉर्म), उद्यमिता तथा कौशल विकास कार्यक्रम (ESSDP) जैसे कार्यक्रम शुरू किये हैं।
    • कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय: इन्हें शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों (EBB) में खोला गया है।
  • राजनीतिक आरक्षण: सरकार ने महिलाओं के लिये पंचायती राज संस्थाओं में 33% सीटें आरक्षित की हैं।
    • निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का क्षमता निर्माण: इसके तहत यह महिलाओं को शासन प्रक्रियाओं में प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिये सशक्त बनायाने की दृष्टि से आयोजित किया जाता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा विश्व के देशों के लिये 'सार्वभौमिक लैंगिक अंतराल सूचकांक' का श्रेणीकरण प्रदान करता है? (2017)

(a) विश्व आर्थिक मंच
(b) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
(c) संयुक्त राष्ट्र महिला
(d) विश्व स्वास्थ्य संगठन

उत्तर: (a) 

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

एयरलाइंस की ग्रीनवॉशिंग और कार्बन प्रदूषण में योगदान

प्रिलिम्स के लिये:

ग्रीनवॉशिंग, कार्बन प्रदूषण में एयरलाइंस का योगदान, जलवायु परिवर्तन, GHG, पेरिस समझौता, SAF

मेन्स के लिये:

एयरलाइंस की ग्रीनवॉशिंग और कार्बन प्रदूषण में योगदान संबंधी चिंता

चर्चा में क्यों?

अमेरिका में डेल्टा एयरलाइंस के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया गया है, जिसमें कंपनी पर अपने धारणीय प्रयासों और "हरित" एवं कार्बन-तटस्थ एयरलाइन होने के संदर्भ में झूठे व भ्रामक दावे करके ग्रीनवॉशिंग में शामिल होने का आरोप लगाया गया है।

  • एयरलाइन ने मार्च 2020 से कार्बन तटस्थ होने का दावा किया और यात्री उड़ानों/जहाज़ों से कार्बन उत्सर्जन की भरपाई करने की पेशकश की।
  • हालाँकि मीडिया रिपोर्टों और जाँचों ने डेल्टा की कार्बन उत्सर्जन कम करने की प्रक्रिया में खामियों और अशुद्धियों को उजागर किया है।

ग्रीनवॉशिंग: 

  • ग्रीनवॉशिंग शब्द का प्रयोग पहली बार वर्ष 1986 में एक अमेरिकी पर्यावरणविद् और शोधकर्त्ता जे वेस्टरवेल्ड द्वारा किया गया था।
  • ग्रीनवॉशिंग कंपनियों और सरकारों की गतिविधियों की एक विस्तृत शृंखला को पर्यावरण के अनुकूल के रूप में चित्रित करने का एक अभ्यास है, जिसके परिणामस्वरूप उत्सर्जन से बचा या इसे कम किया जा सकता है।
    • इनमें से कई दावे असत्यापित, भ्रामक या संदिग्ध होते हैं।
    • हालाँकि यह संस्था की छवि को बेहतर बनाने में मदद करता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में किसी प्रकार का विशेष सहयोग नहीं करता है।
    • शेल और BP जैसे तेल दिग्गजों तथा कोका कोला सहित कई बहुराष्ट्रीय निगमों को ग्रीनवॉशिंग के आरोपों का सामना करना पड़ा है। 
  • पर्यावरणीय गतिविधियों की एक पूरी शृंखला में ग्रीनवॉशिंग सामान्य बात है।
    • अक्सर विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों में वित्तीय प्रवाह के जलवायु सह-लाभों का सहारा लिया जाता है, जो कि कभी-कभी बहुत कम तर्कसंगत होते हैं, इन विकसित देशों के इस प्रकार के व्यवसाय निवेशों पर ग्रीनवॉशिंग का आरोप लगता रहता है। 
  • भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत ग्रीनवॉशिंग को एक अनुचित व्यापार विधि माना जाता है, जो भ्रामक दावों पर रोक लगाता है लेकिन इन नियमों का कार्यान्वयन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।

कार्बन प्रदूषण में एयरलाइंस से संबंधित चिंताएँ: 

  • प्रमुख एयरलाइंस ग्रीनवॉशिंग में शामिल:
    • गार्जियन जाँच और ग्रीनपीस रिपोर्ट के अध्ययन से प्रमुख एयरलाइंस के कार्बन ऑफसेट प्रणाली में खामियाँ और धोखाधड़ी का पता चला है जिससे कार्बन उद्योगों की तटस्थता के दावे पर संदेह उत्पन्न हो गया है।
      • KLM (नीदरलैंड स्थित एयरलाइन) और रयान एयर (यूरोप), एयर कनाडा तथा स्विस एयरलाइंस सहित अन्य एयरलाइंस को पर्यावरण के अनुकूल होने के दावों के साथ ग्रीनवॉशिंग एवं ग्राहकों को गुमराह करने के आरोपों का सामना करना पड़ा है।
    • ये निष्कर्ष इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन की वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य प्रतिज्ञा की विश्वसनीयता के बारे में चिंताएँ बढ़ाते हैं जिसकी विशेषज्ञों ने ग्रीनवाशिंग अधिनियम के रूप में आलोचना की है।
  • कार्बन प्रदूषण में एयरलाइंस का महत्त्वपूर्ण योगदान:
    • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, वर्ष 2021 में वैश्विक ऊर्जा से संबंधित CO2 उत्सर्जन में विमानन का हिस्सा 2% से अधिक था।
    • एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक विमानन उत्सर्जन 300-700% तक बढ़ सकता है।
      • मुंबई से लॉस एंजिल्स की एक यात्रा में 4.8 टन CO2 उत्पन्न होती है (6,00,000 स्मार्टफोन चार्ज करने के बराबर)।
  • ऑफसेट प्रणाली में ब्लाइंड स्पॉट:
    • कार्बन ऑफसेट की गणना के लिये सार्वभौमिक रूप से मान्यता प्राप्त मानकों और ट्रैकिंग तंत्र की कमी है जिससे उत्सर्जन में कमी सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है जो अन्यथा नहीं होता।
    • प्रमाणन संगठन कार्बन क्रेडिट के खरीदारों एवं विक्रेताओं को मिलाने में भूमिका निभाते हैं लेकिन भ्रामक परियोजनाओं और फैंटम क्रेडिट की अनुमति देने के लिये निरीक्षण एवं सत्यापन प्रक्रियाओं की आलोचना की गई है।

कार्बन क्रेडिट:

  • कार्बन क्रेडिट (कार्बन ऑफसेट) कंपनियों को तब प्राप्त होता है जब वे पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा दक्षता या नवीकरणीय ऊर्जा जैसी ऑफसेट परियोजनाओं में निवेश करते हैं जो वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करते हैं या हटाते हैं।
  • ये क्रेडिट कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे इन पहलों के माध्यम से वायुमंडल से हटा दिया गया हो। 
  • प्रत्येक क्रेडिट एक मीट्रिक टन CO2 के बराबर है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है।
  • कंपनियाँ इन क्रेडिट का उपयोग हवाई जहाज़ यात्रा जैसे एक क्षेत्र में अपने कार्बन उत्सर्जन को ऑफसेट करने के लिये करती हैं, यह दावा करके कि वे कहीं और जैसे कि दूर के वर्षावनों में उत्सर्जन को कम कर रहे हैं।
    • वर्ष 2023 में मॉर्गन स्टेनली की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वैच्छिक कार्बन-ऑफसेट बाज़ार के वर्ष 2020 के 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2050 तक लगभग 250 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है।

ग्रीनवॉशिंग कार्बन क्रेडिट को कैसे प्रभावित करती है?

  • अनौपचारिक बाज़ार:
    • सभी प्रकार की गतिविधियों के लिये क्रेडिट उपलब्ध हैं जैसे- पेड़ उगाने, एक निश्चित प्रकार की फसल उगाने, कार्यालय भवनों में ऊर्जा-कुशल उपकरण स्थापित करने के लिये।
      • ऐसी गतिविधियों के क्रेडिट अक्सर अनौपचारिक तृतीय-पक्ष कंपनियों द्वारा प्रमाणित किये जाते हैं और दूसरों को बेचे जाते हैं।
      • ऐसे लेन-देन को सत्यनिष्ठा की कमी और दोहरी गिनती के रूप में चिह्नित किया गया है।
  • विश्वसनीयता:
    • भारत या ब्राज़ील जैसे देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के तहत भारी मात्रा में कार्बन क्रेडिट जमा किया था और वे चाहते थे कि इन्हें पेरिस समझौते के तहत स्थापित किये जा रहे नए बाज़ार में स्थानांतरित किया जाए।
      • लेकिन कई विकसित देशों ने इसका विरोध किया, क्रेडिट की अखंडता पर सवाल उठाया और दावा किया कि वे उत्सर्जन में कटौती का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
  • पारदर्शिता की कमी का कारण:
    • ग्रीनवॉशिंग से कार्बन ऑफसेट बाज़ार में पारदर्शिता की कमी हो सकती है।
    • कंपनियाँ उन परियोजनाओं के बारे में सीमित जानकारी प्रदान कर सकती हैं जिनका वे समर्थन करती हैं, जिससे उनके दावों को सत्यापित करना और वास्तविक पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना मुश्किल हो जाता है।
    • पारदर्शिता की यह कमी कार्बन क्रेडिट प्रणाली की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है।
  • वास्तविक उत्सर्जन कटौती से विचलन:  
    • ग्रीनवॉशिंग प्रथाएँ कार्बन उत्सर्जन को कम करने के वास्तविक प्रयासों से ध्यान भटका सकती हैं।
    • ऐसी कंपनियाँ जो अपने उत्सर्जन को कम करना चाहती हैं लेकिन परिचालन संबंधी बड़े बदलाव नहीं करना चाहती हैं अथवा अधिक पर्यावरण अनुकूल प्रथाओं को अपनाना नहीं चाहती हैं, वे सिर्फ कार्बन क्रेडिट पर निर्भर रहने में भरोसा करती हैं।
    • यह वास्तविक उत्सर्जन कटौती और निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की दिशा में प्रगति को बाधित कर सकता है। 

आगे की राह 

  • कार्बन ऑफसेटिंग की जटिल प्रकृति और प्रभावी मानकों पर आम सहमति की कमी नियमों को लागू करने में चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है। इसलिये कार्बन ऑफसेट कार्यक्रमों के बेहतर विनियमन, पारदर्शिता और समझ की आवश्यकता है।
  • इन विकल्पों के सामने आने वाली बाधाओं के बावजूद सतत् विमानन ईंधन, हाइड्रोजन और पूर्ण-इलेक्ट्रिक प्रणोदन तकनीकों के माध्यम से वाणिज्यिक विमानन को डीकार्बोनीकृत करने की ओर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • पर्यावरणीय धारणीयता की ओर बढ़ते हुए विमानन के कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिये बेहतर विनियमन, जाँच प्रणाली और अधिक प्रभावशाली रणनीतियाँ विकसित करने की आवश्यकता है। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा "कार्बन क्रेडिट" के संबंध में सही नहीं है? (2011)

(a) क्योटो प्रोटोकॉल के संयोजन में कार्बन क्रेडिट प्रणाली की पुष्टि की गई थी।
(b) कार्बन क्रेडिट उन देशों अथवा समूहों को प्रदान किया जाता है जिन्होंने तय उत्सर्जन सीमा से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर दिया है।
(c) कार्बन क्रेडिट प्रणाली का लक्ष्य कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि को सीमित करना है।
(d) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा समय-समय पर कार्बन क्रेडिट का आदान-प्रदान का मूल्य निर्धारित किया जाता है।

उत्तर: (d) 

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

भारत में दत्तक ग्रहण

प्रिलिम्स के लिये:

भारत में दत्तक ग्रहण, केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021

मेन्स के लिये:

भारत में दत्तक ग्रहण से संबंधित कानून, भारत में दत्तक ग्रहण से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?  

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने हाल ही में महाराष्ट्र में दत्तक ग्रहण के मामलों के महत्त्वपूर्ण बैकलॉग पर प्रकाश डाला है, जिसमें भारत में दत्तक ग्रहण के लंबित मामलों की संख्या (329 समाधान की प्रतीक्षा में) सबसे अधिक है।

  • जनवरी 2023 में बॉम्बे उच्च न्यायालय  ने राज्य सरकार को दत्तक ग्रहण के लंबित मामलों को ज़िला मजिस्ट्रेटों को स्थानांतरित नहीं करने का निर्देश दिया, [जैसा कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 के तहत अनिवार्य है], जिससे भ्रम पैदा हुआ और प्रगति में बाधा उत्पन्न हुई।

भारत में बाल दत्तक ग्रहण की स्थिति: 

  • परिचय:  
    • यह एक कानूनी और भावनात्मक प्रक्रिया है जिसमें ऐसे बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी स्वीकार करना शामिल है जो दत्तक ग्रहण वाले माता-पिता से जैविक रूप से संबंधित नहीं है।
    • भारत में दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया की निगरानी और विनियमन केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (Central Adoption Resource Authority- CARA) द्वारा किया जाता है, जो महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का हिस्सा है।
      • CARA भारतीय बच्चों को दत्तक ग्रहण के लिये नोडल निकाय है और इसे देश में दत्तक ग्रहण की निगरानी करने एवं विनियमन का अधिकार है।  
      • CARA को वर्ष 2003 में भारत सरकार द्वारा अनुसमर्थित हेग कन्वेंशन ऑन इंटरकंट्री एडॉप्शन, 1993 के प्रावधानों के अनुसार अंतर-देशीय दत्तक ग्रहण (Adoptions) की गतिविधियों से निपटने के लिये केंद्रीय प्राधिकरण के रूप में भी नामित किया गया है। 
  • भारत में दत्तक ग्रहण से संबंधित कानून:   
    • भारत में दत्तक ग्रहण दो कानूनों द्वारा शासित होते हैं: हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 तथा किशोर न्याय अधिनियम, 2015
      • दोनों कानूनों में दत्तक माता-पिता के लिये पात्रता मानदंड अलग-अलग हैं।
    • किशोर न्याय अधिनियम के तहत आवेदन करने वालों को CARA के पोर्टल पर पंजीकरण करना होता है जिसके बाद एक विशेष दत्तक ग्रहण वाली एजेंसी एक गृह अध्ययन (Home Study) संबंधी रिपोर्ट तैयार करती है।
      • जब यह स्पष्ट हो जाता है कि उम्मीदवार दत्तक ग्रहण के लिये योग्य है, तो दत्तक ग्रहण के लिये कानूनी रूप से स्वतंत्र घोषित किये गए बच्चे को आवेदक को सौंप दिया जाता है।
    • HAMA के तहत एक "दत्तक होम" समारोह अथवा एक दत्तक ग्रहण का कार्य या नायालय का एक आदेश अपरिवर्तनीय दत्तक ग्रहण के अधिकार प्राप्त करने हेतु पर्याप्त है।
      • इस अधिनियम के तहत हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों को बच्चे दत्तक ग्रहण का अधिकार प्राप्त है।
  • हालिया बदलाव:  
    • संसद ने किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में संशोधन करने के लिये किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 पारित किया।
      • इससे पहले किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में किसी बच्चे को दत्तक ग्रहण के मामले में सिविल कोर्ट द्वारा दत्तक ग्रहण का आदेश जारी करना अंतिम निर्णय हुआ करता था।
        • मुख्य बदलावों में किशोर न्याय अधिनियम की धारा 61 के तहत दत्तक ग्रहण (दत्तक ग्रहण) के आदेश जारी करने के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट और अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट की सहमतिअनिवार्य कर दी गई है।
    • महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने दत्तक ग्रहण विनियम- 2022 पेश किया है जिससे दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया काफी सुव्यवस्थित हो गई है।
      • ज़िला मजिस्ट्रेटों (District Magistrates- DM) और बाल कल्याण समितियों को वास्तविक समय में दत्तक ग्रहण के आदेश तथा मामले की स्थिति अद्यतन करने का निर्देश दिया गया है।
      • दत्तक ग्रहण विनियम, 2022 के कार्यान्वयन के बाद से देश भर में DM द्वारा 2,297 दत्तक ग्रहण के आदेश जारी किये गए हैं, जिससे लंबित मामलों का गंभीर पहलू का समाधान हो गया है।

भारत में दत्तक ग्रहण से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ:  

  • दत्तक ग्रहण से संबंधित लंबी और जटिल प्रक्रिया: भारत में संबंधित प्रक्रिया लंबी, जटिल और नौकरशाही से प्रभावित हो सकती है, जिससे बच्चों को उपयुक्त परिवारों को सौंपने में देरी हो सकती है।
    • CARA के आँकड़े बताते हैं कि जहाँ 30,000 से अधिक भावी माता-पिता अब दत्तक ग्रहण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वहीं 2131 बच्चों में से 7% से भी कम बच्चे दत्तक ग्रहण हेतु कानूनी रूप से उपलब्ध हैं, जो भारत की श्रमसाध्य एवं लंबी दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया को उजागर करता है।
    • उनमें से लगभग दो-तिहाई विशेष आवश्यकता वाले बच्चे हैं और दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया पूरी होने में तीन वर्ष लगते हैं।
  • अवैध और अनियमित प्रथाएँ: भारत में अवैध और अनियमित दत्तक ग्रहण की प्रथाओं के उदाहरण देखे जा सकते हैं। इसमें शिशु तस्करी, बच्चों की बिक्री और अपंजीकृत दत्तक ग्रहण वाली एजेंसियों का अस्तित्व शामिल है, जो कमज़ोर बच्चों एवं जैविक माता-पिता का शोषण करते हैं।
    • वर्ष 2018 में राँची की मदर टेरेसा की मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी "बच्चे बेचने वाले रैकेट" के संदर्भ में आलोचना का शिकार हो गई थी, जब आश्रय स्थल की एक नन ने चार बच्चों को बेचने की बात कबूल की थी।
  • दत्तक ग्रहण के बाद बच्चों को वापस लौटाना: भारत को दत्तक ग्रहण के बाद बच्चों को लौटाने वाले माता-पिता की संख्या में भी असामान्य वृद्धि का सामना करना पड़ रहा है। 
    • वर्ष 2020 में CARA ने कहा कि पिछले पाँच वर्षों में देश भर में गोद लिये गए 1,100 से अधिक बच्चों को उनके दत्तक माता-पिता द्वारा बाल देखभाल संस्थानों में वापस कर दिया गया है।

आगे की राह

  • दत्तक ग्रहण के कानूनों को मज़बूत करना: प्रक्रिया को सुव्यवस्थित, और अधिक पारदर्शी बनाने तथा बच्चे के सर्वोत्तम हितों को सुनिश्चित करने हेतु दत्तक ग्रहण के कानूनों की समीक्षा एवं अद्यतन करने की आवश्यकता है।
    • इसमें कागज़ी कार्यवाही को सरल बनाना, समय में लगने वाली देरी को कम करना और मौजूदा कानून में किसी भी खामी या अस्पष्टता को दूर करना शामिल है।
  • दत्तक ग्रहण के बाद की सेवाएँ: दत्तक माता-पिता और गोद लिये गए बच्चों दोनों की सहायता हेतु दत्तक ग्रहण के बाद की सहायता सेवाएँ स्थापित करने की आवश्यकता है।
    • इसमें परामर्श, शैक्षिक सहायता, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच तथा दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया के दौरान आने वाली किसी भी चुनौती के प्रबंधन के लिये मार्गदर्शन करना शामिल हो सकता है।
  • जागरूकता और शिक्षा: परिवार निर्माण के लिये एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में दत्तक ग्रहण के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
    • इसमें दत्तक ग्रहण के लाभों, प्रक्रियाओं और कानूनी पहलुओं के बारे में जनता को शिक्षित करना शामिल है। साथ ही दत्तक ग्रहण के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करना तथा इससे संबंधित गलतफहमियों या कलंक को दूर करना आवश्यक है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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