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डेली न्यूज़

  • 10 Jun, 2023
  • 65 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

अटलांटिक घोषणा

प्रिलिम्स के लिये:

अटलांटिक घोषणा, अटलांटिक चार्टर, उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO), G20, फाइव आईज़ इंटेलिजेंस एलायंस, AUKUS, डीकार्बोनाइज़ेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग, जैव-प्रौद्योगिकी

मेन्स के लिये:

यूनाइटेड किंगडम-संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच साझेदारी के प्रमुख स्तंभ

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम ने इक्कीसवीं सदी की यूएस-यूके आर्थिक साझेदारी के लिये अटलांटिक घोषणा की सूचना दी है।

  • इस घोषणा का उद्देश्य वर्तमान युग की चुनौतियों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये दोनों देशों के मध्य लंबे समय से चले आ रहे गठबंधन को अनुकूलित, सुदृढ़ और पुनर्कल्पित करना है।
  • इस नई घोषणा के साथ दोनों राष्ट्र रक्षा, सुरक्षा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आर्थिक क्षेत्र में अपने सहयोग को सुदृढ़ करना चाहते हैं।

अटलांटिक घोषणापत्र की प्रमुख विशेषताएँ: 

  • परिचय:  
    • अटलांटिक घोषणा लचीली, विविध और सुरक्षित आपूर्ति शृंखला बनाने पर केंद्रित है, जो रणनीतिक निर्भरता को कम करती है।
    • इस साझेदारी का उद्देश्य साझा विकास, रोज़गार के अवसर उत्पन्न करने और समुदायों के उत्थान हेतु ऊर्जा परिवर्तन एवं तकनीकी सफलताओं का लाभ उठाना है।
  • अटलांटिक घोषणा कार्य योजना (Atlantic Declaration Action Plan- ADAPT):  
    • ADAPT श्रमिकों, व्यवसायों, जलवायु और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्द्धात्मकता एवं लचीलापन बढ़ाने हेतु व्यापक रणनीति तैयार करता है।
    • इस योजना में पाँच प्रमुख स्तंभ शामिल हैं, साथ ही प्रगति एवं समय के साथ महत्त्वाकांक्षा बढ़ाने हेतु नियमित उच्च-स्तरीय बैठकें शामिल हैं।
  • पाँच स्तंभ: 
    • महत्त्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों में नेतृत्व: कृत्रिम बुद्धिमत्ता, क्वांटम कंप्यूटिंग, बायोटेक्नोलॉजी तथा उन्नत विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना।
    • आर्थिक सुरक्षा और प्रौद्योगिकी संरक्षण पर सहयोग: इसमें साइबर सुरक्षा, आपूर्ति शृंखला लचीलापन एवं प्रौद्योगिकी शासन पर जानकारी साझा करना तथा सर्वोत्तम अभ्यास को शामिल किया जाएगा।
    • एक समावेशी और ज़िम्मेदार डिजिटल परिवर्तन हेतु साझेदारी: डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिये व्यक्तियों की तैयारी सुनिश्चित करने हेतु डिजिटल कौशल प्रशिक्षण और कार्यबल विकास पर सहयोग करना।
    • भविष्य की स्वच्छ ऊर्जा अर्थव्यवस्था का निर्माण।
    • रक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा और अंतरिक्ष गठबंधन को मज़बूत करना।

UK-US साझेदारी के प्रमुख स्तंभ: 

  • UK-US साझेदारी का ऐतिहासिक महत्त्व: US और UK के बीच साझेदारी ने वैश्विक मुद्दों पर अग्रणी भूमिका निभाई है।
    • वर्ष 1941 में अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर ने नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की नींव रखी।
    • वर्ष 2021 में हस्ताक्षरित न्यू अटलांटिक चार्टर ने साझा मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की पुष्टि की और साझेदारी हेतु एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।
  • राजनीतिक मामले: दोनों देश NATO और UN, G7 एवं G20 जैसे अन्य बहुपक्षीय संगठनों में भी करीबी सहयोगी हैं।
  • आर्थिक संबंध: संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम में प्रत्यक्ष निवेश का सबसे बड़ा स्रोत है, इसके साथ ही यूनाइटेड किंगडम संयुक्त राज्य में सबसे बड़ा एकल निवेशक भी है।
  • सुरक्षा और रक्षा सहयोग: संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम के पास संयुक्त सैन्य संचालन एवं खुफिया जानकारी साझा करने का एक लंबा इतिहास है, यह प्रक्रिया प्रथम विश्व युद्ध तथा द्वितीय विश्व युद्ध के समय से ही चली आ रही है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. भारत-प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीन की महत्त्वाकांक्षाओं का मुकाबला करना नई त्रि-राष्ट्र नीति AUKUS का उद्देश्य है। क्या यह इस क्षेत्र में मौजूदा साझेदारियों का स्थान लेने जा रहा है? वर्तमान परिदृश्य में AUKUS की शक्ति और प्रभाव की विवेचना कीजियेI (2021) 

स्रोत: द हिंदू


कृषि

पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी व्यवस्था में यूरिया को शामिल करना

प्रिलिम्स के लिये:

खरीफ फसलें, CACP, यूरिया, DAP, LPG सब्सिडी, NBS व्यवस्था

मेन्स के लिये:

पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी व्यवस्था में यूरिया को शामिल करना।

चर्चा में क्यों?

कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) ने खरीफ फसलें हेतु वर्ष 2023-2024 में अपनी गैर-मूल्य नीति की सिफारिश की है ताकि कृषि में असंतुलित पोषक तत्त्व की समस्या को दूर करने के लिये यूरिया को पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) व्यवस्था के तहत लाया जा सके।

  • वर्तमान में यूरिया को एनबीएस योजना से बाहर रखा गया है जिसके कारण असमान उपयोग और मृदा के स्वास्थ्य में गिरावट आई है।

कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP):

  • CACP वर्ष 1965 में गठित कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय का एक वैधानिक निकाय है।
  • वर्तमान में आयोग में एक अध्यक्ष, सदस्य सचिव, एक सदस्य (सरकारी) और दो सदस्य (गैर-सरकारी) शामिल हैं।
  • गैर-आधिकारिक सदस्य कृषक समुदाय के प्रतिनिधि होते हैं और आमतौर पर कृषक समुदाय के साथ सक्रिय सहयोग रखते हैं।
  • कृषकों को आधुनिक तकनीक अपनाने तथा उत्पादकता में वृद्धि करने और समग्र अनाज उत्पादन में वृद्धि करने को प्रोत्साहित करने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSPs) की सिफारिश करना अनिवार्य है।
  • CACP खरीफ और रबी मौसम के लिये कीमतों की सिफारिश करने वाली अलग-अलग रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।

यूरिया को NBS व्यवस्था के तहत शामिल करने आवश्यकता

  • प्राकृतिक गैस की अपर्याप्त आपूर्ति: 
    • प्राकृतिक गैस की अपर्याप्त आपूर्ति के कारण भारत में यूरिया उर्वरक के उत्पादन की क्षमता सीमित है, जिससे आयात में वृद्धि हुई है। इन आयातित यूरिया उर्वरकों पर घरेलू यूरिया की तुलना में प्रति टन अधिक सब्सिडी का बोझ/बर्डन है।
    • इसके अतिरिक्त उर्वरकों के लिये कच्चे माल की उच्च वैश्विक कीमतें मध्यम अवधि में उर्वरक सब्सिडी को रोकने के सरकार के प्रयासों को और जटिल बनाती हैं।
    • नतीजतन उर्वरक सब्सिडी को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयासों को मध्यम अवधि में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और बढ़ती मांग के कारण सब्सिडी राशि में वृद्धि होने की संभावना है।
  • असंतुलित पोषक तत्त्व का उपयोग:
    • वर्षों से कृषि में यूरिया के अत्यधिक उपयोग ने पौधों में पोषक तत्त्वों के असंतुलन में योगदान दिया है। फॉस्फोरस और पोटेशियम जैसे गैर-यूरिया उर्वरक NBS के अंतर्गत आते हैं, जिनमें सब्सिडी उनके पोषक तत्त्वों से जुड़ी होती है।
    • हालाँकि यूरिया इस व्यवस्था से बाहर है, जिससे सरकार को अपने अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) और सब्सिडी पर सीधा नियंत्रण बनाए रखने में मदद मिलती है।
    • मूल्य असमानता, अन्य महत्त्वपूर्ण खनिजों की अवहेलना के परिणामस्वरूप किसान यूरिया का अत्यधिक उपयोग कर रहे हैं, जिससे मृदा के स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पद रहा है।
  • मूल्य निर्धारण नीतियों का प्रभाव:
    • यूरिया की MRP 5,360 रुपए प्रति मीट्रिक टन (MT) पर अपरिवर्तित बनी हुई है, जबकि समय के साथ डायमोनियम फॉस्फेट (DAP) जैसे अन्य उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि हुई है।  
    • गैर-यूरिया उर्वरकों के विनिर्माताओं को उचित सीमा के भीतर अधिकतम खुदरा मूल्य निर्धारित करने की स्वतंत्रता के साथ-साथ पोषक तत्त्वों की मात्रा के आधार पर तय प्रति टन सब्सिडी ने गैर-यूरिया उर्वरकों की बढ़ती कीमतों में योगदान दिया है।
    • नतीजतन, यूरिया की बिक्री अन्य उर्वरकों की तुलना में काफी अधिक रही है, जिससे कृषि में पोषक तत्त्वों का असंतुलन बढ़ गया है।

सिफारिशें

  • यूरिया को NBS व्यवस्था के तहत लाना:
    • यह सब्सिडी को यूरिया की पोषक सामग्री के साथ संयोजित करने और उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने में सक्षम करेगा।
  • सब्सिडी वाले उर्वरक बैग पर सीमा निर्धारित करना:
    • सरकार को सब्सिडी के बोझ को कम करने के लिये सब्सिडी वाले LPG सिलेंडरों हेतु प्रति किसान उर्वरकों के बैगों की संख्या पर सीमा निर्धारित करनी चाहिये।
  • उत्तोलन प्रौद्योगिकी और पहचान प्रणाली:
    • CACP रिटेलर दुकानों पर स्थापित पॉइंट ऑफ सेल उपकरणों का उपयोग करके सब्सिडी वाले उर्वरकों पर प्रस्तावित सीमा को लागू करने में आसानी पर प्रकाश डालता है।
    • लाभार्थियों की पहचान अन्य पहचान विधियों के अतिरिक्त आधार कार्ड, किसान क्रेडिट कार्ड (KCC), मतदाता पहचान पत्र के माध्यम से की जा सकती है।

NBS व्यवस्था: 

  • परिचय: 
    • NBS व्यवस्था के तहत इन उर्वरकों में निहित पोषक तत्त्वों (N, P, K और S) के आधार पर किसानों को रियायती दरों पर उर्वरक प्रदान किये जाते हैं।
    • साथ ही मोलिब्डेनम (Mo) और जिंक जैसे माध्यमिक तथा सूक्ष्म पोषक तत्त्वों वाले समृद्ध उर्वरकों को अतिरिक्त सब्सिडी दी जाती है।
      • P और K उर्वरकों पर सब्सिडी की घोषणा सरकार द्वारा वार्षिक आधार पर प्रत्येक पोषक तत्त्व के लिये प्रति किलोग्राम के तौर पर की जाती है जो P और K उर्वरकों की अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू कीमतों, विनिमय दर, देश में इन्वेंट्री स्तर आदि को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाती है।
    • NBS नीति का उद्देश्य P और K उर्वरकों की खपत को बढ़ाना है ताकि NPK उर्वरीकरण का इष्टतम संतुलन (N:P: K= 4:2:1) प्राप्त किया जा सके।
  • महत्त्व: 
    • इससे मृदा की गुणवत्ता में सुधार होगा और फसलों की उपज में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में वृद्धि होगी।
    • यह उर्वरकों का तर्कसंगत उपयोग करेगा; इससे उर्वरक सब्सिडी का बोझ भी कम होगा।

NBS संबंधी चुनौतियाँ:

  • आर्थिक और पर्यावरणीय लागत: 
    • NBS नीति सहित उर्वरक सब्सिडी अर्थव्यवस्था पर एक महत्त्वपूर्ण वित्तीय बोझ डालती है। यह खाद्य सब्सिडी के बाद दूसरी सबसे बड़ी सब्सिडी के रूप में है जो वित्तीय स्वास्थ्य पर दबाव डालती है।
    • इसके अतिरिक्त मूल्य निर्धारण असमानता के कारण असंतुलित उर्वरक उपयोग के प्रतिकूल पर्यावरणीय परिणाम होते हैं जैसे कि मृदा क्षरण और पोषक तत्त्वों का अपवाह, दीर्घकालिक कृषि स्थिरता को प्रभावित करता है।
  • कालाबाज़ारी और डायवर्जन:
    • रियायती दर पर मिलने वाला यूरिया कालाबाज़ारी और डायवर्जन के प्रति अतिसंवेदनशील है। इसे कभी-कभी अवैध रूप से थोक क्रेताओं, व्यापारियों या गैर-कृषि उपयोगकर्त्ताओं जैसे- प्लाईवुड व पशु आहार निर्माताओं को बेचा जाता है। 
    • इसके अलावा बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में रियायती दर पर मिलने वाले यूरिया की तस्करी के उदाहरण हैं जिससे घरेलू कृषि उपयोग के लिये रियायती दर पर मिलने वाले उर्वरकों की हानि होती है।
  • रिसाव और दुरुपयोग:  
    • NBS पद्धति यह सुनिश्चित करने हेतु कुशल वितरण प्रणाली पर निर्भर करता है कि सब्सिडी वाले उर्वरक लक्षित लाभार्थियों यानी किसानों तक पहुँचें।
    • हालाँकि रिसाव और दुरुपयोग के मामले हो सकते हैं, जिनमें सब्सिडी वाले उर्वरक किसानों तक नहीं पहुँच पाते हैं या कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में उपयोग किये जाते हैं। यह सब्सिडी की प्रभावशीलता को कम करता है और वास्तव में किसानों को सस्ती उर्वरकों तक पहुँच से वंचित करता है।
  • क्षेत्रीय विषमताएँ:  
    • देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि पद्धतियाँ, मृदा की स्थिति और फसल की पोषक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं।
    • एक समान NBS  व्यवस्था को लागू करने से विशिष्ट आवश्यकताओं और क्षेत्रीय विषमताओं को पर्याप्त रूप से उजागर नहीं किया जा सकता है, संभावित रूप से उप-इष्टतम पोषक तत्त्व अनुप्रयोग एवं उत्पादकता भिन्नताएँ हो सकती हैं।

आगे की राह 

  • सभी उर्वरकों हेतु एक समान नीति आवश्यक है, क्योंकि फसल की पैदावार और गुणवत्ता के लिये नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P) एवं पोटेशियम (K) महत्त्वपूर्ण हैं।
  • लंबी अवधि में NBS को फ्लैट प्रति एकड़ नकद सब्सिडी द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है जो किसानों को किसी भी उर्वरक को खरीदने की अनुमति देता है।
  • इस सब्सिडी में मूल्य वर्द्धित और अनुकूलित उत्पाद शामिल होने चाहिये जो कुशल नाइट्रोजन वितरण एवं अन्य आवश्यक पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं।
  • NBS व्यवस्था के वांछित परिणामों को प्राप्त करने हेतु मूल्य नियंत्रण, सामर्थ्य और टिकाऊ पोषक तत्त्व प्रबंधन के बीच संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय अर्थव्यवस्था

तेल और प्राकृतिक गैस पर वैश्विक निर्भरता

प्रिलिम्स के लिये: 

UNFCCC COPs, तेल और गैस उत्पादन और खपत

मेन्स के लिये:

तेल और प्राकृतिक गैस पर भारत की निर्भरता, तेल और गैस उत्पादन को प्रतिबंधित करने से संबंधित चुनौतियाँ और उपाय

चर्चा में क्यों? 

एक गैर-लाभकारी संगठन क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT) की नई रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के सबसे बड़े जीवाश्म ईंधन उत्पादक देशों ने न तो तेल और गैस उत्पादन को काफी हद तक सीमित और नियंत्रित करने की प्रतिबद्धता जताई है तथा न ही उन्होंने नवीकरणीय ऊर्जा के लिये वैश्विक लक्ष्य निर्धारित किया है।

  • आगामी UNFCCC COP 28 तेल और गैस उत्पादन को सीमित और नियंत्रित करने पर ध्यान केंद्रित करेगा।

रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ:

  • वैश्विक सहमति का अभाव:
    • नए तेल और गैस निवेश को अब तक समाप्त हो जाना चाहिये था, कोयले को चरणबद्ध तरीके से हटाने पर विश्व स्तर पर स्वीकृत सहमति है लेकिन तेल और गैस पर ऐसा कोई समझौता नहीं है। 
    • हालाँकि भारत ने मिस्र में COP27 में सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से बंद करने का आह्वान किया था, लेकिन इस बारे में एक ठोस निर्णय को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। 
  • विकसित देशों का प्रदर्शन:
    • अब तक केवल स्वीडन, डेनमार्क, फ्राँस और स्पेन ने अंतिम तिथि निर्धारित की है, जबकि फ्राँस, स्वीडन, कोलंबिया, आयरलैंड, पुर्तगाल, न्यूज़ीलैंड और स्पेन ने नए तेल और गैस की खोज एवं उत्पादन को रोक दिया है।
    • इसके विपरीत अमेरिका जो कि दुनिया का सबसे बड़ा तेल और गैस उत्पादक है, 2010 से तेल उत्पादन को दोगुना से अधिक कर चुका है।
      • विश्व के सबसे बड़े LNG निर्यातक, ऑस्ट्रेलिया ने वर्ष 2020 और 2030 के बीच अपने LNG उत्पादन में 11% की वृद्धि का अनुमान लगाया है। 
  • एक विकल्प के रूप में CSS और इससे संबंधित चुनौतियाँ:  
    • विश्व के 7वें सबसे बड़े तेल उत्पादक और 15वें सबसे बड़े जीवाश्म गैस उत्पादक के रूप में प्रतिष्ठित संयुक्त अरब अमीरात  तेल एवं गैस को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के बजाय ऊर्जा क्षेत्र में कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) के उपयोग पर ज़ोर दे रहा है।
    • CCS के तहत वातावरण में उत्सर्जित करने के बजाय विद्युत संयंत्रों और अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषण करना शामिल है।
    • वर्तमान में CCS के तहत 0.1% से भी कम वैश्विक उत्सर्जन का अवशोषण किया जाता है जिससे तकनीकी, आर्थिक, संस्थागत, पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं।
    • CCS वहनीय नहीं है और इसमें निवेश करने से अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तीयन पर प्रभाव पड़ सकता है, अंतत: यह एक व्यर्थ परिसंपत्ति के रूप में परिणत हो सकती है।
    • CSS (Climate Safeguards System) तकनीकों में निवेश करने वाले अन्य देशों में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा शामिल हैं। सऊदी अरब अपने शुद्ध शून्य जलवायु लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये CCS का उपयोग करना चाहता है।

तेल और गैस उत्पादन/खपत परिदृश्य:

  • वैश्विक परिदृश्य: 
    • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, वैश्विक उत्पादन, परिवहन और तेल तथा गैस के प्रसंस्करण के कारण वर्ष 2022 में 5.1 बिलियन टन CO2 का उत्सर्जन हुआ जो कि ऊर्जा से संबंधित कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 15% है।
    • मीथेन, एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस और वायु प्रदूषण उत्सर्जन में प्रमुख योगदानकर्त्ता है, तेल तथा गैस उद्योग द्वारा उत्सर्जित सबसे आम गैसों में से एक है।
    • वर्ष 2050 तक अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के शुद्ध शून्य उत्सर्जन परिदृश्य के तहत इस दशक के अंत तक तेल और गैस के संचालन को अपनी उत्सर्जन तीव्रता को लगभग आधा करना होगा, जिसके परिणामस्वरूप उनके सभी उत्सर्जन में 60% की कमी आएगी।
  • प्रमुख निर्माता और उपभोक्ता:  
    • वर्ष 2022 में तेल उत्पादन करने वाले शीर्ष देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, सऊदी अरब, रूस, कनाडा और चीन शामिल थे, जबकि OPEC तेल उत्पादकों का सबसे शक्तिशाली समूह रहा है।
      • अमेरिका वर्ष 2022 में विश्व के 20% उत्पादन के लिये विश्व का शीर्ष पेट्रोलियम तरल पदार्थ उत्पादक बन गया।
    • वर्ष 2022 के शीर्ष तेल खपत वाले देश अमेरिका <चीन <भारत <रूस <जापान <सऊदी अरब <ब्राज़ील <दक्षिण कोरिया <कनाडा <जर्मनी थे।
  • भारतीय परिदृश्य:  
    • भारत अभी भी जीवाश्म ईंधन से संबंधित औद्योगिक गतिविधियों के संपर्क में है, यह विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है जो लगभग 5 मिलियन बैरल प्रतिदिन है जिसमें तेल की मांग की वार्षिक वृद्धि दर 3-4% है।
    • तेल और प्राकृतिक गैस में भारत की आयात निर्भरता भी बढ़ी है प्राकृतिक गैस के मामले में शुद्ध आयात निर्भरता केवल 30% (वर्ष 2012-13) से बढ़कर लगभग 48% (वर्ष 2021-22) हो गई है।
      • कच्चे तेल के आयात में भी इतनी ही बढ़ोतरी हुई है।

देशों द्वारा तेल और गैस उत्पादन को प्रतिबंधित न करने का कारण:

  • आर्थिक विचार: तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन प्राय: देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा सरकारी राजस्व, रोज़गार एवं समग्र आर्थिक विकास में योगदान करते हैं।
  • ऊर्जा सुरक्षा: ऊर्जा सुरक्षा के लिये तेल और प्राकृतिक गैस अनिवार्य हैं; देश घरेलू मांग को पूरा करने तथा आयात पर निर्भरता कम करने हेतु उत्पादन बढ़ाने के लिये ऊर्जा की स्थिर और विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करने को प्राथमिकता देते हैं।
  • भू-राजनीतिक विचार: कुछ देशों द्वारा ऊर्जा उत्पादन का उपयोग अन्य देशों पर राजनीतिक प्रभाव या प्रभाव के साधन के रूप में किया जा सकता है, जो उत्पादन नियंत्रण प्रयासों को प्रभावित कर सकते हैं।
  • घरेलू राजनीतिक कारक: घरेलू दबाव और प्रतिस्पर्द्धी हितों सहित राजनीतिक विचार, उत्पादन निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। सरकारों को उद्योग समूहों, स्थानीय समुदायों या राजनीतिक गुटों सहित हितधारकों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है, जो उत्पादन को नियंत्रित करने के प्रयासों को जटिल बना सकता है।

तेल और गैस की निर्भरता में कमी: 

  • ठोस लक्ष्य निर्धारित करना: विकसित राष्ट्रों के पास कोई औचित्य नहीं है उनका नया तेल और गैस निवेश पहले ही समाप्त हो जाना चाहिये था। सभी देशों, विशेष रूप से अमीर देशों को इस पर नेतृत्त्व करने की ज़रूरत है और सभी जीवाश्म ईंधन उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से कम करना चाहिये।
  • नवीकरणीय ऊर्जा नवाचार को अपनाना: नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों की उन्नति में तेज़ी लाने हेतु देश अनुसंधान और विकास में निवेश करेंगे।
    • इसमें अगली पीढ़ी के सौर पैनल, उन्नत पवन टर्बाइन और ऊर्जा भंडारण समाधान जैसी सफल तकनीकों हेतु वित्तपोषण शामिल है। 
  • फोस्टर इंटरनेशनल सहयोग: देश तेल और प्राकृतिक गैस की खपत को कम करने हेतु अभिनव समाधान विकसित करने के लिये अनुसंधान, ज्ञान साझा करने के साथ ही संयुक्त पहल पर सहयोग कर सकते हैं।
    • सर्वोत्तम प्रथाओं और जानकारियों को साझा करने से विश्व स्तर पर प्रगति को गति मिल सकती है।
  • क्षमता निर्माण हेतु सहायता: विकसित देश तकनीकी सहायता, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और ज्ञान साझा करने के माध्यम से विकासशील देशों को सतत् ऊर्जा परियोजनाओं को लागू करने हेतु उनकी क्षमता निर्माण में सहायता करेंगे।
  • हरित औद्योगीकरण: स्थानीय रोज़गार के अवसर उत्पन्न करने, ऊर्जा आत्मनिर्भरता बढ़ाने और जीवाश्म ईंधन के आयात पर निर्भरता कम करने हेतु देश अक्षय ऊर्जा निर्माण जैसे हरित उद्योगों के विकास को बढ़ावा देंगे।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न: भट्टी के तेल के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. यह तेल रिफाइनरियों का उत्पाद है। 
  2. कुछ उद्योग इसका उपयोग विद्युत उत्पादन करने के लिये करते हैं। 
  3. इसके उपयोग से वातावरण में सल्फर का उत्सर्जन होता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


प्रश्न: कभी-कभी समाचारों में पाया जाने वाला शब्द 'वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट' निम्नलिखित में से किसे संदर्भित करता है: (वर्ष 2020)

(a) कच्चा तेल
(b) बहुमूल्य धातु
(c) दुर्लभ मृदा तत्त्व
(d) यूरेनियम

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. भारत की ऊर्जा सुरक्षा का प्रश्न भारत की आर्थिक प्रगति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग है। पश्चिम एशियाई देशों के साथ भारत के ऊर्जा नीति सहयोग का विश्लेषण कीजिये। (2017) 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भूगोल

मानसून में देरी

प्रिलिम्स के लिये:

अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ), पश्चिमी जेट स्ट्रीम, दक्षिणी दोलन (SO), भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD)।

मेन्स के लिये:

दक्षिण पश्चिम मानसून, हिंद-प्रशांत क्षेत्र का महत्त्व।

चर्चा में क्यों? 

वर्ष 2023 में मानसून 8 जून को केरल तट पर पहुँचा, जो कि मानसून के आरंभ की सामान्य तिथि 1 जून की तुलना में विलंब है।

मानसून

  • परिचय:  
    • मानसून मौसमी पवनें (लयबद्ध पवन की गति या आवधिक पवनें) हैं जो मौसम के परिवर्तन के साथ अपनी दिशा बदल देती हैं।
  • दक्षिण-पश्चिम मानसून को प्रभावित करने वाले कारक:
    • भूमि और जल की अलग-अलग ऊष्मा और आर्द्रता भारत के भूभाग पर कम दबाव बनाती हैं जबकि आसपास के समुद्र तुलनात्मक रूप से उच्च दबाव का अनुभव करते हैं।
    • गंगा के मैदानी भागों के ऊपर, ग्रीष्मकाल के दौरान में अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) की स्थिति में परिवर्तन, यह भूमध्यरेखा पर कम दबाव का क्षेत्र है जो सामान्यतः भूमध्य रेखा के लगभग 5°N पर स्थित होता है।
      • इसे मानसून के मौसम के दौरान मानसून-ट्रफ (कम दबाव का क्षेत्र)  के रूप में भी जाना जाता है।
    • हिंद महासागर के ऊपर मेडागास्कर के पूर्व में लगभग 20°दक्षिणी अक्षांश पर उच्च दाब क्षेत्र की उपस्थिति उच्च दबाव वाले क्षेत्र की तीव्रता एवं स्थिति भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
    • गर्मियों के दौरान तिब्बती पठार अत्यधिक गर्म हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र तल से लगभग 9 किमी. ऊपर पठार पर मज़बूत ऊर्ध्वाधर वायु धाराएंँ और कम दबाव का निर्माण होता है।
    • हिमालय के उत्तर में पश्चिमी जेट स्ट्रीम की गति और गर्मियों के दौरान भारतीय प्रायद्वीप पर उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम की उपस्थिति भी मानसून को प्रभावित करती है।
    • दक्षिणी दोलन (Southern Oscillation- SO):
      • यह उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के बीच वायु और समुद्र की सतह के तापमान में बदलाव है। इसे सामान्यतः वायुदाव में बदलाव की घटना के रूप में जाना जाता है।
      • ला नीना शीतलन घटना है और अल नीनो ऊष्ण घटना है।
      • ला नीना आमतौर पर भारतीय मानसून पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।
    • हिंद महासागर डिपोल (IOD):  
      • IOD पूर्वी (बंगाल की खाड़ी) और पश्चिमी हिंद महासागर (अरब सागर) के तापमान के बीच का अंतर है।
      • सकारात्मक IOD के कारण भारत में अधिक वर्षा होती है, जबकि नकारात्मक IOD नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

मानसून की शुरुआत:

  • मानसून की शुरुआत: 
    • केरल तट पर मानसून की शुरुआत चार महीने के दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है, जिससे भारत में वार्षिक वर्षा के 70% से अधिक वर्षा होती है।
    • आम धारणा के विपरीत शुरुआत मौसम की पहली बारिश का उल्लेख नहीं करती है, बल्कि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) द्वारा निर्धारित विशिष्ट तकनीकी मानदंडों का पालन करती है।
  • मानसून का आगमन: 
    • IMD, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वायुमंडलीय और महासागर परिसंचरण में महत्त्वपूर्ण बदलाव के आधार पर मानसून के आगमन का निर्धारण करता है।
    • आगमन की घोषणा बारिश की निरंतरता, तीव्रता और हवा की गति से संबंधित विशिष्ट मापदंडों पर निर्भर करती है।
  • वर्षा:  
    • आगमन की घोषणा तब की जाती है जब केरल और लक्षद्वीप में 14 नामित मौसम केंद्रों में से कम-से-कम 60% 10 मई के बाद लगातार दो दिनों तक कम-से-कम 2.5 मिमी बारिश रिकॉर्ड की जाती है
    • विशिष्ट हवा और तापमान मानदंडों को पूरा करने पर दूसरे दिन आगमन  की घोषणा की जाती है।
  • पवन क्षेत्र:  
    • भूमध्य रेखा में 10ºN अक्षांश और 55ºE से 80ºE देशांतर सीमा के भीतर पछुवा हवा की गहराई 600 हेक्टोपास्कल (hPa) तक होनी चाहिये।
    • 925 hPa पर 5-10ºN अक्षांश और 70-80ºE देशांतर के बीच क्षेत्रीय हवा की गति लगभग 15-20 समुद्री मील (28-37 किलोमीटर प्रति घंटा)  होनी चाहिये।
  • ऊष्मा:  
    • INSAT से प्राप्त आउटगोइंग लॉन्गवेव रेडिएशन (OLR) मान, 5ºN और 10ºN अक्षांशों तथा 70ºE एवं 75ºE देशांतरों के बीच के क्षेत्र में 200 वाट प्रति वर्ग मीटर (wm2) से कम होना चाहिये।
  • विलंबित शुरुआत का प्रभाव:
    • कृषि:  
      • विलंबित मानसून की शुरुआत कृषि गतिविधियों, विशेष रूप से फसलों की बुवाई को प्रभावित कर सकती है।
      • किसान सिंचाई और फसल के विकास के लिये मानसून की बारिश पर बहुत अधिक निर्भर हैं।
      •  बारिश में देरी से बुवाई में देरी हो सकती है, जिससे फसल की पैदावार और कृषि उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।
    • जल संसाधन:
      • देरी से मानसून की शुरुआत के परिणामस्वरूप पानी की कमी हो सकती है, विशेष रूप से जलाशयों, नदियों और झीलों को भरने के लिये वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में।
    • ऊर्जा क्षेत्र:
      • विलंबित मानसून जलविद्युत उत्पादन को प्रभावित कर सकता है, जो पर्याप्त जल उपलब्धता पर निर्भर करता है।
    • पर्यावरण:  
      • यह वनस्पति के विकास और वितरण को प्रभावित कर सकता है, कुछ प्रजातियों के प्रवासन में देरी कर सकता है तथा पारिस्थितिक चक्र को बाधित कर सकता है।
      • विलंबित मानसून भी प्रभावित क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव, भूमि क्षरण और कम जैवविविधता में योगदान कर सकता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय मानसून का पूर्वानुमान करते समय कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित 'इंडियन ओशन डाईपोल (IOD)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017) 

  1. IOD परिघटना, उष्णकटिबंधीय पश्चिमी हिंद महासागर और उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर के बीच सागर-पृष्ठ तापमान के अंतर से विशेषित होती है।
  2. IOD परिघटना मानसून पर अल नीनो के असर को प्रभावित कर सकती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)

व्याख्या: 

  • इंडियन ओशन डाइपोल (IOD) उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर (जैसे अल नीनो उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में है) में वायुमंडलीय महासागर युग्मित घटना है, जो समुद्र-सतह तापमान (SST) में अंतर की विशेषता है।
  • 'सकारात्मक IOD' पूर्वी भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में सामान्य समुद्री सतह के तापमान से कम उष्ण और पश्चिमी उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में सामान्य समुद्री सतह के तापमान से अधिक उष्ण होने से संबंधित है।
  • इसके विपरीत घटना को 'नकारात्मक IOD' कहा जाता है और पूर्वी भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में सामान्य SST की तुलना में गर्म तथा पश्चिमी उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में सामान्य SST की तुलना में ठंडा होता है।
  • इसे भारतीय नीना के रूप में भी जाना जाता है, यह हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान का अनियमित दोलन है जिसमें पश्चिमी हिंद महासागर हिंद महासागर के पूर्वी हिस्से की तुलना में वैकल्पिक रूप से गर्म और ठंडा हो जाता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • IOD वैश्विक जलवायु के सामान्य चक्र का वह घटक है, जो प्रशांत महासागर में अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ENSO) जैसी समान घटनाओं के साथ परस्पर क्रिया करता है। IOD भारतीय मानसून पर अल नीनो के प्रभाव को या तो बढ़ा सकता है या कमज़ोर कर सकता है। यदि सकारात्मक IOD है, तो अल नीनो वर्ष होने के बावजूद यह भारत में अच्छी बारिश ला सकता है। अतः कथन 2 सही है।

अतः विकल्प (B) सही है।


मेन्स:

प्रश्न. आप कहाँ तक सहमत हैं कि मानवीकारी दृश्यभूमियों के कारण भारतीय मानसून के आचरण में परिवर्तन होता रहा है। चर्चा कीजिये। (2015)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ

प्रिलिम्स के लिये:

प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, सहकार से समृद्धि, सहकारी, उर्वरक, आत्मनिर्भर भारत

मेन्स के लिये:

प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ

चर्चा में क्यों? 

प्रधानमंत्री के “सहकार से समृद्धि” के विज़न को साकार करने की दिशा में सरकार ने प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (Primary Agricultural Credit Societies- PACS) की आय में वृद्धि करने के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिये पाँच निर्णय लिये हैं।

  • सरकार का लक्ष्य "सहकार से समृद्धि" के माध्यम से देश में समग्र समृद्धि का उद्देश्य प्राप्त करना है। इसे पारदर्शिता, आधुनिकीकरण और प्रतिस्पर्द्धात्मकता द्वारा सहकारी समितियों को सुदृढ़ बनाने के लिये प्रस्तावित किया गया था। 

पाँच महत्त्वपूर्ण निर्णय: 

  • उर्वरक खुदरा विक्रेताओं के रूप में कार्य नहीं कर रहे PACS की पहचान की जाएगी और उन्हें चरणबद्ध तरीके से व्यवहार्यता के आधार पर खुदरा विक्रेताओं के रूप में कार्य करने के लिये प्रोत्साहित किया जाएगा।
  • वर्तमान में प्रधानमंत्री किसान समृद्धि केंद्र (PMKSK) के रूप में काम नहीं कर रहे PACS को PMKSK के दायरे में लाया जाएगा।
    • प्रधानमंत्री ने रसायन और उर्वरक मंत्रालय के तहत वर्ष 2022 में 600 PMKSK का उद्घाटन किया।
    • ये केंद्र किसानों की विभिन्न प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करेंगे और कृषि-इनपुट, मृदा, बीज तथा उर्वरक के लिये परीक्षण सुविधाएँ भी प्रदान करेंगे।
  •  जैविक उर्वरकों, विशेष रूप से फर्मेंटेड जैविक खाद (FoM)/तरल फर्मेंटेड जैविक खाद (LFOM) / फॉस्फेट समृद्ध जैविक खाद (PROM) के विपणन में PACS को जोड़ा जाएगा।
  • उर्वरक विभाग की मार्केट डेवलपमेंट असिस्टेंस (MDA) योजना के तहत उर्वरक कंपनियाँ छोटे बायो-ऑर्गेनिक उत्पादकों के लिये एक एग्रीगेटर के रूप में कार्य कर अंतिम उत्पाद का विपणन करेंगी, इस आपूर्ति और विपणन श्रृंखला में थोक/ खुदरा विक्रेताओं के रूप में PACS को भी शामिल किया जाएगा।
  • उर्वरक और कीटनाशकों के छिड़काव के लिये PACS को ड्रोन उद्यमियों के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकेगा, साथ ही, ड्रोन का उपयोग संपत्ति सर्वेक्षण के लिये भी किया जा सकता है।

प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ:

  • परिचय: 
    • PACS ग्राम स्तर की सहकारी ऋण समितियाँ हैं जो राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंकों (State Cooperative Banks- SCB) की अध्यक्षता वाली त्रि-स्तरीय सहकारी ऋण संरचना में अंतिम कड़ी के रूप में कार्य करती हैं।
      • SCB से क्रेडिट का हस्तांतरण ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंकों (District Central Cooperative Banks- DCCB) को किया जाता है, जो ज़िला स्तर पर काम करते हैं। ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक PACS के साथ काम करते हैं, साथ ही ये सीधे किसानों से जुड़े हैं।
    • PACS विभिन्न कृषि और कृषि गतिविधियों हेतु किसानों को अल्पकालिक एवं मध्यम अवधि के कृषि ऋण प्रदान करते हैं। 
    • पहला PACS वर्ष 1904 में बनाया गया था।

  • स्थिति: 
    • भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा 27 दिसंबर, 2022 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में PACS की संख्या 1.02 लाख बताई गई है। मार्च 2021 के अंत में इनमें से केवल 47,297 लाभ की स्थिति में थे। 
  • महत्त्व: 
    • क्रेडिट तक पहुँच: 
      • वे छोटे किसानों को ऋण तक पहुँच प्रदान करते हैं जिसका उपयोग वे अपने खेतों के लिये बीज़, उर्वरक और अन्य सामग्री खरीदने के लिये कर सकते हैं। इससे उन्हें अपने उत्पादन में सुधार करने तथा आय बढ़ाने में मदद मिलती है।
    • वित्तीय समावेशन:
      • PACS ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन को बढ़ाने में मदद करते हैं जहाँ औपचारिक वित्तीय सेवाओं तक पहुँच सीमित है। वे उन किसानों को बुनियादी बैंकिंग सेवाएँ प्रदान करते हैं जैसे- बचत और ऋण खाते जिनकी औपचारिक बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच नहीं हो सकती है।
    • सुविधाजनक सेवाएँ:
      • PACS प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित होते हैं जो किसानों के लिये उनकी सेवाओं तक पहुँच को सुविधाजनक बनाता है। PACS में कम समय में न्यूनतम कागज़ी कार्रवाई के साथ ऋण देने की क्षमता है।
    • बचत संस्कृति को बढ़ावा देना: 
      • PACS किसानों को पैसे बचाने के लिये प्रोत्साहित करती है जिसका उपयोग उनकी आजीविका में सुधार करने और उनके खेतों में निवेश करने के लिये किया जा सकता है।
    • क्रेडिट अनुशासन को बढ़ाना:
      • PACS समय पर अपने ऋण चुकाने के लिये किसानों के बीच ऋण अनुशासन को बढ़ावा देती हैं। ये डिफॉल्ट के जोखिम को कम करने में मदद करते हैं जो ग्रामीण वित्तीय क्षेत्र में एक बड़ी चुनौती हो सकती है।

PACS संबंधी मुद्दे: 

  • अपर्याप्त कवरेज: 
    • हालाँकि भौगोलिक रूप से सक्रिय PACS 5.8 गाँवों में से लगभग 90% को कवर करते हैं लेकिन देश के कुछ हिस्से (विशेषत: उत्तर-पूर्व में) ऐसे हैं जहाँ यह कवरेज बहुत कम है।
    • इसके अलावा सदस्यों के रूप में शामिल की गई ग्रामीण आबादी सभी ग्रामीण परिवारों का केवल 50% है।
  • अपर्याप्त संसाधन: 
    • PACS के संसाधन ग्रामीण अर्थव्यवस्था की लघु और मध्यम अवधि की ऋण आवश्यकताओं के संबंध में अपर्याप्त हैं।
    • यहाँ तक कि इन अपर्याप्त निधियों का बड़ा हिस्सा उच्च वित्तपोषण एजेंसियों से आता है, न कि समितियों के स्वामित्व वाले वित्तपोषण या उनके द्वारा जमा संग्रहण के माध्यम से।
  • अतिदेय और NPA: 
    • PACS हेतु बड़ी बकाया राशि एक बड़ी समस्या बन गई है।
      • वर्ष 2022 में RBI की रिपोर्ट के अनुसार, PACS ने 1,43,044 करोड़ रुपए के ऋण और 72,550 करोड़ रुपए के NPA की सूचना दी थी। महाराष्ट्र में 20,897 PACS हैं जिनमें से 11,326 घाटे में हैं।
    • वे ऋण योग्य धन के प्रवाह को सीमित करते हैं, उधार लेने और उधार देने हेतु समाज की क्षमता को कमज़ोर करते हैं और उन्हें यह आभास कराते हैं कि डिफाॅल्ट देनदारों को लेकर समाज दुर्भावनापूर्ण तरीके से कार्य कर रहे हैं।

आगे की राह

  • PACS भारत के ग्रामीण वित्तीय क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण संस्थान हैं और आत्मनिर्भर भारत एवं वोकल फॉर लोकल अभियान के दृष्टिकोण में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। ये सदियों पुराने संस्थान आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नींव के रूप में काम कर सकते हैं।. 
  • अपनी क्षमता को अधिकतम करने के लिये PACS को अधिक कुशल, वित्तीय रूप से टिकाऊ और किसानों के लिये सुलभ बनाने की आवश्यकता है। इसके लिये उनके संचालन एवं प्रबंधन में सुधार की आवश्यकता है।
  • इसके अतिरिक्त प्रभावी प्रशासन और किसानों की ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता सुनिश्चित करने के लिये PACS को नियंत्रित करने वाले नियामक ढांँचे को मज़बूत किया जाना चाहिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये ? (2020)

  1. कृषि क्षेत्र को अल्पकालिक ऋण वितरण के संदर्भ में ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक (DCCBs) अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की तुलना में अधिक ऋण प्रदान करते हैं।
  2. ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक प्राथमिक कृषि साख समितियों को धन उपलब्ध कराना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (B)


प्रश्न. भारत में 'शहरी सहकारी बैंकों' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. राज्य सरकारों द्वारा स्थापित स्थानीय मंडलों द्वारा उनका पर्यवेक्षण एवं विनियमन किया जाता है।
  2. वे इक्विटी शेयर और अधिमान शेयर जारी कर सकते हैं।
  3. उन्हें वर्ष 1966 में एक संशोधन के द्वारा बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 के कार्य-क्षेत्र में लाया गया था। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न."गाँवों में सहकारी समिति को छोड़कर ऋण संगठन का अन्य ढाँचा उपयुक्त नहीं होगा।" - अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण। भारत में कृषि वित्त की पृष्ठभूमि में इस कथन की विवेचना कीजिये। कृषि वित्त प्रदान करने वाली वित्तीय संस्थाओं को किन बाध्यताओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं? ग्रामीण सेवार्थियों तक बेहतर पहुँच और उनकी सेवा करने के लिये प्रौद्योगिकी का किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है? (2014) 

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय अर्थव्यवस्था

अपेक्षित क्रेडिट घाटा - हानि आधारित ऋण प्रावधान के मानदंड

प्रिलिम्स के लिये:

अपेक्षित क्रेडिट घाटा (ECL) गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ, RBI, ऋण प्रावधान 

मेन्स के लिये: 

ऋण हानि की समस्या, बैंकिंग क्षेत्र को मज़बूत करने के उपाय      

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा घोषणा की गई कि बैंकों को अपेक्षित क्रेडिट घाटा (ECL)- हानि आधारित ऋण प्रावधान के मानदंडों को लागू करने के लिये पर्याप्त समय दिया जाएगा।

अपेक्षित क्रेडिट घाटा - हानि आधारित ऋण प्रावधान के मानदंड: 

  • पृष्ठभूमि: 
    • RBI ने पहले क्रेडिट हानि पर ECL को अपनाने का प्रस्ताव दिया था, जिसके लिये अंतिम दिशा-निर्देश जारी होने के पश्चात् बैंकों को कार्यान्वयन के लिये एक वर्ष का समय दिया गया था।
    • इसके अंतिम दिशा-निर्देशों की घोषणा की जानी बाकी है, हालाँकि यह उम्मीद की जाती है कि बैंकों को 1 अप्रैल, 2025 के कार्यान्वयन के लिये वित्त वर्ष 2024 तक अधिसूचित किया जा सकता है।
    • भारतीय बैंक संघ (IBA) ने RBI से अनुरोध किया है कि ECL मानदंडों के कार्यान्वयन के लिये ऋणदाताओं को एक अतिरिक्त वर्ष का समय और प्रदान किया जाए।
  • परिचय: 
    • RBI ने ऋण चूक के मामले में बैंकों को प्रावधान के तहत अपेक्षित हानि (EL)-आधारित दृष्टिकोण अपनाने का प्रस्ताव दिया है।
    • इसके तहत बैंकों की वित्तीय संपत्तियों को तीन श्रेणियों (स्टेज 1, स्टेज 2, या स्टेज 3) में से एक में वर्गीकृत करने की आवश्यकता होगी।
  • परिसंपत्तियों का वर्गीकरण: 
    • चरण 1 परिसंपत्ति:  
      • ये वित्तीय परिसंपत्तियाँ हैं जिन्होंने अपनी प्रारंभिक मान्यता के बाद से क्रेडिट जोखिम में महत्त्वपूर्ण वृद्धि का अनुभव नहीं किया है या उनके पास रिपोर्टिंग तिथि पर कम क्रेडिट जोखिम है।
        • इन परिसंपत्तियों के लिये 12 महीने की अपेक्षित क्रेडिट हानियों की पहचान की जाती है और ब्याज राजस्व की गणना परिसंपत्ति की सकल अग्रणीत राशि के आधार पर की जाती है।
    • चरण 2 परिसंपत्ति:  
      • ये ऐसे वित्तीय साधन हैं जिन्होंने अपनी प्रारंभिक मान्यता के बाद से क्रेडिट जोखिम में उल्लेखनीय वृद्धि प्राप्त की है, हालाँकि इनके पास हानि का कोई वस्तुनिष्ठ प्रमाण नहीं है।
      • इन परिसंपत्तियों के लिये जीवनपर्यंत प्रत्याशित ऋण हानियों की पहचान की जाती है लेकिन ब्याज राजस्व की गणना अभी भी परिसंपत्ति की सकल अग्रणीत राशि के आधार पर की जाती है।
    • चरण 3 परिसंपत्ति:  
      • ये ऐसी वित्तीय परिसंपत्तियाँ हैं जिनके पास रिपोर्टिंग तिथि पर हानि का वस्तुनिष्ठ प्रमाण है।
        • इन परिसंपत्तियों के लिये आजीवन अपेक्षित ऋण हानि की पहचान की जाती है और ब्याज राजस्व की गणना शुद्ध वहन राशि के आधार पर की जाती है।
  • लाभ: 
    • अपेक्षित ऋण हानि दृष्टिकोण वैश्विक स्तर पर स्वीकृत मानकों के अनुरूप बैंकिंग प्रणाली के लचीलेपन को बढ़ाएगा।
    • उपगत हानि दृष्टिकोण के तहत देखी गई कमी की तुलना में इसके परिणामस्वरूप उच्च प्रावधान होने की अपेक्षा है।
  • ECL बनाम IL मॉडल: 
    • यह नया दृष्टिकोण मौजूदा "उपगत हानि (Incurred Loss- IL)" मॉडल को प्रतिस्थापित करता है जो ऋण हानि प्रावधानीकरण में विलंब करता है तथा संभावित रूप से बैंकों के लिये क्रेडिट जोखिम बढ़ाता है।
    • IL मॉडल में गंभीर दोष यह था कि सामान्यतः बैंकों ने उधारकर्त्ता को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करने के बाद देरी से अनुकूल प्रावधान किये, जिससे उनका क्रेडिट जोखिम बढ़ गया। इससे प्रणालीगत समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
    • इसके अलावा ऋण हानियों की देरी से पहचान के कारण बैंकों के राजस्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया, जिससे लाभांश वितरण के साथ-साथ संस्थानों के पूंजी आधार में काफी कमी आई।
  • संक्रमणकालीन व्यवस्था: 
    • पूंजीगत हानियों को रोकने हेतु RBI ने ECL मानदंडों की शुरुआत हेतु संक्रमणकालीन व्यवस्था का प्रस्ताव दिया है।
    • यह चरणबद्ध कार्यान्वयन बैंकों की लाभप्रदता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना किसी भी अतिरिक्त प्रावधान को कम करने में मदद करेगा।

ऋण-हानि प्रावधान की अवधारणा:

  • परिचय: 
    • ऋण-हानि प्रावधान, जैसा कि RBI द्वारा परिभाषित किया गया है, बैंकों द्वारा डिफॉल्ट किये गए ऋणों से होने वाले नुकसान को कवर करने हेतु अलग रखे गए धन के आवंटन को संदर्भित करता है।
    • सरल शब्दों में यह नकदी का एक भंडार है जिसे बैंक अपने ऋण चुकाने में उधारकर्त्ताओं की विफलता के परिणामस्वरूप होने वाले नुकसान के प्रभाव को कम करने हेतु रखते हैं।
  • प्रावधान: 
    • यह प्रावधान बैंक के आय विवरण पर व्यय के रूप में कार्य करता है और इसका उपयोग तब किया जा सकता है जब उधारकर्त्ताओं के अपने ऋण चुकाने की संभावना नहीं होती है।
    • ऋण-हानि भंडार का उपयोग करके बैंक अपने नकदी प्रवाह में प्रत्यक्ष कमी का सामना करने के बजाय होने वाले नुकसान को शामिल कर सकते हैं।
    • उदाहरण: 
      • एक ऐसे परिदृश्य पर विचार कीजिये जहाँ एक बैंक ने कुल 100,000 अमेरिकी डॉलर का ऋण जारी किया है और उसके पास 10,000 अमेरिकी डॉलर का ऋण हानि प्रावधान है।  
      • यदि कोई उधारकर्त्ता 1,000 अमेरिकी डॉलर के ऋण पर चूक करता है लेकिन केवल 500 अमेरिकी डॉलर चुकाता है, तो बैंक हानि को कवर करने के लिये ऋण हानि प्रावधान से 500 अमेरिकी डॉलर की कटौती कर लेगा।
  • निर्धारक तत्त्व: 
    • बैंक की सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक अपेक्षित स्तर के आधार पर ऋण हानि प्रावधान का स्तर निर्धारित किया जाता है।

ऋण हानि प्रावधानों के लिये वर्तमान दृष्टिकोण 

  • भारत में बैंक ऋण हानि प्रावधान करने के लिये ऋण-हानि मॉडल का अनुसरण करते हैं।
    • यह मॉडल मानता है कि सभी ऋणों का भुगतान तब तक किया जाएगा जब तक कि साक्ष्य अन्यथा सुझाव न दें, जैसे कि एक महत्त्वपूर्ण घटना जो हानि का संकेत देती है।
    • केवल जब ऐसी घटना घटित होती है तो बिगड़ा हुआ ऋण या ऋण का पोर्टफोलियो कम मूल्य पर लिखा जाता है

चुनौतियाँ: 

  •  व्यय में हुई हानि के दृष्टिकोण से बैंकों को ऋण की आवश्यकता होती है जो पहले ही हो चुके हैं।
    • हालाँकि वर्ष  2007-09 के वित्तीय संकट के दौरान अपेक्षित हानि की इस देरी से पहचान ने मंदी को और निकृष्ट कर दिया।
    • जैसे-जैसे प्रणाली में चूक बढ़ती गई, ऋण हानियों की देरी से पहचान के कारण बैंकों ने अपने पूंजीगत भंडार को कम करते हुए उच्च प्रावधान करने पर मजबूर किया है।
    • बदले में इसने बैंकों के लचीलेपन को कमज़ोर कर दिया और प्रणालीगत जोखिम पैदा कर दिया।
  • इसके अतिरिक्त ऋण हानियों को पहचानने में देरी के कारण बैंकों की उत्पन्न आय को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया।
  • लाभांश भुगतान के साथ संयुक्त रूप से इसने आंतरिक संसाधनों को कम करके उनके लचीलेपन से समझौता कर उनके पूंजी आधार को प्रभावित किया

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)

  1. पूंजी पर्याप्तता अनुपात (CAR) वह राशि है जिसे बैंकों को अपनी निधियों के रूप में रखना होता है जिससे वे, यदि खाता-धारकों द्वारा देयताओं का भुगतान नहीं करने से कोई हानि होती है, तो  उसका प्रतिकार कर सकें।
  2. CAR का निर्धारण प्रत्येक बैंक द्वारा अलग-अलग किया जाता है। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1  
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों  
(d) न तो 1 और न ही 2 

उत्तर: (a) 

व्याख्या: 

  • पूंजी पर्याप्तता अनुपात (CAR) एक बैंक की उपलब्ध पूंजी का एक माप है जिसे बैंक के जोखिम-भारित क्रेडिट एक्सपोज़र के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। इसका उपयोग जमाकर्त्ताओं की सुरक्षा और वित्तीय प्रणालियों की स्थिरता एवं दक्षता को बढ़ावा देने के लिये किया जाता है।
  • यह वह राशि है जिसे बैंकों को अपने स्वयं के धन के रूप में बनाए रखना होता है ताकि खाताधारकों द्वारा बकाया चुकाने में विफल रहने पर बैंकों को होने वाले किसी भी नुकसान की भरपाई की जा सके। अतः कथन 1 सही है।
  • CAR के तहत दो प्रकार की पूंजी मापी जाती है: 
  • टियर 1 पूंजी: यह प्रमुख पूंजी है, जिसमें इक्विटी पूंजी, साधारण शेयर पूंजी, अमूर्त संपत्ति और ऑडिटेड रेवेन्यू रिज़र्व शामिल हैं।
  • टीयर 2 पूंजी: इसमें गैर लेखापरीक्षित आय, गैर लेखापरीक्षित रिज़र्व और सामान्य हानि रिज़र्व शामिल हैं। 
  • CAR = (टियर 1 पूंजी + टियर 2 पूंजी)/जोखिम भारित परिसंपत्तियाँ 
  • वाणिज्यिक बैंकों को अतिरिक्त लेवरेज लेने और दिवालिया होने से रोकने के लिये CAR का निर्णय केंद्रीय बैंक अथवा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा किया जाता है।
  • बेसल III मानदंडों ने 8% जोखिम भारित परिसंपत्ति के लिये पूंजी निर्धारित की। भारतीय रिज़र्व बैंक के मानदंडों के अनुसार, भारतीय अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों को 9% CAR बनाए रखने की आवश्यकता होती है, जबकि भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये यही मानक 12% है। अतः कथन 2 सही नहीं है।

अतः विकल्प (a) सही उत्तर है

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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