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सामाजिक न्याय
पश्चिम बंगाल "अपराजिता" बलात्कार विरोधी विधेयक
प्रिलिम्स के लिये:बलात्कार अपराध, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013, भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO), सर्वोच्च न्यायालय। मेन्स के लिये:बलात्कार अपराध, संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
पश्चिम बंगाल विधानसभा ने अपराजिता महिला एवं बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024 पारित किया है जिसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दों का समाधान करना है।
- इसमें मृत्युदंड तथा बलात्कार एवं यौन उत्पीड़न के लिये कठोरतम दंड का प्रावधान शामिल है।
अपराजिता विधेयक, 2024 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
- BNS 2023, BNSS 2023 और POCSO 2012 अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव: प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) सहित कई कानूनी प्रावधानों में संशोधन करना है। विधेयक के प्रावधान सभी आयु समूहों के उत्तरजीवियों और पीड़ितों पर लागू होंगे।
- बलात्कार के लिये मृत्युदंड: विधेयक में बलात्कार के दोषियों के लिये मृत्युदंड का प्रस्ताव किया गया है, यदि इस कृत्य के परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो जाती है या वह अचेतावस्था/वेजेटेटिव स्टेट में चली जाती है।
- BNS कानून के तहत बलात्कार के लिये दंड इस प्रकार है: बलात्कार के लिये जुर्माना और न्यूनतम 10 वर्ष का कारावास; सामूहिक बलात्कार के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कारावास जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है; बलात्कार के ऐसे मामले जिनमें पीड़िता की मृत्यु हो जाती है अथवा वह अचेतावस्था में पहुँच जाती है, के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कठोर कारावास या मृत्युदंड।
- समयबद्ध जाँच और परीक्षण: बलात्कार के मामलों की जाँच प्रारंभिक रिपोर्ट के 21 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिये और परीक्षण 30 दिनों के भीतर पूरा किया जाना चाहिये। किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के लिखित औचित्य के साथ ही समय-सीमा में विस्तार की अनुमति है।
- BNSS कानून के तहत जाँच और मुकदमे की समय-सीमा FIR की तारीख से 2 महीने है।
- फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना: इसमें यौन हिंसा के मामलों के त्वरित निपटारे के लिये समर्पित 52 विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान है।
- अपराजिता टास्क फोर्स: विधेयक में ज़िला स्तर पर एक विशेष टास्क फोर्स की स्थापना का प्रावधान है, जिसका नेतृत्व पुलिस उपाधीक्षक करेंगे तथा जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बलात्कार व अन्य अत्याचारों की जाँच के लिये समर्पित होगी।
- बार-बार अपराध करने वालों के लिये कठोर दंड: इस कानून में बार-बार अपराध करने वालों के लिये आजीवन कारावास का प्रावधान है तथा यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो मृत्युदंड का भी प्रावधान है।
- पीड़ितों की पहचान की सुरक्षा: विधेयक में कानूनी प्रक्रिया के दौरान पीड़ितों की पहचान की सुरक्षा और उनकी गोपनीयता तथा गरिमा सुनिश्चित करने के प्रावधान शामिल हैं।
- न्याय में देरी के लिये दंड: इसमें पुलिस और स्वास्थ्य अधिकारियों के लिये दंड का प्रावधान है, जो समय पर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में किसी भी लापरवाही के लिये अधिकारियों को जवाबदेह बनाना है।
- प्रकाशन प्रतिबंध: विधेयक में यौन अपराधों से संबंधित न्यायालय की कार्यवाही के अनधिकृत प्रकाशन पर कठोर दंड का प्रावधान किया गया है, जिसके लिये 3 से 5 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है।
अपराजिता विधेयक 2024 से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- संवैधानिक वैधता: अपराजिता महिला एवं बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024 केंद्रीय कानूनों में संशोधन करने का प्रयास करता है, जिससे इसकी संवैधानिक वैधता और अधिकार क्षेत्र संबंधी मुद्दों पर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत राज्यों को राज्य सूची में सूचीबद्ध मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार है। हालाँकि आपराधिक कानूनों पर समवर्ती अधिकार से जटिलता उत्पन्न होती है। यदि विधेयक केंद्रीय कानून को दरकिनार करता है, तो उसे राष्ट्रपति की सहमति की आवश्यकता होगी।
- अवास्तविक समय सीमा: बलात्कार के मामलों की जटिलता और कानूनी व्यवस्था में मौजूदा बैकलॉग को देखते हुए 21 दिनों के भीतर जाँच पूरी करना एक बड़ी चुनौती है।
- कानूनी चुनौतियाँ: ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें केंद्रीय कानूनों में राज्य संशोधनों को न्यायालयों में चुनौती दी गई है। उदाहरण के लिये:
- पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ मामला (1964): इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की सर्वोच्चता की पुष्टि करते हुए, केंद्रीय भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के साथ विरोधाभासी होने के कारण पश्चिम बंगाल भूमि सुधार अधिनियम, 1955 को अमान्य कर दिया।
- के.के. वर्मा बनाम भारत संघ मामला (1960): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय कानूनों के साथ असंगतता के कारण मध्य प्रदेश कृषि उपज बाज़ार अधिनियम, 1958 को रद्द कर दिया।
- ये मामले राज्य संशोधनों पर केंद्रीय कानून की सर्वोच्चता पर न्यायपालिका के रुख को रेखांकित करते हैं।
- कार्यान्वयन चुनौतियाँ: विधेयक के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके लिये कानून प्रवर्तन अवसंरचना में उन्नयन और पुलिस व न्यायिक अधिकारियों के लिये विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी।
- अत्यधिक बोझ वाले न्यायालय: भारतीय न्यायालयों को अत्यधिक विलंब का सामना करना पड़ता है, मामलों को हल करने में औसतन 13 वर्ष से अधिक का समय लगता है। यह बैकलॉग त्वरित जाँच के बाद समय पर सुनवाई में बाधा डाल सकता है।
- अभियुक्त के कानूनी अधिकार: कानूनी तंत्र अभियुक्त के लिये निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है, जो अपील और दया याचिकाओं के माध्यम से प्रक्रिया पूरी होने में विलंब कर सकता है।
नोट:
भारत में आपराधिक कानून राज्य और केंद्र दोनों सरकारों द्वारा विनियमित किया जाता है, क्योंकि यह संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है, जिससे दोनों स्तरों को इस विषय पर कानून बनाने में सक्षम बनाया जाता है।
भारत में बलात्कार से संबंधित कानून क्या हैं?
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013: इसे यौन अपराधों के खिलाफ प्रभावी कानूनी रोकथाम के लिये अधिनियमित किया गया था।
- अधिनियम के तहत बलात्कार के लिये न्यूनतम सजा को 7 वर्ष से बदलकर 10 वर्ष कर दिया गया। इसके अतिरिक्त ऐसे मामलों में जहाँ पीड़िता की मृत्यु हो जाती है और वह अचेत अवस्था में चली जाती है, न्यूनतम सजा को विधिवत बढ़ाकर 20 वर्ष कर दिया गया है।
- इसके अतिरिक्त आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 को 12 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ बलात्कार के लिये मृत्युदंड सहित और भी कठोर दंडात्मक प्रावधानों को निर्धारित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO): यह अधिनियम बच्चों को यौन शोषण, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से बचाने के लिये बनाया गया था।
- इस अधिनियम ने सहमति की आयु को बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया (जो वर्ष 2012 तक 16 वर्ष थी) और 18 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिये सभी यौन गतिविधियों को अपराध घोषित कर दिया, भले ही दो नाबालिगों के बीच सहमति मौजूद हो।
- इस अधिनियम में वर्ष 2019 में भी संशोधन किया गया था ताकि बच्चों की रक्षा, सुरक्षा और गरिमा सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न अपराधों हेतु सजा बढ़ाने का प्रावधान किया जा सके।
- इस अधिनियम ने सहमति की आयु को बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया (जो वर्ष 2012 तक 16 वर्ष थी) और 18 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिये सभी यौन गतिविधियों को अपराध घोषित कर दिया, भले ही दो नाबालिगों के बीच सहमति मौजूद हो।
- बलात्कार पीड़िता के अधिकार:
- ज़ीरो FIR का अधिकार: ज़ीरो FIR का अर्थ है कि व्यक्ति किसी भी पुलिस स्टेशन में FIR दर्ज करा सकता है, चाहे घटना किसी भी क्षेत्राधिकार में घटित हुई हो।
- निशुल्क चिकित्सा उपचार: दंड प्रक्रिया संहिता (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 357 C के अनुसार, कोई भी निजी या सरकारी अस्पताल बलात्कार पीड़ितों के उपचार के लिये शुल्क नहीं ले सकता है।
- टू-फिंगर टेस्ट नहीं: किसी भी डॉक्टर को मेडिकल जाँच करते समय टू फिंगर टेस्ट करने का अधिकार नहीं होगा।
- मुआवज़े का अधिकार: CrPc की धारा 357A के रूप में एक नया प्रावधान प्रस्तुत किया गया है, जो पीड़ितों को मुआवज़े के रूप में कुछ राशि प्रदान करता है।
महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में क्या चुनौतियाँ हैं?
- महिलाओं के खिलाफ अपराधों की अत्यधिक घटनाएँ: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 'भारत में अपराध' रिपोर्ट के डेटा से पता चलता है कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज अपराध वर्ष 2014 में 3.37 लाख से बढ़कर वर्ष 2022 में 4.45 लाख हो गए, जो 30% से अधिक की वृद्धि है।
- अपराध दर (प्रति लाख महिलाओं पर अपराध) भी वर्ष 2014 में 56.3 से बढ़कर 2022 तक 66.4 हो गई।
- पितृसत्तात्मक मानसिकता: समाज में गहनता से व्याप्त पितृसत्ता पुरुष वर्चस्व और अधिकार को बढ़ावा देती है, महिलाओं को वस्तु के रूप में देखती है तथा शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण करती है।
- यह सांस्कृतिक मानसिकता महिलाओं की सुरक्षा और समानता के लिये एक बड़ी बाधा है।
- मीडिया द्वारा वस्तुकरण: मीडिया चित्रण अक्सर महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश करता है, उनकी स्वायत्तता को कम करता है और ऐसी संस्कृति में योगदान देता है जो महिलाओं के अधिकारों की अवहेलना करती है। यह वस्तुकरण हानिकारक रूढ़ियों तथा सामाजिक दृष्टिकोणों को मज़बूत करता है।
- विलंबित न्याय और कानूनी चुनौतियाँ: धीमी कानूनी प्रक्रिया और मृत्यु दंड का अनियमित प्रावधान पीड़ितों के लिये आघात को बढ़ाता है। मृत्युदंड की प्रभावशीलता के बारे में चल रही चर्चा के साथ ही समय पर न्याय मिलना भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।
- जागरूकता और शिक्षा का अभाव: अपर्याप्त यौन शिक्षा और सहमति तथा लिंग संवेदनशीलता के बारे में चर्चा हानिकारक रूढ़ियों एवं अज्ञानता को बनाए रखती है, जिससे प्रभावी हस्तक्षेप में बाधा आती है।
- बुनियादी ढाँचा और सुरक्षा उपाय: खराब रोशनी वाली सड़कें, अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों की कमी महिलाओं की भेद्यता को बढ़ाती है। बुनियादी ढाँचे तथा सुरक्षा उपायों में सुधार आवश्यक है।
आगे की राह
- व्यापक कानूनी ढाँचा: भारतीय दण्ड संहिता के तहत महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिये सज़ा को मज़बूत करने की आवश्यकता है, स्टॉकिंग, साइबर हेरेसमेंट और घरेलू हिंसा के लिये विशेष कानून लागू करने की आवश्यकता है तथा त्वरित न्याय हेतु विशेष न्यायालयों व पुलिस इकाइयों की स्थापना करनी चाहिये।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट: न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिश के अनुसार फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित करें और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों के लिये सजा बढ़ाएँ।
- न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाएँ।
- सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन: स्कूलों और कॉलेजों में लैंगिक समानता शिक्षा को एकीकृत करने, महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाली सामुदायिक पहलों का समर्थन करने तथा महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण व निर्णय लेने में भागीदारी हेतु नीतियों को लागू करने की आवश्यकता है।
- प्रभावी कानून प्रवर्तन और न्याय प्रणाली: पुलिस के लिये लिंग-संवेदनशील प्रशिक्षण प्रदान करें, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिये विशेष इकाइयाँ बनाएँ तथा पीड़ित सहायता केंद्र स्थापित करें।
- बुनियादी ढाँचा और प्रौद्योगिकी: सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों को उन्नत करने, सार्वजनिक क्षेत्रों में सीसीटीवी कैमरे लगाने और सुरक्षा ऐप तथा आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।
- सशक्तीकरण और जागरूकता: महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने और हिंसा की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित करने हेतु अभियान चलाएँ तथा महिला संगठनों का समर्थन करें ताकि उनके प्रयासों को मज़बूती से प्रचारित किया जा सके।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: कानूनी सुरक्षा के बावजूद भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई है। ऐसे अपराधों की उच्च दरों में योगदान देने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिये और इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये व्यापक सुधारों पर विचार कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मेन्सप्रश्न. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बढ़ते मामलों को देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये कुछ नवीन उपाय सुझाएँ। (2014) |
शासन व्यवस्था
महिलाओं की न्यूनतम विवाह आयु 21 वर्ष करने हेतु विधेयक
प्रिलिम्स के लिये:राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति, विवाह योग्य न्यूनतम आयु, भारत के संविधान की 7वीं अनुसूची, अनुच्छेद 200, अनुच्छेद 254, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, ओडिशा का बाल विवाह मुक्त गाँव मेन्स के लिये:महिलाओं के लिये विवाह योग्य आयु को बढ़ाना, बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों ?
हाल ही में हिमाचल प्रदेश (HP) विधानसभा ने बाल विवाह प्रतिषेध (हिमाचल प्रदेश संशोधन) विधेयक, 2024 पारित किया, जिसका उद्देश्य महिलाओं के लिये न्यूनतम विवाह योग्य आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष करना है।
- इसका उद्देश्य लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और महिलाओं में उच्च शिक्षा को। प्रोत्साहित करने के लिये बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 (PCMA 2006) में संशोधन करना है
- लैंगिक समानता के लिये इसके निहितार्थ और राष्ट्रपति की स्वीकृति की संभावित आवश्यकता के कारण इसने महत्त्वपूर्ण चर्चा को जन्म दिया है।
महिलाओं की न्यूनतम विवाह आयु पर HP के विधेयक में क्या शामिल है?
- 'बच्चे' की पुनर्परिभाषा: वर्ष 2006 के अधिनियम की धारा 2(a) में ‘बच्चे’ को 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष या 18 वर्ष से कम आयु की महिला के रूप में परिभाषित किया गया है।
- विधेयक में इस लिंग-आधारित भेद को हटाया गया है और लिंग की परवाह किये बिना 21 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को ‘बच्चे’ के रूप में परिभाषित किया गया है।
- याचिका अवधि का विस्तार: विधेयक विवाह को रद्द करने (विवाह को अमान्य और कानूनी रूप से शून्य घोषित करने) के लिये याचिका दायर करने की समय अवधि भी बढ़ाता है।
- वर्ष 2006 के अधिनियम की धारा 3 के तहत विवाह के समय नाबालिग रहा कोई भी व्यक्ति वयस्क होने के दो वर्ष के भीतर (महिलाओं के लिये 20 वर्ष और पुरुषों के लिये 23 वर्ष की आयु से पहले) विवाह निरस्तीकरण के लिये आवेदन कर सकता है।
- विधेयक में इस अवधि को बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है, जिससे महिलाओं और पुरुषों दोनों को 21 वर्ष की नई व न्यूनतम विवाह योग्य आयु के अनुसार 23 वर्ष की आयु से पहले याचिका दायर करने की अनुमति है।
- अन्य कानूनों पर वरीयता: एक नया प्रावधान, धारा 18A, यह सुनिश्चित करता है कि विधेयक के प्रावधान मौजूदा कानूनों और सांस्कृतिक प्रथाओं पर वरीयता प्राप्त करें, जिससे हिमाचल प्रदेश में एक समान न्यूनतम विवाह योग्य आयु स्थापित हो।
राष्ट्रपति की स्वीकृति क्यों आवश्यक है?
- राज्यपाल के विकल्प: संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत जब कोई विधेयक किसी राज्य की विधान सभा द्वारा पारित कर दिया गया है या विधान परिषद वाले राज्य के मामले में राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है, तो इसे राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। राज्यपाल विधेयक पर सहमति दे भी सकता है और नहीं भी या विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस कर सकता है या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रख सकता है।
- यदि राज्यपाल को लगता है कि यह विधेयक उच्च न्यायालय के अधिकार को कमज़ोर करता है या केंद्रीय कानूनों में हस्तक्षेप करता है, तो वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखता है।
- केंद्रीय कानून के साथ असंगति: हिमाचल प्रदेश विधेयक महिलाओं के लिये एक अलग विवाह योग्य न्यूनतम आयु का प्रस्ताव करता है, जो संभवतः केंद्रीय PCMA, 2006 के साथ असंगत है।
- संवैधानिक विचार: भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार विवाह और तलाक इस समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 के अंतर्गत आते हैं, जो केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों को बाल विवाह को विनियमित करने की अनुमति देता है।
- हालाँकि यदि कोई राज्य कानून किसी केंद्रीय कानून के साथ असंगत है, तो इसे तब तक ‘अमान्य’ माना जा सकता है जब तक कि इसे राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो जाए।
- संविधान का अनुच्छेद 254 विरोध के सिद्धांत को स्थापित करता है, जो केंद्रीय और राज्य कानूनों के बीच असंगतता से निपटता है।
- संसद के पास संघ सूची के विषयों पर और राज्य विधायिका के पास राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्तियाँ हैं तथा समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों के पास कानून बनाने की शक्तियाँ हैं।
- जब दो कानून परस्पर असंगत होते हैं, तो विरोध उत्पन्न होता है और यदि समवर्ती सूची के किसी विषय पर राज्य का कानून केंद्रीय कानून के विरुद्ध है, तो केंद्रीय कानून लागू होता है तथा राज्य का कानून असंगतता की सीमा तक अमान्य होता है।
- यदि राज्य का कानून राष्ट्रपति के लिये आरक्षित है और उसे स्वीकृति मिल जाती है, तो वह राज्य के भीतर प्रभावी हो सकता है और उस राज्य में केंद्रीय कानून के प्रावधानों को दरकिनार कर सकता है।
हिमाचल प्रदेश की महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु विधेयक के बारे में क्या चिंताएँ हैं?
- कानूनी अस्पष्टताएँ: प्रस्तावित कानूनी ढाँचा असंगतियाँ उत्पन्न कर सकता है, जैसे कि 18 वर्ष की आयु से सहमति से यौन संबंध बनाने की अनुमति देना लेकिन 21 वर्ष की आयु तक विवाह को प्रतिबंधित करना।
- यह विसंगति नए मुद्दों को उत्पन्न कर सकती है, जैसे कि प्रजनन अधिकारों और कानूनी स्थिति से संबंधित जटिलताएँ।
- किशोर न्याय देखभाल और संरक्षण तथा एकीकृत बाल संरक्षण योजना केवल 18 वर्ष की आयु तक सहायता प्रदान करती है, जिससे 19-21 वर्ष की आयु के बाल वधु/वरों को सहायता देने के लिये कोई स्थान नहीं बचता।
- आलोचकों ने चिंता जताई है कि यह 21 वर्ष की आयु से पूर्व विवाह करने वाली महिलाओं के लिये कानूनी सुरक्षा को भी सीमित कर सकता है तथा संभावित रूप से प्रभावित समुदायों पर पुलिस की निगरानी बढ़ाई जा सकती है।
- कार्यकर्ताओं का विरोध: बाल और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का तर्क है कि विवाह की आयु बढ़ाने से अनजाने में माता-पिता का नियंत्रण मज़बूत हो सकता है और युवा वयस्कों की स्वायत्तता में बाधा आ सकती है।
- उनके अनुसार वर्तमान कानून का कभी-कभी उन लड़कियों को दंडित करने के लिये दुरुपयोग किया जाता है जो अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध जीवन साथी चुनती हैं।
विवाह के लिये न्यूनतम आयु क्यों निर्धारित की गई है?
- बाल विवाह को रोकने: विवाह की न्यूनतम आयु नाबालिगों के साथ दुर्व्यवहार को रोकने और बाल विवाह को गैरकानूनी बनाने के लिये निर्धारित की गई है।
- कानूनी मानक:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़के की 21 वर्ष निर्धारित करता है।
- इस्लामिक कानून: प्यूबर्टी प्राप्त कर चुके नाबालिग के विवाह को वैध मानता है।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA), 2006: लड़की के लिये 18 वर्ष और लड़के के लिये 21 वर्ष की आयु निर्धारित करता है। PCMA 2006 भी इस आयु से कम में होने वाले विवाह को केवल तभी "अमान्य" (हाँलाकि कुछ कानूनी, लेकिन जिसे बाद में अनुबंध के एक पक्ष द्वारा रद्द किया जान सकता है) मानता है जब उस पर विवाद हो।
- वैकल्पिक सिफारिशें: वर्ष 2008 की विधि आयोग की रिपोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्ष 2018 के प्रस्ताव ने लड़के एवं लड़की दोनों के लिये 18 वर्ष की एक समान विवाह आयु निर्धारित करने की सिफारिश की, जिसके बारे में कुछ लोगों का तर्क है कि यह अधिक न्यायसंगत समाधान हो सकता है।
- महिलाओं के खिलाफ भेदभाव उन्मूलन समिति सहित विभिन्न संयुक्त राष्ट्र निकाय लड़के एवं लड़की दोनों के लिये न्यूनतम विवाह आयु 18 वर्ष करने का समर्थन करते हैं, क्योंकि उन्हें विवाह की महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों को संभालने से पहले पूर्ण परिपक्वता तथा कार्य करने की क्षमता प्राप्त करनी चाहिये।
विवाह आयु कानून का विकास
बाल विवाह का अस्तित्त्व भारतीय समाज में उपनिवेशवाद से भी पहले से है। वर्ष 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम ने लड़कियों के लिये आयु सीमा 14 वर्ष और लड़कों के लिये 18 वर्ष निर्धारित की, लेकिन कम आयु सीमा के कारण यह अप्रभावी था।
- इस अधिनियम में वर्ष 1978 में संशोधन करके लड़कियों के लिये आयु सीमा 18 वर्ष और लड़कों के लिये 21 वर्ष कर दी गई, लेकिन फिर भी इससे बाल विवाह में कमी नहीं आई।
- वर्ष 2006 के PCMA का उद्देश्य समाज से बाल विवाह को पूरी तरह से खत्म करना है। यह अधिनियम बाल विवाह को अवैध बनाता है, पीड़ितों के अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करता है और ऐसे विवाहों में सहायता करने, उन्हें बढ़ावा देने या उन्हें संपन्न कराने वालों के लिये दंड को कठोर करता है।
- बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक, 2021 दिसंबर 2021 में लोकसभा में पेश किया गया और एक स्थायी समिति को भेजा गया।
- हालांकि 17वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक अब समाप्त हो गया है। विधेयक का उद्देश्य लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु को 21 वर्ष करना तथा किसी भी अन्य कानून, प्रथा को निरस्त करना था।
सरकार विवाह की आयु पर पुनः विचार क्यों कर रही है?
- लिंग तटस्थता: विवाह की आयु की फिर से विचार करने का एक मुख्य कारण लिंग समानता सुनिश्चित करना है। लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष करने के पीछे सरकार का उद्देश्य इसे पुरुषों के लिये मौजूदा आयु आवश्यकता के अनुरूप बनाना है, जिससे समानता को बढ़ावा मिले।
- स्वास्थ्य प्रभाव: कम उम्र में गर्भधारण जैसे मुद्दों का समाधान करना, जो पोषण स्तर, मातृ एवं शिशु मृत्यु दर (MMR एवं IMR) और समग्र स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
- शैक्षिक और आर्थिक प्रभाव: कम उम्र में विवाह के कारण शिक्षा और आजीविका की संभावनाओं में होने वाली गिरावट को कम करना।
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा विवाह की आयु बढ़ाने के निहितार्थों का आकलन करने के लिये जून 2020 में जया जेटली समिति की स्थापना की गई
- समिति ने विवाह की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने की सिफारिश की ताकि शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण और यौन शिक्षा तक पहुँच बढ़ाई जा सके।
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा विवाह की आयु बढ़ाने के निहितार्थों का आकलन करने के लिये जून 2020 में जया जेटली समिति की स्थापना की गई
- सामाजिक और आर्थिक विकास: यह पुनर्परीक्षण सामाजिक और आर्थिक विकास के व्यापक लक्ष्यों के साथ संरेखित है। कम उम्र में विवाह को संबोधित करके सरकार का उद्देश्य गरीबी और सामाजिक कलंक जैसे संबंधित मुद्दों से निपटना है, जो अक्सर परिवारों को कम उम्र में विवाह करने के लिये मज़बूर करते हैं।
क्या विवाह की आयु बढ़ाने से व्यवस्थित असमानताएँ दूर होंगी?
- सतही समानता: विवाह की आयु 21 वर्ष करना पुरुषों की आयु के अनुरूप है, लेकिन केवल इससे लैंगिक समानता या सशक्तीकरण की गारंटी नहीं मिलती। एक अत्यधिक पितृसत्तात्मक समाज में केवल संख्यात्मक समानता महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली व्यवस्थित असमानताओं को संबोधित नहीं करती है।
- वास्तविक सशक्तीकरण केवल विवाह हेतु समान आयु में निहित नहीं है बल्कि इसके लिये समान आर्थिक अवसर, शिक्षा तक पहुँच और महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण जैसे व्यापक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।
- लैंगिक समानता में केवल आयु कानून ही शामिल नहीं है; इसमें वेतन अंतर, कार्यस्थल भेदभाव और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच जैसे मुद्दों को संबोधित करना भी शामिल है।
- अनसुलझी समस्याएँ: विवाह की आयु बढ़ाने से कम उम्र में विवाह के पीछे के वास्तविक मुद्दों जैसे दहेज की मांग, सामाजिक कलंक और पारिवारिक नियंत्रण का समाधान नहीं होता है।
- ये मुद्दे सामाजिक और आर्थिक कारकों से प्रेरित हैं, जिन्हें केवल कानूनी परिवर्तनों से हल नहीं किया जा सकता।
- स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: संशोधन के समर्थकों का सुझाव है कि विवाह की आयु बढ़ाने से मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में सुधार होगा।
- हालाँकि मौजूदा आँकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों में विवाह की औसत आयु पहले से ही अधिक है (केरल में महिलाओं की शादी औसतन 21.4 वर्ष में हो जाती है) और स्वास्थ्य परिणाम समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से अधिक निकटता से जुड़े हुए हैं।
- सांस्कृतिक प्रतिरोध: कई जनजातीय समुदायों में कानूनी बदलावों के बावजूद पारंपरिक मानदंड और प्रथाएँ कम उम्र में विवाह को बढ़ावा दे सकती हैं। सांस्कृतिक प्रतिरोध को संबोधित करना और मानसिकता को बदलना नीति की सफलता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
आगे की राह
- सामाजिक-व्यवहारगत परिवर्तन: संशोधन की प्रभावशीलता व्यापक सामाजिक परिवर्तनों पर निर्भर करती है।
- ओडिशा के बाल विवाह मुक्त गाँवों जैसे सफल उदाहरण समुदाय-संचालित पहलों और सहायता प्रणालियों की आवश्यकता को उजागर करते हैं।
- बाल विवाह की अमान्यता: वर्तमान कानून बाल विवाह को प्रारम्भ से ही अमान्य करने के बजाय अमान्यकरणीय बनाता है, जिससे कानूनी सुधारों की प्रभावशीलता कम हो सकती है।
- मूल कारणों का समाधान: महिलाओं के लिये शैक्षिक पहुँच, व्यावसायिक प्रशिक्षण और आर्थिक अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना महत्त्वपूर्ण है।
- नीतियों का लक्ष्य सुरक्षित, लचीली शिक्षा और नौकरी के अवसर प्रदान करना होना चाहिये, जिससे विवाह में देरी हो सके तथा समग्र कल्याण में सुधार हो सके।
- व्यापक सुधार: कानूनी बदलावों के बजाय सामाजिक परिवर्तन और मौजूदा कानूनों के प्रवर्तन को शामिल करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक है।
- इसमें सामाजिक दबावों का समाधान करना, प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करना, व्यापक यौन शिक्षा लागू करना और हानिकारक प्रथाओं को समाप्त करना शामिल है।
- महामारी का आर्थिक प्रभाव: कोविड महामारी के आर्थिक प्रभावों पर ध्यान दें, जिसके कारण नौकरियों में कमी आई है और आर्थिक रूप से तनावग्रस्त परिवारों में कम उम्र में विवाह होने लगे हैं।
- इतिहास से सीख: विवाह कानूनों को बदलने के ऐतिहासिक प्रयासों ने मिश्रित परिणाम दिखाए हैं। सफल लैंगिक समानता पहलों में अक्सर कानूनी परिवर्तन, सामाजिक सुधार और शैक्षिक प्रयासों का संयोजन शामिल होता है।
- अन्य देशों के साथ तुलना करने और इन प्रथाओं की जाँच करने से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: विवाह की न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 करने से लैंगिक समानता और सामाजिक मानदंडों पर संभावित प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। इस कानूनी बदलाव से क्या चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न.भारतीय संविधान का कौन-सा अनुच्छेद किसी व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार की रक्षा करता है? (2019) (a) अनुच्छेद 19 उत्तर: (b) मेन्स:प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों और निर्णय विधियों की मदद से लैंगिक न्याय के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य की व्याख्या कीजिये। (2023) |
सामाजिक न्याय
सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की अपर्याप्तता पर लैंसेट का अध्ययन
प्रिलिम्स के लिये:कुपोषण, विटामिन, एंजाइम, एनीमिया, विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति (SOFI), राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-21, मिशन पोषण 2.0, यूनिसेफ। मेन्स के लिये:पोषक तत्त्वों की कमी की व्यापकता, पोषक तत्त्वों की कमी और कुपोषण से निपटने के लिये आवश्यक उपाय। |
स्रोत : डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन ने विभिन्न क्षेत्रों और आयु समूहों में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के सेवन की वैश्विक अपर्याप्तता विशेष रूप से आयोडीन, विटामिन ई (टोकोफेरोल), कैल्शियम, आयरन, राइबोफ्लेविन (विटामिन B2) और फोलेट (विटामिन B9) पर प्रकाश डाला।
- आहार सेवन डेटा पर आधारित पहले वैश्विक अनुमान के रूप में यह आहार संशोधन, बायोफोर्टिफिकेशन, फोर्टिफिकेशन और पूरकता जैसे पोषण हस्तक्षेप की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
श्रेणी |
पोषक तत्त्व |
मुख्य निष्कर्ष |
वैश्विक निष्कर्ष |
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लिंग भेद |
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भारत-विशिष्ट निष्कर्ष |
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सूक्ष्म पोषक तत्त्व क्या हैं?
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों का परिचय: सूक्ष्म पोषक तत्त्वों में शरीर के लिये बहुत कम मात्रा में आवश्यक विटामिन और खनिज शामिल होते हैं। उदाहरण के लिये, आयरन, विटामिन ए, आयोडीन आदि।
- वे सामान्य वृद्धि और विकास के लिये आवश्यक एंजाइम, हार्मोन तथा अन्य पदार्थों के उत्पादन हेतु महत्त्वपूर्ण होते हैं।
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी का प्रभाव:
- गंभीर स्थितियाँ: सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, खासकर बच्चों और गर्भवती महिलाओं में। उदाहरण के लिये एनीमिया।
- सामान्य स्वास्थ्य: सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी से कम दिखाई देने वाली लेकिन महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं जैसे कि ऊर्जा का स्तर कम होना, मानसिक स्पष्टता और समग्र क्षमता में कमी।
- दीर्घकालिक प्रभाव: ये कमियाँ शैक्षिक परिणामों, कार्य उत्पादकता को प्रभावित कर सकती हैं और अन्य बीमारियों तथा स्वास्थ्य स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा सकती हैं।
- प्रकार:
- अल्पपोषण:
- वेस्टिंग: लंबाई के हिसाब से कम वज़न को वेस्टिंग कहते हैं। यह तब होता है जब किसी व्यक्ति को खाने के लिये पर्याप्त भोजन नहीं मिला हो और/या उसे कोई संक्रामक रोग हो।
- स्टंटिंग: आयु के हिसाब से कम लंबाई को स्टंटिंग कहते हैं। यह अक्सर अपर्याप्त कैलोरी सेवन के कारण होता है, जिससे लंबाई के हिसाब से वज़न कम हो जाता है।
- अंडरवेट: आयु के हिसाब से कम वज़न वाले बच्चों को अंडरवेट कहते हैं। कम वज़न वाला बच्चा स्टंटेड, वेस्टेड या दोनों हो सकता है।
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से संबंधित कुपोषण:
- विटामिन ए की कमी: विटामिन ए के अपर्याप्त सेवन से दृष्टि दोष, कमज़ोर प्रतिरक्षा और अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं।
- आयरन की कमी: एनीमिया का कारण बनता है, जिससे शरीर की ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता प्रभावित होती है, जिससे थकान और कमज़ोरी होती है।
- आयोडीन की कमी: थायरॉयड से संबंधित विकार होते हैं, जिससे विकास और संज्ञानात्मक विकास प्रभावित होता है।
- मोटापा: अत्यधिक कैलोरी का सेवन, अक्सर एक गतिहीन जीवन शैली के साथ मिलकर मोटापे का कारण बन सकता है। यह शरीर में अतिरिक्त वसा के संचय के कारण होता है , जो हृदय संबंधी बीमारियों और मधुमेह जैसे स्वास्थ्य जोखिम उत्पन्न करता है।
- वयस्कों में अधिक वज़न को 25 या उससे अधिक के बॉडी मास इंडेक्स (BMI) के रूप में परिभाषित किया जाता है, जबकि मोटापा 30 या उससे अधिक के BMI को दर्शाता है।
- आहार संबंधी गैर-संचारी रोग (NCD): इसमें हृदय संबंधी रोग, जैसे दिल का दौरा और स्ट्रोक शामिल हैं, जो अक्सर उच्च रक्तचाप से जुड़े होते हैं, जो मुख्य रूप से अस्वास्थ्यकर आहार एवं अपर्याप्त पोषण से उत्पन्न होते हैं।
- अल्पपोषण:
सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी को रोकने में WHO की भूमिका
- मुख्य कार्यक्रम और हस्तक्षेप:
- पोषण में महत्वाकांक्षा और कार्रवाई: WHO विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी को रोकने के लिये सदस्य राज्यों और भागीदारों के साथ कार्य करता है।
- यह दृष्टिकोण विश्व स्वास्थ्य संगठन की पोषण महत्त्वाकांक्षा और कार्रवाई 2016-2025 द्वारा निर्देशित है, जिसका लक्ष्य 'सभी प्रकार के कुपोषण से मुक्त विश्व बनाना है, जहाँ सभी लोग स्वास्थ्य और कल्याण प्राप्त कर सकें’।
- आयरन और फोलिक एसिड अनुपूरण: यह कमियों और संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं को रोकने के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व प्रदान करता है, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं जैसी संवेदनशील समूहों में।
- अधिक खुराक विटामिन A अनुपूरण: इसका उद्देश्य विटामिन A की कमी को रोकना है जो विशेष रूप से बच्चों में दृष्टि और प्रतिरक्षा कार्य के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- खाद्य पदार्थों का सुदृढ़ीकरण:
- नमक आयोडीनीकरण: विश्व स्तर पर आयोडीन की कमी को कम करने में प्रभावी।
- गेहूँ के आटे का सुदृढ़ीकरण: आयरन और फोलिक एसिड का उपयोग एनीमिया को रोकने में सहायता के लिये किया जाता है।
- पोषण में महत्वाकांक्षा और कार्रवाई: WHO विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी को रोकने के लिये सदस्य राज्यों और भागीदारों के साथ कार्य करता है।
भारत में कुपोषण की स्थिति क्या है?
- अल्पपोषण: वर्ष 2024 में जारी ‘स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड’ (SOFI) रिपोर्ट के अनुसार भारत में 194.6 मिलियन (19.5 करोड़) अल्पपोषित लोग हैं जो विश्व के किसी भी देश में सबसे अधिक है।
- बाल कुपोषण: विश्व के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-21 के अनुसार पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 36% बच्चे अविकसित/स्टंटिंग हैं, 19% वेस्टिंग/दुर्बलता हैं, 32% कम वजन वाले हैं और 3% अधिक वजन वाले हैं।
- ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023: वर्ष 2023 में भारत का GHI स्कोर 28.7 है, जिसे GHI भुखमरी की गंभीरता के मापदंड के अनुसार "गंभीर" के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- भारत में बाल दुर्बलता दर 18.7 है, जो रिपोर्ट में सबसे अधिक है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5: विभिन्न समूहों में कुपोषण की व्यापकता काफी भिन्न है:
- 15-49 वर्ष की आयु के पुरुषों में 25.0%, 15-49 वर्ष की आयु की महिलाओं में 57.0%, 15-19 वर्ष की आयु के किशोर लड़कों में 31.1%, किशोर लड़कियों में 59.1%, 15-49 वर्ष की आयु की गर्भवती महिलाओं में 52.2% तथा 6-59 माह की आयु के बच्चों में 67.1% है।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और झारखंड में कुपोषण की दर अधिक है।
- मिज़ोरम, सिक्किम और मणिपुर की स्थिति अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर है।
कुपोषण के परिणाम क्या हैं?
- स्वास्थ्य पर प्रभाव:
- बाधित विकास: बच्चों में कुपोषण के कारण अपर्याप्त विकास हो सकता है, जिससे उनका शारीरिक विकास और संज्ञानात्मक क्षमता दोनों प्रभावित हो सकते हैं।
- कमज़ोर प्रतिरक्षा: कुपोषण से पीड़ित लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली प्रायः कमज़ोर होती है, जिससे वे बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं तथा रुग्णता और मृत्यु दर बढ़ जाती है।
- पोषक तत्त्वों की कमी: आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के अपर्याप्त सेवन से आयरन, विटामिन A और जिंक की कमी हो सकती है, जिससे समग्र स्वास्थ्य एवं प्रतिरक्षा कमज़ोर हो सकती है।
- शैक्षिक प्रभाव:
- संज्ञानात्मक देरी: बचपन में खराब पोषण के कारण संज्ञानात्मक देरी हो सकती है, जिससे अधिगम क्षमता और शैक्षणिक प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है।
- उच्च ड्रॉपआउट दर: कुपोषण की समस्या वाले बच्चों को नियमित स्कूल में उपस्थित होने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है और उनके स्कूल छोड़ने की संभावना अधिक होती है, जिसका असर उनकी शैक्षिक उपलब्धियों पर पड़ता है।
- आर्थिक परिणाम:
- उत्पादकता में कमी: कुपोषण के कारण जीवन भर उत्पादकता में कमी आ सकती है, जिससे राष्ट्रीय आर्थिक उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- स्वास्थ्य सेवा व्यय में वृद्धि: कुपोषण की उच्च आवृत्ति स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर दबाव डालती है, जिससे व्यक्तियों और सरकार दोनों के लिये चिकित्सा लागत बढ़ जाती है।
- अंतर-पीढ़ीगत प्रभाव:
- मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य: एनीमिया से पीड़ित माताओं के बच्चे एनीमिया से पीड़ित होने की अधिक संभावना होती है, जिससे पीढ़ियों तक कम पोषण का चक्र चलता रहता है।
- दीर्घकालिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ: कुपोषित बच्चों को वयस्कता में स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करने का अधिक जोखिम होता है, जो उनके समग्र स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और दीर्घकालिक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं में योगदान देता है।
- सामाजिक परिणाम:
- बढ़ती असमानता: कुपोषण मुख्य रूप से हाशिये पर पड़े और आर्थिक रूप से वंचित समूहों को प्रभावित करता है, जिससे सामाजिक असमानताएँ बढ़ती हैं।
- सामाजिक कलंक: कुपोषण का सामना करने वाले व्यक्तियों को कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है जो उनके मानसिक स्वास्थ्य तथा जीवन की समग्र गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है।
- राष्ट्रीय प्रगति पर प्रभाव:
- मानव पूंजी विकास में बाधा: कुपोषण मानव पूंजी के विकास में बाधा डालता है, जिससे आर्थिक और सामाजिक उन्नति के अवसर सीमित हो जाते हैं।
- स्वास्थ्य सेवा पर बढ़ता दबाव: कुपोषण की व्यापकता स्वास्थ्य सेवा संसाधनों पर अधिक दबाव डालती है, जिससे अन्य महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य पहलों पर ध्यान और धन का विचलन होता है।
भारत में पोषक तत्त्वों की कमी को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?
- खाद्य सुदृढ़ीकरण/फोर्टीफिकेशन: इसमें चावल, गेहूँ, तेल, दूध और नमक जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों में आयरन, आयोडीन, जिंक, विटामिन A तथा D जैसे प्रमुख विटामिन एवं खनिज शामिल किये जाते हैं।
- कुपोषण से निपटने में यह एक महत्त्वपूर्ण साधन है क्योंकि यह विटामिन और खनिजों को सम्मिलित कर मुख्य खाद्य पदार्थों के पोषण मूल्य को बढ़ाता है।
- समेकित बाल विकास सेवाओं (ICDS) का सुदृढ़ीकरण: आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं को बच्चों के विकास की मॉनिटरिंग, पोषण संबंधी शिक्षा और सामुदायिक सहायता प्राप्त करने में उनके कौशल को बेहतर बनाने के लिये निरंतर एवं व्यापक प्रशिक्षण प्रदान करके।
- विशेष पोषण कार्यक्रम (SNP): यह सुनिश्चित करके कि SNP सभी क्षेत्रों में, विशेष रूप से जनजातीय और झुग्गी-झोपड़ियों वाले क्षेत्रों में कैलोरी तथा प्रोटीन सहित पर्याप्त पोषण पूरक प्रदान करता है।
- कामकाज़ी और बीमार महिलाओं के लिये क्रेच: अधिकतम बच्चों को कवर करने के लिये क्रेच की संख्या बढ़ाकर, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ प्रवासी श्रमिकों और कम आय वाले परिवारों की संख्या अधिक है।
- गेहूँ आधारित पूरक पोषण कार्यक्रम: लक्षित आबादी को समय पर और पर्याप्त मात्रा में गेहूँ आधारित पूरकों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये गेहूँ आधारित उत्पादों का प्रयोग करने हेतु अभिनव पद्धतियों की खोज़ द्वारा।
- यूनिसेफ सहायता: यूनिसेफ का समर्थन स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और स्वच्छता सहित सेवाओं की एक व्यापक शृंखला को कवर करता है ताकि कुपोषण की बहुमुखी प्रकृति से निपटा जा सके।
भारत में कुपोषण से निपटने के लिये क्या पहल की गई हैं?
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. मूल्यांकन कीजिये कि पोषक तत्त्वों की कमी भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक विकास को किस प्रकार प्रभावित करती है तथा कुपोषण से निपटने के लिये प्रभावी सरकारी रणनीतियों को सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन (नेशनल न्यूट्रिशन मिशन)' के उद्देश्य हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से वह/वे सूचक है/हैं, जिसका/जिनका IFPRI द्वारा वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) रिपोर्ट बनाने में उपयोग किया गया है? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न. आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम करते हैं? उपर्युक्त को दृष्टिगत रखते हुए भारत में अधिकरणों की संवैधानिक वैधता तथा सक्षमता की विवेचना कीजिये। (2018) प्रश्न. अब तक भी भूख और गरीबी भारत में सुशासन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं। मूल्यांकन कीजिये कि इन गंभीर समस्याओं से निपटने में क्रमिक सरकारों ने किस सीमा तक प्रगति की है। सुधार के लिये उपाय सुझाइए। (2017) |
आंतरिक सुरक्षा
त्रिपुरा में शांति समझौता
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार, त्रिपुरा की राज्य सरकार और दो प्रमुख उग्रवादी समूहों अर्थात् नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) व ऑल त्रिपुरा टाइगर फ़ोर्स (ATTF) ने राज्य में हिंसा को समाप्त करने के लिये एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये।
- इस समझौते से राज्य का 35 साल पुराना संघर्ष समाप्त हो जाएगा और हिंसा का परित्याग कर समृद्ध त्रिपुरा के निर्माण की प्रतिबद्धता व्यक्त की जाएगी।
शांति समझौते की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- सशस्त्र कैडरों का पुनः एकीकरण: NLFT और ATTF के 328 से अधिक सशस्त्र कैडर आत्मसमर्पण करेंगे और समाज में पुनः एकीकृत होंगे।
- वित्तीय पैकेज: त्रिपुरा की जनजातीय आबादी के विकास के लिये 250 करोड़ रुपए के विशेष वित्तीय पैकेज को स्वीकृति दी गई है।
- व्यापक पहल: यह एक बड़े प्रयास का हिस्सा है, जिसके तहत वर्ष 2014 से 2024 के दौरान पूर्वोत्तर में 12 महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए, जिनमें से 3 समझौते त्रिपुरा से संबंधित हैं।
NLTF और ATTF
- नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) का गठन वर्ष 1989 में हुआ था।
- NLFT का कथित उद्देश्य 'भारतीय नव-उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद' से मुक्ति के बाद सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से एक 'स्वतंत्र त्रिपुरा' की स्थापना करना तथा एक 'विशिष्ट एवं स्वतंत्र पहचान' को आगे बढ़ाना है।
- नेताओं की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं और संकीर्ण धार्मिक विचारों के कारण NLFT के भीतर कई विभाजन हुए।
- इसे अप्रैल 1997 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था और आतंकवाद निरोधक अधिनियम (Prevention of Terrorism Act- POTA) , 2002 के तहत भी प्रतिबंधित किया गया है।
- NLFT फरवरी 2001 में दो समूहों में विभाजित हो गया, एक का नेतृत्व बिस्वमोहन देबबर्मा और दूसरे का नयनबासी जमातिया ने किया।
- त्रिपुरा टाइगर फोर्स (ATTF) की स्थापना वर्ष 1990 में हुई थी।
- यह मतदाता सूची से अवैध प्रवासियों को हटाने और वर्ष 1949 के त्रिपुरा विलय समझौते को लागू करने की मांग करता है।
- यह उत्तर और दक्षिण त्रिपुरा ज़िलों में सक्रिय था तथा वर्ष 1991 तक एक दुर्जेय आतंकवादी समूह के रूप में उभरा।
- इसे अप्रैल 1997 में गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया था।
त्रिपुरा में सरकार और विद्रोही समूहों के बीच शांति समझौते का क्या महत्त्व है?
- शांति और स्थिरता की पुनर्स्थापना: हिंसा को समाप्त करने का संकल्प लेने वाले सशस्त्र समूह व हिंसा के चक्र को तोड़ने के साथ ही विकास के लिये एक सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से त्रिपुरा में शांति एवं स्थिरता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- मुख्यधारा में एकीकरण: यह समझौता जनजातीय समुदायों के बीच अलगाव के मुद्दों को हल करते हुए पूर्व विद्रोहियों को मुख्यधारा में एकीकृत करने की सुविधा प्रदान करता है। यह इन व्यक्तियों को समाज में सकारात्मक योगदान देने का अवसर प्रदान करता है।
- विकास पहल: केंद्र सरकार ने त्रिपुरा में जनजातीय आबादी के लिये एक विशेष विकास पैकेज को मंजूरी दी है। यह वित्तीय प्रतिबद्धता भविष्य में संघर्षों को रोकने की रणनीति के रूप में सामाजिक-आर्थिक विकास पर सरकार के विचार को उजागर करती है।
- सांस्कृतिक संरक्षण: यह समझौता पूर्वोत्तर के जनजातीय समूहों की सांस्कृतिक विरासत, भाषाओं और पहचान के संरक्षण का समर्थन करता है। यह इन आबादी के बीच अपनेपन और समुदाय की दृढ भावना को बढ़ावा देने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद के क्या कारण हैं?
- अंतर-जनजातीय संघर्ष: जनजातीय समूहों, विशेष रूप से जमातिया की धार्मिक संरचना में परिवर्तन ने नए अंतर-जनजातीय तनावों को बढ़ावा दिया, जिससे मौजूदा जनजातीय-गैर आदिवासी संघर्ष और भी जटिल हो गए।
- जनसांख्यिकीय परिवर्तन: वर्ष 1947 के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बड़े पैमाने पर पलायन ने त्रिपुरा की जनसांख्यिकीय स्वरूप को बदल दिया, जिससे मुख्य रूप से आदिवासी क्षेत्र बंगाली भाषी मैदानी लोगों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में बदल गया। इस जनसांख्यिकीय उलटफेर ने स्थानीय जनजातियों के बीच असंतोष को बढ़ावा दिया।
- मिज़ोरम उग्रवाद से निकटता: मिज़ोरम से त्रिपुरा की भौगोलिक निकटता के कारण राज्य को उग्रवाद के "दुष्प्रभावों" का सामना करना पड़ा, जिससे स्थानीय तनाव और बढ़ गया।
- विद्रोही समूहों का गठन: भूमि और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों पर असंतोष के कारण वर्ष 1971 में त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति (TUJS), 1981 में त्रिपुरा नेशनल वॉलंटियर्स (TNV) और वर्ष 1989 में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) जैसे विद्रोही समूहों का गठन हुआ, जिसने उग्रवाद को तीव्र कर दिया।
- आर्थिक कारक: पूर्वोत्तर भारत में विकास की कमी और सीमित आर्थिक अवसरों, विशेष रूप से युवाओं के लिये, ने व्यापक गरीबी और बेरोज़गारी को उत्पन्न किया है, जिसने विद्रोही संगठनों को आकर्षित किया है, जो सामाजिक स्थिति व निर्वाह के साधन प्रदान करते हैं।
- भौगोलिक कारक: त्रिपुरा सहित उत्तर-पूर्वी क्षेत्र अपनी 98% सीमाओं को अन्य देशों के साथ साझा करता है, जो शेष भारत के साथ कमज़ोर भौगोलिक संबंधों को उजागर करता है।
- उत्तर पूर्वी क्षेत्र की जनसंख्या, राष्ट्रीय जनसंख्या का केवल 3% है, वर्ष 1951 से वर्ष 2001 तक इसमें 200% से अधिक की वृद्धि हुई, जिससे आजीविका और भूमि संसाधनों पर दबाव पड़ा।
- जनजातीय भूमि का नुकसान: आदिवासियों को उनकी कृषि भूमि से वंचित किया गया, अक्सर उन्हें बहुत कम कीमत पर बेचा गया और वनों में भेज दिया गया, जिससे व्यापक आक्रोश और तनाव उत्पन्न हुआ। भूमि का वंचन उग्रवाद का एक प्रमुख चालक बन गया।
- राजनीतिक कारक: त्रिपुरा जातीय समुदायों सहित पूर्वोत्तर भारत कभी-कभी भौगोलिक दूरी और सीमित राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कारण केंद्र सरकार द्वारा उपेक्षित महसूस करता है, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान और संसाधनों की रक्षा के लिए स्वायत्तता की मांग बढ़ जाती है।
त्रिपुरा सहित उत्तर पूर्व भारत में शांति स्थापित करने के लिये सरकार की पहल क्या हैं?
- संवाद और समझौता वार्ता: सरकार ने विभिन्न उग्रवादी समूहों के साथ कई शांति समझौतों पर समझौता वार्ता की और हस्ताक्षर किये, जिससे उग्रवादियों के आत्मसमर्पण एवं स्वायत्त परिषदों का गठन हुआ। उदाहरण: हाल ही में सरकार और उग्रवादी समूहों NLFT एवं ATTF के बीच हस्ताक्षरित शांति समझौता।
- महत्त्वपूर्ण समझौते:
- नगा शांति समझौता: भारत सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (के)/निकी समूह के बीच संघर्ष विराम समझौते को एक वर्ष के लिये, सितंबर, 2024 से सितंबर, 2025 तक बढ़ा दिया गया है, जिससे नगा शांति समझौते को और आगे बढ़ाया जा सकेगा।
- असम-मेघालय सीमा समझौता, 2022: 6 क्षेत्रों में विवादों का समाधान, असम को 18.51 वर्ग किलोमीटर और मेघालय को 18.28 वर्ग किलोमीटर आवंटित किया गया।
- कार्बी आंगलोंग समझौता, 2021
- बोडो समझौता, 2020
- ब्रू-रियांग समझौता, 2020
- NLFT-त्रिपुरा समझौता, 2019
- विकास पहल: सरकार ने पूर्वोत्तर क्षेत्र में बुनियादी ढाँचे, आर्थिक और कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसमें कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट प्रोजेक्ट एवं कनेक्टिविटी में सुधार के उद्देश्य से विभिन्न रेलवे व राजमार्ग पहल शामिल हैं।
- पूर्वोत्तर औद्योगिक विकास योजना और पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिये प्रधानमंत्री विकास पहल (पीएम-डीवाइन) सहित आर्थिक योजनाएँ, विकास को बढ़ावा देने के लिये बनाई गई हैं।
- इसके अतिरिक्त पूर्वोत्तर विशेष शिक्षा क्षेत्र और कौशल भारत मिशन जैसे प्रयास शिक्षा और रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने की दिशा में हैं।
- सांस्कृतिक और सामाजिक पहल: सरकार क्षेत्रीय भाषाओं और सांस्कृतिक उत्सवों को बढ़ावा देती है और विरासत को संरक्षित करने के लिये सांस्कृतिक केंद्रों का समर्थन करती है। पूर्वोत्तर परिषद, संयुक्त विकास परियोजनाओं और बेहतर कनेक्टिविटी के माध्यम से अंतरराज्यीय सहयोग को बढ़ाया जाता है, साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों से आपसी समझ को बढ़ावा मिलता है।
- उत्तर पूर्व विकास के लिये अन्य पहल
- बुनियादी ढाँचा:
- भारतमाला परियोजना
- क्षेत्रीय संपर्क योजना (RCS)-उड़ान
- संपर्क:
- भारत-म्याँमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग
- पर्यटन:
- स्वदेश दर्शन योजना
- अन्य:
- डिजिटल नॉर्थ ईस्ट विज़न 2022
- राष्ट्रीय बाँस मिशन
- बुनियादी ढाँचा:
त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर राज्यों में शांति बहाली की चुनौतियाँ क्या हैं?
- विश्वास निर्माण: सरकार और पूर्व विद्रोहियों के बीच विश्वास स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक शिकायतें और अविश्वास सहयोग एवं एकीकरण प्रयासों में बाधा डाल सकते हैं।
- निगरानी और अनुपालन: सशस्त्र समूहों को समाप्त करने और हिंसा को रोकने सहित समझौते की शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये मज़बूत निगरानी तंत्र की आवश्यकता होगी।
- सामाजिक-आर्थिक एकीकरण: पूर्व विद्रोहियों को सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में एकीकृत करना चुनौतियों से भरा है, जिसमें पर्याप्त रोज़गार के अवसर, व्यावसायिक प्रशिक्षण और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करना शामिल है।
- राजनीतिक गतिशीलता: त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर राज्य में राजनीतिक परिदृश्य जटिल है, जिसमें विभिन्न हितधारक शामिल हैं। समावेशी शासन सुनिश्चित करते हुए इन गतिशीलता को नियंत्रित करना स्थायी शांति के लिये महत्त्वपूर्ण होगा।
- निरंतर उग्रवाद: क्षेत्र में जारी उग्रवाद के कारण अलग-अलग समूहों या अन्य विद्रोही गुटों द्वारा शांति समझौते का पालन करने से इंकार करने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे हिंसा और अस्थिरता बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है।
आगे की राह
- प्रभावी पुलिसिंग: प्रभावी कानून प्रवर्तन की अनुपस्थिति ने सशस्त्र हिंसा को बढ़ावा दिया है। सुशासन और नागरिक अधिकारों द्वारा समर्थित कुशल पुलिसिंग व्यवस्था एवं सुरक्षा बहाल करने हेतु आवश्यक है।
- उदाहरण के लिये त्रिपुरा में स्थानीय नेताओं को शामिल करके सामुदायिक पुलिसिंग पहल से विश्वास का निर्माण हो सकता है तथा सुरक्षा में सुधार हो सकता है।
- संवाद और बातचीत: शांतिपूर्ण समाधान केवल विद्रोही समूहों के साथ संवाद और बातचीत के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
- त्रिपुरा सरकार जातीय समूहों के साथ संवाद कायम रख सकती है तथा नागरिक समाज के साथ एक औपचारिक मंच स्थापित कर सकती है ताकि हाशिये पर पड़े लोगों की आवश्यकताएँ पूरी की जा सके।
- आर्थिक विकास: आर्थिक विकास में निवेश और रोज़गार सृजन के अवसर उत्पन्न करने से वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध कराकर तथा गरीबी को कम करके उग्रवाद के मूल कारणों का समाधान किया जा सकता है।
- त्रिपुरा बाँस मिशन जैसी पहलों का विस्तार करने और बुनियादी ढाँचे में सुधार करने से रोज़गार सृजित हो सकते हैं, युवाओं को वैकल्पिक आजीविका प्रदान की जा सकती है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है, जिससे उग्रवादी भर्ती की प्रवृत्ति कम हो सकती है।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: जातीय समुदायों के लिये पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से, विश्वास का निर्माण करने और उनकी चिंताओं को दूर करने में सहायता मिल सकती है।
- त्रिपुरा की स्वायत्त ज़िला परिषदों की तरह स्थानीय शासन में स्थानीय नेताओं को शामिल करने से समुदाय का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है। निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया और राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व भी समुदायों को सशक्त बनाता है।
- सांस्कृतिक संरक्षण: पूर्वोत्तर के जातीय समुदायों की विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत का सम्मान करने और उसे बढ़ावा देने से उनमें अपनेपन की भावना बढ़ेगी तथा हाशिये पर होने की भावना कम होगी।
- खर्ची महोत्सव जैसे उत्सवों को बढ़ावा देना तथा स्थानीय इतिहास और संस्कृति को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करना।
निष्कर्ष
त्रिपुरा में हाल ही में हुआ शांति समझौता क्षेत्र में स्थिरता और विकास की दिशा में एक आशाजनक मोड़ दर्शाता है। हालाँकि इसके कार्यान्वयन के लिये उन अंतर्निहित चिंताओं का समाधान करना आवश्यक होगा, जिन्होंने दशकों से उग्रवाद को बढ़ावा दिया है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के संविधान की किस अनुसूची में कुछ राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण के लिये विशेष प्रावधान हैं? (2008) (a) तीसरा उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न 1. मानवाधिकार सक्रियतावादी लगातार इस विचार को उज़ागर करते हैं कि सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958 (AFSP) एक क्रूर अधिनियम है, जिससे सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार के दुरुपयोगों के मामले उत्पन्न होते हैं। इस अधिनियम की कौन-सी धाराओं का सक्रियतावादी विरोध करते हैं? उच्चतम न्यायालय द्वारा व्यक्त विचार के संदर्भ में इसकी आवश्यकता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (2015) प्रश्न 2. भारत का उत्तर-पूर्वीय प्रदेश बहुत लम्बे समय से विद्रोह-ग्रसित है। इस प्रदेश में सशस्त्र विद्रोह की अतिजीविता के मुख्य कारणों का विश्लेषण कीजिए। (2017) |