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भारतीय राजनीति

केंद्र बनाम राज्य सरकार

  • 04 Jan 2020
  • 9 min read

हाल ही में केरल विधानसभा में नागरिकता संशोधन अधिनियम को वापस लेने की मांग वाला प्रस्ताव पारित कर दिया गया है। पंजाब, पश्चिम बंगाल एवं छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों ने भी कहा है कि वे अपने राज्य में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) में हुए बदलावों को लागू नहीं करेंगे। मध्य प्रदेश सरकार ने भी इसके प्रति विरोध ज़ाहिर किया है। महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि वह CAA तभी लागू करेगी जब सर्वोच्च न्यायालय CAA की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी कर लेगा।

हालाँकि संशोधित नागरिकता अधिनियम को राज्यों द्वारा लागू न किया जाना भारत की संघात्मक संरचना के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसे संसद से पारित किया गया है एवं राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् यह सभी राज्यों के लिये बाध्यकारी है।

चूँकि CAA को लागू करने से इनकार करने वाले राज्यों की संख्या बढती जा रही है अत: केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया है कि राज्य सरकार के पास नागरिकता से जुड़े मामलों पर चयन का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि यह राज्य सूची का नहीं बल्कि संघ सूची का विषय है। दरअसल राज्यों का कहना है कि केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी भारत की धर्मनिरपेक्षता की साख को खतरे में डाल रही है।

यह विवादास्पद विधेयक, जो कि पहली बार धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिये कानूनी मार्ग प्रदान करता है, राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् तत्काल प्रभाव से लागू हो गया।

केरल के मुख्यमंत्री ने इस कानून को भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक चरित्र पर हमला बताया एवं कहा कि इस तरह के "असंवैधानिक" कानून के लिये केरल में कोई जगह नहीं है।

दरअसल यह कानून बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिम आप्रवासियों के लिये भारतीय नागरिकता प्राप्त करना आसान बनाता है। इस अधिनियम को लेकर अधिकार-समूहों और विपक्षी दलों का आरोप है कि यह भेद-भाव पूर्ण होने के साथ ही समानता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

उत्तर-पूर्व, विशेष रूप से असम में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के बावजूद इस विधेयक को राष्ट्रपति ने सहमति दे दी एवं असम में स्थिति को नियंत्रित करने के लिये वहाँ की सरकार को कई कस्बों एवं शहरों में कर्फ्यू लगाना पड़ा।

इसके पश्चात् मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी संकेत दिया है कि वे इस कानून को लागू नहीं करेंगे। राज्यों ने तर्क दिया है कि राज्य इस अधिनियम की संवैधानिक स्थिति से अवगत हैं, लेकिन राज्य की भूमिका को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है, नागरिकों द्वारा सविनय अवज्ञा इस स्थिति से निपटने के लिये एक उपकरण है।

संसद द्वारा निर्मित कानून सभी राज्यों पर बाध्यकारी क्यों?

  • जहाँ तक ​​संघीय ढाँचे का सवाल है, भारतीय संदर्भ के अनुसार इसकी प्राथमिक परिभाषा स्पष्ट होनी चाहिये।
  • हालाँकि इस बात पर बहस होती रहती है कि क्या हमारा संविधान अर्द्ध-संघीय, संघीय या बड़े पैमाने पर एकात्मक और आंशिक रूप से संघीय है।
  • इसके लिये हमें भारतीय संविधान के अध्याय 5, 6 और 11 पर एक नज़र डालनी चाहिये। जहाँ अध्याय 5 संघ से संबंधित है, अध्याय 6 राज्यों से संबंधित है, वहीं अध्याय 11 संघ और राज्यों के मध्य संबंध से संबंधित है।
  • संविधान संघ और राज्यों के बीच अधिकार-क्षेत्र को परिभाषित एवं विभाजित करने का प्रयास करता है और कुछ भाग जहाँ ओवरलैप होता है, यह तीन सूचियों की व्यवस्था करता है।
  • भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ, यथा- संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची हैं। संघ सूची में राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे विषय शामिल होते हैं जिनमें पूरे देश में एक ही नीति अपनाए जाने की ज़रूरत होती है। जैसे- रक्षा, विदेश, संचार, देशीकरण एवं नागरिकता, रेलवे, डाक सेवा इत्यादि। इसमें कुल 100 विषय शामिल हैं।
  • राज्य सूची में मुख्यत: क्षेत्रीय महत्त्व के विषय शामिल होते हैं। इसके अंतर्गत 61 विषय आते हैं, जिसमें पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, परिवहन, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय सरकार, पेयजल की सुविधा, साफ़-सफाई आदि शामिल हैं।
  • समवर्ती सूची के अंतर्गत 52 विषय हैं, जिसमें शिक्षा, वन, जंगली जानवरों और पक्षियों की रक्षा, बिजली, श्रम कल्याण, आपराधिक कानून और प्रक्रिया, जनसंख्या नियंत्रण एवं परिवार नियोजन, दवा आदि विषय शामिल हैं।
  • इनमें से राज्य एवं समवर्ती सूचियों के विषय पर राज्य सरकार कानून बना सकती है किंतु संघ सूची के विषय पर केवल केंद्र सरकार ही कानून बना सकती है।
  • यदि संघ सूची के किसी विषय पर केंद्र सरकार कोई विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित कर राष्ट्रपति से स्वीकृति प्राप्त कर लेती है तो यह राज्यों पर बाध्यकारी होता है कि वे इस अधिनियम को लागू करें।
  • इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 245 के अंतर्गत संसद संपूर्ण राज्य-क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये कानून बना सकती है, जबकि राज्य का विधानमंडल सिर्फ उस राज्य के लिये कानून बना सकता है।
  • अनुच्छेद 249 के तहत राज्य सूची में शामिल विषयों पर संसद को सर्वोच्चता प्रदान की गई है। इसके अनुसार, राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के किसी विषय पर संसद द्वारा कानून बनाना ज़रूरी हो तो वह राज्यसभा से एक संकल्प पारित कर सकती है। यदि राज्यसभा के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य संकल्प को पारित कर देते हैं तो संसद राज्य सूची के उस विषय पर कानून बना सकती है और यह कानून राज्यों के लिये बाध्यकारी होगा।
  • अनुच्छेद 250 के तहत आपातकाल की स्थिति में संसद के पास राज्य सूची से संबंधित मामलों पर कानून बनाने का अधिकार होता है। वहीं अनुच्छेद 252 के तहत संसद के पास दो या दो से अधिक राज्यों के लिये उनकी सहमति से कानून बनाने का अधिकार है।
  • इसके अतिरिक्त भारत में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास हैं न कि राज्यों के पास, जिसका वर्णन अनुच्छेद 248 में मिलता है।
  • जहाँ तक नागरिकता का प्रश्न है तो यह संघ सूची के अंतर्गत आता है। संसद द्वारा इस पर बनाया गया कानून सभी राज्यों पर बाध्यकारी है। अगर कोई राज्य इसका उल्लंघन करता है तो वहां ‘संविधान तंत्र को बनाए रखने में विफलता’ के आधार पर राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) लागू किया जा सकता है

संविधान में ‘नागरिकता’ की स्थिति

  • यह पूरी तरह से संघ के दायरे में आता है और राज्यों को इसे लागू करना ही होगा। नागरिकता देने का कार्य केंद्र का है, न कि राज्य का अत: राज्य केवल उन लोगों की पहचान कर सकते हैं जो नागरिकता के योग्य हैं अथवा अयोग्य हैं।
  • NRC फॉरेनर एक्ट (Foreigner Act) के दायरे में आता है तथा नागरिकता का उल्लेख अनुच्छेद 5 से 11 एवं नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत है। हालाँकि केंद्र-राज्य से जुड़े विभिन्न समितियों का कहना है कि केंद्र और राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध होना चाहिये, ज़बरन कुछ भी लागू नहीं किया जाना चाहिये।
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