समाजवाद | 02 Sep 2024

प्रिलिम्स के लिये:

समाजवाद, पूंजीवाद, उत्पादन के साधन, रसेल, एम.के. गांधी, समानता, सेंट साइमन, स्वतंत्रता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय, रॉबर्ट ओवेन, चार्ल्स फूरियर, प्राउडन, मार्क्सवादी समाजवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, वर्ग संघर्ष, यूटोपियन समाजवाद, भ्रष्टाचार, वैश्वीकरण, नवउदारवाद, LPG सुधार, मिश्रित अर्थव्यवस्था, निर्देशक सिद्धांत, मौलिक अधिकार, केशवानंद भारती, मिनर्वा मिल्स, जनहित याचिका

मेन्स के लिये:

समाजवाद की प्रासंगिकता, समाजवाद के लिये चुनौतियाँ

संदर्भ

आर्थिक असमानता, कॉर्पोरेट प्रभाव और अनियंत्रित पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न चुनौतियों पर बढ़ती चिंताओं से प्रेरित होकर हाल के दिनों में समाजवाद ने प्रमुखता हासिल की है।
समाजवाद पर अब व्यापक रूप से बहस हो रही है, नीतियों और राजनीतिक आंदोलनों को आकार दे रही है, जिसमें शुरुआती सामाजिक विचारकों से लेकर कार्ल मार्क्स जैसे विविध विचार शामिल हैं।

समाजवाद क्या है?

  • परिभाषा:
    • समाजवाद का मतलब आम तौर पर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वस्तुओं का उत्पादन करना है, न कि लाभ प्राप्त करने के लिये व्यापार करना, जो कि पूंजीवाद की विशेषता है।
    • नारायण ने समाजवाद को ‘सामाजिक पुनर्निर्माण की प्रणाली’ के रूप में परिभाषित किया। उनके लिये समाजवाद का अर्थ है समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक जीवन को पुनर्गठित करना।
      • इसमें उत्पादन के साधनों का पुनर्गठन और स्वामित्व के सामूहिक साधनों को बढ़ावा देना शामिल है, जिससे निजी स्वामित्व समाप्त हो जाता है।
    • रसेल ने समाजवाद को ‘भूमि और पूंजी के सामुदायिक स्वामित्व की समर्थन’ के रूप में परिभाषित किया।
      • सामुदायिक स्वामित्व से तात्पर्य राज्य द्वारा स्वामित्व का लोकतांत्रिक तरीका है, जो सभी के सामान्य हित के लिये है।
    • एम.के. गांधी के अनुसार समाजवाद एक ऐसा समाज है, जिसमें ‘समाज के सदस्य समान हैं, न कोई निम्न, न कोई उच्च’
  • पृष्ठभूमि:
    • समाजवाद एक अवधारणा है जिसकी जड़ें सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत में हैं। यह शब्द पश्चिम में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में सेंट साइमन द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
    • समाजवाद एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में पूंजीवादी समाजों में देखी जाने वाली असमानताओं तथा अन्याय के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में उभरा।
      • पूंजीवाद, जो निजी स्वामित्व और बाज़ार प्रतिस्पर्द्धा का समर्थन करता है, के विपरीत समाजवाद उत्पादन के साधनों के सामान्य स्वामित्व का समर्थन करता है।
    • प्रारंभिक समाजवाद एक समेकित विचारधारा नहीं थी, बल्कि मूल्यों और विश्वासों का एक संग्रह था, जो निजी स्वामित्व के लिये एक आम विरोध साझा करते थे।
  • समाजवाद की बुनियादी धारणाएँ:
    • आम तौर पर समाजवाद शब्द का उपयोग दो अलग-अलग लेकिन अन्योन्याश्रित तरीकों से किया जाता है:
      • एक यह है कि समाजवाद मूल्यों, नैतिकता और इस तरह की कल्पना के अन्य सिद्धांतों को दर्शाता है। इस अर्थ में समाजवाद स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय, वर्गहीनता, सहयोग, प्रचुरता, शांति आदि के विचारों की विशेषता है।
      • दूसरा यह है कि यह सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के व्यावहारिक पहलुओं को दर्शाता है, जो समाजवादी सिद्धांतों का भी प्रतीक है

समाजवाद की पूर्व-आवश्यकताएँ क्या हैं?

  • समाज पर जोर: समाजवाद व्यक्तिगत हितों पर सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता देता है, सहयोग और सामूहिक लाभ को बढ़ावा देता है। यह सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर उत्पादन को प्रोत्साहित करता है तथा सभी के लिये समान अवसर सुनिश्चित करता है।
  • समाजवाद बनाम पूंजीवाद: समाजवादी वर्ग संघर्ष और असमान वितरण जैसे मुद्दों के कारण पूंजीवाद का विरोध करते हैं, जो सामाजिक न्याय में बाधा डालते हैं। वे पूंजीवादी लाभ-संचालित स्वामित्व को अस्वीकार करते हुए सामाजिक न्याय, समानता और सहयोग का समर्थन करते हैं।
  • समाजवाद में समानता: समाजवाद का उद्देश्य पूंजीवाद में पाई जाने वाली असमानताओं को समाप्त करना है, जैसे आय और धन में असमानता। यह एक ऐसी प्रणाली को बढ़ावा देता है जहाँ उत्पादन को सामूहिक रूप से नियंत्रित किया जाता है, जिससे श्रम तथा संसाधनों के बीच समान संबंध सुनिश्चित होते हैं।
  • निजी संपत्ति का उन्मूलन: समाजवाद निजी संपत्ति को समाप्त करता है, उत्पादन और वितरण का स्वामित्व व्यक्तियों से पूरे समाज को हस्तांतरित करता है। यह बदलाव एक अधिक समतावादी प्रणाली बनाता है जहाँ सभी सदस्य स्वामित्व तथा लाभ साझा करते हैं।

समाजवाद के प्रकार क्या हैं?

प्रकार

राजनीतिक विचारधारा

आर्थिक रणनीति

मुख्य विशेषताएँ

क्रांतिकारी समाजवाद

वर्ग-आधारित क्रांति



केंद्रीकृत योजना

पूंजीवाद का उन्मूलन, राज्य स्वामित्व, वर्ग संघर्ष

सुधारवादी समाजवाद

क्रमिक सुधार

मिश्रित अर्थव्यवस्था

लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ, सरकारी हस्तक्षेप, सामाजिक कल्याण

अराजकतावादी समाजवाद

अधिकार की अस्वीकृति

विकेंद्रीकृत निर्णय लेना

स्वैच्छिक सहयोग, स्वशासन

बाज़ार समाजवाद

समाजवाद और पूंजीवाद का संयोजन

सरकारी विनियमन के साथ बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था

सार्वजनिक और निजी स्वामित्व, सरकारी हस्तक्षेप

नियोजित समाजवाद 

केंद्रीकृत नियोजन

राज्य स्वामित्व

संसाधनों पर सरकारी नियंत्रण, वस्तुओं और सेवाओं का आवंटन

लोकतांत्रिक समाजवाद

लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ

मिश्रित अर्थव्यवस्था

समाजवाद, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता की ओर क्रमिक संक्रमण

यूटोपियन समाजवाद 

आदर्शवादी समाज

सामुदायिक जीवन

सहयोग, समानता, सद्भाव

वैज्ञानिक समाजवाद

मार्क्सवादी विश्लेषण

केंद्रीकृत नियोजन

वर्ग संघर्ष, क्रांति, राज्य स्वामित्व

ईसाई समाजवाद

ईसाई सिद्धांत

मिश्रित अर्थव्यवस्था

सामाजिक न्याय, समानता, ईसाई मूल्य

प्रारंभिक समाजवादी विचारक मार्क्सवादी समाजवाद से किस प्रकार भिन्न हैं?

  • रॉबर्ट ओवेन: ओवेन का मानना ​​था कि उद्योग और कारखाने मानवता को निर्धनता से मुक्त कर सकते हैं यदि उन्हें प्रतिस्पर्द्धा के बजाय सहकारी सिद्धांतों पर संगठित किया जाए। उन्होंने सहकारी गाँवों तथा काम करने के अधिकार का समर्थन किया, सहयोग के माध्यम से नैतिक सुधार पर ज़ोर दिया।
  • चार्ल्स फूरियर: ओवेन के विपरीत फूरियर बड़े पैमाने के उद्योग और श्रम विभाजन के आलोचक थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ काम आनंददायक तथा विविधतापूर्ण हो, छोटे सहकारी समुदायों में संगठित हो, जो व्यक्तित्व एवं पारिवारिक जीवन को संरक्षित करते हों।
  • सेंट-साइमन: विज्ञान, प्रौद्योगिकी और बड़े पैमाने के प्रशासन के समर्थक, सेंट-साइमन राज्य के नेतृत्व वाली पहलों के माध्यम से समाज के नैतिक एवं बौद्धिक सुधार में विश्वास करते थे। उन्होंने एकल-वर्ग समाज का समर्थन किया जहाँ श्रमिक एकमात्र वर्ग थे तथा राज्य ने सभी के लिये काम सुनिश्चित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई।
  • प्राउडहोन: "संपत्ति चोरी है" के अपने दावे के लिये जाने जाने वाले प्राउडहोन (Proudhon) ने स्वतंत्रता और समानता पर ज़ोर दिया। उन्होंने समानता पर आधुनिक कट्टरपंथी विचारों के साथ तालमेल बिठाते हुए वर्ग संघर्ष के बजाय विकेंद्रीकृत श्रमिक सहकारी समितियों के माध्यम से प्राप्त एक वर्गहीन समाज की कल्पना की।
  • मार्क्सवादी समाजवाद: क्रांति के लिये एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण कार्ल मार्क्स ने एक व्यापक सिद्धांत विकसित करके समाजवादी विचारों में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव लाया, जिसने समाजवादी आदर्शों को एक क्रांतिकारी रणनीति से जोड़ा। मार्क्स ने समाजवाद को प्राप्त करने हेतु एक स्पष्ट तंत्र की कमी तथा नैतिक अपील एवं स्वैच्छिक समझौतों पर निर्भरता के कारण प्रारंभिक समाजवाद की "काल्पनिक" के रूप में आलोचना की।
  • समय के साथ पूंजी के संचय से अधिक केंद्रीकरण, लाभ की दर में गिरावट और तीव्र शोषण होता है, जिसका परिणाम अंततः सर्वहारा वर्ग द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध निर्णय देना होता है।
    • ऐतिहासिक भौतिकवाद: मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा पेश की, जो यह मानता है कि सामाजिक परिवर्तन भौतिक परिस्थितियों और वर्ग संघर्ष से प्रेरित होता है। उन्होंने तर्क दिया कि पूंजीवाद सहित उत्पादन के हर तरीके में अंतर्निहित विरोधाभास होते हैं जो अंततः इसके पतन का कारण बनते हैं।
    • वर्ग संघर्ष: मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद ने वर्ग विरोध को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित कर दिया - पूंजीपति वर्ग (पूंजीपति) और सर्वहारा वर्ग (श्रमिक)। श्रमिकों के शोषण से प्रेरित इन वर्गों के बीच चल रहा संघर्ष अंततः सर्वहारा वर्ग के बीच एक क्रांतिकारी चेतना को जन्म देगा।
    • पूंजी संचय और शोषण: मार्क्स ने स्पष्ट किया कि पूंजीवाद स्वाभाविक रूप से शोषणकारी है, क्योंकि यह श्रमिकों द्वारा उत्पादित अधिशेष मूल्य के विनियोजन पर निर्भर करता है।
      • समय के साथ पूंजी के संचय से अधिक केंद्रीकरण, लाभ की दर में गिरावट और तीव्र शोषण होता है, जिसका परिणाम अंततः सर्वहारा वर्ग द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध निर्णय देना होता है।

समय के साथ समाजवाद कैसे विकसित हुआ है?

  • प्रारंभिक समाजवाद:
    • यूटोपियन समाजवाद: रॉबर्ट ओवेन, चार्ल्स फूरियर और हेनरी डी सेंट-साइमन जैसे 19वीं सदी के शुरुआती विचारकों ने सहयोग तथा सामुदायिक जीवन पर आधारित आदर्श समाज की कल्पना की थी। इन यूटोपियन समाजवादियों ने पूंजीवाद की बुराइयों से मुक्त सामंजस्यपूर्ण समुदाय बनाने की कोशिश की।
    • वैज्ञानिक समाजवाद: कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, जिन्हें अक्सर आधुनिक समाजवाद का संस्थापक माना जाता है, ने एक अधिक व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया।
    • अपनी कृति "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" में उन्होंने तर्क दिया कि पूंजीवाद स्वाभाविक रूप से त्रुटिपूर्ण है और अंततः इसका स्थान वर्गहीन समाज ले लेगा।
  • 20 वीं सदी:
    • सोवियत संघ: 1917 की रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप सोवियत संघ की स्थापना हुई, जो इतिहास का पहला समाजवादी राज्य था।
      • यद्यपि सोवियत संघ ने महत्त्वपूर्ण औद्योगिकीकरण और सामाजिक प्रगति हासिल की, लेकिन उसे आर्थिक चुनौतियों, राजनीतिक दमन तथा मानवाधिकार हनन का भी सामना करना पड़ा।
    • सामाजिक लोकतंत्र: पश्चिमी यूरोप में समाजवाद का एक मिल्डर फॉर्म (Milder Form) के रूप में उभरा जिसे सामाजिक लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है। सामाजिक लोकतांत्रिक दलों ने सरकारी हस्तक्षेप, कल्याणकारी कार्यक्रमों और मिश्रित अर्थव्यवस्था के माध्यम से पूंजीवाद में सुधार करने की कोशिश की।
  • 21वीं सदी में समाजवाद:
    • वैश्वीकरण और नवउदारवाद: 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में वैश्वीकरण और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के उदय ने समाजवादी आंदोलनों के लिये महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ उत्पन्न कीं।
      • नवउदारवादी नीतियों ने, जिनमें मुक्त बाज़ार तथा विनियमन पर ज़ोर दिया गया, समाजवादी दलों के प्रभाव को समाप्त कर दिया तथा समाजवादी विचारों के आकर्षण को कमज़ोर कर दिया।
    • लोकतांत्रिक समाजवादी लोकतांत्रिक तरीकों से धन और शक्ति के अधिक न्यायसंगत वितरण का समर्थन करते हैं।
      • लोकतांत्रिक समाजवाद: हाल के वर्षों में विशेष रूप से युवा पीढ़ी के बीच, समाजवादी विचारों में रुचि का पुनरुत्थान हुआ है।

समाजवाद पर राजनीतिक बहस क्या है?

  • उदारवादी दृष्टिकोण: उदारवादी (वामपंथी) दृष्टिकोण से समाजवाद को पूंजीवाद की अंतर्निहित असमानताओं को संबोधित करने के लिये एक आवश्यक उपकरण के रूप में देखा जाता है। अमीरों से गरीबों तक धन का पुनर्वितरण करके, समाजवाद का उद्देश्य अधिक न्यायपूर्ण और समतापूर्ण समाज बनाना है। यह दृष्टिकोण अक्सर निम्नलिखित का समर्थन करता है:
    • प्रगतिशील कराधान: सामाजिक कार्यक्रमों और सार्वजनिक सेवाओं के वित्तपोषण के लिये धनी लोगों पर अधिक कर।
    • राष्ट्रीयकरण: प्रमुख उद्योगों का सरकारी स्वामित्व यह सुनिश्चित करने हेतु कि लाभ का उपयोग समुदाय के लाभ के लिये किया जाए।
    • कल्याणकारी कार्यक्रम: कमज़ोर व्यक्तियों और परिवारों की सुरक्षा के लिये व्यापक सामाजिक सुरक्षा जाल।
    • श्रमिक संघ: श्रमिकों के अधिकारों का समर्थन करने और कार्य स्थितियों में सुधार लाने के लिये मजबूत श्रमिक संघ।
  • रूढ़िवादी दृष्टिकोण: इसके विपरीत रूढ़िवादी (दक्षिणपंथी) समाजवाद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्त बाजार के लिये खतरा मानते हैं। उनका तर्क है कि अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप आर्थिक विकास को बाधित करता है, नवाचार को कम करता है तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कमज़ोर करता है। समाजवाद के खिलाफ प्रमुख रूढ़िवादी तर्कों में शामिल हैं:
    • आर्थिक अकुशलता: यह विश्वास कि प्रतिस्पर्द्धा और प्रोत्साहन की कमी के कारण सरकार-नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएँ बाज़ार-संचालित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कम कुशल होती हैं।
    • व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हानि: यह चिंता है कि समाजवादी नीतियों के कारण सरकार का अतिक्रमण हो सकता है तथा व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
    • कार्य और निवेश के लिये हतोत्साहन: यह तर्क दिया जाता है कि उच्च कर और सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रम कठिन परिश्रम तथा निवेश को हतोत्साहित कर सकते हैं।

समकालीन विश्व में समाजवाद की आलोचना क्या है?

  • आर्थिक चुनौतियाँ:
    • अकुशलता: आलोचकों का तर्क है कि प्रतिस्पर्द्धा और प्रोत्साहन की कमी के कारण समाजवादी अर्थव्यवस्थाएँ पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कम कुशल हो सकती हैं। लाभ के उद्देश्य के बिना, व्यवसायों में अपने उत्पादों या सेवाओं में सुधार करने तथा नवाचार करने की प्रेरणा की कमी हो सकती है।
    • आर्थिक गणना समस्या: यह बाज़ार की कीमतों पर निर्भर किये बिना समाजवादी अर्थव्यवस्था में संसाधनों के इष्टतम आवंटन को निर्धारित करने की कठिनाई को संदर्भित करता है। केंद्रीय योजनाकारों को कुशल निर्णय लेने के लिये आवश्यक जानकारी एकत्र करने और संसाधित करने में संघर्ष करना पड़ सकता है।
    • भ्रष्टाचार: कुछ समाजवादी देशों में भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या रही है। राज्य के हाथों में सत्ता और धन का संकेंद्रण भ्रष्टाचार तथा सत्ता के दुरुपयोग के अवसर पैदा कर सकता है।
  • राजनीतिक चुनौतियाँ:
    • अत्याचार: ऐतिहासिक रूप से कई समाजवादी राज्य अत्याचारी शासन से जुड़े रहे हैं। इससे मानवाधिकारों के हनन, असहमति के दमन और राजनीतिक स्वतंत्रता की कमी के विषय में चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।
    • लोकतांत्रिक क्षय: लोकतांत्रिक संदर्भ में समाजवादी नीतियों को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। कुछ आलोचकों का तर्क ​​है कि समाजवाद के लिये केंद्रीय नियंत्रण आवश्यक हो सकता है, जो लोकतांत्रिक मानदंडों के अनुरूप नहीं है।
  • सामाजिक चुनौतियाँ:
    • सामाजिक इंजीनियरिंग: आलोचकों का तर्क है कि समाजवादी नीतियों में अक्सर उच्च स्तर की सामाजिक इंजीनियरिंग शामिल होती है, जिसके कारण व्यक्तियों और समुदायों से अनपेक्षित परिणाम व प्रतिरोध उत्पन्न हो सकता है।
    • व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हानि: कुछ लोग तर्क देते हैं कि समाजवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है, जैसे कि अपना कॅरियर चुनने, संपत्ति रखने और व्यक्तिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता।
  • वैश्वीकरण और नवउदारवाद:
    • वैश्वीकरण: वैश्वीकरण के उदय ने समाजवादी राज्यों के लिये आर्थिक अलगाव और अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर नियंत्रण बनाए रखना अधिक कठिन बना दिया है।
    • नवउदारवाद: मुक्त बाज़ार और विनियमन पर ज़ोर देने वाली नवउदारवादी विचारधारा के प्रभुत्व ने विश्व के कई हिस्सों में समाजवाद की अपील को चुनौती दी है।

भारत में समाजवाद का विकास कैसे हुआ?

  • स्वतंत्रता पूर्व:
    • भारत में समाजवाद की उत्पत्ति स्वतंत्रता-पूर्व युग में देखी जा सकती है, जब इस विचारधारा को व्यापक उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के हिस्से के रूप में प्रमुखता मिली थी
    • समानता, सामाजिक न्याय और उपनिवेशवाद-विरोध के समाजवादी आदर्शों ने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ने के लिये गंभीर रूप से प्रेरित किया।
    • जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता शोषण एवं असमानता से मुक्त समाज का समर्थन करने वाले समाजवादी विचार से प्रभावित थे।
    • समाजवादी नेताओं और संगठनों ने मज़दूरों, किसानों तथा हाशिये पर पड़े समुदायों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई। ट्रेड यूनियनों, किसान संगठनों तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों के गठन का उद्देश्य औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती देना तथा सामाजिक व आर्थिक न्याय की मांग करना था।
    • इस ज़मीनी स्तर की सक्रियता ने समाजवादी प्रभाव के लिये आधार तैयार किया, जो भारत की स्वतंत्रता के बाद की नीतियों को प्रभावित करता रहेगा।
  • स्वतंत्रता के बाद:
    • भारतीय संविधान में समाजवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट है, जो समानता, सामाजिक न्याय और आर्थिक अधिकारों के सिद्धांतों को प्रतिष्ठापित करता है।
    • यद्यपि "समाजवादी" शब्द को आधिकारिक तौर पर 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया था, लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति संविधान की प्रतिबद्धता इसके प्रारंभ से ही एक मार्गदर्शक शक्ति रही है।
    • समाजवाद के प्रति भारत का दृष्टिकोण इसकी अनूठी "लोकतांत्रिक समाजवाद" रूपरेखा से चिह्नित है, जहाँ सार्वजनिक और निजी दोनों उद्यम मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल में सह-अस्तित्व में रहते हैं।
      • यह दृष्टिकोण स्वतंत्र भारत के शुरुआती वर्षों में स्पष्ट था जब सरकार ने आर्थिक असमानता को कम करने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नीतियाँ अपनाईं।
      • प्रमुख उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार तथा लाइसेंसिंग और परमिट के माध्यम से निजी उद्यम पर सख्त नियंत्रण, 1970 के दशक में भारत के समाजवादी युग के शिखर का प्रतीक थे।
    • 1980 और 1990 के दशक में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) सुधारों को अपनाने के साथ भारत की आर्थिक नीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव आया।
      • ये सुधार अतीत की कठोर समाजवादी नीतियों से अलग थे, क्योंकि सरकार का उद्देश्य अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण को कम करना, निजी उद्यम को प्रोत्साहित करना और विदेशी निवेश को आकर्षित करना था।
      • LPG सुधार उस समय की आर्थिक चुनौतियों का जवाब थे और इनका उद्देश्य बाज़ार उन्मुख नीतियों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना था।
  • समकालीन भारत:
    • आज भारत की पहचान एक मिश्रित अर्थव्यवस्था से है, जहाँ समाजवाद और पूंजीवाद के सिद्धांत एक साथ मौजूद हैं।
    • जबकि देश ने मुक्त-बाज़ार पूंजीवाद को अपनाया है, समाजवाद की विरासत इसके सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों, आर्थिक नीतियों और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को प्रभावित करती रहती है।
    • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), आरक्षण नीतियाँ और गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य से विभिन्न कल्याणकारी योजनाएँ भारत की समाजवादी विरासत की प्रतिबिंब हैं।
    • कई समाजवादी दल भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं और असमानता को दूर करने, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने तथा सार्वजनिक सेवाओं का विस्तार करने वाली नीतियों का समर्थन कर रहे हैं।
      • ये पार्टियाँ यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं कि समाजवाद के आदर्श भारत के राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बने रहें।

भारत में समाजवाद के संवैधानिक और कानूनी प्रावधान क्या हैं?

  • संवैधानिक प्रावधान:

भाग

अनुच्छेद

समाजवाद पहलू

मौलिक अधिकार (भाग III)

21

  • हालाँकि यह स्पष्ट रूप से समाजवादी नहीं है, लेकिन इसकी व्याख्या सामाजिक न्याय को शामिल करते हुए सम्मान के साथ जीने के अधिकार को शामिल करने के लिये की गई है।

23

  • व्यक्तियों को शोषण से बचाने के उद्देश्य से समाजवादी मूल्यों को दर्शाता है।

राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (भाग IV)

38

  • सभी नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देते हुए एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाने में राज्य की भूमिका पर ज़ोर देता है।

39

  • धन के संकेन्द्रण को रोकने और संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखता है।

41

  • सामाजिक सुरक्षा और कल्याण प्रदान करने में राज्य की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करता है।

43

  • श्रमिकों के कल्याण और सामाजिक न्याय के समाजवादी विचार को बढ़ावा देता है।
  • प्रमुख निर्णय:
    • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक निर्णय ने मूल संरचना सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया कि संसद संविधान के मूल संरचना में परिवर्तन नहीं कर सकती।
    • न्यायालय ने माना कि समाजवाद संविधान के मूल संरचना का हिस्सा है।
    • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की कि समाजवाद और आर्थिक न्याय के लक्ष्य संविधान के मूल संरचना के अभिन्न अंग हैं। इसने व्यक्तिगत अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जिसका उद्देश्य समाजवादी समाज का निर्माण करना है।
    • डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1983): न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पेंशन कोई उपहार नहीं है, बल्कि एक अधिकार है, जिसे समान रूप से प्रदान किया जाना चाहिये। इस फैसले ने सभी नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में राज्य की ज़िम्मेदारी को रेखांकित किया, जो कल्याण के प्रति समाजवादी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) बनाम भारत संघ (2014): यह मामला भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता देने में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर था।
      • इस फैसले में सामाजिक समावेश और समानता की आवश्यकता पर ज़ोर देकर समाजवादी सिद्धांतों को प्रतिबिंबित किया गया। न्यायालय ने सरकार को हाशिये पर स्थित समूहों के लिये सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का निर्देश दिया, जिससे समाजवाद के मूल्यों को बढ़ावा मिले।

समाजवाद भारत की आर्थिक और सामाजिक नीतियों को किस प्रकार आकार देता है?

  • आर्थिक विषमताएँ और सामाजिक असमानताएँ:
    • आर्थिक उदारीकरण और विकास के बावजूद भारत में आय असमानताएँ एवं सामाजिक असमानताएँ लगातार बढ़ रही हैं।
    • असमानता को मापने वाला गिनी गुणांक बढ़ रहा है, जो समाजवाद के मूल सिद्धांत, धन पुनर्वितरण और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने वाली नीतियों की आवश्यकता को उजागर करता है।
    • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 (MGNREGA) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) जैसी योजनाएँ समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से समाजवादी सिद्धांतों का प्रतिबिंब हैं।
  • कल्याणकारी राज्य और सामाजिक न्याय:
    • भारतीय राज्य की कल्याणकारी राज्य होने की प्रतिबद्धता शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और गरीबी उन्मूलन की योजनाओं पर इसके ध्यान से स्पष्ट होती है।
    • शिक्षा का अधिकार (RTE), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और बुजुर्गों एवं दिव्यांगो के लिये विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ सामाजिक न्याय एवं समानता सुनिश्चित करने हेतु भारत में चल रहे समाजवादी-प्रेरित प्रयासों का उदाहरण हैं।
  • समावेशी विकास:
    • समाजवाद समावेशी विकास पर ज़ोर देता है। यह सुनिश्चित करता है कि आर्थिक विकास से समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से गरीबों और हाशिये पर स्थित लोगों को लाभ मिले। यह सिद्धांत प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि भारत अपनी विविध आबादी के बीच समान विकास के लिये प्रयास करना जारी रखता है।
    • स्किल इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी सरकारी पहल सभी के लिये, विशेष रूप से वंचितों के लिये, देश की आर्थिक प्रगति में भाग लेने के अवसर उत्पन्न करने के हेतु डिज़ाइन की गई हैं।
  • राज्य स्वामित्व और विनियमन:
    • जबकि भारत निजीकरण और बाज़ार संचालित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ गया है, राज्य अभी भी बैंकिंग, बीमा एवं ऊर्जा जैसे प्रमुख क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
      • यह संतुलन एकाधिकार को रोकने और सार्वजनिक कल्याण सुनिश्चित करने हेतु महत्त्वपूर्ण उद्योगों के राज्य स्वामित्व एवं विनियमन के समाजवादी सिद्धांत को दर्शाता है।
    • हाल ही में आत्मनिर्भर भारत पर ज़ोर राष्ट्रीय हितों की रक्षा हेतु रणनीतिक क्षेत्रों में राज्य के हस्तक्षेप की प्रासंगिकता को उजागर करता है, जो समाजवादी विचारधारा में निहित एक अवधारणा है।
  • पर्यावरणीय स्थिरता:
    • समाजवाद का ध्यान सामूहिक कल्याण पर है, जो पर्यावरणीय स्थिरता तक फैला हुआ है, जो भविष्य की पीढ़ियों सहित सभी को लाभ पहुँचाने हेतु संसाधनों के ज़िम्मेदार उपयोग का समर्थन करता है।
      • जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय गिरावट के सामने, सतत् विकास के लिये भारत की प्रतिबद्धता समाजवादी आदर्शों के साथ प्रतिध्वनित होती है।
    • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने जैसी नीतियाँ आर्थिक विकास को पर्यावरण संरक्षण के साथ संतुलित करने की समाजवादी दृष्टि के अनुरूप हैं।

निष्कर्ष

भारतीय संदर्भ में समाजवाद एक ऐसे समाज की कल्पना करता है, जो लोगों की शक्ति की सर्वोच्चता में निहित हो, जहाँ लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और समानता सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक ताने-बाने में गहराई से एकीकृत हो। यह जाति उत्पीड़न को मिटाने, सभी समुदायों की सच्ची समानता सुनिश्चित करने और एक ऐसी प्रणाली को बढ़ावा देने का प्रयास करता है, जहाँ उत्पादन का सामाजिक स्वामित्व एवं  केंद्रीय नियोजन आर्थिक विकास का मार्गदर्शन करते हैं।

सामूहिक कल्याण तथा सशक्तीकरण पर ज़ोर देकर, भारतीय समाजवाद एक न्यायपूर्ण, समावेशी और वास्तव में लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करने की आकांक्षा रखता है, जहाँ सभी नागरिकों की भलाई प्राथमिक लक्ष्य है।

 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक संवैधानिक स्थिति क्या थी? (2021)

(a) एक लोकतांत्रिक गणराज्य
(b) एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य
(c) एक संप्रभु धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य
(d) एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य

उत्तर: B


प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन सा उद्देश्य भारत के संविधान की प्रस्तावना में सन्निहित नहीं है? (2017)

(a) विचार की स्वतंत्रता
(b) आर्थिक स्वतंत्रता
(c) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(d) विश्वास की स्वतंत्रता

उत्तर: (b)

मेन्स

प्र. 'प्रस्तावना' में 'गणराज्य' शब्द से जुड़े प्रत्येक विशेषण पर चर्चा कीजिये। क्या वे वर्तमान परिस्थितियों में परिरक्षण योग्य हैं? (2016)