ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का संरक्षण | 19 Apr 2024
यह एडिटोरियल 18/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Great Indian Bustard and climate action verdict” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु परिवर्तन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय पर चर्चा की गई है और ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ प्रजाति के संरक्षण के लिये इसके निहितार्थ पर प्रकाश डाला गया है।
प्रिलिम्स के लिये:डेजर्ट नेशनल पार्क, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB), अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट , स्पीशीज़ रिकवरी प्रोग्राम, सर्वोच्च न्यायालय (SC), वन्यजीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES)। मेन्स के लिये:ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव। |
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के एक निर्णय में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के मूल अधिकार के अस्तित्व को मान्यता प्रदान की। इस निर्णय ने पर्यावरणविदों का उल्लेखनीय रूप से ध्यान आकर्षित किया है, जहाँ उन्होंने मुख्यतः ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard) के संरक्षण पर इसके प्रभावों के दृष्टिकोण से विचार किया है। समावेशी जलवायु कार्रवाई के दृष्टिकोण से इस निर्णय का विश्लेषण करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
उनका तर्क है कि सर्वप्रथम, केवल अधिकार को मान्यता देने तक सीमित रहकर न्यायालय ने अधिकार के विषय-वस्तु पर उत्पादक चर्चा के लिये समय एवं अवसर की अनुमति प्रदान की है। तदनुसार, यह भविष्य में अधिकार की अधिक सूचना-संपन्न अभिव्यक्ति को सक्षम बना सकता है। दूसरा, इस मामले में विद्यमान मुख्य मुद्दे की प्रकृति को देखते हुए, ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ (Just Transition Framework) का उपयोग करना आगे बढ़ने का एक उत्कृष्ट दृष्टिकोण है। यह अधिक चिंतनशील और समावेशी अधिकार की अभिव्यक्ति सहित समतामूलक जलवायु कार्रवाई को सुगम बना सकता है।
‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ (Just Transition Framework)
परिचय:
- परिभाषा: ‘जस्ट ट्रांजिशन’ या न्यायपूर्ण संक्रमण का ढाँचा एक व्यापक दृष्टिकोण को संदर्भित करता है जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि एक संवहनीय एवं निम्न-कार्बन वाली अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण सभी हितधारकों, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन और अन्य पर्यावरणीय रूप से हानिकारक उद्योगों से दूर होने से प्रभावित होने वाले श्रमिकों और समुदायों, के लिये न्यायपूर्ण एवं समतामूलक हो।
- समावेशी संक्रमण (Inclusive Transition): यह ढाँचा एक सुचारु और समावेशी संक्रमण की प्राप्ति के लिये सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आयामों को एक साथ संबोधित करने की आवश्यकता को पहचानता है।
सामाजिक समता (Social Equity):
- श्रमिक अधिकार: श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना, जिसमें नौकरी की सुरक्षा, उचित वेतन और संवहनीय क्षेत्रों में रोज़गार के नए अवसरों के लिये प्रशिक्षण एवं पुनः कौशल कार्यक्रमों तक पहुँच शामिल है।
- सामुदायिक विकास: आर्थिक पुनर्गठन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिये स्थानीय अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य आवश्यक सेवाओं में निवेश के माध्यम से जीवाश्म ईंधन उद्योगों पर निर्भर समुदायों का समर्थन करना।
आर्थिक न्याय (Economic Justice):
- रोज़गार सृजन: पारंपरिक उद्योगों में खोए रोज़गार अवसरों को प्रतिस्थापित करने के लिये नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, सतत कृषि और अन्य पर्यावरण-अनुकूल क्षेत्रों में हरित रोज़गार अवसरों के सृजन को बढ़ावा देना।
- आय सहायता: संक्रमण अवधि के दौरान प्रभावित श्रमिकों को उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये वित्तीय सहायता, बेरोज़गारी लाभ और अन्य प्रकार की आय सहायता प्रदान करना।
पर्यावरणीय संवहनीयता (Environmental Sustainability):
- स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण: जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करते हुए स्वच्छ एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर संक्रमण को सुगम बनाना, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आएगी और जलवायु परिवर्तन का शमन होगा।
- पर्यावरणीय सुधार: निष्कर्षण उद्योगों द्वारा पीछे छोड़े गए प्रदूषण एवं पर्यावरणीय क्षरण की विरासत को संबोधित करने के लिये पर्यावरणीय सुधार एवं पुनर्बहाली के प्रयासों में निवेश करना।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard- GIB):
- परिचय:
- ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Ardeotis nigriceps) राजस्थान का राज्य पक्षी है जिसे भारत की सबसे गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी प्रजाति माना जाता है।
- इसे घासभूमि की प्रमुख पक्षी प्रजाति माना जाता है, जो घासभूमि पारिस्थितिकी के स्वास्थ्य को परिलक्षित करती है। इसकी अधिकांश आबादी मुख्यतः राजस्थान और गुजरात राज्य तक सीमित है। इनकी छोटी आबादी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश राज्यों में भी पाई जाती है।
- सुरक्षा की स्थिति:
- अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट: गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered- CE)
- वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES): परिशिष्ट 1
- प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर कन्वेंशन (CMS): परिशिष्ट 1
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: अनुसूची 1
- भेद्यता/संवेदनशीलता:
- बिजली पारेषण लाइनों के साथ टकराव एवं विद्युत आघात, शिकार (पाकिस्तान में अभी भी प्रचलित), व्यापक कृषि विस्तार के परिणामस्वरूप पर्यावास हानि एवं परिवर्तन आदि के कारण यह पक्षी प्रजाति लगातार खतरे का सामना कर रही है।
- उल्लेखनीय है कि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड धीमी गति से आबादी बढ़ाने वाली प्रजाति है जहाँ वे एक समय में कुछ ही अंडे उत्पन्न करते हैं और लगभग एक वर्ष तक माता-पिता द्वारा चूजों की देखभाल की जाती है। चूजों को परिपक्वता प्राप्त करने में लगभग 3-4 वर्षों का समय लगता है।
- भारत की चिंताएँ:
- चोलिस्तान मरुस्थल (पाकिस्तान) में स्थित घासभूमि पर्यावास, जहाँ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड प्रजाति का वृहत रूप से शिकार किया गया, राजस्थान के डेजर्ट नेशनल पार्क (DNP) पर्यावास के ही समान है जहाँ इस प्रजाति की अंतिम शेष बची जंगली आबादी पाई जाती है।
- DNP जैसलमेर एवं बाड़मेर शहरों के पास अवस्थित है, जो विशाल थार मरुस्थल का एक भाग है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के पर्यावास की रक्षा के लिये इसे वर्ष 1981 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था।
- चूँकि राजस्थान पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रांतों के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करता है, ये पक्षी वहाँ के शिकारियों के लिये आसान शिकार बन सकते हैं।
- इस दुर्लभ पक्षी प्रजाति के शिकार से न केवल भारत की GIB आबादी में भारी कमी आएगी, बल्कि मरुस्थल पारिस्थितिकी तंत्र पर भी इसका असर पड़ेगा।
वन्यजीव संरक्षण से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48A में उपबंध किया गया है कि राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन का और वन तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 51A के खंड (g) में कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्यजीव शामिल हैं, रक्षा करे और उसका संवर्द्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दया-भाव रखे।
- संविधान का अनुच्छेद 21 यद्यपि व्यक्तियों के प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण से संबंधित है, लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने प्राण या जीवन शब्द की विस्तारित परिभाषा देते हुए मानव जीवन के लिये आवश्यक सभी जीवन रूपों (जिसमें जंतु जीवन भी शामिल है) को अनुच्छेद 21 के दायरे में शामिल माना है।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संबंध में अद्यतन स्थिति
- वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायायलय में जनहित याचिका (PIL):
- राजस्थान और गुजरात राज्य गंभीर रूप से संकटग्रस्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के घर हैं। लेकिन साथ ही ये दोनों राज्य सौर एवं पवन ऊर्जा के विकास की उल्लेखनीय संभावनाएँ रखते हैं। वर्ष 2019 में कुछ लोक उत्साही व्यक्तियों (याचिकाकर्ताओं) द्वारा बस्टर्ड के संरक्षण की मांग करते हुए एक जनहित याचिका दायर की गई।
- अंतरिम में, उन्होंने सौर एवं पवन ऊर्जा अवसंरचना के आगे के निर्माण और इनसे संबद्ध ओवरहेड पावर ट्रांसमिशन लाइनों को बिछाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। उन्होंने तर्क दिया कि ये बिजली लाइनें खतरनाक हैं जिनसे बार-बार टकराने के कारण बस्टर्ड पक्षियों की मौत हो रही है।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्ण प्रतिबंध:
- सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में 99,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ओवरहेड बिजली लाइनें बिछाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया; जिसमें बस्टर्ड संरक्षण के लिये प्राथमिकता क्षेत्र और संभावित क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किये गए क्षेत्र शामिल थे। न्यायालय ने मौजूदा उच्च और निम्न वोल्टेज दोनों तरह के बिजली लाइनों को भूमिगत करने का आदेश भी पारित किया।
- भारत सरकार की आपत्ति:
- गैर-जीवाश्म ईंधन की ओर आगे बढ़ने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं का हवाला देते हुए भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी। सरकार ने तर्क दिया कि पूर्ण प्रतिबंध उस वास्तविक क्षेत्र से कहीं अधिक बड़े क्षेत्र के लिये जारी किया गया है जहाँ बस्टर्ड पक्षियों का निवास है।
- सरकार ने कहा कि यह क्षेत्र देश की पवन एवं सौर ऊर्जा क्षमता में एक बड़ी हिस्सेदारी रखता है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि बिजली लाइनों को भूमिगत करना व्यावहारिक रूप से असंभव है। सरकार ने बस्टर्ड की आबादी में गिरावट के लिये अवैध शिकार, पर्यावास विनाश और इन पक्षियों द्वारा शिकार करने के अवसर जैसे अन्य कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया।
- गैर-जीवाश्म ईंधन की ओर आगे बढ़ने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं का हवाला देते हुए भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी। सरकार ने तर्क दिया कि पूर्ण प्रतिबंध उस वास्तविक क्षेत्र से कहीं अधिक बड़े क्षेत्र के लिये जारी किया गया है जहाँ बस्टर्ड पक्षियों का निवास है।
- SC द्वारा आदेश वापस लेना:
- एम.के. रणजीतसिंह बनाम भारत संघ मामले में 21 मार्च 2024 को अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के आदेश में संशोधन करते हुए ट्रांसमिशन लाइनों पर पूर्ण प्रतिबंध को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने आदेश पर पुनर्विचार के मुद्दे को वैज्ञानिक विशेषज्ञों पर छोड़ दिया।
- इस क्रम में भूमिगत पावर लाइनों की व्यवहार्यता का आकलन करने और बस्टर्ड संरक्षण के उपायों की पहचान करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति की स्थापना की गई। इस समिति द्वारा जुलाई 2024 तक अपनी रिपोर्ट सौंपी जानी है, जिसके बाद न्यायालय अपना अंतिम निर्णय सुनाएगा।
- एम.के. रणजीतसिंह बनाम भारत संघ मामले में 21 मार्च 2024 को अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के आदेश में संशोधन करते हुए ट्रांसमिशन लाइनों पर पूर्ण प्रतिबंध को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने आदेश पर पुनर्विचार के मुद्दे को वैज्ञानिक विशेषज्ञों पर छोड़ दिया।
एम.के. रणजीत सिंह बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विभिन्न निहितार्थ:
- पर्यावरणीय न्यायशास्त्र की रूपरेखा का विस्तार:
- SC ने पर्यावरणीय न्यायशास्त्र की रूपरेखा का विस्तार किया है। इसका विस्तार बार-बार दोहराए जाने वाले प्रदूषक भुगतान सिद्धांत- निवारक सिद्धांत-सार्वजनिक विश्वास सिद्धांत (polluter pay principle–precautionary principle–public trust doctrine) से जलवायु न्याय, पर्यावरणीय असमानता और लैंगिक न्याय के वृहत क्षेत्र तक किया गया है।
- पर्यावरणीय न्याय सुरक्षित करना:
- लंबे समय से पर्यावरणीय विवादों को ‘पर्यावरण बनाम विकास’ के बहस के संकीर्ण चश्मे से देखा जाता रहा है। इस निर्णय में न्यायालय ने इस द्विआधार से आगे बढ़ते हुए संवैधानिक और अंतर्राष्ट्रीय कानूनी परिप्रेक्ष्य एवं सिद्धांतों के दृष्टिकोण से कुछ विवादास्पद मुद्दों को संबोधित करने की कोशिश की है।
- हालाँकि निर्णय में नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों पर अत्यधिक बल देने के बारे में चिंताएँ व्यक्त की गई हैं, कई मायनों में यह एक दृष्टांत या मिसाल का भी निर्माण करता है (राष्ट्रीय के साथ ही वैश्विक स्तर पर) और तेज़ी से गर्म एवं शुष्क होते जा रहे विश्व में पर्यावरणीय न्याय प्राप्त करने के लिये एक प्रभावी साधन सिद्ध हो सकता है।
- जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार:
- पहली बार ऐसा हुआ है कि न्यायालय ने इस अवसर का उपयोग जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार के अस्तित्व को चिह्नित करने के लिये किया है। न्यायालय ने माना है कि इस अधिकार को भारत के संविधान के तहत समता के अधिकार (अनुच्छेद 14) और जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) से मान्यता प्राप्त होती है।
- न्यायालय ने जीवन के अधिकार के आनंद पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से उत्पन्न खतरे की व्याख्या करते हुए इसकी शुरुआत की। इसके बाद, इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि इन प्रभावों के प्रति असंगत संवेदनशीलता प्रभावित व्यक्तियों के समता के अधिकार को खतरे में डालती है।
- चर्चा के अंत में न्यायालय ने माना कि इस अधिकार का स्रोत अनुच्छेद 21 और 14 पर न्यायिक न्यायशास्त्र के संयुक्त पाठ में, भारत की जलवायु परिवर्तन कार्रवाई एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं में और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों पर वैज्ञानिक सहमति में है।
- कोयला आधारित बिजली संयंत्र से दूर जाने की आवश्यकता:
- न्यायालय ने केंद्र सरकार की दलीलों को ध्यान में रखते हुए कोयले से सौर ऊर्जा की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता के मुख्य कारण पर प्रकाश डाला:
- अगले दो दशकों में वैश्विक ऊर्जा मांग वृद्धि में भारत की हिस्सेदारी 25% होने की संभावना है, जिससे पर्यावरणीय प्रभावों को कम करते हुए बेहतर ऊर्जा सुरक्षा और आत्मनिर्भरता के लिये सौर ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाना आवश्यक हो गया है। ऐसा करने में विफलता से कोयले और तेल पर निर्भरता बढ़ सकती है, जिससे आर्थिक और पर्यावरणीय लागत की वृद्धि हो सकती है।
- न्यायालय ने केंद्र सरकार की दलीलों को ध्यान में रखते हुए कोयले से सौर ऊर्जा की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता के मुख्य कारण पर प्रकाश डाला:
- जलवायु विधान और जलवायु संबंधी वाद:
- निर्णय में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये विशिष्ट घरेलू कानून की कमी पर ध्यान दिया गया। वर्तमान मामले में भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और प्रतिबद्धताओं को घरेलू कानून में अधिनियमित नहीं किया गया है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने जलवायु परिवर्तन के संबंध में वैश्विक स्तर पर विभिन्न वादों (litigations) का भी संज्ञान लिया। इस क्रम में विशेष रूप से स्टेट ऑफ नीदरलैंड बनाम अर्जेंडा फाउंडेशन मामले में डच सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर ध्यान दिया गया, जिसने चिह्नित किया कि जलवायु परिवर्तन न केवल जीवन के अधिकार को प्रभावित करता है, बल्कि निजी एवं पारिवारिक जीवन के अधिकार को भी प्रभावित करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने ‘कमिटी ऑन राइट्स ऑफ चाइल्ड’ के निर्णय (Sacchi, et al. v. Argentina, et al) पर भी ध्यान दिया, जहाँ कमिटी ने पाया कि “जबकि जलवायु परिवर्तन के लिये वैश्विक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, व्यक्तिगत राज्य जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों में अपने योगदान के संबंध में अपनी सक्रियताओं या निष्क्रियताओं के लिये जवाबदेही धारण करते हैं।”
- निर्णय में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये विशिष्ट घरेलू कानून की कमी पर ध्यान दिया गया। वर्तमान मामले में भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और प्रतिबद्धताओं को घरेलू कानून में अधिनियमित नहीं किया गया है।
- पूर्व आदेश को रद्द करने की स्थिति में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के लिये चिंताएँ:
- निर्णय में नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों पर अत्यधिक बल:
- मुख्य चिंता इस बात की है कि नवीकरणीय ऊर्जा के बड़े पैमाने पर आक्रामक प्रचार से उत्पन्न होने वाली सामाजिक एवं पर्यावरणीय चिंताओं पर विचार किये बिना नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों पर निर्णय में अत्यधिक बल दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नवीकरणीय ऊर्जा पर्यावरणीय एवं सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न करती है जैसा कि GIBs को खतरों के मामले में देखा जा सकता है।
- बड़े पैमाने पर नवीकरणीय ऊर्जा के लिये भूमि का अधिग्रहण, भूमि तक पारंपरिक समुदाय की पहुँच को प्रतिबंधित किया जाना और जल की खपत बढ़ना शामिल है। पूर्ण जीवन चक्र विश्लेषण से पुष्टि होगी कि लिथियम के निष्कर्षण के साथ-साथ सौर पैनलों के निपटान से गंभीर मुद्दे जुड़े हुए हैं।
- मुख्य चिंता इस बात की है कि नवीकरणीय ऊर्जा के बड़े पैमाने पर आक्रामक प्रचार से उत्पन्न होने वाली सामाजिक एवं पर्यावरणीय चिंताओं पर विचार किये बिना नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों पर निर्णय में अत्यधिक बल दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नवीकरणीय ऊर्जा पर्यावरणीय एवं सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न करती है जैसा कि GIBs को खतरों के मामले में देखा जा सकता है।
- नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिये खंडित दृष्टिकोण:
- सैकड़ों एकड़ भूमि में विस्तृत नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को अभी भी किसी पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होती है और ये आम तौर पर पर्यावरण कानूनों के दायरे से बाहर हैं। हालाँकि कुछ राज्यों को वायु अधिनियम, 1981 और जल अधिनियम, 1974 के तहत सहमति की आवश्यकता होती है, लेकिन यह अपर्याप्त, तदर्थ एवं खंडित बना रहा है।
- इससे नवीकरणीय ऊर्जा की अनियमित और अप्रतिबंधित वृद्धि के विरुद्ध आम लोगों का विरोध शुरू हो गया है। इसलिये यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि हरित ऊर्जा से हर चीज़ हरी नहीं हो जाती। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के लिये सौर ऊर्जा पारेषण लाइनों द्वारा उत्पन्न खतरों के मामले में यह स्पष्ट रूप से देखा गया था।
- सैकड़ों एकड़ भूमि में विस्तृत नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को अभी भी किसी पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होती है और ये आम तौर पर पर्यावरण कानूनों के दायरे से बाहर हैं। हालाँकि कुछ राज्यों को वायु अधिनियम, 1981 और जल अधिनियम, 1974 के तहत सहमति की आवश्यकता होती है, लेकिन यह अपर्याप्त, तदर्थ एवं खंडित बना रहा है।
- ‘संतुलन’ की पहेली को सुलझाना:
- प्राथमिकता क्षेत्र, संभावित क्षेत्र और अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में नए ओवरहेड ट्रांसमिशन पर सामान्य निषेध को हटाने के संबंध में न्यायालय की राय थी कि लगभग 99,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सौर ऊर्जा के वितरण के लिये ट्रांसमिशन लाइनों की स्थापना के संबंध में सामान्य निषेध का कोई आधार नहीं है।
- हालाँकि, सामान्य निषेध न होने के कारणों से सहमत होते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय को पहली बार सामान्य ‘पर्यावरण बनाम विकास’ की बहस से हटकर ‘पर्यावरण बनाम संरक्षण’ की पहेली से संबोधित होना पड़ा।
- दो समान रूप से महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों (एक ओर GIBs का संरक्षण तो दूसरी ओर समग्र रूप से पर्यावरण का संरक्षण) को संतुलित करते समय एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है जहाँ एक की कीमत पर दूसरे लक्ष्य का बलिदान नहीं करना पड़े। दोनों लक्ष्यों के बीच का नाजुक संतुलन नहीं बिगड़ना चाहिये।
- विशेषज्ञ समिति को शक्तियाँ हस्तांतरित करना:
- विशेषज्ञ समिति को प्राथमिकता क्षेत्रों के रूप में चिह्नित क्षेत्र में ओवरहेड और भूमिगत विद्युत लाइनों के दायरे, व्यवहार्यता एवं सीमा का निर्धारण करना होगा। इसके अलावा, इसे GIBs की सुरक्षा बढ़ाने के लिये आवश्यक किसी भी अन्य उपाय की सिफ़ारिश करने की स्वतंत्रता दी गई है। इसमें प्रजातियों के संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण समझे जाने पर निर्दिष्ट प्राथमिकता क्षेत्रों से परे उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान करना और उन्हें जोड़ना शामिल हो सकता है।
- अधिकार की अभिव्यक्ति का अभाव:
- उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने अधिकार के अस्तित्व को तो चिह्नित किया लेकिन इसे आगे स्पष्ट नहीं किया। इसके अतिरिक्त, इसने अभिव्यक्ति की आवश्यकता को भी रेखांकित किया। हालाँकि इसने उस कार्य को अपने हाथ में लेने से इनकार कर दिया। तर्कसंगत रूप से, न्यायालय द्वारा अधिकार को स्पष्ट न करने और केवल इसे चिह्नित करने का सचेत विकल्प चुनना पर्यावरणीय मामलों में न्यायालय के सामान्य अभ्यास से विचलन को दर्शाता है।
- अधिकांश भारतीय पर्यावरण कानून जनहित के मामलों में न्यायालय के न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकसित हुए हैं। कई मामलों में इसने पर्यावरणीय अधिकारों और कानूनी सिद्धांतों को प्रत्यारोपित, चिह्नित एवं स्पष्ट किया है।
- उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने अधिकार के अस्तित्व को तो चिह्नित किया लेकिन इसे आगे स्पष्ट नहीं किया। इसके अतिरिक्त, इसने अभिव्यक्ति की आवश्यकता को भी रेखांकित किया। हालाँकि इसने उस कार्य को अपने हाथ में लेने से इनकार कर दिया। तर्कसंगत रूप से, न्यायालय द्वारा अधिकार को स्पष्ट न करने और केवल इसे चिह्नित करने का सचेत विकल्प चुनना पर्यावरणीय मामलों में न्यायालय के सामान्य अभ्यास से विचलन को दर्शाता है।
- निर्णय में नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों पर अत्यधिक बल:
नवीन निर्णय को अधिक सक्रिय और समावेशी बनाने के लिये किन विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार किया जाना चाहिये?
- जैव विविधता संरक्षण और जलवायु कार्रवाई का समन्वयन:
- मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि बस्टर्ड प्रजाति पर नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के प्रतिकूल प्रभावों को किस प्रकार सीमित किया जाए। जैसा कि संरक्षणवादियों ने उल्लेख किया है, यह निर्णय दो प्रतिस्पर्द्धी विकल्पों—यानी या तो जैव विविधता की रक्षा करना या शमनकारी जलवायु कार्रवाई की अनुमति देना, को प्रस्तुत करते हुए केंद्रीय मुद्दे पर विचार करता है। दूसरे शब्दों में, यह जैव विविधता संरक्षण और जलवायु कार्रवाई को प्रतिकूल विकल्पों के रूप में पेश करता है।
- इसके अलावा, इस दृष्टिकोण में अधिकार की मान्यता को भी प्रासंगिक बनाया गया है जो जैव विविधता संरक्षण और शमनकारी जलवायु कार्रवाई के साथ मेल खाता है। तदनुसार, इस प्रकार मान्यता प्राप्त अधिकार केवल जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध मनुष्यों के हितों की रक्षा से संबंधित है, जिस जलवायु परिवर्तन को जैव विविधता संरक्षण और जलवायु कार्रवाई को समन्वित कर कम किया जा सकता है।
- मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि बस्टर्ड प्रजाति पर नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के प्रतिकूल प्रभावों को किस प्रकार सीमित किया जाए। जैसा कि संरक्षणवादियों ने उल्लेख किया है, यह निर्णय दो प्रतिस्पर्द्धी विकल्पों—यानी या तो जैव विविधता की रक्षा करना या शमनकारी जलवायु कार्रवाई की अनुमति देना, को प्रस्तुत करते हुए केंद्रीय मुद्दे पर विचार करता है। दूसरे शब्दों में, यह जैव विविधता संरक्षण और जलवायु कार्रवाई को प्रतिकूल विकल्पों के रूप में पेश करता है।
- ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ को पूर्णरूपेण अपनाना:
- आगे बढ़ते हुए, एक वैकल्पिक दृष्टिकोण के अंगीकरण से इस पहेली को सुलझाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण होगा ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ या न्यायपूर्ण संक्रमण ढाँचे का उपयोग करना। वर्तमान में दुनिया भर में जलवायु मामलों में उपयोग किये जा रहे इस दृष्टिकोण का उद्देश्य निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण को अधिक समतामूलक एवं समावेशी बनाना है। यह विशेष रूप से ऐसे संक्रमणों से सबसे अधिक प्रभावित लोगों के हितों की पूर्ति करता है।
- इसमें अन्य हितधारकों के साथ-साथ श्रमिक, संवेदनशील समुदाय और छोटे एवं मध्यम आकार के उद्यम शामिल हैं। जहाँ मुख्य मुद्दा वर्तमान मामले के समान है, वहाँ न्यायसंगत संक्रमण ढाँचे का उपयोग करना एक उत्कृष्ट दृष्टिकोण है।
- यह धीमी कार्बन संक्रमण परियोजनाओं (इस मामले में सौर ऊर्जा) से खतरे में पड़ने वाले निम्न प्रतिनिधित्व रखने वाले हितधारकों (इस मामले में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) की रक्षा करने की अनुमति देता है।
- आगे बढ़ते हुए, एक वैकल्पिक दृष्टिकोण के अंगीकरण से इस पहेली को सुलझाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण होगा ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ या न्यायपूर्ण संक्रमण ढाँचे का उपयोग करना। वर्तमान में दुनिया भर में जलवायु मामलों में उपयोग किये जा रहे इस दृष्टिकोण का उद्देश्य निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण को अधिक समतामूलक एवं समावेशी बनाना है। यह विशेष रूप से ऐसे संक्रमणों से सबसे अधिक प्रभावित लोगों के हितों की पूर्ति करता है।
- समावेशी और समतामूलक जलवायु कार्रवाई को सुगम बनाना:
- यह देखते हुए कि न्यायालय का अंतिम निर्णय अभी भी लंबित है, यह न्यायपालिका के लिये ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ का उपयोग करने और समावेशी एवं समतामूलक जलवायु कार्रवाई को सुगम बनाने का एक उत्कृष्ट अवसर है। निर्णय में जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध एक अधिकार को मान्यता दी गई है और इसे अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है।
- यह इस अधिकार के संघटकों पर चर्चा शुरू करने के लिये एक उत्पादक अवसर प्रदान करता है—यानी इसे समावेशी और प्रभावी बनाने का एक अवसर। हालाँकि यह बोझ साझा प्रकृति भी रखता है।
- यह न केवल राज्य पर बल्कि कार्यकर्ताओं, वादियों और शिक्षाविदों पर भी (जो अधिकारों की मान्यता, अभिव्यक्ति और प्रवर्तन की प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भाग लेकर अधिकारों को संघटक तत्व प्रदान करते हैं) एक दायित्व लागू करता है।
- बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाना:
- विभिन्न अधिकारों और हितों के लिये जीवंत जलवायु कार्रवाई:
- सर्वप्रथम, जलवायु कार्रवाई और जैव विविधता की सुरक्षा को ‘साइलो’ में या पृथक-पृथक स्तर पर देखे जाने से रोकने की आवश्यकता है। इसके बजाय यह समायोजनकारी जलवायु कार्रवाई के लिये एक मामले का निर्माण कर सकता है, यानी विभिन्न अधिकारों और हितों के लिये जीवंत जलवायु कार्रवाई।
- अधिक प्रतिवर्ती जलवायु अधिकारों की अभिव्यक्ति को सक्षम करना:
- दूसरा, भारत को अधिक प्रतिक्रियाशील या प्रतिवर्ती जलवायु अधिकारों की अभिव्यक्ति को सक्षम करने का प्रयास करना चाहिये। जलवायु संबंधी वादों में इसका उपयोग यह सुनिश्चित कर सकता है कि जलवायु अधिकारों की अभिव्यक्ति और कार्यान्वयन गैर-मानवीय प्रकृति के हितों के प्रति भी संवेदनशील है तथा पारिस्थितिक न्याय को आगे बढ़ाता है।
- गैर-मानवीय हितों को समायोजित करना:
- तीसरा, यदि न्यायालय के अंतिम निर्णय में ‘जस्ट ट्रांजिशन फ्रेमवर्क’ का उपयोग किया जाता है तो यह मामला गैर-मानवीय हित पर विचार करने वाले पहले न्यायसंगत संक्रमण मुकदमों में से एक होगा।
- वैश्विक स्तर पर मौजूदा न्यायसंगत संक्रमण मुकदमों में से केवल एक अन्य मामला गैर-मानवीय पर्यावरण के हितों की रक्षा से संबंधित है। इस प्रकार, वर्तमान मामला ऐसे मुकदमे या वादों में अग्रणी मामला सिद्ध होगा। सैद्धांतिक रूप से, यह मानवीय हितों से अधिक पर विचार करने के लिये एक न्यायसंगत संक्रमण की अवधारणा का विस्तार करने में योगदान देगा।
- विभिन्न अधिकारों और हितों के लिये जीवंत जलवायु कार्रवाई:
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिये कौन-से कदम उठाए जा रहे हैं?
- प्रजाति पुनर्प्राप्ति/रिकवरी कार्यक्रम:
- GIBs को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के वन्यजीव पर्यावासों का एकीकृत विकास (Integrated Development of Wildlife Habitats) के तहत प्रजाति पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम (Species Recovery Programme) में शामिल किया गया है।
- केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में GIBs प्रजाति पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम शुरू किया था। इसके तहत WII और राजस्थान वन विभाग ने संयुक्त रूप से प्रजनन केंद्र स्थापित किये जहाँ वन्य परिवेश के प्राप्त बस्टर्ड के अंडों को कृत्रिम रूप से निषेचित किया गया।
- फायरफ्लाई बर्ड डायवर्टर:
- फायरफ्लाई बर्ड डायवर्टर (Firefly Bird Diverters) बिजली लाइनों पर स्थापित फ्लैप होते हैं। वे GIBs जैसी पक्षी प्रजातियों के लिये बिजली के तारों पर लटकी परावर्तक संरचनाओं के रूप में कार्य करते हैं। पक्षी इन्हें लगभग 50 मीटर की दूरी से देख सकते हैं और बिजली लाइनों से टकराव से बचने के लिये अपनी उड़ान का रास्ता बदल सकते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान और गुजरात के मुख्य सचिवों को प्राथमिकता क्षेत्रों में बर्ड डायवर्टर लगाने का आदेश दिया है। इसने उनसे दोनों राज्यों में भूमिगत की जा सकने वाली ट्रांसमिशन लाइनों की कुल लंबाई का आकलन करने के लिये भी कहा है।
- आर्टिफीसियल हैचिंग:
- वर्ष 2019 में शुरू किये गए संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम के तहत वन्य परिवेश से अंडे एकत्र करने और कृत्रिम रूप से उन्हें सेने (हैचिंग) का कार्य आरंभ हुआ। 21 जून 2019 को पहला चूजा बाहर निकला, जिसका नाम ‘यूनो’ (Uno) रखा गया। उस वर्ष आठ और चूज़े पैदा हुए जिनका पालन-पोषण किया गया तथा उनकी निगरानी की गई। राजस्थान के दो प्रजनन केंद्रों में कुल 29 GIBs रखे गए हैं।
- राष्ट्रीय बस्टर्ड रिकवरी योजनाएँ:
- भारत सरकार ने ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के लिये एक व्यापक संरक्षण योजना विकसित की है ताकि विभिन्न राज्यों में संरक्षण प्रयासों का समन्वयन एवं मार्गदर्शन किया जा सके।
- संरक्षण प्रजनन सुविधा:
- MoEF&CC , राजस्थान सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने जून 2019 में जैसलमेर के डेजर्ट नेशनल पार्क में एक संरक्षण प्रजनन सुविधा भी स्थापित की है।
- प्रोजेक्ट ग्रेट इंडियन बस्टर्ड:
- इसे राजस्थान सरकार द्वारा इस प्रजाति के लिये प्रजनन बाड़ों का निर्माण करने और इसके पर्यावासों पर मानव दबाव को कम करने के लिये अवसंरचना विकास करने के लिये शुरू किया गया है।
निष्कर्ष
अपनी प्रमुख कृति ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’ (2009) में अमर्त्य सेन का तर्क है कि न्याय के सिद्धांत में ‘अन्याय को कम करने और न्याय को आगे बढ़ाने’ के उपाय शामिल होने चाहिये। ताज़ा निर्णय में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एक तरह से इन दोनों विचारों को समन्वित कर दिया है और चिह्नित किया है कि नागरिक तब तक स्वतंत्र नहीं होंगे जब तक वे जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से मुक्त नहीं होते। इस क्रम में जलवायु विशिष्ट कानून, जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित वाद/मुकदमे और कोयले से स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण न केवल पर्यावरण के दृष्टिकोण से, बल्कि मानवाधिकारों को आगे बढ़ाने और असमानता को कम करने के लिये भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि ताज़ा निर्णय कानून, नीति और कार्रवाई को इस तरह से आकार देने में मदद करेगा जो यह सुनिश्चित करेगा कि न केवल नागरिक जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से मुक्त हों, बल्कि अंतिम शेष बचे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी बिजली लाइनों में उलझे बिना स्वतंत्र रूप से उड़ सकें।
अभ्यास प्रश्न: ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के निहितार्थों की चर्चा कीजिये। इसके संरक्षण हेतु कौन-से उपाय आवश्यक हैं?
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राणी समूह संकटापन्न जातियों के संवर्ग के अंतर्गत आता है? (2012) (a) महान भारतीय सारंग, कस्तूरी मृग, लाल पांडा और एशियाई वन्य गधा। उत्तर: (a) प्रश्न. मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन सा/ से सही है/हैं? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) |