सामाजिक न्याय
भारत की पोषण रणनीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता
- 17 Mar 2025
- 32 min read
यह एडिटोरियल 17/03/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Tackling the problem of nutrition” पर आधारित है। यह लेख भारत की पोषण चुनौती– जो खाद्य असुरक्षा से आलावा सांस्कृतिक, लैंगिक और स्वास्थ्य संबद्ध कारकों तक फैली हुई है, पर केंद्रित है।
प्रिलिम्स के लिये:सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सक्षम आँगनवाड़ी, पोषण 2.0, समेकित बाल विकास सेवा, हरित क्रांति, राष्ट्रीय पोषण नीति, मध्याह्न भोजन योजना (MDMS), सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) (2013), एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (ONORC), वैश्विक भूख सूचकांक (GHI), NFHS-5 रिपोर्ट, किसान उत्पादक संगठन (FPO) मेन्स के लिये:भारत में पोषण सुरक्षा कार्यक्रमों का विकास, भारत में पोषण असुरक्षा को जन्म देने वाले मुद्दे। |
भारत की पोषण चुनौतियों में खाद्य असुरक्षा के अलावा सभी जनांकिकी में सांस्कृतिक प्रथाएँ, लैंगिक भूमिकाएँ और सभी आयु समूहों में आहार संबंधी रोग भी शामिल हैं। यद्यपि बजट- 2025 में सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 के लिये धन में वृद्धि की गई है, फिर भी दोनों पहलों में केवल मातृ और बाल कुपोषण पर ध्यान केंद्रित करने के पक्ष में अन्य कमज़ोर समूहों की अनदेखी की गई है। एक व्यापक पोषण एजेंडे की आवश्यकता है, जो विविध पोषण आवश्यकताओं का अभिनिर्धारण कर स्थानीय खाद्य प्रणालियों का लाभ उठाते हुए वितरण तंत्र के रूप में स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों का उपयोग करे।
भारत में पोषण सुरक्षा कार्यक्रम किस प्रकार विकसित हुआ है?
- स्वतंत्रता-उपरांत काल (1950-1970): खाद्यान्न पर्याप्तता और बुनियादी पोषण सहायता
- प्रारंभिक वर्षों में, भारत को खाद्यान्न की गंभीर कमी, अकाल के खतरे और व्यापक कुपोषण का सामना करना पड़ा, जिसके कारण खाद्य सुरक्षा-प्रथम दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला।
- सरकार की प्राथमिकता कृषि उत्पादन बढ़ाना और आम जनता के लिये न्यूनतम खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित करनी थी।
- पोषण-विशिष्ट नीतियाँ सीमित थीं, जो मुख्य रूप से शिशुओं/बच्चों और माताओं के लिये लक्षित आहार कार्यक्रमों पर केंद्रित थीं।
- महत्त्वपूर्ण पहल:
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शुरू की गई, वर्ष 1947 के बाद विस्तारित): खाद्य असुरक्षा को दूर करने के लिये सब्सिडी वाले मुख्य अनाज उपलब्ध कराए गए।
- ICDS (वर्ष 1975): 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों और गर्भवती/स्तनपान कराने वाली माताओं को पूरक पोषण, टीकाकरण और पूर्वस्कूल शिक्षा प्रदान करने के लिये समेकित बाल विकास सेवाएँ शुरू की गईं।
- बालवाड़ी पोषण कार्यक्रम (1970 का दशक): ग्रामीण क्षेत्रों में प्री-स्कूल बच्चों को पूरक पोषण प्रदान किया गया।
- प्रारंभिक वर्षों में, भारत को खाद्यान्न की गंभीर कमी, अकाल के खतरे और व्यापक कुपोषण का सामना करना पड़ा, जिसके कारण खाद्य सुरक्षा-प्रथम दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला।
- हरित क्रांति और खाद्य-आधारित योजनाओं का विस्तार (1980-1990 का दशक)
- हरित क्रांति (1960-70 के दशक) के साथ खाद्य आत्मनिर्भरता सुनिश्चित होने के साथ, पोषण के लिये सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- यह मानते हुए कि भोजन की उपलब्धता के बावजूद कुपोषण कायम है, सरकार ने स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा प्रणालियों के भीतर पोषण कार्यक्रमों को संस्थागत बनाया।
- महत्त्वपूर्ण पहल:
- मध्याह्न भोजन योजना (MDMS) (वर्ष 1995, 2001 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के तहत औपचारिक रूप दिया गया): स्कूली बच्चों को पका हुआ भोजन उपलब्ध कराया गया, जिससे पोषण और स्कूल नामांकन में सुधार हुआ।
- राष्ट्रीय पोषण नीति (वर्ष 1993): बेहतर पोषण परिणामों के लिये कृषि, स्वास्थ्य और खाद्य वितरण को एकीकृत करते हुए एक बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण पेश किया गया।
- सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (वर्ष 1985): भारत में बच्चों को गंभीर संक्रामक रोगों से बचाने के लिये नियमित टीकाकरण सेवाओं का विस्तार और सुधार करने के लिये संक्रमण से संबद्ध कुपोषण से निपटने में मदद की।
- हरित क्रांति (1960-70 के दशक) के साथ खाद्य आत्मनिर्भरता सुनिश्चित होने के साथ, पोषण के लिये सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- अधिकार-आधारित दृष्टिकोण और सूक्ष्मपोषक हस्तक्षेप (वर्ष 2000-2010)
- 2000 के दशक में कल्याण-आधारित पोषण सहायता से लेकर अधिकार-आधारित खाद्य सुरक्षा एवं सूक्ष्म पोषक हस्तक्षेप तक एक बड़ा बदलाव देखा गया।
- सरकार ने प्रच्छन्न भुखमरी (सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी) को मान्यता दी तथा सार्वभौमिक खाद्य अभिगम सुनिश्चित करने के लिये कानूनी कार्यढाँचे की आवश्यकता पर बल दिया।
- महत्त्वपूर्ण पहल:
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) (2013): सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कानूनी अधिकार बनाया गया, जिससे ग्रामीण आबादी के 75% और शहरी आबादी के 50% तक को भोजन सुनिश्चित हुआ।
- आयरन एवं फोलिक एसिड अनुपूरण (वर्ष 2013): महिलाओं और बच्चों में व्यापक एनीमिया को लक्षित किया गया।
- फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम: प्रच्छन्न भुखमरी से निपटने के लिये फोर्टिफाइड चावल, गेहूँ और दूध का वितरण शुरू किया गया।
- पोषण अभियान (पूर्ववर्ती राष्ट्रीय पोषण मिशन): इसे 0-6 वर्ष तक के बच्चों की पोषण स्थिति में सुधार लाने के लिये मार्च 2018 में शुरू किया गया था।
- 2000 के दशक में कल्याण-आधारित पोषण सहायता से लेकर अधिकार-आधारित खाद्य सुरक्षा एवं सूक्ष्म पोषक हस्तक्षेप तक एक बड़ा बदलाव देखा गया।
- व्यापक पोषण और स्वास्थ्य एकीकरण (वर्ष 2020 से वर्तमान तक)
- भारत का नवीनतम दृष्टिकोण पोषण, स्वास्थ्य देखभाल, कृषि और व्यवहार परिवर्तन को जोड़ता है, यह मानते हुए कि कुपोषण केवल भोजन की उपलब्धता से संबंधित नहीं है, बल्कि गुणवत्ता, सामर्थ्य और जागरूकता से भी संबंधित है।
- सरकार अब बेहतर पोषण परिणामों के लिये डिजिटल प्रौद्योगिकी, स्थानीय खाद्य प्रणालियों और जलवायु-अनुकूल कृषि का लाभ उठा रही है।
- महत्त्वपूर्ण पहल:
- पोषण 2.0 (वर्ष 2022): पोषण के लिये जीवन-चक्र दृष्टिकोण हेतु ICDS, मध्याह्न भोजन और पोषण अभियान का विलय।
- अंतर्राष्ट्रीय कदन्न वर्ष (वर्ष 2023) के अंतर्गत कदन्न संवर्द्धन - PDS, मध्याह्न भोजन और ICDS में पोषक तत्त्वों से भरपूर, जलवायु-अनुकूल फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
- एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (ONORC): यह सुनिश्चित किया गया कि प्रवासी श्रमिक भारत में कहीं भी सब्सिडी वाले भोजन तक पहुँच सकें।
- स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्र (आयुष्मान भारत): प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में एकीकृत पोषण परामर्श, गैर-संक्रामक रोग रोकथाम और जीवनशैली हस्तक्षेप।
- भारत का नवीनतम दृष्टिकोण पोषण, स्वास्थ्य देखभाल, कृषि और व्यवहार परिवर्तन को जोड़ता है, यह मानते हुए कि कुपोषण केवल भोजन की उपलब्धता से संबंधित नहीं है, बल्कि गुणवत्ता, सामर्थ्य और जागरूकता से भी संबंधित है।
भारत पोषण असुरक्षा से क्यों जूझ रहा है?
- बाल कुपोषण और एनीमिया का लगातार बने रहना: भारत द्वारा खाद्य सुरक्षा पर अत्यधिक ध्यान दिये जाने के बावजूद पोषण सुरक्षा के परिणाम सामने नहीं आए हैं, जिसके कारण बाल कुपोषण और एनीमिया की समस्या बढ़ गई है।
- गरीबी, आहार विविधता का अभाव तथा खराब मातृ स्वास्थ्य, प्रारंभिक बाल्यावस्था पोषण को प्रभावित करते रहते हैं।
- NFHS-5 (वर्ष 2019-21) के अनुसार, पाँच वर्ष से कम आयु के 36% बच्चे अविकसित हैं और 57% महिलाएँ (15 - 49 आयु वर्ग की) एनीमिया से पीड़ित हैं।
- यहाँ तक कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स(GHI) - 2023 जैसे प्रमुख भुखमरी संकेतकों में भी भारत कुल 125 देशों में 111वें स्थान पर है।
- कुपोषण का दोहरा बोझ - मोटापा और गैर-संक्रामक रोग: यद्यपि कुपोषण कायम है, शहरीकरण और खान-पान की बदलती आदतों के कारण मोटापा व आहार-प्रेरित गैर-संक्रामक रोग (NCD) जैसे मधुमेह और उच्च रक्तचाप में वृद्धि हुई है।
- प्रसंस्कृत, चीनी युक्त खाद्य पदार्थों की अधिक खपत एवं गतिहीन जीवन शैली ने स्वास्थ्य संकट को और बदतर (आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24) बना दिया है।
- इसके बावजूद, पोषण नीतियाँ आहार की गुणवत्ता के बजाय कैलोरी सेवन पर केंद्रित रहती हैं।
- सस्ता, स्वस्थ भोजन अभी भी कई लोगों की पहुँच से बाहर है, जबकि जंक फूड सस्ता और सुलभ है।
- भारत में वर्तमान में हमारी लगभग एक-चौथाई जनसंख्या (पुरुष और महिला दोनों) या तो अधिक वज़न वाली है या मोटापे से ग्रस्त है।
- भारत में, अनुमानतः 18 वर्ष से अधिक आयु के 77 मिलियन लोग मधुमेह (टाइप 2) से पीड़ित हैं तथा लगभग 25 मिलियन लोग प्री-डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।
- पोषण तक पहुँच में लैंगिक और सामाजिक असमानताएँ: भारत में पोषण सुरक्षा लैंगिक भेदभाव, जातिगत पदानुक्रम और सामाजिक असमानताओं से गहराई से प्रभावित है।
- महिलाएँ, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, घरों में सबसे अंत में और सबसे कम खाती हैं, जिसके कारण सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की व्यापक कमी हो जाती है।
- सरकारी कार्यक्रम मुख्यतः गर्भवती महिलाओं को लक्ष्य बनाते हैं, लेकिन किशोरियों और बुजुर्ग महिलाओं की उपेक्षा करते हैं।
- NFHS-5 रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।
- जलवायु परिवर्तन और कृषि संकट: हीट वेव्स, अनियमित मॉनसून और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं ने फसल की पैदावार, खाद्य कीमतों एवं आहार विविधता को प्रभावित किया है।
- बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे सुभेद्य क्षेत्रों में जलवायु-जनित खाद्य असुरक्षा बदतर होती जा रही है, जिससे भुखमरी और कुपोषण बढ़ रहा है।
- भारत में इस वर्ष 124 वर्षों में सबसे गर्म फरवरी दर्ज की गई, जिससे रबी गेहूँ की पैदावार प्रभावित हुई।
- इसके अलावा, हाल के सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के चावल और गेहूँ उत्पादन में 6-10% की गिरावट आने की उम्मीद है।
- बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे सुभेद्य क्षेत्रों में जलवायु-जनित खाद्य असुरक्षा बदतर होती जा रही है, जिससे भुखमरी और कुपोषण बढ़ रहा है।
- पोषण कार्यक्रमों का कमज़ोर कार्यान्वयन: मिड-डे मील (PM पोषण), सक्षम आँगनवाड़ी और खाद्य सुदृढ़ीकरण जैसी योजनाओं के बावजूद, लीकेज, अकुशल कार्यान्वयन और अपवर्जन त्रुटियाँ उनके प्रभाव को कमज़ोर करती हैं।
- कई आँगनवाड़ी केंद्रों में प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव है तथा घर ले जाने योग्य राशन प्रायः निम्न स्तर का होता है।
- शहरी गरीब और प्रवासी श्रमिक औपचारिक पोषण सुरक्षा संजाल से वंचित रहते हैं, जिससे वे प्रच्छन्न भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के प्रति संवेदनशील बने रहते हैं।
- एक नए अध्ययन से पता चलता है कि भारत में गरीबों के लिये निर्धारित सब्सिडी वाले अनाज का लगभग 28% हिस्सा लीकेज के कारण बर्बाद हो जाता है, जिससे सरकार को भारी नुकसान होता है।
- हाल ही में जारी CAG रिपोर्ट में कई आँगनवाड़ी केंद्रों पर शौचालय और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव पर प्रकाश डाला गया है, जिसके कारण छोटे बच्चे अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहते हैं।
- आर्थिक असमानता और बढ़ती खाद्य कीमतें: आर्थिक मंदी, महामारी के बाद की मुद्रास्फीति और वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधानों ने पौष्टिक भोजन को महंगा बना दिया है, जिसका निम्न आय वाले परिवारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
- यद्यपि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत निशुल्क अनाज वितरण कैलोरी की पर्याप्तता सुनिश्चित करता है, यह प्रोटीन, विटामिन और खनिज की कमी को दूर नहीं करता है।
- कई भारतीय अनुपयुक्त आहार विकल्पों और स्वस्थ खाद्य पदार्थों की सीमित उपलब्धता के कारण पेट भरकर भी कुपोषित हैं।
- नवंबर 2023 से जून 2024 तक खुदरा खाद्य मुद्रास्फीति 8% से ऊपर रही, जिसमें दलहन और सब्जियों की कीमतों में भारी उछाल आया।
- शहरी खाद्य रेगिस्तान और खराब आहार विविधता: तीव्री से हो रहे शहरीकरण ने "खाद्य रेगिस्तान" उत्पन्न कर दिए हैं - ऐसे क्षेत्र जहाँ किफायती, पौष्टिक भोजन दुर्लभ है, लेकिन फास्ट फूड प्रचुर मात्रा में है।
- निम्न आय वाले शहरी परिवार, विशेष रूप से प्रवासी श्रमिक और दैनिक मज़दूरी करने वाले श्रमिक, ताज़े फल, सब्जियाँ और प्रोटीन तक अभिगम के लिये संघर्ष करते हैं तथा सस्ते, प्रसंस्कृत एवं कैलोरी-समृद्ध खाद्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं।
- इससे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी और मोटापा दोनों की स्थिति गंभीर हो जाती है तथा गैर-संक्रामक रोगों (NCD) का बोझ बढ़ जाता है।
- भारतीय खाद्य बाज़ार में वर्तमान में उपलब्ध 68 % खाद्य एवं पेय उत्पादों में कम से कम एक घटक की अत्यधिक मात्रा पाई जाती है, जैसे: अधिक चीनी, अधिक नमक और ट्रांस फैट।
- निम्न आय वाले शहरी परिवार, विशेष रूप से प्रवासी श्रमिक और दैनिक मज़दूरी करने वाले श्रमिक, ताज़े फल, सब्जियाँ और प्रोटीन तक अभिगम के लिये संघर्ष करते हैं तथा सस्ते, प्रसंस्कृत एवं कैलोरी-समृद्ध खाद्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं।
- अपर्याप्त सार्वजनिक जागरूकता और व्यवहार संबंधी चुनौतियाँ: सरकारी प्रयासों के बावजूद, पोषण संबंधी जागरूकता कम बनी हुई है और भोजन का विकल्प प्रायः सांस्कृतिक प्राथमिकताओं, गलत सूचना एवं विपणन द्वारा निर्धारित होता है।
- स्कूल पाठ्यक्रमों और सार्वजनिक अभियानों में रोज़मर्रा की पोषण शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।
- कई परिवार पोषण मूल्य की अपेक्षा स्वाद, परंपरा और सामर्थ्य को प्राथमिकता देते हैं।
- उदाहरण के लिये, 85% भारतीय प्रोटीन के शाकाहारी स्रोतों से अनभिज्ञ हैं, जबकि 50% से अधिक लोग स्वस्थ वसा के बारे में अनभिज्ञ हैं।
- स्कूल पाठ्यक्रमों और सार्वजनिक अभियानों में रोज़मर्रा की पोषण शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।
पोषण सुरक्षा बढ़ाने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- सामुदायिक पोषण के लिये स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों को सुदृढ़ बनाना: स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों को पोषण संसाधन केंद्रों में उन्नत किया जाना चाहिये, जहाँ व्यक्तिगत आहार परामर्श, कुपोषण और गैर-संक्रामक रोगों के लिये नियमित जाँच एवं स्थानीय स्तर पर भोजन योजनाएँ सुनिश्चित कराई जानी चाहिये।
- पोषण 2.0 को आयुष्मान भारत स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों के साथ एकीकृत करके, पोषण सेवाओं को मातृ स्वास्थ्य से आगे बढ़ाकर किशोरों, बुजुर्गों और NCD रोगियों तक भी बढ़ाया जा सकता है।
- समर्पित सामुदायिक पोषण अधिकारी स्वास्थ्य देखभाल और आहार हस्तक्षेप के बीच के अंतराल को समाप्त कर सकते हैं तथा यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि पोषण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का मुख्य हिस्सा बन जाए।
- स्थानीय खाद्य प्रणालियों के साथ मध्याह्न भोजन में सुधार: मध्याह्न भोजन योजना में क्षेत्रीय रूप से उपलब्ध, पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों जैसे कदन्न, दलहन और पत्तेदार सब्जियों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये, जिससे चावल और गेहूँ जैसे प्रमुख अनाजों पर निर्भरता कम हो सके।
- स्थानीय SHG (स्वयं सहायता समूह) और किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को शामिल करते हुए एक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण से बच्चों के लिये ताज़ा, पोषण-विविध और सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक भोजन सुनिश्चित किया जा सकता है।
- PM-POSHAN को कदन्न/मोटे अनाज मिशन के साथ एकीकृत करने से ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने के साथ-साथ पोषण की दृष्टि से बेहतर अनाज को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी।
- सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी पर ध्यान देने के साथ अनिवार्य फोर्टिफिकेशन: चावल, गेहूँ, दूध और खाद्य तेलों जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन को बढ़ाने से खाने की आदतों में बदलाव किये बिना प्रच्छन्न भुखमरी से निपटा जा सकता है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को फोर्टिफाइड खाद्य वितरण से जोड़ने से यह सुनिश्चित होगा कि निम्न आय वर्ग को भी आवश्यक विटामिन और खनिज प्राप्त हों।
- हालाँकि, पोषण को आहार विविधीकरण के साथ पूरक किया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पोषक तत्त्वों के प्राकृतिक स्रोतों की उपेक्षा न की जाए।
- शहरी खाद्य वातावरण को स्वस्थ बनाना: अति-प्रसंस्कृत, उच्च-शर्करा और ट्रांस-फैट युक्त खाद्य पदार्थों पर एक श्रेणीबद्ध कराधान प्रणाली, किफायती स्वस्थ विकल्पों को बढ़ावा देते हुए अस्वास्थ्यकर आहार-शैली पर अंकुश लगा सकती है।
- स्कूलों और स्वास्थ्य सुविधाओं के निकट फास्ट-फूड दुकानों को प्रतिबंधित करने के लिये ज़ोनिंग कानून लागू किये जा सकते हैं, जिससे लोगों को स्वस्थ विकल्पों की ओर प्रेरित किया जा सके।
- ईट राइट इंडिया अभियान को FSSAI फ्रंट-ऑफ-पैक लेबलिंग (FOPL) पहल के साथ जोड़ने से यह सुनिश्चित होगा कि उपभोक्ताओं को उनके भोजन विकल्पों की पोषण गुणवत्ता के बारे में अच्छी जानकारी होगी।
- पोषणयुक्त खाद्य उत्पादन के लिये जलवायु-अनुकूल कृषि: भारत को कैलोरी-युक्त एकल-कृषि (चावल और गेहूँ) से हटकर पोषक तत्त्वों से भरपूर, जलवायु-अनुकूल फसलों जैसे कदन्न, दलहन और बायो-फोर्टिफाइड किस्मों की ओर रुख करना होगा।
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) जैसी नीतियों में संशोधन करके कदन्न को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिये, ताकि किसानों को फसलों में विविधता लाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके।
- जलवायु परिवर्तन चुनौतियों के बावजूद मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाने और पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य उत्पादन सुनिश्चित करने के लिये वाटरशेड प्रबंधन, कृषि वानिकी एवं पुनर्योजी कृषि को बढ़ाया जाना चाहिये।
- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का विस्तार: सार्वजनिक वितरण प्रणाली को केवल कैलोरी पर्याप्तता प्रदान करने से आगे बढ़कर दलहन, कदन्न और फोर्टिफाइड डेयरी उत्पादों को शामिल करके पोषण पर्याप्तता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- किशोरियों और वृद्ध महिलाओं को शामिल करने के लिये एकीकृत बाल विकास सेवाओं (ICDS) का विस्तार करने से आजीवन पोषण संबंधी कमज़ोरियों का समाधान होगा।
- प्रवासी श्रमिकों और शहरी गरीबों जैसी कमज़ोर आबादी के लिये पोषण सहायता के साथ DBT (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण) को जोड़ने से खाद्य सुरक्षा बनाए रखते हुए आहार विकल्पों में लचीलापन सुनिश्चित होगा।
- व्यापक पोषण साक्षरता अभियान: स्कूल पाठ्यक्रमों, कार्यस्थलों और सोशल मीडिया में एकीकृत एक राष्ट्रव्यापी ‘पोषण का अधिकार’ अभियान, संतुलित आहार, खाद्य लेबलिंग एवं अस्वास्थ्यकर खाद्य जोखिमों के बारे में जागरूकता उत्पन्न कर सकता है।
- प्रभावशाली व्यक्तियों, आस्था-आधारित संगठनों और सामुदायिक अभिकर्त्ताओं को शामिल करने से भोजन के विकल्पों के बारे में मिथकों का मुकाबला करने में मदद मिलेगी, विशेष रूप से सीमांत समूहों के बीच।
- ईट राइट इंडिया को वर्ष भर चलने वाले ज़मीनी स्तर के आंदोलन में विस्तारित करने से बचपन से ही स्वस्थ आहार संबंधी आदतों को बल मिलेगा।
पोषण से संबंधित भारतीय राज्यों की प्रमुख सर्वोत्तम प्रथाएँ क्या हैं?
- छत्तीसगढ़: वृद्धिरोधन/स्टंटिंग कम करने के लिये बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण
- स्वास्थ्य सेवाओं, स्वच्छता और घरेलू परिसंपत्तियों में सुधार के कारण वृद्धिरोधन 52.9% से घटकर 37.6% (वर्ष 2006-2016) हो गई।
- सुदृढ़ राजनीतिक स्थिरता, प्रशासनिक दक्षता और सामुदायिक लामबंदी ने हस्तक्षेप को बढ़ाने में मदद की।
- गुजरात: पोषण परिणामों के लिये नीति को दृढ़ करना
- अनुकूल नीतिगत वातावरण और बेहतर मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य हस्तक्षेपों के कारण वृद्धिरोधन 51.7% से घटकर 38.5% (वर्ष 2006-2016) हो गया।
- महिला शिक्षा का विस्तार, WASH (जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य) तथा ग्रामीण विकास ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- ओडिशा: नीति एवं साझेदारी के माध्यम से निरंतर प्रगति
- दृढ़ राजनीतिक प्रतिबद्धता और नीतिगत समर्थन के कारण परिवर्तन के कारण वृद्धिरोधन 45% से घटकर 34.1% हो गया।
- राज्य, विकास साझेदारों और वित्तीय संसाधनों के अभिसरण से पोषण कार्यक्रमों को बढ़ाने में मदद मिली।
- अपर्याप्त स्वच्छता, कम उम्र में विवाह और शिक्षा में अंतराल जैसी चुनौतियों पर अभी भी तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
- तमिलनाडु: पोषण के लिये दीर्घकालिक दृष्टिकोण
- तमिलनाडु ने सामाजिक कल्याण, स्वास्थ्य और लैंगिक समानता में निवेश के माध्यम से वर्ष 1992-2016 के दौरान कुपोषण को कम करने में ऐतिहासिक सफलता हासिल की।
- महिला कल्याण और बाल विकास पर राज्य का ध्यान एक प्रमुख सफलता कारक बना हुआ है।
निष्कर्ष:
भारत को खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर समग्र पोषण कल्याण की ओर बढ़ना चाहिये, जो SDG2 (भूख से मुक्ति) और SDG3 (अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण) के साथ संरेखित हो। स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों को सुदृढ़ करना, स्थानीय खाद्य प्रणालियों को बढ़ावा देना और सभी जनांकिकी में कुपोषण को दूर करना नीतिगत अंतराल को समाप्त कर सकता है। समुदाय द्वारा संचालित, जलवायु-अनुकूल और समावेशी दृष्टिकोण सभी के लिये सतत् पोषण सुरक्षा प्राप्त करने की कुंजी है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. विभिन्न सरकारी पहलों के बावजूद, खाद्य उपलब्धता से परे प्रणालीगत अंतराल के कारण भारत की पोषण सुरक्षा एक चुनौती बनी हुई है। प्रमुख मुद्दों का विश्लेषण कीजिये और समग्र पोषण कल्याण सुनिश्चित करने के लिये एक बहुआयामी रणनीति सुझाइये? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-सा/से वह/वे सूचक है/हैं, जिसका/जिनका IFPRI द्वारा वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) रिपोर्ट बनाने में उपयोग किया गया है? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न 2. जलवायु-अनुकूल कृषि (क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर) के लिये भारत की तैयारी के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) प्रश्न 3. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के अधीन बनाए गए उपबंधों के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युत्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न 1. खाद्य सुरक्षा बिल से भारत में भूख व कुपोषण के विलोपन की आशा है। उसके प्रभावी कार्यान्वयन में विभिन्न आशंकाओं की समालोचनात्मक विवेचना कीजिये। साथ ही यह भी बताएँ कि विश्व व्यापार संगठन (WTO) में इससे कौन-सी चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं? (2013) |