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जैव विविधता और पर्यावरण

सतत् विकास हेतु भूमि प्रबंधन की पुनर्कल्पना

  • 28 Feb 2024
  • 26 min read

यह एडिटोरियल 27/02/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “An expansive land management policy is overdue” लेख पर आधारित है। इसमें भूमि, मृदा एवं जल संसाधनों की दीर्घकालिक संवहनीयता की चिंता करते हुए सार्वजनिक नीति और मानव कल्याण के पूर्व में उपेक्षित रहे क्षेत्रों में तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD), भूमि क्षरण, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (GHG), भूमि क्षरण तटस्थता, पार्टियों का सम्मेलन (COP-14)

मेन्स के लिये:

मरुस्थलीकरण और उसका प्रभाव, भूमि क्षरण एवं संबंधित चुनौतियाँ।

भूमि सभी मानवीय गतिविधियों के मूल में है। यह पारिस्थितिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सेवाएँ प्रदान करती है। लेकिन भूमि प्रबंधन अभ्यासों में भूमि के इस बहुआयामी चरित्र की प्रायः अनदेखी की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक तनाव, भूमि क्षरण या निम्नीकरण एवं पर्यावरण की क्षति की स्थिति बनती है।

वैश्विक स्तर पर, भूमि क्षरण के कारण पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की वार्षिक क्षति 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान लगाया गया है। वर्ष 2019 में नई दिल्ली में आयोजित संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय (United Nations Convention to Combat Desertification- UNCCD) के 14वें पक्षकार सम्मेलन (COP 14) में विभिन्न देशों द्वारा अनुभव की जा रही भूमि क्षरण की समस्या और भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality- LDN) की प्राप्ति के उपाय खोजने की आवश्यकता पर विशेष रूप से चर्चा की गई।

भूमि क्षरण की वर्तमान स्थिति:

  • वैश्विक परिदृश्य:
    • प्रति क्षेत्र निम्नीकृत भूमि के अनुपात (proportion of degraded land per region) की बात करें तो इसमें विश्व के अलग-अलग हिस्सों में व्यापक असमानताएँ नज़र आती हैं। उप-सहारा अफ्रीका, पश्चिमी एवं दक्षिणी एशिया, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में वर्ष 2015-2019 के दौरान वैश्विक औसत की तुलना में अधिक द्रुत गति से भूमि क्षरण का अनुभव हुआ।
    • पूर्वी एवं मध्य एशिया, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्रों में सबसे गंभीर क्षरण का अनुभव हुआ, जहाँ वर्ष 2019 तक उनके कुल भूमि क्षेत्र का कम से कम 20% प्रभावित हुआ था।
      • हालाँकि, वर्ष 2015 के बाद से उप-सहारा अफ्रीका में भूमि क्षरण का अनुपात 6.7% से बढ़कर 14.63% हो गया है और पश्चिमी एशिया एवं उत्तरी अफ्रीकी क्षेत्र में यह 3.78% से बढ़कर 7.18% हो गया है।

  • भारत के संबंध में UNCCD आँकड़ा:
    • UNCCD के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2015-2019 से भारत की कुल रिपोर्ट की गई भूमि में से 30.51 मिलियन हेक्टेयर भूमि का क्षरण हुआ है। इसका अर्थ है कि वर्ष 2019 तक देश का 9.45% भूभाग क्षरण का शिकार हो गया था जबकि वर्ष 2015 में यह 4.42% के स्तर पर रहा था।
    • UNCCD आँकड़े ने यह भी दर्शाया कि 251.71 मिलियन भारतीय, जो देश की आबादी का 18.39% हैं, इसी अवधि के दौरान भूमि क्षरण के जोखिम में थे।
      • इसके अलावा, वर्ष 2015-2018 तक देश के 854.4 मिलियन लोग सूखे की चपेट में थे।
  • भारत के मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस के अनुसार:
    • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC) द्वारा प्रकाशित ‘भारत का मरुस्थलीकरण एवं भूमि क्षरण एटलस’—जो भारत में भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण की स्थिति प्रदान करता है, ने वर्ष 2018-19 में देश में 97.84 मिलियन हेक्टेयर भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण का अनुमान लगाया। 
    • यह क्षरित या निम्नीकृत भूमि का राज्य-वार क्षेत्र प्रदान करता है जो महत्त्वपूर्ण डेटा एवं तकनीकी इनपुट प्रदान कर भूमि की पुनर्बहाली पर लक्षित योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन में सहायक है।

भूमि क्षरण के विभिन्न कारण:

मानव-प्रेरित मृदा क्षरण की स्थिति के पहले व्यवस्थित मूल्यांकन के रूप में विश्व मानचित्र तैयार करने में मृदा क्षरण के वैश्विक आकलन (Global Assessment of Soil Degradation- GLASOD) ने मानवीय हस्तक्षेपों के सात अलग-अलग कारणों की पहचान की है, जिसके परिणामस्वरूप विश्व भर में मृदा क्षरण हुआ है:

  • मृदा अपरदन और पोषक तत्वों की कमी:
    • मृदा अपरदन (Soil Erosion) फसल भूमि में भूमि क्षरण का एक गंभीर रूप है जो जलवायु मापदंडों के साथ संयोजन में असंवहनीय भूमि प्रबंधन से निकटता से संबद्ध है, जिनमें से कुछ जलवायु परिवर्तन के अधीन हैं।
    • तेज़ पवनें (High winds) समतल, पहाड़ी इलाकों से ढीली मिट्टी को उड़ा सकती हैं। जल अपरदन आम तौर पर ढलानों पर होता है और इसकी गंभीरता ढलान की गंभीरता के साथ बढ़ती जाती है।
    • मृदा अपरदन मुख्य रूप से फसल भूमि विस्तार के क्षेत्रों में होता है, विशेष रूप से उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया में। मृदा का कटाव पवन और जल से भी हो सकता है।

  • वनों की कटाई/निर्वनीकरण (Deforestation):
    • ईंधन की लकड़ी, कृषि एवं उद्योग के लिये वनों और प्राकृतिक वनस्पति की कटाई चिंताजनक दर से बढ़ रही है। इससे 579 मिलियन हेक्टेयर में गंभीर भूमि क्षरण हो रहा है, जिसमें से 50% एशिया में स्थित है, जबकि 17% के साथ दक्षिण अमेरिका दूसरे स्थान पर है।
    • विश्व बैंक का अनुमान है कि 20वीं सदी की शुरुआत से लगभग 10 मिलियन वर्ग किलोमीटर वन नष्ट हो चुके हैं। पिछले 25 वर्षों में वन क्षेत्र में 1.3 मिलियन वर्ग किमी की कमी आई है जो आकार में दक्षिण अफ्रीका से बड़ा क्षेत्र है।
  • पशुधन द्वारा अत्यधिक चराई:
    • मवेशियों द्वारा अत्यधिक चराई से पौध आवरण कम हो जाता है, जिससे सबसे पहले वांछनीय चारा प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं। इससे फिर भूमि अवांछित खर-पतवारों, झाड़ियों एवं पेड़ों के लिये खुल जाती है, जिससे मृदा का कटाव बढ़ जाता है और मृदा की उर्वरता कम हो जाती है। भूमि की उत्पादकता लगातार घटती जाती है।
    • दक्षिण अमेरिका में घरेलू उपयोग के लिये वनस्पति का अत्यधिक दोहन मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिम अर्जेंटीना और दक्षिणी बोलीविया के शुष्क भूमि क्षेत्रों तक ही सीमित है जहाँ जलावन लकड़ी के लिये झाड़ियाँ एकत्र की जाती हैं।
  • पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ:
    • यह एक प्रकार की कृषि पद्धति को संदर्भित करता है जिसका अभ्यास किसान फसल एवं मृदा आवश्यकता के बीच संबंध की उचित पहचान किए बिना और विभिन्न मृदा एवं जल संरक्षण उपायों का पालन किए बिना कर रहे हैं—जबकि भूमि संसाधनों के संरक्षण के लिये ये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं, और इससे भविष्य की पीढ़ी के लाभों से समझौता हो रहा है।
    • इस पिछड़ी कृषि प्रणाली के कारण ऊपरी मृदा (topsoil) नामक सुरक्षात्मक परत नष्ट हो जाती है, जिससे भूमि अनुत्पादक हो जाती है।
  • वनस्पति आवरण की हानि:
    • कुछ स्थानों पर स्थायी वनस्पति आवरण की कमी के परिणामस्वरूप व्यापक वायु अपरदन होता है। ढीली, सूखी, वनस्पति-विहीन मृदा सबसे अधिक संवेदनशील होती है; जबकि जो फसलें निम्न स्तर के अवशेष पैदा करती हैं (उदाहरण के लिये सोयाबीन और विभिन्न सब्जियों की फसलें), वे पर्याप्त प्रतिरोध नहीं प्रदान कर पाती हैं।
  • जनसंख्या वृद्धि:
    • भारत कृषि भूमि पर गंभीर दबाव का सामना कर रहा है। पिछले पचास वर्षों में, जबकि भारत की कुल जनसंख्या लगभग 3 गुना बढ़ गई है, खेती के तहत भूमि का कुल क्षेत्रफल 118.75 मिलियन हेक्टेयर से मात्र 15.92% बढ़कर 141.23 मिलियन हेक्टेयर ही हुआ है।
    • खेती के तहत भूमि क्षेत्र के पिछले विस्तार के बावजूद भारत में प्रत्येक व्यक्ति का पेट भर सकने के लिये कम कृषि भूमि उपलब्ध है। कृषि गहनीकरण और विस्तारीकरण (intensification and extensification) की हद फसल एवं सिंचाई की तीव्रता में वृद्धि और रासायनिक उर्वरकों , खर-पतवारनाशकों एवं कीटनाशकों के उच्च उपयोग से चिह्नित होती है।
    • कृषि विस्तारीकरण एवं गहनीकरण की प्रक्रिया से भूमि क्षरण, भूमिगत जल संसाधनों के अत्यधिक दोहन और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में वृद्धि हो रही है।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
    • वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन (जैसे समय एवं स्थान में वितरण) और वर्षण तीव्रता से भूमि क्षरण का खतरा बढ़ जाता है।
      • भूस्खलन (Landslides) अत्यधिक वर्षा की घटनाओं से प्रेरित भूमि क्षरण का एक रूप है। वर्षा की तीव्रता के कारण भूस्खलन गतिविधि में वृद्धि का एक प्रबल सैद्धांतिक कारण पाया जाता है।
    • समुद्र के स्तर में वृद्धि के परिणामस्वरूप विश्व भर में तटीय क्षेत्रों का क्षरण बढ़ेगा। चक्रवात प्रवण क्षेत्रों (जैसे कि कैरेबियाई क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया और बंगाल की खाड़ी) में समुद्र के स्तर में वृद्धि और अधिक तीव्र चक्रवातों के संयोजन से क्षेत्रों में भू-धंसाव (land subsidence) की स्थिति बनेगी।

भारत में भूमि क्षरण के प्रबंधन में मौजूद विभिन्न चुनौतियाँ:

  • भूमि क्षेत्र और जनसंख्या के बीच तीव्र विषमता:
    • विश्व के भौगोलिक क्षेत्रफल के मात्र 2.4% और विश्व की आबादी के 17% के साथ भारत विभिन्न भूमि प्रबंधन चुनौतियों का सामना कर रहा है। भारत में कृषि योग्य भूमि कुल भौगोलिक क्षेत्र की लगभग 55% है, जबकि 22% क्षेत्र वन क्षेत्र के अंतर्गत है। शेष भूमि क्षेत्र में मरुस्थल, पहाड़ आदि हैं।
      • कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 30% निम्नीकृत भूमि है। कृषि भूमि तक पहुँच एक महत्त्वपूर्ण आजीविका का मुद्दा बनी हुई है क्योंकि आबादी का एक बड़ा भाग अपनी जीविका के लिये कृषि पर निर्भर करता है।
    • विकास लक्ष्य और बढ़ती आबादी, अवसंरचना, तीव्र शहरीकरण को समायोजित करने के लिये भूमि की मांग तथा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय पहलू भूमि पर अभूतपूर्व दबाव डाल रहे हैं।
  • कृषि और अन्य भूमि-संसाधन आधारित क्षेत्रों के बीच प्रतिस्पर्द्धा:
    • भूमि पर लगातार बढ़ते तनाव के परिणामस्वरूप किसानों और कृषि एवं अन्य भूमि संसाधन-आधारित क्षेत्रों के बीच प्रतिस्पर्द्धा बढ़ रही है। इसके साथ ही भूमि उपयोग संघर्ष, भूमि की कीमतों में वृद्धि और भूमि अधिकारों में बदलाव भी हो रहा है। देश भर में प्राकृतिक क्षेत्रों को निचोड़ा जा रहा है और पारिस्थितिक क्रियाएँ नष्ट हो रही हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव:
    • भूमि क्षरण न केवल उन लोगों की आजीविका के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जो प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरणीय संसाधनों पर निर्भर हैं, बल्कि बाढ़ एवं सूखे, तापमान वृद्धि और पर्यावरण प्रदूषण जैसी आपदाओं की स्थिति में प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के ‘बफरिंग’ प्रभावों को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। 
  • भूमि प्रबंधन के लिये क्षेत्रीय दृष्टिकोण (Sectoral Approach to Land Management): 
    • भारत में वर्तमान भूमि प्रबंधन अभ्यास क्षेत्रीय प्रकृति के हैं जहाँ प्रत्येक विभाग अपने स्वयं के दृष्टिकोण का पालन करता है। भूमि प्रबंधन राज्य सरकारों के दायरे में आता है। इसके अलावा, सांस्कृतिक भूमि निजी स्वामित्व में है और भूमि-उपयोग निर्णय संवैधानिक रूप से स्वामी के पास निहित हैं जो फिर समकालिक दृष्टिकोण अपनाने में बाधाकारी है।
  • अनुपयुक्त भूमि प्रबंधन:
    • प्रशासनिक जटिलता के अलावा, देश में उचित भूमि प्रबंधन अभ्यासों को अपनाने और लागू करने से संबद्ध चुनौतियों में ज्ञान की कमी, लघु-आवधिक योजना निर्माण संबंधी पूर्वाग्रह, खंडित दृष्टिकोण, अप्रत्याशित घटनाओं के लिये कार्रवाई की कमी, नियामक बाधाएँ आदि शामिल हैं।

भूमि क्षरण को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिये सुझाव:

  • बहु-हितधारक मंच की स्थापना करना:
    • क्षेत्रीय एकीकरण (sectoral integration) प्राप्त करने और चुनौतियों का समाधान करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण तंत्र के रूप में ज़िला एवं उप-ज़िला स्तर पर एक बहु-हितधारक मंच की स्थापना करना आवश्यक है, ताकि किसानों, अन्य भूमि प्रबंधकों, नीति निर्माताओं, नागरिक समाज संगठनों, कारोबारी नेताओं और निवेशकों को एक साझा मंच के अंतर्गत लाया जा सके।
    • संविधान का अनुच्छेद 243ZD (1) ज़िला योजना समितियों द्वारा पंचायतों एवं नगरपालिकाओं की योजनाओं के समेकन का प्रावधान करता है। इस समिति को कृषि और ग़ैर-कृषि दोनों क्षेत्रों को दायरे में लेते हुए भूमि प्रबंधन योजना तैयार करने की दिशा में सक्रिय किया जा सकता है।
  • जलवायु-कुशल भूदृश्य दृष्टिकोण (Climate-Smart Landscape Approach) का पालन:
    • इस संदर्भ में एक भूदृश्य दृष्टिकोण उपयोगी होगा क्योंकि यह भूमि की क्षमता और उचित उपयोग के लिये भूमि के आवंटन एवं पुनः आवंटन के दायरे का आकलन करने के लिये गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करेगा। इससे मूल्यांकन, वार्ता, समझौताकारी तालमेल (ट्रेड ऑफ) और निर्णय निर्माण में मदद मिलेगी।
    • जलवायु-कुशल भूदृश्य दृष्टिकोण जलवायु लक्ष्यों, कृषि उत्पादन में वृद्धि, स्थानीय आजीविका में सुधार और जैव विविधता के संरक्षण में योगदान देगा।
  • एकीकृत भूदृश्य प्रबंधन को बढ़ावा देना:
    • विज्ञान ने भूमि को एक प्रणाली के रूप में देखने और एकीकृत भूदृश्य प्रबंधन (integrated landscape management) को बढ़ावा देने के महत्त्व को दर्शाया है। इस दृष्टिकोण का पालन करने के लिये ज़मीनी स्तर पर व्यापक अनुभव मौजूद है, लेकिन व्यवस्थित संस्थागत समर्थन का लगभग संपूर्ण अभाव है।
      • ‘यूरोपीयन लैंडस्केप कन्वेंशन’ ने घोषणा की है कि भूदृश्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक कल्याण का एक प्रमुख तत्व है।
      • यूके संसदीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी कार्यालय (UK Parliamentary Office of Science and Technology) ने अपने ‘सतत भूमि प्रबंधन: पर्यावरणीय लाभों के लिये भूमि का बेहतर प्रबंधन’ शीर्षक ब्रीफ-42 (वर्ष 2021) में यह राय प्रकट की कि जैव विविधता संकट से निपटना इस बात में अंतर्निहित है और इस पर निर्भर करता है कि भूमि का प्रबंधन किस प्रकार किया जाता है।
  • विभिन्न अभिकर्ताओं की भागीदारी सुनिश्चित करना:
    • भारत के संसद सदस्य एकीकृत भूमि प्रबंधन अभ्यासों की उभरती चुनौतियों पर विचार-विमर्श शुरू कर सकते हैं और क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर दोनों स्तरों पर सभी अभिकर्ताओं को शामिल करते हुए दीर्घकालिक संवहनीयता के लिये उचित नीतियाँ तैयार करने में मदद कर सकते हैं।
  • भूमि प्रबंधन का देश-स्तरीय स्टॉक-टेकिंग:
    • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की ‘जलवायु परिवर्तन और भूमि’ (2019) शीर्षक विशेष रिपोर्ट में भूमि प्रबंधन अभ्यासों के देश-स्तरीय स्टॉक-टेकिंग (Stock-Taking) का सुझाव दिया गया है।
    • इसने भूमि प्रबंधन विकल्पों पर बल देने के साथ ऐसी कई अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक कार्रवाइयों का भी प्रस्ताव रखा है जो सह-लाभ के साथ भूमि के लिये प्रतिस्पर्द्धा को कम करती हैं और प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर न्यूनतम नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।
  • खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) का रुख:
    • FAO की ‘खाद्य और कृषि के लिये विश्व की भूमि एवं जल संसाधनों की स्थिति: अत्यंत तनावग्रस्त प्रणाली’ (State of the World’s Land and Water Resources for Food and Agriculture: The System at Breaking Point) शीर्षक रिपोर्ट (वर्ष 2021) में तर्क दिया गया है कि सार्वजनिक नीति और मानव कल्याण के अब तक उपेक्षित रहे क्षेत्र पर तात्कालिकता की भावना को हावी करने की ज़रूरत है, यानी भूमि, मृदा एवं जल के दीर्घकालिक भविष्य पर विचार करने की त्वरित आवश्यकता है।

भूमि क्षरण को नियंत्रित करने के लिये कौन-सी पहलें की गई हैं?

निष्कर्ष:

भूमि पारिस्थितिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सेवाएँ प्रदान करने के रूप में विभिन्न मानवीय गतिविधियों का समर्थन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि, भूमि की बहुआयामी प्रकृति की प्रायः अनदेखी की जाती है, जिससे अत्यधिक तनाव, क्षरण एवं पर्यावरणीय क्षति की स्थिति बनती है।

भारत में, इसके सीमित भौगोलिक क्षेत्र और कृषि पर निर्भर एक बड़ी आबादी के साथ, भूमि के स्थायी प्रबंधन की राह में उल्लेखनीय चुनौतियाँ मौजूद हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये, एक भूदृश्य दृष्टिकोण को अपनाने के साथ ही ज़िला एवं उप-ज़िला स्तर पर एक बहु-हितधारक मंच की स्थापना करना क्षेत्रीय हितों को एकीकृत करने तथा भूमि संसाधनों की दीर्घकालिक संवहनीयता सुनिश्चित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में भूमि क्षरण की चुनौतियों और कृषि, पर्यावरण एवं आजीविका पर इसके प्रभाव की चर्चा कीजिये, साथ ही संवहनीय भूमि प्रबंधन के लिये उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. 'मरुस्थलीकरण को रोकने के लिये संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (United Nations Convention to Combat Desertification)’ का/के क्या महत्त्व है/हैं? (2016)

  1. इसका उद्देश्य नवप्रवर्तनकारी राष्ट्रीय कार्यक्रमों एवं समर्थक अंतर्राष्ट्रीय भागीदारियों के माध्यम से प्रभावकारी कार्रवाई को प्रोत्साहित करना है।
  2.  यह विशेष/विशिष्ट रूप से दक्षिण एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों पर केंद्रित होता है तथा इसका सचिवालय इन क्षेत्रों को वित्तीय संसाधनों के बड़े हिस्से का नियतन सुलभ कराता है।
  3.  यह मरुस्थलीकरण को रोकने में स्थानीय लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित करते हेतु ऊर्ध्वगामी उपागम (बॉटम-अप अप्रोच) के लिये प्रतिबद्ध है।

नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. मरुस्थलीकरण के प्रक्रम की जलवायविक सीमाएँ नहीं होती हैं। उदाहरणों सहित औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020)

प्रश्न. भारत के सूखा-प्रवण एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में लघु जलसंभर विकास परियोजनाएँ किस प्रकार जल संरक्षण में सहायक हैं? (2016)

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