भारत का मृदा स्वास्थ्य संकट | 24 Feb 2025
यह एडिटोरियल 23/02/2025 को बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित “Fixing India's soil crisis: Farmer awareness, tech can arrest degradation” पर आधारित है। इस लेख में भारत की विषम उर्वरक नीति के प्रतिकूल प्रभावों, जिसमें अत्यधिक यूरिया सब्सिडी के कारण गंभीर पोषक तत्त्व असंतुलन उत्पन्न हो गया है, का उल्लेख किया गया है।
प्रिलिम्स के लिये:भारत में उर्वरक की खपत, कृषि वानिकी, मृदा ऑर्गैनिक कार्बन (SOC), भारत का मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन एटलस (SAC), लवणीकरण, हिमाचल प्रदेश फ्लैश फ्लड- 2023, मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) योजना, GM फसलें, उच्च उपज वाली किस्में (HYV), नैनो यूरिया, डायरेक्ट सीडेड राइस (DSR) विधि, हैप्पी सीडर तकनीक मेन्स के लिये:भारत की कृषि समृद्धि को बनाए रखने में मृदा की भूमिका, भारत के मृदा स्वास्थ्य संकट में योगदान देने वाले प्रमुख कारक। |
भारत का मृदा स्वास्थ्य संकट एक विषम उर्वरक नीति का परिणाम है जो यूरिया पर भारी सब्सिडी देती है, जिससे अत्यधिक नाइट्रोजन का उपयोग होता है। वर्तमान NPK अनुपात 7.7:3.1:1 आदर्श 4:2:1 अनुपात के बिल्कुल विपरीत है, जो कृषि मृदा में गंभीर पोषक असंतुलन को दर्शाता है। नाइट्रोजन आधारित उर्वरकों पर इस अत्यधिक निर्भरता के साथ-साथ फॉस्फोरस, पोटेशियम, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों और जैविक खाद के अपर्याप्त उपयोग ने मृदा की उत्पादकता में गिरावट के दुष्चक्र को जन्म दिया है।
चूँकि भारत अपनी बढ़ती आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है, इसलिये संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन और नीति सुधारों के माध्यम से मृदा स्वास्थ्य संकट पर तत्काल ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है।
भारत की कृषि समृद्धि को बनाए रखने में मृदा की क्या भूमिका है?
- खाद्य सुरक्षा और फसल उत्पादकता की नींव: मृदा पौधों की वृद्धि के लिये प्राथमिक माध्यम है, जो सीधे फसल की उपज, पोषक तत्त्व अवशोषण और समग्र कृषि उत्पादन को प्रभावित करती है।
- भारतीय मृदा की उर्वरता चावल, गेहूँ और दलहन जैसी प्रमुख फसलों की उच्च उत्पादकता को बनाए रखती है, जिससे 1.4 अरब लोगों के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
- विभिन्न प्रकार की मृदा, जैसे सिंधु-गंगा के मैदानों में जलोढ़ मिट्टी और महाराष्ट्र में काली मिट्टी, विविध फसल पैटर्न को बढ़ावा देती हैं।
- FAO रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वैश्विक खाद्य उत्पादन का 95% हिस्सा मृदा पर निर्भर करता है, जिससे भारत की कृषि संधारणीयता के लिये इसका संरक्षण आवश्यक हो जाता है।
- सत्र 2022-23 में खाद्यान्न उत्पादन 329.7 मिलियन टन के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुँच गया तथा तिलहन उत्पादन 41.4 मिलियन टन तक पहुँच गया।
- पोषक चक्र और मृदा सूक्ष्मजीव स्वास्थ्य सुनिश्चित करना: स्वस्थ मृदा एक प्राकृतिक पोषक भंडार के रूप में कार्य करती है, जो पौधों की वृद्धि के लिये नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम जैसे आवश्यक तत्त्व प्रदान करती है।
- मृदा में सूक्ष्मजैविक गतिविधि कार्बनिक पदार्थों को विघटित करने, वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण और मृदा की उर्वरता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत का जैविक कृषि गतिविधि, जिसमें वर्मीकल्चर और जैव उर्वरक जैसी पारंपरिक तकनीकें शामिल हैं, पोषक तत्त्वों से भरपूर मृदा पर निर्भर करता है।
- कुशल पोषक चक्रण के बिना कृषि उत्पादकता में गिरावट आती है तथा रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता बढ़ती है।
- जल प्रतिधारण और सूखे-सहिष्णुता: मृदा एक प्राकृतिक स्पंज के रूप में कार्य करती है, जो जल के निवेश, प्रतिधारण और जल निकासी को नियंत्रित करती है, जिससे फसल की स्थिर वृद्धि सुनिश्चित होती है।
- मृदा में उच्च कार्बनिक पदार्थ की मात्रा जल धारण क्षमता को बढ़ाती है, सिंचाई की मांग को कम करती है और फसलों को अनियमित मानसून के प्रति अधिक समुत्थाशील बनाती है।
- राजस्थान और बुंदेलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में, मल्चिंग और कवर क्रॉपिंग जैसी मृदा नमी संरक्षण पद्धतियाँ कृषि उत्पादकता को बनाए रखने में मदद करती हैं।
- उचित मृदा संरचना उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में जलभराव और जड़ रोगों को भी रोकती है।
- जलवायु परिवर्तन शमन और कार्बन पृथक्करण: मृदा कार्बन को अवशोषित करने और संग्रहीत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में मदद मिलती है।
- कार्बन-समृद्ध मृदा तापमान को स्थिर रखकर और मरुस्थलीकरण को रोककर चरम मौसम के प्रति बफर के रूप में कार्य करती है।
- कृषि वानिकी और संरक्षण कृषि जैसी पद्धतियाँ मृदा कार्बन अवशोषण को बढ़ाती हैं, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है।
- भारत की कृषि मृदा का स्वास्थ्य जलवायु परिवर्तन से निपटने और दीर्घकालिक उत्पादकता बनाए रखने की देश की क्षमता को सीधे प्रभावित करता है।
- कृषि मृदा में 20-30 वर्षों तक प्रतिवर्ष 3-8 गीगाटन CO₂ अवशोषित करने की तकनीकी क्षमता है, जो उत्सर्जन में कमी और जलवायु स्थिरीकरण के बीच के अंतर की प्रतिपूर्ति करने में मदद करती है।
- जैव-विविधता संरक्षण और कीट नियंत्रण: स्वस्थ मृदा लाभकारी सूक्ष्मजीवों, कवकों और कीटों, जो प्राकृतिक कीट नियंत्रण में योगदान करते हैं, के विविध पारिस्थितिकी तंत्र को सहारा देती है।
- मृदा में पाए जाने वाले जीव, जैसे केंचुए और माइकोराइज़ल कवक, मृदा में वायु संचार को बेहतर बनाते हैं तथा फसलों के लिये पोषक तत्त्वों के अवशोषण में सुधार करते हैं।
- संतुलित मृदा पारिस्थितिकी तंत्र रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता को कम करता है, जिससे कृषि अधिक संधारणीय और लागत प्रभावी बनती है।
- इसके अलावा, एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि उच्च मृदा जैव-विविधता वाले खेतों में निम्नस्तरीय मृदा की तुलना में कीटों का प्रकोप कम होता है।
- आर्थिक स्थिरता और ग्रामीण आजीविका: मृदा की उर्वरता सीधे कृषि आय को प्रभावित करती है, क्योंकि स्वस्थ मृदा से फसल की उपज अधिक होती है और बाज़ार में कीमतें भी बेहतर होती हैं।
- भारतीय जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा कृषि पर निर्भर है और मृदा स्वास्थ्य उनकी आर्थिक स्थिरता और रोज़गार संभावनाओं को निर्धारित करता है।
- उपजाऊ मृदा उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम करके इनपुट लागत को कम करती है, जिससे किसानों का लाभ मार्जिन बढ़ता है।
- मृदा-आधारित कृषि-उद्योग, जैसे जैविक कृषि और खाद उत्पादन, भी ग्रामीण भारत में आजीविका के अवसर प्रदान करते हैं।
भारत के मृदा स्वास्थ्य संकट में योगदान देने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?
- असंधारणीय कृषि पद्धतियाँ: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और मोनोक्रॉपिंग/एकल फसल के अत्यधिक प्रयोग से मृदा की उर्वरता कम हो गई है तथा पोषक तत्त्वों में असंतुलन उत्पन्न हो गया है।
- पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में MSP समर्थित गेहूँ-चावल चक्र द्वारा संचालित गहन कृषि के कारण मृदा का गंभीर क्षरण हुआ है।
- इसके अतिरिक्त, अत्यधिक एवं गहन जुताई से मृदा की संरचना नष्ट हो जाती है, जिससे जल और पोषक तत्त्वों को बनाए रखने की इसकी क्षमता कम हो जाती है।
- वर्ष 2022 की भारत की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट में पाया गया कि भारत की 30% भूमि अवनयन के खतरे में है।
- पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में MSP समर्थित गेहूँ-चावल चक्र द्वारा संचालित गहन कृषि के कारण मृदा का गंभीर क्षरण हुआ है।
- घटता हुआ जैविक कार्बन और मृदा सूक्ष्मजीवी जीवन: मृदा ऑर्गैनिक कार्बन (SOC) उर्वरता के लिये महत्त्वपूर्ण है, लेकिन कम जैविक पदार्थ समावेशन के कारण तेज़ी से हो रही कमी ने मृदा स्वास्थ्य का ह्रास कर दिया है।
- फसल अवशेषों के दहन (पराली दहन) से, विशेष रूप से सिंधु-गंगा क्षेत्र में, मृदा में पोषक तत्त्वों के पुनर्भरण के बजाय कार्बनिक पदार्थ नष्ट हो जाते हैं।
- सिंथेटिक उर्वरकों पर अत्यधिक निर्भरता सूक्ष्मजीवी पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करती है, जिससे पोषक चक्रण कम हो जाता है।
- शहरीकरण के लिये निर्वनीकरण और अतिक्रमण से मृदा की प्राकृतिक जैविक मात्रा नष्ट हो रही है।
- भारत में मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) की मात्रा पिछले 70 वर्षों में 1% से घटकर 0.3% रह गई है।
- पंजाब जैसे राज्यों में केवल 6.9% मृदा में उच्च कार्बनिक कार्बन था तथा सत्र 2024-25 में यह प्रतिशत और कम हो गया।
- मृदा क्षरण और मरुस्थलीकरण: बड़े पैमाने पर निर्वनीकरण, अतिचारण और अपर्याप्त जल प्रबंधन गंभीर मृदा क्षरण एवं भूमि अवनयन में योगदान करते हैं, विशेष रूप से अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में।
- असंधारणीय खनन और औद्योगिक गतिविधियाँ भी ऊपरी मृदा को नष्ट कर देती हैं, जिससे भूमि की कृषि क्षमता कम हो जाती है।
- भारत का मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन एटलस (SAC-2021) के अनुसार, भारत में भूमि अवनयन की वर्तमान सीमा 97.85 मिलियन हेक्टेयर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 29.77% है।
- निम्नस्तरीय सिंचाई पद्धतियों के कारण अत्यधिक निष्कर्षण और लवणीकरण: अत्यधिक भूजल निष्कर्षण और जल गहन सिंचाई सहित अवैज्ञानिक-सिंचाई से मृदा में लवणता, क्षारीयता और जलभराव होता है।
- पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में उचित जल निकासी के बिना निरंतर सिंचाई के कारण द्वितीयक लवणीकरण हुआ है।
- उचित प्रबंधन के बिना नहर सिंचाई से जलभराव होता है, जिससे मृदा वातन और सूक्ष्मजीवी गतिविधि कम हो जाती है।
- वर्ष 2022 में पूरे देश के लिये कुल वार्षिक भूजल निष्कर्षण 239.16 BCM अनुमानित किया गया है, जिसमें कृषि भूजल संसाधनों का प्रमुख उपभोक्ता है, जो कुल वार्षिक भूजल निष्कर्षण का लगभग 87% है।
- भारत की 6.7 मिलियन हेक्टेयर नमक प्रभावित भूमि के कारण 11.18 मिलियन टन फसल का नुकसान हुआ है, जिसका मूल्य लगभग 150.17 बिलियन रुपए है।
- पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में उचित जल निकासी के बिना निरंतर सिंचाई के कारण द्वितीयक लवणीकरण हुआ है।
- जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाएँ: अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान सहित अप्रत्याशित मौसम पैटर्न ने सूखे, बाढ़ एवं गर्मी के तनाव के माध्यम से मृदा क्षरण की स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है।
- तीव्र वर्षा के कारण जलभराव होता है, जिससे ऊपरी मृदा बह जाती है और पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
- बढ़ते तापमान से मृदा कार्बन की हानि बढ़ जाती है, जिससे कृषि की दीर्घकालिक संधारणीयता कम हो जाती है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण, सदी के अंत तक उच्च से अति उच्च मृदा क्षरण क्षेत्र 35.3% से बढ़कर 40.3% हो जाने का अनुमान है।
- उदाहरण के लिये, हिमाचल प्रदेश फ्लैश फ्लड- 2023 के कारण कृषि क्षेत्रों में मृदा की ऊपरी सतह को भारी नुकसान हुआ।
- तीव्र वर्षा के कारण जलभराव होता है, जिससे ऊपरी मृदा बह जाती है और पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
- औद्योगिक एवं शहरी अपशिष्ट से प्रदूषण: भारी धातुओं, औद्योगिक अपशिष्टों और प्लास्टिक अपशिष्टों के अनियंत्रित डंपिंग के कारण कृषि मृदा में विषाक्त प्रदूषण हो रहा है।
- शहरी क्षेत्रों में अनुपचारित मल-मूत्र और लैंडफिल से मुक्त होने वाले तरल पदार्थ मृदा की संरचना को नष्ट कर देते हैं तथा खतरनाक रसायन का समावेश करते हैं।
- लैंडफिल एवं रासायनिक अपशिष्ट से होने वाला भूजल संदूषण मृदा रसायन को और अधिक प्रभावित करता है।
- भारत की कृष्ट भूमि सीसा, कैडमियम और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं से अत्यधिक प्रदूषित है।
- शहरी क्षेत्रों में अनुपचारित मल-मूत्र और लैंडफिल से मुक्त होने वाले तरल पदार्थ मृदा की संरचना को नष्ट कर देते हैं तथा खतरनाक रसायन का समावेश करते हैं।
- प्रभावी नीति कार्यान्वयन और जागरूकता का अभाव: मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) योजना जैसी योजनाओं के बावजूद, किसानों में अपर्याप्त जागरूकता और अनुवर्ती कार्रवाई के कारण संधारणीय प्रथाओं के अंगीकरण की दर कम बनी हुई है।
- वित्तीय वर्ष 2024 के लिये, भारत ने अपने कुल कृषि बजट का नौवां हिस्सा उर्वरक सब्सिडी के लिये आवंटित किया है।
- लेकिन कई किसानों के पास अभी भी मृदा की गुणवत्ता आँकड़ों तक वास्तविक काल अभिगम नहीं है, जिससे उर्वरक उपयोग को अनुकूलित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
- संतुलित उर्वरक प्रयोग की सिफारिशों के बावजूद, यूरिया पर सरकारी सब्सिडी इसके अति प्रयोग को बढ़ावा देती है।
- मौजूदा NPK अनुपात 7.7:3.1:1 आदर्श 4:2:1 से काफी अधिक है, जो मृदा में गंभीर पोषक असंतुलन को दर्शाता है।
- वित्तीय वर्ष 2024 के लिये, भारत ने अपने कुल कृषि बजट का नौवां हिस्सा उर्वरक सब्सिडी के लिये आवंटित किया है।
- पारंपरिक कृषि-पारिस्थितिकी पद्धतियों का ह्रास: उच्च उपज वाली, रसायन-निर्भर फसलों के बढ़ते चलन के कारण जैविक खाद, फसल चक्र और कृषि वानिकी सहित पारंपरिक जैविक कृषि के तरीकों में गिरावट आई है।
- देशी मृदा प्रबंधन तकनीकें, जैसे राजस्थान में ‘ज़ई पिट्स’ और पूर्वोत्तर में ‘वर्मीकल्चर’ का स्थान गहन, मशीनीकृत कृषि द्वारा लिया जा रहा है।
- स्वदेशी ज्ञान का हाशिये पर जाना, विशेष रूप से लघु एवं आदिवासी किसानों के बीच, मृदा क्षरण के प्रति समुत्थानशक्ति कम कर देता है।
- देशी मृदा प्रबंधन तकनीकें, जैसे राजस्थान में ‘ज़ई पिट्स’ और पूर्वोत्तर में ‘वर्मीकल्चर’ का स्थान गहन, मशीनीकृत कृषि द्वारा लिया जा रहा है।
- आनुवंशिकतः रूपांतरित (GM) फसलों और उच्च उपज वाली किस्मों का प्रभाव: GM फसलों और उच्च उपज वाली किस्मों (HYV) के समावेशन से पोषक तत्त्वों की कमी बढ़ गई है, क्योंकि इन फसलों के लिये अधिक उर्वरक की आवश्यकता होती है।
- उदाहरण के लिये, Bt कपास को महाराष्ट्र और तेलंगाना में मृदा जैव-विविधता में गिरावट से जोड़ा गया है।
- उच्च उपज वाली फसलों के तेज़ी से विस्तार के कारण पारंपरिक, सहिष्णु फसल किस्मों का भी नुकसान हुआ है, जो बेहतर मृदा संरचना बनाए रखती हैं।
- उदाहरण के लिये, Bt कपास को महाराष्ट्र और तेलंगाना में मृदा जैव-विविधता में गिरावट से जोड़ा गया है।
मृदा स्वास्थ्य पुनर्स्थापन और संरक्षण के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- संतुलित उर्वरक के लिये एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन (INM) को बढ़ावा देना: भारत को अत्यधिक रासायनिक उर्वरक के उपयोग से हटकर एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन को अपनाना होगा, जिसमें जैविक खाद, जैवउर्वरक एवं सिंथेटिक इनपुट का विवेकपूर्ण संयोजन किया जाना चाहिये।
- नैनो यूरिया और जैविक विकल्पों को बढ़ावा देने से उर्वरक के अति प्रयोग को कम करने में मदद मिल सकती है।
- जैव-उर्वरक के अंगीकरण को प्रोत्साहित करने के लिये मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) और परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) को जोड़ा जाना चाहिये।
- ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर कम्पोस्ट बनाने वाली इकाइयाँ क्षरित मृदा में जैविक कार्बन के स्तर को बढ़ा सकती हैं।
- कृषि वानिकी और बारहमासी फसल प्रणालियों का विस्तार: राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (NAP) के माध्यम से वृक्षों को कृषि के साथ एकीकृत करने से मृदा कार्बनिक कार्बन में वृद्धि होती है, क्षरण को रोका जाता है तथा कृषि आय में वृद्धि होती है।
- बहुफसली कृषि पद्धति के तहत उगाए जाने वाले कदन्न और फलीदार फसलों की कृषि से उत्पादकता बनाए रखते हुए बंजर भूमि को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
- कृषि वानिकी, जो पहले से ही कर्नाटक और ओडिशा में लोकप्रिय है, को देश भर में बढ़ाया जाना चाहिये।
- मृदा संरक्षण कार्यों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) से जोड़ने से बंजर कृषि भूमि पर बड़े पैमाने पर वनरोपण को बढ़ावा मिल सकता है।
- शून्य-जुताई और संरक्षण कृषि को प्रोत्साहित करना: शून्य-जुताई कृषि के अंगीकरण से मृदा क्षरण कम होता है, सूक्ष्मजैविक गतिविधि बढ़ती है तथा मृदा-नमी का संरक्षण होता है, विशेष रूप से गेहूँ-चावल फसल प्रणालियों में।
- पंजाब और हरियाणा में हैप्पी सीडर तकनीक ने मृदा स्वास्थ्य में सुधार करते हुए पराली दहन में सफलतापूर्वक कमी लायी है।
- धान की कृषि में प्रत्यक्ष बीज विधि (DSR) विधि से भू-जल का उपयोग कम होता है और मृदा संरचना संरक्षित रहती है।
- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA) द्वारा समर्थित संरक्षण कृषि को अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों तक विस्तारित किया जाना चाहिये।
- शून्य-जुताई वाली सोयाबीन की कृषि में ब्राज़ील की सफलता को भारत की दलहन और अनाज की कृषि में अपनाया जा सकता है।
- कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण के माध्यम से क्षरित भूमि को पुनः स्थापित करना: मृदा पुनरुद्धार प्रयासों में कृषि-पारिस्थितिकी आधारित मॉडल को अपनाना चाहिये, जिसमें मृदा संरचना एवं उर्वरता में सुधार के लिये प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों को शामिल किया जा सकता है।
- दलहन और फलियों जैसे नाइट्रोजन-फिक्सिंग पौधों के साथ अंतर-फसल एवं फसल चक्र को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक रूप से पोषक तत्त्वों की पूर्ति हो सकती है।
- राजस्थान की ज़ई पिट तकनीक जैसी मृदा-पुनर्जीवन तकनीकों से मृदा क्षरण को सफलतापूर्वक रोका जा सकता है।
- इन दृष्टिकोणों को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के अंतर्गत वाटरशेड विकास घटक (WDC-PMKSY) के माध्यम से मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये।
- नियंत्रित सिंचाई को लागू करना और लवणीकरण को रोकना: अत्यधिक सिंचाई के कारण सिंधु-गंगा के मैदानों में मृदा में लवणता और जलभराव की समस्या उत्पन्न हुई है; ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई के अंगीकरण से इन प्रभावों को कम किया जा सकता है।
- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों को व्यापक स्तर पर बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे मृदा की नमी को संरक्षित किया जा सके तथा अपरदन को कम किया जा सके।
- वर्षा जल संचयन और सतही जल सिंचाई के संयुक्त उपयोग से भूजल की कमी को रोका जा सकता है।
- लवण प्रभावित क्षेत्रों में लवण-सहिष्णु फसल किस्मों का उपयोग (जैसा कि तटीय गुजरात में किया गया है) उत्पादकता को पुनर्स्थापित कर सकता है।
- मृदा जैव-विविधता और सूक्ष्मजीव कायाकल्प सुदृढ़ीकरण: बायोइनॉकुलेंट्स, वर्मीकल्चर और माइकोराइज़ल कवक के माध्यम से मृदा सूक्ष्मजैविक विविधता को बढ़ाने से मृदा की उर्वरता एवं पौधों की सहिष्णुता में सुधार हो सकता है।
- एकीकृत कृषि प्रणालियाँ (IFS) जो पशुधन, फसल और मात्स्यिकी को जोड़ती हैं, प्राकृतिक पोषक चक्रण सुनिश्चित करती हैं।
- जैविक अवशेषों के पुनर्चक्रण के लिये पूसा बायो-डीकंपोज़र (IARI नवाचार) जैसे डी-कंपोज़र को व्यापक रूप से अपनाया जाना चाहिये।
- फुकुओका की प्राकृतिक कृषि जैसी मृदा-अनुकूल तकनीकों ने आशाजनक परिणाम दिखाए हैं।
- वेदिका कृषि और चरागाह पुनर्भरण के माध्यम से मृदा क्षरण का मुकाबला करना: पहाड़ी और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में ऊपरी मृदा के नुकसान को रोकने के लिये वेदिका (सीढ़ीनुमा) कृषि, चेकडैम और वनस्पति अवरोधों की आवश्यकता होती है।
- समुदाय-नेतृत्व वाले जलग्रहण प्रबंधन को प्रोत्साहित करने से (जैसा कि महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि में किया गया) क्षरणग्रस्त भूदृश्यों का पुनः भरण किया जा सकता है।
- गुजरात के बन्नी घास-स्थलों में चरागाह पुनर्भरण के प्रयास, क्षरित हो चुकी चरागाह भूमि को पुनर्जीवित करने के लिये एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
- प्रतिपूरक वनीकरण (CAMPA फंड) को मृदा संरक्षण परियोजनाओं के साथ जोड़ने से संधारणीय भूमि उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।
- नीति कार्यान्वयन और किसान जागरूकता को दृढ़ करना: कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और FPO (किसान उत्पादक संगठनों) के माध्यम से क्षमता निर्माण पहल को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) के साथ जोड़ने से व्यक्तिगत खेतों के लिये अनुकूलित उर्वरक अनुप्रयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।
- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA) की उप-योजना, मृदा स्वास्थ्य एवं उर्वरता पर राष्ट्रीय परियोजना के अंतर्गत एक सुदृढ़ नीतिगत प्रयास, राज्य और केंद्र के प्रयासों को प्रभावी ढंग से समन्वित कर सकता है।
- औद्योगिक एवं शहरी मृदा प्रदूषण को रोकना: विशेष रूप से शहरों के निकट औद्योगिक अपशिष्टों और अनुपचारित शहरी अपशिष्टों के कारण कृषि मृदा का विषाक्त संदूषण हो गया है।
- CPCB दिशानिर्देशों के तहत मृदा गुणवत्ता निगरानी को सख्त रूप से लागू करने से भारी धातु संचयन को रोका जा सकता है।
- फाइटोरिमेडिएशन (विषाक्त पदार्थों को अवशोषित करने के लिये पौधों का उपयोग करना) को बढ़ावा देने से शहरी क्षेत्रों में दूषित मृदा का पुनर्भरण किया जा सकता है।
- तमिलनाडु की नवोन्मेषी बायोचार परियोजनाएँ और कोलकाता की ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स आधारित कृषि जैसी पहल यह दर्शाती हैं कि शहरी अपशिष्ट को किस प्रकार मृदा-समृद्ध संसाधनों में परिवर्तित किया जा सकता है।
- स्मार्ट सिटी मिशन को शहरी मृदा पुनरुद्धार परियोजनाओं के साथ जोड़ने से सतत् शहरी कृषि सुनिश्चित हो सकती है।
- पुनर्योजी और प्राकृतिक कृषि के अंगीकरण के लिये किसानों को प्रोत्साहित करना: पुनर्योजी कृषि तकनीकें, जैसे कि शून्य बजट प्राकृतिक कृषि (ZBNF) और पर्माकल्चर, बाह्य आदान को कम करते हुए मृदा के स्वास्थ्य को बढ़ा सकती हैं।
- आंध्र प्रदेश ने पुनर्योजी पद्धतियों को बढ़ावा देने की व्यवहार्यता प्रदर्शित की है।
- कवर क्रॉपिंग और मल्चिंग को प्रोत्साहित करने से मृदा की संरचना में सुधार हो सकता है तथा पोषक तत्त्वों की कमी को रोका जा सकता है।
- राष्ट्रीय जैविक खेती मिशन (NMOF) के अंतर्गत नीतिगत प्रोत्साहनों को व्यापक रूप से अपनाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
भारत का मृदा स्वास्थ्य संकट दीर्घकालिक कृषि संधारणीयता, खाद्य सुरक्षा एवं ग्रामीण आजीविका के लिये खतरा है तथा इसके लिये खाद्य-ऊर्जा-जल संबंध को गति देने वाले सहयोगात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस दिशा में रासायन-प्रधान कृषि से संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, जैविक संशोधन और जलवायु-अनुकूल पद्धतियों की ओर संक्रमण की आवश्यकता है। मृदा की उर्वरता को पुनर्स्थापित करने के लिये उर्वरक सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने तथा कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने सहित नीतिगत सुधार आवश्यक हैं। किसानों की जागरूकता को सुनिश्चित करना और मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसे तकनीकी हस्तक्षेप से सतत् मृदा प्रबंधन को बढ़ावा मिल सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “भारत में मृदा क्षरण का संकट कृषि उत्पादकता, पारिस्थितिकी संतुलन और खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा है।” प्रमुख कारणों, परिणामों का परीक्षण कीजिये और सतत् मृदा प्रबंधन के लिये रणनीतिक उपाय सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न 1. एकीकृत कृषि प्रणाली (आइ. एफ. एस.) किस सीमा तक कृषि उत्पादन को संधारित करने में सहायक है? (2019) |