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कृषि

पराली जलाने के संकट

  • 27 Oct 2022
  • 10 min read

यह एडिटोरियल 22/10/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Addressing north India’s burning issue sustainably” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में पराली दहन से संबद्ध समस्याओं और समाधानों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

हरित क्रांति (Green Revolution) ने भारत में, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में कृषि के तरीके को रूपांतरित कर दिया। सरकार के रूप में एक गारंटीकृत खरीदार और न्यूनतम समर्थन मूल्य से समर्थित धान एवं गेहूँ की अधिक उपज देने वाली किस्मों के अर्थशास्त्र ने एक फसल द्वयधिकार को जन्म दिया और इसके साथ ही फिर पराली दहन (Stubble burning) की प्रथा जीवंत हुई।

  • एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, देश में सालाना 500 मिलियन टन से अधिक पराली (फसल अवशेष) का उत्पादन होता है जिसमें अनाज फसलें (चावल, गेहूँ, मक्का और मोटे अनाज) कुल फसल अवशेष के 70% भाग का निर्माण करती हैं।
  • पराली दहन अक्टूबर के आसपास शुरू होता है और नवंबर में अपने चरम पर होता है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून वापस लौट रहा होता है।
  • प्रतिबंध लगाने और किसानों को दंडित किये जाने भर से ही पराली दहन की रोकथाम संभव नहीं है। भविष्य में इस पर रोक के लिये एक स्थायी और प्रभावी समाधान की आवश्यकता है।

यह अभ्यास अभी भी क्यों प्रचलित है?

  • भारतीय किसान दशकों से पराली दहन का अभ्यास कर रहे हैं और इसके कई कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारण हैं:
    • सर्वप्रथम, यह फसल अवशेष से मुक्ति पाने का सबसे सरल और सस्ता तरीका है।
    • दूसरा, फसल की यांत्रिक कटाई में उछाल के साथ पराली की समस्या बढ़ी है क्योंकि इसमें 1-2 फीट लंबा ठूंठ छोड़ जाता है जिसे स्वयं सड़कर नष्ट होने में लगभग 1.5 माह लगते हैं।
      • लेकिन किसानों के पास पर्याप्त समय नहीं होता है क्योंकि उन्हें अगली फसल के लिये तैयार खेत की आवश्यकता होती है और इसलिये वे अवशेष के सड़ने की प्रतीक्षा करने के बजाय उसे जलाकर तुरंत नष्ट कर देने का रास्ता चुनते हैं।

भारत में पराली दहन से संबद्ध समस्याएँ

  • पराली दहन से वायुमंडल में कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), मीथेन (CH4), कैंसरकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) जैसे जहरीले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं ।
    • ये प्रदूषक आसपास के वातावरण में फैल जाते हैं और स्मॉग की मोटी परत बनाकर वायु की गुणवत्ता और लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। यह दिल्ली के वायु प्रदूषण के प्राथमिक कारणों में से एक है।
  • मृदा के लिये जोखिम: पराली दहन से मृदा की उर्वरता घटती है और भूसी को भूमि पर जलाने पर इसके पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। इससे उत्पन्न ऊष्मा मृदा में प्रवेश कर जाती है, जिससे इसके क्षरण (erosion) में वृद्धि होती है और उपयोगी सूक्ष्मजीवों एवं नमी की हानि होती है।
    • ‘मित्र’ कीटों के नष्ट होने से ‘शत्रु’ कीटों का प्रकोप बढ़ गया है जिसके फलस्वरूप फसलों की रोग-प्रवणता की वृद्धि हुई है। मृदा की ऊपरी परतों की घुलनशीलता क्षमता भी कम हो गई है।
  • जलवायु परिवर्तन प्रेरित पराली दहन: जलवायु परिवर्तन के कारण कटाई मौसम की अवधि में कमी आई है, जिसने किसानों को खरीफ एवं रबी फसलों के बीच अपने खेतों को तेज़ी से पुनः तैयार करने के लिये विवश कर दिया है और इसके लिये पराली दहन को वे सबसे तेज़ और सरल तरीका पाते हैं।
  • समर्थन में वृद्धि, दहन में वृद्धि: उत्तरवर्ती दशकों में उठाए गए नीतिगत कदमों में बिजली एवं उर्वरकों के लिये सब्सिडी की शुरुआत करना शामिल है; इसके साथ ही, कृषि हेतु ऋण तक पहुँच की आसानी से फसल की पैदावार एवं कृषि उत्पादकता में व्यापक वृद्धि हुई है, जिसने फिर पराली दहन की समस्या को सुदृढ़ किया है।

पराली उपयोग का छत्तीसगढ़ मॉडल क्या है?

  • छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गौठान (gauthans) स्थापित करने के रूप में एक अभिनव प्रयोग किया गया है।
  • गौठान एक समर्पित पाँच एकड़ का भूखंड होता है जिसे प्रत्येक गाँव द्वारा साझा रूप से धारण किया जाता है। यहाँ ‘पराली दान’ के माध्यम से गाँव की समस्त अप्रयुक्त पराली एकत्र की जाती है और इन्हें गाय के गोबर एवं कुछ प्राकृतिक एंजाइमों के साथ मिलाकर जैविक खाद में रूपांतरित किया जाता है।
    • इस योजना से ग्रामीण युवाओं के लिये रोज़गार का भी सृजन हुआ है।

आगे की राह

  • फसलोत्तर विनियमन एवं प्रोत्साहन (Post-Harvest Regulation and Incentivisation): फसल कटाई एवं पराली से खाद निर्माण हेतु मनरेगा (MGNREGA) जैसी योजनाओं को शुरू करने और फसलोत्तर प्रबंधन को ज़मीनी स्तर पर विनियमित करने की आवश्यकता है।
    • अपने पराली का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करने वाले किसानों को सरकार राशि प्रोत्साहन भी प्रदान कर सकती है।
  • पराली का चारे के रूप में उपयोग: गेहूँ की पराली का मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। गेहूँ के ठूंठ से तैयार तूड़ी (Tudi) को इसके पोषण मूल्य के कारण मवेशियों के लिये सबसे अच्छा सूखा चारा माना जाता है।
  • तकनीकी हस्तक्षेप:
    • सूक्ष्मजीव पूसा (Microbe Pusa): पराली दहन को कम करने के लिये कई अभिनव उपाय विकसित किये गए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) ने सूक्ष्मजीव पूसा विकसित किया है जो पराली के सड़न को तेज़ करता है और 25 दिनों के भीतर पराली को खाद में रूपांतरित कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा की गुणवत्ता में सुधार होता है।
    • हैप्पी सीडर (Happy Seeder): पराली को जलाने के बजाय ‘हैप्पी सीडर’ नामक एक ट्रैक्टर-माउंटेड मशीन का उपयोग किया जा सकता है जो चावल की भूसी को काटती एवं उठाती है, खाली हुई भूमि में गेहूँ का बीज बोती है और फिर भूसी को बोए गए क्षेत्र के ऊपर गीली घास के रूप में बिछा देती है।
  • पराली का पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग: काग़ज़ और कार्डबोर्ड सहित कई उत्पादों के निर्माण के लिये पराली का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। इसके अलावा, इसे खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, दिल्ली के बाहर पल्ला गाँव में नंदी फाउंडेशन द्वारा किसानों से 800 मीट्रिक टन धान अवशेष की खरीद खाद निर्माण के लिये की गई।
    • फसल अवशेषों का उपयोग चारकोल गैसीकरण, बिजली उत्पादन, जैव-इथेनॉल के उत्पादन हेतु औद्योगिक कच्चे माल जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिये भी किया जा सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में पराली दहन से संबद्ध समस्याओं पर प्रकाश डालिये। फसल अवशेषों के पुनर्चक्रण के लिये अभिनव उपायों के सुझाव भी दीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रारंभिक परीक्षा:

Q. निम्नलिखित कृषि पद्धतियों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2012)

  1. कंटूर बंडिंग
  2. रिले फसल
  3. शून्य जुताई

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में उपर्युक्त में से कौन मिट्टी में कार्बन को अलग करने/भंडारण में मदद करता है?

 (A) केवल 1 और 2
 (B) केवल 3
 (C) 1, 2 और 3
 (D) उनमें से कोई नहीं

 उत्तर: (B)


मुख्य परीक्षा

Q. चावल-गेहूँ प्रणाली को सफल बनाने के लिए कौन से प्रमुख कारक ज़िम्मेदार हैं? इस सफलता के बावजूद भारत में यह व्यवस्था कैसे अभिशाप बन गई है? (वर्ष 2020)

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