भारत में बलात्संग संबंधी मामलों में वृद्धि | 18 Sep 2024

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 , वैवाहिक बलात्संग , लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) , ज़ीरो FIR , टू फिंगर टेस्ट , राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण , राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो

मेन्स के लिये:

बलात्संग संबंधी मामले, संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह, भारत में महिला सुरक्षा तथा विधिक सुधार, महिलाओं से संबंधित मुद्दे, सामाजिक मानदंडों का प्रभाव 

स्रोत: IE

चर्चा में क्यों? 

भारत में बलात्संग संबंधी मामलों में वृद्धि ने यौन हिंसा के मामलों को संबोधित करने के लिये व्यापक विधिक सुधारों और सामाजिक व्यवहार में लिये मृत्युदंड सहित कठोर दंड के प्रावधान एवं महिलाओं के लिये सुरक्षित वातावरण हेतु तत्काल परिवर्तन की मांग को पुनः जागृत किया है। 

  • इन घटनाओं ने बलात्संग के कार्रवाई की मांग को बढ़ावा दिया है।

भारत में बलात्संग के संबंध में विधिक ढाँचा क्या है?

  • बलात्संग क्या है: भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के अनुसार, बलात्संग तब होता है जब कोई पुरुष किसी महिला की सहमति के बिना, उसकी इच्छा के विरुद्ध, दबाबपूर्वक, धोखे से या जब महिला की आयु 18 वर्ष से कम हो या सहमति देने में असमर्थ हो, उसके साथ यौन संबंध बनाता है।
  • भारत में बलात्संग के प्रकार:
    • गंभीर बलात्संग: पीड़ित पर अधिकारिता या विश्वास की स्थिति रखने वाले किसी व्यक्ति (जैसे- पुलिस अधिकारी, अस्पताल कर्मचारी या अभिभावक) द्वारा किया गया बलात्संग ।
    • बलात्संग और हत्या: जब बलात्संग के कारण पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या वह अचेत अवस्था में चली जाती है।
    • सामूहिक बलात्संग: जब एक महिला के साथ कई व्यक्तियों द्वारा एक साथ बलात्संग किया जाता है।
    • वैवाहिक बलात्संग: 'वैवाहिक बलात्संग ' का तात्पर्य पति और पत्नी के मध्य किसी भी पक्ष की सहमति के बिना जबरन यौन संबंध बनाने से है।
  • भारत में बलात्संग से संबंधित विधियाँ:
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: नव अधिनियमित BNS, 2023, जो औपनिवेशिक युग की भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 को स्थनान्तरित करती है, यौन अपराधों के उपचार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करती है।
      • BNS बलात्संग के गंभीर रूपों को परिभाषित करती है, जिसमें सामूहिक बलात्संग भी शामिल है। इसमें 18 वर्ष की आयु से कम उम्र की नाबालिगों के साथ सामूहिक बलात्संग के लिये कठोर दंड का प्रावधान है, जिसमें आजीवन कारावास या मृत्युदंड भी शामिल है।
    • दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013: वर्ष 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया बलात्संग मामले के कारण दंड विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 के माध्यम से संशोधन किया गया, जिसके तहत बलात्संग के लिये न्यूनतम दंड सात वर्ष का कारावास से बढ़ाकर दस वर्ष कर दिया गया। 
      • जिन मामलों में पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या वह अचेत अवस्था में चली जाती है, उनमें न्यूनतम दंड को बढ़ाकर बीस वर्ष का कारावास कर दिया गया। 
      • इसके अलावा, दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2018 के माध्यम से भी 12 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्संग के लिये मृत्युदंड सहित और भी कठोर दंडात्मक प्रावधान किये गए थे। 
    • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) : यह विधि बच्चों को यौन हिंसा, उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से संरक्षित करती है।
  • भारत में बलात्संग पीड़ितों के अधिकार:
    • ज़ीरो FIR का अधिकार: पीड़ित किसी भी पुलिस स्टेशन में ज़ीरो FIR दर्ज करा सकते हैं, चाहे उसका क्षेत्राधिकार कुछ भी हो। FIR को अन्वेषण हेतु उचित स्टेशन पर स्थानांतरित कर दिया जाएगा।
    • निशुल्क चिकित्सा उपचार: दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 (जिसे अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है) की धारा 357 C के तहत, सभी अस्पतालों को बलात्संग पीड़ितों को निशुल्क चिकित्सा उपचार प्रदान करना होगा।
    • टू फिंगर टेस्ट की समाप्ति: किसी भी डॉक्टर को चिकित्सा परीक्षण करते समय टू फिंगर टेस्ट करने का अधिकार नहीं होगा, जिसे पीड़ित की गरिमा का उल्लंघन माना जाता है।
    • उत्पीड़न-मुक्त समयबद्ध जाँच: बयान महिला पुलिस अधिकारी या किसी अन्य अधिकारी द्वारा पीड़ित के लिये सुविधाजनक समय और स्थान पर दर्ज किया जाएगा। 
      • बयान पीड़ित के माता-पिता या अभिभावक की मौजूदगी में दर्ज किया जाएगा। अगर पीड़ित गूंगा या मानसिक रूप से विकलांग है, तो संकेत को समझने के लिये एक विश्लेषक की मौजूदगी आवश्यक होगी।
    • मुआवज़े का अधिकार: CrPC की धारा 357A राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा निर्धारित मुआवज़ा योजना के अंतर्गत पीड़ितों के लिये मुआवज़े का प्रावधान करती है।
    • मुकदमें की कार्रवाई के दौरान गरिमा और संरक्षण: मुकदमें कैमरे के समक्ष चलाए जाने चाहिये, जिसमें पीड़ित के यौन इतिहास के बारे में कोई अनुचित प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिये और यदि संभव हो तो महिला न्यायाधीश द्वारा मुकदमा चलाया जाना चाहिये।

भारत में बलात्संग के मामलों में वृद्धि क्यों हो रही है?

  • बलात्संग का सामान्यीकरण: यह एक समाजशास्त्रीय वातावरण को संदर्भित करता है जहाँ यौन हिंसा को सामान्य माना जाता है और उसे माफ कर दिया जाता है, जिसके कारण बलात्संग के मामलों में वृद्धि होती है। यह कई तरह के व्यवहार एवं दृष्टिकोण पर आधारित है।
    • बलात्संग के संबंध में अनुचित दृष्टिकोण: यौन हिंसा के बारे में अनुचित टिप्पणियों से ऐसे अपराधों की गंभीरता को कमतर आँका जाता है।
    • लिंगभेदी व्यवहार: ऐसे कार्य और दृष्टिकोण जो महिलाओं को अपमानित करते हैं, अक्सर नकारात्मक रूढ़िवादिता को बनाए रखते हैं।
    • पीड़ित को दोषी ठहराना: अपराधियों पर ध्यान देने के बजाय, पीड़ित को ही हिंसा के लिये ज़िम्मेदार ठहराने से इसकी जटिलता बढ़ती है।
      • सांस्कृतिक दृष्टिकोण में पीड़ितों को उनके पहनावे के लिये दोषी ठहराया जाता है, भारत में सर्वेक्षण किये गए 68% न्यायाधीशों ने यही दृष्टिकोण अपनाया है। यह नकारात्मक दृष्टिकोण पीड़ितों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति  को मज़बूत करता है।
  • पीड़ितों को अक्सर शर्मिंदा किया जाता है तथा उन पर आरोप लगाया जाता है, जिससे उनका मानसिक आघात और बढ़ जाता है एवं वे अपराध की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित हो जाते हैं। रिपोर्ट न करने की यह कमी बलात्संग की घटनाओं में वृद्धि में योगदान देती है। 
    • यह प्रवृत्ति न केवल उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करती है बल्कि उनके अवसरों और सामाजिक प्रतिष्ठा को भी सीमित करती है।
  • शराब की लत: शराब का सेवन बलात्संग की बढ़ती दरों में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यह निर्णय लेने की क्षमता को कम करता है और अधिक आक्रामक तथा हिंसक व्यवहार को जन्म दे सकता है।
  • मीडिया में महिला विरोधी चित्रण: भारत में फिल्में और शो अक्सर महिलाओं को वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह चित्रण नकारात्मक रूढ़िवादिता तथा व्यवहार को मज़बूत करता है जो बलात्संग  प्रवृत्ति में योगदान देता है।
  • लिंग अनुपात असंतुलन: जनसंख्या में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की अधिक संख्या बलात्संग की दर में वृद्धि से संबंधित है। 
    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश का लिंग अनुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 940 महिलाएँ था। यह लैंगिक असंतुलन ऐसा जनसांख्यिकीय वातावरण बनाता है जहाँ यौन हिंसा की घटनाएँ अधिक होती हैं।
  • अपर्याप्त महिला पुलिस प्रतिनिधित्व: वर्ष 2022 में भारत के पुलिस बल में 11.75% महिला अधिकारी थीं। इस कम प्रतिशत का तात्पर्य है कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को अपने मामलों की रिपोर्ट महिला अधिकारियों को करने में संघर्ष करना पड़ सकता है, जिन्हें अक्सर ऐसे संवेदनशील मुद्दों को संभालने के लिये प्राथमिकता दी जाती है।
  • घरेलू दुर्व्यवहार की स्वीकार्यता: घरेलू हिंसा का यह सामान्यीकरण यौन हिंसा के प्रति व्यापक सहिष्णुता तक विस्तारित होने के साथ नकारात्मक व्यवहार पैटर्न को मज़बूत करता है और पीड़ितों द्वारा सहायता मांगने या पर्याप्त समर्थन प्राप्त करने की संभावना को कम करता है।
  • अनैतिक व्यवहार के लिये पीड़ितों को दोषी ठहराना: "अनैतिक" माने जाने वाले व्यवहार (जैसे- शराब पीना या देर रात तक बाहर घूमना) में लिप्त महिलाओं को उनके साथ होने वाले हमलों के लिये अनुचित रूप से दोषी ठहराया जाता है, जो व्यापक सामाजिक मुद्दों को दर्शाता है। 
    • यह दोष उस प्रवृत्ति को बनाए रखता है जो महिलाओं को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहती है, जिससे बलात्संग संबंधी अपराधों में वृद्धि होती है।
    • कुछ व्यक्तियों का मानना है कि महिलाएँ अपने व्यवहार में बदलाव लाकर यौन उत्पीड़न और हिंसा से बच सकती हैं
  • मौन बने रहने की सलाह: पीड़ितों को अक्सर सामाजिक निर्णय और व्यक्तिगत शर्मिंदगी के डर से अपने साथ हुए उत्पीड़न की रिपोर्ट न करने की सलाह दी जाती है। यह चुप्पी अपराधियों की रक्षा करती है तथा दुर्व्यवहार के चक्र को जारी रखती है।

भारत में बलात्संग की दोषसिद्धि दर इतनी कम क्यों है?

  • कम दोषसिद्धि दर: रिपोर्ट किये गए बलात्संग की संख्या चिंताजनक रूप से अधिक (2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान गिरावट को छोड़कर) बनी हुई है (वर्ष 2012 से वार्षिक रिपोर्ट में लगातार 30,000 से अधिक मामलों को दर्ज किया जा रहा है)। 
  • वर्ष 2022 में बलात्संग के 31,000 से ज़्यादा मामले दर्ज किये गए, जो इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाते हैं। सख्त कानूनों के बावजूद बलात्संग के लिये सज़ा की दर कम (जो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 से 2022 तक 27%-28% के बीच रही है) रही है।
  • संस्थागत मुद्दे: रिश्वतखोरी और दुर्व्यवहार के साथ विधिक तथा कानून प्रवर्तन प्रणालियों में भ्रष्टाचार से बलात्संग के मामलों को सुलझाने में बाधा आती है। 
    • बलात्संग की कई घटनाएँ प्रतिशोध के भय, व्यवस्था में विश्वास की कमी या विधिक प्रक्रिया की अप्रभावीता के कारण रिपोर्ट नहीं की जाती हैं। 
  • सामाजिक-सांस्कृतिक कारक: सामाजिक दृष्टिकोण से पीड़ितों पर अनुचित जाँच-पड़ताल का दबाव पड़ता है, जिसके कारण पीड़ित को ही दोषी ठहराया जाता है और उन्हें न्याय पाने से हतोत्साहित किया जाता है।
  • सामाजिक अस्वीकृति और कलंक के भय से पीड़ित विधिक प्रक्रिया से अलग रह सकते हैं।
  • असंगत कानून प्रवर्तन: भारत में बलात्संग संबंधी कानूनों की प्रभावशीलता असंगत कानून प्रवर्तन के कारण कम हो जाती है, जिससे न्यायसंगत प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है।
  • BNS, 2023 में पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन अपराधों की पर्याप्त रूप से व्याख्या नहीं की गई है, जो विधिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण अंतर तथा देश भर में सुसंगत एवं समावेशी कानून प्रवर्तन सुनिश्चित करने से संबंधित चुनौती को दर्शाता है।
    • भारत में वैवाहिक बलात्संग को अपराध नहीं माना जाता है, जिसका समर्थन विवाह की पवित्रता की पुरानी धारणाओं द्वारा किया जाता है। यह विधिक उदासीनता एक ऐसी प्रवृत्ति को बनाए रखती है जहाँ विवाह में सहमति को अक्सर अनदेखा किया जाता है, जिससे बलात्संग  की जटिलता व्यापक होती है।
  • अपर्याप्त साक्ष्य संग्रहण और जाँच से मामले कमज़ोर हो सकते हैं, जिससे दोषसिद्धि सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है।
  • पुलिस बल में भ्रष्टाचार और अकुशलता से इन मुद्दों को बढ़ावा मिल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप जाँच में अनियमितता हो सकती है।
    • उदाहरण: वर्ष 2020 के हाथरस मामले में पुलिस की गंभीर खामियाँ उजागर हुईं, जिसमें देरी से कार्रवाई और सबूतों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना शामिल है, जिससे जाँच प्रक्रियाओं में प्रणालीगत मुद्दे उजागर हुए।
  • अप्रभावी विधिक सहायता: बलात्संग के कई पीड़ितों को पर्याप्त मनोवैज्ञानिक, विधिक या चिकित्सीय सहायता नहीं मिल पाती है, जिससे न्याय पाने की उनकी क्षमता पर प्रभाव पड़ सकता है।
    • मज़बूत समर्थन प्रणालियों के अभाव में न्याय पाने की प्रक्रिया अधिक कठिन हो सकती है तथा दोषसिद्धि की संभावना कम हो सकती है।
  • न्यायिक प्रणाली पर अतिभार: भारतीय न्यायिक प्रणाली में मामलों की अधिकता बनी रहती है, जिसके कारण न्याय में देरी होने के साथ न्याय की गुणवत्ता से समझौता हो सकता है।
    • कार्यभार के अत्यधिक बोझ से न्यायालय प्रत्येक मामले पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पाते हैं, जिससे समग्र मामले के परिणाम प्रभावित हो सकते हैं।
    • न्यायिक कार्यवाही की धीमी गति से न्याय मिलने में देरी होती है। मुकदमों में देरी से सबूत और गवाहों की प्रभावशीलता कम हो सकती है, जिससे सज़ा मिलने की संभावना कम हो जाती है।
    • उदाहरण: निर्भया मामले की त्वरित सुनवाई होने के बावजूद, निष्कर्ष तक पहुँचने में सात वर्ष से अधिक का समय लग गया, जो न्याय व्यवस्था की अक्षमताओं को दर्शाता है।

बलात्संग के बढ़ते मामलों के क्या निहितार्थ हैं?

  • प्रतिबंध और सुरक्षा चिंताएँ: सामाजिक मानदंडों और सुरक्षा चिंताओं के कारण महिलाओं को पहले से ही अपनी आवाजाही तथा स्वतंत्रता पर काफी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
  • बलात्संग के बढ़ते मामलों के कारण उनकी स्वतंत्रता और भी सीमित हो जाती है, क्योंकि हिंसा के भय से उनकी यात्रा करने तथा लोक जीवन में भाग लेने की क्षमता बाधित होती है।
  • कार्यस्थल की गतिशीलता पर प्रभाव: कार्यस्थलों पर बढ़ते यौन अपराध महिलाओं के कॅरियर में बाधक बन सकते हैं, जिससे कंपनियों में लैंगिक विविधता प्रभावित हो सकती है।
  • यदि कार्यस्थल पर सुरक्षा और उत्पीड़न के मुद्दों का समुचित समाधान नहीं किया गया तो कंपनियों को महिला कर्मचारियों की भर्ती करने तथा उन्हें बनाये रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
  • बलात्संग से बचे लोगों को आघात या कलंक के कारण रोज़गार बनाए रखने या कॅरियर के अवसरों का लाभ उठाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
  • आर्थिक परिणाम: जीवित बचे लोगों के लिये चिकित्सा उपचार और मनोवैज्ञानिक सहायता की आवश्यकता से स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ जाती है।
    • ये खर्च सार्वजनिक स्वास्थ्य संसाधनों पर दबाव डाल सकते हैं तथा व्यक्तियों और परिवारों की आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर सकते हैं।
    • यौन हिंसा का आर्थिक प्रभाव परिवारों और समुदायों तक विस्तारित है, जिससे समग्र उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।
  • विश्वास का क्षरण: बलात्संग की व्यापकता, विधि प्रवर्तन और न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास को कम कर सकती है, जिससे असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो सकती है।
  • लैंगिक रूढ़िवादिता को बल मिलना: बलात्संग के बढ़ते मामले नकारात्मक लैंगिक रूढ़िवादिता और भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को बल देने एवं लैंगिक असमानता को बनाए रखने के साथ महिलाओं के अवसरों को सीमित कर सकते हैं।

आगे की राह

  • विधिक सुधार: साक्ष्य बताते हैं कि मृत्युदंड जैसी कठोर सज़ा यौन हिंसा को रोकने में सक्षम नहीं हैं। भारत में बलात्संग के मामलों में सज़ा की दर 30% से कम है, इसलिये वास्तविक मुद्दा सज़ा की कठोरता के बजाय न्यायिक प्रक्रिया की दक्षता और निष्पक्षता में निहित है।
    • इसके अतिरिक्त संभावित अपराधियों को रोकने के लिये बलात्संग के परिणामों और उससे संबंधित दंड के बारे में जागरूकता अभियान बढ़ाने चाहिये, क्योंकि बहुत से लोग विधिक परिणामों के बारे में जागरूक नहीं हैं।
      • वर्ष 2013 की न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट को लागू करते हुए (जिसमें बलात्संग  अपराधों से निपटने के लिये पुलिस सुधार और वैवाहिक बलात्संग के अपराधीकरण सहित महत्त्वपूर्ण सुधारों की सिफारिश की गई थी) अन्य सिफारिशों पर भी ध्यान देना चाहिये।
  • सामाजिक दृष्टिकोण बदलना: सहमति और सम्मानजनक व्यवहार के बारे में समाज को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है। इसमें बलात्संग को नकारना तथा पीड़ित को दोषी ठहराने वाले दृष्टिकोण को चुनौती देना शामिल है। पीड़ितों के लिये सहानुभूति और समर्थन को बढ़ावा देने से सार्वजनिक धारणाओं को बदलने में मदद मिल सकती है।
  • मीडिया की ज़िम्मेदारी: मीडिया आउटलेट्स को महिलाओं के प्रदर्शन को लेकर जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये। महिलाओं को वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने या उनका अपमान करने वाली सामग्री की आलोचना की जानी चाहिये और उसे विनियमित किया जाना चाहिये।
  • स्वास्थ्य/यौन शिक्षा: स्कूलों और कॉलेजों में व्यापक यौन शिक्षा कार्यक्रम शामिल किये जाने चाहिये। इस शिक्षा में सहमति, सम्मान तथा पोर्नोग्राफी के हानिकारक प्रभावों पर ध्यान दिया जाना शामिल है।
  • पीड़ितों के लिये सहायता: पीड़ितों के लिये एक सहायक वातावरण बनाना बहुत ज़रूरी है, जहाँ उन्हें दोषी न ठहराया जाए या उन पर दोष न लगाया जाए। मानसिक स्वास्थ्य संसाधन और विधिक सहायता प्रदान करने से पीड़ितों को न्याय पाने में मदद मिल सकती है।

निष्कर्ष

बलात्संग एक गंभीर अपराध है जो व्यक्तियों को नुकसान पहुँचाने के साथ सामाजिक मूल्यों और सुरक्षा को नष्ट करता है। भारत का विधिक ढाँचा पीड़ितों की सुरक्षा करने पर केंद्रित है लेकिन फिर भी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी रहती हैं। एक सुरक्षित समाज को बढ़ावा देने के लिये विधियों को सख्ती से लागू करना, लोगों को शिक्षित करना और यौन हिंसा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलना महत्त्वपूर्ण है। पीड़ितों के लिये न्याय सुनिश्चित करना तथा अपराधियों को जवाबदेह ठहराना, सभी महिलाओं के लिये अधिक न्यायपूर्ण एवं सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में बलात्संग के मामलों में वृद्धि के मद्देनजर इससे संबंधित विधिक सुधारों के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। सज़ा दरों को तार्किक करने एवं प्रणालीगत मुद्दों से निपटने के साथ बेहतर उत्तरजीविता हेतु सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने के क्रम में आवश्यक रणनीतियों को बताइये।

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  UPSC  सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)   

मेन्स 

Q. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में वृद्धि देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा विधिक प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये उचित उपाय सुझाइये। (2014)