कृषि
इलेक्ट्रॉनिक मृदा
प्रिलिम्स के लिये:इलेक्ट्रॉनिक मृदा, हाइड्रोपोनिक्स, खाद्य और कृषि संगठन (FAO) मेन्स के लिये:किसानों की सहायता के लिये इलेक्ट्रॉनिक मृदा, ई-प्रौद्योगिकी। |
स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में स्वीडन में लिंकोपिंग (Linköping) यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं ने 'इलेक्ट्रॉनिक मृदा' (ई-सॉइल)
- विकसित की है जो हाइड्रोपोनिक युक्त स्थानों में पौधों के विकास को गति दे सकती है।
इलेक्ट्रॉनिक मृदा क्या है?
- परिचय:
- इलेक्ट्रॉनिक मृदा (e-Soil) एक नवीन प्रवाहकीय कृषि क्रियाधार (Substrate) है जिसे विशेष रूप से हाइड्रोपोनिक प्रणालियों के लिये तैयार किया गया है।
- खनिज ऊन(Mineral Wool) जैसे पारंपरिक क्रियाधार के विपरीत, जो गैर-बायोडिग्रेडेबल होते हैं तथा ऊर्जा-गहन प्रक्रियाओं का उपयोग करके निर्मित होते हैं, ई-सॉइल (e-Soil) सेल्यूलोज़ से बना होता है जिसे एक बायोपॉलिमर, जिसे PEDOT (पॉली (3,4-एथिलीन डाइ-ऑक्सीथियोफीन)) नामक एक प्रवाहकीय बहुलक के साथ मिश्रित किया जाता है।
- सामग्रियों का यह अभिनव मिश्रण तापदीप्त वैद्युत धाराओं के माध्यम से पौधों में जड़ के विकास को उत्तेजित करने में सहायता करता है।
- महत्त्व:
- ई-सॉइल काफी कम ऊर्जा खपत का लाभ प्रदान करता है तथा उच्च-वोल्टेज प्रणालियों से संबंधित जोखिम को समाप्त करता है।
- ई-सॉइल का महत्त्व पौधों की वृद्धि को बढ़ाने की क्षमता में निहित है, जैसा कि एक अध्ययन से पता चलता है कि इस तकनीक का उपयोग करके हाइड्रोपोनिक प्रणालियों में कृषि की गई जौ के पौधों की वृद्धि दर में 50% की वृद्धि हुई है।
- ई-सॉइल के साथ मिलकर हाइड्रोपोनिक्स प्रणाली वैश्विक खाद्य मांगों को पूरा करने में संभावित रूप से सहायक हो सकती है, खासकर शहरी परिवेश में जहाँ सीमित कृषि योग्य भूमि है।
हाइड्रोपोनिक्स क्या है ?
- हाइड्रोपोनिक्स:
- हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पोषक तत्त्वों से भरपूर जल-आधारित,मृदा रहित माध्यम में पौधों की खेती करना शामिल है।
- हाइड्रोपोनिक्स मृदा रहित माध्यम में जल आधारित, पोषक तत्त्वों से भरपूर विलयन में पौधों को उगाने की एक विधि है।
- इसमें मृदा का उपयोग नहीं किया जाता है, इसके स्थान पर जड़ को पर्लाइट, रॉकवूल, मृदा के छर्रों, पीट काई, या वर्मीक्यूलाईट जैसे निष्क्रिय माध्यम का उपयोग किया जाता है।
- यह महत्त्वपूर्ण है कि पौधों की जड़ें पोषक तत्त्वों के विलयन के सीधे संपर्क के साथ ऑक्सीजन तक पहुँच हो, जो उनके स्वस्थ विकास के लिये आवश्यक हैं।।
- लाभ:
- भूमि और जल क्षमता: बंद लूप जल प्रणाली के साथ हाइड्रोपोनिक खेती तकनीक भूमि और जल तक सीमित पहुँच वाले किसानों के लिये एक व्यवहार्य विकल्प है।
- शहरी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त: जब शहरी और उप-शहरी क्षेत्रों की बात आती है जहाँ कृषि योग्य भूमि प्रदूषित होती है तब उस स्थान पर रहित प्रणालियों का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है।
- कम संसाधन खपत: कम संसाधन खपत इस वैकल्पिक कृषि तकनीक को विभिन्न हितधारकों द्वारा अपनाने की अनुमति देती है।
- अधिक उपज: खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, मृदा रहित कृषि प्रणालियों में सब्जियों की उपज पारंपरिक प्रणालियों की तुलना में 20-25% अधिक है क्योंकि प्रति वर्ग मीटर पौधों की संख्या अधिक है।
- कमियाँ:
- अधिक समय और ध्यान देने की आवश्यकता: जल को नियमित अंतराल पर बदलने की आवश्यकता होती है क्योंकि स्थिर या रुके हुए जल से पौधों में आसानी से रोग का संक्रमण हो सकता है, यदि रोगजनक जल आपूर्ति में प्रवेश करते हैं।
- जल और ऊर्जा गहनता: हाइड्रोपोनिक कृषि में जल और विद्युत् ऊर्जा दो आवश्यक कारक हैं, पर्याप्त जल आपूर्ति या स्थिर विद्युत् के अभाव में हाइड्रोपोनिक कृषि प्रणाली अच्छी तरह से विकसित नहीं होगी।
UPSC, सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. खेती में बायोचार का क्या उपयोग है? (2020)
उपर्युक्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर:(d) व्याख्या
अत: विकल्प (d) सही है। |
शासन व्यवस्था
शाही ईदगाह और कृष्ण जन्मभूमि मंदिर विवाद
प्रिलिम्स के लिये:शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि मंदिर, केशव देव मंदिर, औरंगजेब, दाराशिकोह, बनारस के राजा, बाबरी मस्जिद फैसला मेन्स के लिये:पूजा स्थलों से संबंधित विवादों के निवारण में न्यायपालिका का महत्त्व। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में फैसला सुनाया कि मथुरा में तीन गुंबद वाली मस्जिद शाही ईदगाह के लिये एक सर्वेक्षण किया जाएगा।
- यह मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर के निकट स्थित शाही ईदगाह मस्जिद का निरीक्षण करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति की मांग कर रहा है।
क्या है विवादित भूमि का इतिहास?
- ओरछा के राजा वीर सिंह बुंदेला ने वर्ष 1618 में उसी परिसर में एक मंदिर बनवाया था तथा मस्जिद का निर्माण वर्ष 1670 में औरंगजेब ने पहले के मंदिर के स्थान पर कराया था।
- माना जाता है कि मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान मंदिर का निर्माण लगभग 2,000 वर्ष पूर्व, पहली शताब्दी ईस्वी में हुआ था।
- हिंदू प्रतिनिधियों द्वारा उस परिसर के पूर्ण स्वामित्व की मांग के कारण एक सर्वेक्षण का आदेश दिया गया है, जहाँ वर्ष 1670 में मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश पर केशव देव मंदिर को नष्ट कर दिया गया था।
- यह मंदिर मूल रूप से वर्ष 1618 में जहाँगीर के शासनकाल के दौरान बनाया गया था और इसका संरक्षण औरंगजेब के भाई तथा प्रतिद्वंद्वी दाराशिकोह ने किया था।
- वर्ष 1815 में बनारस के राजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी से 13.77 एकड़ भूमि खरीदी।
- तत्पश्चात् श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की गई।
- ट्रस्ट ने वर्ष 1951 में मंदिर पर अपना स्वामित्व हासिल कर लिया।
- 13.77 एकड़ भूमि इस शर्त के साथ ट्रस्ट के अधीन रखी गई थी कि इसे कभी बेचा अथवा गिरवी नहीं रखा जाएगा।
- वर्ष 1956 में मंदिर संबंधी मामलों के प्रबंधन के लिये श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ की स्थापना की गई।
- वर्ष 1968 में श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ तथा शाही ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए, जिसके तहत मंदिर प्राधिकरण ने समझौते के हिस्से के रूप में भूमि का एक हिस्सा ईदगाह को दिया।
- वर्तमान में चल रहे विवाद में मंदिर के याचिकाकर्त्ता शामिल हैं जो भूमि के संपूर्ण हिस्से पर कब्ज़ा चाहते हैं।
मुद्दे की वर्तमान स्थिति क्या है?
- सर्वेक्षण की मांग के लिये याचिका हिंदू देवता, श्री कृष्ण की ओर से सात लोगों द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने न्यायालय के समक्ष लंबित अपने मूल मुकदमे में दावा किया था कि मस्जिद का निर्माण वर्ष 1670 में मुगल सम्राट औरंगज़ेब के आदेश पर श्री कृष्ण के जन्मस्थान पर किया गया था।
- वर्ष 2019 में बाबरी मस्जिद निर्णय के बाद से श्री कृष्ण जन्मभूमि तथा शाही ईदगाह मस्जिद से संबंधित नौ मामले मथुरा न्यायालय में दायर किये गए हैं।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद से संबंधित विभिन्न राहतों पर मथुरा न्यायालय के समक्ष लंबित सभी मुकदमों को अपने पास स्थानांतरित कर लिया।
- उच्च न्यायालय में उ.प्र. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और शाही ईदगाह मस्जिद कमेटी ने दलील दी कि भगवान कृष्ण का जन्मस्थान मस्जिद के अधीन नहीं है।
- उन्होंने कहा कि वादी के दावे में सबूतों का अभाव है और यह अटकलों पर आधारित है।
- शाही ईदगाह मस्जिद की कमेटी ऑफ मैनेजमेंट ट्रस्ट ने जब उच्च न्यायालय से सर्वे पर रोक लगाने की मांग की तो न्यायालय ने कोई राहत नहीं दी।
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 क्या है?
- परिचय:
- इसे धार्मिक उपासना स्थलों की स्थिति को स्थिर करने के लिये अधिनियमित किया गया था क्योंकि वे 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में थे और किसी भी उपासना स्थल के रूपांतरण पर रोक लगाते हैं एवं उनके धार्मिक चरित्र के रखरखाव को सुनिश्चित करते हैं।
- अधिनियम के प्रमुख प्रावधान:
- धर्मांतरण पर रोक (धारा 3):
- यह किसी उपासना स्थल को, चाहे पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से, एक धार्मिक संप्रदाय से दूसरे में या एक ही संप्रदाय के भीतर परिवर्तित करने से रोकता है।
- धार्मिक चरित्र का रखरखाव {धारा 4(1)}:
- यह सुनिश्चित करता है कि उपासना स्थल की धार्मिक पहचान वही बनी रहे जो 15 अगस्त, 1947 को थी।
- ज्ञानवापी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हालिया रुख से पता चलता है कि उपासना स्थल अधिनियम, 1991 “किसी भी उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र” को स्पष्ट नहीं करता है और प्रत्येक मामले में इसे केवल मौखिक तथा लिखित दोनों साक्ष्यों के आधार पर परीक्षण के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है।
- लंबित मामलों का निवारण {धारा 4(2)}:
- घोषणा करती है कि 15 अगस्त, 1947 से पहले किसी पूजा स्थल को धार्मिक चरित्र में बदलने के संबंध में चल रही कोई भी कानूनी कार्यवाही समाप्त कर दी जाएगी और कोई नया मामला प्रारंभ नहीं किया जा सकता है।
- अधिनियम के अपवाद (धारा 5):
- यह अधिनियम प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों तथा प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्व स्थल व अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आने वाले अवशेषों पर लागू नहीं होता है।
- इसमें वे मामले भी शामिल नहीं हैं जो पहले ही निपटाए जा चुके हैं या सुलझाए जा चुके हैं और ऐसे विवाद जिन्हें आपसी समझौते से सुलझाया गया है या अधिनियम लागू होने से पहले हुए रूपांतरण शामिल हैं।
- यह अधिनियम अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के नाम से जाने वाले विशिष्ट पूजा स्थल तक विस्तारित नहीं है, जिसमें इससे जुड़ी कोई कानूनी कार्यवाही भी शामिल है।
- दंड (धारा 6):
- अधिनियम का उल्लंघन करने पर अधिकतम तीन साल की कैद और ज़ुर्माने सहित दंड निर्दिष्ट करती है।
- धर्मांतरण पर रोक (धारा 3):
शासन व्यवस्था
NH भूमि अधिग्रहण में योगदान हेतु केरल देश में अग्रणी
प्रिलिम्स के लिये:भूमि अधिग्रहण, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI), भारतमाला परियोजना मेन्स के लिये:भूमि अधिग्रहण लागत साझा करने से छूट में भारतमाला परियोजना की भूमिका |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (MoRT&H) ने संसद में एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार केरल पर सबसे अधिक वित्तीय बोझ है तथा इसके बाद हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश का स्थान है।
- इसका कारण राष्ट्रीय राजमार्ग विकास के लिये भूमि अधिग्रहण लागत का 25% राज्य द्वारा वहन करने जैसे मानदंड हैं।
दस्तावेज़ के प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) ने विगत पाँच वर्षों में महाराष्ट्र में भूमि अधिग्रहण तथा संबंधित गतिविधियों पर सबसे अधिक हिस्सा व्यय किया है तथा इसके बाद उत्तर प्रदेश एवं केरल का स्थान है।
- केरल ने NHAI की दो परियोजनाओं– एर्नाकुलम बाईपास तथा कोल्लम-शेनकोट्टई खंड के लिये भूमि अधिग्रहण के लिये 25% हिस्सेदारी की छूट एवं परियोजना को भारतमाला परियोजना के तहत सूचीबद्ध करके आउटर रिंग रोड परियोजना की भूमि अधिग्रहण लागत को साझा करने से छूट का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
- उक्त दस्तावेज़ के अनुसार हरियाणा व उत्तर प्रदेश को क्रमशः ₹3,114 करोड़ तथा ₹2,301 करोड़ का योगदान देना होगा।
भारत में सड़क नेटवर्क से संबंधित मुख्य तथ्य
- वर्ष 2018-19 में भारत का सड़क घनत्व 1,926.02 प्रति 1,000 वर्ग किमी. क्षेत्र था जो कई विकसित देशों की तुलना में अधिक था, हालाँकि सड़क की कुल लंबाई का 64.7% हिस्सा सतही/पक्की सड़क है, जो विकसित देशों की तुलना में तुलनात्मक रूप से कम है।
- वर्ष 2019 में देश की कुल सड़क लंबाई का 2.09% हिस्सा राष्ट्रीय राजमार्गों का था।
- शेष सड़क नेटवर्क में राज्य राजमार्ग (2.9%), ज़िला सड़कें (9.6%), ग्रामीण सड़कें (7.1%), शहरी सड़कें (8.5%) और परियोजना सड़कें (5.4%) शामिल हैं।
भारत में भूमि अधिग्रहण से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- उच्च वित्तीय लागत: भारत में भूमि अधिग्रहण की वित्तीय लागत वर्ष 2013 के संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम के कारण काफी बढ़ गई है, जो भूमि मालिकों के लिये उच्च मुआवज़ा और सहमति आवश्यकताओं का प्रावधान करता है।
- पर्यावरण मंज़ूरी: पर्यावरण मंज़ूरी और भूमि अधिग्रहण अधिसूचना प्राप्त करने में विलंब तथा अनिश्चितताएँ, जो परियोजना की समय-सीमा एवं लागत को प्रभावित करती हैं।
- संघर्ष और विरोध: प्रभावित समुदाय पर्यावरणीय, सामाजिक या सांस्कृतिक प्रभावों के आधार पर परियोजनाओं का विरोध करते हैं।
- भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में पारदर्शिता और दायित्व का अभाव: चूँकि कई भूमि मालिक अपने अधिकारों और स्वामित्व के बारे में नहीं जानते हैं तथा कम कीमतों पर अपनी ज़मीन बेचने के लिये मजबूर हैं।
- भूमि अधिग्रहण में लगी सरकारी एजेंसियों को ऐसे कार्यों का प्रदर्शन करते देखा गया है जो कभी-कभी प्राकृतिक न्याय और उचित मुआवज़े के सिद्धांतों से विचलित हो जाते हैं।
- भूमि अधिग्रहण के लिये अपर्याप्त कानूनी ढाँचा और प्रवर्तन तंत्र: भूमि अधिग्रहण को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानून पुराने और जटिल हैं, जो सरकार तथा भूमि मालिकों दोनों के लिये भ्रम व अनिश्चितता उत्पन्न करते हैं। कानूनों में भूमि अधिग्रहण के विभिन्न पहलुओं, जैसे– वित्तीय लागत, पर्यावरणीय मंज़ूरी, विवाद समाधान तंत्र आदि पर भी स्पष्टता का अभाव है।
भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में सुधार के लिये सरकार ने क्या पहल की है?
- भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवज़ा तथा पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 (Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013 (LARR Act of 2013)) ने वर्ष 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम को प्रतिस्थापित कर दिया और मुआवज़े, सहमति सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन तथा प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास एवं पुनर्वास के लिये नए प्रावधान पेश किये।
- ग्रामीण भूस्वामियों को संपत्ति कार्ड प्रदान करने और उन्हें अपनी भूमि को वित्तीय संपत्ति के रूप में उपयोग करने में सक्षम बनाने के लिये वर्ष 2020 में स्वामित्व (SVAMITVA) योजना शुरू की गई थी।
- विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) अधिनियम, 2005 भारत में SEZ की स्थापना को सुविधाजनक बनाने और निर्यात-उन्मुख उद्योगों के विकास के लिये प्रोत्साहन तथा छूट प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
- भूमि राशि पोर्टल सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की एक ई-गवर्नेंस पहल है। पोर्टल का इरादा राष्ट्रीय राजमार्गों के लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है। इसने भूमि अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया को पूरी तरह से डिजिटल और स्वचालित कर दिया है।
- पीएम गति शक्ति योजना
- भारतमाला योजना
आगे की राह
- ऑनलाइन मैपिंग सिस्टम, सार्वजनिक सुनवाई, सामाजिक प्रभाव आकलन, शिकायत निवारण तंत्र आदि जैसी सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाकर भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही में सुधार करना।
- बाज़ार मूल्य, वैकल्पिक स्थल, आजीविका सहायता, सामाजिक सुरक्षा आदि जैसे मानदंडों को अपनाकर प्रभावित लोगों के लिये उचित मुआवज़ा और पुनर्वास सुनिश्चित करना।
- पर्यावरणीय मंज़ूरी, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन, शमन उपाय, निगरानी तंत्र आदि जैसे उपायों को अपनाकर भूमि अधिग्रहण के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करना।
- कानूनों को सरल बनाना, कानूनों को अद्यतन करना, कानूनों में सामंजस्य बनाना, प्रवर्तन तंत्र को मज़बूत करना आदि जैसे उपायों को अपनाकर भूमि अधिग्रहण के लिये कानूनी ढाँचे में सुधार करना।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न1: ‘राष्ट्रीय निवेश और बुनियादी ढाँचा कोष’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (A) केवल 1 उत्तर: D
मेन्स:प्रश्न1. “अधिक तीव्र और समावेशी आर्थिक विकास के लिये बुनियादी ढाँचे में निवेश आवश्यक है।” भारत के अनुभव के आलोक में चर्चा कीजिये।(2021) |
सामाजिक न्याय
राजनीति में अक्षमताओं पर सम्मानजनक संवाद को प्रोत्साहन
प्रिलिम्स के लिये:चुनाव आयोग, दिव्यांग व्यक्ति, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत, सुगम्य भारत अभियान, दीनदयाल दिव्यांग पुनर्वास योजना, दिव्यांग छात्रों के लिये राष्ट्रीय फैलोशिप मेन्स के लिये:भारत में PwD के लिये संवैधानिक और विधायी ढाँचा, भारत में PwD से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
चुनाव आयोग (Election Commission-EC) ने राजनीतिक दलों को दिव्यांगता और लैंगिक संवेदनशील भाषण का उपयोग करने तथा सार्वजनिक भाषणों, अभियानों एवं लेखों में दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपमानजनक संदर्भों का उपयोग करने से बचने के लिये दिशानिर्देश जारी किये हैं।
चुनाव आयोग के प्रमुख दिशानिर्देश क्या हैं?
- अपमानजनक भाषा पर प्रतिबंध: राजनीतिक दलों एवं उनके प्रतिनिधियों से आग्रह किया जाता है कि वे किसी भी सार्वजनिक बयान, भाषण, लेख या अभियान में दिव्यांगता या दिव्यांगता से संबंधित अपमानजनक या आक्रामक संदर्भों का उपयोग करने से बचें और सुनिश्चित करें कि चुनाव अभियान सभी नागरिकों के लिये सुलभ रहें।
- समर्थ भाषा से परहेज़ (Avoidance of Ableist Language): दिव्यांगजनों के प्रति सक्षम या आपत्तिजनक समझे जाने वाले विशिष्ट शब्दों जैसे "गूँगा," "मंदबुद्धि," "अंधा," "बहरा," "लंगड़ा," आदि को ऐसी भाषा के रूप में रेखांकित किया गया है जिससे बचना चाहिये।
- आंतरिक समीक्षा एवं सुधार (Internal Review and Rectification): भाषणों, सोशल मीडिया पोस्ट, विज्ञापनों एवं प्रेस विज्ञप्तियों सहित सभी अभियान सामग्रियों को आपत्तिजनक भाषा के उदाहरणों की पहचान करने और उन्हें सुधारने के लिये राजनीतिक दल के भीतर आंतरिक समीक्षा से गुजरना चाहिये।
- संवेदनशील भाषा के प्रयोग की घोषणा (Declaration of Use of Sensitive Language): राजनीतिक दलों को अपनी वेबसाइटों पर मानवीय समानता, समानता, गरिमा एवं स्वायत्तता का सम्मान करते हुए विकलांगता और लिंग-संवेदनशील भाषा का उपयोग करने की अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करनी चाहिये।
- अधिकार-आधारित शब्दावली को अपनाना: पार्टियों को दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन (CRPD) में उल्लिखित अधिकार-आधारित शब्दावली का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।
- वैधानिक परिणाम: दिशानिर्देशों का कोई भी उल्लंघन दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 92 के प्रावधानों के अंतर्गत आ सकता है।
भारत में दिव्यांग व्यक्तियों की स्थिति क्या है?
- स्थिति: राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के 76वें दौर के अनुसार, भारतीय आबादी का 2.21% हिस्सा विकलांगता से ग्रस्त है।
- विकलांगता की घटनाएँ 10-19 वर्ष के आयु वर्ग में सबसे अधिक हैं, जो शीघ्र हस्तक्षेप और सहायता की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
- भारत में PwD के लिये संवैधानिक और विधायी फ्रेमवर्क:
- संविधान:
- भारत का संविधान मौलिक अधिकारों के माध्यम से सभी व्यक्तियों की समानता, स्वतंत्रता, न्याय एवं गरिमा सुनिश्चित करता है और दिव्यांग व्यक्तियों सहित सभी के लिये एक समावेशी समाज के निर्माण के लिये अनिवार्य आदेश देता है।
- संविधान के अनुच्छेद 41 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता एवं विकास की सीमा के अंतर्गत काम करने, शिक्षा पाने और बेरोज़गारी, बुढ़ापा, बीमारी एवं विकलांगता के मामलों में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करने के लिये प्रभावी प्रावधान करेगा।
- विधान:
- दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD अधिनियम), जिसने दिव्यांग व्यक्तियों (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 का स्थान लिया, भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सबसे व्यापक कानून है।
- PwD के लिये सरकारी नौकरी में आरक्षण 4% है, जबकि सरकारी या सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों में दिव्यांग छात्रों के लिये आरक्षित सीटें 5% है।
- दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD अधिनियम), जिसने दिव्यांग व्यक्तियों (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 का स्थान लिया, भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सबसे व्यापक कानून है।
- अन्य संबंधित पहल:
- संविधान:
- प्रमुख चुनौतियाँ:
- पहुँच क्षमता: कई सार्वजनिक स्थानों, परिवहन प्रणालियों और इमारतों में रैंप, लिफ्ट एवं विकलांग व्यक्तियों के लिये निर्दिष्ट स्थान जैसी उचित पहुँच सुविधाओं का अभाव है, जिससे उनके लिये स्वतंत्र रूप से घूमना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- भारत में केवल लगभग 3% सार्वजनिक भवन ही दिव्यांगों के लिये सुलभ हैं (भारत की जनगणना, 2011)।
- अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा: भारत की जनगणना, 2011 के अनुसार, ग्रामीण भारत में केवल 37% दिव्यांगों के पास स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुँच है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक हालिया रिपोर्ट में पूरे भारत में विकलांगता प्रबंधन में प्रशिक्षित स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की कमी की पहचान की गई है, जिससे विशेष देखभाल तक पहुँच सीमित हो गई है।
- सीमित शैक्षणिक अवसर: दिव्यांगजनों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच एक चुनौती बनी हुई है। विभिन्न शिक्षण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये स्कूलों में प्राय: पर्याप्त सुविधाओं एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी होती है, जिसके परिणामस्वरूप मुख्यधारा की शिक्षा से वंचित होना पड़ता है।
- रोज़गार बाधाएँ: दिव्यांगों को उपयुक्त रोज़गार ढूँढने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भेदभाव, सुलभ कार्यस्थलों की कमी एवं उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये आवास की कमी प्राय: विकलांग लोगों के बीच उच्च बेरोज़गारी दर का कारण बनती है।
- कलंक एवं भेदभाव: भारत में विकलांगता को लेकर अभी भी एक कलंक व्याप्त है साथ ही दिव्यांगों को प्राय: पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है जो समाज में उनके अवसरों और स्वीकार्यता को सीमित करते हैं।
- कानूनी और नीतिगत अंतराल: हालाँकि भारत में दिव्यांगों के अधिकारों की रक्षा के लिये कानून और नीतियाँ मौजूद हैं, लेकिन उनका प्रवर्तन एवं क्रियान्वयन असंगत रहता है। यह अंतर उनके अधिकारों की वास्तविक उपलब्धि और संसाधनों तक पहुँच को प्रभावित करता है।
- पहुँच क्षमता: कई सार्वजनिक स्थानों, परिवहन प्रणालियों और इमारतों में रैंप, लिफ्ट एवं विकलांग व्यक्तियों के लिये निर्दिष्ट स्थान जैसी उचित पहुँच सुविधाओं का अभाव है, जिससे उनके लिये स्वतंत्र रूप से घूमना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
आगे की राह
- सहायक प्रौद्योगिकी की पुनर्कल्पना: सरकार दिव्यांगता के विभिन्न रूपों के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता तथा इंटरनेट ऑफ थिंग्स का उपयोग करके सुलभ व किफायती सहायक प्रौद्योगिकी का एक सुदृढ़ पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिये तकनीकी क्षेत्र के दिग्गजों तथा डिज़ाइन संस्थानों के साथ साझेदारी कर सकती है।
- इसके तहत सरलता से पहुँच के लिये स्व-नेविगेटिंग सार्वजनिक स्थान, अनुकूली यातायात सिग्नल तथा ध्वनि-नियंत्रित इंटरफेस शामिल हो सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त दिव्यांगजनों के लिये उपकरणों को अनुकूलित तथा मरम्मत करने के लिये ओपन-सोर्स हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर विकास को प्रोत्साहन देना।
- शिक्षा एवं कौशल विकास में क्रांतिकारी बदलाव: शिक्षकों के लिये अनिवार्य दिव्यांगता संवेदनशीलता प्रशिक्षण लागू करना तथा इसे शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में एकीकृत करना।
- विविध शिक्षण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये AI-संचालित शिक्षण सहायक, इंटरैक्टिव टूल एवं सुलभ ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म नियोजित करना।
- रोज़गार परिदृश्य में बदलाव: निगमों में PwD अनुकूल बुनियादी ढाँचा अनिवार्य करना तथा उनके कौशल व क्षमताओं के अनुकूल लचीले ऑनलाइन गिग कार्य में PwD की भागीदारी की सुविधा प्रदान करना तथा उन्हें दूरस्थ कार्य विकल्पों हेतु सशक्त बनाना।
- सुलभ उत्पादों तथा सेवाओं की प्रस्तुति करने वाले, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने एवं रोज़गार के अवसर सृजित करने वाले PwD के नेतृत्व वाले स्टार्टअप को प्रोत्साहन देना।
- समावेशी भारत की ओर: दिव्यांगजनों की समझ तथा समावेशिता को बढ़ावा देने के लिये समुदाय-आधारित कार्यशालाओं एवं संवेदीकरण कार्यक्रमों का आयोजन करना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत लाखों विकलांगों का आश्रय है। कानून के तहत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारतीय मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीयकरण
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीयकरण, पूंजी खाता विनिमय, विशेष वोस्ट्रो रुपया खाते (SVRA), भारतीय रुपए में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निपटान, रुपए में बाह्य वाणिज्यिक उधार मेन्स के लिये:भारतीय मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीयकरण, भारत से जुड़े या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले द्विपक्षीय, क्षेत्रीय एवं वैश्विक समूह और समझौते। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, भारत ने संयुक्त अरब अमीरात से खरीदे गए कच्चे तेल के लिये पहली बार रुपए में भुगतान किया है, जिससे भारतीय मुद्रा के अंतर्राष्ट्रीयकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
- जुलाई 2023 में, संयुक्त अरब अमीरात के साथ एक समझौते ने अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी (ADNOC) से दस लाख बैरल कच्चे तेल के लिये इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOC) को रुपए में भुगतान की सुविधा प्रदान की। इसी तरह, कुछ रूसी तेल आयात का निपटान रुपए में किया गया।
- भारत, तेल आयात (85% से अधिक) पर बहुत अधिक निर्भर है, विशेष रूप से इसने यूक्रेन संघर्ष के बाद रूसी तेल विवाद के बीच, अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन किये बिना आपूर्तिकर्त्ताओं में विविधता लाते हुए सबसे अधिक लागत प्रभावी तेल की सोर्सिंग पर केंद्रित रणनीति अपनाया है।
रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण क्या है?
- परिचय:
- रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीमा पार विनिमय में स्थानीय मुद्रा का उपयोग बढ़ाना शामिल है।
- इसमें आयात और निर्यात व्यापार के लिये रुपए को बढ़ावा देना तथा फिर अन्य चालू खाता विनिमय के बाद पूंजी खाता विनिमय में इसका उपयोग करना शामिल है।
- ऐतिहासिक संदर्भ:
- 1950 के दशक में, भारतीय रुपए का व्यापक रूप से संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, बहरीन, ओमान और कतर में वैधानिक निविदा के रूप में उपयोग किया जाता था।
- हालाँकि, वर्ष 1966 तक भारत की मुद्रा के अवमूल्यन के कारण भारतीय रुपए पर निर्भरता कम करने के लिये इन देशों में संप्रभु मुद्राओं की शुरुआत हुई।
- रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लाभ:
- मुद्रा मूल्य की सराहना: इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में रुपए की मांग में सुधार होगा।
- इससे भारत के साथ काम करने वाले व्यावसायों और व्यक्तियों के लिये सुविधा बढ़ सकती है तथा विनिमय लागत कम हो सकती है।
- विनिमय दर की अस्थिरता में कमी: जब किसी मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीयकरण होता है, तो उसकी विनिमय दर स्थिर हो जाती है।
- वैश्विक बाज़ारों में मुद्रा की बढ़ती मांग अस्थिरता को कम करने में सहायता प्रदान कर सकती है, जिससे इसे अंतर्राष्ट्रीय विनिमय के लिये अधिक पूर्वानुमानित और विश्वसनीयता निर्मित की जा सकता है।
- भू-राजनीतिक लाभ: रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण भारत के भू-राजनीतिक प्रभाव को बढ़ा सकता है।
- यह अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंधों को मज़बूत कर सकता है, द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को सुविधाजनक बना सकता है, साथ ही राजनीतिक संबंधों को भी बढ़ावा दे सकता है।
- भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूती: निपटान मुद्राओं में विविधता लाकर, विदेशी मुद्रा के दबाव के विरुद्ध भारत की अर्थव्यवस्था को मज़बूत किया जा सकता है, साथ ही डॉलर की मांग कम की जा सकती है।
- मुद्रा मूल्य की सराहना: इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में रुपए की मांग में सुधार होगा।
- चुनौतियाँ:
- ट्रिफिन विरोधाभास: ट्रिफिन विरोधाभास भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनाए रखने और रुपए की वैश्विक मांग को पूरा करने के बीच संघर्ष के रूप में प्रकट हो सकती है। इन परस्पर विरोधी मांगों को संतुलित करना देश की आर्थिक स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना रुपए को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा निर्माण की प्रक्रिया में एक चुनौती प्रस्तुत करता है।
- यह किसी देश की घरेलू मौद्रिक नीति लक्ष्यों और अंतर्राष्ट्रीय आरक्षित मुद्रा जारीकर्त्ता के रूप में इसकी भूमिका के बीच संघर्ष का वर्णन करता है।
- विनिमय दर में अस्थिरता:
- मुद्रा को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों के लिये खोलने से इसकी विनिमय दर में अस्थिरता बढ़ सकती है, विशेषकर प्रारंभिक चरणों में। उतार-चढ़ाव व्यापार एवं निवेश पर असर डाल सकता है, जिससे आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो सकती है।
- आयात लागत पर प्रभाव: यदि रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण से वैश्विक बाज़ारों में मुद्रा की मांग बढ़ती है, तो इससे अन्य मुद्राओं की तुलना में रुपया मज़बूत हो सकता है। एक मज़बूत रुपया संभावित रूप से चीन और रूस जैसे देशों से आयात की लागत को कम कर सकता है, जिससे व्यापार संतुलन प्रभावित हो सकता है।
- सीमित अंतर्राष्ट्रीय मांग: वैश्विक विदेशी मुद्रा बाज़ार में रुपए की दैनिक औसत हिस्सेदारी केवल 1.6% के आसपास है, जबकि वैश्विक वस्तु व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 2% है।
- परिवर्तनीयता संबंधी चिंता: INR पूरी तरह से परिवर्तनीय नहीं है, जिसका अर्थ है कि पूंजी विनिमय जैसे कुछ उद्देश्यों के लिये इसकी परिवर्तनीयता पर प्रतिबंध हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्त में इसके व्यापक उपयोग को प्रतिबंधित करता है।
- विमुद्रीकरण प्रभाव: वर्ष 2016 की विमुद्रीकरण प्रक्रिया और हाल ही में 2,000 रुपए के नोट को हटाने से रुपए की विश्वसनीयता प्रभावित हुआ है, विशेषरूप भूटान तथा नेपाल जैसे आस-पास के देशों में।
- व्यापार निपटान में चुनौतियाँ: हालाँकि लगभग 18 देशों के साथ रुपए में व्यापार करने का प्रयास किया गया है किंतु विनिमय सीमित ही रहा है।
- इसके अतिरिक्त रुपए में व्यापार करने के लिये रूस के साथ वार्ता प्रगति धीमी रही है तथा मुद्रा मूल्यह्रास संबंधी चिंताओं एवं व्यापारियों के बीच अपर्याप्त जागरूकता के कारण इसमें बाधा आ रही है।
- ट्रिफिन विरोधाभास: ट्रिफिन विरोधाभास भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनाए रखने और रुपए की वैश्विक मांग को पूरा करने के बीच संघर्ष के रूप में प्रकट हो सकती है। इन परस्पर विरोधी मांगों को संतुलित करना देश की आर्थिक स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना रुपए को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा निर्माण की प्रक्रिया में एक चुनौती प्रस्तुत करता है।
- अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में कदम:
- GIFT सिटी में विकास
- एशियाई समाशोधन संघ (ACU):
- एशियाई समाशोधन संघ (Asian Clearing Union- ACU) एक क्षेत्रीय भुगतान व्यवस्था है। यह बहुपक्षीय आधार पर अपने सदस्य देशों के बीच व्यापार लेनदेन के निपटान की सुविधा प्रदान करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1974 में एशिया के दस केंद्रीय बैंकों द्वारा की गई थी। ACU में वर्तमान में 13 सदस्य देश हैं तथा भारत ACU का सदस्य है।
- मार्च 2023 में RBI ने 18 देशों के साथ रुपए के व्यापार निपटान के लिये तंत्र स्थापित किया।
- इन देशों के बैंकों को भारतीय रुपए में भुगतान के निपटान के लिये विशेष रुपी वोस्ट्रो खाते (Special Vostro Rupee Accounts- SVRA) खोलने की अनुमति दी गई है।
- जुलाई 2022 में RBI ने "भारतीय रुपए में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निपटान" पर एक परिपत्र जारी किया।
- RBI ने रुपए में बाह्य वाणिज्यिक उधार (विशेष रूप से मसाला बॉण्ड) को सक्षम किया।
वे कौन-से सुधार हैं जिन्हें भारत रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिये अपना सकता है?
- रुपए को अधिक स्वतंत्र रूप से परिवर्तनीय बनाना:
- वर्ष 2060 तक पूर्ण परिवर्तनीयता के लक्ष्य के साथ वित्तीय निवेश को भारत तथा विदेशों के बीच स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित करना।
- इससे विदेशी निवेशकों को रुपए के सरलता से क्रय तथा विक्रय की सुविधा मिलेगी, जिससे इसकी तरलता बढ़ेगी एवं यह अधिक आकर्षक बन जाएगा।
- तारापोर समिति द्वारा सुझाए गए सुधार:
- सुदृढ़ राजकोषीय प्रबंधन: इसके तहत राजकोषीय घाटे को 3.5% से कम करना, सकल मुद्रास्फीति दर को 3%-5% तक कम करना एवं सकल बैंकिंग गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों को 5% से कम करना का सुझाव दिया गया था।
- व्यक्तिगत प्रेषण के लिये उदारीकृत योजना: विदेशी मुद्रा का आदान-प्रदान वाले व्यक्तियों के लिये आसान लेनदेन की सुविधा हेतु व्यक्तिगत प्रेषण के लिये एक अधिक उदार योजना की शुरुआत।
- कर्मचारी स्टॉक विकल्पों के लिये प्रतिबंधात्मक खंडों को हटाना: कर्मचारियों के स्टॉक विकल्पों को रियायती दरों पर जारी करने से संबंधित प्रतिबंधात्मक खंडों को हटाना, स्टॉक विकल्पों से संबंधित लेनदेन एवं संचालन को सरल बनाने की अनुमति देना।
- विभाग का नाम परिवर्तन एवं पुनर्विन्यास: समिति ने नाम बदलने और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 के कार्यान्वयन को संभालने के लिये ज़िम्मेदार विभाग को विनिमय नियंत्रण विभाग से विदेशी मुद्रा विभाग में पुनर्निर्देशित करने का सुझाव दिया, जिसमें एक दुर्बल तथा अधिक रणनीतिक कार्यबल दृष्टिकोण पर ज़ोर दिया गया।
- गहन बॉन्ड बाज़ार का अनुसरण (Pursue a Deeper Bond Market): विदेशी निवेशकों और भारतीय व्यापार भागीदारों को रुपए में अधिक निवेश विकल्प उपलब्ध कराने से इसका अंतर्राष्ट्रीय उपयोग संभव हो सकेगा।
- निर्यातकों/आयातकों को रुपए में लेनदेन के लिये प्रोत्साहित (Encourage Exporters/Importers for Transactions in Rupee): रुपए के आयात/निर्यात लेनदेन के लिये व्यापार निपटान औपचारिकताओं को अनुकूलित करने से काफी मदद मिलेगी।
- अतिरिक्त मुद्रा विनिमय समझौतों पर हस्ताक्षर:
- श्रीलंका की तरह, भारत को डॉलर जैसी आरक्षित मुद्रा का सहारा लिये बिना, रुपए में व्यापार और निवेश लेनदेन निपटाने की अनुमति देना।
- भारत के पास वर्तमान में किसी भी भुगतान संतुलन के मुद्दे के मामले में समर्थन की बैकस्टॉप लाइन के रूप में जापान के साथ 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक की द्विपक्षीय स्वैप व्यवस्था (BSA) है।
- श्रीलंका की तरह, भारत को डॉलर जैसी आरक्षित मुद्रा का सहारा लिये बिना, रुपए में व्यापार और निवेश लेनदेन निपटाने की अनुमति देना।
- मुद्रा प्रबंधन स्थिरता सुनिश्चित करना और विनिमय दर व्यवस्था में सुधार करना:
- अवमूल्यन या विमुद्रीकरण जैसे अचानक या बड़े बदलावों से बचना जो आत्मविश्वास को प्रभावित कर सकते हैं।
- नोटों और सिक्कों का लगातार तथा पूर्वानुमानित जारी/पुनर्प्राप्ति सुनिश्चित करना।
निष्कर्ष:
राजकोषीय घाटे, मुद्रास्फीति दर और बैंकिंग गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों को कम करने सहित तारापोर समिति की सिफारिशों (1997 और 2006 में) को रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में प्राथमिक कदम के रूप में अपनाया जाना चाहिये। साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में रुपए को आधिकारिक मुद्रा बनाने की वकालत करने से इसकी रूपरेखा (profile) और स्वीकार्यता बढ़ेगी।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. रुपए की परिवर्तनीयता का तात्पर्य (2015) (A) रुपए के नोटों को सोने में बदलने में सक्षम होना उत्तर: C प्रश्न 2. भुगतान संतुलन के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सी मदों से चालू खाता बनता/गठित होता है? (2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (A) केवल 1 उत्तर: C |