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सामाजिक न्याय

दिव्यांग व्यक्तियों का समावेशन और सशक्तीकरण

  • 18 Jul 2022
  • 12 min read

यह एडिटोरियल 15/07/2020 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The great omission in the draft disability policy” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के समावेशन और सशक्तीकरण के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

निःशक्तता दिव्यांगजन और उन अभिवृत्तिक एवं परिवेशीय अवरोधों के बीच की अंतःक्रिया से उत्पन्न होती है जो दूसरों के साथ समान आधार पर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा डालती है।

  • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर दिव्यांगजनों की संख्या कुल जनसंख्या का 2.21% थी, जिसमें से 7.62% दिव्यांगजन 0-6 वर्ष आयु वर्ग के हैं।
  • भारत ने दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय पर हस्ताक्षर किया था और फिर 1 अक्टूबर, 2007 को इसकी पुष्टि भी की। एक नए दिव्यांगता कानून (दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016) के अधिनियमन ने दिव्यांगता की संख्या को 7 स्थितियों से बढ़ाकर 21 कर दिया।
  • निःशक्तताओं पर ध्यान व्यक्ति से हटकर समाज की ओर स्थानांतरित हो गया है, अर्थात यह निःशक्तता के चिकित्सा मॉडल से निःशक्तता के सामाजिक या मानवाधिकार मॉडल में स्थानांतरित हो गया है।

निःशक्तता के विभिन्न मॉडल कौन-से हैं?

  • चिकित्सा मॉडल (Medical Model):
    • चिकित्सा मॉडल में कुछ शारीरिक, बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक और मानसिक निःशक्तताओं से ग्रस्त व्यक्तियों को दिव्यांग माना जाता है।
      • इसके अनुसार निःशक्तता व्यक्ति में निहित होती है क्योंकि इसे निरुग्नता, उपचार और पुनर्वास के माध्यम से परिवेश के साथ समायोजन के बोझ सहित गतिविधि के प्रतिबंधों के समान देखा जाता है।
  • सामाजिक मॉडल (Social Model):
    • सामाजिक मॉडल उस समाज पर ध्यान केंद्रित करता है जो दिव्यांगजनों के व्यवहार पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है।
      • इसके अंतर्गत निःशक्तता व्यक्तियों में नहीं, बल्कि व्यक्तियों और समाज के बीच होने वाली अंतःक्रिया में होती है।

भारत में दिव्यांगजनों के लिये संवैधानिक ढाँचा

  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के अंतर्गत अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।
  • संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में ‘दिव्यांगजनों और बेरोज़गारों को राहत’ का विषय निर्दिष्ट है।

भारत में दिव्यांगजनों से संबंधित प्रमुख समस्याएँ

  • भेदभाव:
    • दिव्यांगजनों से संबद्ध ‘कलंक’ के आधार पर निरंतर भेदभाव के साथ ही उनके अधिकारों के बारे में समझ की कमी उनके लिये अपने मूल्यवान शक्तता या कार्यकरण (Functioning) की प्राप्ति करना अत्यंत कठिन बना देती है।
      • दिव्यांग महिलाएँ और बालिकाएँ यौन और लिंग-आधारित हिंसा के अन्य रूपों का अनुभव करने का अधिक जोखिम रखती हैं।
  • स्वास्थ्य:
    • कई प्रकार की निःशक्तता निवारण-योग्य होती है। इनमें जन्म के दौरान चिकित्सा संबंधी समस्याएँ, गर्भवती स्त्री से संबद्ध समस्याएँ, कुपोषण के साथ ही दुर्घटनाओं और आघातों से उत्पन्न होने वाली निःशक्तताएँ शामिल हैं।
      • लेकिन जागरूकता की, देखभाल की और अच्छी एवं सुलभ चिकित्सा सुविधाओं की व्यापक कमी की स्थिति है।
  • शिक्षा और रोज़गार:
    • दिव्यांगजनों के लिये विशेष विद्यालयों, विद्यालयों तक पहुँच, प्रशिक्षित शिक्षकों और शैक्षिक सामग्री की उपलब्धता की कमी है।
    • भले ही कई दिव्यांग वयस्क उत्पादक कार्य करने में सक्षम होते हैं, दिव्यांग वयस्कों की रोज़गार दर सामान्य आबादी की तुलना में बहुत कम है।
  • राजनीतिक भागीदारी:
    • देश में राजनीतिक क्षेत्र से दिव्यांगजनों का बहिर्वेशन राजनीतिक प्रक्रिया के सभी स्तरों पर और विभिन्न तरीकों से घटित होता है, जैसे:
      • निर्वाचन क्षेत्रों में दिव्यांगजनों की सही संख्या पर उपलब्ध समग्र डेटा का अभाव।
      • मतदान प्रक्रिया की दुर्गमता (जैसे ब्रेल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का व्यापक उपयोग नहीं किया जाता)।
      • दलगत राजनीति में भागीदारी के मार्ग में बाधाएँ।
    • भारत में राजनीतिक दल दिव्यांगजनों को किसी बड़े या मज़बूत मतदाता वर्ग के रूप में नहीं देखते हैं कि उनकी आवश्यकताओं को विशेष रूप से संबोधित करें।
  • प्रवर्तन की शिथिलता:
    • दिव्यांगजनों की स्थिति में सुधार के लिये सरकार ने कुछ सराहनीय पहलें की है।
      • लेकिन भारत सरकार द्वारा ‘सुगम्य भारत अभियान’ (Accessible India Campaign) के तहत सभी मंत्रालयों को अपने भवनों को दिव्यांगजनों के अनुकूल बनाने के निर्देश के बावजूद भारत में अधिकांश भवन दिव्यांगजनों के अनुकूल नहीं हैं।
      • इसी प्रकार, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (Rights of Persons with Disabilities Act) ने सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में दिव्यांगजनों के लिये आरक्षण का एक कोटा प्रदान किया है, लेकिन इनमें से अधिकांश पद खाली हैं।

आगे की राह

  • निवारक कार्रवाई:
    • निवारक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को सशक्त बनाने की आवश्यकता है और आरंभिक बाल्यावस्था में सभी बच्चों की स्क्रीनिंग या परीक्षण किया जाना चाहिये।
    • केरल ने पहले ही एक आरंभिक निवारक कार्यक्रम शुरू कर दिया है।
      • व्यापक नवजात स्क्रीनिंग (Comprehensive Newborn Screening- CNS) कार्यक्रम शिशुओं में कमियों की आरंभ में ही पहचान कर लेने और इस प्रकार राज्य पर निःशक्तता का बोझ कम करने का लक्ष्य रखता है।
  • समुदाय-आधारित पुनर्वास (Community-Based Rehabilitation- CBR) दृष्टिकोण:
    • यह सुनिश्चित करने के लिये CBR दृष्टिकोण की आवश्यकता है कि दिव्यांगजन अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं का अधिकतम उपयोग कर सकें, नियमित सेवाओं एवं अवसरों तक उनकी पहुँच हो और अपने समुदायों के भीतर वे पूर्णतः एकीकृत हो सकें।
  • निःशक्तता के संबंध में समझ और जन जागरूकता बढ़ाना:
    • सरकारों, स्वयंसेवी संगठनों और व्यावसायिक संघों को ऐसे सामाजिक अभियान चलाने पर विचार करना चाहिये जो दिव्यांगजनों से संबंधित कलंकित मुद्दों पर समाज के दृष्टिकोण में बदलाव ला सकें।
      • इस संदर्भ में मुख्यधारा मीडिया ने सही कदम आगे बढ़ाया है जहाँ ‘तारे ज़मीन पर’ और ‘बर्फ़ी’ जैसी फिल्मों में दिव्यांगजनों का सकारात्मक प्रतिनिधित्व किया गया है।
      • ‘स्पेशल नीड’ लेबल वाले विशेष विद्यालय कलंक या नकारात्मक संकेतार्थ उत्पन्न कर सकते हैं। यहाँ छात्रों के पास केवल विशेष आवश्यकता वाले साथियों से ही संवाद करने और सीखने का अवसर होगा।
        • वे प्रभावों की एक विस्तृत शृंखला के संपर्क में नहीं आ सकेंगे।
        • दिव्यांगजनों के बीच समावेशिता को बढ़ावा देने के लिये विशेष विद्यालयों और बाहरी दुनिया के बीच संक्रमण का एक उचित माध्यम होना चाहिये।
  • राज्यों के साथ सहयोग:
    • गर्भवती माताओं की देखभाल के बारे में जागरूकता और ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छी एवं सुलभ चिकित्सा सुविधाएँ निःशक्तता उत्पन्न होने की समस्या को संबोधित कर सकने के महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं।
      • इन दोनों ही विषयों में कार्रवाई कर सकने हेतु स्वास्थ्य क्षेत्र में वित्तीय विकेंद्रीकरण के लिये केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को सक्रिय रूप से समर्थन दिया जाना चाहिये क्योंकि स्वास्थ्य संविधान में ‘राज्य सूची’ के अंतर्गत शामिल है।

दिव्यांगजनों के सशक्तीकरण के लिये हाल की कुछ प्रमुख पहलें

  • भारत में:
  • विश्व स्तर पर:
    • एशिया और प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांगजनों के लिये ‘अधिकारों को साकार करने’ हेतु इंचियोन कार्यनीति (Incheon Strategy to “Make the Right Real” for Persons with Disabilities in Asia and the Pacific)।
    • दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (United Nations Convention on Rights of Persons with Disability)।
    • अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस (International Day of Persons with Disabilities)
    • दिव्यांगजनों के लिये संयुक्त राष्ट्र सिद्धांत (UN Principles for People with Disabilities)

अभ्यास प्रश्न: दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम भारत में दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तिकरण को कहाँ तक आगे बढ़ा सकेगा? चर्चा कीजिये।

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