डेली न्यूज़ (30 Nov, 2021)



राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक : नीति आयोग

प्रिलिम्स के लिये:

नीति आयोग, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक, NFHS-5

मेन्स के लिये:

नीति आयोग का 'बहुआयामी गरीबी सूचकांक : महत्त्व एवं कार्यप्रणाली

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) जारी किया है।

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प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • MPI गरीबी को उसके कई आयामों में मापने का प्रयास करता है और वास्तव में प्रति व्यक्ति खपत व्यय के आधार पर मौज़ूदा गरीबी के आँकड़े प्रदान करता है। 
    • वैश्विक MPI 2021 के अनुसार, 109 देशों में भारत की रैंक 66वीं है। राष्ट्रीय  MPI परियोजना का उद्देश्य वैश्विक MPI रैंकिंग में भारत की स्थिति में सुधार के लक्ष्य के साथ व्यापक सुधार संबंधी कार्य योजनाओं को तैयार करने के लिये विश्व स्तर पर गठबंधन के साथ-साथ भारत के लिये एक व्यवस्थित एमपीआई सुनिश्चित करना है।
    • इसके तीन समान रूप से भारित आयाम हैं - स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर।
      • इन तीन आयामों को 12 संकेतकों द्वारा दर्शाया जाता है, जैसे- पोषण, स्कूल में नामांकन, स्कूली शिक्षा, पेयजल, स्वच्छता, आवास, बैंक खाते आदि।
  • कार्यप्रणाली और डेटा:
    • राष्ट्रीय एमपीआई के मापन हेतु संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) और ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव (OPHI) द्वारा विकसित विश्व स्तर पर स्वीकृत एवं मज़बूत कार्यप्रणाली का उपयोग किया जाता है।
    • राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक की बेसलाइन रिपोर्ट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) पर आधारित है, जिसे वर्ष 2015-16 में लागू किया गया था। 
      • NFHS-4 के डेटा का उपयोग केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के बड़े पैमाने पर शुरू होने से पहले स्थिति के मापन हेतु आधारभूत बहुआयामी गरीबी पर एक उपयोगी स्रोत के रूप में कार्य करता है।
      • NFHS-4 का उद्देश्य आवास, पेयजल, स्वच्छता, बिजली, खाना पकाने के ईंधन, वित्तीय समावेशन, स्कूल में नामांकन, पोषण, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य आदि में सुधार के उपाय करना है। 
      • हालाँकि यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि NFHS-5 डेटा फैक्टशीट से प्राप्त प्रारंभिक अवलोकन उन स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन, स्वच्छता और बिजली तक पहुँच में सुधार का सुझाव देती है, जो कि अभाव का संकेत देते हैं।
  • सूचकांक के निष्कर्ष:
    • गरीबी का स्तर:
      • बिहार राज्य की आबादी में गरीबी का अनुपात सबसे अधिक है, इसके बाद झारखंड और उत्तर प्रदेश का स्थान है जहाँ बहुआयामी गरीबी का स्तर पाया जाता है।
      • केरल राज्य की जनसंख्या में सबसे कम गरीबी स्तर दर्ज किया गया, इसके बाद पुद्दुचेरी, लक्षद्वीप, गोवा और सिक्किम का स्थान है।
    • कुपोषित लोग:
      • बिहार में कुपोषित लोगों की संख्या सबसे अधिक है, इसके बाद झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ का स्थान है।

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स्रोत: द हिंदू 


औद्योगिक समूह और बैंकिंग

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय रिज़र्व बैंक, ऑन-टैप लाइसेंसिंग व्यवस्था, गैर-निष्पादित आस्तियांँ 

मेन्स के लिये:

औद्योगिक समूहों को बेंकिंग लाइसेंस देने के लाभ एवं चिंताएंँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने अपनी आंतरिक कार्य समिति (IWG) की सिफारिशों को रोक दिया है, जिसमें कहा गया है कि बड़े कॉर्पोरेट और औद्योगिक घरानों को बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 में संशोधन के बाद बैंकों को विस्तार करने की अनुमति दी जा सकती है।

  • RBI ने निजी बैंकों के स्वामित्व पर IWG की 33 में से 21 सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है, लेकिन बड़े व्यापारिक समूहों को बैंकिंग लाइसेंस देने के संबंध में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

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प्रमुख बिंदु 

  • औद्योगिक समूह:
    • औद्योगिक समूह (Corporate Houses- CH) पांँच दशक पहले बैंकिंग क्षेत्र में तब तक सक्रिय थे जब तक कि साठ के दशक के अंत में उधार देने और जमाकर्त्ताओं के पैसे के दुरुपयोग के आरोपों के बीच प्रवर्तित बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं कर दिया गया। 
    • निजी बैंकों को लाइसेंस देने के पहले दौर के साथ बैंकिंग क्षेत्र को सीएच पोस्ट उदारीकरण (CHs Post Liberalisation), 1991 के लिये फिर से खोल दिया गया, यह कार्य वर्ष 1993 में किया गया था।
    • निजी क्षेत्र के बैंकों को लाइसेंस देने का काम वर्ष 2003-04 और वर्ष 2013-14 में भी किया गया जिसकी  परिणति वर्ष 2016 में यूनिवर्सल बैंकों की ऑन-टैप लाइसेंसिंग व्यवस्था के साथ हुई। 
      • हालांँकि वर्ष 2013-14 में कुछ प्रमुख औद्योगिक समूहों पर विचार नहीं किया गया था।
  • निगमों को अपना बैंक रखने से लाभ:
    • पूंजी अंतर को कम करना:
      • वर्तमान में सरकार करदात्ताओं की जेब से पैसा निकाल कर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को फंडिंग करती रहती है।
      • इसलिये बड़े कॉर्पोरेट्स को बैंकिंग क्षेत्र में अनुमति देकर पूंजी की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है।
    • वित्तीय समावेशन:
      • आज भी देश में एक बड़ी आबादी की बैंकिंग तक पहुंँच नहीं है, औद्योगिक समूहों/कॉर्पोरेट्स के प्रवेश का अर्थ होगा अधिक बैंकिंग शाखाओं को खोलना तथा अधिक लोगों तक बैंकिंग की पहुँच सुनिश्चित करना।
    • बेहतर प्रतिस्पर्द्धा: 
      • बैंकों का निजीकरण भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में लंबे समय से प्रस्तावित सुधार रहा है। बैंकिंग क्षेत्र में कॉर्पोरेट्स के प्रवेश की अनुमति से सार्वजनिक बैंकों पर अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करने और अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनने के लिये दबाव बढ़ेगा। 
  • औद्योगिक समूहों को बैंकिंग लाइसेंस देने से चिंताएंँ :
    • धन जमा करने से संबंधित नैतिक खतरा:
      • एक ऐसा बैंक जिसका औद्योगिक समूहों से कोई संबंध न हो, वह बिना हितों के टकराव के प्रभावी रूप से ऋण आवेदनों की समीक्षा कर सकता है और इस प्रकार अर्थव्यवस्था के समग्र विकास में तेज़ी लाने के लिये धन का कुशल आवंटन सुनिश्चित किया जा सकता है।    
        • दूसरी ओर औद्योगिक समूहों के स्वामित्व वाले बैंकों पर ऋण जारी करने के दौरान अधिक योग्य संस्थानों/कंपनियों की बजाय लगातार समूह की ही अन्य कंपनियों को प्राथमिकता देने का दबाव बना रहेगा। इसे ‘कनेक्टेड लेंडिंग’ (Connecting Lending) के रूप में देखा जा सकता है।   
      • बड़े व्यापारिक समूह पहले से ही बैंकिंग प्रणाली में गैर-निष्पादित आस्तियों (Non-Performing Assets- NPAs) के एक बड़े हिस्से के लिये बैंक के प्रवर्तक बने बिना भी उसका प्रयोग करते हैं।
      • नैतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह एक प्रभावी वित्तीय मध्यस्थ के रूप में बैंक की भूमिका को प्रभावित करेगा और नैतिक खतरा या हितों के टकराव की स्थिति पैदा करेगा।    
  • सर्कुलर लेंडिंग और विनियमन की चुनौतियाँ:
    • यहाँ सर्कुलर लेंडिंग से आशय उस स्थिति से हैं जहाँ कोई कॉर्पोरेट बैंक ‘X’ किसी ऐसे औद्योगिक समूह की परियोजना की फंडिंग कर रहा है जिसके पास कॉर्पोरेट बैंक ‘Y’ का स्वामित्व है, इसके साथ ही कॉर्पोरेट बैंक ‘Y’ किसी ऐसे औद्योगिक समूह की परियोजना की फंडिंग कर रहा है जिसके पास कॉर्पोरेट बैंक ‘Z’ का स्वामित्व है और अंत में कॉर्पोरेट बैंक ‘Z’ किसी ऐसे औद्योगिक समूह की परियोजना की फंडिंग कर रहा है जिसके पास कॉर्पोरेट बैंक ‘X’ का स्वामित्व है। 
    • ऐसी स्थिति में उपलब्ध कानूनी प्रावधानों और शेल कंपनियों के प्रसार के बीच वास्तविक समय में ऐसे ऋणों की निगरानी का कार्य बहुत ही कठिन होगा।    
  • असमानता और धन का संकेंद्रण: 
    • औद्योगिक समूहों को बैंकों का स्वामित्व प्राप्त होने से उन बड़े औद्योगिक समूहों की शक्ति में और वृद्धि होगी, जिनका पहले से ही अर्थव्यवस्था के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों (जैसे- दूरसंचार, संगठित खुदरा व्यापार, विमानन, सॉफ्टवेयर और ई-कॉमर्स आदि) में वर्चस्व रहा है।
    • इससे धन के संकेंद्रण में और तेज़ी आएगी तथा असमानता को बढ़ावा मिलेगा।
  • पूर्व के नियमों के विपरीत: 
    • पिछले कुछ वर्षों में भारतीय बैंकिंग क्षेत्र को कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिसे देखते हुए वर्ष 2016 में RBI द्वारा किसी एक ही कंपनी को ऋण देने की सीमा निर्धारित करने के लिये नए दिशा-निर्देश जारी किये गए थे।
    •  इस निर्णय के पीछे तर्क यह था कि यदि कोई बैंक एक ही कंपनी को बहुत अधिक ऋण देता है तो संबंधित कंपनी के असफल होने पर बैंक के आर्थिक जोखिम की संभावना बढ़ जाती है।   
    • ऐसे में बैंकिंग क्षेत्र में बड़े औद्योगिक समूहों के प्रवेश की अनुमति की सिफारिश वर्ष 2016 के उपरोक्त निर्णय के विपरीत होगी।

आगे की राह

  • ऐसे में कॉर्पोरेट्स के हाथों में बहुत अधिक आर्थिक शक्ति देने की बजाय काफी समय से लंबित बैंकिंग सुधारों को लागू करने के साथ ही RBI की कार्यात्मक स्वायत्तता को मज़बूत करने के प्रयासों पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • आंतरिक और बाह्य नियंत्रणों में हालिया विफलताओं जैसे- पीएनबी के मामले में एक खतरनाक धोखाधड़ी, बैंक और एनबीएफसी जैसे- लक्ष्मी विलास बैंक, यस बैंक आदि की विफलताएँ, जहाँ सभी हितधारकों ने अपना पैसा गँवा दिया और विश्वसनीयता ने पर्यवेक्षी तंत्र और कॉर्पोरेट प्रशासन के बहुत उच्च स्तर के साथ नए नियमों की आवश्यकता को जन्म दिया है, के संदर्भ में मज़बूत सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) सक्षम मंच है।
  • जहाँ औद्योगिक समूह एक प्रमोटर है, बैंक के पास रखे गए धन के उपयोग और संबंधित पार्टी से लेन-देन की निगरानी हेतु सख्त नियम आवश्यक होंगे।
  • मानदंडों को व्यवस्थित, उचित और आसान बनाने की ज़रूरत है तथा आम नागरिकों को इस प्रक्रिया में लाभार्थी बनना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


‘ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो इफेक्ट’ स्कीम

प्रिलिम्स के लिये: 

‘ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो इफेक्ट’ स्कीम, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम

मेन्स के लिये:

योजना का महत्त्व और ‘सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम’ का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल के आँकड़ों के अनुसार, ‘ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो इफेक्ट स्कीम’ (ZED) के सिद्धांत को अपनाने के इरादे से 23,948 सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) ने पंजीकरण कराया था।

प्रमुख बिंदु

  • योजना के विषय में:
    • सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में शुरू की गई यह योजना एक एकीकृत और व्यापक प्रमाणन प्रणाली है।
    • यह योजना उत्पादों और प्रक्रियाओं दोनों में उत्पादकता, गुणवत्ता, प्रदूषण शमन, ऊर्जा दक्षता, वित्तीय स्थिति, मानव संसाधन तथा डिज़ाइन एवं बौद्धिक संपदा अधिकार सहित तकनीकी रूप से सक्षम बनाने हेतु उत्तरदायी है।
    • इसका मिशन ‘ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो प्रभाव’ के सिद्धांतों के आधार पर भारत में ‘ZED’ संस्कृति को विकसित और कार्यान्वित करना है।
    • ज़ीरो डिफेक्ट
      • जीरो डिफेक्ट अवधारणा ग्राहक केंद्रित है।
      • शून्य गैर-अनुरूपता या गैर-अनुपालन
      • शून्य अपशिष्ट
    • ज़ीरो इफेक्ट 
      • शून्य वायु प्रदूषण, तरल निर्वहन, ठोस अपशिष्ट
      • प्राकृतिक संसाधनों का शून्य अपव्यय
  • ZED प्रमाणन\रेटिंग:
    • रेटिंग प्रत्येक पैरामीटर पर प्राप्त अंकों का भारित औसत है।
    • सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय का मूल्यांकन परिचालन स्तर के संकेतकों एवं संगठनात्मक स्तर के संकेतकों हेतु परिभाषित परिणाम मापदंडों पर किया जाएगा।
    • मूल्यांकन के आधार पर MSME को ब्रोंज़-सिल्वर-गोल्ड-डायमंड-प्लैटिनम उद्यमों के रूप में रैंक प्रदान की जाएगी।
    • ZED रेटिंग के लिये 50 पैरामीटर हैं और ZED मैच्योरिटी असेसमेंट मॉडल के तहत ZED डिफेंस रेटिंग के लिये अतिरिक्त 25 पैरामीटर हैं।
  • योजना का उद्देश्य
    • सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम में ‘शून्य दोष निर्माण’ के लिये एक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना।
    • गुणवत्तापूर्ण उपकरणों/प्रणालियों के अनुकूलन और ऊर्जा दक्ष विनिर्माण को बढ़ावा देना। गुणवत्तापूर्ण उत्पादों के निर्माण के लिये सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम को सक्षम बनाना।
    • उत्पादों और प्रक्रियाओं में गुणवत्ता मानकों को लगातार उन्नत करने के लिये एमएसएमई को प्रोत्साहित करना।
    • ZED निर्माण और प्रमाणन के क्षेत्र में पेशेवरों का विकास करना।
    • 'मेक इन इंडिया' अभियान का समर्थन करना।
  • योजना की कार्यान्वयन एजेंसी:
    • ZED के कार्यान्वयन के लिये भारतीय गुणवत्ता परिषद (QCI) को राष्ट्रीय निगरानी और कार्यान्वयन इकाई (NMIU) के रूप में नियुक्त किया गया है।
      • भारतीय गुणवत्ता परिषद (क्यूसीआई) एक गैर-लाभकारी संगठन है जो सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत पंजीकृत है।
  • एमएसएमई क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिये अन्य पहलें:
    • प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम (PMEGP)
    • पारंपरिक उद्योगों के उत्थान के लिये निधि की योजना (SFURTI)
    • नवाचार, ग्रामीण उद्योग और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये एक योजना (एस्पायर)
    • एमएसएमई को वृद्धिशील ऋण के लिये ब्याज सबवेंशन योजना
    • सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिये ऋण गारंटी योजना
    • चैंपियंस पोर्टल

एमएसएमई और भारतीय अर्थव्यवस्था

  • सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगभग 30 प्रतिशत का योगदान करते हैं।
  • निर्यात के संदर्भ में वे आपूर्ति शृंखला का एक अभिन्न अंग हैं और कुल निर्यात में लगभग 48 प्रतिशत का योगदान देते हैं।
  • इसके अलावा MSMEs रोज़गार सृजन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और देश भर में लगभग 110 मिलियन लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं।
  • विदित हो कि MSMEs ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भी जुड़े हुए हैं और लगभग आधे से अधिक MSMEs ग्रामीण भारत में कार्यरत हैं।

MSME

स्रोत: पीआईबी


गेरीमैंडरिंग और अमेरिकी लोकतंत्र

प्रिलिम्स के लिये:

गेरीमैंडरिंग, पुनर्वितरण के पीछे का सिद्धांत, परिसीमन आयोग 

मेन्स के लिये:

अमेरिकी लोकतंत्र में गेरीमैंडरिंग  का अभ्यास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अमेरिकी जनसंख्या के 2020 की जनगणना के परिणाम प्रस्तुत किये गए थे। यहाँ लगभग हर दशक में अमेरिकी कॉन्ग्रेस और राज्यों के विधायी ज़िलों में ‘गेरीमैंडरिंग ’ (अनुचित लाभ की नियत से निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण) की प्रक्रिया अपनाई गई है।

  • गेरीमैंडरिंग  या पुनर्वितरण चुनावी सीमाओं को फिर से परिभाषित करने की प्रक्रिया है। हालाँकि अमेरिका में लोकतंत्र को कमज़ोर करने के लिये इस अभ्यास की आलोचना की गई है।

Gerrymandering

प्रमुख बिंदु

  • पृष्ठभूमि: गेरीमैंडरिंग  शब्द ‘एलब्रिज गेरी मैसाचुसेट्स’ प्रशासन के नाम से लिया गया है, जिसके प्रशासन ने वर्ष 1812 में नए राज्य सीनेटरियल ज़िलों को परिभाषित करते हुए एक कानून बनाया था।
  • अंतर्निहित सिद्धांत: पुनर्वितरण के पीछे का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि सार्वजनिक अधिकारियों का चुनाव जनसंख्या के भौगोलिक वितरण में परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए वास्तविक लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के आदर्श का प्रतीक है।
  • लोकतंत्र को कम आँकना: किसी भी प्रकार की गैर-मौजूदगी के लिये एक बुनियादी आपत्ति यह है कि यह चुनावी विभाजन के दो सिद्धांतों का उल्लंघन करती है- निर्वाचन क्षेत्रों के आकार की कॉम्पैक्टनेस और समानता।
  • अमेरिकी लोकतंत्र के साथ मुद्दा: अमेरिका में एक विशिष्ट दीर्घकालिक जनसांख्यिकीय प्रवृत्ति है जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक अपेक्षाकृत शहरी क्षेत्रों से संबंधित हैं और रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं।
    • हालाँकि अमेरिका में शहरी इलाकों में रहने वाले लोगों का घनत्व ग्रामीण इलाकों से ज़्यादा है।
    • इस परिदृश्य में रिपब्लिकन पार्टी ने ग्रामीण मतदाताओं की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिये चुनावी ज़िलों में गेरीमैंडर व्यवस्था लागू की है।
    • इसका आशय एक राजनीतिक दल को अपने प्रतिद्वंद्वियों पर अनुचित लाभ लेना या जातीय, भाषायी अल्पसंख्यक समूहों के सदस्यों की मतदान शक्ति को कमज़ोर करना है।

भारत के साथ तुलना:

  • परिसीमन आयोग: भारत में राजनीतिक पुनर्वितरण को भारत के परिसीमन आयोग द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
    • परिसीमन जनसंख्या में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करने के लिये लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमाओं के फिर से निर्धारण का कार्य है। इस प्रक्रिया में किसी राज्य को आवंटित सीटों की संख्या में भी बदलाव हो सकता है।
  • संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम लागू करती है और केंद्र सरकार द्वारा परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है।
    • अनुच्छेद 170 के तहत राज्यों को भी प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम के अनुसार क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।
  • अंतर्निहित सिद्धांत: जनसंख्या के समान वर्गों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
    • भौगोलिक क्षेत्रों का उचित विभाजन ताकि चुनाव में एक राजनीतिक दल को अनुचित लाभ प्राप्त न हो।
    • ‘एक वोट एक मूल्य’ के सिद्धांत का पालन करना।
  • अब तक के परिसीमन आयोग: वर्ष 1952, वर्ष 1962, वर्ष 1972 और वर्ष 2002 के अधिनियमों के तहत चार बार परिसीमन आयोगों का गठन किया गया है।
    • पहला परिसीमन अभ्यास राष्ट्रपति द्वारा (चुनाव आयोग की मदद से) वर्ष 1950-51 में किया गया था।
    • वर्ष 1981 और वर्ष 1991 की जनगणना के बाद कोई परिसीमन नहीं हुआ।
    • वर्ष 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम ने वर्ष 1971 के स्तर पर वर्ष 2000 तक राज्यों को लोकसभा में सीटों के आवंटन और प्रत्येक राज्य के क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन को निर्धारित कर दिया।
    • इसके अलावा वर्ष 2001 के 84वें संशोधन अधिनियम ने वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर सीटों की कुल संख्या को प्रभावित किये बिना इस प्रतिबंध को और 25 वर्षों (यानी वर्ष 2026 तक) के लिये बढ़ा दिया।
      • वर्ष 2001 के 84वें संशोधन अधिनियम ने सरकार को वर्ष 1991 की जनगणना के जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर राज्यों में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के पुन: समायोजन और युक्तिकरण का अधिकार दिया।
    • इसके पश्चात् वर्ष 2003 के 87वें संशोधन अधिनियम ने वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रावधान किया, न कि 1991 की जनगणना के आधार पर।
      • इस प्रकार वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में परिसीमन की वर्तमान स्थिति 2026 तक स्थिर है।

परिसीमन आयोग:

  • परिचय:
    • परिसीमन आयोग का गठन भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है और यह भारतीय निर्वाचन आयोग के सहयोग से काम करता है।
    • भारत में परिसीमन आयोग एक उच्च निकाय है, जिसके आदेश संसद के कानून के समान होते हैं और इसे किसी भी न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।
  • संरचना:
    • सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश
    • मुख्य चुनाव आयुक्त
    • संबंधित राज्य चुनाव आयुक्त।
  • निर्णय:
    • आयोग के सदस्यों के बीच मतभेद की स्थिति में बहुमत की राय मान्य होती है।
  • कार्य:
    • सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या को लगभग समान बनाने हेतु निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या एवं सीमाओं का निर्धारण करना।
    • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित सीटों की पहचान करना, जहाँ उनकी जनसंख्या अपेक्षाकृत अधिक हो।

स्रोत: द हिंदू


इंडिया यंग वाटर प्रोफेशनल प्रोग्राम

प्रिलिम्स के लिये:

इंडिया यंग वाटर प्रोफेशनल प्रोग्राम, राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना, जल जीवन मिशन

मेन्स के लिये:

इंडिया यंग वाटर प्रोफेशनल प्रोग्राम : उद्देश्य एवं महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा इंडिया यंग वाटर प्रोफेशनल प्रोग्राम (India Young Water Professional Programme) के पहले संस्करण की शुरुआत की गई।

  • यह कार्यक्रम ऑस्ट्रेलिया-भारत जल संबंधों में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य भविष्य का जल नेतृत्वकर्त्ता तैयार करना है।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • यह कार्यक्रम राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के तहत शुरू किया गया है। इसे ऑस्ट्रेलिया-इंडिया वाटर सेंटर (ऑस्ट्रेलियाई और भारतीय विश्वविद्यालयों का एक संघ) द्वारा कार्यान्वित किया जाएगा।
    • यह एंगेज़्ड ट्रेनिंग एंड लर्निंग मॉडल (Engaged Training and Learning Model) पर केंद्रित है। कार्यक्रम का लक्ष्य होगा 70-20-10 फ्रेमवर्क के माध्यम से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना, जिसमें कहा गया है कि सीखने के लिये तीन प्रकार के अनुभव की आवश्यकता होती है:
      • एक्सपीरिएंस 70% (नौकरी के लिये सीखना और विकास करना)
      • एक्सपोज़र 20% (दूसरों के माध्यम से सीखना और विकास करना)
      • एजुकेशन 10% (औपचारिक प्रशिक्षण के माध्यम से सीखना और विकास करना)
    • यह लैंगिक समानता और विविधता पर भी ध्यान केंद्रित करता है, क्योंकि स्थायी जल प्रबंधन का लाभ केवल समाज के सभी सदस्यों के विचारों और कौशल से प्राप्त हो सकता है।
    • यह परिणाम-संचालित है और जब तक ये कार्यक्रम पूर्ण हो जाएंगे तब तक प्रतिभागियों के पास कुछ उपकरण और तकनीकें होंगी। 
    • इस संस्करण की सफलता के आधार पर वर्ष 2022 के उत्तरार्द्ध में यंग वाटर प्रोफेशनल (YWP) के दूसरे चरण की योजना बनाई जाएगी।
  • उद्देश्य:
    • इसका उद्देश्य भारत में जल प्रबंधन सुधारों का समर्थन करने के लिये रणनीतिक और दीर्घकालिक निवेश के साथ क्षमता निर्माण हेतु एक संरचनात्मक मंच प्रदान करना है।
    • वाटर प्रोफेशनल्स को आवश्यक कौशल, ज्ञान, व्यवहार और नेटवर्क से सुसज्जित किया जाएगा जो उन्हें भारत में जल संसाधनों के विकास व प्रबंधन में योगदान करने और भारत में जल क्षेत्र की क्षमता संबंधी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को संबोधित करने में सक्षम बनाता है।
  • महत्त्व:
    • यह सतही जल बनाम भूजल के साइलो (Silos) को तोड़ने में मदद करेगा और जल संसाधन प्रबंधन के बारे में प्रतिभागी के व्यापक दृष्टिकोण को उपलब्ध कराएगा।
  • संबंधित पहलें:

राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना:

  • राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के बारे में:
    • इसे वर्ष 2016 में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा केंद्रीय क्षेत्र की योजना के रूप में शुरू किया गया था और यह विश्व बैंक द्वारा समर्थित है।
  • उद्देश्य:
    • जल संसाधनों की जानकारी की सीमा, विश्वसनीयता और पहुंँच में सुधार करना।
    • भारत में लक्षित जल संसाधन प्रबंधन संस्थानों की क्षमता को मज़बूत करना।
    • प्रभावी जल संसाधन विकास और कुशल प्रबंधन के लिये मार्ग प्रशस्त करने वाली विश्वसनीय जानकारी प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।
  • परियोजना लाभार्थी:
    • नदी बेसिन संगठनों सहित सतह और/या भूजल नियोजन एवं प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार केंद्रीय तथा राज्य कार्यान्वयन एजेंसियाँ।
    • विश्व भर तथा विभिन्न क्षेत्रों में ‘जल संसाधन सूचना प्रणाली’ (WRIS) के उपयोगकर्त्ता।
      • WRIS जल संसाधनों की वर्तमान स्थिति और जल सुरक्षा के समग्र लक्ष्य की दिशा में उनकी रुचि को आकर्षित कर प्रभावी प्रबंधन हेतु जनता एवं हितधारकों के बीच जागरूकता में वृद्धि सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।

स्रोत: पीआईबी


भूजल का ह्रास

प्रिलिम्स के लिये:

केंद्रीय भूजल बोर्ड, यूनेस्को, भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिये मास्टर प्लान- 2020, राष्ट्रीय जल नीति (2012)

मेन्स के लिये:

भारत में भू-जल संकट 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) द्वारा किये गए जल स्तर के आँकड़ों के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि निगरानी किये गए लगभग 33% कुओं के भू-जल स्तर में 0-2 मीटर की गिरावट दर्ज की गई है।

  • इसके अलावा नई दिल्ली, चेन्नई, इंदौर, मदुरै, विजयवाड़ा, गाजियाबाद, कानपुर और लखनऊ आदि जैसे मेट्रो शहरों के कुछ हिस्सों में भी 4.0 मीटर से अधिक की गिरावट देखी गई है।
  • सीजीडब्ल्यूबी समय-समय पर कुओं के नेटवर्क की निगरानी के माध्यम से क्षेत्रीय स्तर पर मेट्रो शहरों सहित पूरे देश में भू-जल स्तर की निगरानी कर रहा है।

प्रमुख बिंदु

  • भारत में भूजल निष्कर्षण:
    • यूनेस्को की विश्व जल विकास रिपोर्ट, 2018 में कहा गया है कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे अधिक निष्कर्षण करने वाला देश है।
    • राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में भूजल के योगदान को कभी भी मापा नहीं जाता है।
    • सीजीडब्ल्यूबी के अनुसार, भारत में कृषि भूमि की सिंचाई के लिये हर साल 230 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल निकाला जाता है, देश के कई हिस्सों में भूजल का तेज़ी से क्षरण हो रहा है।
      • भारत में कुल अनुमानित भूजल की कमी 122-199 बिलियन क्यूबिक मीटर की सीमा में है।
  • भूजल निष्कर्षण का कारण:
    • हरित क्रांति: हरित क्रांति ने सूखा प्रवण/पानी की कमी वाले क्षेत्रों में जल गहन फसलों को उगाने में सक्षम बनाया, जिससे भूजल की अधिक निकासी हुई।
      • इसकी पुनःपूर्ति की प्रतीक्षा किये बिना ज़मीन से जल को बार-बार पंप करने से इसमें त्वरित कमी आई।
      • इसके अलावा बिजली पर सब्सिडी और पानी की अधिक खपत वाली फसलों के लिये उच्च एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य)।
    • उद्योगों की आवश्यकता: लैंडफिल, सेप्टिक टैंक, टपका हुआ भूमिगत गैस टैंक और उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अति प्रयोग से होने वाले प्रदूषण के मामले में जल प्रदूषण के कारण भूजल संसाधनों की क्षति और इनमें कमी आती है।
    • अपर्याप्त विनियमन: भूजल का अपर्याप्त विनियमन तथा इसके लिये कोई दंड न होना भूजल संसाधनों की समाप्ति को प्रोत्साहित करता है।
      • भारत में सिंचाई हेतु कुओं के निर्माण के लिये किसी मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं होती है और परित्यक्त कुओं का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है।
      • भारत में हर दिन कई सौ कुओं का निर्माण किया जाता है और जब वे सूख जाते हैं तो उन्हें छोड़ दिया जाता है।
    • संघीय मुद्दा: जल एक राज्य का विषय है, जल संरक्षण और जल संचयन सहित जल प्रबंधन पर पहल तथा देश में नागरिकों को पर्याप्त पीने योग्य पानी उपलब्ध कराना मुख्य रूप से राज्यों की ज़िम्मेदारी है।
      • हालाँकि केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न परियोजनाओं के वित्तपोषण सहित महत्त्वपूर्ण उपाय किये जाते हैं।

भूजल नियंत्रण के लिये केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • जल शक्ति अभियान: भारत सरकार ने वर्ष 2019 में जल शक्ति अभियान (JSA) शुरू किया, जिसका उद्देश्य भारत में 256 ज़िलों के पानी की कमी वाले ब्लॉकों में भूजल की स्थिति सहित पानी की उपलब्धता में सुधार करना है।
  • भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिये मास्टर प्लान- 2020: CGWB ने राज्य सरकारों के परामर्श से मास्टर प्लान- 2020 तैयार किया है।
    • इसमें 185 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) का दोहन करने के लिये देश में लगभग 1.42 करोड़ वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की परिकल्पना की गई है।
    • इसके अलावा सरकार ने वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिये ‘कैच द रेन’ अभियान भी शुरू किया है।
  • राष्ट्रीय जल नीति (2012): यह नीति वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण की वकालत करती है तथा वर्षा जल के प्रत्यक्ष उपयोग के माध्यम से पानी की उपलब्धता बढ़ाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
    • यह सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से वैज्ञानिक एवं नियोजित तरीके से नदी, नदी निकायों बुनियादी अवसंरचना के संरक्षण की वकालत करती है।
  • अटल भूजल योजना: अटल भूजल योजना (ABHY) विश्व बैंक द्वारा सह-वित्त पोषित सामुदायिक भागीदारी के साथ भूजल के स्थायी प्रबंधन हेतु चिह्नित अति-शोषित और पानी की कमी वाले क्षेत्रों में लागू की जा रही है।
  • अभिसरण दृष्टिकोण: केंद्र सरकार मुख्य रूप से ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना’ और ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना- वाटरशेड’ विकास घटक के माध्यम से जल संचयन एवं संरक्षण कार्यों के निर्माण का समर्थन करती है।
  • जलभृत मानचित्रण और प्रबंधन कार्यक्रम: CGWB ने जलभृत मानचित्रण और प्रबंधन कार्यक्रम शुरू किया है।
    • कार्यक्रम का उद्देश्य सामुदायिक भागीदारी के साथ जलभृत/क्षेत्र विशिष्ट भूजल प्रबंधन योजना तैयार करने के लिये जलभृतों की स्थिति और उनके लक्षण को चित्रित करना है।
  • कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (AMRUT): मिशन अमृत शहरों में बुनियादी शहरी अवसंरचना के विकास पर केंद्रित है, जैसे कि पानी की आपूर्ति, सीवेज और सेप्टेज प्रबंधन, जल निकासी, हरित स्थान और पार्क तथा गैर-मोटर चालित शहरी परिवहन।
  • विभिन्न राज्य सरकारों की पहल: कई राज्यों ने जल संसाधनों के सतत् प्रबंधन के लिये जल संरक्षण/संचयन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। उदाहरण के लिये:
    • राजस्थान में ‘मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन अभियान’
    • महाराष्ट्र में ‘जलयुक्त शिबर’
    • गुजरात में 'सुजलाम सुफलाम अभियान'
    • तेलंगाना में 'मिशन काकतीय'
    • आंध्र प्रदेश में नीरू चेट्टू
    • बिहार में जल जीवन हरियाली
    • हरियाणा में 'जल ही जीवन'

आगे की राह

  • पानी पंचायतों की अवधारणा: भारत के प्रधानमंत्री ने जल संरक्षण के महत्त्व और जल संरक्षण को एक जन आंदोलन बनाने के लिये उचित उपायों को अपनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए सही दिशा में एक कदम उठाया है।
    • इस संदर्भ में जल संरक्षण का ग्रामीण स्तर पर विकेंद्रीकरण करना या पानी पंचायतों को मज़बूत करना बहुत कारगर हो सकता है।
  • जल निकायों के अवैध अतिक्रमण को प्रतिबंधित करना: जल निकायों और जल निकासी चैनलों के अतिक्रमण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये और जहाँ भी ऐसा हुआ है, उसे यथासंभव बहाल किया जाना चाहिये।
    • इसके अलावा एकत्र किये गए जल का उपयोग भूजल की बहाली के लिये किया जाना चाहिये।
  • सूक्ष्म सिंचाई: सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों जैसे स्प्रिंकलर या ड्रिप सिंचाई को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
    • ड्रिप सिंचाई हेतु पानी के पाइपों (उनमें छेद के साथ) को या तो भूमि में दबा दिया जाता है या फसलों के बगल में ज़मीन से थोड़ा ऊपर रखा जाता है ताकि पानी धीरे-धीरे फसल की जड़ों और तनों पर टपकता रहे।
    • स्प्रे सिंचाई के विपरीत वाष्पीकरण में बहुत कम नुकसान होता है और पानी को केवल उन पौधों के लिये उपलब्ध कराया जा सकता है जिन्हें इसकी आवश्यकता होती है, ताकि पानी की बर्बादी कम हो।
  • भू-जल का कृत्रिम पुनर्भरण: यह मिट्टी के माध्यम से घुसपैठ बढ़ाने और जलभृत में प्रवेश करने या कुओं द्वारा सीधे जलभृत में पानी डालने की प्रक्रिया है।
  • भूजल प्रबंधन संयंत्र: स्थानीय स्तर पर भूजल प्रबंधन संयंत्र स्थापित करने से लोगों को अपने क्षेत्र में भूजल की उपलब्धता के बारे में जानने में मदद मिलेगी जिससे वे इसका बुद्धिमानी से उपयोग कर सकेंगे।

स्रोत: पीआईबी


सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी

प्रिलिम्स के लिये: 

भारतीय रिज़र्व बैंक, सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी

मेन्स के लिये: 

सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी- महत्त्व और चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 में संशोधन का प्रस्ताव दिया है जो इसे सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC) लॉन्च करने में सक्षम बनाएगा और इस प्रकार डिजिटल रूप में मुद्रा को शामिल करने के लिये 'बैंक नोट' की परिभाषा का दायरा बढ़ाएगा।

  • वर्तमान संसद सत्र में क्रिप्टोकरेंसी पर एक विधेयक पेश करने की सरकार की योजना के बीच यह कदम उठाया गया है जो कुछ अपवादों के साथ भारत में सभी निजी क्रिप्टोकरेंसी को प्रतिबंधित करने का प्रयास करता है।

प्रमुख बिंदु

  • सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी:
    • CBDC फिएट करेंसी (Fiat Currency) का एक डिजिटल रूप है जिसमे लेन-देन के लिये ब्लॉकचेन द्वारा समर्थित वॉलेट का उपयोग किया जा सकता है तथा इसे केंद्रीय बैंक द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह केंद्रीय बैंक द्वारा जारी डिजिटल रूप में एक कानूनी निविदा है।
      • फिएट मनी (Fiat money) सरकार द्वारा जारी मुद्रा है जो सोने जैसी कमोडिटी द्वारा समर्थित नहीं है। फिएट मनी केंद्रीय बैंकों को अर्थव्यवस्था पर अधिक नियंत्रण प्रदान करती है क्योंकि वे नियंत्रित कर सकते हैं कि कितना पैसा मुद्रित किया जाता है।
    • हालाँकि CBDCs की अवधारणा सीधे बिटकॉइन से प्रेरित थी, यह विकेंद्रीकृत आभासी मुद्राओं और क्रिप्टो संपत्तियों से अलग है जो राज्य द्वारा जारी नहीं की जाती हैं और न ही  'कानूनी निविदा' है।
  • ज़रूरत:
    • कदाचार को संबोधित करना:
      • एक संप्रभु डिजिटल मुद्रा की आवश्यकता मौजूदा क्रिप्टोकरेंसी की अराजक प्रवृति के कारण उत्पन्न होती है जिसमें उनका निर्माण और रखरखाव जनता के हाथों में होता है।
        • डिजिटल मुद्रा को विनियमित कर केंद्रीय बैंक उनके कदाचार पर रोक लगा सकता है।
    • अस्थिरता को संबोधित करना:
      • चूँकि क्रिप्टोकरेंसी किसी भी संपत्ति या मुद्रा से जुड़ी नहीं है, इसका मूल्य पूरी तरह से मांग और आपूर्ति के आधार पर निर्धारित किया जाता है।
      • इसके कारण बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी के मूल्य में भारी उतार-चढ़ाव देखा जाता है।
    • डिजिटल मुद्रा छद्म युद्ध के रूप में :
      • भारत एक छद्म डिजिटल मुद्रा युद्ध के बवंडर में फँसने का ज़ोखिम उठाता है क्योंकि अमेरिका और चीन नए जमाने के वित्तीय उत्पादों को पेश करके अन्य बाज़ारों में वर्चस्व हासिल करने के लिये संघर्ष करते हैं।
        • एक संप्रभु डिजिटल रुपया केवल वित्तीय नवाचार का मामला नहीं है, बल्कि अपरिहार्य छद्म युद्ध को रोकने के लिये आवश्यक है जो हमारी राष्ट्रीय तथा वित्तीय सुरक्षा के लिये खतरा है।
    • डॉलर पर निर्भरता कम करना:
      • डिजिटल रुपया भारत को अपने रणनीतिक भागीदारों के साथ व्यापार के लिये एक बेहतर मुद्रा के रूप में डिजिटल रुपए का प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है जिससे डॉलर पर निर्भरता कम होगी।
    • निजी मुद्रा का आगमन:
      • यदि इन निजी मुद्राओं को मान्यता मिलती है तो सीमित परिवर्तनीयता वाली राष्ट्रीय मुद्राओं को खतरा उत्पन्न हो सकता है।
  • महत्त्व:
    • यह बिना किसी अंतर-बैंक निपटान के वास्तविक समय के भुगतान को सक्षम करते हुए मुद्रा प्रबंधन की लागत को कम करेगा।
    • भारत का मुद्रा-जीडीपी अनुपात (Currency-to-GDP ratio) CBDC का एक और अन्य लाभ है, जहांँ  बड़े पैमाने पर नकदी का उपयोग होता है। (CBDC) द्वारा इसे प्रतिस्थापित किया जा सकता है जिससे कागज़ी मुद्रा की छपाई, परिवहन और भंडारण की लागत को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
    • यह निजी आभासी मुद्राओं के उपयोग से जनता को होने वाले नुकसान को भी कम करेगा।
    • यह उपयोगकर्त्ता को घरेलू औ र सीमा पार दोनों प्रकार के लेन-देन में सक्षम करेगा जिसके लिये किसी तीसरे पक्ष या बैंक की आवश्यकता नहीं होती है।
    • इसमें महत्त्वपूर्ण लाभ प्रदान करने की क्षमता है, जैसे- नकदी पर कम निर्भरता, कम लेन-देन की लागत के कारण उच्च पदभार और कम निपटान जोखिम।
    • यह संभवतः एक अधिक मज़बूत, कुशल, विश्वसनीय, विनियमित और कानूनी निविदा-आधारित भुगतान विकल्प की ओर भी ले जाएगा।
  • मुद्दे:
    • RBI की जांँच के तहत कुछ प्रमुख मुद्दों में शामिल हैं- सीबीडीसी का दायरा, अंतर्निहित तकनीक, सत्यापन तंत्र और डिस्ट्रीब्यूशन आर्किटेक्चर।
    • साथ ही कानूनी परिवर्तन आवश्यक होंगे क्योंकि वर्तमान प्रावधान भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम के तहत भौतिक रूप में मुद्रा को ध्यान में रखते हुए किये गए हैं।
    • सिक्का अधिनियम, विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में भी परिणामी संशोधन की आवश्यकता होगी।
    • पहले से तनावग्रस्त बैंकों से धन की अचानक निकासी एक और चिंता का विषय है।
  • हालिया विकास:
    • मध्य अमेरिका का एक छोटा सा तटीय देश अल सल्वाडोर, बिटकॉइन को कानूनी निविदा के रूप में अपनाने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है।
    • ब्रिटेन, सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (ब्रिटकॉइन) बनाने की संभावना तलाश रहा है।
    • वर्ष 2020 में चीन ने अपनी आधिकारिक डिजिटल मुद्रा का परीक्षण शुरू किया जिसे अनौपचारिक रूप से "डिजिटल मुद्रा इलेक्ट्रॉनिक भुगतान, डीसी/ईपी" (Digital Currency Electronic Payment, DC/EP) कहा जाता है।
    • अप्रैल 2018 में RBI ने बैंकों और अन्य विनियमित संस्थाओं को क्रिप्टो लेन-देन का समर्थन करने से प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि धोखाधड़ी के लिये डिजिटल मुद्राओं का उपयोग किया गया था। मार्च 2020 में सर्वोच न्यायालय ने प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया।

आगे की राह

  • एक डिजिटल रुपए का निर्माण भारत को अपने नागरिकों को सशक्त बनाने और हमारी लगातार बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्था में इसका स्वतंत्र रूप से उपयोग करने तथा पुरानी बैंकिंग प्रणाली से मुक्त होने में सक्षम बनाने का अवसर प्रदान करेगा।
  • मैक्रोइकॉनमी और तरलता, बैंकिंग सिस्टम एवं मुद्रा बाज़ारों पर इसके प्रभाव को देखते हुए नीति निर्माताओं के लिये भारत में डिजिटल रुपए की संभावनाओं पर पूरी तरह से विचार करना अनिवार्य है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस