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भारतीय अर्थव्यवस्था

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण

  • 14 Sep 2021
  • 12 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 12/09/2021 को ‘हिंदू बिजनेस लाइन’ में प्रकाशित ‘‘Large-scale privatisation of banks will hurt’’ लेख पर आधारित है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के विचार का मूल्यांकन किया गया है और आगे की राह संबंधी सुझाव दिये गए हैं।

एक संस्था के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (Public Sector Banks- PSBs) भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति और विकास के वाहन हैं और समय के साथ लोगों की बचत और विश्वास के न्यासी बनकर उभरे हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने हरित क्रांति, नीली क्रांति और डेयरी क्रांति के समर्थन के माध्यम से देश को आत्मनिर्भर बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने देश के अवसंरचनात्मक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
सरकारी स्वामित्व वाले बैंक न केवल जमाकर्त्ताओं को एक व्यापक सुगमता स्तर प्रदान करते हैं बल्कि उन्हें सस्ती या वहनीय लागत पर सेवाओं की आपूर्ति भी करते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की समस्याओं के समाधान के लिये निजीकरण की बात की जा रही है, लेकिन इस विचार की कई अंतर्निहित चुनौतियाँ भी हैं।

निजी क्षेत्र के बैंकों का महत्त्व

  • निजी क्षेत्र के बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अप्रत्यक्ष रूप से स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा पेश कर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को प्रेरित करते हैं। उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ इस प्रकार हैं:
    • उच्चस्तरीय पेशेवर प्रबंधन की पेशकश: निजी क्षेत्र के बैंक बैंकिंग क्षेत्र में उच्चस्तरीय पेशेवर प्रबंधन और विपणन अवधारणा की पेशकश में सहायता करते हैं।
      • यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सदृश कौशल और प्रौद्योगिकी के विकास के लिये प्रेरित करता है।
    • स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा का निर्माण: निजी क्षेत्र के बैंक बैंकिंग प्रणाली में सामान्य दक्षता स्तरों पर एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा प्रदान करते हैं।
    • विदेशी निवेश को प्रोत्साहन: निजी क्षेत्र के बैंक, विशेष रूप से विदेशी बैंकों का देश में विदेशी निवेश पर गहन प्रभाव पड़ता है।
    • विदेशी पूँजी बाज़ारों तक पहुँच में सहायता: निजी क्षेत्र के विदेशी बैंक भारतीय कंपनियों और सरकारी एजेंसियों को अंतर्राष्ट्रीय पूँजी बाज़ार से उनकी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति कराने में सहयोग करते हैं।
      • महत्त्वपूर्ण विदेशी केंद्रों में उनके प्रधान कार्यालयों/अन्य शाखाओं की उपस्थिति के कारण उनके लिये यह सेवा आसान हो जाती है। इस प्रकार वे देश में व्यापार और उद्योग को बढ़ावा देने में काफी हद तक मदद करते हैं।
    • नवाचार के विकास और विशेषज्ञता प्राप्ति में सहायता: निजी क्षेत्र के बैंक हमेशा नए उत्पाद अवसरों (नई योजनाएँ, नई सेवाएँ आदि) के नवोन्मेष के लिये प्रयासरत रहते हैं और उद्योगों को गुणवत्तापूर्ण सेवा एवं मार्गदर्शन प्रदान कर उनके संबद्ध क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करने में सहायता करते हैं।
      • वे बैंकिंग सेवा में नई प्रौद्योगिकी लेकर आते हैं। इस प्रकार, वे विभिन्न नए क्षेत्रों में अन्य बैंकों का नेतृत्त्व करते हैं। उदाहरण के लिये, कम्प्यूटरीकृत संचालन, क्रेडिट कार्ड व्यवसाय, एटीएम सेवा आदि की शुरूआत निजी क्षेत्रों से ही हुई।

किंतु निजीकरण कोई रामबाण नहीं है

  • गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की सार्वभौमिक चुनौती: बैंकों के समक्ष विद्यमान सबसे बड़ी समस्या गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (Non Performing Assets- NPAs) की है, जो निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के बैंकों को एकसमान रूप से प्रभावित कर रही है।
    • सरकार के समक्ष राजकोषीय बाधाओं के कारण सरकारी बैंकों को अतिरिक्त पूँजी प्रदान कर सकने की कठिनाई भी है और बैंकों को अपनी ऋणप्रदायी गतिविधियों (lending operations) को जारी रखने हेतु पूँजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio) बनाए रखने के लिये अतिरिक्त पूँजी की आवश्यकता है।
    • लेकिन ऐसी समस्याओं के कारण निजीकरण के बहाने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से छुटकारा पा लेना अवांछित के साथ वांछित को भी त्याग देने जैसा है।
  • निजी क्षेत्र के बैंकों की विफलता: बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने भारत के बैंकिंग क्षेत्र के लिये एक क्रांति की शुरुआत की थी। इस राष्ट्रीयकरण से पहले, भारतीय स्टेट बैंक के अतिरिक्त अधिकांश बैंक निजी स्वामित्व में थे और वे वृहत स्तर पर समृद्ध और प्रभुत्वसंपन्न लोगों को लाभान्वित करते थे।
    • वर्ष 1969 में 14 निजी बैंकों और 1980 में छह अन्य निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने बैंकिंग क्षेत्र को रूपांतरित कर दिया, रोज़गार का सृजन किया, कृषि क्षेत्र के लिये ऋण सेवाओं का विस्तार किया और निर्धन वर्ग को लाभान्वित किया।
    • इस कदम से कृषि, रोज़गार पैदा करने वाली उत्पादक गतिविधियाँ, निर्धनता उन्मूलन योजनाएँ, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, निर्यात, बुनियादी ढाँचे, महिला सशक्तिकरण, लघुस्तरीय एवं मध्यम उद्योग और लघु एवं सूक्ष्म उद्योग जैसे अब तक उपेक्षित रहे क्षेत्र इन बैंकों के लिये प्राथमिकता क्षेत्र बन गए।

शासन-संबधी मुद्दे:

  • ICICI बैंक के एमडी और सीईओ को कथित रूप से संदिग्ध ऋण प्रदान करने के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया था।
  • Yes बैंक के सीईओ को RBI द्वारा सेवा विस्तार नहीं दिया गया और अब विभिन्न एजेंसियों द्वारा जाँच का सामना करना पड़ रहा है।
  • लक्ष्मी विलास बैंक को परिचालन संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा और हाल ही में DBS Bank of Singapore के साथ इसका विलय कर दिया गया।
  • NPAs की अंडर-रिपोर्टिंग: वर्ष 2015 में जब RBI ने बैंकों की परिसंपत्ति की गुणवत्ता की समीक्षा का आदेश दिया तो Yes बैंक सहित कई निजी क्षेत्र के बैंक NPAs की अंडर-रिपोर्टिंग करने के दोषी पाए गए।

आगे की राह

  • विलफुल डिफॉल्टर्स को दंडित करना: बैंक ऋणों पर विलफुल डिफॉल्ट (Wilful Defaults) को "आपराधिक कृत्य" मानने के लिये एक उपयुक्त वैधानिक ढाँचा लाने की तत्काल और अनिवार्य आवश्यकता है।
    • देश भर में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के शीर्ष अधिकारियों की जाँच करने की एक प्रणाली भी जवाबदेही में सुधार लाने में मदद करेगी।
  • शासन में सुधार: PSBs के शासन और प्रबंधन में सुधार करना होगा। ऐसा करने का एक उपाय पी.जे. नायक समिति द्वारा सुझाया गया था, जहाँ सरकार और शीर्ष सार्वजनिक क्षेत्र नियुक्तियों (जिसके संबंध में सारे कार्य बैंक बोर्ड ब्यूरो को करने थे लेकिन वह अक्षम रहा) के बीच दूरी रखने की अनुशंसा की गई थी।
  • PSBs के लिये अधिदेशों (Mandates) की संख्या कम करना: अब तक, इनमें से एक सुस्थापित अधिदेश किसानों के लिये ऋण माफी है। उन्हें सरकार से वृहत सहायता की आवश्यकता है, लेकिन ऋण माफी (जो चुकौती संस्कृति को खत्म कर देती है), उनमें से एक नहीं है।
    • बैंकों को अनिवार्य रूप से उधार देने के लिये बाध्य करना भी उतना ही हानिकारक है। वर्तमान में, MSMEs को उधार देने के लिये उन पर विशेष दबाव रखा जा रहा है।
  • आधारभूत संरचना का उपयोग: बैंक शाखाओं एवं आधारभूत संरचनाओं और परिसंपत्तियों के इतने बड़े नेटवर्क को निजी उद्यमों या कॉर्पोरेट्स के हाथों में रखना एक विवेकहीन कदम भी साबित हो सकता है।
    • यह आम आदमी को सुविधाजनक और किफायती बैंकिंग सेवाओं से वंचित कर सकता है, जबकि एकाधिकार और गुटबंदी का जोखिम इस समस्या को और जटिल बना सकता है।
    • इस प्रकार, पहले से मौजूद आधारभूत संरचनाओं का इष्टतम उपयोग करना अधिक उपयुक्त होगा।
  • बैंकों की डी-रिस्किंग: ऋण प्रदान करने हेतु और NPAs के प्रभावी समाधान के लिये विवेकपूर्ण मानदंडों का पालन करने की आवश्यकता है।
  • PSBs का निगमीकरण: अंधाधुंध निजीकरण के बजाय PSBs को जीवन बीमा निगम (LIC) जैसे निगम में रूपांतरित किया जा सकता है । सरकारी स्वामित्व बनाए रखते हुए इनका निगमीकरण PSBs को अधिक स्वायत्तता प्रदान करेगा।

निष्कर्ष

इस प्रकार, PSBs के महज निजीकरण से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। उपयोगी परिणाम प्राप्त करने के लिये बहुत से अन्य जटिल क्षेत्र-विशिष्ट सुधार भी किये जाने चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: भारत में बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण कोई निर्णायक रामबाण नहीं है। चर्चा कीजिये।

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