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भारतीय अर्थव्यवस्था

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय

  • 26 Sep 2019
  • 14 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में बैंकों के विलय और उससे संबंधित विषयों पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में घोषणा की थी कि भारत सरकार के स्वामित्व वाले 10 बैंकों का चार बड़े बैंकों में विलय कर दिया जाएगा। बैंक विलय संबंधी इस निर्णय के पश्चात् देश में सार्वजनिक बैंकों की कुल संख्या 18 से घटकर 12 रह जाएगी। इससे पूर्व बीते वर्ष ही सरकार ने बैंक ऑफ बड़ौदा के साथ विजया बैंक और देना बैंक का विलय किया था। भारत में बैंकों का विलय कोई नई प्रक्रिया नहीं है, बल्कि देश में इसका एक लंबा इतिहास रहा है। बैंकों के विलय की प्रक्रिया को समय-समय पर देश और विदेश में बैंकिंग प्रणाली में सुधार हेतु अपनाया जाता रहा है।

क्या होता है विलय?

  • विलय का अर्थ ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें दो मौजूदा कंपनियाँ मिलकर एक नई और मज़बूत कंपनी का निर्माण करती हैं।
  • आमतौर पर विलय के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं:
    • कंपनी की पहुँच का विस्तार करना।
    • नए क्षेत्रों में कंपनी का विस्तार करना।
    • कंपनी की बाज़ार हिस्सेदारी बढ़ाना।
  • विदित है कि विलय दो कंपनियों का स्वैच्छिक संलयन होता है।

विलय और अधिग्रहण में अंतर

  • विलय तब होता है जब दो अलग-अलग इकाइयाँ एक नया संयुक्त संगठन बनाने के लिये साथ आती हैं।
  • इसके विपरीत अधिग्रहण का आशय उस स्थिति से होता है जिसमें कोई बड़ी इकाई किसी छोटी इकाई की परिसंपत्तियों और देनदारियों को स्वेच्छा से अधिगृहीत कर लेती है।

बैंकों के विलय संबंधी कानूनी प्रावधान

भारत में बैंकों के विलय संबंधी दिशा-निर्देश बैंकिंग विनियम अधिनियम, 1949 की धारा 44A के अंतर्गत दिये गए हैं। उल्लेखनीय है कि बैंकिंग कंपनियों के विलय हेतु भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (Competition Commission of India-CCI) से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती है। बैंकिंग कंपनियों के विलय हेतु यह आवश्यक है कि सभी पक्षों के कम-से-कम दो-तिहाई शेयरधारकों द्वारा इस विलय की अनुमति दी जाए।

भारत में बैंकों के विलय का इतिहास

बैंकों की स्थिति को सुधारने और ग्राहकों के हितों की रक्षा करने के लिये भारत में बैंक विलय की प्रक्रिया 1960 के दशक में शुरू हुई थी।

  • वर्ष 1969 को भारतीय बैंकिंग प्रणाली में एक महत्त्वपूर्ण वर्ष माना जाता है, क्योंकि इसी वर्ष इंदिरा गांधी की सरकार ने देश की बैंकिंग प्रणाली को पूर्णतः बदलते हुए देश के 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। वर्ष 1969 के बाद वर्ष 1980 में भी देश के 6 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
  • भारतीय बैंक संघ के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 1985 से अब तक देश में छोटे-बड़े कुल 49 बैंकों का विलय हो चुका हैं। देश के कुछ महत्त्वपूर्ण बैंक विलय निम्नानुसार हैं:
    • वर्ष 1993-94 में पंजाब नेशनल बैंक और न्यू इंडिया बैंक का विलय किया गया था, उल्लेखनीय है कि यह देश का पहला दो राष्ट्रीय बैंकों का विलय था।
    • वर्ष 2004 में ओरिएण्टल बैंक ऑफ कॉमर्स और ग्लोबल ट्रस्ट बैंक का विलय।
    • वर्ष 2008 में स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र और SBI का विलय।
    • वर्ष 2017 में SBI और उसके 5 सहयोगी बैंकों का विलय।

बैंकिंग सुधार - बैंकों का राष्ट्रीयकरण

  • विश्व में 1950 के दशक से पूर्व बैंकिंग क्षेत्र का संचालन मुख्य रूप से निजी क्षेत्र द्वारा किया जा रहा था।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल देशों को हुई गंभीर आर्थिक हानि के कारण इन देशों की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगा था। इससे उबरने के लिये विभिन्न देशों विशेषकर यूरोपीय देशों द्वारा कुछ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ताकि इन देशों को कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त हो सके।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् भारत की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी तथा गरीबी के साथ ग्रामीण-शहरी अंतराल भी अत्यधिक था। सरकार के विभिन्न प्रयासों के बावजूद इस क्षेत्र में अधिक सुधार नहीं हो पा रहा था। इसके अतिरिक्त भारत सरकार के समक्ष पूंजी की भी बड़ी समस्या थी क्योंकि संसाधन सीमित थे।
  • उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1969 में सरकार ने 14 बैंकों (जिनकी पूंजी 50 करोड़ रुपए से अधिक थी) का राष्ट्रीयकरण किया। बाद में 1980 में भी 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
  • सरकार ने समय-समय पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ इन्हीं उद्देश्यों के चलते कुछ बैंकों का विलय भी किया है।
  • राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों की खराब स्थिति में तेज़ी से सुधार हुआ। वर्ष 1969 से पूर्व बैंकों की सिर्फ लगभग 8 हज़ार शाखाएँ थीं जो वर्ष 1994 में बढ़कर 60 हज़ार तथा वर्ष 2014 में 1 लाख 15 हज़ार के करीब पहुँच गईं।

बैंक विलय के फायदे

  • देश में बैंकों का विलय कर उन्हें बड़ा बनाने के पीछे सबसे प्रमुख तर्क यह दिया जाता है कि इससे भारतीय बैंक भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता करने में सक्षम हो जाएंगे।
  • बैंकों के विलय से उनकी परिचालन लागत (Operation Cost) में भी कमी आती है।
  • इसके प्रभाव से बैंकों का NPA प्रबंधन और अधिक कुशल हो जाता है।
  • विलय से बैंकों की कार्यकुशलता में भी वृद्धि देखी जाती है।
  • जब दो या दो से अधिक बैंक एक साथ आते हैं तो उनकी कुल परिसंपत्ति में भी वृद्धि होती है, जिससे उनकी ऋण देने की क्षमता बढ़ जाती है और वे ग्राहकों को बड़ा लोन ऑफर कर पाते हैं।
  • यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बिना राज्य के कोष की मदद लिये और अधिक संसाधन जुटाने में मदद करता है।
  • बैंकों के विलय से बैंकिंग सेवाओं का दायरा भी बढ़ जाता है और ग्राहकों को देश भर में आसानी से बैंकिंग सेवाएँ मिल जाती हैं।
  • बैंकों के मध्य चल रही नकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो जाती है।
  • सरकार पर सार्वजानिक बैंकों के वित्तपोषण का बोझ कम हो जाता है।
  • बैंकों की संख्या जितनी कम होती है उन पर नियंत्रण करना भी उतना ही आसान होता है।
  • BASEL III के कठोर मापदंडों को पूरा करने में भी बैंकों को मदद मिलती है।
  • इसके परिणामस्वरूप भारतीय बैंकिंग प्रणाली और अधिक सशक्त होती है।

बैंकों का विलय और नरसिंहम समिति

  • बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिये सरकार ने वर्ष 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बैंकिंग क्षेत्र में चार स्तरीय ढाँचे की व्यवस्था की जाए जिसमें तीन या चार बड़े बैंक होंगे। SBI इसमें शामिल होगा और इसे शीर्ष स्थान प्राप्त होगा तथा यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना कार्य कर सकेगा।
  • इसके अलावा वर्ष 1998 में भी सरकार द्वारा एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में एक अन्य समिति का गठन किया गया था। इस समिति का मुख्य कार्य भारत के बैंकिंग सुधारों की समीक्षा करना और उसके लिये उपर्युक्त सुझाव देना था। समिति ने अप्रैल 1998 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कई अन्य सिफारिशों के साथ बड़े बैंकों के विलय की सिफारिश भी की थी।

बैंक विलय का नकारात्मक पक्ष

  • विशेषज्ञ सदैव ही यह मानते आए हैं कि बैंकों के विलय की प्रक्रिया सिर्फ कागज़ों पर ही होती है, क्योंकि प्रत्येक बैंक की अपनी एक अलग कार्य संस्कृति होती है एवं कुछ कानूनी कार्यवाहियों के माध्यम से उसे नहीं बदला जा सकता।
  • बैंक कर्मचारी यूनियन हमेशा से बैंकों के विलय की प्रक्रिया का विरोध करते आए हैं, क्योंकि उनका मानना है कि इसके प्रभाव से कई बैंककर्मियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और वे बेरोज़गार हो जाते हैं।
  • बड़े बैंक बाज़ार की बढ़ती शक्ति के साथ एकाधिकार व्यवहार का पालन कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय आवश्यकताओं की उपेक्षा हो सकती है।
  • मज़बूत बैंकों और कमज़ोर बैंकों के विलय से मज़बूत बैंकों का प्रबंधन भी कमज़ोर हो जाता है और समग्र बैंकिंग प्रणाली के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय गिरावट आती है।
  • यह राज्य के स्वामित्व वाले बैंकों के दीर्घकालिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

बैंकों का विलय और NPA की समस्या

  • वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान ऋण वसूली की स्थिति इतनी गंभीर रही कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को करीब 1.2 लाख करोड़ रुपए मूल्य के NPA को राइट ऑफ करना पड़ा यानी बट्टे खाते में डालना पड़ा। इसका मतलब यह हुआ कि बैंकों ने मान लिया कि इन ऋणों की वसूली अब कभी नहीं हो पाएगी।
  • बीते कुछ समय से स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक केवल अपने NPA के कारण ही चर्चा में हैं। ऐसे में सरकार के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पटरी पर लाने के उपाय करना एक बड़ी चुनौती बन गया है। अब सवाल यह उठता है कि क्या बैंकों के विलय से NPA की समस्या को भी संबोधित किया जा सकता है?
  • इस सवाल पर कई विश्लेषकों का कहना है कि बैंकों का विलय स्वयं में उनके खातों में खराब ऋणों के समग्र आकार में कमी नहीं लाएगा। खराब ऋणों (Bad Loans) के आकार में कमी तब आएगी जब बैंक इन ऋणों की वसूली में सफल होंगे या जब ये ऋण उनकी बैलेंस शीट से राइट ऑफ कर दिये जाएँ। देश में अपर्याप्त न्यायिक प्रणाली के कारण खराब ऋण की वसूली प्रक्रिया धीमी बनी हुई है और बैंक अपने खराब ऋणों को पूर्णतः राइट ऑफ करने को तैयार नहीं हैं।
  • वहीं एक अन्य पक्ष यह भी मानता है कि भले ही इससे NPA को बहुत ज़्यादा कम नहीं किया जा सकता, परंतु इसके कारण भविष्य में बैंकों की NPA प्रबंधन की क्षमता ज़रूर बढ़ जाएगी।

आगे की राह

  • सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा निजी क्षेत्र की NPA दर काफी कम है, क्योंकि उन्होंने अपने ऋण की वसूली के लिये काफी सख्त प्रावधान किये हैं। ऐसे में सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र से सीख लेते हुए ऋण वसूली के नियमों को सख्त करना चाहिये।
  • देश की बैंकिंग प्रणाली को अपने आधारभूत ढाँचे में परिवर्तन करना चाहिये और स्वयं को आधुनिक युग की बदलती आवश्यकताओं के साथ बदलने का प्रयास करना चाहिये।

प्रश्न : हाल ही में भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय का निर्णय लिया गया है। बैंकों के विलय के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए इस प्रकार के कदम की उपयोगिता का मूल्यांकन कीजिये।

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