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डेली न्यूज़

  • 29 Mar, 2025
  • 37 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

SDG प्रगति एवं चुनौतियाँ

प्रिलिम्स के लिये:

सतत् विकास लक्ष्य (SDG) सूचकांक 2024, आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंडाई फ्रेमवर्क, आदिस अबाबा एक्शन एजेंडा, पेरिस समझौता, ESG रिपोर्टिंग

मेन्स के लिये:

सतत् विकास लक्ष्य, इससे संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह।

स्रोत: बिज़नेस स्टैण्डर्ड

चर्चा में क्यों?

भारत ने सतत् विकास लक्ष्य (SDG) सूचकांक 2024 में उल्लेखनीय सुधार किया है और इसे 166 देशों में से 109वाँ स्थान मिला है।

  • राज्यों ने भी बेहतर प्रदर्शन किया है, पिछले तीन वर्षों में समग्र सूचकांक में औसतन पाँच अंकों की वृद्धि हुई है।

सतत् विकास लक्ष्यों के संदर्भ में भारत का अब तक प्रदर्शन कैसा रहा है? 

  • समग्र प्रगति: भारत का SDG सूचकांक स्कोर 57 (2018) से सुधरकर 71 (2023-24) हो गया। 
  • राज्यों का प्रदर्शन: केरल और उत्तराखंड 8 लक्ष्यों में 80 से अधिक स्कोर के साथ अग्रणी हैं। 
  • हालाँकि, 9 से अधिक राज्यों में गरीबी उन्मूलन (लक्ष्य संख्या 1), लैंगिक समानता (लक्ष्य संख्या 5), असमानता में कमी (लक्ष्य संख्या 10) और मज़बूत संस्थान (लक्ष्य संख्या 16) जैसे आयामों में गिरावट दर्ज़ की गई है।
  • लक्ष्य विशिष्ट प्रगति: 
    • SDG-3: मातृ मृत्यु अनुपात प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर 130 (वर्ष 2014-16) से घटकर 97 (वर्ष 2018-20) हो गया।
    • SDG-4: उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) वर्ष 2014-15 और वर्ष 2021-22 के बीच 23.7% से बढ़कर 28.4% हो गया है।
    • SDG-6: वर्ष 2020-2021 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में 95% से अधिक लोगों और शहरों में 97.2% लोगों को पीने योग्य जल के बेहतर स्रोतों तक पहुँच प्राप्त हुई।
    • SDG-7: भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता दिसंबर 2023 के 180.80 गीगावाट से बढ़कर दिसंबर 2024 में 209.44 गीगावाट हो गई।
  • बजटीय आवंटन: कुछ राज्य (जैसे हरियाणा, ओडिशा, मेघालय) अब SDG-विशिष्ट बजट प्रकाशित करते हैं। 
    • विकासशील देशों को सतत् विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है।

SDG रिपोर्ट, 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

और पढ़ें: सतत् विकास लक्ष्य रिपोर्ट, 2024

सतत् विकास लक्ष्य क्या हैं?

  • सतत् विकास लक्ष्य (SDG): यह परस्पर संबंधित लक्ष्य हैं जो गरीबी, असमानता, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षरण जैसी वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने पर केंद्रित हैं।
    • इसे वर्ष 2015 में 193 संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों द्वारा सतत् विकास के वर्ष 2030 के एजेंडे के भाग के रूप में अपनाया गया था।
  • उद्देश्य: इसका लक्ष्य वैश्विक साझेदारी के माध्यम से वर्ष 2030 तक शांति, समृद्धि और स्थिरता प्राप्त करना है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

SDGs_History

  • सतत विकास लक्ष्य के मूल सिद्धांत: 
    • सार्वभौमिकता: सभी देशों (विकसित एवं विकासशील) पर लागू।
    • एकीकरण: एक लक्ष्य में प्रगति अन्य लक्ष्यों को प्रभावित करती है (उदाहरण के लिये, गरीबी में कमी से शिक्षा में सुधार होता है)।
    • किसी को पीछे न छोड़ना: हाशिये पर स्थित और कमजोर समूहों पर ध्यान केंद्रित करना
    • बहु-हितधारक दृष्टिकोण: यह सरकारों, व्यवसायों, नागरिक समाज और नागरिकों की आवश्यकता पर केंद्रित हैं। 
  • SDG सूची:

SDGs_List

सतत् विकास लक्ष्य के कार्यान्वयन में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता: प्रमुख संसाधन उत्पादक देशों में संघर्ष (जैसे, रूस और यूक्रेन से वैश्विक गेहूँ निर्यात का 30%) से विश्व भर में खाद्यान्न की कमी की समस्या को बढ़ावा मिलता है।
    • युद्धग्रस्त क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल (SDG 3) और शिक्षा (SDG 4) जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं।
  • आर्थिक असमानताएँ: विकासशील देश आर्थिक विकास के लिये वानिकी, खनन और जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहते हैं, जिससे जलवायु लक्ष्यों (SDG 13) के साथ संघर्ष की स्थिति बनती है।
    • धनी देश धारणीयता हेतु प्रयास कर रहे हैं लेकिन गरीब देशों के पास परिवर्तन के लिये धन और प्रौद्योगिकी का अभाव है।
  • सरकारी चुनौतियाँ: कुछ सरकारें स्थिरता की तुलना में अल्पकालिक आर्थिक लाभ को प्राथमिकता देती हैं (उदाहरण के लिये, जीवाश्म ईंधन लॉबिंग
    • बिना किसी विकल्प के प्रदूषणकारी उद्योगों को बंद करने से बेरोज़गारी (SDG 8) और गरीबी (SDG 1) में वृद्धि होती है।
  • गरीबी और असमानता: 650 मिलियन लोग अभी भी भुखमरी से ग्रस्त हैं जबकि 10% के पास विद्युत का अभाव है - जो SDG 1 (गरीबी उन्मूलन) और SDG 7 (स्वच्छ ऊर्जा) की प्राप्ति में प्रमुख बाधाएँ हैं।
    • ग्रामीण क्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और रोज़गार में पिछड़ रहे हैं, जिससे असमानता बढ़ रही है (SDG 10)।
  • वैश्विक आर्थिक संकट: कोविड-19 से लाखों लोग गरीबी की श्रेणी में आ गए हैं, जिससे वर्षों की प्रगति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है (उदाहरण के लिये, अकेले दक्षिण पूर्व एशिया में 5 मिलियन लोग गरीबी की श्रेणी में शामिल हुए हैं)।
    • देश में आर्थिक मंदी (जैसे, अमेरिकी मंदी) से व्यापार साझेदारों (जैसे, मैक्सिको) को नुकसान होता है, जिससे सतत् विकास लक्ष्य की प्रगति बाधित होती है।

आगे की राह

  • संघर्ष समाधान: चल रहे युद्धों (जैसे, यूक्रेन, सूडान) के समाधान के लिये संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता वाली वार्ता को बढ़ावा देना चाहिये।
    • संघर्ष के बाद पुनर्बहाली के लिये वित्तपोषण हेतु शांति पहलों का विस्तार करना चाहिये।
  • सतत् विकास लक्ष्यों हेतु वित्तपोषण: प्रतिवर्ष 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लिये विकसित देशों को अपनी 0.7% GDP सहायता प्रतिबद्धता को पूरा करना होगा।
    • प्रभाव निवेश और सतत् विकास लक्ष्य बॉण्ड के माध्यम से निजी क्षेत्र की भागीदारी विकासशील देशों को सहायता प्रदान कर सकती है।
  • देश-विशिष्ट SDG रणनीतियाँ: प्रत्येक राष्ट्र को सबसे ज़रूरी SDG पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये (उदाहरण के लिये, भारत को लैंगिक समानता में सुधार (SDG 5) और असमानता में कमी (SDG 10) पर बल देना चाहिये)।
  • बहु-हितधारक सहयोग: बड़ी कंपनियों के लिये पर्यावरण, सामाजिक और शासन (ESG) रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाने से कॉर्पोरेट SDG प्रतिबद्धताओं को मजबूती मिल सकती है, जबकि एआई और ब्लॉकचेन SDG निगरानी को बढ़ा सकते हैं।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने से संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. सतत् विकास लक्ष्यों को पहली बार 1972 में 'क्लब ऑफ रोम' नामक एक वैश्विक थिंक टैंक द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
  2.  सतत् विकास लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: B


प्रश्न. सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच अनिवार्य है।" इस संबंध में भारत में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)।


सामाजिक न्याय

भारत में गर्भपात संबंधी जटिलताएँ

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, भारतीय न्याय संहिता, अनुच्छेद 21, गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971

मेन्स के लिये:

भारत में गर्भपात कानून, महिलाओं की स्वायत्तता और प्रजनन अधिकार

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा सीमांत भ्रूण व्यवहार्यता मामलों (24-30 सप्ताह) में देर से गर्भपात की अनुमति न दिये जाने से भारत में प्रजनन अधिकारों पर विमर्श को फिर से बढ़ावा मिला है। 

  • विधिक सुधारों, नैतिक दुविधाओं और प्रक्रियागत देरी से गर्भपात में बाधा उत्पन्न हो रही है।

गर्भपात क्या है?

और पढ़ें: गर्भपात

भारत में गर्भपात हेतु विधिक ढाँचा क्या है?

  • 1971 से पूर्व की विधिक स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 312 और 313 के तहत गर्भपात एक दांडिक अपराध था।
  • शांतिलाल शाह समिति: बढ़ते असुरक्षित गर्भपात एवं मातृ मृत्यु दर की प्रतिक्रिया में इसने महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा के क्रम में वर्ष 1966 में गर्भपात से संबंधित विधियों को व्यापक और युक्तिसंगत बनाने की सिफारिश की।
  • MTP अधिनियम, 2021: गर्भ का चिकित्‍सकीय समापन (MPT) अधिनियम, 1971, जिसे अंतिम बार वर्ष 2021 में संशोधित किया गया था, एक पंजीकृत चिकित्सक (RMP) के अनुमोदन से 20 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है।
    • दो RMP के अनुमोदन से 20 से 24 सप्ताह के बीच गर्भपात की अनुमति है।
    • 24 सप्ताह के बाद राज्य चिकित्सा बोर्ड विशिष्ट स्थितियों के आधार पर गर्भपात की पात्रता निर्धारित करता है, जैसे भ्रूण में विसंगतियाँ या माँ के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा।
  • भारतीय न्याय संहिता: भारतीय न्याय संहिता (BNS) (पूर्व में IPC) के तहत MTP अधिनियम, 2021 में शामिल विधिक अपवादों को छोड़कर गर्भपात को अपराध माना गया है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप: न्यायमूर्ति केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामला, 2017 में पुष्टि की गई कि गर्भपात अनुच्छेद 21 के तहत महिला की निजता और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि 20 से 24 सप्ताह के बीच की गर्भधारण अवधि वाली अविवाहित महिलाओं को भी विवाहित महिलाओं के समान गर्भपात के अधिकार प्राप्त हैं तथा इस बात की पुष्टि की कि प्रजनन स्वायत्तता के तहत सभी महिलाओं को गर्भावस्था जारी रखने का विकल्प चुनने का समान अधिकार प्राप्त है।

Abortion_Law

गर्भपात संबंधी बाधाएँ क्या हैं?

  • राज्य द्वारा अनिवार्य नीतियाँ: हरियाणा जैसे राज्यों में अनिवार्य गर्भावस्था पंजीकरण से MTP अधिनियम की धारा 5A का उल्लंघन होने का खतरा है (जो गर्भपात कराने वाली महिलाओं के लिये सख्त गोपनीयता सुनिश्चित करता है), जिससे महिलाओं की गोपनीयता से समझौता कर संभवतः उन्हें असुरक्षित गर्भपात की ओर धकेला जा सकता है।
  • गर्भपात स्वायत्तता: भारत में गर्भपात सशर्त है, जबकि अन्य देशों (जैसे अमेरिका) में प्रजनन स्वायत्तता सर्वोपरि है।
    • भ्रूण की व्यवहार्यता: भ्रूण की व्यवहार्यता चिकित्सकीय और नैतिक रूप से अनिश्चित है, आमतौर पर 24 सप्ताह में मान लिया जाता है, लेकिन यह चिकित्सकीय बुनियादी ढाँचे और गर्भकालीन स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। 
      • नवजात शिशु देखभाल में प्रगति से यह सीमा और भी कम हो सकती है, जिसका असर गर्भपात कानूनों पर पड़ सकता है। 
      • न्यायालय भ्रूण के अधिकारों को महिला की स्वायत्तता के विरुद्ध मापा जाता हैं, विशेष रूप से सीमांत व्यवहार्यता मामलों (24-30 सप्ताह) में, अक्सर मानसिक या भावनात्मक कल्याण की अनदेखी करते हैं।
  • मेडिकल बोर्ड द्वारा विलंब: निर्णय मामला-दर-मामला आधार पर लिये जाते हैं, जिसके कारण अक्सर विलंब होता है, जिससे गर्भधारण की संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है।
  • बोर्डों में मानकीकृत प्रोटोकॉल का अभाव है तथा वे नैदानिक ​​साक्ष्य की अपेक्षा व्यक्तिपरक नैतिक विचारों (भ्रूण जीवन की धारणा) को लागू कर सकते हैं।
  • विशेषज्ञों की कमी: गर्भपात कानूनों के तहत स्त्री रोग विशेषज्ञों या प्रसूति विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है, लेकिन वर्ष 2019-20 के ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 70% कमी है तथा नवजात गहन देखभाल इकाइयों (NICU) का अभाव है।
  • कानूनी भय: चूँकि गर्भपात एक गारंटीकृत अधिकार के बजाय एक अपवाद है, इसलिये, विशेष रूप से जटिल मामलों में, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को कानूनी दायित्व का भय रहता है।
  • अस्पताल कभी-कभी अविवाहित महिलाओं से पुलिस को रिपोर्ट करने को कहते हैं, जिससे कानूनी जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • आलोचनात्मक दृष्टिकोण: देर से गर्भपात करवाने वाली महिलाओं को अक्सर आलोचनात्मक दृष्टिकोण और दखलंदाजी भरे सवालों का सामना करना पड़ता है। अविवाहित महिलाओं, नाबालिगों या विधवाओं को और भी अधिक जाँच का सामना करना पड़ता है।

गर्भपात देखभाल तक पहुँच में सुधार के लिये क्या किया जा सकता है?

  • स्वास्थ्य देखभाल अधिकार के रूप में गर्भपात: अनुमति-आधारित दृष्टिकोण से अधिकार-आधारित ढाँचे की ओर बदलाव, कानूनी गर्भावधि सीमाओं के भीतर गर्भपात को आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल के रूप में मान्यता प्रदान करता है।
  • गोपनीयता सुरक्षा को बढ़ाएँ: अनिवार्य गर्भावस्था पंजीकरण से बचना, MTP अधिनियम की धारा 5A के अनुसार गोपनीयता को सुदृढ़ करना।
  • चिकित्सीय गर्भपात (MTP) दवाएँ: नियामक निगरानी के साथ फार्मेसियों और स्वास्थ्य केंद्रों में MTP दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • प्रदाता आधार का विस्तार करना: प्रारंभिक चरण के MTP के लिये सामान्य चिकित्सकों और मध्य-स्तरीय प्रदाताओं को प्रशिक्षित करना। सुरक्षित और समय पर पहुँच सुनिश्चित करने के लिये ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करना।
  • यौन शिक्षा में सुधार: अवांछित गर्भधारण और असुरक्षित प्रक्रियाओं को रोकने के लिये गर्भनिरोधक और गर्भपात पर सटीक, आलोचना-मुक्त जानकारी के साथ यौन संबंधी शिक्षा को बढ़ावा देना।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में गर्भपात तक पहुँच में क्या बाधाएँ हैं, तथा प्रजनन न्याय सुनिश्चित करने के लिये क्या किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स

Q. भारत में समय और स्थान के विरुद्ध महिलाओं के लिये निरंतर चुनौतियाँ क्या हैं? (2019)


मुख्य परीक्षा

CBI में सुधार की आवश्यकता

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी विभाग -संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 145 वीं रिपोर्ट में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) में महत्त्वपूर्ण सुधारों की सिफारिश की है।

संसदीय समिति द्वारा अनुशंसित प्रमुख सुधार क्या हैं?

  • स्वतंत्र भर्ती ढाँचा: संरचित कॅरियर विकास के साथ एक स्थायी कैडर बनाने के लिये SSC, UPSC या एक स्वतंत्र निकाय के माध्यम से CBI-विशिष्ट परीक्षा की स्थापना करना।
    • बाहरी विशेषज्ञों पर निर्भरता कम करने के लिये एक आंतरिक विशेषज्ञ टीम स्थापित करना।
    • प्रतिनियुक्ति केवल उन वरिष्ठ पदों पर करना जिनमें विविध अनुभव की आवश्यकता हो।
  • लेटरल एंट्री : साइबर अपराध, फोरेंसिक, वित्तीय धोखाधड़ी और कानूनी डोमेन में विशेषज्ञों के लिये लेटरल एंट्री की शुरुआत करना।
    • आंतरिक विशेषज्ञता टीम बनाकर बाहरी विशेषज्ञों पर निर्भरता कम करना।
  • CBI के लिये अलग कानून: राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता को प्रभावित करने वाले मामलों में राज्य की सहमति के बिना CBI को व्यापक जाँच शक्तियाँ प्रदान करने के लिये एक अलग कानून बनाना।
    • आठ राज्यों द्वारा सामान्य सहमति वापस लेने से CBI पर भ्रष्टाचार और संगठित अपराध की जाँच करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
    • दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (DSPE) अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत CBI को राज्य के भीतर मामलों की जाँच करने के लिये राज्य सरकार की सहमति की आवश्यकता होती है, जब तक कि:
      • सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय या लोकपाल जाँच का आदेश देते हैं।
      • राज्य ने कुछ श्रेणियों के मामलों के लिये सामान्य सहमति प्रदान की है।

विभाग-संबंधित स्थायी समितियाँ क्या हैं?

और पढ़ें: विभागीय संबंधित स्थायी समितियाँ

CBI के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • स्थापना: संथानम समिति की सिफारिशों (वर्ष 1962-64) के आधार पर वर्ष 1963 में गठित।
  • भूमिका: यह रिश्वतखोरी, सरकारी भ्रष्टाचार, केंद्रीय कानून उल्लंघन, बहु-राज्य अपराध और अंतर्राष्ट्रीय मामलों से संबंधित मामलों की जाँच करती है।
    • इंटरपोल के साथ जाँच समन्वय के लिये भारत की नोडल एजेंसी।
  • कानूनी ढाँचा: DSPE अधिनियम, 1946 के तहत संचालित होती है।
  • प्रशासनिक नियंत्रण: कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय (PMO) के अधीन कार्य करता है।
  • पर्यवेक्षण:
    • भ्रष्टाचार के मामले: केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत भ्रष्टाचार की जाँच करता है।
    • अन्य मामले: कार्मिक मंत्रालय के अधीन कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा पर्यवेक्षित।
    • CBI निदेशक की नियुक्ति: लोकपाल अधिनियम, 2013 के तहत प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश (या सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश) की एक समिति द्वारा अनुशंसित।
    • कार्यकाल: 2 वर्ष, सार्वजनिक हित में 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है ।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता को प्रभावित करने वाले मामलों में CBI के लिये जाँच स्वायत्तता के महत्त्व का परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स 

प्रश्न. एक राज्य-विशेष के अंदर प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर करने तथा जाँच करने के केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी. बी. आई.) के क्षेत्राधिकार पर कई राज्य प्रश्न उठा रहे हैं। हालाँकि सी. बी. आई. जाँच के लिये राज्यों द्वारा दी गई सहमति को रोके रखने की शक्ति आत्यंतिक नहीं है। भारत के संघीय ढाँचे के विशेष संदर्भ में विवेचना कीजिये। (2021)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में खाद्य सब्सिडी का पुनर्मूल्यांकन

प्रिलिम्स के लिये:

घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013, नीति आयोग, बहुआयामी गरीबी

मेन्स के लिये:

भारत में खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों में सुधार की आवश्यकता, भारत में गरीबी की स्थिति, गरीबी उन्मूलन के लिये सरकारी उपाय।

स्रोत: बिज़नेस लाइन

चर्चा में क्यों?

HCES 2023-24 में आय में वृद्धि, निर्धनता में कमी और खाद्य व्यय में सुधार दर्शाया गया है, जिससे NFSA 2013 के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पर प्रकाश पड़ा है, जिसके तहत वर्ष 2011-12 के आँकड़ों के आधार पर अभी भी 81 करोड़ लोगों को सब्सिडी वाला खाद्यान्न प्रदान करना शामिल है। 

भारत में गरीबी रेखा का अनुमान

  • तेंदुलकर समिति (2009): इस समिति ने न्यूनतम कैलोरी सेवन के आधार पर गरीबी रेखा को परिभाषित किया। वर्ष 2004-05 की कीमतों के अनुसार, इसे ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 27 रुपए प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों के लिये 33 रुपए प्रतिदिन  निर्धारित किया गया। इसने गरीबी मापन के लिये आय और बुनियादी आवश्यकताओं पर ज़ोर दिया।
    • यह मीट्रिक भारत के आधिकारिक रूप से गरीबी मूल्यांकन का आधार बना हुआ है।
  • रंगराजन समिति (2014): गरीबी रेखा को संशोधित करते हुए इसे ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 32 रुपए प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों के लिये 47 रुपए प्रतिदिन निर्धारित किया। यह संशोधन व्यापक उपभोग पैटर्न तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सहित विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारकों को ध्यान में रखते हुए किया गया।
    • वर्ष 2011-12 के लिये गरीबी दर 29.5% अनुमानित की गई, जबकि तेंदुलकर द्वारा 21.9% का अनुमान लगाया था।
  • इस रिपोर्ट को आधिकारिक योजना या गरीबी अनुमान के लिये नहीं अपनाया जाता है।

भारत में खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है?

  • बढ़ती खपत: ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (MPCE) में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। 
    • वर्ष 2023-24 में ग्रामीण MPCE बढ़कर 4,122 रुपए हो गया (2011-12 की कीमतों पर 2,079  रुपए से), जो 2011-12 स्तर की तुलना में 45% की वृद्धि दर्शाता है, जबकि शहरी MPCE बढ़कर 6,996  रुपए हो गया (2011-12 की कीमतों पर 3,632  रुपए से), जो 38% की वृद्धि को दर्शाता है।
  • गरीबी के स्तर में कमी: SBI (2025) के एक हालिया अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2024 में भारत का गरीबी अनुपात 4-4.5% होगा, जिसमें लगभग 6.7 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी की स्थिति में होंगे।
    • मुद्रास्फीति-समायोजित तेंदुलकर गरीबी रेखा रिपोर्ट के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया कि ग्रामीण गरीबी वित्त वर्ष 2012 (वित्त वर्ष 12) में 25.7% से घटकर वित्त वर्ष 2024 (वित्त वर्ष 24) में 4.86% रह गई, जबकि शहरी गरीबी इसी अवधि में 13.7% से घटकर 4.09% हो गई।
    • भारत में अत्यधिक गरीबी दर 2011-12 में 21.9% से घटकर 2024 में 8.7% (12.9 करोड़ लोग) हो जाएगी (विश्व बैंक) । 
    • MPI के अनुसार, वित्त वर्ष 23 में केवल 11.28% आबादी बहुआयामी गरीबी में रह रही थी।
  • NFSA लाभार्थी कवरेज में विसंगति: NFSA 81 करोड़ लोगों (75% ग्रामीण और 50% शहरी आबादी) को सब्सिडी युक्त भोजन प्रदान करता है । 
  • हालाँकि, वर्तमान में गरीबी लगभग 10% है, जो कवरेज वास्तविक आवश्यकता से अधिक है, यह दर्शाता है कि कई प्राथमिकता प्राप्त परिवार (PHH) लाभार्थियों को वर्तमान में सब्सिडी की आवश्यकता नहीं है।
  • खाद्य सब्सिडी की अवसर लागत: सरकार NFSA पर वार्षिक रूप से 2 लाख करोड़ रुपए व्यय करती है। 
  • लाभार्थी कवरेज को युक्तिसंगत बनाने से रोज़गार सृजन, औद्योगिक विकास और सामाजिक बुनियादी ढाँचे जैसे प्रमुख क्षेत्रों के लिये संसाधन मुक्त हो सकते हैं।
  • शांता कुमार समिति (2015): इसने सब्सिडी को बेहतर ढंग से लक्षित करने के लिये PDS कवरेज को जनसंख्या के 40% तक कम करने की भी सिफारिश की थी।

HCES 2023-24 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

और पढ़ें: HCES 2023-24 के मुख्य निष्कर्ष

भारत में गरीबी की क्या स्थिति है?

और पढ़ें: भारत में गरीबी

अंत्योदय अन्न योजना (AAY) एवं प्राथमिकता प्राप्त परिवार (PHH)

  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 के तहत लाभार्थियों को AAY और PHH में वर्गीकृत किया गया है।
  • अंत्योदय अन्न योजना (AAY) परिवार: AAY भूमिहीन मजदूरों, सीमांत किसानों और दैनिक वेतन भोगियों सहित सबसे गरीब लोगों को कवर करता है। प्रत्येक परिवार को NFSA के तहत प्रति माह 35 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त होता है।
  • प्राथमिकता प्राप्त परिवार (PHH): PHH में सामाजिक-आर्थिक मानदंडों के आधार पर राज्यों द्वारा पहचानी गई  कमज़ोर आबादी शामिल होती है।
    • प्रत्येक सदस्य को प्रति माह 5 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त होता है, जो कुल मिलाकर प्रति परिवार लगभग 20 किलोग्राम होता है (औसत आकार: 4.2)।
  • कवरेज: AAY लगभग 9 करोड़ लोगों को कवर करता है, जबकि PHH 72 करोड़ लोगों को कवर करता है, जिससे NFSA के कुल लाभार्थियों की संख्या 81 करोड़ हो जाती है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 क्या है?

पढ़ने के लिये क्लिक करें: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में संशोधन: नीति आयोग

खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है?

  • डेटा-आधारित लक्ष्यीकरण: HCES 2023-24 डेटा का उपयोग करके, वर्तमान गरीबी स्तर के आधार पर NFSA लाभार्थी सूचियों को तर्कसंगत बनाया जा सकता है। 
    • समावेशन और बहिष्करण मानदंड निर्धारित करने से यह सुनिश्चित करने में सहायता मिलेगी कि केवल ऐसे व्यक्ति ही लाभ प्राप्त करें जिन्हें वास्तव में सहायता की आवश्यकता है।
  • खाद्य सब्सिडी में क्रमिक सुधार: अंत्योदय अन्न योजना (AAY) के अंतर्गत आने वाले परिवारों के लिये खाद्य सब्सिडी जारी रखते हुए, प्राथमिकता प्राप्त परिवारों (PHH) को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) में स्थानांतरित किया जाएगा, जिससे उन्हें अधिक लचीलापन मिलेगा।
    • गैर-गरीब परिवारों के लिये सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भरता कम करने के लिये चरणबद्ध योजना लागू करना ।
  • प्रौद्योगिकी-आधारित पारदर्शिता: आधार-संलग्न डेटाबेस और AI-आधारित निगरानी का उपयोग करके रिसाव रोकना, साथ ही कर, वाहन और रोज़गार रिकॉर्ड को एकीकृत कर लाभार्थी सूची को अद्यतन करना।
    • पोषण सुरक्षा की ओर बदलाव: सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी, जैसे अनीमिया और स्टंटिंग को दूर करने के लिये पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों (फलों, सब्ज़ियों, दालों) की उपलब्धता पर ध्यान केंद्रित करना।
      • विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति (2023) के अनुसार, भारत की लगभग 74% आबादी स्वस्थ आहार का व्यय वहन नहीं कर सकती।
  • स्थानीय खरीद DBT के साथ: लाभार्थियों को DBT-लिंक्ड खातों का उपयोग करके स्थानीय बाज़ारों से खाद्य पदार्थ खरीदने की अनुमति देना, जिससे परिवहन लागत में कमी आएगी और वितरण अधिक प्रभावी होगा, जिससे खाद्य सब्सिडी पर व्यय कम होगा।
  • सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) एवं नीतिगत पुनर्संरेखण: न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करने के लिये प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु UBI या बेरोज़गारी भत्ता लागू किया जाए। 
    • जैसे-जैसे व्यय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आवास की ओर बढ़ रहा है, खाद्य सुरक्षा नीतियों को व्यापक सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिये अनुकूलित करना चाहिये, जिससे सुलभ आवश्यक सेवाओं के साथ-साथ सस्ते खाद्य पदार्थों तक पहुँच भी सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

गरीबी स्तर में महत्त्वपूर्ण कमी और घरेलू उपभोग क्षमता में वृद्धि के साथ, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के व्यापक कवरेज का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक हो सकता है। खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम के अनुकूलन से संसाधनों का पुनर्विनियोजन किया जा सकता है, जिससे रोज़गार सृजन और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा तथा भारत के लिये एक अधिक सतत् और समावेशी कल्याण प्रणाली का मार्ग प्रशस्त होगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

Q. भारत में खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता की जाँच कीजिये। खाद्य वितरण में दक्षता और लक्ष्य निर्धारण बढ़ाने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न  

प्रीलिम्स:

प्रश्न. UNDP के समर्थन से ‘ऑक्सफोर्ड निर्धनता एवं मानव विकास नेतृत्व’ द्वारा विकसित ‘बहुआयामी निर्धनता सूचकांक’ में निम्नलिखित में से कौन-सा/से सम्मिलित है/हैं? (2012)

  1. पारिवारिक स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, संपत्ति और सेवाओं से वंचन
  2.   राष्ट्रीय स्तर पर क्रय शक्ति समता
  3.   राष्ट्रीय स्तर पर बजट घाटे की मात्रा और GDP की विकास दर 

निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. उच्च संवृद्धि के लगातार अनुभव के बावजूद भारत के मानव विकास के निम्नतम संकेतक चल रहे हैं। उन मुद्दों का परीक्षण कीजिये, जो संतुलित और समावेशी विकास को पकड़ में नहीं आने दे रहे हैं। (2019)


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