शासन व्यवस्था
फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट का प्रदर्शन
प्रिलिम्स के लिये:फास्ट ट्रैक कोर्ट, यौन अपराध मामलों में न्याय, बलात्कार और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012, भारतीय दंड संहिता (IPC), बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय, 1992 मेन्स के लिये:यौन अपराध मामलों में न्याय के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
कानून और विधि मंत्रालय के न्याय विभाग की केंद्र प्रायोजित योजना के तहत फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट का प्रदर्शन सराहनीय रहा है, जिससे बलात्कार और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (Protection of Children from Sexual Offenses- POCSO) अधिनियम, 2012 से संबंधित मामलों की सुनवाई प्रक्रिया में तेज़ी लाने में काफी प्रगति हुई है।
पृष्ठभूमि:
- परिचय:
- फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट विशेष मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने हेतु समर्पित न्यायालय हैं। त्वरित सुनवाई होने के कारण नियमित न्यायालयों की तुलना में इनकी मामला निपटान दर/क्लीयरेंस दर बेहतर है।
- "आगामी पाँच वर्षों में ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों को खत्म अथवा काफी सीमा तक कम करने के लिये" पहली बार वर्ष 2000 में ग्यारहवें वित्त आयोग द्वारा फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTCs) की सिफारिश की गई थी।
- रिपोर्ट आने के बाद केंद्र ने पाँच वर्ष की अवधि के लिये विभिन्न राज्यों में 1,734 अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना की। वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने फास्ट-ट्रैक न्यायालयों को वित्त प्रदान करना बंद कर दिया।
- दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले के बाद केंद्र सरकार ने 'निर्भया फंड' की स्थापना की, किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन किया तथा फास्ट-ट्रैक महिला न्यायालयों की स्थापना की।
- इसके बाद कुछ अन्य राज्यों जैसे- उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, बिहार आदि ने भी बलात्कार के मामलों के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की।
- फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट विशेष मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने हेतु समर्पित न्यायालय हैं। त्वरित सुनवाई होने के कारण नियमित न्यायालयों की तुलना में इनकी मामला निपटान दर/क्लीयरेंस दर बेहतर है।
- फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों के लिये योजना:
- सरकार ने वर्ष 2019 में भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत लंबित बलात्कार के मामलों और POCSO अधिनियम के तहत अपराधों के शीघ्र निपटान के लिये देश भर में 1,023 FTSCs स्थापित करने की योजना को मंज़ूरी प्रदान की।
- यह यौन अपराधियों के लिये निवारक रूपरेखा को भी सशक्त करता है।
- सरकार ने वर्ष 2019 में भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत लंबित बलात्कार के मामलों और POCSO अधिनियम के तहत अपराधों के शीघ्र निपटान के लिये देश भर में 1,023 FTSCs स्थापित करने की योजना को मंज़ूरी प्रदान की।
- प्रदर्शन:
- FTSCs ने जून 2023 तक बलात्कार और POCSO अधिनियम से संबंधित 1.74 लाख से अधिक मामलों का सफलतापूर्वक निपटान किया है।
- यह यौन अपराध के पीड़ितों को त्वरित न्याय प्रदान करने हेतु इन विशेष अदालतों के महत्त्वपूर्ण प्रभाव को दर्शाता है।
- वर्तमान में 29 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 763 FTSCs कार्यरत हैं।
- इनमें से 412 विशिष्ट POCSO न्यायालय हैं।
- FTSCs ने जून 2023 तक बलात्कार और POCSO अधिनियम से संबंधित 1.74 लाख से अधिक मामलों का सफलतापूर्वक निपटान किया है।
फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट से संबंधित चुनौतियाँ:
- अपर्याप्त मूलभूत व्यवस्था और निम्न निपटान दर:
- भारत में स्पेशल कोर्ट को अक्सर नियमित न्यायालयों की तरह ही चुनौतियों से जूझना पड़ता है, क्योंकि उन्हें आमतौर पर नई मूलभूत व्यवस्था के रूप में स्थापित करने की बजाय नामित किया जाता है।
- इससे न्यायाधीशों पर कार्य का बोझ अत्यधिक बढ़ जाता है, उन्हें आवश्यक सहायक कर्मचारियों या बुनियादी ढाँचे के बिना मौजूदा कार्यभार के अलावा अन्य श्रेणियों से संबंधित मामले भी सौंपे जाते हैं।
- परिणामस्वरूप इन स्पेशल कोर्ट में मामलों के निपटान की दर धीमी हो जाती है।
- कानून और न्याय मंत्रालय के मई 2023 तक के आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली के फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट की निपटान दर केवल 19% है, जो देश में सबसे न्यूनतम है।
- कानून और न्याय मंत्रालय के मई 2023 तक के आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली के फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट की निपटान दर केवल 19% है, जो देश में सबसे न्यूनतम है।
- भारत में स्पेशल कोर्ट को अक्सर नियमित न्यायालयों की तरह ही चुनौतियों से जूझना पड़ता है, क्योंकि उन्हें आमतौर पर नई मूलभूत व्यवस्था के रूप में स्थापित करने की बजाय नामित किया जाता है।
- सीमित क्षेत्राधिकार:
- ये न्यायालय एक विशिष्ट क्षेत्राधिकार के साथ स्थापित किये जाते हैं, जो संबंधित मामलों से निपटने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकते हैं। इससे न्याय मिलने में देरी के साथ ही कानूनों के कार्यान्वयन की निरंतरता में कमी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- आदर्श रूप से इन विशेष अदालतों में मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर किया जाना चाहिये। हालाँकि मई 2023 तक दिल्ली ने कुल 4,369 लंबित मामलों में से केवल 1,049 मामलों का ही निपटान किया था। यह लंबित मामलों के निपटान में हो रही देरी को दर्शाता है।
- आदर्श रूप से इन विशेष अदालतों में मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर किया जाना चाहिये। हालाँकि मई 2023 तक दिल्ली ने कुल 4,369 लंबित मामलों में से केवल 1,049 मामलों का ही निपटान किया था। यह लंबित मामलों के निपटान में हो रही देरी को दर्शाता है।
- ये न्यायालय एक विशिष्ट क्षेत्राधिकार के साथ स्थापित किये जाते हैं, जो संबंधित मामलों से निपटने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकते हैं। इससे न्याय मिलने में देरी के साथ ही कानूनों के कार्यान्वयन की निरंतरता में कमी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- रिक्तियाँ और प्रशिक्षण का अभाव:
- न्यायाधीशों की कमी मामलों को प्रभावी ढंग से निपटाने की अदालतों की क्षमता को प्रभावित करती है।
- वर्ष 2022 तक संपूर्ण भारत की निचली अदालतों में रिक्ति दर 23% थी।
- वर्ष 2022 तक संपूर्ण भारत की निचली अदालतों में रिक्ति दर 23% थी।
- सामान्य अदालतों के नियमित न्यायाधीशों को अक्सर FTSCs में काम करने के लिये प्रतिनियुक्त किया जाता है।
- हालाँकि इन अदालतों को मामलों को जल्दी और प्रभावी ढंग से निपटाने के लिये विशेष प्रशिक्षण प्राप्त न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है।
- न्यायाधीशों की कमी मामलों को प्रभावी ढंग से निपटाने की अदालतों की क्षमता को प्रभावित करती है।
- कुछ अपराधों को अन्य अपराधों से अधिक प्राथमिकता देना:
- भारत में विशेष न्यायालयों की स्थापना अक्सर सरकार की दोनों शाखाओं; न्यायिक और कार्यकारी द्वारा लिये गए तदर्थ/अस्थायी निर्णयों द्वारा निर्धारित की जाती है।
- इस दृष्टिकोण का अर्थ है कि अपराधों की कुछ श्रेणियों को दूसरे अपराधों की तुलना में तेज़ी से निपटाने के लिये प्राथमिकता दी जाती है।
- भारत में विशेष न्यायालयों की स्थापना अक्सर सरकार की दोनों शाखाओं; न्यायिक और कार्यकारी द्वारा लिये गए तदर्थ/अस्थायी निर्णयों द्वारा निर्धारित की जाती है।
POCSO अधिनियम:
- परिचय:
- POCSO अधिनियम 14 नवंबर, 2012 को लागू हुआ, जिसे बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, 1992 के भारत के अनुसमर्थन के परिणामस्वरूप अधिनियमित किया गया था।
- इस विशेष कानून का उद्देश्य बच्चों का यौन शोषण और उन यौन शोषण के अपराधों को संबोधित करना है, जिन्हें या तो स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया या जिनके लिये पर्याप्त दंड का प्रावधान नहीं किया गया था।
- यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चे के रूप में परिभाषित करता है। अधिनियम अपराध की गंभीरता के अनुसार सज़ा का प्रावधान करता है।
- विशेषताएँ:
- लिंग-तटस्थ प्रकृति: यह अधिनियम मानता है कि लड़कियाँ और लड़के दोनों यौन शोषण के शिकार हो सकते हैं तथा पीड़ित के लिंग की परवाह किये बिना ऐसा दुर्व्यवहार एक अपराध है।
- यह इस सिद्धांत के अनुरूप है कि सभी बच्चों को यौन दुर्व्यवहार और शोषण से सुरक्षा प्राप्ति का अधिकार है और कानूनों को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिये।
- मामलों की रिपोर्ट करने में सुविधा: अब न केवल व्यक्तियों बल्कि संस्थानों में भी बच्चों के यौन शोषण के मामलों की रिपोर्ट करने के लिये पर्याप्त सामान्य जागरूकता है क्योंकि रिपोर्टिंग न करने को POCSO अधिनियम के तहत एक विशिष्ट अपराध बना दिया गया है।
- इससे बच्चों के खिलाफ अपराधों को छिपाना तुलनात्मक रूप से कठिन हो गया है।
- शर्तों की स्पष्ट परिभाषा: बाल पोर्नोग्राफी सामग्री के भंडारण को एक नया अपराध बना दिया गया है।
- इसके अलावा 'यौन उत्पीड़न' के अपराध को भारतीय दंड संहिता में 'महिला की लज्जा भंग करने' की अमूर्त परिभाषा के विपरीत स्पष्ट शब्दों में (बढ़ी हुई न्यूनतम सज़ा के साथ) परिभाषित किया गया है।
- लिंग-तटस्थ प्रकृति: यह अधिनियम मानता है कि लड़कियाँ और लड़के दोनों यौन शोषण के शिकार हो सकते हैं तथा पीड़ित के लिंग की परवाह किये बिना ऐसा दुर्व्यवहार एक अपराध है।
महिला एवं बाल दुर्व्यवहार को रोकने के लिये पहल:
- बाल दुर्व्यवहार रोकथाम और जाँच इकाई
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015
- बाल विवाह निषेध अधिनियम (2006)
- बाल श्रम निषेध एवं विनियमन अधिनियम, 2016
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. राष्ट्रीय बाल नीति के मुख्य प्रावधानों का परीक्षण कीजिये तथा इसके कार्यान्वयन की स्थिति पर प्रकाश डालिये। (2016) प्रश्न. हमें देश में महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं। इस कुकृत्य के विरुद्ध विद्यमान विधिक उपबंधों के होते हुए भी ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस संकट से निपटने के लिये कुछ नवाचारी उपाय सुझाइये। (2014) |
कृषि
अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड के सेवन को लेकर चिंताएँ
प्रिलिम्स के लिये:अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, कोविड-19 महामारी, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI), सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 मेन्स के लिये:अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड के सेवन को लेकर चिंताएँ |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस द्वारा जारी एक रिपोर्ट में पाया गया कि भारत का अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड/खाद्य क्षेत्र वर्ष 2011 से 2021 तक खुदरा बिक्री मूल्य में 13.37% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) से बढ़ा है।
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड:
- परिचय:
- प्रसंस्कृत फूड/भोजन में आमतौर पर नमक, चीनी और वसा को मिलाया जाता है। यदि मूल उत्पाद में पाँच या अधिक सामग्रियाँ मिलाई गई हों तो भोजन को अल्ट्रा-प्रोसेस्ड माना जाता है।
- ये अन्य सामग्रियाँ आमतौर पर सुगंध और स्वाद बढ़ाने वाले, इमल्सीफायर और रंग हैं तथा इनका उपयोग उत्पाद को अधिक दिन तक टिकाऊ बनाए रखने और स्वाद को बेहतर बनाने के लिये किया जाता है।
- उदाहरण के लिये कच्चा आटा असंसाधित होता है। दलिया नमक और चीनी मिलाकर प्रसंस्कृत भोजन है। अगर हम आटे से कुकीज़ बनाते हैं और उसमें कई अन्य चीज़ें मिलाते हैं, तो यह अल्ट्रा-प्रोसेस्ड होता है।
- चिंताएँ:
- नमक, चीनी और वसा आमतौर पर सभी प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में मिलाए जाते हैं। ऐसे खाद्य पदार्थों का नियमित या अधिक मात्रा में सेवन स्वास्थ्यवर्द्धक नहीं माना जाता है।
- वे मोटापा, उच्च रक्तचाप, हृदय संबंधी समस्याएँ और जीवन-शैली संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं। अल्ट्रा-प्रोसेस्ड भोजन में मिलाए जाने वाले कृत्रिम रसायन आँत के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
- आँत के स्वास्थ्य में कोई भी असंतुलन न्यूरोलॉजिकल समस्या और तनाव से लेकर मूड में बदलाव और मोटापे तक कई समस्याओं को जन्म दे सकता है।
- अधिकांश अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों में स्वाद बढ़ाने वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता है, इसलिये लोग उनके आदी हो जाते हैं।
- इसके अलावा प्राकृतिक भोजन जल्दी खराब हो जाता है और शरीर द्वारा बहुत जल्दी अवशोषित कर लिया जाता है।
- साधारण चीनी की उच्च खुराक का प्रभाव यह होता है कि यह शरीर में इंसुलिन की मात्रा को बढ़ा देती है, जिससे भूख ज़्यादा लगती है और शरीर को अधिक भोजन की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिये कहा जाता है कि चीनी व्यसनकारी होती है।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:
- अस्थायी व्यवधान और रिकवरी:
- कोविड-19 महामारी ने एक अस्थायी व्यवधान पैदा किया, जिससे भारतीय अल्ट्रा-प्रसंस्कृत खाद्य क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर वर्ष 2019 के 12.65% से घटकर 2020 में 5.50% हो गई।
- हालाँकि वर्ष 2020-2021 में इस क्षेत्र ने 11.29% की वृद्धि दर के साथ उल्लेखनीय रूप से वापसी दर्ज की।
- कोविड-19 महामारी ने एक अस्थायी व्यवधान पैदा किया, जिससे भारतीय अल्ट्रा-प्रसंस्कृत खाद्य क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर वर्ष 2019 के 12.65% से घटकर 2020 में 5.50% हो गई।
- प्रमुख श्रेणियाँ और बिक्री की मात्रा:
- सबसे लोकप्रिय अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य श्रेणियों में चॉकलेट और चीनी कन्फेक्शनरी, नमकीन स्नैक्स, पेय पदार्थ, तैयार और सुविधाजनक खाद्य पदार्थ तथा नाश्ता आदि आहार शामिल हैं।
- वर्ष 2011 से 2021 तक खुदरा बिक्री की मात्रा के संदर्भ में पेय पदार्थों की हिस्सेदारी सबसे अधिक थी, इसके बाद चॉकलेट, चीनी कन्फेक्शनरी और रेडीमेड तथा सुविधाजनक खाद्य पदार्थों का स्थान था।\
- सबसे लोकप्रिय अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य श्रेणियों में चॉकलेट और चीनी कन्फेक्शनरी, नमकीन स्नैक्स, पेय पदार्थ, तैयार और सुविधाजनक खाद्य पदार्थ तथा नाश्ता आदि आहार शामिल हैं।
- स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और उपभोग के बदलते तरीके:
- स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ताओं ने महामारी के दौरान कार्बोनेटेड मीठे पेय पदार्थों से फलों और सब्जियों के रस/जूस की ओर रुख किया, ऐसा उन्होंने संभवतः कथित प्रतिरक्षा-बढ़ाने वाले गुणों में वृद्धि के लिये किया।
- हालाँकि इन वैकल्पिक पेय पदार्थों में उच्च स्तर की शर्करा भी शामिल हो सकती है।
- स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ताओं ने महामारी के दौरान कार्बोनेटेड मीठे पेय पदार्थों से फलों और सब्जियों के रस/जूस की ओर रुख किया, ऐसा उन्होंने संभवतः कथित प्रतिरक्षा-बढ़ाने वाले गुणों में वृद्धि के लिये किया।
सुझाव:
- अधिक सख्त विज्ञापन और विपणन विनियम:
- यह रिपोर्ट सख्त विज्ञापन और विपणन नियमों की आवश्यकता, विशेष रूप से बच्चों के बीच लोकप्रिय मीठे बिस्कुट जैसे- उत्पादों के संबंध में अधिक ज़ोर डालती है।
- नमकीन स्नैक्स में नमक की उच्च मात्रा उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिये जोखिम पैदा करती है, इन नियमों के माध्यम से इसे संबोधित करना आवश्यक हो जाता है।
- यह रिपोर्ट सख्त विज्ञापन और विपणन नियमों की आवश्यकता, विशेष रूप से बच्चों के बीच लोकप्रिय मीठे बिस्कुट जैसे- उत्पादों के संबंध में अधिक ज़ोर डालती है।
- Clear Definition of High Fat Sugar Salt (HFSS) Foods:
- उच्च वसा, चीनी, नमक (HFSS) युक्त खाद्य पदार्थों की स्पष्ट परिभाषा:
- भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) को उच्च वसा वाले चीनी व नमक (HFSS) युक्त खाद्य पदार्थों की स्पष्ट परिभाषा उल्लेखित करने के लिये हितधारकों के साथ सहयोग करना चाहिये।
- GST परिषद के माध्यम से कर संरचना को HFSS खाद्य पदार्थों की परिभाषा के साथ जोड़ने से अनुशंसित स्तर से अधिक वसा, चीनी और नमक युक्त उत्पादों पर उच्च कर लगाकर स्वस्थ और सुव्यवस्थित विकल्पों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- व्यापक राष्ट्रीय पोषण नीति:
- हितधारकों के साथ गहन परामर्श के बाद अच्छी तरह से परिभाषित उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ अल्प और अति-पोषण दोनों को संबोधित करने वाली एक सशक्त राष्ट्रीय पोषण नीति की आवश्यकता है।
- सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 जैसी मौजूदा नीतियाँ अतिपोषण और आहार संबंधी बीमारियों से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने में सक्षम नहीं हैं।
- हितधारकों के साथ गहन परामर्श के बाद अच्छी तरह से परिभाषित उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ अल्प और अति-पोषण दोनों को संबोधित करने वाली एक सशक्त राष्ट्रीय पोषण नीति की आवश्यकता है।
- पोषण संबंधी संक्रमण और दीर्घकालिक लक्ष्य:
- इस रिपोर्ट में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों की खपत को कम करने और साबुत अनाज का उपभोग बढ़ाने के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए एक स्वस्थ जीवनशैली की ओर संक्रमण हेतु प्रोत्साहित किया गया है।
- भारत में साबुत अनाज के सेवन में कमी को गैर-संचारी रोगों के लिये प्राथमिक आहार जोखिम कारक के रूप में पहचान की गई है।
स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देने हेतु सरकारी पहलें:
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: भारत सरकार मेगा फूड पार्क की अवधारणा को किस/किन उद्देश्य/उद्देश्यों से प्रोत्साहित कर रही है? (2011)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) व्याख्या:
प्रश्न. बाज़ार में बिकने वाला ऐस्परटेम कृत्रिम मधुरक है। यह एमीनो अम्लों से बना होता है और अन्य एमीनो अम्लों के समान ही कैलोरी प्रदान करता है। फिर भी यह भोज्य पदार्थों में कम कैलोरी मधुरक के रूप में इस्तेमाल होता है। उसके इस्तेमाल का क्या आधार है? (2011) (a) ऐस्परटेम सामान्य चीनी जितना ही मीठा होता है, किंतु चीनी के विपरीत यह मानव शरीर में आवश्यक एन्जाइमों के अभाव के कारण शीघ्र ऑक्सीकृत नहीं हो पाता है। उत्तर: d मेन्स:प्रश्न. उत्तर-पश्चिम भारत के कृषि आधारित खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के स्थानीयकरण के कारकों पर चर्चा कीजिये। (2019) प्रश्न. देश में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की चुनौतियाँ और अवसर क्या हैं? खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देकर किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि किस प्रकार की जा सकती है? (2020) |
शासन व्यवस्था
RTI ऑनलाइन पोर्टल से सार्वजनिक जानकारी गायब
स्रोत: द हिंदू
प्रिलिम्स के लिये:आरटीआई अधिनियम, संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a), केंद्रीय सूचना आयोग, सार्वजनिक सूचना कार्यालय, ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी मेन्स के लिये:भारत में आरटीआई से जुड़े मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार के आरटीआई ऑनलाइन पोर्टल के समक्ष एक विकट स्थिति उत्पन्न हुई है, इस पोर्टल पर पिछले आवेदनों और प्रतिक्रियाओं सहित बड़ी मात्रा में सार्वजनिक जानकारी गायब होने की खबरें आ रही हैं।
- गायब हुए अभिलेखीय डेटा की पुनर्प्राप्ति के उद्देश्य से पोर्टल के रख-रखाव का कार्य चल रहा है। यह घटना आरटीआई अधिनियम के ढाँचे के भीतर जवाबदेही बनाए रखने से जुड़ी चुनौतियों को रेखांकित करती है।
सूचना का अधिकार अधिनियम:
- परिचय:
- सूचना का अधिकार अधिनियम एक विधायी ढाँचा है जो भारतीय नागरिकों को सार्वजनिक अधिकारियों के पास उपलब्ध जानकारी को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है। वर्ष 2005 में अधिनियमित इस अधिनियम का उद्देश्य सरकारी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, जवाबदेही और भागीदारी को बढ़ावा देना है।
- इसने सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 को प्रतिस्थापित किया है।
- इससे पहले राजस्थान में मज़दूर किसान शक्ति संगठन, जो कि एक गैर सरकारी संगठन था, ने राज्य सरकार को वर्ष 1997 में सूचना का अधिकार अधिनियम पारित करने की पहल की थी।
- आरटीआई अधिनियम की धारा 22 के अनुसार, इस अधिनियम के प्रावधान वर्ष 1923 के आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, मौजूदा कानूनों अथवा इस अधिनियम के अलावा अन्य कानूनों के माध्यम से स्थापित किसी भी समझौते के साथ किसी भी विरोधाभास के बावजूद प्रभावी होंगे।
- सूचना का अधिकार अधिनियम एक विधायी ढाँचा है जो भारतीय नागरिकों को सार्वजनिक अधिकारियों के पास उपलब्ध जानकारी को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है। वर्ष 2005 में अधिनियमित इस अधिनियम का उद्देश्य सरकारी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, जवाबदेही और भागीदारी को बढ़ावा देना है।
- संवैधानिक समर्थन:
- आरटीआई अधिनियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) से लिया गया है, यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
- राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार माना जाएगा।
- आरटीआई अधिनियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) से लिया गया है, यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
- समय-सीमा:
- सामान्य तौर पर किसी आवेदक को सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा आवेदन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर सूचना प्रदान की जानी होती है।
- यदि मांगी गई जानकारी किसी व्यक्ति के जीवन अथवा स्वतंत्रता से संबंधित है, तो उससे संबंधित जानकारी आवेदक को 48 घंटों के भीतर प्रदान किये जाने का प्रावधान है।
- यदि आवेदन सहायक लोक सूचना अधिकारी के माध्यम से भेजा गया है या यह किसी गलत लोक प्राधिकारी को भेजा गया है, तो तीस दिन या 48 घंटे की अवधि में मामले के अनुरूप उसकी कार्यवाही में अतिरिक्त पाँच दिन जोड़ दिये जाएंगे।
- मुक्त जानकारी (Exempted Information):
- RTI अधिनियम की धारा 8 (1) इस बारे में बात करती है कि किन सूचनाओं को RTI के तहत छूट दी गई है, इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राज्य के रणनीतिक मामले, विदेशी संबंध, अपराधों के लिये उकसाना आदि से संबंधित जानकारी शामिल है।
- कार्यान्वयन:
- जन सूचना कार्यालय (PIO) RTI अधिनियम के कार्यान्वयन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
- PIO किसी सार्वजनिक प्राधिकरण के भीतर एक नामित अधिकारी है जो जानकारी मांगने वाले नागरिकों और उस जानकारी को रखने वाले सरकारी संगठन के बीच एक पुल के रूप में कार्य करता है।
- जन सूचना कार्यालय (PIO) RTI अधिनियम के कार्यान्वयन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
- अपीलीय प्राधिकारी और तंत्र:
- यदि किसी नागरिक के RTI अनुरोध को अस्वीकार कर दिया जाता है अथवा वह PIO द्वारा दिये गए जवाब से संतुष्ट नहीं है तो उसी सार्वजनिक प्राधिकरण के भीतर प्रथम अपीलीय प्राधिकरण में अपील की जा सकती है।
- यदि नागरिक अभी भी प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के निर्णय से असंतुष्ट है तो वह केंद्रीय या राज्य सूचना आयोग में दूसरी अपील दायर कर सकता है।
आरटीआई अधिनियम में हुए हालिया संशोधन:
- वर्ष 2023 में हुए संशोधन: हाल ही में डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम 2023 की धारा 44 (3) द्वारा आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (1) (j) में संशोधन किया गया है। इससे अब सभी व्यक्तिगत जानकारी का प्रकटीकरण अनिवार्य नहीं रह गया है और पहले से स्थापित अपवादों को हटा दिया गया जो इस प्रकार की सूचना जारी करने की अनुमति देते थे ।
- सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019: इसके द्वारा केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल तथा शर्तों में बदलाव किया गया।
- सूचना आयुक्तों का कार्यकाल: पूर्व निर्धारित 5-वर्षीय कार्यकाल के विपरीत, उनका कार्यकाल अब केंद्र सरकार के निर्देशों (वर्तमान में 3 वर्ष की अवधि के लिये निर्धारित) द्वारा शासित होता है।
- वेतन का निर्धारण: इसमें यह भी प्रावधान है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों (केंद्र के साथ-साथ राज्यों के) के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्तें केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जाएँगी।
- वेतन में कटौती: वर्ष 2019 के अधिनियम द्वारा मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के समय पिछली सरकारी सेवा के लिये पेंशन, या किसी अन्य सेवानिवृत्ति लाभ में कटौती के प्रावधानों को हटा दिया।
भारत में RTI से संबंधित मुद्दे:
- लंबित मामले: वर्तमान में पूरे भारत में विभिन्न सूचना आयोगों के पास 3 लाख से अधिक शिकायतें अथवा अपीलें लंबित हैं।
- इसके अलावा सूचना आयुक्तों (ICs) और राज्य सूचना आयुक्तों (SICs) के काफी पद रिक्त हैं।
- RTI अधिनियम का दुरुपयोग: कुछ लोग सार्वजनिक हित के बजाय RTI अधिनियम का उपयोग तुच्छ, कष्टप्रद या व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिये करते हैं। इससे सार्वजनिक प्राधिकरणों के समय और संसाधनों की बर्बादी होती है तथा उनकी कार्य कुशलता में बाधा आती है।
- अत्यधिक छूट: अधिनियम संवेदनशील जानकारी की सुरक्षा के लिये छूट प्रदान करता है। हालाँकि ऐसे उदाहरण हैं जहाँ जानकारी के लिये वैध अनुरोधों को अस्वीकार करने के लिये इन छूटों का दुरुपयोग किया गया है।
- सूचना का अधिकार बनाम निजता का अधिकार कानून: RTI अधिनियम और उभरते डेटा संरक्षण एवं गोपनीयता कानूनों के बीच तनाव इन अधिकारों के पदानुक्रम तथा उनके बीच संभावित संघर्षों के बारे में सवाल उठाता है।
आगे की राह
- ओपन डेटा इकोसिस्टम: एक व्यापक ओपन डेटा इकोसिस्टम स्थापित करने की आवश्यकता है जहाँ प्रासंगिक सरकारी डेटा जनता के लिये पठनीय प्रारूप में उपलब्ध हो।
- इससे RTI मामलों में कमी आ सकती है और नागरिकों, शोधकर्ताओं तथा पत्रकारों को डेटा तक अधिक प्रभावी ढंग से पहुँचने और उसका विश्लेषण करने में सक्षम बनाया जा सकता है।
- डेटा सुरक्षा के लिये ब्लॉकचेन: RTI से संबंधित सरकारी कार्यों और निर्णयों का एक अपरिवर्तनीय एवं पारदर्शी रिकॉर्ड बनाने, जवाबदेही सुनिश्चित करने तथा डेटा छेड़छाड़ को रोकने के लिये ब्लॉकचेन तकनीक के उपयोग का पता लगाने की आवश्यकता है।
- प्राधिकारियों के लिये पारदर्शिता सूचकांक: एक पारदर्शिता सूचकांक विकसित करने की आवश्यकता है जो RTI अनुरोधों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर सार्वजनिक प्राधिकारियों का मूल्यांकन करता हो, ताकि बेहतर जवाबदेही के लिये स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा मिल सके।
- AI-सहायता प्राप्त प्रतिक्रियाएँ: RTI अनुरोधों को वर्गीकृत करने और संसाधित करने के लिये AI-संचालित प्रणालियों को लागू करने की आवश्यकता है, जिससे सटीक सूचना पुनर्प्राप्ति सुनिश्चित करते हुए प्रतिक्रिया प्रक्रिया अधिक कुशल बनाया जा सके।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न .”सूचना का अधिकार अधिनियम केवल नागरिकों के सशक्तीकरण के बारे में नहीं है, अपितु यह आवश्यक रूप से जवाबदेही की संकल्पना को पुनः परिभाषित करता है।” विवेचना कीजिये। (2018) |