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डेली न्यूज़

  • 26 May, 2023
  • 47 min read
भारतीय राजनीति

अध्यादेशों का प्रख्यापन और पुन: प्रख्यापन

प्रिलिम्स के लिये:

अध्यादेश, संसद, राज्यपाल, बैंकिंग कंपनियाँ (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अध्यादेश, 1969, न्यायिक समीक्षा, आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970)

मेन्स के लिये:

भारत में अध्यादेशों का अधिनियमन, अध्यादेश का पुन: प्रख्यापन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (National Capital Territory- NCT) में दिल्ली के उपराज्यपाल को सेवाओं के संदर्भ में अधिकार देते हुए अध्यादेश जारी या प्रख्यापित किया है।

  • इस अध्यादेश के तहत "राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण" की स्थापना की गई जिसमें मुख्यमंत्री और दो वरिष्ठ IAS अधिकारी शामिल हैं, जो उन्हें बहुमत के माध्यम से मामलों को तय करने का अधिकार प्रदान करता है।
  • आलोचकों का तर्क है कि यह कदम प्रभावी रूप से ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जहाँ निर्वाचित मुख्यमंत्री के विचारों को संभावित रूप से खारिज किया जा सकता है।

भारतीय राजनीति में अध्यादेश:

  • परिचय:  
    • भारत के संविधान का अनुच्छेद 123 जब संसद के दोनों सदनों में से कोई भी अत्यावश्यक परिस्थितियों में सत्र में नहीं होता है तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने हेतु कानून बनाने की कुछ शक्तियाँ प्रदान करता है।
      • इसलिये संसद द्वारा अध्यादेश जारी करना संभव नहीं है।
      • जब अध्यादेश प्रख्यापित किया जाता है लेकिन विधायी सत्र अभी शुरू नहीं हुआ है, तो अध्यादेश कानून के रूप में प्रभावी रहता है। इसकी वही शक्ति एवं प्रभाव है जो विधायिका के अधिनियम का होता है।
        • लेकिन इसके पुन: प्रख्यापन के छह सप्ताह के भीतर संसद द्वारा अनुसमर्थन आवश्यक होता है।
      • राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित अध्यादेश की वैधता इसके प्रख्यापन की तारीख से छह सप्ताह और अधिकतम छह महीने तक होती है।
    • किसी राज्य का राज्यपाल भी राज्य में विधानसभा सत्र न होने की स्थिति में भारत के संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अध्यादेश जारी कर सकता है।
    • यदि दोनों सदन अलग-अलग तिथियों पर अपना सत्र शुरू करते हैं, तो बाद की तारीख पर विचार किया जाता है (अनुच्छेद 123 और 213)।
  • अधिनियमन:  
    • अध्यादेश बनाने की प्रक्रिया में अध्यादेश लाने का निर्णय सरकार के पास होता है, क्योंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है।
      • यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझे, तो वह मंत्रिमंडल की सिफारिश के लिये  पुनर्विचार हेतु इसे वापस कर सकता है।
      • हालाँकि यदि इसे वापस (पुनर्विचार के साथ या बिना) भेजा जाता है, तो राष्ट्रपति को इसे प्रख्यापित करना होता है।
  • अध्यादेश की वापसी:  
    • किसी संभावित कमी के कारण राष्ट्रपति एक अध्यादेश को वापस ले सकता है और संसद के दोनों सदन इसे अस्वीकार करने के लिये संकल्प पारित कर सकते हैं। हालाँकि एक अध्यादेश की अस्वीकृति का अर्थ यह होगा कि सरकार ने बहुमत खो दिया है।
      • हालाँकि यदि कोई अध्यादेश संसद की क्षमता के दायरे से बाहर कानून बनाता है, तो इसे शून्य माना जाता है।
  • अध्यादेश का पुन: प्रख्यापन: 
    • जब कोई अध्यादेश समाप्त हो जाता है, तो सरकार आवश्यकता पड़ने पर इसे फिर से प्रख्यापित करने का विकल्प चुन सकती है।
    • वर्ष 2017 के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विधायी विचार के बिना बार-बार पुन: प्रचार करना असंवैधानिक होगा और विधायिका की भूमिका का उल्लंघन होगा।
      • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अध्यादेश जारी करने की शक्ति को एक आपातकालीन उपाय के रूप में माना जाना चाहिये, न कि विधायिका को बायपास करने के साधन के रूप में।

नोट: किसी भी अन्य कानून की तरह एक अध्यादेश पूर्वव्यापी हो सकता है यानी यह पिछली तारीख से लागू हो सकता है। यह संसद के किसी अधिनियम या किसी अन्य अध्यादेश को संशोधित या निरस्त भी कर सकता है।

फायदा

नुकसान

वे जरूरी मामलों पर त्वरित और प्रभावी कार्रवाई की अनुमति देते हैं।

वे कानून बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार करते हैं और संसदीय निरीक्षण को कम करते हैं। 

वे विधायी बाधाओं के बिना नीति कार्यान्वयन को सक्षम करते हैं।

वे शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमज़ोर करते हैं और विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं।

न्यायिक अंतर या अस्पष्टता के मामले में वे कानूनी निश्चितता और स्पष्टता प्रदान करते हैं।

वे कानूनी अस्थिरता पैदा करते हैं क्योंकि वे अस्थायी हैं और परिवर्तन या निरसन के अधीन हैं।

वे कार्यकारी शाखा की अनुक्रियता और जवाबदेही को दर्शाते हैं।

उनका राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ के लिये या सार्वजनिक जाँच या बहस से बचने हेतु दुरुपयोग किया जा सकता है।

अध्यादेशों पर अन्य विगत न्यायिक घोषणाएँ: 

  • आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970): इस मामले ने बैंकिंग कंपनियों (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अध्यादेश, 1969 को चुनौती दी, जिसने भारत में 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अध्यादेश की आवश्यकता के संबंध में राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं है और इसे चुनौती दी जा सकती है।
    • न्यायालय के अनुसार, एक अध्यादेश संसद के अधिनियम के समान संवैधानिक सीमाओं के अधीन है और संविधान के किसी भी मौलिक अधिकार या अन्य प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
  •  ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982): इस मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, 1980 को चुनौती दी गई थी, जिसमें बिना मुकदमे के एक वर्ष तक के लिये व्यक्तियों को निवारक हिरासत में रखने का प्रावधान था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यादेश की वैधता का समर्थन किया, लेकिन इसके संचालन के लिये कुछ सुरक्षा उपाय निर्धारित किये जैसे कि एक सलाहकार बोर्ड द्वारा समय-समय पर समीक्षा, हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के आधार की सूचना देना और हिरासत के खिलाफ प्रतिनिधित्व का अवसर देना
    • न्यायालय के अनुसार, एक अध्यादेश का उपयोग संसदीय कानून के विकल्प के रूप में नहीं किया जाना चाहिये और इसका उपयोग केवल अत्यावश्यकता या अप्रत्याशित आपात स्थिति के मामलों में किया जाना चाहिये।
  • डी.सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य (1987): इस मामले ने विभिन्न विषयों पर वर्ष 1967-1981 के बीच बिहार के राज्यपाल द्वारा जारी किये गए अध्यादेशों की एक शृंखला को चुनौती दी, जिनमें से कुछ को विधानसभा द्वारा पारित किये बिना कई बार प्रख्यापित किया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी अध्यादेशों को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया तथा यह माना कि अध्यादेशों का पुन: प्रख्यापन संविधान के साथ धोखा और लोकतांत्रिक विधायी प्रक्रिया का उल्लंघन है।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि एक अध्यादेश स्वतः ही समाप्त हो जाता है यदि इसे विधायिका द्वारा पुन: इसके सत्र के छह सप्ताह की अवधि में अनुमोदित नहीं किया जाता है और पुन: प्रख्यापन द्वारा इसे जारी नहीं रखा जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

G20 देश एवं आपदा जोखिम न्यूनीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

आपदा जोखिम न्यूनीकरण, G20, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, चरम जलवायु घटनाएँ, ग्रीष्म लहर

मेन्स के लिये:

आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु रणनीतियाँ 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत की G20 अध्यक्षता में प्रथम G20 आपदा जोखिम न्यूनीकरण वर्किंग ग्रुप (DRR-WG) की बैठक हुई जिसमें भारत ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRR) के महत्त्व पर ज़ोर दिया।

बैठक की मुख्य विशेषताएँ:  

  • G20 आपदा जोखिम न्यूनीकरण वर्किंग ग्रुप ने सरकारों से आपदा जोखिम वित्तपोषण के लिये प्रभावी और पसंदीदा साधन के साथ एक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली बनाने का आग्रह किया है।
    • इसने एक नए युग की सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जो आपदाओं तथा उनके स्थानीय प्रभावों को कम करते हैं। 
  • इसने पाँच प्राथमिकताओं को रेखांकित किया है:
    • प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की वैश्विक बहाली 
    • अवसंरचना प्रणालियों को आपदा प्रतिरोधी बनाने की दिशा में बढ़ी हुई प्रतिबद्धता
    • DRR के लिये मज़बूत राष्ट्रीय वित्तीय ढाँचा
    • मज़बूत राष्ट्रीय एवं वैश्विक आपदा प्रतिक्रिया प्रणाली
    • DRR के लिये पारिस्थितिक तंत्र-आधारित दृष्टिकोण का बढ़ता अनुप्रयोग
  • G20 में DRR-WG का उद्देश्य सेंदाई फ्रेमवर्क की मध्यावधि समीक्षा के लिये विचारों को शामिल करना, सभी स्तरों पर बहुपक्षीय सहयोग को नवीनीकृत करना और भविष्य की वैश्विक नीतियों एवं DRR से संबंधित पहलों को सूचित करना है।

आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु एक सामूहिक G-20 रूपरेखा की आवश्यकता:

  • 4.7 बिलियन की आबादी वाले G-20 देशों में संपत्ति संकेंद्रण से जोखिम और प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशीलता देखी गई है।  
  • वर्तमान विश्व जोखिम सूचकांक में शीर्ष 10 कमज़ोर देशों में से चार, G-20 देश हैं।
  • अकेले G-20 देशों में संयुक्त अनुमानित औसत वार्षिक हानि 218 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो उनके द्वारा किये गए बुनियादी ढाँचे में औसत वार्षिक निवेश के 9% के बराबर है।
  • आपदा जोखिम कम करने के उपाय इस तरह की हानि को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

आपदा जोखिम को कम करने के लिये प्रमुख रणनीतियाँ:

  • बेहतर आर्थिक और शहरी विकास:
    • बेहतर आर्थिक और शहरी विकास विकल्पों के साथ प्रथाओं, पर्यावरण की सुरक्षा, गरीबी तथा असमानता में कमी आदि जैसे उपायों के माध्यम से संवेदनशीलता और जोखिम को कम किया जा सकता है।
      • उदाहरण के लिये भारत में बाढ़ जोखिम प्रबंधन रणनीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन से चरम मौसम स्थितियों को कम करने और प्रबंधित करने में सहायता मिल सकती है।
  • वित्तपोषण:  
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण के वित्तपोषण पर पुनर्विचार करने की अवश्यकता है। किसी देश में सरकारी बजट के माध्यम से पूरी की जाने वाली वित्तीय आवश्यकताएँ उस देश की राजकोषीय स्थिति से स्वतंत्र नहीं होती हैं और सीमित हो सकती हैं।
    • उन्‍नत वित्‍तपोषण उपायों की खोज की जानी चाहिये, जिनमें आरक्षित निधि का सृजन, डेडिकेटेड लाइन ऑफ क्रेडिट तथा विश्‍व स्‍तर पर संसाधनों का दोहन शामिल है।
  • आधारभूत संरचना: 
    • सार्वजनिक राजस्व के माध्यम से बनाई गई सड़कें, रेल, हवाई अड्डे तथा बिजली की लाइन जैसी अवसंरचनाओं को आपदाओं के प्रति लचीला होने की आवश्यकता है और इसके लिये अधिक धन की आवश्यकता हो सकती है।
    • इस तरह की आपदा-प्रतिरोधी अवसंरचनाओं के सामाजिक लाभों को प्रतिबिंबित करने वाले विकल्पों का उपयोग करके इस अतिरिक्त आवश्यकता को वित्तपोषित करने की आवश्यकता है।
  • व्यापक और तीव्र जोखिम का निपटान: 
    • व्यापक जोखिम (लगातार लेकिन मध्यम प्रभावों से नुकसान का जोखिम) तथा तीव्र जोखिम (कम आवृत्ति और उच्च प्रभाव वाली घटनाओं से) के निपटान के लिये अलग-अलग रणनीतियों पर काम किया जाना चाहिये।
    • नुकसान का एक बड़ा हिस्सा व्यापक घटनाओं के कारण होता है।
    • संचयी रूप से वितरित घटनाएँ जैसे- ग्रीष्म लहर (हीटवेव) , बिजली, स्थानीय बाढ़ एवं भूस्खलन के कारण अत्यधिक नुकसान होता है। व्यापक जोखिम वाली घटनाओं से होने वाले नुकसान को कम करने के लिये लक्षित दृष्टिकोणों को लागू करने से अल्पावधि से मध्यम अवधि के परिदृश्य पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • बहु-स्तरीय, बहु-क्षेत्रीय प्रयास: 
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण को बहु-स्तरीय, बहु-क्षेत्रीय प्रयास के रूप में देखने की आवश्यकता है।
    • यदि प्रयासों को स्थानीय से उप-राष्ट्रीय, उप-राष्ट्रीय से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और क्षैतिज रूप से सभी क्षेत्रों में एकीकृत किया जाता है, तो अज्ञात जोखिमों को प्रबंधित करने के लिये तत्परता का स्तर बढ़ाया जा सकता है।
    • विश्व आपस में जुड़ा एवं अन्योन्याश्रित है और G20 ऐसी रणनीतियों को विकसित करने में मदद कर सकता है।

आगे की राह 

  • G20 को अपने सदस्यों और अन्य हितधारकों के बीच पूर्व चेतावनी प्रणाली, आपदा-प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे, वित्तीय ढाँचे एवं आपदा जोखिम में कमी हेतु प्रतिक्रिया प्रणाली पर सहयोग तथा समन्वय को बढ़ावा देना चाहिये।
  • उन्हें विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, डेटा और पारिस्थितिक तंत्र-आधारित दृष्टिकोणों के उपयोग पर आपदा जोखिम में कमी लाने हेतु नवाचार एवं अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिये।
  • सतत् विकास एजेंडा, 2030, जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते और नए शहरी एजेंडे के साथ आपदा जोखिम में कमी के प्रयासों को संरेखित करने एवं यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कोई भी क्षेत्र पिछड़ न जाए।
  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर कार्य समूह G20 हेतु अगले सात वर्षों में सेंदाई फ्रेमवर्क के कार्यान्वयन में नेतृत्त्व करने का एक अवसर है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से किस समूह के सभी चारों देश G20 के सदस्य हैं? (2020) 

(a) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की 
(b) ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया और न्यूज़ीलैंड
(c) ब्राज़ील, ईरान, सऊदी अरब और वियतनाम
(d) इंडोनेशिया, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया

उत्तर: (a)  


मेन्स:

प्रश्न. आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020) 

प्रश्न. आपदा प्रभावों और लोगों के लिये इसके खतरे को परिभाषित करने हेतु भेद्यता एक आवश्यक तत्त्व है। आपदाओं के प्रति भेद्यता का किस प्रकार और किन-किन तरीकों के साथ चरित्र-चित्रण किया जा सकता है? आपदाओं के संदर्भ में भेद्यता के विभिन्न प्रकारों की चर्चा कीजिये।  (2019) 

प्रश्न. भारत में आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डी.आर.आर.) के लिये 'सेंदाई आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रारूप (2015-30)' हस्ताक्षरित करने से पूर्व एवं उसके बाद किये गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिये। यह प्रारूप 'ह्योगो कार्यवाही प्रारूप, 2005' से किस प्रकार भिन्न है? (2018) 

 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

ज़िला न्यायालय

प्रिलिम्स के लिये:

ज़िला न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय 

मेन्स के लिये:

भारत की न्यायिक प्रणाली में ज़िला न्यायालय का महत्त्व, न्यायिक अधिकारियों की निष्पक्षता के लिये वित्तीय सुरक्षा एवं स्वतंत्रता का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय को बनाए रखने में ज़िला न्यायालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर दिया है और इसकी स्वतंत्रता को संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग घोषित किया है।

  • हाल ही के एक निर्णय में न्यायालय ने वित्त के मामलों सहित कार्यपालिका और विधायिका से न्यायिक स्तर पर स्वतंत्रता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।
  • अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ द्वारा दायर एक याचिका के आधार पर दिये गए निर्णय में ज़िला न्यायालय के कामकाज एवं कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश और सिफारिशें जारी की गई  हैं।

 ज़िला न्यायालय: 

  • परिचय: 
    • ज़िला न्यायालय भारत में ज़िला स्तर पर न्यायिक प्रणाली को संदर्भित करता है। यह न्यायपालिका का पहला स्तर है और स्थानीय स्तर पर मामलों की सुनवाई तथा निर्णय लेने के लिये ज़िम्मेदार है। 
    • ज़िला न्यायालय ज़िला अदालतों और अन्य निचली अदालतों से बनी होती है जिसकी अध्यक्षता ज़िला न्यायाधीश और अन्य न्यायिक अधिकारी करते हैं।
  • ज़िला न्यायालय का महत्त्व:  
    • ज़िला न्यायालय कानून के शासन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ज़िला न्यायालय वादियों के लिये न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करके न्याय के प्रस्तावना लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रभावशाली भूमिका अदा करता है।
    • ज़िला न्यायालय, वादियों के लिये सबसे सुलभ अदालत होने के नाते न्याय प्रणाली और लोगों के बीच प्राथमिक अंतराफलक के रूप में कार्य करता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: 

  • ज़िला न्यायालय की स्वतंत्रता:
    • सर्वोच्च न्यायालय, ज़िला न्यायालय की स्वतंत्रता को संविधान के मूल ढाँचे का एक महत्त्वपूर्ण भाग घोषित करता है। 
    • ज़मीनी स्तर पर निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायाधीशों की मौजूदगी के बिना एक प्रस्तावना लक्ष्य एवं न्याय तक पहुँच में भ्रम बना रहेगा।
  • "अधीनस्थ" अब नहीं:
    • यह शब्द "अधीनस्थ न्यायपालिका (Subordinate Judiciary)" को खारिज कर दिया गया क्योंकि यह ज़िला न्यायाधीश की संवैधानिक स्थिति को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है।
      • संविधान ज़िला न्यायाधीशों को न्यायिक प्रणाली के महत्त्वपूर्ण घटकों के रूप में मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है।
    • साथ ही ज़िला न्यायालय और उसके योगदान को अधिक सम्मान दिया जाना चाहिये।
  • ज़िला न्यायालय के महत्त्व की मान्यता: 
    • ज़िला न्यायालय कानून के शासन को बनाए रखने और न्याय प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    • यह प्रतिदिन लगभग 1.13 मिलियन मामलों को संभालने के साथ वादियों हेतु आसानी से सुलभ न्यायालय है।
    • इसने महामारी के दौरान भी कामकाज़ में दक्षता प्रदर्शित की, साथ ही समय पर न्याय सुनिश्चित किया।
  • न्यायिक अधिकारियों हेतु वित्तीय सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता: 
    • ज़िला न्यायालय में सेवारत न्यायिक अधिकारियों की स्वतंत्रता न्याय व्यवस्था हेतु महत्त्वपूर्ण है।
    • न्यायिक अधिकारियों की निष्पक्षता बनाए रखने हेतु उनकी वित्तीय सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है।
    • न्यायिक अधिकारी लगभग 15 वर्ष से बिना वेतन पुनरीक्षण का काम कर रहे हैं।
  • सिफारिशें और निर्देश: 
    • न्यायिक अधिकारियों को बढ़ा हुआ वेतन, पेंशन तथा अन्य सेवानिवृत्ति संबंधी लाभ देने का आदेश दिया गया।
    • न्यायिक अधिकारियों का वेतन एकल आधार पर निर्धारित (Stand-alone) होना चाहिये और इसकी तुलना राजनीतिक, कार्यपालिका या विधायिका के कर्मचारियों से नहीं की जानी चाहिये।
    • न्यायपालिका की उच्च स्तर की कार्यपद्धति को बनाए रखने के लिये प्रोत्साहन और पदोन्नति के अवसर उपलब्ध कराना भी आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह

प्रिलिम्स के लिये:

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment- FDI), उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग' (Department for Promotion of Industry and Internal Trade-DPIIT), विश्व निवेश रिपोर्ट, बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual property rights- IPR)

मेन्स के लिये:

भारत में FDI अंतर्वाह के रुझान और प्रारूप, भारत में FDI अंतर्वाह से संबंधित चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?  

मार्च 2023 में समाप्त होने वाले वित्त वर्ष में भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) अंतर्वाह में उल्लेखनीय गिरावट आई है।  

  • सकल FDI अंतर्वाह वित्त वर्ष 2023 में 71 अरब डॉलर रहा, जो विगत वित्त वर्ष की तुलना में 16% की गिरावट को दर्शाता है, यह विगत दशक में देश के FDI अंतर्वाह में पहली बार गिरावट को दर्शाता है।   

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI): 

  • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) किसी देश की एक फर्म या व्यक्ति द्वारा दूसरे देश में स्थित व्यावसायिक गतिविधियों में किया गया निवेश है।  
  •  FDI विभिन्न रूपों में हो सकता है, जैसे शेयर प्राप्त करना, सहायक या संयुक्त उद्यम स्थापित करना अथवा ऋण या प्रौद्योगिकी हस्तांतरण।
    • FDI को आर्थिक विकास का एक प्रमुख चालक माना जाता है, क्योंकि यह मेज़बान देश के लिये पूंजी, प्रौद्योगिकी, कौशल, बाज़ार पहुँच एवं रोज़गार के अवसर प्रदान कर सकता है।

भारत में FDI अंतर्वाह के रुझान एवं प्रारूप:

  • परिचय:  
    • भारत अपने विशाल एवं बढ़ते घरेलू बाज़ार, अनुकूल जनसांख्यिकी, राजनीतिक स्थिरता, उदार नीतिगत ढाँचे तथा उन्नत  ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस के कारण हाल के वर्षों में FDI अंतर्वाह के सबसे आकर्षक स्थलों में से एक रहा है
    • उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (DPIIT) के अनुसार, भारत का सकल FDI अंतर्वाह अप्रैल 2000- जून 2022 के बीच 871.01 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
    • विश्व निवेश रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत वर्ष 2021 हेतु शीर्ष 20 मेज़बान अर्थव्यवस्थाओं में 7वें स्थान पर है।
      • वित्त वर्ष 2022 में भारत को सेवा क्षेत्र में 7.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर FDI इक्विटी अंतर्वाह सहित कुल 84.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का उच्चतम FDI अंतर्वाह प्राप्त हुआ।

  • वित्त वर्ष 2021-22 में देशवार FDI इक्विटी अंतर्वाह: 
    • सिंगापुर (27.01%), संयुक्त राज्य अमेरिका (17.94%), मॉरीशस (15.98%), नीदरलैंड (7.86%) और स्विट्ज़रलैंड (7.31%) FDI इक्विटी अंतर्वाह हेतु शीर्ष 5 देशों के रूप में उभरे हैं।

भारत में FDI प्रवाह से संबंधित चुनौतियाँ:

  • कराधान और विनियामक अनुपालन: हाल के वर्षों में भारत की कर व्यवस्था में कई सुधार हुए हैं, लेकिन जटिलताएँ और अनिश्चितताएँ अभी भी मौजूद हैं।
    • कर कानूनों में बार-बार बदलाव, कराधान के विभिन्न स्तर और कर आकलन पर विवाद, अनुपालन और कर योजना के संदर्भ में विदेशी निवेशकों के लिये चुनौतियाँ पैदा करते हैं।
  • अन्य उभरते बाज़ारों से प्रतिस्पर्द्धा: FDI आकर्षित करने में भारत को अन्य उभरते बाज़ारों जैसे चीन, वियतनाम और इंडोनेशिया से प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है।
    • ये देश प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ प्रदान करते हैं, जिसमें उत्पादन की कम लागत, बेहतर बुनियादी ढाँचा और अधिक निवेशक-अनुकूल नीतियाँ शामिल हैं।
  • अवसंरचना घाटा: बुनियादी ढाँचे में सुधार के लिये चल रहे प्रयासों के बावजूद भारत अभी भी परिवहन, रसद, बिजली और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अंतराल का सामना कर रहा है।
    • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा व्यापार सुगमता को बाधित करता है और विदेशी निवेशकों के लिये परिचालन लागत बढ़ाता है।

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के अंतर्वाह को बढ़ाने के उपाय:

  • नियामक प्रक्रियाओं को सरल और कारगर बनाना: भारत लाइसेंसिग, परमिट और अनुमोदन सहित अपनी नियामक प्रक्रियाओं को अधिक सरल और कारगर बना सकता है। सिंगल-विंडो क्लीयरेंस सिस्टम या नियामक अनुपालन हेतु एक डिजिटल प्लेटफॉर्म को कार्यान्वित करने से लालफीताशाही कम हो सकती है जिससे व्यापार करने में आसानी होगी।
  • अवसंरचना विकास में सुधार: परिवहन, रसद, विद्युत और डिजिटल कनेक्टिविटी जैसे क्षेत्रों के विकास पर पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है। 
    • विश्व स्तरीय अवसंरचना सुविधाओं और औद्योगिक समूहों का विकास कुशल और सुव्यवस्थित व्यापारिक वातावरण की तलाश करने वाले विदेशी निवेशकों को आकर्षित करेगा। 
  • निवेशक सुरक्षा तंत्र में वृद्धि: बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) का सख्त प्रवर्तन, अनुबंध प्रवर्तन और विवाद समाधान तंत्र सहित निवेशक सुरक्षा तंत्र को मज़बूत करने से विदेशी निवेशकों में विश्वास पैदा होगा।
    • इसे न्यायिक सुधारों, विशेष वाणिज्यिक न्यायालयों और वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
  • क्षेत्र-विशिष्ट निवेश नीतियों को बढ़ावा देना: विनिर्माण, नवीकरणीय ऊर्जा, स्वास्थ्य देखभाल, प्रौद्योगिकी और ई-कॉमर्स जैसे प्रमुख क्षेत्रों में FDI को आकर्षित करने के लिये क्षेत्र-विशिष्ट निवेश नीतियाँ और प्रोत्साहन को सुविन्यासित करने की आवश्यकता है। 
    • प्रत्येक क्षेत्र की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनुकूल नीतियाँ विदेशी निवेशकों को उन क्षेत्रों में निवेश करने के लिये प्रोत्साहित कर सकती हैं। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रश्न. भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सी उसकी प्रमुख विशेषता मानी जाती है? (2020) 

(a) यह मूलत: किसी सूचीबद्ध कंपनी में पूंजीगत साधनों द्वारा किया जाने वाला निवेश है।
(b) यह मुख्यत: ऋण सृजित न करने वाला पूंजी प्रवाह है।
(c) यह ऐसा निवेश है जिससे ऋण-समाशोधन अपेक्षित होता है।
(d) यह विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों में किया जाने वाला निवेश है।

उत्तर: (b) 


प्रश्न. निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2021)  

  1. विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉण्ड
  2. कुछ शर्तों के साथ विदेशी संस्थागत निवेश 
  3. वैश्विक डिपॉज़िटरी रसीदें 
  4. अनिवासी बाहरी जमा

उपर्युक्त में से किसको प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में शामिल किया जा सकता है?

(a) केवल 1, 2 और 3  
(b) केवल 3 
(c) केवल 2 और 4  
(d) केवल 1 और 4

उत्तर: (a) 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

संयुक्त राज्य अमेरिका का ऋण सीमा संकट

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राज्य अमेरिका का ऋण सीमा संकट, संविधान का 14वाँ संशोधन, क्रेडिट रेटिंग, विदेशी मुद्रा

मेन्स के लिये:

राजकोषीय घाटा और भारत सरकार द्वारा इसका प्रबंधन

चर्चा में क्यों?

यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेज़री सेक्रेटरी ने आगाह किया है कि यदि हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव्स और राष्ट्रपति का व्हाइट हाउस कर्ज़ की सीमा को बढ़ाने या निलंबित करने हेतु किसी परिणाम पर पहुँचने में विफल रहता है तो 1 जून तक कर्ज़ का संकट उत्पन्न हो जाएगा।

अमेरिकी ऋण सीमा:

  • परिचय: 
    • ऋण सीमा वह अधिकतम राशि है जो अमेरिकी सरकार को कानूनी रूप से अपने खर्चों एवं दायित्वों को पूरा करने हेतु उधार लेने की अनुमति है।
    • ऋण सीमा का उद्देश्य प्रत्येक व्यय हेतु कॉन्ग्रेस से लगातार अनुमोदन की आवश्यकता के बिना सरकार को खर्च में लचीलापन प्रदान करना है।
    • अमेरिकी संविधान के तहत कॉन्ग्रेस के पास सरकारी खर्च को नियंत्रित करने का अधिकार है।
    • अभी तक वर्तमान ऋण सीमा 31.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर निर्धारित की गई है। इसका मतलब यह है कि कॉन्ग्रेस की मंज़ूरी के बिना सरकार इस राशि से अधिक उधार नहीं ले सकती है।
  • वर्तमान गतिरोध: 
    • वर्तमान गतिरोध में रिपब्लिकन (विपक्षी दल के सदस्य) शामिल हैं, जिनके पास प्रतिनिधि सभा और डेमोक्रेट द्वारा संचालित सरकार में बहुमत है।
    • रिपब्लिकन अमेरिकी ऋण सीमा को तब तक बढ़ाने से इनकार (यह तर्क देते हुए कि देश का ऋण अस्थिर है) कर रहे हैं जब तक कि सरकार खर्च में महत्त्वपूर्ण कटौती और अन्य प्राथमिकताओं को शामिल करने हेतु सहमत नहीं होती है।
      • वे यह सुनिश्चित करने के लिये कि सरकारी व्यय सीमित है, नकद सहायता, भोजन, टिकट और मेडिकेड जैसे कार्यक्रमों से शर्तें जोड़ना चाहते हैं।
    • दूसरी ओर राष्ट्रपति ऋण सीमा को बिना किसी शर्त के स्वीकृत करने पर बल देते हैं, यह कहते हुए कि ऋण पर डिफॉल्ट करना गैर-परक्राम्य है।
    • इसने एक गतिरोध को जन्म दिया और साथ ही यदि समय-सीमा से पहले कोई समझौता नहीं किया जाता है तो डिफॉल्ट का संभावित जोखिम है।

सरकार के डिफॉल्ट होने का प्रभाव:

  • सरकारी डिफॉल्ट :  
    • अमेरिकी सरकार अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप उसके ऋण भुगतान में डिफॉल्ट हो सकता है। यह अभूतपूर्व रूप से देश की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव प्रदर्शित कर सकता है।
  • आर्थिक मंदी:  
    • डिफॉल्ट होने से अमेरिकी वित्तीय प्रणाली के प्रति विश्वास में कमी आएगी, जिससे वित्तीय बाज़ार अत्यधिक अस्थिर हो जाएंगे। यह व्यवसायों, निवेशों और रोज़गार को प्रभावित करते हुए गंभीर आर्थिक मंदी की स्थिति को प्रदर्शित कर सकता है।
    • विश्लेषकों केअनुसार, डॉलर कमज़ोर होगा, शेयर बाज़ार गिरेंगे और लाखों लोग रोज़गारविहीन हो सकते हैं। 
  • डाउनग्रेड क्रेडिट रेटिंग: 
    • डिफॉल्ट के परिणामस्वरूप अमेरिकी सरकार की क्रेडिट रेटिंग डाउनग्रेड हो सकती है, जिससे सरकार के लिये भविष्य में धन उधार लेना अधिक महँगा हो जाएगा। इससे देश के वित्त पर अधिक दबाव पड़ेगा तथा उधार लेने की लागत में वृद्धि होगी।
  • वैश्विक प्रभाव:  
    • अमेरिकी अर्थव्यवस्था का वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहरा संबंध है। डिफॉल्ट का विश्व में व्यापक प्रभाव हो सकता है जिससे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाज़ारों में व्यवधान प्रदर्शित हो सकता है और साथ ही यह वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर सकता है।

ऋण सीमा डिफॉल्ट से बचने के उपाय: 

  • 14वाँ संविधान संशोधन:
    • संविधान का 14वाँ संशोधन राष्ट्रपति को विधायिका के समर्थन के बिना स्वयं की ऋण सीमा को बढ़ाने का अधिकार देता है।
      • संविधान के 14वें संशोधन में कहा गया है कि सार्वजनिक ऋण की वैधता पर "प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।" यह इस तथ्य को भी शामिल करता है कि ऋण में चूक असंवैधानिक है और इसे रोकने के लिये कार्रवाई की जा सकती।
  • आपातकालीन उपाय:
    • कोषागार विभाग के पास कुछ आपातकालीन उपाय होते हैं जिनका प्रयोग वह ऋण सीमा तक पहुँचने के बाद भी सरकार के बिलों का भुगतान जारी रखने के लिये कर सकता है।
    • यह उपाय अस्थायी राहत तो प्रदान कर सकते हैं, किंतु यह दीर्घकालिक समाधान नहीं है।
    • ये स्थायी समाधान होने तक यह सरकार को सुचारु रूप से कार्य  करने के लिये कुछ समय प्रदान करते हैं।
  • द्विदलीय समझौता:
    • हालाँकि यदि अंतिम क्षण तक सरकार और विपक्ष के मध्य संवाद जारी रहता है तो संभवतः ऋण सीमा बढ़ाने के लिये द्विदलीय समझौता हो सकता है। इसमें खर्च में कटौती या अन्य वित्तीय उपायों पर समझौता करना तथा इसके लिये आम सहमति व्यक्त करना  शामिल है।

पूर्व के उदाहरण: 

  • ऐसी ही स्थिति वर्ष 2011 में निर्मित हुई थी जब बराक ओबामा राष्ट्रपति थे और प्रतिनिधि सदन (House of Representatives) को विपक्षी दल के सदस्यों द्वारा नियंत्रित किया जाता था।
  • एक समझौते पर पहुँचकर समय-सीमा से कुछ समय पहले संकट का समाधान किया गया था। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति ने संकट समाधान और ऋण सीमा को बढ़ाने के लिये कुल 900 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के खर्च में कटौती को लागू करने पर सहमति व्यक्त की थी।

भारत द्वारा प्रबंधित उधार एवं ऋण दायित्व:

  • FRBM अधिनियम के अनुसार, भारत के पास एक औपचारिक ऋण सीमा तंत्र है, लेकिन अमेरिका की तरह पूर्ण राशि के मामले में ऋण सीमा नहीं है। इसलिये अमेरिका में ऋण सीमा की तुलना भारत में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य से की जा सकती है।
    • भारत में यह लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) के प्रतिशत की सीमा में है, न कि संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह एक पूर्ण राशि में।
  • भारत सरकार विभिन्न तंत्रों और संस्थानों के माध्यम से उधार एवं ऋण दायित्वों का प्रबंधन करती है, जैसे कि:
    • प्रतिभूतियों और बॉण्ड के माध्यम से धन एकत्र करना: यह घरेलू बाज़ार में सरकारी प्रतिभूतियों, जैसे ट्रेज़री बिल और सरकारी बॉण्ड जारी करता है।
    • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम: यह भारत में राजकोषीय अनुशासन और ऋण प्रबंधन के लिये एक विधायी ढाँचा प्रदान करता है। यह राजकोषीय घाटे तथा ऋण-से-GDP अनुपात के लिये लक्ष्य निर्धारित करता है, जिसका लक्ष्य दीर्घकालिक राजकोषीय स्थिरता सुनिश्चित करना है। सरकार के उधार लेने के निर्णय FRBM अधिनियम में उल्लिखित सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होते हैं।
    • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI): RBI देश के उधार और ऋण के प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह केंद्र सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करता है और सरकारी प्रतिभूतियों को जारी करने, नीलामी तथा व्यापार की सुविधा प्रदान करता है। RBI सरकार के नकदी प्रवाह का प्रबंधन भी करता है तथा ऋण लेन-देन के सुचारु निपटान को सुनिश्चित करता है।

अमेरिकी ऋण सीमा का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:

  • ऋण सीमा को बढ़ाने में विफलता तथा बाद में अमेरिकी सरकार के चूक के जोखिम से वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में अस्थिरता बढ़ सकती है।
  • एक ऋण सीमा संकट अमेरिकी डॉलर की साख तथा इसमें विश्वास को कम कर सकता है, जिससे इसमें मूल्यह्रास हो सकता है। इस मूल्यह्रास का अन्य मुद्राओं और व्यापार संबंधों पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • एक ऋण सीमा संकट वैश्विक वित्तीय प्रणाली की स्थिरता और विश्वसनीयता को कम कर सकता है। बाज़ारों में अनिश्चितता और भय के परिणामस्वरूप व्यापार और उपभोक्ता खर्च में कमी आ सकती है तथा इसके साथ अमेरिका में ही नहीं बल्कि विश्व भर में आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:

  • रुपए का अवमूल्यन:
    • भारतीय रुपए का डॉलर के मुकाबले मूल्यह्रास हो सकता है, जिससे आयात अधिक महँगा हो सकता है और भारतीय अर्थव्यवस्था पर संभावित रूप से मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ सकता हैं।
  • व्यापार व्यवधान:  
    • संयुक्त राज्य अमेरिका भारत के प्रमुख व्यापारिक साझेदारों में से एक है और ऋण सीमा संकट से उत्पन्न कोई भी आर्थिक मंदी भारतीय निर्यात की मांग को कम कर सकती है।
    • अमेरिका को कम निर्यात अमेरिकी उपभोक्ताओं पर निर्भर भारतीय उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जैसे सूचना प्रौद्योगिकी, कपड़ा और फार्मास्यूटिकल्स इत्यादि।
  • विदेशी मुद्रा पर प्रभाव:
    • भारत के पास संयुक्त राज्य कोषागार समेत बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार है। अमेरिकी ऋण के डिफॉल्ट या डाउनग्रेड के परिणामस्वरूप इन निवेशों पर नुकसान हो सकता है, जो संभावित रूप से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार तथा समग्र वित्तीय स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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