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डेली न्यूज़

  • 21 Oct, 2024
  • 44 min read
इन्फोग्राफिक्स

सिटीज़न चार्टर

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शासन व्यवस्था

रेलवे सुरक्षा सुनिश्चित करना

प्रिलिम्स के लिये:

रेलवे अवसंरचना, कवच, राष्ट्रीय रेल योजना, मूल्यह्रास आरक्षित निधि, अतिरिक्त बजटीय संसाधन, डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, नीति आयोग, हाई स्पीड रेल गलियारे, रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण, राष्ट्रीय रेल सुरक्षा कोष, भारतीय रेलवे अवसंरचना प्राधिकरण, रेलवे दुर्घटना जाँच बोर्ड, रेलवे अवसंरचना कंपनी, काकोडकर समिति

मेन्स के लिये:

रेलवे सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक कदम।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रेलवे जोनों में दुर्घटनाओं में होने वाली वृद्धि के बाद सरकार ने उन्हें रोकने के लिये तत्काल कदम उठाने पर ध्यान केंद्रित किया है।

रेल दुर्घटनाओं की क्या स्थिति है?

  • दशकीय स्तर पर कमी: 1960 के दशक में रेल दुर्घटनाओं की संख्या काफी अधिक (वार्षिक औसत 1,390) थी
    • पिछले दशक में यह संख्या घटकर प्रतिवर्ष लगभग 80 दुर्घटनाओं तक सीमित हो गई, जो सुरक्षा उपायों और परिचालन दक्षता में उल्लेखनीय सुधार का संकेत है।
  • परिणामी दुर्घटनाओं में हालिया रुझान: समग्र दुर्घटनाओं में कमी के बावजूद वर्ष 2021-2022 में 34, 2022-2023 में 48 और 2023-2024 में 40 परिणामी दुर्घटनाएँ हुईं
    • परिणामी दुर्घटना से लोग घायल हो जाते हैं और/या इनकी मृत्यु हो जाती है तथा रेलवे के बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचने के साथ रेल यातायात बाधित होता है।
  • दुर्घटनाओं के प्राथमिक कारण: सार्वजनिक रिकॉर्ड के अनुसार, रेलगाड़ियों से जुड़ी सभी दुर्घटनाओं में से 55.8% रेलवे कर्मचारियों की गलती के कारण और 28.4% अन्य लोगों की गलती के कारण हुई हैं। इसमें उपकरणों की विफलता 6.2% दुर्घटनाओं के लिये ज़िम्मेदार है।
  • प्रमुख दुर्घटनाओं में सिग्नलिंग विफलता: बालासोर (2023) और कावराईपेट्टई (2024) जैसी रेल दुर्घटनाओं के लिये सिग्नलिंग प्रणाली की विफलता को ज़िम्मेदार ठहराया गया।

रेलवे दुर्घटनाओं के क्या कारण हैं?

  • अपर्याप्त सुरक्षा प्रौद्योगिकियाँ: कवच में स्वचालित ब्रेक लगाने और अलर्ट जारी करके टकरावों को रोकने की क्षमता है लेकिन इसके सीमित उपयोग से यह बड़े पैमाने पर अप्रभावी बनी हुई है।
    • फरवरी 2024 तक रेलवे द्वारा अनुमानतः 1,465 किमी मार्ग या अपने कुल मार्ग की लंबाई के 2% पर 'कवच' प्रणाली को शामिल किया गया। 
  • सिग्नलिंग प्रणाली की विफलता: दोषपूर्ण सिग्नलिंग प्रणाली के कारण कुछ बड़ी दुर्घटनाएँ हुई हैं, जिनमें बालासोर और कवराईपेट्टई की दुर्घटनाएँ भी शामिल हैं।
    • वर्ष 1990-1991 से रेलवे ने सभी बड़ी दुर्घटनाओं में से लगभग 70% को सिग्नलिंग त्रुटियों के कारण होने वाली रेल दुर्घटनाओं के रूप में वर्गीकृत किया है।
  • नेटवर्क भीड़भाड़: रेलवे नेटवर्क पर अधिक भीड़भाड़ को प्रमुख सुरक्षा मुद्दे के रूप में रेखांकित किया गया है। 
    • राष्ट्रीय रेल योजना के मसौदे के अनुसार, रेलवे नेटवर्क के लगभग 30% हिस्से का 100% से अधिक क्षमता पर उपयोग किया जा रहा है, जिससे सुरक्षा जोखिम बढ़ रहा है। 
  • अपर्याप्त ट्रैक रखरखाव: रेलवे के मौजूदा उपकरणों को बेहतर बनाए रखना चुनौतीपूर्ण है, जिसमें पटरियों को बदलना एवं ट्रैक के किनारे बुनियादी ढाँचे को बनाए रखना शामिल है। 
    • लेकिन वर्ष 2023-2024 के बजट में ट्रैक नवीनीकरण के लिये पूंजीगत परिव्यय घटकर 7.2% रह गया।
    • वर्ष 2014-19 के बीच मूल्यह्रास आरक्षित निधि के लिये विनियोजन में भी 96% की गिरावट आई है।
  • उच्च परिचालन अनुपात: वर्ष 2024-2025 में परिचालन अनुपात (OR) 98.2 रुपए होने का अनुमान है, जो वर्ष 2023-2024 (98.7 रुपए) से थोड़ा सुधार दर्शाता है, लेकिन वर्ष 2016 के 97.8 रुपए से गिरावट दर्शाता है।
    • उच्च OR से पूंजीगत व्यय के लिये कम धन बचता है और रेलवे को बजटीय सहायता और अतिरिक्त बजटीय संसाधनों (EBRs) पर अधिक निर्भर बनाता है। 
    • इस वित्तीय तनाव के परिणामस्वरूप सुरक्षा उन्नयन और बुनियादी ढाँचे में सुधार के लिये अपर्याप्त वित्तपोषण हो रहा है।
    • OR वह राशि है जो रेलवे को 100 रुपए अर्जित करने पर खर्च करनी होती है। 
  • धीमा बुनियादी ढाँचा विकास: सरकार ने वर्ष 2005 में जिन डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (DFCs) की योजना बनाई थी, उनमें से केवल पूर्वी DFCs ही पूरी तरह से संचालित है। 
    • पश्चिमी DFCs आंशिक रूप से ही तैयार हैं; पूर्वी तट, पूर्व-पश्चिम उप-गलियारा और उत्तर-दक्षिण उप-गलियारा DFCs (जिनकी लंबाई 3,958 किमी है) अभी भी योजना के अंतर्गत हैं।  
    • बुनियादी ढाँचे की मांग और आपूर्ति में ऐसा अंतर सुरक्षा समस्या को और जटिल बना देता है।
  • घाटे की भरपाई: नीति आयोग के अनुसार, वर्ष 2009-2019 में माल ढुलाई दरों में यात्री दरों की तुलना में तीन गुना से अधिक तेज़ी से वृद्धि हुई, लेकिन रेलवे का माल ढुलाई लाभ यात्री घाटे से काफी हद तक संतुलित हो जाता है।
    • वर्ष 2019-20 में यात्री सेवाओं से राजस्व 50,000 करोड़ रुपए से थोड़ा अधिक था और घाटा 63,364 करोड़ रुपए था।
  • कार्य की लंबी अवधि: रेलवे दुर्घटनाओं (विशेषकर सिग्नल पास्ड एट डेंजर (SPAD) के मामलों) का एक प्रमुख कारण लोको पायलटों द्वारा लंबे समय तक कार्य करना है। 
    • जनशक्ति की कमी के कारण उन्हें 12 घंटे की ड्यूटी सीमा से अधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे जोखिम बढ़ जाता है।

रेलवे सुरक्षा बढ़ाने के लिये विभिन्न समितियों ने क्या सिफारिशें की हैं?

  • राकेश मोहन समिति (2010):
  • काकोदकर समिति (2012):
  • बिबेक देबरॉय समिति (2014): 
  • विनोद राय समिति (2015):
    • वैधानिक शक्तियों के साथ एक स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण की स्थापना
    • निष्पक्ष जाँच के लिये रेलवे दुर्घटना जाँच बोर्ड का गठन करना 
    • रेलवे परिसंपत्तियों के स्वामित्व और रखरखाव के लिये एक अलग रेलवे अवसंरचना कंपनी की स्थापना करना

रेलवे सुरक्षा के लिये क्या कदम उठाए गए हैं?

रेलवे दुर्घटनाओं को रोकने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • लोको पायलट की रिक्तियों को भरना: भारतीय रेलवे में लगभग 18,799 लोको पायलट की रिक्तियाँ हैं। पायलटों को अधिक कार्य करने से रोकने और तनाव एवं थकावट से होने वाली गलतियों को कम करने के लिये इन पदों को भरने की आवश्यकता है।
  • 'कवच' नामक टक्कर रोधी प्रणाली लागू करना: रेलवे को भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिये अधिक मार्गों (विशेषकर उच्च यातायात और उच्च जोखिम वाले मार्गों पर) पर कवच की स्थापना में तेज़ी लानी चाहिये।
  • नेटवर्क भीड़भाड़ का समाधान: डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (DFCs) को प्राथमिकता देने और लंबित परियोजनाओं को पूरा करने से यातायात को अधिक सुलभ बनाने के साथ भीड़भाड़ को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण: काकोदकर समिति की सिफारिश के अनुसार एक स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण बनाने से रेलवे सुरक्षा निरीक्षण के लिये अधिक विशिष्ट और स्वतंत्र दृष्टिकोण सुनिश्चित होगा।
  • कार्य समय का विनियमन: कार्य समय सीमा का सख्ती से पालन तथा यह सुनिश्चित करना कि चालक दल के सदस्यों को पर्याप्त आराम मिले, मानवीय त्रुटियों को कम करने के लिये आवश्यक है।
  • सिग्नल अवसंरचना में सुधार: उन्नत सिग्नल और संचार प्रौद्योगिकियों में निवेश से सिग्नल विफलताओं के कारण होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना में कमी आ सकती है।
  • पटरियों के किनारे बाड़ लगाना: उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में रेलवे पटरियों के किनारे बाड़ लगाने से मवेशियों की दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है, जो कि रेल दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं।
  • यात्री राजस्व में वृद्धि: यात्री किराए में विवेकपूर्ण वृद्धि या यात्री सेवाओं की दक्षता में सुधार से घाटे को कम करने में मदद मिल सकती है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न : रेलवे सुरक्षा और परिचालन दक्षता में सुधार के लिये डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (DFCs) सहित बुनियादी ढाँचे के विकास के महत्त्व का आकलन कीजिये।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित संचार प्रौद्योगिकियों पर विचार कीजिये: (2022)

  1. निकट -परिपथ (क्लोज़-सर्किट) टेलीविज़न
  2. रेडियो आवृत्ति अभिनिर्धारण 
  3. बेतार स्थानीय क्षेत्र नेटवर्क

उपर्युक्त में कौन-सी लघु-परास युक्तियाँ/प्रौद्योगिकियाँ मानी जाती हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न: किरायों का विनियमन करने के लिये रेल प्रशुल्क प्राधिकरण की स्थापना आमदनी-बंधे (कैश स्ट्रैप्ड) भारतीय रेलवे को गैर-लाभकारी मार्गों और सेवाओं को चलाने के दायित्व के लिये सहायिकी (सब्सिडी) मांगने पर मजबूर कर देगी। विद्युत् क्षेत्र के अनुभव को सामने रखते हुए, चर्चा कीजिये कि क्या प्रस्तावित सुधार से उपभोक्ताओं, भारतीय रेलवे या निजी कंटेनर प्रचालकों को लाभ होने की आशा है। (2014)


कृषि

MSP और उसकी वैधानिकता

प्रिलिम्स के लिये:

आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA), रबी फसलें, कृषि मूल्य आयोग (APC), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा, भारतीय खाद्य निगम (FCI) 

मेन्स के लिये:

MSP के वैधानीकरण का मुद्दा, किसानों पर MSP के वैधानीकरण का प्रभाव।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA) ने अगले विपणन सीज़न (वर्ष 2025-26) के लिये छह रबी फसलों (गेहूँ, जौ, चना, मसूर, रेपसीड, सरसों और कुसुम) के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की है।

  • MSP में वृद्धि से MSP को वैधानिक बनाने की किसानों की मांग के साथ कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके प्रभाव को लेकर विमर्श को बढ़ावा मिला है।

आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA) 

  • इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं और यह सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश के लिये प्राथमिकताएँ निर्धारित करती है।
  • यह एक एकीकृत आर्थिक नीति ढाँचा विकसित करने के लिये आर्थिक रुझानों की निरंतर समीक्षा करती है तथा विदेशी निवेश सहित आर्थिक क्षेत्र में नीतियों एवं गतिविधियों (जिसके लिये उच्च स्तरीय निर्णय लेने की आवश्यकता होती है) की देखरेख करती है

न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है?

  • परिचय:
    • MSP की शुरुआत वर्ष 1965 में कृषि मूल्य आयोग (APC), जिसे बाद में CACP नाम दिया गया, की स्थापना के साथ की गई थी। यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने और किसानों को बाज़ार मूल्यों में गिरावट से बचाने के लिये बाज़ार हस्तक्षेप का एक रूप था।
  • MSP की गणना:
    • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs & Prices- CACP) प्रत्येक फसल के लिये राज्य और अखिल भारतीय औसत स्तर पर तीन प्रकार की उत्पादन लागत की गणना करता है।
      • A2: इसमें किसान द्वारा बीज, उर्वरक, कीटनाशक, मज़दूरी, पट्टे पर ली गई भूमि, ईंधन, सिंचाई आदि पर नकद एवं वस्तु के रूप में सीधे तौर पर किये गए सभी भुगतेय लागत शामिल हैं।
      • A2+FL: इसमें A2 के साथ अवैतनिक पारिवारिक श्रम (Family Labour) का अनुमानित मूल्य शामिल है।
      • C2: यह एक व्यापक लागत है जिसमें A2+FL लागत के साथ स्वामित्व वाली भूमि का अनुमानित किराया मूल्य, स्थायी पूंजी पर ब्याज, पट्टे पर दी गई भूमि के लिये भुगतान किया गया किराया शामिल है
    • सरकार का कहना है कि MSP को अखिल भारतीय भारित औसत उत्पादन लागत (CoP) के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर तय किया गया है, लेकिन इसकी इस लागत की A2+FL लागत के 1.5 गुना के रूप में गणना की जाती है।

भारत में MSP से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?

  • सीमित कवरेज: शांता कुमार समिति की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, केवल 6% किसान ही MSP से लाभान्वित होते हैं। मुख्य रूप से ऐसे किसान जो बेहतर बुनियादी ढाँचे तक पहुँच वाले क्षेत्रों (जैसे पंजाब और हरियाणा) में रहते हैं, जबकि अन्य राज्यों के किसान बड़ी संख्या में इससे वंचित रह जाते हैं।
  • फसलों पर असंतुलित ध्यान: MSP प्रणाली मुख्य रूप से कुछ फसलों (विशेष रूप से चावल और गेहूँ) पर केंद्रित है जिससे किसानों को अन्य फसलों को उगाने के लिये प्रोत्साहन नहीं मिलता है, जिससे फसल विविधीकरण प्रभावित होने के साथ इन फसलों के अतिउत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है।
  • खरीद प्रणाली पर अत्यधिक भार: MSP के कारण प्रायः बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद (विशेष रूप से चावल और गेहूँ की) करनी होती है जिससे भंडारण संबंधी चुनौतियों के साथ अनाज की बर्बादी होती है तथा भारतीय खाद्य निगम (FCI) के संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: चावल (MSP द्वारा समर्थित) जैसी कुछ जल-गहन फसलों पर ध्यान केंद्रित करने से पर्यावरणीय चिंताएँ (जैसे भूजल का कम होना- विशेष रूप से पंजाब जैसे क्षेत्रों में) उत्पन्न होती हैं
  • बिचौलियों पर निर्भरता: कुछ मामलों में जब MSP घोषित किया जाता है, तब भी किसानों को खरीद एजेंसियों तक सीधे पहुँचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी बिचौलियों पर निर्भरता बढ़ जाती है, जिससे उनका शोषण होता है।

भारत में MSP को वैध बनाने की आवश्यकताएँ और चुनौतियाँ क्या हैं?

  • आवश्यकताएँ:
    • किसानों के लिये आय सुरक्षा: MSP को वैध बनाने से किसानों के लिये आय की गारंटी सुनिश्चित होगी तथा उन्हें बाज़ार मूल्यों में उतार-चढ़ाव से सुरक्षा मिलेगी।
      • सुनिश्चित आय बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कई किसान मूल्यों में गिरावट के कारण संकट का सामना करते हैं, विशेष रूप से फसल की अधिक उपज़ के दौरान।
    • कृषि निवेश को बढ़ावा: विधिक रूप से गारंटीकृत MSP किसानों को कृषि आगतों, आधुनिक प्रौद्योगिकी और संधारणीय कृषि पद्धतियों में अधिक निवेश करने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है। 
      • सुनिश्चित रिटर्न के साथ, किसानों द्वारा उत्पादकता और स्थिरता में सुधार लाने वाले उपायों को अपनाने की अधिक संभावना होती है।
    • ग्रामीण निर्धनता में कमी: स्थिर मूल्य की पेशकश करके, कानूनी एमएसपी ग्रामीण निर्धनता को कम कर सकता है और लघु एवं सीमांत किसानों के जीवन स्तर में सुधार कर सकता है।

    • कृषि बाज़ारों को स्थिर करना: MSP एक मूल्य स्थिरीकरण उपकरण के रूप में कार्य करता है, जो खुले बाज़ारों में फसल की कीमतों की अस्थिरता को रोकता है और उपभोक्ता पर मुद्रास्फीति के बोझ को कम करता है।

      • MSP को कानूनी समर्थन मिलने से आपूर्ति शृंखला सुचारू हो सकती है और फसल की निरंतर खरीद सुनिश्चित हो सकती है।
    • संकटकालीन बिक्री में कमी: लाभकारी मूल्य न मिलने के कारण किसान प्रायः संकटकालीन बिक्री का सहारा लेते हैं। MSP को कानूनी रूप से लागू करने से संकटकालीन बिक्री को रोका जा सकता है।
  • चुनौतियाँ:
    • सरकार पर राजकोषीय बोझ: सभी फसलों पर MSP को वैध बनाने से सरकार को सुनिश्चित मूल्यों पर बड़ी मात्रा में खरीद करनी होगी, जिससे राजकोषीय बोझ काफी बढ़ जाएगा। 
      • सरकार के अनुसार, सभी किसानों और फसलों को MSP प्रदान करने पर वार्षिक रूप से 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आएगा, जो सरकार के लिये वित्तीय रूप से अव्यवहारिक है।
    • बाज़ार विकृति: कानूनी MSP निज़ी व्यापारियों और व्यवसायों को कृषि बाज़ार में भाग लेने से हतोत्साहित करके मुक्त बाज़ार तंत्र को विकृत कर सकता है। 
      • MSP पर अत्यधिक निर्भरता घरेलू और निर्यात बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बाधित कर सकती है, इससे भारत के लिये विश्व व्यापार संगठन में वैधानिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
    • भंडारण और बुनियादी ढाँचा संबंधी बाधाएँ: MSP को वैध बनाने के लिये बड़े पैमाने पर खरीद की आवश्यकता होगी, जिसके लिये भंडारण और रसद बुनियादी ढाँचे में पर्याप्त सुधार की आवश्यकता होगी। 
      • सरकार को भंडारण संबंधी सीमाओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि मौजूदा बुनियादी ढाँचा सभी फसलों के लिये विस्तारित खरीद प्रणाली को संभालने के लिये अपर्याप्त है।
    • कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ: विविध कृषि पद्धतियों और जलवायु के कारण संपूर्ण भारत में समान रूप से MSP को लागू करना चुनौतीपूर्ण है, जिससे सभी किसानों को लाभ पहुँचाने वाले MSP स्तर निर्धारित करना कठिन हो जाता है।
      • राज्यों में उत्पादन लागत में अंतर के कारण एक समान MSP लागू करना और भी जटिल हो जाता है।
    • अतिउत्पादन और पर्यावरणीय प्रभाव: MSP को वैधानिक बनाने से गेहूँ और चावल जैसी कुछ फसलों के अतिउत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है, जिन्हें पूर्व से ही MSP प्रणाली के तहत बड़े पैमाने पर खरीदा जाता है। 

      • इससे पर्यावरण को नुकसान पहुँच सकता है, जिसमें भूजल का क्षरण और मृदा प्रदूषण भी शामिल है।

आगे की राह

  • MSP कार्यान्वयन में सुधार: MSP में सुधार करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह क्षेत्रीय आवश्यकताओं और बाज़ार की मांग के आधार पर फसलों को लक्षित करता है।
    • गेहूँ और चावल जैसी विशिष्ट फसलों पर अत्यधिक निर्भरता कम करने के लिये खरीद संबंधी बुनियादी ढाँचे को सुदृढ़ करना और फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना।
  • फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना: सरकार को पर्यावरणीय और आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिये फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना चाहिये। 
    • संधारणीय कृषि को बढ़ावा देने और जल संसाधनों पर दबाव कम करने के लिये दालों, तिलहनों और बाज़रा सहित अन्य फसलों के लिये MSP शुरू किया जाना चाहिये या इसका विस्तार किया जाना चाहिये।
  • प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT): अकुशलता को कम करने और बिचौलियों पर निर्भरता को कम करने के लिये, सरकार किसानों के लिये प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण पर विचार कर सकती है। 
    • इससे किसानों को MSP और बाज़ार मूल्य के बीच का अंतर सीधे उनके बैंक खातों में प्राप्त हो सकेगा, यदि वे MSP पर अपनी उपज नहीं बेच पाते हैं।
  • किसानों के लिये संबद्ध गतिविधियाँ: किसानों को अतिरिक्त आय स्रोत प्रदान करने के लिये बागवानी, डेयरी फार्मिंग और मत्स्य पालन जैसी संबद्ध कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देना, जिससे कृषि अधिक सतत् बनेगी और MSP पर निर्भरता कम होगी।
  • विनिर्माण रोज़गार के लिये कौशल विकास: ग्रामीण आबादी, विशेषकर युवाओं और महिलाओं को विनिर्माण और तकनीकी कौशल से लैस करने के लिये कौशल विकास कार्यक्रमों का विस्तार करना। 
    • इससे कृषि के अतिरिक्त रोज़गार के अवसर उत्पन्न होंगे और गैर-कृषि आय में बदलाव को समर्थन मिलेगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के वैधानीकरण से संबंधित चिंताओं का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए आगे की राह सुझाइये

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. सभी अनाजों, दालों और तिलहनों के मामले में भारत के किसी भी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद असीमित है।
  2. अनाज और दालों के मामले में MSP किसी भी राज्य / केंद्रशासित प्रदेश में उस स्तर पर तय किया जाता है जहाँ बाज़ार मूल्य कभी नहीं बढ़ेगा। 

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 व 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2

उत्तर: (d)

मुख्य परीक्षा:

प्रश्न खाद्यान्न वितरण प्रणाली को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये सरकार द्वारा कौन से सुधारात्मक कदम उठाए गए हैं? (2019)


भारतीय अर्थव्यवस्था

विज्ञान क्षेत्र के नोबेल पुरस्कारों में भारत का निम्न प्रदर्शन

प्रिलिम्स के लिये:

नोबेल पुरस्कार, सी. वी. रमन, गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस (GEM), पद्म श्री, भारत रत्न, नाभिकीय संलयन परियोजनाएँ, वायरलेस संचार, रमन प्रकीर्णन प्रभाव, होमी भाभा, सत्येंद्र नाथ बोस, राइबोसोम, व्हाइट ड्वार्फ, अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन, वैभव फेलोशिप 

मेन्स के लिये:

भारत में अनुसंधान वित्तपोषण और वैज्ञानिक विकास की स्थिति।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

  • भारत में काम करने वाले किसी भी भारतीय को 94 वर्षों में भौतिकी, रसायन विज्ञान या चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है।
  • भारत में नोबेल पुरस्कारों की कमी को प्राय: भारतीय विज्ञान की स्थिति का प्रतिबिंब माना जाता है, हालाँकि अन्य कारक भी इसमें भूमिका निभाते हैं।
  • विज्ञान में नोबेल पुरस्कार पाने वाले अंतिम भारतीय सी. वी. रमन थे, जिन्हें वर्ष 1930 में भौतिकी में प्रकाश के प्रकीर्णन (Scattering of Light) के लिये नोबेल पुरस्कार मिला था।  

विज्ञान नोबेल पुरस्कारों में भारत के खराब प्रदर्शन के क्या कारण हैं? 

  • अनुसंधान के लिये कम सार्वजनिक वित्तपोषण: भारतीय सरकार वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये अपर्याप्त वित्तपोषण उपलब्ध कराती है, जिससे अभूतपूर्व कार्यों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
    • भारत में पिछले दशक में बुनियादी अनुसंधान के लिये प्रत्यक्ष वित्तपोषण सकल घरेलू उत्पाद के 0.6-0.8% के निम्न स्तर पर रहा है, जो अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में काफी कम है। 
    • वास्तव में अनुसंधान एवं विकास पर भारत का कुल व्यय 2005 और 2023 के बीच सकल घरेलू उत्पाद के 0.82% से घटकर 0.64% रह गया है।
  • अत्यधिक नौकरशाही: भारत के शोध संस्थानों में नौकरशाही की लालफीताशाही नवाचार में बाधा उत्पन्न करती है और वैज्ञानिक प्रगति को धीमा कर देती है। उदाहरणार्थ: 
    • IIT दिल्ली में उपकरण मंगाने में 11 महीने का समय लगता है।
    • IIT दिल्ली को दिया गया 150 करोड़ रुपए का GST नोटिस इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार कर नीतियाँ शैक्षणिक संस्थानों पर वित्तीय दबाव उत्पन्न करती हैं।
    • गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस (GEM) सरकारी संस्थाओं के लिये अनिवार्य खरीद प्लेटफॉर्म का दायित्व आरोपित करता है।
  • लघु शोधकर्त्ता पूल/समूह: भारत में इसकी जनसंख्या के सापेक्ष शोधकर्त्ताओं की संख्या अनुपातहीन रूप से कम है।
    • भारत में शोधकर्त्ताओं की संख्या वैश्विक औसत से पाँच गुना कम है, जिससे नोबेल पुरस्कार के संभावित दावेदारों की संख्या कम हो रही है।
  • व्यक्तिगत प्रतिभा पर निर्भरता: एक मज़बूत अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र की अनुपस्थिति में भविष्य में भारत की नोबेल पुरस्कार जीतने की संभावनाएँ व्यवस्थित समर्थन या बुनियादी ढाँचे के बजाय काफी हद तक वैज्ञानिकों की व्यक्तिगत प्रतिभा पर निर्भर हैं।
  • शोध संस्थानों में विवेकाधिकार: कथित तौर पर कई शोध संस्थानों के प्रमुख आवश्यक शोध पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, इन शक्तियों का उपयोग व्यक्तिगत कॅरियर विकास (जैसे कि पद्म श्री या भारत रत्न जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार हासिल करना या सेवानिवृत्ति के बाद अपने कार्यकाल को बढ़ाना) के लिये करते हैं
  • स्पष्ट अनुसंधान का अभाव: कई वैज्ञानिक पुराने या अप्रासंगिक विषयों पर शोध करते हैं, जो अक्सर संयुक्त राज्य अमेरिका या यूरोपीय संघ में हुए असफल प्रयोगों पर आधारित होते हैं, जिनका भारत में कोई व्यावहारिक अनुप्रयोग नहीं है। 
    • उदाहरण के लिये, उच्च ऊर्जा कण त्वरक या जटिल परमाणु संलयन परियोजनाओं के लिये जल प्रौद्योगिकियों एवं कृषि नवाचार की उपेक्षा करना।
  • गुणवत्ता की अपेक्षा मात्रा पर ध्यान: सरकारी वित्तपोषित अनुसंधान संस्थानों में किये जाने वाले अधिकांश अनुसंधान सार्थक नवाचार के बजाय "संख्या के स्तर पर" प्रकाशन जारी करने पर केंद्रित हैं।
  • विदेशी प्रौद्योगिकियों पर निर्भरता: मूल समाधान विकसित करने के बजाय भारतीय वैज्ञानिक अक्सर विदेशों में विकसित प्रौद्योगिकियों की नकल करने या उन्हें अपनाने में ही लगे रहते हैं, जिसके लिये गहन वैज्ञानिक नवाचार या योग्यता की आवश्यकता नहीं होती है।
  • निजी क्षेत्र की सफलता पर अत्यधिक निर्भरता: कोविड-19 महामारी के दौरान वैक्सीन विकास में हाल की सफलताएँ, मुख्य रूप से निजी क्षेत्र की प्रयोगशालाओं द्वारा हासिल की गई हैं जो सरकार द्वारा वित्तपोषित अनुसंधान संस्थानों एवं सफल वैज्ञानिक सफलताओं के बीच एक विसंगति को दर्शाती है। 
    • इस निर्भरता से वैज्ञानिक प्रगति में सरकारी प्रयोगशालाओं की विश्वसनीयता और आवश्यकता में कमी आती है।
  • अनुभव से पर्याप्त लाभ न उठा पाना: यहाँ तक ​​कि जब विदेश से प्रशिक्षित वैज्ञानिक भारत लौटते हैं तो वे अक्सर अस्वस्थ संस्थागत वातावरण के कारण अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं कर पाते हैं।
    • वे उत्कृष्टता प्राप्त करने या प्रमुख वैज्ञानिक चुनौतियों से निपटने के बजाय अप्रासंगिक शोध प्रकाशित करने और पदोन्नति पाने के चक्र में फँस जाते हैं।
  • अवसरों का लाभ न उठा पाना: कई उल्लेखनीय भारतीय वैज्ञानिकों ने अभूतपूर्व कार्य किया, लेकिन उन्हें या तो अनदेखा कर दिया गया या नोबेल के लिये नामांकित नहीं किया गया। जैसे:
    • जगदीश चंद्र बोस: इन्होने वर्ष 1895 में वायरलेस संचार का प्रदर्शन किया, लेकिन उनके कार्य को उस स्तर पर पहचान नहीं मिल सकी, जबकि वर्ष 1909 में इसी कार्य के लिये गुग्लिल्मो मार्कोनी और फर्डिनेंड ब्राउन को नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
    • के.एस. कृष्णन: इन्होने सी.वी. रमन के साथ मिलकर रमन प्रकीर्णन प्रभाव की खोज की, लेकिन उन्हें कभी नोबेल के लिये नामांकित नहीं किया गया।
    • ECG सुदर्शन: वर्ष 1979 और 2005 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार ऐसे कार्यों के लिये दिये गए थे जिनमें सबसे मौलिक योगदान सुदर्शन का था लेकिन उन्हें पुरस्कार के लिये नजरअंदाज कर दिया गया था। 
      • ECG सुदर्शन ने मूलभूत कणों के बीच की विद्युत चुंबकीय अंतर्क्रिया पर कार्य किया।
  • कई भारतीय वैज्ञानिकों (जैसे मेघनाद साहा, होमी भाभा, सत्येंद्र नाथ बोस, जीएन रामचंद्रन और टी शेषाद्रि) को नोबेल पुरस्कार के लिये कई बार नामांकित किया गया, लेकिन उन्हें पुरस्कार नहीं मिल पाया।
  • नोबेल पुरस्कारों में पश्चिमी प्रभुत्व: नोबेल पुरस्कारों पर अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों का प्रभुत्व रहा है, जिनके पास मज़बूत वैज्ञानिक बुनियादी ढाँचा और अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र है।
    • भौतिकी, रसायन विज्ञान या चिकित्सा के लिये नोबेल पुरस्कार जीतने वाले 653 लोगों में से 150 से ज़्यादा यहूदी समुदाय से (जो कि काफी उच्च अनुपात है) हैं लेकिन इज़राइल को विज्ञान में केवल चार नोबेल पुरस्कार मिले हैं।

विज्ञान में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले भारतीय मूल के वैज्ञानिक:

  • हरगोविंद खुराना (वर्ष 1968, चिकित्सा में): आनुवंशिक कोड और उसके प्रोटीन संश्लेषण कार्य को डिकोड करने के लिये।
  • सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर (वर्ष 1983, भौतिकी में): तारों की संरचना और विकास के लिये महत्त्वपूर्ण भौतिक प्रक्रियाओं के सैद्धांतिक अध्ययन के लिये।
    • उन्होंने दर्शाया कि जब एक निश्चित आकार के तारों का हाइड्रोजन ईंधन समाप्त होने लगता है, तो वह एक सघन, चमकदार तारे में परिवर्तित हो जाता है जिसे सफेद बौना तारा के रूप में जाना जाता है।
  • वेंकटरमन रामकृष्णन (वर्ष 2009, रसायन विज्ञान में): राइबोसोम की संरचना और कार्य के अध्ययन के लिये

अनुसंधान को बढ़ावा देने हेतु प्रमुख सरकारी पहलें क्या हैं?

विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों में भारत के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • अनुसंधान एवं विकास हेतु सार्वजनिक वित्तपोषण में वृद्धि: भारत सरकार को अनुसंधान एवं विकास के लिये आवंटित सकल घरेलू उत्पाद का प्रतिशत बढ़ाने के लिये प्रतिबद्ध होना चाहिये, जिसका उद्देश्य निकट भविष्य में कम-से-कम 1.5% तक पहुँचना है।
  • उच्च प्रभाव वाले अनुसंधान को प्रोत्साहित करना: उच्च जोखिम, उच्च लाभ वाले अनुसंधान पहलों को बढ़ावा देना और वित्तपोषित करना, जिससे क्रांतिकारी प्रौद्योगिकियों का विकास हो सके।
  • मूल्यांकन प्रक्रियाओं में सुधार: अनुसंधान प्रस्तावों के मूल्यांकन के लिये प्रासंगिक विशेषज्ञता वाले  समीक्षकों के विविध पैनल बनाना।
    • इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि पूर्वाग्रहों या गलतफहमियों के कारण मूल्यवान विचारों की अनदेखी न की जाए।
  • शोधकर्त्ता पूल का विस्तार: STEM शिक्षा को बढ़ावा देने और उच्च शिक्षा में निवेश करने से शोधकर्त्ताओं के एक बड़े और अधिक कुशल पूल को विकसित करने में सहायता मिल सकती है। 
  • अनुसंधान संस्थानों में सुधार: यह सुनिश्चित करना कि वित्तपोषण और अवसरों का आवंटन व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के बजाय योग्यता और संभावित सामाजिक प्रभाव के आधार पर किया जाए।
  • सार्वजनिक-निज़ी भागीदारी का लाभ उठाना: अनुसंधान क्षमताओं को बढ़ाने और नवाचार को बढ़ावा देने के लिये सरकारी अनुसंधान संस्थानों और निजी क्षेत्र की फर्मों के बीच सहयोग को सुविधाजनक बनाना।
  • वैज्ञानिक प्रतिभा को मान्यता देना: उत्कृष्ट वैज्ञानिक योगदान के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार कार्यक्रम स्थापित करना, ताकि क्रांतिकारी कार्यों के लिये और अधिक महत्त्वपूर्ण प्रयासों को प्रोत्साहित किया जा सके।
  • वैश्विक सहयोग को मज़बूत करना: भारतीय वैज्ञानिकों को अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान समुदायों के साथ सहयोग करने, ज्ञान और संसाधनों को साझा करने के लिये प्रोत्साहित करना ताकि वैश्विक मंच पर भारतीय अनुसंधान की प्रतिष्ठा बढ़ाई जा सके।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भौतिकी, रसायन विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीतने में भारतीय वैज्ञानिकों की सीमित सफलता के कारणों पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)   

प्रारंभिक परीक्षा 

प्रश्न: निम्नलिखित में से किस वैज्ञानिक ने अपने बेटे के साथ भौतिकी का नोबेल पुरस्कार साझा किया? (2008)

(a) मैक्स प्लैंक
(b) अल्बर्ट आइंस्टीन
(c) विलियम हेनरी ब्रैग
d) एनरिको फर्मिक

उत्तर: (c)


प्रश्न. नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक जेम्स डी. वाटसन किस क्षेत्र में अपने काम के लिये जाने जाते हैं? (2008)

(a) धातु विज्ञान
(b) मौसम विज्ञान
(c) पर्यावरण संरक्षण
(d) आनुवंशिकी

उत्तर: (d)

मेन्स

प्रश्न. वर्ष 1990 के दशक में ब्लू एलईडी के आविष्कार के लिये अकासाकी, अमानो और नाकामुरा को संयुक्त रूप से वर्ष 2014 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। इस आविष्कार ने मनुष्य के दैनिक जीवन को कैसे प्रभावित किया है? (वर्ष 2021)


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