मोपला विद्रोह
प्रिलिम्स के लियेमोपला विद्रोह, संथाल विद्रोह, नील विद्रोह, पबना विद्रोह, दक्कन विद्रोह, पगड़ी संभाल आंदोलन, अवध में किसान आंदोलन, चंपारण आंदोलन, बारदोली सत्याग्रह मेन्स के लियेमोपला विद्रोह का महत्त्व और भूमिका |
चर्चा में क्यों
हाल ही में एक राजनीतिक नेता ने दावा किया कि मोपला विद्रोह, जिसे 1921 के मप्पिला दंगों के रूप में भी जाना जाता है, भारत में तालिबान मानसिकता की पहली अभिव्यक्तियों में से एक था।
प्रमुख बिंदु
मोपला/मप्पिलास:
- मप्पिला नाम मलयाली भाषी मुसलमानों को दिया गया है जो उत्तरी केरल के मालाबार तट पर निवास करते हैं।
- वर्ष 1921 तक मोपला ने मालाबार में सबसे बड़े और सबसे तेज़ी से बढ़ते समुदाय का गठन किया। मालाबार की एक मिलियन की कुल आबादी में मोपला 32% के साथ दक्षिण मालाबार क्षेत्र में केंद्रित थे।
पृष्ठभूमि:
- सोलहवीं शताब्दी में जब पुर्तगाली व्यापारी मालाबार तट पर पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि मप्पिला एक व्यापारिक समुदाय है जो शहरी केंद्रों में केंद्रित है और स्थानीय हिंदू आबादी से काफी अलग है।
- हालाँकि पुर्तगाली वाणिज्यिक शक्ति में वृद्धि के साथ मप्पिलास ने खुद को एक प्रतियोगी पाया और नए आर्थिक अवसरों की तलाश में तेज़ी से देश के आंतरिक भागों की ओर आगे बढ़ना शुरू कर दिया।
- मप्पिलास के स्थानांतरण से स्थानीय हिंदू आबादी और पुर्तगालियों के बीच धार्मिक पहचान के लिये टकराव उत्पन्न हुआ।
विद्रोह:
- मुस्लिम धर्मगुरुओं के उग्र भाषणों और ब्रिटिश विरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर मप्पिलास ने एक हिंसक विद्रोह शुरू किया। साथ ही कई हिंसक घटनाओं की सूचना दी गई तथा ब्रिटिश एवं हिंदू ज़मींदारों दोनों के खिलाफ उत्पीड़न की शिकायत की गई थी।
- कुछ लोग इसे धार्मिक कट्टरता का मामला बताते हैं, वहीं कुछ अन्य लोग इसे ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष के उदाहरण के रूप में देखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो मालाबार विद्रोह को ज़मींदारों की अनुचित प्रथाओं के खिलाफ एक किसान विद्रोह मानते हैं। .
- जबकि इतिहासकार इस मामले पर बहस जारी रखते हैं, इस प्रकरण पर व्यापक सहमति से पता चलता है कि यह राजनीतिक शक्ति के खिलाफ संघर्ष के रूप में शुरू हुआ था जिसने बाद में सांप्रदायिक रंग ले लिया।
- अधिकांश ज़मींदार नंबूदिरी ब्राह्मण थे, जबकि अधिकांश काश्तकार मापिल्लाह मुसलमान थे।
- दंगों में 10,000 से अधिक हिंदुओं की सामूहिक हत्याएँ, महिलाओं के साथ बलात्कार, ज़बरन धर्म परिवर्तन, लगभग 300 मंदिरों का विध्वंस या उन्हें क्षति पहुँचाई गई, करोड़ों रुपए की संपत्ति की लूट और आगजनी तथा हिंदुओं के घरों को जला दिया गया।
कारण:
- असहयोग और खिलाफत आंदोलन:
- विद्रोह का ट्रिगर का कारण 1920 में कॉन्ग्रेस द्वारा खिलाफत आंदोलन के साथ शुरू किये गए असहयोग आंदोलन था।
- इन आंदोलनों से प्रेरित ब्रिटिश विरोधी भावना ने मुस्लिम मप्पिलास को प्रभावित किया।
- नए काश्तकार कानून:
- 1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद मालाबार मद्रास प्रेसीडेंसी के हिस्से के रूप में ब्रिटिश अधिकार में आ गया था।
- अंग्रेज़ोंन ने नए काश्तकारी कानून पेश किये थे, जो ज़मींदारों के नाम से पहचाने जाने वाले ज़मींदारों के पक्ष में थे और किसानों के लिये पहले की तुलना में कहीं अधिक शोषणकारी व्यवस्था थी।
- नए कानूनों ने किसानों को भूमि के सभी गारंटीकृत अधिकारों से वंचित कर उन्हें भूमिहीन बना दिया।
- समर्थन:
- प्रारंभिक चरणों में आंदोलन को महात्मा गांधी और अन्य भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं का समर्थन प्राप्त था लेकिन जैसे ही यह हिंसक हो गया उन्होंने खुद को इससे दूर कर लिया।
पतन:
- वर्ष 1921 के अंत तक अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचल दिया था, जिन्होंने दंगा रोकने के लिये एक विशेष बटालियन, मालाबार स्पेशल फोर्स का गठन किया था।
वैगन ट्रैज़डी (Wagon Tragedy):
- नवंबर 1921 में 67 मोपला कैदी मारे गए थे, जब उन्हें तिरूर से पोदनूर की केंद्रीय जेल में एक बंद माल डिब्बे में ले जाया जा रहा था जिसमें दम घुटने से इनकी मौत हो गई। इस घटना को वैगन ट्रैज़डी कहा जाता है।
स्वतंत्रता पूर्व प्रमुख किसान आंदोलन
(Major Pre-Independence Agrarian Revolts)
- संथाल विद्रोह (1855-56)- संथाल विद्रोह पर संथालों को वैश्विक गौरव (Global Pride) प्राप्त है जिसमें 1,000 से अधिक संथाल और सिद्धो व कान्हो मुर्मू (Sidho and Kanho Murmu) के नेताओं ने वर्चस्व को लेकर विशाल ईस्ट इंडिया कंपनी (अंग्रेज़ों) के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
- नील विद्रोह (1859-60)- यह ब्रिटिश बागान मालिकों के खिलाफ किसानों द्वारा किया गया विद्रोह था, क्योंकि उन्हें उन शर्तों के तहत नील उगाने हेतु मजबूर किया गया था जो कि किसानों के लिये प्रतिकूल थे।
- पबना विद्रोह (1872-1875) - यह ज़मींदारों के उत्पीड़न के खिलाफ एक प्रतिरोध आंदोलन था। इसकी उत्पत्ति युसुफशाही परगना में हुई थी, जो अब बृहत्तर पबना, बांग्लादेश में सिराजगंज ज़िला है।
- दक्कन विद्रोह (1875) - दक्कन के किसान विद्रोह मुख्य रूप से मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों की ज्यादतियों के खिलाफ थे। रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत रैयतों को भारी कराधान का सामना करना पड़ा। वर्ष 1867 में भू-राजस्व में भी 50% की वृद्धि की गई।
- पगड़ी संभाल आंदोलन (1907)- यह एक सफल कृषि आंदोलन था जिसने ब्रिटिश सरकार को कृषि से संबंधित तीन कानूनों को निरस्त करने के लिये मज़बूर किया। इस आंदोलन के पीछे भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह थे।
- अवध में किसान आंदोलन (1918-1922)- इसका नेतृत्व एक संन्यासी बाबा रामचंद्र ने किया था, जो पहले एक गिरमिटिया मज़दूर के रूप में फिजी गए थे। उन्होंने अवध में तालुकदारों और ज़मींदारों के खिलाफ एक किसान आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने लगान कम करने, बेगार को समाप्त करने और ज़मींदारों के बहिष्कार की मांग की।
- चंपारण आंदोलन (1917-18)- बिहार के चंपारण ज़िले के नील के बागानों में यूरोपीय बागान मालिकों द्वारा किसानों का अत्यधिक उत्पीड़न किया गया और उन्हें अपनी ज़मीन के कम-से-कम 3/20वें हिस्से पर नील उगाने तथा बागान मालिकों द्वारा निर्धारित कीमतों पर बेचने के लिये मज़बूर किया गया था। वर्ष 1917 में महात्मा गांधी चंपारण पहुँचे और चंपारण छोड़ने हेतु ज़िला अधिकारी द्वारा दिये गए आदेशों की अवहेलना की।
- खेड़ा में किसान आंदोलन (1918) - यह मुख्य रूप से सरकार के खिलाफ निर्देशित था। 1918 में गुजरात के खेड़ा ज़िले में फसलें विफल हो गईं, लेकिन सरकार ने भू-राजस्व में छूट देने से इनकार कर दिया और राजस्व के पूर्ण संग्रह पर ज़ोर दिया। गांधीजी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ किसानों का समर्थन किया और उन्हें सलाह दी कि जब तक उनकी छूट की मांग पूरी नहीं हो जाती, तब तक वे राजस्व का भुगतान रोक दें।
- मोपला विद्रोह (1921) - मोपला मुस्लिम काश्तकार थे जो मालाबार क्षेत्र में निवास करते थे जहाँ अधिकांश ज़मींदार हिंदू थे। उनकी शिकायतें कार्यकाल की सुरक्षा की कमी, उच्च किराया, नवीनीकरण शुल्क और अन्य दमनकारी वसूली पर केंद्रित थीं। बाद में मोपला आंदोलन का विलय खिलाफत आंदोलन में हो गया।
- बारदोली सत्याग्रह (1928) - यह स्वतंत्रता संग्राम में बारदोली के किसानों के लिये अन्यायपूर्ण करों के खिलाफ सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में एक आंदोलन था।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारत ने किगाली संशोधन की पुष्टि करने का निर्णय लिया
प्रिलिम्स के लिये:रेफ्रिजरेंट हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल और किगाली संशोधन मेन्स के लिये:किगाली संशोधन का महत्त्व और भारत के लिये इसके निहितार्थ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार ने जलवायु-हानिकारक रेफ्रिजरेंट हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC) को चरणबद्ध तरीके से कम करने के लिये मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन के अनुसमर्थन को मंज़ूरी दी है।
- यह संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों और एचएफसी के उपभोक्ताओं द्वारा लिये गए निर्णयों के समकक्ष है। 122 देशों ने जुलाई 2021 के अंत तक किगाली संशोधन की पुष्टि की थी।
प्रमुख बिंदु
परिचय:
- संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और भारत अपने एचएफसी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने और उन्हें जलवायु-अनुकूल विकल्पों के साथ बदलने के लिये अलग-अलग समय सारिणी के साथ अलग-अलग देशों के समूहों में हैं।
- भारत को वर्ष 2047 तक अपने एचएफसी उपयोग को 80% तक कम करना है, जबकि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका को क्रमशः वर्ष 2045 एवं वर्ष 2034 तक समान लक्ष्य प्राप्त करना है।
- भारत वर्ष 2032 से चार चरणों- वर्ष 2032 में 10%, वर्ष 2037 में 20%, वर्ष 2042 में 30% और वर्ष 2047 में 80% के साथ इस लक्ष्य को पूरा करेगा।
- मौजूदा कानून ढाँचे में संशोधन, किगाली संशोधन के अनुपालन को सुनिश्चित करने हेतु हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के उत्पादन और खपत के उचित नियंत्रण की अनुमति देने वाले ओज़ोन क्षरण पदार्थ (विनियमन और नियंत्रण) नियम वर्ष 2024 के तहत किये जाएंगे।
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1989 का मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक जलवायु समझौता नहीं है। इसका उद्देश्य क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) जैसे ओज़ोन क्षरण पदार्थों से पृथ्वी की रक्षा करना है, जिनका उपयोग पहले एयर कंडीशनिंग और रेफ्रिजरेंट उद्योग में किया जाता था।
- CFCs के व्यापक उपयोग के कारण वायुमंडल की ओज़ोन परत में छेद हो गया था, जिससे कुछ हानिकारक विकिरण पृथ्वी तक पहुँच गए। इन विकिरणों को संभावित स्वास्थ्य खतरा माना जाता था।
- मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने CFCs को हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) में परिवर्तित कर दिया जो ओज़ोन परत को नष्ट नहीं करते हैं।
- लेकिन बाद में उन्हें ग्लोबल वार्मिंग पैदा करने में बेहद शक्तिशाली पाया गया। इस प्रकार आवास वित्त कंपनियों ने एक समस्या का तो समाधान किया, लेकिन वह दूसरी में प्रमुख रूप से योगदान दे रही थी।
- मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के मूल प्रावधानों के तहत इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता था, जो केवल ओडीएस को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिये था।
- किगाली संशोधन ने मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को एचएफसी को अनिवार्य करने में सक्षम बनाया।
- अक्तूबर 2016 में संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में 197 देशों ने किगाली, रवांडा में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत एचएफसी कटौती को चरणबद्ध करने के लिये एक संशोधन को अपनाया।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन:
- किगाली संशोधन का उद्देश्य हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) के उत्पादन और खपत में कटौती कर उसे चरणबद्ध तरीके से कम करना है।
- इसका लक्ष्य वर्ष 2047 तक HFCs खपत में 80% से अधिक की कमी करना है।
- ओज़ोन परत के क्षरण पर इसके शून्य प्रभाव को देखते हुए HFCs का उपयोग वर्तमान में एयर कंडीशनिंग, प्रशीतन और फोम इन्सुलेशन में हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) व क्लोरोफ्लोरोकार्बन के प्रतिस्थापन के रूप में किया जाता है, हालाँकि ये शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें हैं।
- संशोधन के तहत:
- विकसित देश वर्ष 2019 से HFCs की खपत कम करेंगे।
- अधिकांश विकासशील देश वर्ष 2024 में खपत को स्थिर कर देंगे।
- भारत सहित कुछ विकासशील देश अद्वितीय परिस्थितियों के साथ वर्ष 2028 में खपत को स्थिर कर देंगे।
- यह योजना कुछ देशों को जलवायु-अनुकूल विकल्पों के संक्रमण में मदद करने हेतु वित्तपोषण भी प्रदान करती है।
- किगाली संशोधन के साथ मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ और भी अधिक शक्तिशाली साधन बन गया है।
महत्त्व:
- पूर्व-औद्योगिक काल से वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को रोकने के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु यह महत्त्वपूर्ण उपकरण है।
- जैसा कि जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है, पृथ्वी का औसत तापमान पहले ही लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है।
- सामूहिक कार्रवाई से ग्रीनहाउस गैसों के बराबर यानी 105 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के कम होने की उम्मीद है, जो वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 0.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करने में मदद कर सकता है, जबकि इसके बावज़ूद ओज़ोन परत के क्षरण को रोकने हेतु किये जाने वाले उपायों को जारी रखना होगा।
- चूंँकि HFCs ओजज़ोन-क्षयकारी नहीं थे और वे मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत नियंत्रित पदार्थों में शामिल नहीं थे बल्कि वे समस्याग्रस्त ग्रीनहाउस गैसों का हिस्सा थे जिनके उत्सर्जन को जलवायु परिवर्तन उपकरणों जैसे- वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल और वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के माध्यम से कम करने की मांँग की गई थी।
- लेकिन मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन के साधनों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी और सफल समझौता रहा है। इसके परिणामस्वरूप पहले ही 98.6% ओज़ोन-क्षयकारी पदार्थों को चरणबद्ध तरीके से हटाया जा चुका है। शेष 1.4% बचे हुए HCFCs पदार्थों को हटाने की प्रक्रिया जारी है।
भारत के लिये महत्त्व:
- भारत जून 1992 में ओज़ोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का एक पक्ष देश बन गया और तब से भारत ने मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में होने वाले संशोधनों को अपनी मंज़ूरी दी है। भारत ने मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल अनुसूची के अनुसार सभी ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों को हटाने के लक्ष्यों को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है।
- भारत वर्ष 2019 में कूलिंग एक्शन प्लान लॉन्च करने वाला विश्व का प्रथम देश है। इस व्यापक योजना का उद्देश्य कूलिंग डिमांड को कम करना, रेफ्रिजरेंट ट्रांज़िशन को सक्षम करना, ऊर्जा दक्षता को बढ़ाना और 20 वर्ष की समयावधि के साथ बेहतर प्रौद्योगिकी विकल्प उपलब्ध कराना है।
- किगाली संशोधन पर हस्ताक्षर बाज़ारों का HFCs से क्लीनर गैसों की और तेज़ी से झुकाव का एक संकेत है।
- यह घरेलू विनिर्माण और रोज़गार सृजन लक्ष्यों को बढ़ावा देगा।
- यह इस बात की पुष्टि करता है कि भारत ग्लोबल वार्मिंग को रोकने हेतु जलवायु अनुकूल रेफ्रिजरेंट हेतु बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये तैयार है, जो घरेलू नवाचार को बढ़ावा देगा और अंतर्राष्ट्रीय निवेश को आकर्षित करेगा।
- यह निर्णय भारत के लिये अपने जलवायु परिवर्तन शमन लक्ष्यों और शीतलन प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करेगा। भारत पेरिस समझौते के तहत अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने वाले देशों के समूह में शामिल है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
जल-मौसम संबंधी आपदाओं की व्यापकता
प्रिलिम्स के लियेभारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण मेन्स के लियेआपदा प्रबंधन |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में गृह मंत्रालय ने सूचित किया है कि पिछले तीन वर्षों में अचानक बाढ़, भूस्खलन और चक्रवात जैसी जल-मौसम संबंधी आपदाओं के कारण देश (पश्चिम बंगाल सूची में सबसे ऊपर है) में लगभग 6,800 लोगों की जान चली गई।
प्रमुख बिंदु
जल-मौसम संबंधी आपदाएँ:
- प्राकृतिक विपत्ति गंभीर प्राकृतिक घटनाएँ होती हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है: जल-मौसम विज्ञान और भूवैज्ञानिक खतरे।
- उष्णकटिबंधीय चक्रवात, भारी वर्षा, तेज आँधी, बाढ़ और सूखा जल-मौसम संबंधी खतरे हैं, जबकि भूकंप तथा ज्वालामुखी विस्फोट को भूवैज्ञानिक खतरों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है।
- भूस्खलन और हिमस्खलन भूवैज्ञानिक तथा जल-मौसम संबंधी कारकों के संयोजन के कारण होते हैं।
भारत की संवेदनशीलता:
- प्राकृतिक आपदाओं के प्रति देश की उच्च संवेदनशीलता का मूल कारण इसकी अनूठी भौगोलिक और भूवैज्ञानिक स्थितियाँ हैं।
- जहाँ तक आपदा की संवेदनशीलता का संबंध है, देश के चार विशिष्ट क्षेत्रों अर्थात् हिमालयी क्षेत्र, जलोढ़ मैदान, प्रायद्वीप के पहाड़ी भाग और तटीय क्षेत्र की अपनी विशिष्ट समस्याएँ हैं।
- जहाँ एक ओर हिमालय क्षेत्र भूकंप और भूस्खलन जैसी आपदाओं से ग्रस्त है, वहीं मैदानी क्षेत्र लगभग प्रत्येक वर्ष बाढ़ से प्रभावित होता है।
- देश का रेगिस्तानी हिस्सा सूखे और अकाल से प्रभावित है, जबकि तटीय क्षेत्र चक्रवात तथा तूफान के लिये अतिसंवेदनशील है।
- विभिन्न मानव प्रेरित गतिविधियाँ जैसे- बढ़ती जनसांख्यिकीय दबाव, बिगड़ती पर्यावरणीय स्थिति, वनों की कटाई, अवैज्ञानिक विकास, दोषपूर्ण कृषि पद्धतियाँ और चराई, अनियोजित शहरीकरण, नदी चैनलों पर बड़े बाँधों का निर्माण आदि देश में आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि के लिये ज़िम्मेदार हैं।
आपदा का प्रभाव:
- शारीरिक और मनोवैज्ञानिक:
- आपदा व्यक्तियों को शारीरिक तौर पर (जीवन की हानि, चोट, स्वास्थ्य, विकलांगता आदि) और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करती है।
- आपदा के परिणामस्वरूप लोगों का विस्थापन होता है तथा विस्थापित आबादी को अक्सर नई बस्तियों में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इस प्रक्रिया में गरीब और अधिक गरीब हो जाते हैं।
- प्राकृतिक पर्यावरण में बदलाव:
- आपदा प्राकृतिक पर्यावरण को बदल सकती है, जो कई पौधों और जानवरों के आवास का नुकसान तथा पारिस्थितिक तनाव उत्पन्न कर सकती है जिसके परिणामस्वरूप जैव विविधता का नुकसान हो सकता है।
आपदा प्रबंधन:
- भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण: इसकी स्थापना वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत की गई थी।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना: वर्ष 2016 में जारी यह आपदा प्रबंधन के लिये देश में तैयार की गई पहली राष्ट्रीय योजना है।
- राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण: संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में यह राज्य में आपदा प्रबंधन के लिये नीतियों और योजनाओं को निर्धारित करता है।
- ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण: इस अधिनियम की धारा 25 में राज्य के प्रत्येक ज़िले के लिये ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (District Disaster Management Authority) के गठन का प्रावधान है।
- अन्य उपायों में राष्ट्रीय चक्रवात जोखिम शमन परियोजना, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया रिज़र्व, आपदा मित्र योजना आदि शामिल हैं।
आपदा जोखिम न्यूनीकरण में चुनौतियाँ :
- निगरानी गतिविधि का खराब कार्यान्वयन :
- प्रत्येक निगरानी गतिविधि हेतु कार्यान्वयन का अपर्याप्त स्तर है। उदाहरण- आपदा जोखिम प्रबंधन योजनाएँ या जोखिम संवेदनशील बिल्डिंग कोड मौजूद हैं लेकिन सरकारी क्षमता या जन-जागरूकता की कमी के कारण उन्हें लागू नहीं किया जाता है।
- स्थानीय क्षमताओं की कमी:
- स्थानीय स्तर पर कमज़ोर क्षमता आपदा तैयारी योजनाओं के कार्यान्वयन को बाधित करती है।
- जलवायु परिवर्तन:
- आपदा जोखिम प्रबंधन योजनाओं में जलवायु परिवर्तन के एकीकरण का अभाव।
- प्रतिबद्धताओं में अंतर:
- अन्य प्रतिस्पर्द्धी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं जैसे- गरीबी में कमी, सामाजिक कल्याण, शिक्षा आदि के कारण राजनीतिक तथा आर्थिक प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करने में भिन्नता की स्थिति है, जिस पर अधिक ध्यान देने के साथ ही धन की आवश्यकता होती है।
- समन्वय की कमी:
- हितधारकों के बीच खराब समन्वय के कारण जोखिम मूल्यांकन, निगरानी, पूर्व चेतावनी, आपदा प्रतिक्रिया तथा अन्य आपदा संबंधी गतिविधियों के संबंध में अपर्याप्त पहुँच है।
- अपर्याप्त निवेश:
- आपदा प्रतिरोधी रणनीतियों के निर्माण में अपर्याप्त निवेश, निवेश के हिस्से में निजी क्षेत्र का सबसे कम योगदान है।
आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये पहल:
- आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क 2015-2030
- वर्तमान ढाँचा प्राकृतिक या मानव निर्मित खतरों के साथ-साथ पर्यावरणीय, तकनीकी एवं जैविक खतरों तथा जोखिमों के सभी प्रासंगिक क्षेत्रों पर लागू होता है।
- इसको ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (Hyogo Framework for Action) 2005-2015 के उत्तराधिकारी समझौते के रूप में माना जाता है।
- संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UNDRR):
- UNDRR (पूर्व में UNISDR) आपदा जोखिम में कमी के लिये संयुक्त राष्ट्र का केंद्रबिंदु है।
- यह 2015-2030 के लिये आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर सेंदाई फ्रेमवर्क को लागू करने हेतु एक निर्दिष्ट राष्ट्रीय केंद्रबिंदु है, जो कार्यान्वयन, निगरानी और साझाकरण के कार्यों में देशों का समर्थन करता है और मौजूदा जोखिम को कम करने तथा नए जोखिम को रोकने में काम करता है।
- आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिये गठबंधन (CDRI):
- भारत के नेतृत्व में वर्ष 2019 में स्थापित इस गठबंधन का उद्देश्य सतत् विकास के समर्थन में जलवायु और आपदा जोखिमों के लिये नए और मौजूदा बुनियादी ढाँचे से संबंधित प्रणालियों के लचीलेपन को बढ़ावा देना है।
आगे की राह
- हालाँकि आपदा प्रबंधन अधिनियम ने निस्संदेह आपदाओं से निपटने की दिशा में सरकारी कार्यों की योजना में एक बड़ा अंतर को समाप्त कर दिया है, केवल कागज़ पर विस्तृत योजनाएँ तैयार करने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है जब तक कि उनका प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित नहीं किया जाता है।
- नागरिक समाज, निजी उद्यम और गैर-सरकारी संगठन (NGO) एक सुरक्षित भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
स्रोत : द हिंदू
फ्यूज़न इग्निशन
प्रिलिम्स के लिये:फ्यूज़न इग्निशन, हीलियम, प्लाज़्मा, परमाणु संलयन बनाम परमाणु विखंडन मेन्स के लिये:फ्यूज़न इग्निशन का स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी’ (जो कैलिफोर्निया, यूएस में नेशनल इग्निशन फैसिलिटी का संचालन करती है) के शोधकर्त्ताओं ने पहली बार "फ्यूज़न इग्निशन" का प्रदर्शन किया है।
- इस सफलता ने दुनिया को नाभिकीय संलयन के माध्यम से असीमित स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन के सपने के लगभग करीब ला दिया है।
प्रमुख बिंदु
प्रयोग के बारे में:
- उन्होंने फ्यूल पैलेट्स पर ऊष्मा उत्सर्जन के लिये लेज़र ऊर्जा प्रवाहित की और सूर्य के केंद्र के समान परिस्थितियों में उन पर दबाव डाला।
- इसने संलयन प्रतिक्रियाओं को उत्तेजित किया।
- इन प्रतिक्रियाओं से अल्फा कण (हीलियम) नामक धनात्मक आवेशित कण निकलते हैं, जो बदले में आसपास के प्लाज़्मा को गर्म करते हैं।
- गर्म प्लाज़्मा ने अल्फा कण भी उत्सर्जित किये और एक आत्मनिर्भर प्रतिक्रिया हुई जिसे ‘इग्निशन’ कहा जाता है।
- ‘इग्निशन’ परमाणु संलयन प्रतिक्रिया से ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने में मदद करता है और यह भविष्य के लिये स्वच्छ ऊर्जा प्रदान करने में मदद कर सकता है।
प्रयोग का महत्त्व: सूर्य के केंद्र में स्थितियों से संबंधित अध्ययन की अनुमति देगा:
- प्लाज़्मा पदार्थ की वह अवस्था है जो पहले कभी प्रयोगशाला में नहीं बनी।
- पदार्थ की क्वांटम अवस्थाओं में अंतर्दृष्टि प्राप्त करना।
- बिग बैंग की शुरुआत के करीब की स्थितियाँ।
नाभिकीय संलयन:
- परमाणु संलयन को कई छोटे नाभिकों के एक बड़े नाभिक में संयोजन के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके बाद बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है।
- संलयन वह प्रक्रिया है जो सूर्य को शक्ति प्रदान करती है और एक असीम, स्वच्छ ऊर्जा स्रोत प्रदान कर सकती है।
- सूरज में अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण द्वारा उत्पन्न अत्यधिक दबाव संलयन की स्थिति पैदा करता है।
- संलयन अभिक्रियाएँ प्लाज़्मा नामक पदार्थ की अवस्था में होती हैं। प्लाज़्मा एक गर्म, आवेशित गैस है जो सकारात्मक आयनों और मुक्त गति वाले इलेक्ट्रॉनों से बनी होती है जिसमें ठोस, तरल एवं गैसों से अलग अद्वितीय गुण होते हैं।
- उच्च तापमान पर इलेक्ट्रॉन परमाणु के नाभिक से अलग हो जाते हैं और प्लाज़्मा या पदार्थ की आयनित अवस्था बन जाते हैं। प्लाज़्मा को पदार्थ की चौथी अवस्था के रूप में भी जाना जाता है।
नाभिकीय संलयन के लाभ:
- प्रचुर मात्रा में ऊर्जा: नियंत्रित तरीके से परमाणुओं को एक साथ मिलाने से कोयले, तेल या गैस के जलने जैसी रासायनिक प्रतिक्रिया की तुलना में लगभग चार मिलियन गुना अधिक ऊर्जा और परमाणु विखंडन प्रतिक्रियाओं (समान द्रव्यमान पर) की तुलना में चार गुना अधिक ऊर्जा उत्सर्जित होती है।
- संलयन की क्रिया में शहरों और उद्योगों को बिजली प्रदान करने हेतु आवश्यक बेसलोड ऊर्जा (Baseload Energy) प्रदान करने की क्षमता है।
- स्थिरता: संलयन आधारित ईंधन व्यापक रूप से उपलब्ध हैं और लगभग अखंडनीय हैं। ड्यूटेरियम को सभी प्रकार के जल से डिस्टिल्ड किया जा सकता है, जबकि फ्यूज़न प्रतिक्रिया के दौरान ट्रिटियम का उत्पादन किया जाएगा क्योंकि न्यूट्रॉन लिथियम के साथ फ्यूज़न करते हैं।
- CO₂ का उत्सर्जन नहीं: संलयन की क्रिया से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों जैसे हानिकारक विषाक्त पदार्थों का उत्सर्जन नहीं होता है। इसका प्रमुख सह- उत्पाद हीलियम है जो कि एक अक्रिय और गैर-विषाक्त गैस है।
- लंबे समय तक रहने वाला रेडियोधर्मी कचरे से बचाव: परमाणु संलयन रिएक्टर कोई उच्च गतिविधि, लंबे समय तक रहने वाले परमाणु अपशिष्ट का उत्पादन नहीं करते हैं।
- प्रसार का सीमित जोखिम: फ्यूज़न में यूरेनियम और प्लूटोनियम जैसे विखंडनीय पदार्थ उत्पन्न नहीं होते हैं (रेडियोधर्मी ट्रिटियम न तो विखंडनीय है और न ही विखंडनीय सामग्री है)।
- मेल्टडाउन का कोई खतरा नहीं: संलयन के लिये आवश्यक सटीक स्थितियों तक पहुंँचना और उन्हें बनाए रखना काफी मुश्किल है तथा यदि संलयन की प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी होती है, तो प्लाज़्मा सेकंड के भीतर ठंडा हो जाता है और प्रतिक्रिया बंद हो जाती है।
अन्य संबंधित पहलें:
- इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) असेंबली: इसका उद्देश्य ऊर्जा के व्यापक और कार्बन मुक्त स्रोत के रूप में ‘नाभिकीय संलयन’ की व्यवहार्यता को साबित करने के लिये दुनिया के सबसे बड़े टोकामक का निर्माण करना है। ITER के सदस्यों में चीन, यूरोपीय संघ, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
- चीन का कृत्रिम सूर्य: चीन द्वारा डिज़ाइन किया गया ‘प्रायोगिक उन्नत सुपरकंडक्टिंग टोकामक’ (EAST) उपकरण सूर्य द्वारा किये गए परमाणु संलयन प्रक्रिया के समान प्रक्रिया का संचालन करता है।
परमाणु संलयन बनाम परमाणु विखंडन
परमाणु विखंडन |
परमाणु संलयन |
|
परिभाषा |
विखंडन का आशय एक बड़े परमाणु का दो या दो से अधिक छोटे परमाणुओं में विभाजन से है। |
नाभिकीय संलयन का आशय दो हल्के परमाणुओं के संयोजन से एक भारी परमाणु नाभिक के निर्माण की प्रकिया से है। |
घटना |
विखंडन प्रकिया सामान्य रूप से प्रकृति में घटित नहीं होती है। |
प्रायः सूर्य जैसे तारों में संलयन प्रक्रिया घटित होती है। |
ऊर्जा आवश्यकता |
विखंडन प्रकिया में दो परमाणुओं को विभाजित करने में बहुत कम ऊर्जा लगती है। |
दो या दो से अधिक प्रोटॉन को एक साथ लाने के लिये अत्यधिक उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है। |
प्राप्त ऊर्जा |
विखंडन द्वारा जारी ऊर्जा रासायनिक प्रतिक्रियाओं में जारी ऊर्जा की तुलना में एक लाख गुना अधिक होती है, हालाँकि यह परमाणु संलयन द्वारा जारी ऊर्जा से कम होती है। |
संलयन से प्राप्त ऊर्जा विखंडन से निकलने वाली ऊर्जा से तीन से चार गुना अधिक होती है। |
ऊर्जा उत्पादन |
विखंडन प्रकिया का उपयोग परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में किया जाता है। |
यह ऊर्जा उत्पादन के लिये एक प्रायोगिक तकनीक है। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम 2.0
प्रिलिम्स के लियेभारतीय रिज़र्व बैंक, सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम, यील्ड कर्व, सरकारी प्रतिभूतियाँ मेन्स के लियेसरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम का महत्त्व और इससे संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘भारतीय रिज़र्व बैंक’ (RBI) ने घोषणा की है कि वह ‘सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम’ के दूसरे चरण (G-SAP 2.0) के तहत 25,000 करोड़ रुपए की सरकारी प्रतिभूतियों की खुले बाज़ार में खरीद करेगा।
- इससे पूर्व G-SAP 1.0 कार्यक्रम के तहत कुल 25,000 करोड़ रुपए की राशि की सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदी गई थीं।
प्रमुख बिंदु
सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम (G-SAP):
- परिचय: सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम (G-SAP) मूलतः एक व्यापक आकार का बिना शर्त ‘संरचित ओपन मार्केट ऑपरेशन’ (OMO) है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक ने G-SAP कार्यक्रम को एक 'विशिष्ट विशेषता’ वाले ‘ओपन मार्केट ऑपरेशन’ के रूप में परिभाषित किया है।
- यहाँ 'बिना शर्त' होने का अर्थ है कि रिज़र्व बैंक ने पहले ही प्रतिबद्धता व्यक्त की है कि वह बाज़ार की भावना के बावजूद सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदेगा।
- उद्देश्य: अर्थव्यवस्था में तरलता के प्रबंधन के साथ-साथ ‘यील्ड कर्व’ का एक स्थिर और व्यवस्थित विकास सुनिश्चित करना।
- महत्त्व: सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम (G-SAP) से मुख्य तौर पर सरकार को लाभ होगा।
- सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदकर रिज़र्व बैंक अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति करता है, जो बदले में यील्ड को कम रखता है और सरकार की उधार लागत को कम कर देता है।
- जब तक दीर्घावधिक उधार लागत कम रहेगी, भारत सरकार को अपने व्यापक उधार कार्यक्रम (उदाहरण के लिये राष्ट्रीय बुनियादी ढाँचा पाइपलाइन परियोजना) के लिये अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा।
- मुद्दे: सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम (G-SAP) के आलोचकों का कहना है कि इसके कारण रुपए पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
- आलोचकों के मुताबिक, सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम की घोषणा से पहले ही रुपए का मूल्यह्रास (मुद्रा के मूल्य में गिरावट) हो चुका है।
- इसलिये आलोचक इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि गिरते रुपए और कम उधार लागत/कम यील्ड के बीच संतुलन स्थापित करना आवश्यक है।
- इसके अलावा यह तरलता मुद्रास्फीति को भी बढ़ावा देती है।
खुला बाज़ार परिचालन (OMO):
- खुला बाज़ार परिचालन भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रयोग किये जाने वाला एक मात्रात्मक मौद्रिक उपकरण है, जिसका उपयोग RBI द्वारा वर्ष भर तरलता की संतुलित स्थिति को बनाए रखने और ब्याज़ दर तथा मुद्रास्फीति के स्तर पर इसके प्रभाव को सीमित करने के लिये किया जाता है।
- मुद्रा आपूर्ति शर्तों को समायोजित करने के लिये RBI द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों (g-sec) की बिक्री या खरीद के माध्यम से OMO आयोजित किये जाते हैं।
- केंद्रीय बैंक संपूर्ण प्रणाली से तरलता को दूर करने के लिये सरकारी प्रतिभूतियों को बेचता है और पुनः प्रणाली में तरलता को समाविष्ट करने के लिये सरकारी प्रतिभूतियाँ वापस खरीदता है।
- ये परिचालन प्रायः दिन-प्रतिदिन के आधार पर इस तरह से आयोजित किये जाते हैं कि मुद्रास्फीति को संतुलित करते हुए बैंकों को उधार देना जारी रखने में मदद मिलती है।
- RBI वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से OMO का संचालन करता है और जनता के साथ प्रत्यक्ष लेन-देन नहीं करता है।
- RBI, प्रणाली में मुद्रा की मात्रा और कीमत को समायोजित करने के लिये अन्य मौद्रिक नीति उपकरणों जैसे- रेपो दर, नकद आरक्षित अनुपात तथा वैधानिक तरलता अनुपात के साथ OMO का उपयोग करता है।
सरकारी प्रतिभूति
- सरकारी प्रतिभूति (G-Sec) केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा जारी एक व्यापार योग्य लिखत (Instrument) है।
- यह सरकार के ऋण दायित्व को स्वीकार करता है। ऐसी प्रतिभूतियाँ अल्पकालिक (आमतौर पर एक वर्ष से भी कम समय की परिपक्वता अवधि वाली इन प्रतिभूतियों को ट्रेज़री बिल कहा जाता है जिसे वर्तमान में तीन रूपों में जारी किया जाता है, अर्थात् 91 दिन, 182 दिन और 364 दिन) या दीर्घकालिक (आमतौर पर एक वर्ष या उससे अधिक की मेच्योरिटी वाली इन प्रतिभूतियों को सरकारी बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियाँ कहा जाता है) होती हैं।
- भारत में केंद्र सरकार ट्रेज़री बिल और बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियाँ दोनों को जारी करती है, जबकि राज्य सरकारें केवल बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियों को जारी करती हैं, जिन्हें राज्य विकास ऋण (SDL) कहा जाता है।
- सरकारी प्रतिभूतियों में व्यावहारिक रूप से डिफॉल्ट का कोई जोखिम नहीं होता है इसलिये इन्हें जोखिम मुक्त गिल्ट-धारित लिखत/उपकरण के रूप में भी जाना जाता है।
- गिल्ट-धारित प्रतिभूतियाँ उच्च श्रेणी के निवेश बॉण्ड हैं जिन्हें सरकारों और बड़े निगमों द्वारा उधार लेने के साधन के रूप में पेश किया जाता है।
यील्ड कर्व
- बॉण्ड यील्ड वह रिटर्न है जो एक निवेशक को बॉण्ड पर मिलता है।
- प्रतिफल/यील्ड की गणना के लिये वार्षिक कूपन दर (बॉण्ड जारीकर्त्ता द्वारा करार/स्वीकृत किया गया ब्याज दर) को बॉण्ड के मौजूदा बाज़ार मूल्य से विभाजित किया जाता है।
- प्रतिफल/यील्ड में उतार-चढ़ाव ब्याज दरों के रुझान पर निर्भर करता है, इसके परिणामस्वरूप निवेशकों को पूंजीगत लाभ या हानि हो सकती है।
- बाज़ार में बॉण्ड यील्ड बढ़ने से बॉण्ड की कीमत नीचे आ जाएगी।
- बॉण्ड यील्ड में गिरावट से निवेशक को लाभ होगा क्योंकि बॉण्ड की कीमत बढ़ेगी, जिससे पूंजीगत लाभ होगा।
- यील्ड कर्व एक ऐसी रेखा है, जो समान क्रेडिट गुणवत्ता वाले, लेकिन अलग-अलग परिपक्वता तिथियों वाले बॉण्ड की ब्याज़ दर को दर्शाती है।
- ‘यील्ड कर्व’ का ढलान भविष्य की ब्याज़ दर में बदलाव और आर्थिक गतिविधि को आधार प्रदान करता है।
स्रोत: द हिंदू
आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की धीमी गति
प्रिलिम्स के लियेराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता, मलिमथ समिति मेन्स के लियेआपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार: प्रासंगिकता व महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के तहत विशेषज्ञों के एक समूह ने त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की धीमी गति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission-NHRC) एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था है, जिसकी स्थापना मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के तहत 12 अक्तूबर, 1993 को की गई थी, जिसे बाद में 2006 में संशोधित किया गया।
प्रमुख बिंदु
भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली :
- आपराधिक न्याय प्रणाली का तात्पर्य सरकार की उन एजेंसियों से है जो कानून लागू करने, आपराधिक मामलों पर निर्णय देने और आपराधिक आचरण में सुधार करने हेतु कार्यरत हैं।
- वास्तव में आपराधिक न्याय प्रणाली सामाजिक नियंत्रण का एक साधन होती है।
- आपराधिक न्याय प्रणाली सुधारों में आमतौर पर सुधारों के तीन सेट शामिल हैं जैसे- न्यायिक सुधार, जेल सुधार, पुलिस सुधार।
- उद्देश्य :
- आपराधिक घटनाओं को रोकना।
- अपराधियों और दोषियों को दंडित करना।
- अपराधियों और दोषियों का पुनर्वास।
- पीड़ितों को यथासंभव मुआवज़ दिलाना।
- समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना।
- अपराधियों को भविष्य में कोई भी आपराधिक कृत्य करने से रोकना।
भारत में आपराधिक न्यायशास्त्र के लिये कानूनी ढाँचा :
- भारतीय दंड संहिता (IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक संहिता है। इसे 1860 में लॉर्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले की अध्यक्षता में 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत 1834 में स्थापित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों पर तैयार किया गया था।
- आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 भारत में आपराधिक कानून के क्रियान्यवन के लिये मुख्य कानून है। यह वर्ष 1973 में पारित हुआ तथा 1 अप्रैल, 1974 से लागू हुआ।
आपराधिक न्याय प्रणाली संबंधी मुद्दे :
- बड़े पैमाने पर लंबित मामले : उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों और ज़िला अदालतों में लगभग 4.4 करोड़ मामले (Cases) लंबित थे।
- विचाराधीन कैदियों की उच्च संख्या : सबसे अधिक विचाराधीन कैदियों के मामले में भारत, विश्व के प्रमुख देशों में से एक है। यह अनुभव किया गया कि मामलों के निपटारे में देरी के परिणामस्वरूप विचाराधीन और दोषी कैदियों के मामलों से संबंधित अन्य व्यक्तियों के मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है।
- पुलिस सुधारों में देरी : पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर शायद ही कोई परिवर्तन हुआ हो।
- न्याय के त्वरित और पारदर्शी वितरण में भ्रष्टाचार, वर्कलोड तथा पुलिस की जवाबदेही एक बड़ी बाधा है।
- औपनिवेशिक युग के कानून : भारत में आपराधिक कानूनों का संहिताकरण ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था, जो आमतौर पर 21वीं सदी में भी वैसा ही बना हुआ है।
सुझाव:
- आईपीसी में कुछ प्रावधानों को हटाया जा सकता है और ‘अपकृत्य विधि’ (Law of Torts) के तहत निवारण हेतु छोड़ दिया जा सकता है, जैसा कि इंग्लैंड में है।
- दस्तावेज़ों के डिजिटलीकरण से जाँच और परीक्षण में तेज़ी लाने में मदद मिलेगी।
- पुलिसकर्मियों के बीच कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, एक क्षेत्र में शिकायतों की संख्या के अनुपात में पुलिसकर्मियों और स्टेशनों की संख्या में वृद्धि करना तथा आपराधिक न्याय प्रणाली में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों को शामिल करना।
- पीड़ित के अधिकारों और स्मार्ट पुलिसिंग पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। पुलिस अधिकारियों की दोषसिद्धि की दर तथा उनके द्वारा कानून का पालन न करने की दर का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
- मलिमथ समिति (2000) की सिफारिशों का कार्यान्वयन।
मलिमथ समिति (2000) की सिफारिशों का कार्यान्वयन।
- अभियुक्तों के अधिकार: समिति ने सुझाव दिया कि संहिता की एक अनुसूची सभी क्षेत्रीय भाषाओं में लाई जाए ताकि अभियुक्त को अपने अधिकारों के बारे में पता हो, साथ ही यह भी कि उन्हें कैसे लागू किया जाए और उन अधिकारों से वंचित होने पर किससे संपर्क किया जाए।
- पुलिस जाँच: समिति ने कानून और व्यवस्था से जाँच विंग को अलग करने का सुझाव दिया।
- न्यायालय और न्यायाधीश: रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात 10.5 प्रति मिलियन जनसंख्या है, जबकि दुनिया के कई हिस्सों में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश हैं।
- इसने न्यायाधीशों और न्यायालयों की ताकत बढ़ाने का सुझाव दिया।
- गवाह संरक्षण: इसने अलग गवाह संरक्षण कानून का सुझाव दिया ताकि गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और उनसे सम्मान के साथ व्यवहार किया जा सके।
- न्यायालय के अवकाश: इसने लंबे समय से लंबित मामलों के कारण अदालत की छुट्टियों को कम करने की सिफारिश की।
स्रोत- द हिंदू
‘प्रसाद’ योजना
प्रिलिम्स के लिये‘प्रसाद’ योजना, सोमनाथ मंदिर, नागर शैली, सोमपुरा सलात मेन्स के लियेवास्तुकला की विभिन्न शैलियों की विशेषताएँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री ने 47 करोड़ रुपए से अधिक की कुल लागत से ‘प्रसाद’ (तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक, विरासत संवर्द्धन अभियान-PRASHAD) योजना के तहत सोमनाथ, गुजरात में विभिन्न परियोजनाओं का उद्घाटन किया है।
प्रमुख बिंदु
परिचय
- 'पर्यटक सुविधा केंद्र' के परिसर में निर्मित सोमनाथ प्रदर्शनी केंद्र, पुराने सोमनाथ मंदिर के खंडित हिस्सों और नागर शैली के मंदिर वास्तुकला वाले मूर्तियों को प्रदर्शित करता है।
- इस मंदिर को अहिल्याबाई मंदिर के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि इसे इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने तब बनवाया था।
- श्री पार्वती मंदिर का निर्माण कुल 30 करोड़ रुपए के परिव्यय से प्रस्तावित है। इसमें सोमपुरा सलात शैली में मंदिर निर्माण, गर्भगृह और नृत्य मंडप का विकास किया जाएगा।
‘प्रसाद’ (PRASHAD) योजना
- शुरुआत:
- पर्यटन मंत्रालय द्वारा वर्ष 2014-15 में चिह्नित तीर्थ स्थलों के समग्र विकास के उद्देश्य से 'तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक संवर्द्धन पर राष्ट्रीय मिशन' शुरू किया गया था।
- अक्तूबर 2017 में योजना का नाम बदलकर ‘तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक विरासत संवर्द्धन अभियान’ (यानी ‘प्रसाद’) राष्ट्रीय मिशन कर दिया गया।
- क्रियान्वयन एजेंसी:
- इस योजना के तहत चिह्नित परियोजनाओं को संबंधित राज्य/संघ राज्य क्षेत्र की सरकार द्वारा चिह्नित एजेंसियों के माध्यम से क्रियान्वित किया जाएगा।
- उद्देश्य:
- महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय/वैश्विक तीर्थ और विरासत स्थलों का कायाकल्प एवं आध्यात्मिक संवर्द्धन।
- समुदाय आधारित विकास का पालन करना और स्थानीय समुदायों में जागरूकता पैदा करना।
- आजीविका उत्पन्न करने के लिये विरासत शहर, स्थानीय कला, संस्कृति, हस्तशिल्प, व्यंजन आदि का एकीकृत पर्यटन विकास।
- अवसंरचनात्मक कमियों को दूर करने के लिये तंत्र को सुदृढ़ बनाना।
- वित्तपोषण:
- इसके तहत पर्यटन मंत्रालय द्वारा चिह्नित स्थलों पर पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये राज्य सरकारों को केंद्रीय वित्तीय सहायता (CFA) प्रदान की जाती है।
- इस योजना के तहत सार्वजनिक वित्तपोषण के घटकों के लिये शत-प्रतिशत निधि केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जाएगी।
- परियोजना की बेहतर स्थिरता/निरंतरता के लिये यह सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) को भी शामिल करने का उद्देश्य रखता है।
नागर या उत्तर भारतीय मंदिर शैली:
- उत्तर भारत में सामान्यत: एक पत्थर के चबूतरे पर संपूर्ण मंदिर का निर्माण होता है, जिसकी सीढ़ियाँ ऊपर तक जाती हैं। इसके अलावा दक्षिण भारत के विपरीत इसमें आमतौर पर विस्तृत चहारदीवारी या प्रवेश द्वार नहीं होते हैं।
- जबकि आरंभिक मंदिरों में सिर्फ एक मीनार या शिखर होता था, लेकिन समय के साथ-साथ मंदिरों में कई मीनार या शिखर बनाये जाने लगे। गर्भगृह हमेशा सबसे ऊँचे शिखर के नीचे स्थापित होता है।
- शिखर के आकार के आधार पर नागर मंदिरों के कई उपखंड हैं।
- भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में मंदिर के विभिन्न हिस्सों के अलग-अलग नाम हैं।
- साधारण शिखर के लिये सबसे सामान्य नाम जो आधार से वर्गाकार है और जिसकी दीवारें ऊपर की ओर एक बिंदु पर वक्र या ढलान वाली होती हैं, इसे 'लैटिना' या रेखा-प्रसाद का शिखर कहा जाता है।
- नागर क्रम में दूसरा प्रमुख प्रकार का स्थापत्य रूप फामसन है, जो लैटिना की तुलना में व्यापक और छोटा होता है।
- नागर भवन के तीसरे मुख्य उप-प्रकार को सामान्यत: वल्लभी प्रकार कहा जाता है। ये एक छत के साथ आयताकार इमारतें हैं जो एक गुंबददार कक्ष में स्थापित की जाती हैं।
सोमपुरा सलात (मंदिर वास्तुकला शिल्पकार)
परिचय:
- सोमपुरा (या सोमपुरा सलात) उन लोगों का एक समूह है जिन्होंने कलात्मक और चिनाई के काम को एक व्यवसाय के रूप में लिया और सोमपुरा ब्राह्मण समुदाय से अलग हो गए।
- वे सोमपुरा ब्राह्मण या प्रभास पाटन का एक वर्ग हैं जिसे कभी सोमपुरा कहा जाता था क्योंकि इसकी स्थापना चंद्र (चंद्रमा देवता) ने की थी।
- हालाँकि सोमपुरा ब्राह्मण उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं।
- वे विवाह के लिये एक सख्त नियम के रूप में कबीले को बनाए रखते हैं।
मूल:
- सोमपुरा मूल रूप से पटना, गुजरात के रहने वाले थे और उन्हें चित्तौड़गढ़ में बसने के लिये आमंत्रित किया गया था।
कार्य:
- पिछली पाँच शताब्दियों के दौरान वे गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में कई जैन मंदिरों के साथ-साथ भारत के अन्य हिस्सों में जैनियों द्वारा बनाए गए मंदिरों के निर्माण व जीर्णोद्धार में शामिल रहे हैं।
- हालाँकि इनकी परंपराएँ शिल्प शास्त्रों की शिक्षा और प्राचीन मंदिर वास्तुकला को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का आह्वान करती हैं, आधुनिक युग उस तकनीक के कुछ उन्नयन की मांग करता है।
- राम जन्मभूमि मंदिर भी सोमपुरा परिवार द्वारा डिज़ाइन किया गया है।